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________________ ५६८ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश गतैर्लोहितानां शोणितानां शीकरैः । एवं गजानां घटासु च मदजलैः । व्यवच्छिद्यत इत्यनुषज्यते ||३७| विमला -- आकाश में व्याप्त धूल ( कपियों के द्वारा ऊपर उठाये गये ) पर्वतों के झरनों से, रणस्थल में इधर-उधर गये हुये शोणितशीकरों से तथा गजसमूह में मदजल से प्रशान्त हो गयी ||३७|| अथ कपीनां भुजभङ्गमाहविस हिअखग्गरपहरा गइन्ददन्तोल्लिहिअग्गलापडिरूआ | सेलाइञ्छगवलिआ विसमं भज्जन्ति पवअबाहुप्फडिहा ||३८| [ विसोढ़खड्गप्रहारा गजेन्द्रदन्तोल्लिखितार्गला प्रतिरूपाः । शैलातिक्रमवलिता विषमं भज्यन्ते प्लवङ्गबाहुपरिघाः ॥ ] प्लवङ्गानां बाहुपरिघा भज्यन्ते त्रुट्यन्ति । विषमं विसदृशं यथा स्यात्तथा । किंभूताः । विसोढः खड्ग प्रहारो यैः । अत एव गजेन्द्रदन्ताभ्यां लिखिता याला तत्प्रतिरूपास्तत्तुल्याः । खड्गव्रणानां दन्तोल्लेखचिह्न रर्गलाभिश्च बाहूनामुपमा । यद्वा गजेन्द्रदन्तोल्लिखिताश्च अर्गला प्रतिरूपाश्चेति कर्मधारयः । भिन्नत्वे हेतुमाह - शैलानामतिक्रमेण क्षत्तोत्पत्त्या धारणासामर्थ्यादधःपतनेन वलिता यन्त्रणमासाद्य वक्रीभूताः । अत एव द्विधा भवन्तीत्यर्थः ||३८|| विमला - वानरों की भुजायें, जिन्होंने खड्गप्रहारों को सहा, जो गजेन्द्रों के दाँतों से उल्लिखित ( उल्लेखचिह्नों से युक्त ) अतएव अर्गलातुल्य हो रही थीं तथा जो क्षत-विक्षत होने के कारण ) पर्वतों को धारण करने में असमर्थ होने से झुक गयीं, अतएव बुरी तरह टूट गयीं ॥ ३८ ॥ अथ पक्षिणां रुधिरत्यागमाह तेव्हाइओ वि सुदरं संणाहच्छे अगम्भिणम्मि वणमुहे । णिव्वलि लोहविरसं ण पिअइ प्रमुअइ चक्खिऊण विहङ्गो ||३९ ॥ [ तृषितोऽपि सुचिरं संनाहच्छेदर्गाभते व्रणमुखे । निर्वलितलोहविरसं न पिबत्यामुश्वत्यास्वाद्य विहङ्गः ॥ विहङ्गो गृध्रादिः सुचिरं तृषायुक्तोऽपि सन् संनाहस्य छेदेन खण्डेन गर्भिते गर्भस्थतच्छेदे व्रणस्य मुखे रुधिरनिर्गमस्थाने रुधिरमास्वाद्येषज्जिह्वयालिह्य न पिबति । किंत्वामुञ्चति त्यजति । अत्र हेतुमाह - - किंभूतम् । निर्वलितेन पृथग्भूतेन संनाहस्य लोहेन तत्कणेन विरसम् । लोहकणिका संपर्काद्विस्वादमित्यर्थः || ३६ || विमला - ( गृध्रादि ) पक्षी बहुत समय से प्यासे होने पर भी संनाह के छेद से गर्भित रुधिर निकलने के स्थान पर रुधिर को थोड़ा-सा जिह्वा से चाट लेने के बाद नहीं पीते थे, क्योंकि वह ( रुधिर ) संनाह के पृथक् हुये लोहकण के सम्पर्क से स्वादरहित हो गया था ।। ३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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