SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 681
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६४] सेतुबन्धम् [पञ्चदश मध्येषु दृश्यन्ते, धारावाहित्वात् । तथा च कदा गृहीताः कदा त्यक्ता इति न ज्ञायत इति भावः ॥६६॥ विमला-राम और रावण दोनों के बायें हाथ ( दण्डाकार ) फैले हुये, दाहिने हाथ दायें नेत्र के कोने के पास स्थित तथा धनुष पर नियोजित बाण दोनों के मध्यदेश में दिखायी देते थे ॥६६॥ अथ रामस्य रावणशराभिघातमाह दहमुहविसज्जिएण अ सरेण सीमाविमोप्रसइसंतत्तम् । हिअ अमुक्कधीरं णिहाअभिण्णं पि राहवेण ण णाअम् ।।७०॥ [ दशमुखविसृष्टेन च शरेण सीतावियोगसदासंतप्तम् ।। हृदयममुक्तधेयं निघातभिन्नमपि राघवेण न ज्ञातम् ।।] दशमुखत्यक्तेन च शरेण निघातः संघट्टविशेषस्तेन भिन्नमपि ताडितमपि हृदयं राघवेण न ज्ञातम् । सीतावियोगेन संतप्तं यतः । संतापेनव बधिरीकृतत्वादिति भावः । न हि प्रौढविषमूच्छितमपि जनं विषान्तरं मूच्छंयतीत्याशयः । अत एव ममुक्तधैर्यम् । धैर्यविशिष्टमित्यर्थः ।।७०॥ विमला-रावण के छोड़े गये बाण के प्रहार-विशेष से ताड़ित होने पर भी सीता के वियोग से सदा सन्तप्त होने के कारण हृदय के ताड़ित होने की पीडा का अनुभव राम को नहीं हुआ, अतएव उनके हृदय ने धैर्य नहीं छोड़ा ॥७॥ अथ रावणस्य रामशराभिघातमाहरहुणाहपेसिएण अ सरेण समुहागमस्स रक्खसवइणो। भिण्णो पिडालवट्टो ण अ से फुडभिउडिविरअणा विद्दविआ॥७१॥ [ रघुनाथप्रेषितेन च शरेण संमुखागतस्य राक्षसपतेः। भिन्नं ललाटपृष्ठं न चास्य स्फुटभ्रुकुटिविरचना विद्राविता ॥] ............."रावणस्य ललाटपृष्ठं भिन्नं दारितम् । न चास्य ललाटपृष्ठस्य पूर्वकाल एव क्रोधादुत्पन्ना स्फुटा भृकुटिविरचना विद्राविता त्याजिता। ललाटभेदेऽपि भ्रुकु टिसत्त्वेन वीररसोत्कर्षः ॥७१॥ विमला-रघुनाथ के छोड़े गये बाण से, सम्मुख आये हुये रावण का मलाट विद्ध हो गया, किन्तु (क्रोध से उत्पन्न ) भ्रूभङ्गिमा ज्यों की त्यों ही बनी रही ॥७१। १. अत्र टीकाग्रन्थः कियांस्त्रुटितः प्रतिभाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy