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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४०६ गयी, अतएव ( किंचित् ज्योत्स्ना से ) तिमिर नष्ट हो गया और वह साफ दिखायी देने लगी ॥३३॥ अथ शशिबिम्बोदयमाह णवकमलोअरप्रम्बं केसरसउमारसंगलन्तमऊहम् । विरलेइ समासणं णीसेसेइ तिमिरं ण ता ससिबिम्बम् ।।३४।। [ नबकमलोदरातानं केसरसूकूमारसंगलन्मयूखम् । विरलयति समासन्नं निःशेषयति तिमिरं न तावच्छशिबिम्बम् ।।] शशिबिम्बं कर्तृ यावत्प्रौढं न जातम्, तावत्समासन्नं निकटवर्ति तिमिरं विरलयति, न तु नाशयति । तथा च यथा यथा विधुव्यवधानं तथा तथा घनमेव तमः स्थितमिति भावः । किंभूतम् । नवकमलोदरवदीषत्ताम्र उदितमात्रत्वात् । एवं केसरवत्सुकुमाराः सुखस्पर्शाः संगलन्तः पतन्तो मयूखा यस्य । तथा च शोणकमलकेसरसाम्यं चन्द्रतत्किरणयोरित्युपमा ॥३४॥ विमला-चन्द्र बिम्ब ( अभी उदित-मात्र होने से ) नवकमल के भीतरी भाग के समान थोड़ा-सा लाल है तथा केसर के समान सुकुमार उसकी किरणें भूतल पर पड़ने लगी हैं, अतएव वह अभी निकटवर्ती तिमिर को केवल विरल ही कर पा रहा है, पूर्ण रूप से विनष्ट नहीं कर रहा है ।।३४॥ अथ मण्डलप्रौढिमाह तो उअअसिहरमिलिअंजा उप्पुसितिमिरधवलच्छामम् । इअत्तच्छिन्नसुरगप्रदन्तच्छे अपरिमण्डलं ससिबिम्बम् ॥३५॥ [ तत उदय(गिरि)शिखरमिलितं जातमुत्प्रोच्छिततिमिरधवलच्छायम् । इतोऽभिमुखस्थितसुरगजदन्तच्छेदपरिमण्डलं अशिविम्बम् ॥ ] तत उद्गमानन्तरमितोऽभिमुखः पश्चिमाभिमुखः सन् स्थितो यः सुरगजः ऐरावतस्तद्दन्तच्छेदवत्तरिमण्डलं वर्तुलं शशिबिम्ब मुदयगिरिशिखरे मिलितं सदुत्प्रोच्छितमपसारितं तिमिरं येन तथाभूतत्वेन धबलच्छायं जातम् । तिमिराभावा. दिति भावः ॥३५॥ विमला-उदित होने के अनन्तर, पश्चिमाभिमुख स्थित ऐरावत गज के [ दन्तच्छेद ] माथे के अगले भाग के समान गोल चन्द्रमण्डल उदयगिरि के शिखर से मिला हुमा एवं तिमिर को दूर कर धवल कान्तियुक्त सुशोभित हुआ ॥३५॥ मथ नभोनीलिमोत्कर्षमाहणवरि अ ससिअरगिसुठिअविवलाइअतिमिरकलुसताराणिवहम् । जाअं बहुकुसुमोस्थलसिलामारसंणिहं गणमलम् ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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