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________________ २१८] सेतुबन्धम् [षर स्वल्पकाल के लिये ही वे प्रवाह बढ़े तथा क्षोभित पङ्कों से कबुष ( मलिन ) हो उठे ॥५०॥ अथ भुजंगाकर्षणमाहकड़ ढिज्जन्ति समन्ता घिसमन्वतन्तधवलकसणच्छामा । महिहरमूलालग्गा रसाअलद्धपडिघोलिरा भुइन्दा ॥५१॥ [ कृष्यन्ते समन्ताद्विषमोद्वर्तमानधवलकृष्णच्छायाः । महीधरमूलालग्ना रसातलार्धप्रतिपूर्णनशीला भुजगेन्द्राः ॥] . महीधराणां मूलेष्वालग्नाः संबद्धा भुजगेन्द्राः समन्तादाकृष्यन्ते । वानररित्यर्थात् । 'समत्ता' इति पाठे समरता इत्यर्थः। किंभूताः । विषमं तिर्यग्यथा स्यादेवमुद्वर्तमाना: फणसंदंशेन पर्वतं धृत्वा त्यनतुमसमीया विपरीत्य विद्यमानाः । अत एवोदरपृष्ठस्य तुल्यदृश्यत्वेन श्वेतश्यामच्छायाः । एवं रसातले अर्धेन पुच्छभागेन घूर्णनशीलाः । उपरिभागस्य पर्वतलग्नत्वदत्रवागतत्वात् । सर्पाणां पुच्छावष्टम्भो दृढ इति तस्य ऋजुभावेनाकर्षणशङ्कया विदिवकरणं घूर्णनपदद्योत्यम् । अत्र सर्पाणां रसातलगतत्वेन दीर्घत्वं पीनस्य यथा यथा कर्षणं तथा तथा वृद्धिस्तथापि समन्तासर्वतोभावेनाकर्षणेन कपीनामुच्चत्वं बलवत्त्वं च सूचितम् ॥५१॥ विमला-पर्वतों के मूल भाग में लगे हुए बड़े-बड़े सर्पो ने ऐसी दृढ़ता से पर्वतों को पकड़ रखा था कि वे उलट गये थे, अतएव श्वेत एवं श्याम वर्ण दिखाई दे रहे थे । उनका भाधा भाग ( पुच्छ भाग) रसातल में था, उसे भी वे ( पर्वतों को रोकने के उद्देश्य से ) टेढ़ा कर लिये थे तथापि वानरों ने (पर्वतों के साथ ) उन्हें भी ऊपर खींच लिया ॥५१॥ अथ गिरी वनदेवतापरित्यागमाह गलइ सरसं पि कुसुमं वाइ प्रणालिद्धबन्धणं पि किसलअम् । रहसुम्मू लिममहिहरभअविवलाअवणदेवप्राण लाणम् ॥५२॥ [ गलति सरसमपि कुसुमं वात्यनालीढबन्धनमपि किसलयम् । रभसोन्मूलितमहीधरभय विपलायितवनदेवतानां लतानाम् ॥ ] रभसेनावेगेनोन्मूलितो यो महीधरस्तस्माद्भयेन विपलायिता बनदेवता याभ्यस्तासां लतानां सरसमपि कुसुमं गलति । अस्पृष्ट वृन्तमपि किसलयं वाति वृन्तादपगच्छति । वाइ वायति शुष्यतीति केचित् । वान राक्रमणादुत्पन्नमेतत्सर्वं रक्षकवनदेवतासंनिधिविरहादुत्प्रेक्षितम् । इवार्थस्य गम्यमानत्वात् । यद्वा तत्संनिधिविरहेण वास्तविकमेवैतद्रूपम् ॥५२॥ विमला-वानरों ने आवेगपूर्वक पर्वतों को जिस समय उखाड़ा उस समय भय से वनदेवतायें लताओं का परित्याग कर भाग गयीं, लताओं के कुसुम सरस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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