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आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् लंघनं नुकरमनवच्छिन्नाया लज्जायास्तु दुष्करमत एवाभ्यहितत्वेन प्रथम तदुपन्यास इति भावः ।।२६॥ _ विमला-तुम सबको सर्वप्रथम इस बात पर विचार करना है कि 'इस वंश में यह अनुरूप है'-इस कथनयोग्य यश को रखते हुये तुम्हें ( असीम ) लज्जा और ( शतयोजन मात्र ) समुद्र, इन दोनों में किसका लाँघना दुष्कर है ( विवेक तो यही कहता है कि लज्जा के उल्लङ्घन की अपेक्षा समुद्र-लङ्घन अत्यन्त सुकर है) ॥२६॥ दुष्करमपि लज्जाया एव लंघनं कर्तव्यं न तु समुद्रस्येत्यत आहकिरणासणि रहसुए सुहस्स किर णाणि विमञ्चउ मा दा। सेलसप्तार अमे हो तुम्हे जेऊण चन्दसारअमेहो ॥२७॥ [किरणाशनि रघुसुते सुखस्य किल नाशनी विमुञ्चतु मा तावत् ।
शैलससारतमान्भो युष्माञ्जित्वा चन्द्रसारदमेघः ।।] __ भो इति संबोधनम्। किल संभावनायाम । शुभ्रतया चन्द्र इव शारदो मेघ इति रूपकम् । शरन्मेघा बहुधा वज्र त्यजन्तीत्याशयात् । रघुसुते किरणरूपामशनि वज्र मा तावद्विमुञ्चतु । किंभूताम् । सुखस्य नाशनी नाशिकाम् । कि कृत्वा । शैलादपि ससारतमान्बलवत्तमान् । यद्वा शैलं स्यति खण्ड यतीति शैलसं वज्र तद्वत्सारः स्थिरांशी येषां तेषु श्रेष्ठतमान वज्रसमस्थिरांशान्युष्माञ्जित्वा । रामरक्षोधुक्तानतिक्रम्येत्यर्थः । मेघो वज्रण शैलादीन तिक्रम्य तालादीन्प्रहरति । तथा च भवद्भिः समुद्रेऽनुल्लंघिते जानकी प्राप्त्यभावेन मया गृहाय न गन्तव्यमथ भवन्तोऽपि न गमिष्यन्तीति चन्द्र: कि रणवज्रपातेन विरहिणो युष्मानाभिभूयातिवियोगिनं रामचन्द्रमभिभविष्यतीति सर्वतोऽनुचितमिति भावः । 'सारो बले स्थिरांशे च' इति कोषः ॥२७॥
विमला-अरे वानरों ! कहीं ऐसा न हो कि ( राम की रक्षा में उद्युक्त ) पर्वत से भी अधिक बलवान तुम लोगों को जीतकर यह चन्द्ररूप शरत्कालीन मेघ (जो बहुधा वज्रपात किया करता है) रामचन्द्र पर सुखविनाशक किरणरूप वज्र का प्रहार करे ( यदि तुम सब समुद्र नहीं लांघोगे तो रामचन्द्र बिना सीता को प्राप्त किये घर नहीं जायेंगे और तत्परिणामस्वरूप तुम भी घर न जा सकोगे, ऐसी दशा में चन्द्व , किरणवज्र से तुम विरहियों पर प्रहार करता हुआ अति वियोगी राम को अपने किरणरूप वज्रपात से पीडित करेगा ही, इसमें सन्देह नहीं)॥२७॥ समुद्रस्य लङ्घने सत्यभीष्टमिति दर्शयन्नलंघने महदनिष्टमित्याह
बन्धवणेहब्भहिओ होइ परो बि बिणएण सेविज्जन्तो। कि उण कोवआरो णिक्कारणणिबन्धवो वासरही ॥२८॥
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