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________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४७६ हे जानकि ! पति राममेतादृशं जानती त्वं शेषपुरुषाणां प्राकृतजनानामनुमानेन मनुष्यत्वादिसाधर्म्यण कि तुलयसि सदृशीकरोषि । कीदृशम् । त्रिभुवनानां मूलस्य कारणस्याधारमाश्रयम । कारणमित्यर्थः । तेन जगत्स्रष्टारम् । तथा हिरण्याक्षतः पराजयाद्विह्वलेन महेन्द्रेण प्रतिमुक्ता त्यक्ता अथ स्वयं विष्णुरूपेण व्यूढा धृता रणधुरा येन तम् । तथा च हिरण्याक्षवधात्त्रयीमार्गरक्षया स्थिति कर्तारमित्युत्पत्तिस्थितिहेतुतया प्रलयहेतुमपीति नारायणरूपोऽय मिति साधारणजनवत्कस्यापि वध्य इति मा बुध्यस्वेति भावः ॥८६॥ विमला-आप का पति, जो त्रिभुवन का मूलाधार (जगत्स्रष्टा) है तथा जिसने (हिरण्याक्ष से ) विह्वल इन्द्र के द्वारा रण का भार मुक्त किये जाने पर उसे अपने ऊपर लिया (हिरण्याक्ष का वध कर जगत् का रक्षक हुआ) उसकी तुलना सामान्य जन ( जो किसी से भी मारा जा सकता है) से क्यों करती हैं ? || ८६ ॥ अमिलिप्रसाअरसलिला अणहट्ठिअमहिहरा अणुव्वत्तमला। रामस्स छिण्णपडिअं कह पत्तिअसि धरणी धरेइ त्ति सिरम् ॥१०॥ [ अमिलितसागरसलिला अनघस्थितमहीधरानुवृत्ततला । रामस्य छिन्नपतितं कथं प्रत्येषि धरणी धारयतीति शिरः ॥] अमिलितानि न परस्परमेकीभूतानि सागराणां सलिलानि यत्र । एवम् अनघा अविशीर्णाः स्थिता महीधरा यत्र । तथा अनुद्वत्तमुपरि नागतं तलमधोभागो यस्यास्तथाभूता धरणी छिन्नं सत्पतितं रामशिरो धारयतीति कथं प्रत्येषि । तथा च यदि सत्यं रामशिरःपतनं स्यात्, तदा सागरमिलनादिरूपा प्रलयादस्योत्पातावस्था वा भवेदित्येतदभावादिदमप्यसत्यं मन्यस्वेति भावः । वयं तु यदि रामशिरःपतनं सत्यं स्यात्तदा त्वन्मातृत्वेन त्वमिव धरण्यपि व्याकुला भवेदिति सागरमिलनादिकं स्यात्, अतो मायेयमिति मत्वा सुस्था भवेति भावमुत्पश्यामः । रामस्य पतने तत्कार्यस्य त्रिभुवनस्य पतनं स्यादेवेति केचित् । तथा च रामजीवनमर्थापत्त्या निर्णीतमित्यवधेयम् ॥१०॥ विमला-पृथिवी के सागरों के जल मिलकर भी एक नहीं हुये,पर्वत भी अविशीर्ण ही स्थित है तथा पृथिवी का निचला भाग भी ऊपर नहीं हो गया ( पृथिवी उलट नहीं गयो ) तो आप कैसे विश्वास करती हैं कि राम के कटे एवं गिरे सिर को पृथिवी अपने ऊपर धारण किये है ॥ ९० ॥ मारुअमोडिअविडवं मिअङ्ककिरणपडिमासमाउलिअकमलम् । कह होइ रामवडने इस णिच्छाअं दसाणणवत्राणम् ॥६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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