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आश्वासः ]
रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
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विमला-यहाँ परिवधित विषौषधियों से वेष्टित होने से चन्दनतरुओं के प्रकाण्डों ( तनों ) को सों ने छोड़ दिया है, अतएव अन्यत्र जाते हये सर्पो के फनों की मणियों की प्रभा का स्पर्श पाकर वक्षों की छाया कान्तिमती हो उठी है ॥४५॥ स्फटिकवत्तामाह-- फडिहकिरणणिवहेहिधरणिधवलाअसं
सुव्वमाणसुरसुन्दरिमुद्धवलाअअम् । पलअसमप्रसलिलेण वि असअलधोअरं
विवरणिन्तणवचन्दसरिसअलधोत्रम् ॥४६॥ [ स्फटिककिरणनिवहेर्धरणीधवलायक
श्रूयमाणसुरसुन्दरीमुग्धप्रलापकम् । प्रलयसमयसलिलेनाप्यसकलधौतं
विवरनिर्यन्नवचन्द्रसदृशकलधौतम् ॥] एवं स्फटिकानां किरणनिवहैर्धरण्या धवलायकं धवलत्वकारकम् । सकलपृथिवीधावल्यक्षमकान्तिमत्तया स्फटिकभूमेमहत्त्वमुक्तम् । एवं श्रूयमाणाः सुरसुन्दरीणां मुग्धा मनोहरा, मोहमया वा प्रलापा यत्र तम् । बन्दीकृतानां कारागृहत्वात् । एवं प्रलयसमयसलिलेनापि असकल एकदेश एव धौतम । तदानीमुढेलसमुद्रेणापि सकलावच्छेदेन क्षालयितुमपारितमित्यर्थः । एवं विवरात्कंदरातो निर्यन्नुद्गच्छन्नवश्चन्द्रस्तत्सदृशं कलधौतं सुवर्णं यत्र । नव इत्युदयकालीनया पिञ्जरत्वात् । कलधौतं रजतं यत्रेति वा । तत्र नवो नव्य इत्यर्थे । नातिधवलत्वलाभात् । 'कलधौतं रूप्यहेम्नोः कलधौतं कलध्वनौ' इति विश्वः ॥४६।।
विमला-स्फटिक-मणियों की प्रभा से यह धरणी को धवल करता है। यहाँ सुर-सुन्दरियों के मनोहर प्रलाप सुनायी पड़ते हैं। प्रलय काल के समय ( उद्वेलित समुद्र का ) जल इसके सम्पूर्ण भाग को प्रक्षालित नहीं कर सका है। यहाँ कन्दरा से उद्गत नव चन्द्र के सदृश ( पाण्डुवर्ण) सुवर्ण (दीप्यमान ) है ॥४६॥ पद्मरागादिमत्तामाह -
रम्म अन्दराअच्छों रम्म अन्दराप्रच्छ मम । सग्गग्गहणिसामग्गों सग्गग्गहणिसामग्गअम् ॥४७॥ [ रम्यचन्द्ररागच्छदं रम्यकन्दरावृक्षकम् । साग्रग्रहनिःश्यामाग्रकं स्वर्गग्रहणीसामग्रयम् ॥]
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