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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६२६ विमला सामने प्रहस्त के आ पड़ने पर नील ज्यों ही उसे अतिक्रान्त करने चला त्यों ही नील के वक्ष पर प्रहस्त का चलाया बाण पड़ा, जो श्याम लौह को गला कर बनाया गया था तथा विद्धस्थान से रुधिर निकलने पर ही जिसके चलाये जाने का ज्ञान होता था ।।७३।। अथ नीलस्य कल्पद्रुमक्षेपमाहवेवत्तिअविडवं मअइ कई वि सुरहस्थिपरिमलसुरहिम् । गइमग्गलग्गभमलं पडिसोत्तपसारिअंसुअं कप्पदुमम् ॥७४॥ [ वेगापवर्तितविटपं मुञ्चति कपिरपि सुरहस्तिपरिमलसुरभिम् । गतिमार्गलग्नभ्रमरं प्रतिस्रोतःप्रसारितांशुकं कल्पद्रुमम् ।।] कपिरपि कल्पद्रुमं मुञ्चति । प्रहस्तं प्रतीत्यर्थात् । किंभूतम् । वेगेनापतितानि पश्चादभिमुखीकृतानि विटपानि यस्य तम । वेगोत्कर्षेण प्रतिकूलीकृतवायूत्कर्षादिति भावः । एवम्-सुरहस्तिनामैरावतादीनां परिमलेन कटकण्ड्यनादिविमर्दरूपसंबन्धेन सुरभिम् । मदसंबन्धादिति तदुपमर्दसहत्वेन महत्त्वं दृढत्वमप्युक्तम् । एवम्गतिमार्गे लग्ना अनुगामिनो भ्रमरा यस्येति विश्लिष्टभ्रमरैरप्यलभ्यत्वेनाप्युत्कृष्टजवत्वम् । एवम्-प्रतिस्रोतसा पश्चाद्वर्त्मना प्रसारितमंशुकं वस्त्रं यस्य । वेगमारुतेनेत्यर्थात् । अनेनापि तदेवोक्तम् ।।७४।। विमला-कपि ने भी प्रहस्त की ओर ऐरावत गज के कपोलघर्षण से उसके मद की सुगन्ध से सुगन्धित कल्पवृक्ष को इतने वेग से डाला कि (लुब्ध ) भौंरे भी ( उसे न पा सकने के कारण ) गमन' मार्ग में ही पीछे लगे रहे तथा उसका वस्त्र ( वायु द्वारा ) पीछे की ओर को प्रसारित तथा उसकी शाखायें पीछे की ओर अभिमुख हो गयी थीं ॥७४॥ अथैतद्वक्षस्य मुक्तावर्षणमाहवालन्तजलहरस्स व तो से प्रासारजललवस्थवअणिहो। आगममग्गम्मि ठिओ धुअविडवक्खलिममोत्तिमाफलणिवहो।।७।। [ व्यतिक्रामज्जलधरस्येव ततोऽस्यासारजललवस्तबकनिभः ।। आगममार्गे स्थितो धुतविटपस्खलितमुक्ताफलनिवहः ।।] ततस्त्यागानन्तरमस्य नीलक्षिप्तकल्पवृक्षस्यागममार्गे संचरणपथे धुतेभ्यः कम्पितेभ्यो विटपेभ्यः स्खलितो मुक्ताफलनिवहः स्थितः । अस्य किंभूतस्य । व्यतिका. मतो नभसि गच्छतो जलधरस्येव । फलनिवहः कीदृक् । आसारो वृष्टिस्तज्जलस्य लवो बिन्दुस्तत्समूहनिभः । तथा च जलधरप्रायस्य कल्पद्रुमस्य वृष्टिजलबिन्दुप्राया मुक्ता: पतिता इत्यर्थः ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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