SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १६७ यस्मादिति वा । एवम् फेननिभानि फेनतुल्यान्युच्छलितान्युपरिस्थितानि मौक्तिकानि यत्र तथाभूतम् । यथा फेना उपरि तिष्ठन्ति तथा मौक्तिकान्यपीत्यर्थः। उच्छलितमौक्तिकान्येव फेनायन्त इत्यर्थ इति केचित् ॥४०॥ विमला-( जल की उष्णता से ) विद्रुम स्फुटित हो गये, प्रहार के वेग से ऊपर उठे रत्नों की कान्ति जल में ऊपर दिखायी पड़ने लगी, मोती फेन के समान ऊपर तैरते हुये दिखायी पड़े और समुद्र का जल, वेला का अतिक्रमण कर समविषम भूमि में इधर-उधर फैल गया ॥४०॥ आवर्तानामवस्थामाह जलपवाडिप्रमूक्का खणमेत्तत्थइअपाअडिअवित्थारा । होन्ति पसण्णक्खु हिआ मूअल्लइअमुहला समुद्दावत्ता ॥४१॥ [ जलप्लावितमुक्ताः क्षणमात्रस्थगितप्रकटितविस्ताराः । भवन्ति प्रसन्नक्षुभिता मूकायितमुखराः समुद्रावर्ताः ॥ ] समुद्रावर्ताः कंदराकारभ्रमत्समुद्रसलिलोत्पीडाः शराभिघातोच्छलितेन प्लाविता अतिक्रान्ता अथ मुक्ताः पुनरन्यत्रगतेन तेन त्यक्ता भवन्ति । अत एव क्षणमात्रं स्थगिताः प्लावनदशायां छन्ना लुप्ता अथ प्रकटितविस्तारास्त्यागदशायां यथापूर्व प्रवृत्ताः । प्राचीनसंस्कारवशादित्यर्थः । एवं प्रथमं प्रसन्ना जलान्तरसमानाकारत्वादथ क्षुभिताः । निम्नोन्नतीभूय भ्रमणशीलत्वात् । एवं च प्रथमं मूकायिता जलान्तरेणावतंगतपूरणे निःशब्दा अथ तदपगमे भ्रमणप्रवृत्तौ मुखराः सशब्दाः । कल्लोलबाहुल्यात् । यद्वा मूकायिताः सन्तो मुखराः । यथा मूको वक्तुमुद्यतो गुंगुकरोति तथा निम्नप्रदेशे जलान्तरप्रदेशात्कुम्भादिवदव्यक्तं ध्वनन्तीत्यर्थः। एतेनावर्तानां क्षणादेव पूर्ववत्प्रवृत्ती प्लावकजलवेगोत्कर्षेण प्रवाहोत्कर्ष उक्तः ॥४१॥ विमला-समुद्र के आवतं ( भँवर ) शराभिघात से उछले हुये जल के द्वारा [प्लावित ] अतिक्रान्त हो गये और कभी अन्यत्र चले गये जल से परित्यक्त हो गये, अतएव प्रथम दशा में क्षण भर के लिये वे आवर्त [ स्थगित ] लुप्त हो गये और द्वितीय दशा में पुनः पूर्ववत् प्रवृत्त हो गये एवं प्रथम दशा में प्रसन्न, द्वितीय दशा में क्षुब्ध, प्रथम दशा में निःशब्द, द्वितीय दशा में शब्दायमान हो गये ॥४॥ समुद्र परिवर्तनमाह वलमाणुव्वतन्तो एक्कं चिरपालपीडिअं सिढिलेन्तो। बीएण व पापाले पासेण णिसम्मिउ पउत्तो उवही ॥४२।। [ वलमानोद्वर्तमान एक चिरकालपीडितं शिथिलयन् । द्वितीयेनेव पाताले पाइँन निषत्तु प्रवृत्त उदधिः ॥ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy