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________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५१ नाद्भूम्याकाशव्यापि च । तथा च यथा नायको नायिकामुखे गण्डूषितं मधु दत्वा पुनस्तया दीयमानं पिबति तथा समुद्रोऽपि मेघद्वारा नदीमुखे समर्पितं निजं पयस्तेनैव प्रत्यर्प्यमाणं पुनर्गलातीत्यर्थः । तथा च जलव्ययलाभयोरपि ह्रासवृद्धिशून्यत्वमस्येति ध्वनितम् । उत्प्रेक्षते-जल निवहं किमिव । यश इव । समुद्रस्यैवेदं जलमिति कीर्तिरूपमिव । अन्योऽपि यशः पिबत्यास्वादयति। कीदृशम् । मुखरा मागधास्तैविप्रकीर्णमितस्ततः प्रकाशितम् । एवं व्याप्ताकाशमहीपातालम् । विवरं पातालम् । एवं नतिमुखेन याचकेन पर्यस्यद्दिशि दिशि गच्छत् । अथ चात्मन एव निर्गतम् । स्वयश: स्वस्मादेब निर्गच्छतीति भावः ॥५॥ विमला--समुद्र , अपने ही से निर्गत, मुखर मागधों से चारों ओर प्रकाशित, आकाश-मही-पातालव्यापी, याचकों से प्रत्येक दिशा में पहुँचाये जाते यश के समान, अपने ही से बहिर्भूत, शब्दायमान मेघों से चारों ओर विकीर्ण, आकाशमही-पातालव्यापी तथा नदियों के मुख (१-प्रवेशस्थान, २-मुह) से इधर-उधर पहुँचाये जाते अथवा प्रत्यर्पित किये जाते जलसमूह को पी रहा है--(१) अपने अङ्क में ले रहा है, (२) उसका आस्वाद ले रहा है। विमर्श-प्रस्तुत समुद्र पर अप्रस्तुत नायक के व्यवहार का तथा प्रस्तुत नदी पर अप्रस्तुत नायिका के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलङ्कार है। जिस प्रकार नायक नायिका के मुख में मधु देकर पुनः उसके द्वारा प्रत्यर्पित किये गये उसी मधु को पीता है उसी प्रकार समुद्र भी मेघ द्वारा नदी के मुख में दिये गये और पुन: उसके द्वारा प्रत्यर्पित किये गये अपने ही जल को ग्रहण करता है ॥५॥ अथ सदा शोभासंबन्धमाहजोलाए व्व मिअङ्क कित्तीन व सुउरिसं पहाए व्व रविम् । सेलं महाणईन व सिरीज चिरणिग्गआइ वि अमुच्चन्तम् ॥६॥ [ज्योत्स्नयेव मृगाङ्क कीर्येव सुपुरुषं प्रभयेव रविम् । शैलं महानद्येव श्रिया चिरनिर्गतयाप्यमुच्यमानम् ।।] अपिविरोधाभाससूचनाय । तथा च लक्ष्म्याश्चिरनिर्गतत्वादसंबन्धेन प्रसज्यमानो विरोधः श्रीशब्दश्लेषेण शोभया अमुच्यमानत्वेन परिह्रियते। यद्वा चिरं निर्गतया बहिर्भूतया कान्त्या अमुच्यमानम् । उभयपक्षेऽपि सश्रीकमित्यर्थः । उभयसाधारणीमुपमामाह-कया कमिव । ज्योत्स्नया मृगाङ्कमिव । कीर्त्या सुपुरुषमिव । प्रभया रविंमिव। महानद्या शैलमिव । तथा च यथा ज्योत्स्नाकीर्तिप्रभामहानदीभिस्ततस्ततश्चिरं निर्गताभिरपि मृगाङ्कसुपुरुषरविशैला न परित्यज्यन्ते मूलेऽविच्छेदातथा शोभया समुद्रोऽपीति भावः ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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