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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४७३ दुःख आरम्भ में ही भयंकर होता है, उसका अन्त दारुण नहीं होता; क्योंकि (जिसका सहना तो दूर रहे, देखना भी उचित नहीं ) मैंने तुम्हारा अन्त देखा ही नहीं सहा भी, ( मैं आरम्भ में मूच्छित हुई किन्तु अन्त में मरी नहीं) मेरी वजह से स्त्रीजाति की निन्दा हुई ॥७५।। वाहुलं तुज्झ उरे जं मोच्छिहिमि ति संठि मह हिआए। घरणिग्गमणपअत्तं साहसु तं कम्मि णिव्वविज्जउ दुक्खम् ॥७६॥ [ बाष्पोष्णं तवोरसि यन्मोक्ष्यामीति संस्थितं मम हृदये। गृहनिर्गमनप्रवृत्तं शाधि तत्कस्मिन्निर्वाप्यतां दुःखम् ॥] गृहनिर्गमनात्प्रभृति प्रवृत्तं बाष्पेणोष्णम्, उष्णबाष्प वा दुःखं तवोरसि मोक्ष्यामि त्वामुपलभ्य रावणवधे सति त्वयि निवेद्य वा शमयितव्यमिति यन्मम हृदये संस्थितमवधारितम्, तच्छाधि कथय कस्मिन्निर्वाप्यतां कस्य द्वारा शान्ति नीयताम् । त्वय्यपगते स्थानाभावादिति संप्रदायः । मम तु व्याख्या-गृहनिर्गमनप्रवृत्तं दुःखं बाष्पेणोष्णं सत्तवोरसि मोक्ष्यामि तवोरसि रुदित्वा त्यक्ष्यामि रोदनेनैव तज्ज्ञापनात् । अन्यत्समानम । शोकजत्वेन बाष्पस्योष्णतया दुःखस्याप्युष्णत्वमिति मन्तव्यम् ॥७६।। विमला-मैं ( सीता ) ने सोचा था कि घर छूटने के समय से प्रारम्भ हुये शोकाश्रु से उष्ण दुःख को रावणवधोपरान्त आप के मिलने पर आप के हृदय पर रोकर शान्त करूंगी, किन्तु अब कहिये, आप के न रह जाने से उस दुःख को किसके द्वारा शान्त करूं ॥७६॥ विरहम्मि तुज्झ धरिअंदच्छामि तुमं त्ति जीविअं कह वि मए । तं एस मए दिठो फलिमा वि मणोरहा ण पूरेन्ति गहम् ।।७७॥ [विरहे तव धृतं द्रक्ष्यामि त्वामिति जीवितं कथमपि मया। तदेव मया दृष्टः फलिता अपि मनोरथा न पूर्यन्ते मम ॥ ] त्वां कदाचिदपि द्रक्ष्यामीति प्रत्याशया तव विरहे मया कथमपि जीवितं धृतम् । तदेष मृतस्त्वं दृष्टोऽसि । अतः फलिता अपि मनोरथा मम म पूर्यन्ते । त्वदर्शनं जातमिति फलिताः, मृतो दृष्टोऽसीति न पूर्यन्ते । संभाषणाद्यभावादिति भावः । यद्वा-'न पूरयन्ति महम्' दृष्टोऽसीति फलिता अपि महमुत्सवं न पूरयन्ति । मरणदर्शनादिति भावः ।।७७।। विमला-आप ( राम ) का दर्शन निकट भविष्य में होगा, इस आशा से मैं किसी तरह जीती रही; किन्तु आप का दर्शन' हुआ भी तो इस ( मृत ) रूप में; अतः मनोरय फलित होते हुये भी पूरे नहीं हुये ॥७७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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