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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५७१ [ दयते कुसुममिव मान वर्धमानमप्यनघं न प्रत्येति यशः । न करोति लोकगुरुके जीव एव केवलमादरं भटसार्थः ॥] भटानां सार्थः कुसुममिव मानमहंकारं दयते रक्षति । यथा कुसुमे कोमल[त्व]बुद्धचा विमदं विरहेणाभङ्गुरत्वमम्लानत्वं च मृग्यते तथा मानेऽपीत्यर्थः । संमुखमरणादिना वर्धमानमप्यनघं निष्कलुषं यशो न प्रत्येति । मम यशः प्रौढं जातमिति न जानाति । तथा चापरिपूर्णत्वभ्रमणोत्तरोत्तरमपि तस्य विद्धे कालुष्याभावाय च प्राणव्ययेन यतत इत्यर्थः । केवलं लोकेषु गुरुके श्लाघनीये जीव एवादरमुपेयबुद्धि न करोति किंतु तृणाय मन्यते । इति जीवमपि दत्त्वा मानं यशश्च वर्धयतीत्यर्थः ॥४४॥ विमला-भट समूह अपने मान की रक्षा उसी प्रकार करता था जिस प्रकार (कोमल) कुसुम सावधानी के साथ, दबने से नष्ट होने अथवा मुरझाने से बचाया जाता है। यद्यपि ( वीरोचित कर्म करने से ) उसका यश उज्ज्वल हो बढ़ रहा था, तथापि उसे यश के प्रौढ़ होने की प्रतीति नहीं होती थी ( अतएव अपरिपूर्ण ही समझ कर उसे अधिक उज्ज्वल करने तथा बढ़ाने के लिये प्राणपण से यत्न करता था)। वह, लोगों में श्लाघनीय जीव के ही प्रति केवल आदर की भावना नहीं रखता था ( अपितु मान और यश को जीव से अधिक उपेय मानता था, अतएव उसकी रक्षा के लिये जीव को तृण समझ कर त्यागने में नहीं हिचकता था) ॥४४॥ गिहालक्खि अजोहे जाए लहुअम्मिणिपअधारामग्गे। परिवड्ढन्ताइभरं गरुकं परसंकुलं अइन्ति समस्थाः । ४५॥ [निहतालक्षितयोधे जाते लघौ निजकधारामार्गे। परिवय॑मानाजिभरं गुरुकं परसंकुलमायान्ति समर्थाः ॥] अलक्षितं क्षिप्रकारितया कुतः को मारयतीत्यनाकलितं यथा स्यादेवं निहताः परयोधा यत्र तथाभूते निजकधारामार्गे स्वारब्धसंग्रामे लघौ जाते सति निर्वाहिते सति समर्थाः परसंकुलं परचक्रमायान्ति । कीदृशम् । परिवयंमान आजिभरो येन । स्वपक्षक्षयं दृष्ट्वा एतत्पक्षमतिकाम दित्यर्थः । अत एव गुरुकमनभिभाव्यम् । तथा च बहुशः कृतयुद्धा अपि शत्रोरुपस्थितौ परिश्रममगणयित्वा पुनर्युध्यन्तीत्यर्थः ।।४।। विमला-समर्थ ( वीर ) अपने ऊपर शत्रुकृत प्रहारों की ओर तनिक भी ध्यान देकर शत्रुयोद्धाओं को मार कर अपने संग्राम को लगभग निपटा चुकने पर भी महान् शत्रुव्यूह में घुस जाते थे, क्योंकि शत्रुपक्ष ने ( अपना क्षय देख कर प्रबल आक्रमण से ) संग्राम के भार को बढ़ा दिया था ॥४५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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