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________________ ५८] सेतुबन्धम् [ द्वितीय अथ पुनर्नदीसङ्गममाह अहिलीन परमुहीहि छिविनोसरिएहि अणुसअविलोलाहिं। अणुणिज्जमाणमग्गं वेवन्तणिअत्तपत्थियाहि गईहिं ॥१६॥ [अभिलीय पराङ्मुखीभिः स्पृष्टापसृताभिरनुशयविलोलाभिः । अनुगम्य नीय)मानमार्ग वेपमाननिवृत्तप्रस्थिताभिनंदीभिः ।।] स्पृष्टापसृतक रूपव्यापारैरभिलीय मिलनं कृत्वा पराङ्मुखीभिर्नदीभिरनुगम्यमानमार्गम् । कीदशीभिर्नदीभिः । वेपमानाभिरथ च निवृत्तं समुद्राभिमुखीकृत प्रस्थितं प्रतीपगमनं याभिस्ताभिः । तथा चायमर्थः-समुद्रं प्रति प्रस्थाने तरङ्गाभिहता नद्यः प्रतीपं गत्वापि तरङ्गशान्तौ सकम्पसलिलाः पुनः परावृत्त्य समुद्रमेव निवृत्ततरङ्ग पश्चाल्लग्नाः प्रविशन्तीति । तत्रोत्प्रेक्षते-समासोक्त्या समुद्रेण समं नदीनां नायकनायिकावृत्तान्ते परावृत्त्य यन्मया गम्यते तदनुचितं क्रियत इत्येवंरूपानुशयेन चञ्चलाभिरिव । इवार्थस्य गम्यमानत्वात् । अन्यत्रापि नायिकाभिः स्पृष्टापमृतकेन नायकमालिङ्गच केनापि हेतुना पुनः पराङ्मुखीभिरथ किमित्येवं क्रियत इत्यनुशयेन गन्तव्यं न वेति दोलायमानाभिरनौचित्यप्रतिसंधानेन कम्पवतीभिरथ च निवर्तितविप्रतीपगमनाभिर्नायकोऽनुगम्यत इति ध्वनिः ॥१६॥ विमला-नदियाँ समुद्र से मिलन कर (तरङ्गाभिघात से) पराङ्मुखी हो माती हैं । तदनन्तर ही (अपने इस प्रतिकूल गमन को अनुचित समझ कर) पश्चात्ताप से चञ्चल हो जाती हैं और (अपने इस अनौचित्य का परिमार्जन करने के उद्देश्य से) काँपती हुई अपना प्रतिकूल गमन' समाप्त कर (शान्त) समुद्र का अनुगमन करती हैं (उसके पीछे-पीछे प्रवेश करती हैं)। विमर्श-प्रस्तुत समुद्र पर अप्रस्तुत नायक के व्यवहार का तथा प्रस्तुत नदियों पर अप्रस्तुत नायिकाओं के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलंकार है । नायिकायें भी नायक का अलिङ्गन कर किसी कारणवश पराङ्मुखी हो जाती हैं, तदनन्तर ही 'ऐसा हमने क्यों किया'-इस प्रकार पश्चात्ताप करती हुई 'नायक के पास पुनः चलें या नहीं'-इस प्रकार सोच-विचार में पड़ी चञ्चल हो उठती हैं और अपने अनौचित्य का परिमार्जन करने के लिए पुन: लौट कर काँपती हुई नायक का अनुगमन करती हैं ।।१६।। अथ मदिरादियोगमाह-- जीगरुईहि अज्ज वि इच्छापज्जत्तसुहरसाहि मदएन्तम् । धणरिद्धी सिरिअ अ सलिलुप्पण्णाइ वारुणीअ अ लोअम् ।।१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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