SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 575
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५८] सेतुबन्धम् [त्रयोदश भय देख कर भी लज्जा का स्मरण करते-कीर्ति, सुकृत तथा लज्जा रखने के लिये प्राणों की भी उपेक्षा कर लड़ते और तनिक भी भय नहीं खाते थे ।।१६।। अथ शूरनिशाचराणां मृत्युमाह पडमाणि आहि सुइरं जे जीविअसंसम्मि दि परिच्छदा। ते च्चिअ अहिमुहणिहा सुरबन्दीहि अहिसारिआ रअणिअरा ॥१७॥ [प्रथमानीताभिः सुचिरं ये जीवितसंशयेऽपि परिक्षिप्ताः । त एवाभिमुखनिहताः सुरबन्दीभिरभिसारिता रचनीचराः ॥] प्रथमं पूर्व बन्दीकृत्यानीताभिः सुरसुन्दरीभिः सुचिरं व्याप्य विभीषिककृते जीवितसंशयेऽपि ये रजनीचराः परिक्षिप्ता जात्यपकर्षेण त्यक्तास्त एव संग्रा. माभिमुख निहताः सन्तः पुनरभिसारितास्तदानीं शौर्य मृत्युना प्राप्तदेवत्वात्ताभिवंता इत्यर्थः ॥१७॥ विमला-पहले बन्दी बना कर लायी गयीं सुर-सुन्दरियों ने जिन रजनीचरों को ( जाति से निकृष्ट होने के कारण ) उपेक्षापूर्वक त्याग दिया था, रण में सम्मुख मरे हुये उन्हीं को उन ( सुरसुन्दरियों ) ने आगे आकर स्वीकार किया (क्योंकि शूरों का कर्तव्य करने से वे देवत्व को प्राप्त हो चुके थे ) ॥१७॥ अथ कपीनां तेज प्रकर्षमाहर अणि अरबद्धलक्खो अबद्धरुहिरपरिपण्डुरङ्गच्छेओ। प्रगणिप्रवणसंतावो उपहपहारसरसो समल्लिअइ कई ॥१८॥ [ रजनीचरबद्धलक्ष्योऽबद्धरुधिरपरिपाण्डुराङ्गच्छेदः । अगणितव्रणसंताप उष्णप्रहारसरसः समालीयते कपिः ।।] रजनीचरे । कृतप्रहार इत्यर्थात् । बद्धं लक्ष्यं येनेति प्रहर्तरि दत्तदृष्टिः कपिः समालीयते । प्रथम येन हतस्तत्रैव प्रतिहतुं मिलतीत्यर्थः । कीदृक् । उष्णे तात्का. लिके शत्रुकृते प्रहारे सरसः क्रोधवशात्प्रतिहन्तुं सानुरागः । सक्रोधरसो वा । एवम्-अबद्धेन प्रवहता रुधिरेण परिपाण्डुरोऽङ्गच्छेदः क्षतं यस्य तथा। तथा च व्रणसंतापविचारशून्य इति विजिगीषुत्वमुक्तम् ।।१८।। विमला-रजनीचर ने जिस किसी वानर पर पहिले प्रहार किया, वह वानर बहते हुये रुधिर से शरीर का घाव परिपाण्डु र ( श्वेत-रक्त ) होने पर भी व्रणसन्ताप की परवाह न कर तात्कालिक शत्रुकृत प्रहार से क्रुद्ध हो उस प्रहारकर्ता रजनीचर पर दत्तदृष्टि, प्रतिघात करने के लिये मिलता ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy