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________________ २५२] सेतुबन्धम् [ सप्तम [विधुनोति वेलामिव महीं भिनत्ति समयमिव धरणीधरसंघातम् । गृह्णाति भयमिव गगनं मुञ्चति स्वभावमिव सागरः पातालम् ।।] सागरो वेलामिव महीं विधुनोति । यथा जलं कम्पय ति तथा जलक्षोभान्महोमपीत्यर्थः । अक्षोभ्यत्वात्साम्यम् । एवं समयं वेलालङ्कनं न कर्तव्यमिति व्यवस्थामिव धरणीधरसमूहं भिनत्ति खण्ड यति । अभेद्यत्वात्साम्यम् । तथा च वेलामपि लङ्घते परस्पराभिघातात्पर्वतानपि विशीर्णयतीत्यर्थः । एवं यथा भयं गृह्णाति तथा गगनमपि कल्लोलद्वारेत्यर्थः । अग्राह्यत्वात्साम्यम् । एवं यथा स्वभावं प्रकृतिमक्षोभ्यत्वादिकां मुञ्चति क्षुभ्यति तथा पातालमपि । शैलाघातेनोच्छालनादित्यर्थः । गभीरत्वात्साम्यम् । सर्वत्र सहोपमा । 'वेला तत्तीरनीरयोः' इति कोषः ।।१७॥ विमला-सागर वेला के साथ ही प्रथिवी को भी कम्पित कर रहा था, 'वेला का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये'--इस व्यवस्था का भेदन करने के साथ ही पर्वतसमूह का भी भेदन कर रहा था, भयग्रहण के साथ ही ( कल्लोल द्वारा) गगन को भी ग्रहण कर रहा था तथा स्वभाव-मोचन के साथ ही पाताल का भी परित्याग कर रहा था ।।१७।। पुनः पर्बतपतन प्रकारमाह पल्हत्यन्ति वलन्ता चलविडवन्तरणि प्रत्ततरुपारोहा । मूलण्णामिलजलआ अहोमुहन्दोलि प्रोज्झरा धरणिहरा ॥१८॥ [पर्यस्यन्ति वलमानाश्चलविटपान्तरनिवृत्ततरुप्ररोहाः । मूलोन्नामितजलदा अधोमुखान्दोलितनिर्झरा धरणिधराः ।।] धरणिधरा वलमाना अधोमुखत्वेन वक्रीभवन्तः सन्तः पर्यस्यन्तीतस्ततः पतन्ति । किंभूताः । चञ्चला या शाखा तदन्तरेण तन्मध्येन निवृत्ता लम्बमानास्तरूणां प्ररोहाः शिफा यत्र ते। तरूणामप्यधोमुखत्वेन शिफा अप्यधोमुखा भवन्तीत्यर्थः । एवं मूलेनोन्नामिता ऊर्ध्व मुत्थापिता जलदा येभ्यस्ते । नितम्बानामूर्ध्वगतत्वेनाधोमुखशिखरस्थिता मेघा मूलभागेनैव गगनं गच्छन्तीत्यर्थः । एवमधोमुखा: सन्त आन्दोलिताश्चालिता निर्झरा येषां ते । तथा च निर्झराणामान्दोलनमात्रं न तु व्यवच्छिद्य पतनम् । पर्वतानामेव तदभ्यन्तरे पतनादित्यमीषां गुरुत्वेन महत्त्वमुक्तम् ।।१८।। विमला-पर्वत अधोमुख अतएव वक्र होकर जल में इधर-उधर गिर रहे थे। पर्वतों के अधोमुख होने से चञ्चल शाखा के मध्यभाग से लटकी हुई बृक्षों की टहनियाँ भी अधोमुख थीं। (पर्वतों का नितम्बभाग ऊपर होने के कारण अधोमुख शिखर पर स्थित) बादल मूलभाग से ही आकाश को जा रहे थे । निर्झर भी अधोमुख हो आन्दोलित हो रहे थे ( पर्बतों के भीतर ही गिरने से वे छिन्न-भिन्न होकर गिरे नहीं, केवल आन्दोलित ही रहे ) ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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