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________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३०३ विमला - वानर ही नहीं, नल भी कन्धे के पास से हाथ पीछे ले जाकर वानरों के हाथ से पर्वतों को लेता, उठाता, समुद्र में गिराता और सेतुपथ बाँधता था; ऐसा करते समय उसकी केसरसटा ( गर्दन के बाल ) ऊपर उठती और अत्यन्त चञ्चल होती सुशोभित हो रही थी ॥ ३८ ॥ अथ गिरीणां विस्तारमाह- जं बहुपव्वप्रजणिअं बिच्छूढसमुद्दाडं महिविवरम् । तं एक्को पडिरुम्भइ वित्थारम्भहिश्रसंठिओ धरणिहरो ॥ ३६ ॥ [ यद्बहुपर्वतजनितं विक्षिप्तसमुद्रप्रकटं महीविवरम् । तदेकः प्रतिरुद्धि विस्तराभ्यधिकसंस्थितो धरणीधरः ॥ ] बहुभिः पर्वतैर्जनितं कपि क्षिप्तनिपतद्भिरभिघातात् क्षोभतश्च पातालादुत्थितैर्वा कृतं यन्महीविवरं तद्वस्तारेणाभ्यधिकं यथा स्यादेवं संस्थितः सन्नेको धरणीधरः प्रतिरुणद्धि व्याप्नोति । कीदृशम् । विक्षिप्तैः पतत्पर्वतद्विधाभूते समुद्रे प्रकटं व्यक्तम् । तथा च तत्क्षणमेव तथाविधं महीधरविवरमवलोक्य तदधिकेन गिरिणैकेन मुद्रयतीति नलस्य विन्यास कौशलम् ॥ ३६ ॥ विमला - ( कपियों द्वारा क्षिप्त ) बहुपर्वतों से उत्पन्न जो महीवियर, गिरते हुये पर्वतों से दो भागों में विभक्त समुद्र में व्यक्त हुआ उसे तत्काल ही उससे अधिक विस्तृत ( नल द्वारा वन्यस्त ) एक ही पर्वत ने मूंद दिया ||३६|| नलस्य रचनाचातुर्यमाह-सागरलद्धत्थाहं निमेन्ति जं जं धराहरं कइणिवहा । बज्जइ पुरओ हुत्तो काऊण पअं तहि तहि सेतुवहो ||४०|| [ सागरलब्धस्थाद्यं नियोजयन्ति यं यं धराधरं कपिनिवहाः । बध्यते पुरतोऽभिमुखः कृत्वा पदं तत्र तत्र सेतुपथः ॥ ] सागरे लब्धः स्थाघो (मूल) येन तम् । लब्धसागरमूलं यं यं धराधरं कपिनिवहा नियोजयन्ति तत्र तत्र पदं कृत्वा विन्यस्य पुरतोऽभिमुखोऽग्रिमाग्रिमः सेतुपथो नलेन बध्यते । भूमिनिखातमूलः स एव पुरतः सेतवे पदार्पणस्थानं भवतीति दृढमूलत्वमुक्तम् । 'लद्धत्थामं' इति पाठे लब्धस्थामानमित्यर्थः ॥ ४० ॥ विमला - सागर के भीतर भूमिभाग तक पहुँचे हुये मूल भाग वाले जिसजिस पर्वत को वानरों ने नियोजित किया नल उसी उसी पर पैर रखकर आगे का सेतुपथ रचता जाता था ||४०|| नलस्य त्वरामाह - समअं पवअविमुक्के सेउवहम्मि समअं अभाअपडन्ते । परिपेल्लेइ रएइ अ समयं च णलो पडिच्छिऊण महिहरे ॥ ४१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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