SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४४] सेतुबन्धम् [ एकादश तस्य गोत्रस्खलितं नामविपर्यास: सीतानामरूपस्तत एव विमनस्काभिः प्रियाभिः शङ्कयते परम्, किंतु स्फुटं व्यक्तं न ज्ञायते। कीदृशम् । प्रतिरुद्धं स्वरभङ्गरूपभावोदयाच्चैतन्ये सति एतासां त्रासाद्वानुच्चरितं शेषमेकवद्वर्णरूपं यत्र । एवम्-बाष्पावस्तृतेन कण्ठेन विषमः स्फूटास्फुट: पदनिक्षेपः पदोच्चारणं यत्र । अत एव शेषानुच्चारणेन गद्गदकण्ठतया च सीतां प्रति किमप्ययमुच्चरतीति तर्कयन्तीत्यर्थः ।।१७॥ विमला-रावण कामिनियों के सामने न चाहने पर भी सीता का नाम ले बैठता, तुरन्त ही (उनके त्रास से) बाष्पगद्गद कण्ठ से कुछ स्पष्ट कुछ अस्पष्ट शब्द बोल कर रुक जाता। उसके इस आचरण से वे ( कामिनियां ) अनमन हो जातीं और यह भी जान जाती थीं कि वह (रावण) सीता के प्रति कुछ कह रहा है, किन्तु क्या कह रहा है यह स्पष्ट नहीं जान पाती थीं ॥१७॥ पुनरवहित्थामाहकह वि ठवेइ दहमुहो कि ति अणालविअमोहदिण्णालावम् । दइआहि गलिप्रवाहं रोसणिरुत्तरपुलोइअं अप्पाणम् ॥१७॥ [ कथमपि स्थापयति दशमुखः किमित्यनालपितमोघदत्तोल्लापम् । दयिताभिर्गलितबाष्पं रोषनिरुत्तरप्रलोकितमात्मानम् ॥ ] दशमुख आत्मानं स्वं कथमपि स्थापयति । किंभूतम् । किमिति कृत्वानालपितेऽवादिते । अप्रश्न इति यावत् । अत एव मोघः प्रश्न विना कृतत्वान्निष्फलो मोहे. नाज्ञानेन वा दत्त उल्लापो येन तम् । अतएव गलितं बाष्पं गलितास्र यथा स्यादेवं दयिताभी रोषेण निरुत्तरमवचनं यथा स्यादेवं प्रलोकितं दृष्टं संकल्पेनोपस्थितायाः सीतायाः प्रश्नभ्रमात् किमित्युक्ते रुष्टाभिर्मन्दोदरीप्रभृतिभिः सक्रोधकटाक्षनिरीक्षि. तमात्मानं ज्ञाने सति स्त्रीकृतामवहेलां सोढवा कृच्छातिककर्तव्यतामूढ़ः संवरणं कृत्वा प्रकृति प्रापयतीत्यर्थः ॥१८॥ विमला-रावण इस भ्रम से कि सीता मुझसे कुछ कह रही है, विना किसी के प्रश्न किये ही 'क्या कहा'-ऐसा व्यर्थ वाक्योचारण कर बैठता। उस समय मन्दोदर्यादि उसकी प्रियायें अश्रुपातपूर्ण उसे सक्रोध कटाक्षों से देखतीं। ( अपनी सही स्थिति का ज्ञान होने पर ) वह किसी तरह ( स्वीकृत अवहेला को सह कर ) अपने को सुस्थ रख पाता था ।।१८।। भ्रमोत्कर्षमाहअणहिसओ वि पिआणं उन्मच्छपसारिअग्धविअहंकारम् । अहिणन्दइ वहवअणो समत्तणिवेलिआहरोठ्ठपुलइमम् ॥१६॥ [ अन्यहृदयोऽपि प्रियाणामुन्मत्सरप्रसारितापितहुकारम् । अभिनन्दति दशवदनः समस्तनिर्वेल्लिताधरोष्ठप्रलोकितम् ।।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy