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________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप- विमलासमन्वितम् [ १७१ स्परवधानं कुर्वत् । यद्वा परस्परं मरणमाशङ्कघ तत्तद्वपुषि स्वस्व देह समर्प स्वस्वजीवनसमर्पणं कुर्वदिति भावः ॥ ४८ ॥ विमला -- प्रेम की बेड़ी से जकड़ा सर्पों का जोड़ा, राम के बाण से विद्ध होने पर एक-दूसरे से कस कर लिपट कर सुखी हुआ और अपना-अपना जीवन देकर भी अपने- अपने शरीर से एक-दूसरे की रक्षा करता हुआ परस्पर परिवेष्टित हो गया ||४८ ॥ शराणां प्रसरणमाह रामसरा ॥४६॥ मोडिअविदुमविडवा धावन्ति जलम्मि मणिणिहंसणनिसिया | सिप्पि उडमज्झणिग्गअमुहलग्गत्थोरमुत्ति आ [ मोटितविद्र ुमविटपा धावन्ति जले मणिनिघर्षण निशिताः । शुक्तिपुटमध्यनिर्गतमुखलग्नस्थूलमौक्तिका रामशराः ॥ ] रामशरा जले धावन्ति । निष्प्रत्यूहं संचरन्तीत्यर्थः । किंभूताः । मोटितानि विद्रुमविटपानि यैः । अग्निसंबन्धात् । एवं मणिषु निघर्षणेन निशिताः शिताग्राः । अतएव शुक्तिपुटमध्यनिर्गताः सन्तो मुखे लग्नं विद्धत्वात्संबद्धं स्थूलं मौक्तिकं येषां ते ||४|| 2 विमला - ( इस प्रकार ) समुद्र के जल में राम के बाणों का निर्वाध संचार होता रहा। उन्होंने विद्रुम विटपों को चूर्ण कर दिया, मणियों पर पड़ने से रगड़ खाकर वे और चोखे हो गये तथा सीपियों को छेद कर भीतर पहुँचने से उनके मुख भाग पर ( बिंधे हुये ) बड़े - बड़े मोती लग गये ॥ ४६ ॥ जलसंबन्धादुत्पम्नो धूमः प्रवालेषु लग्नस्तमुत्प्रेक्षते - विसवेप्रो व्व पसरिओ जं जं महिलेइ बहलघू मुप्पीडो । कज्जलइज्जइ तं तं रुहिरं व महोन हिस्स विदुमवेढम् ||५०|| [ विषवेग इव प्रसृतो यं यमभिलीयते बहलधू मोत्पीडः । कज्जलयति तं तं रुधिरमिव महोदधेर्विद्रुमवेष्टम् ॥ ] विषवेग इव प्रसृतो बहलो धूमोत्पीडो यं यं महोदधे रुधिरमिव विद्रुमवेष्टी प्रवालमण्डलमभिलीयते मीलति तं तमेव कज्जलयति कज्जलमिव करोति । श्यामजयतीत्यर्थः । तथा च धूमो न भवति किं तु श्यामत्वाद्दुःखहेतुत्वाच्च विषम् । विद्रुममण्डलं न भवति किं तु रक्तत्वात्समुद्रस्य रुधिरमित्याशयः । अन्यत्रापि सर्पादिविषं वपुषि प्रविशद्रुधिरं व्याप्य श्यामीकरोतीति ध्वनिः ॥ ५० ॥ विमला - ( राम के आग्नेय शर का ) विषवेगसदृश प्रबल धूम-प्रसार - समुद्र के रुधिरसदृश जिस-जिस प्रवालमण्डल से संश्लिष्ट हुआ उसी उसी को उसने श्यामल कर दिया ॥५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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