SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ रगिरिणा यन्मथनं तत्संभ्रमेऽप्यमुक्तम् । कौस्तुभादिसर्वं दत्तमेव एतत्परं रक्षित मित्यर्थः । पुनः कीदृशम् । शशिमदिरामृतानां सहोदरम् । शशिवन्निर्मल माह्लादकं शीतलं च, मदिरावन्मदाहंकार हेतु:, अमृतवन्निर्वृतिजनकं व्याधिहरं चेति सहोदरपदगम्यम् । तथा च त्रयाणामप्यन्यथासिद्धिरस्मादितीदं रक्षितम् । अमृतकार्यकारित्वेन च तदवस्थायां धारणाज्जीवनमभूदिति भावः । 'एकावल्येकयष्टिका' इति हारावली ॥४॥ 3 विमला - समुद्र उस समय मोतियों की एकावली माला धारण किये हुये था जो अत्यन्त उपादेय थी, क्योंकि इसके रहने से समुद्र को कौस्तुभ का विरह खटकता नहीं था अतएव मन्दराचल से मथे जाते समय भयभीत हो सब कुछ दे देने पर भी समुद्र ने इसे बचा रक्खा था तथा चन्द्रमा, मदिरा एवम् अमृत के अभाव को यह पूरा करती थी ( क्योंकि चन्द्रमा के समान ही निर्मल, शीतल एवम् आह्लादक, मदिरा के समान ही मदकारी तथा अमृत के समान ही निर्वृतिजनक और व्याधिहर थी ) ॥४॥ वामबाहुमस्याह— गरुअं उध्वहमाणो हत्थफरिसपडिसिद्धवण वे अल्लम् । रुहिरारुण रोमचं खलन्तगङ्गावलम्बिअं वामभुम ||५|| ( आइकुलअम् ) [ गुरुकमुद्वहमानो हस्तस्पर्श प्रतिषिद्धव्रणवैकल्यम् । रुधिरारुण रोमाञ्चं स्खलद्गङ्गावलम्बितं वामभुजम् || ] ( आदिकुसकम् ) पुनः विभूतः । वामभुजं वहमानः । कीदृशम् । गुरुकं व्रणितत्वाद्गुरुभूतम् । एवं हस्तस्पर्शन दक्षिणकरपरामर्शेण प्रतिषिद्धं व्रणवैकल्यं यत्र तम् । व्रणपार्श्वमर्शनेन पीडाशान्तेरित्यर्थः । एवं भुजभारेण रामसंमुखगमनत्रीडया वा स्खलन्त्या वक्रीभवन्त्या गङ्गावलम्बितं स्वांसे समारोपितम् । एवं रुधिरेणारुणो रोमाञ्श्वो यत्र तथाभूतम् । तदवस्थायामपि रोमाञ्चोद्गमेन गङ्गाया: सौभाग्यं सूचितम् । रामस्य कारुण्योत्पत्तये गङ्गायाः सहागमने तात्पर्यम् ॥५॥ विमला— ( वामभाग में स्थित ) काँपती हुई गङ्गा समुद्र के वामभुज को सहारा दिये हुई थी, अतएव उसमें हुआ रोमाञ्च रुधिर से लाल हो रहा था और समुद्र, व्रणजन्य पीडा के शान्त्यर्थं उसे दाहिने हाथ से सहला रहा था । प्रथम स्कन्धक से लेकर इस पाँचवें स्कन्धक तक की ' आदिकुलक' संज्ञा है ||५|| अथ रामनिकटागमनमाह आलीणो अ रहुवइं गिअअच्छा आण लित्तमलमणिसिलम् । संसि अइव्वं दुमं लआए व्व जाणईअ विरहिअम् ||६॥ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy