SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५८७ अथैषां परावृत्तिमाह अह हिप्रमच्छरलहुआ एक्कक्कमचक्खुरक्खणाहिअहिअआ । हिअआवडिअदहमुहा वलिजा पडिमुक्करण मना रअणिभरा ॥७८।। [ अथ हृतमत्सरलघुका एककक्रमचक्षूरक्षणाहितहृदयाः। हृदयापतितदशमुखा वलिताः प्रतिमुक्तरणभया रजनीचराः ।।] अथ पलायनानन्तरं रजनीचरा हृदये आपतितो दशमुखो येषां तथाभूताः, अत एव प्रतिमुक्तरणभयाः सन्तो वलिता पूणिताः । युद्धं त्यक्त्वा गन्तव्यं तदा दशमुखो मारयिष्यतीति युद्धमेव वरमिति भीतिमुत्सृज्य पुनर्युद्धाय परावृत्ता इत्यर्थः । किंभूताः । हृतमत्सरत्वेन मात्सर्यशून्यत्वेन लघुका निःसाराः । मात्सर्ये सति पलायनमेव स्यादिति भावः । एवम्-एकैकक्रमेण परस्परं चक्षुषां रक्षणे आ हितान्यपितानि हृदयानि यस्ते । चक्षुः संमुखे लज्जया परस्परं त्यक्तुमपारयन्त इति सहैव परावृत्ता इति भावः ।।७८॥ विमला-राक्षस ( पलायन के समय ) अभिमान नष्ट होने से निःसार थे तथा उनका हृदय एक-दूसरे की ओर लज्जा से दृष्टिपात न कर सकने के कारण आँख बचाने में ही लगा हुआ था, हृदय में रावण का ध्यान आ जाने पर (उसके द्वारा मार डाले जाने के भय से ) युद्ध का भय छोड़ कर एक साथ ही लड़ने के लिये वे घूम पड़े ॥७८॥ अथैषां पुनः पौरुषमाह वोच्छिण्णसंधिअजसा होन्ति णिअत्तसमुहविअसोडीरा। कइबलदुप्परिअल्ला सिढिलि अपडिवण्णरणधुरा रअणिअरा ॥७९॥ [व्यवच्छिन्नसंहितयशसो भवन्ति निवृत्तसंमुखस्थापितशौण्डीर्याः। कपिबलदुष्परिकलनीयाः शिथिलितप्रतिपन्नरणधुरा रजनीचराः ॥] शिथिलिता त्यक्ता अथ प्रतिपन्ना स्वीकृता रणधुरा यस्ते रजनीचरा भवन्ति । कीदृशाः । प्रथमं व्यवच्छिन्नं त्रुटितमनन्तरं संहितं सूत्रबद्योजितं यशो यस्ते तथा । एवम्-निवृत्त मपगतं पश्चात्संमुखे स्थापितं शौण्डीर्य महंकारो यैः । एवम्-कपिबलैर्दुष्परिकलनीया दुराधर्षाः । तथा च-यशःशौण्डीयं दुर्धर्षत्वं च भङ्गादपगतम्, युद्धाय परावृत्त्य पुनरागतमित्यर्थः ।।७।। विमला-रजनीचरों ने शिथिल किये गये रण के उत्तरदायित्व को पुनः स्वीकार किया, टूटे हुए यश को ( सूत्रवत् ) पुनः जोड़ लिया तथा हटे हुए अहंकार को पुनः स्थापित किया, अतएव वे कपिसेना के द्वारा दुराधर्ष हो गये ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy