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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५६५ मन्दोदरीसुतेन दुःखितो व्याकुलो यो बानरोऽङ्गदस्तेन हेतुना परितोषान्मुखराः कृतकोलाहला राक्षसलोका यत्र । अङ्गदेन यदा मेघनादः परिभूयते तदा प्लवङ्गानाम्, यदा च मेवनादेनाङ्गदः तदा निशाचराणां मुहम हुरानन्दकोलाहलोऽभूदित्यर्थः ।एवं भुजयोः । अर्थादङ्गदस्य । पतितः सन्निष्फल: । अनभिभावकत्वात् । यः परिघो मेघनादस्य तद्भलेन' द्विधाभावेन सानन्दत्वाद्धेलया हसन्तो वानरयोधा यत्र । भुजयोः किमपि नाभूत् प्रत्युत परिघ एव भग्न इत्याशयः । एवम्-उरसि भिन्नं स्फुटितं शिलातलमङ्गदमुक्तं यस्य तेन मेघनादेन वितया मुक्तो योऽट्टहासस्तेन पाण्डुरितं नभो यस्मात्तत् ।।६२-६८।। विमला-अङ्गद और इन्द्रजित दोनों एक-दूसरे के प्रहारों का निवारण समान रूप से करते, अतएव दोनों की सेनायें दोनों को साधुवाद देती थीं । अङ्गद जिन वृक्षों का प्रयोग अस्त्र रूप में करते, उनके पुष्पों के बीच से इन्द्रजित के शर निकलते अतएव शरों के पुच्छभाग में ( मधु के साथ-साथ ) लगे हुये भौं रे बाहर पहुँच जाते थे। ( अपूर्व युद्ध को देखने के लिये ) दोनों सेनाओं ने युद्धव्यापार बन्द कर दिया और ( अस्त्रों के जाने के मार्ग को छोड़ कर ) दूर हट कर वे खड़ी हुई एवम् ( अपने अपने स्वामी की मरणशङ्का से ) घबरा कर विस्मय से देख रही थीं। कभी दशमुखतनय ( इन्द्रजित ) के छोड़े गये बाणों से आकाश भर जाता और अङ्गद (प्रहार बचाने के लिये ) ऊपर की ओर उछल कर चले जाते एवं कभी वालितनय (अङ्गद) के द्वारा क्रोध से प्रेषित शालवक्षों, शिलाओं तथा शैलों से इन्द्रजित आच्छादित हो जाता था। इस प्रकार इन्द्रजित के बाणों से विदीर्ण अङ्गद के देह के रुधिर से दशो दिशायें लाल हो गयीं तो अङ्गद के भी प्रहारों ने इन्द्रजित के शरीर से वह रुधिरप्रवाह बहाया कि भूमितल पङ्किल हो गया। इन्द्रजित के शूल से दुःखित एवम् अवपतित होते हुये अङ्गद ने वानरों को शोक दिया तो अङ्गदकृत शैलप्रहार से इन्द्रजित भी मूच्छित हो गया और ( अङ्गद के भय से ) निशाचर सेना पृथक हो भाग खड़ी हुई। कभी अङ्गद ने इन्द्रजित को अतिक्रान्त कर दिया तो ( हर्ष से ) वानर सेना ने कलकल निनाद किया और कभी इन्द्रजित ने अङ्गद को व्याकुल कर दिया तो प्रसन्नता से राक्षससेना ने कोलाहल किया। कभी मेघनाद ने अङ्गद ' की भुजाओं पर परिघ ( लौहदण्ड ) से प्रहार किया किन्तु भुजाओं का कुछ नहीं हुआ, उल्टे परिघ ही भग्न एवं निष्फल हो गया तो वानरों ने तिरस्कारपूर्वक इन्द्रजित की हँसी उड़ायी और कभी अङ्गद ने इन्द्रनित की छाती पर शिला से प्रहार किया किन्तु वह निष्फल एवं भग्न हो गयी तो इन्द्रजित के किये गये अट्टहास से नभ पाण्डुर वर्ण का हो गया। इस प्रकार इन्द्रजित और अङ्गद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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