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________________ ४६० ] सेतुबन्धम् [ एकादश एवम् बाप्पैर श्रधिः स्तिमितत्वाद गुरूकृतः अत एव दूरं व्याप्य प्रलम्बैरलकरवस्तृतेनाच्छादितेन हस्तेन मुखं वहन्तीम् । मुखं हस्ते कृत्वा तिष्ठन्तीमित्यर्थः । किमिव । प्रियेण रामेण प्रेषितं बदङ्गुलीयकं तन्मणिप्रभाभिः प्रकटं व्यक्तमेकं पाश्वं यस्य तथाभूतमिव । तथा च--एकपार्श्वस्य करालकपिहितत्वादप्रकटत्वमेव, उपरिगतपार्श्वस्व तु प्रकटत्वम् । स्वच्छमुखान्तनिर्गताभिरधःस्थितकरामुलीयकप्रभाभिः कृतमिवेत्युत्प्रेक्षितम् । यद्वा-'पाविएक्कपास व मुहम्' इति पाठः । तथा चमणिप्रभाप्रावृतै कपार्श्वमिव । तेन मणिप्रभाभिः प्रावृतं छन्नमेकं पार्वं यस्येत्यर्थः । तथा च मणेरिन्द्रनीलत्वेन तत्प्रभावृतकपार्श्वत्वमुत्प्रेक्ष्यमाणमलकेषु नीलतया तत्प्रभात्वमवगमयतीति निरवद्यम् ॥४८ । विमला-दूर तक लम्बी और आँसुओं से भारी कर दी गयी अलकों से आच्छादित हाथ पर वे मुह रख कर स्थित थीं ( मुह का एक पार्श्व भाग हाथ और अलकों से ढका होने के कारण अप्रकट था) दुसरा ऊपर वाला पार्श्व भाग जो व्यक्त था वह मानों प्रिय राम के द्वारा भेजी गयी मुद्रिका की मणिप्रभा से ही व्यक्त था ॥४८॥ आसण्णजज्जविमणं रामभुआसङ्घभणिविसंतावम् । हिमआवलिप्रदहमुहं कि मण्णे होहिइ ति विमुहिज्जन्तिम् ।।४६।। [ आसन्नयुद्धविमनसं रामभुजाध्यवसायनिष्ठापितसंतापाम् । हृदयापतितदशमुखां किं मन्ये भविष्यतीति विमुह्यन्तीम् ॥ ] एवम्-आसन्नमचिरभावि यद्युद्धं तेन विमनस्का युद्धे चानियतो जय इत्याशयात् । अथ रामभुजयोरध्यवसायेन निष्ठापितो नाशितो युद्धे किं स्यादित्यादिसंतापो यस्यास्ताम् । रामो जेष्यत्येवेति निश्चयात् । पश्चात हृदये आपतितो दशमुखो यस्यास्ताम् । तथा च तस्य लब्धवरत्वं पौरुषं च स्मृत्वा पुन: संदिहानामित्यर्थः । अत एव मन्ये विचारयामि । मनसि वा । एकत्र रामोऽपरत्र रावण इति कोटिद्वयतौल्यात्कि भविष्यतीति विमुह्यन्ती मूर्च्छन्तीं संशयानां वा ॥४६॥ विमला-कभी तो निकट भविष्य में होने वाले युद्ध से ( जय की संदिग्धता के कारण ) वे उदास होती और कभी ( राम अवश्य विजयी होंगे-ऐसा विश्वास होने से ) राम की भुजाओं के अध्यवसाय से उनका सन्ताप नष्ट हो जाता, तत्पश्चात् हृदय में रावण आ जाता-उसके प्राप्त वर और पौरुष को स्मरण करतीं तो राम की विजय में उन्हें पुनः सन्देह हो जाता। इस प्रकार (एक तरफ राम और दूसरी तरफ रावण है ) युद्ध में क्या होगा, यह समझ न पाने के कारण वे विमोहित-सी हो रही थीं ॥४६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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