SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२६ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ प्रायो रावणः । तथा चेत्थं चाञ्चल्यमाचरन्तु कपयः कार्य तु भवदवष्टम्भाधीनमेवेति भावः ॥२५॥ विमला-यह कपि-समूह तुम्हारी ( सुग्रीव की) भुजाओं का अवलम्बन प्राप्त कर युद्ध में सुरों को भी जीत सकता है। पृथिवी का रज भी वायु से शक्ति “पाकर सूर्य को आच्छादित करता है। विमर्श-अर्थान्तरन्यास अलंकार है ।।२।। येन प्रकारेण कार्य भवद्भिः कर्तुमारभ्यते तेन किमपि न सेत्स्यतीत्याह कि उण दुप्परिअल्ला मज्जाआइक्कमुप्पहवलिज्जन्ता । उअहि व्व सारगरुआ घडिया वि विसंघडन्ति कज्जालावा ॥२६॥ [किं पुनर्दुष्परिकलनीया मर्यादातिक्रमोत्पथवल्यमानाः। उदधय इव सारगुरवो घटिता अपि विसंघटन्ते कार्यालापाः ॥] किं पुनः । किमधिकं वाच्यमित्यर्थः । मर्यादातिक्रमेणासत्प्रकारेणोत्पथेन अवमंना वल्यमानाः साध्यमानाः कार्यालापा घटिता अपि सिद्धा अपि विसंघटन्ते असिद्धा भवन्ति । तथा चासिद्धाः सेत्स्यन्तीति का प्रत्याशेति भावः । किं भूताः । दुष्परिकलनीयाः विसंघटनानन्तरं दुर्घटनीयाः इत्थंकर्तव्यतया दुरवधारणीया वा। एवं सारेण प्रयोजनेन गुरवः । दृष्टान्तयति-उदधय इव । यथा समुद्रा मर्यादातिक्रमेण वेलालङ्घनेनोत्पथे वल्यमानाः प्राप्यमाणाः सन्तो घटिता ऋजुप्रवाहप्रवृत्ता अपि विसंघटन्ते इतस्ततश्चारिणो भवन्ति तेऽपि दुष्परिकलनीया दुरवपाहनीयाः । सारेण रत्नादिना गुरवः । तथा च 'सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यतवं इत्यनुसारेण न्यवहर्तव्यम् ॥२६॥ विमला-अधिक क्या कहूँ, कार्यविषयक सम्भाषण सप्रयोजन अतएव महत्त्वपूर्ण होते हैं, किन्तु वे जब मर्यादा का अतिक्रमण कर गलत ढंग से किये नाते हैं तो [ घटित ] सिद्ध होते-होते भी विसंघटित ( असिद्ध ) हो जाते हैं और तदनन्तर उनके करने के ढंग का अवधारण करना कठिन हो जाता है, जैसे समुद्र रत्नादि से गौरवशाली होते हुए भी मर्यादा का अतिक्रमण कर बुरे मार्ग पर बढ़ जाते हैं तो पहिले सरल प्रवाह में प्रवृत्त होकर भी इधर-उधर फैल जाते हैं और दुरव. गाहनीय हो जाते हैं ॥२६॥ युष्माकं ज्ञानान्मदीयं ज्ञानमधिकमिति मत्परामर्शेण व्यवहर्तव्यमित्याह परचक्खा हि परोक्खं कह वि तुलग्गघडिआहि आगमसुद्धम् । संचालिअणिक्कम्पं अणहाहि वि मह सुअं चिअ गरुअम् ॥२७॥ [प्रत्यक्षात्परोक्षं कथमपि तुलाग्रघटितादागमशुद्धम् । संचालितनिष्कम्पमनुभूतादपि मम श्रुतमेव गुरु ॥] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy