SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१० ] सेतुबन्धम् [ द्वादश युवतीभिः प्रियाभिमुखान्निवृत्तं प्रियं पश्चात्कृत्य प्रवृत्तम् । प्रियपराङ्मुखमि - त्यर्थः । यत्प्रस्थितं गृहगमनोद्यमस्तद्दुःखेन संस्थाप्यते । स्थिरीक्रियते तात्कालिक - विरहात्संभोगश्रमाच्चेति भावः । किंभूतम् । दुःखेन नियोजितं भूमावर्पितं वामचरणं यत्र । एवम् - पीनत्वाद्वलता संमुखमुत्थापयितुम सामर्थ्याद्वक्रीभवतोरुणा हेतुभूतेन विषमः श्रमसाध्यतया विपर्यस्तो दक्षिणपादस्योद्धार उत्थापनं यत्र । स्त्रियो हि प्रथमं वामपादमये विन्यस्य पश्चाद्दक्षिणपादमुत्थाप्य चलन्तीति स्वभावः । तथा च-तथाकतुमुद्यता अपि संभोगोत्कर्षाज्जङ्घानितम्बस्य जडीभूतत्वेन झटित्युत्थापनमर्पणं वा चरणयोः कर्तुं न शक्नुवन्तीति भावः ॥ १६ ॥ विमला – प्रिय की ओर से मुँह फेर कर घर जाते समय ( तात्कालिक विरह एवं सम्भोगश्रम के कारण ) युवतियों ने बायाँ पैर भूमि पर बड़े दुःख से रक्खा और दायें पैर को आगे बढ़ाने के लिये उठाने में असमर्थ होने के कारण उनका पीन ऊरु ( जंघा ) झुक गया तथा उसका उठाना कठिन हो गया । इस कार बड़ी कठिनाई से ही वे घर को प्रस्थान कर सकीं ॥१६॥ अथ दिनागमनमाहसंखोहिअकमलसरो संझा अवधा उद्दमिअमुहो । ठाफिडिन व गओ रति भमिऊण पडिणिअत्तो दिअसो ॥ १७ ॥ संध्या तपाताम्रधातुकर्दमितमुखः । [ संक्षोभितकमलसराः स्थानस्फिटित इन गजो रात्रि भ्रमित्वा प्रतिनिवृत्तो दिवसः ॥ ] स्थान एव स्फिटितो भ्रष्टोऽपगतो दिवसो रात्रि व्याप्य भ्रमित्वा द्वीपान्तरं गत्वा -गज इव प्रतिनिवृत्तः पुनरागतः । यथा बन्धनस्थानादु भ्रष्टो गजो रात्री भ्रमित्वा प्रतिनिवर्तते प्रातः स्वस्थानमायातीत्यर्थः । साम्यमाह -- कीदृक् । संक्षोभितं विकासितं कमल प्रधानं सरो येन । पक्ष-संक्षोभितं शुण्डाद्यभिघातेनोपमदतम् । एवम् -- संध्यातप एवाताम्रो धातुकर्दमो गैरिकपङ्कस्तद्विशिष्टं मुखमुपक्रमो यस्य । 'पक्षे --संध्यातपवदाताम्र इत्यर्थः । तटाभिघातादिना मुखे गैरिकसम्पर्कादिति - भावः ॥ १७ ॥ विमला - जैसे कमलप्रधान सर को ( संक्षोभित ) उपमदित करने वाला तथा सन्ध्या तप के समान लाल गेरू के पङ्क से लिप्त मुख वाला गज बन्धन- स्थान से भ्रष्ट हो रात भर घूम घाम कर प्रातः पुनः अपने स्थान को आता है वैसे ही दिवस, जिसने कमलप्रधान सर को ( संक्षोभित ) विकसित कर दिया तथा जिसका मुख ( आरम्भ ) सन्ध्यातपरूप गेरू के पङ्क से विशिष्ट है, अपने • स्थान से भ्रष्ट हो रात भर अन्य द्वीपों में घूम कर पुनः लौट कर आ गया ||१७| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy