SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३० ] सेतुबन्धम् युवतीजनः सखीजनस्य पुरतोऽन्यद् अन्यथा च दूतीजनमध्यापयन्नग्रिमकृत्यमुपदिशन्नन्यदेव विमुक्तधैर्यं यथा स्यात्तथा दयितदर्शने जल्पतीति मूढतया रसमग्नत्वं व्यज्यत इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु — युवतीजनः सखीजनस्य पुरतः प्रता`रणायाचाञ्चल्यमपहस्तयन्गुरुपरतन्त्रा भवामि, संप्रति मदागमनं तत्र न स्यादित्या - दिकमन्यदेव दूतीजनं जल्पति संप्रत्येताः प्रतारिताः, मया तत्रावश्यमेतासामक्षि वारयित्वा समागन्तव्यम्, तेन च तावदमुकस्थाने स्थातव्यमित्यादिक्रमेण सखीभ्योऽपि संगोप्य दूती जन मध्यापयन्नुपदिशन्नक्षि ध्रुवादिविकारेणान्यथा जल्पति तथाकृते च दयितदर्शने सत्यतः परं भवन्तो दृष्टा गुरुजनमसंबोध्यैवागतास्मीत्यनुज्ञा दीयतां गमनायेत्यादिकं विमुक्तधैर्यंतया तात्कालिकसंभोगतात्पर्यकमन्यदेव जल्पतीति चातुर्यचतुरस्रता सूचितेति मदुन्नीतः पन्थाः ॥ ७५ ॥ विमला - युवतियों ने सखियों के सामने ( उन्हें धोखे में डालने के लिये ) दूतियों से विपरीत ढंग की बात अर्थात् हम गुरुजनों के अधीन हैं, हमारा आगमन वहाँ न हो सकेगा इत्यादि कहा, जिसका वास्तविक आशय यह था कि हम सखियों को भ्रम में डाल रही हैं, उनकी आँख बचा कर हम वहाँ अवश्य आयेंगी, उन ( प्रिय ) को भी वहाँ हमारे आने तक ठहरना चाहिये । इस कौशलपूर्ण व्यापार के फलस्वरूप प्रिय का दर्शन होने पर अधीरतापूर्वक प्रिय से विपरीत ढंग की बात अर्थात् आप का दर्शन हो चुका, हम गुरुजनों को विना सूचित किये ही भायी हैं; अतः अब हमें जाने की अनुज्ञा दी जाय इत्यादि कहा, जिसका वास्तविक आशय यह था कि हम सखियों एवं गुरुजनों की आँख बचाकर आपके पास आयी हैं और अधिक समय तक ठहर नहीं सकतीं; अतः यथासम्भव शीघ्र रतिक्रीडा सम्पन्न कर ली जानी चाहिये ||७५ || [ दशम नवोढासंगममाह कहं विसमुहाणिअङ्क कह कह वि वलन्तचुम्बिश्रीवत्तमु हो । देइ खलन्तुल्लावे णववहुसत्थे विसूरिअरअं वि धिइम् ।। ७६ ।। [ कथमपि संमुखानीताङ्के कथं कथमपि वलच्चुम्बितापवृत्तमुखे । ददाति स्खलदुल्लापे नववधूसार्थे खिन्नरतमपि धृतिम् ।। नववधूनां सार्थे विषये खिन्नता व्याकुलता तत्प्रधानं रतमपि धृति प्रीति ददाति यूनामित्यर्थात् । किंभूते । पूर्वनिपातानियमात् कथमपि कष्टसृष्ट्या संमुखं यथा स्यात्तथाङ्कानीते मुक्तादिसमर्पण दिव्यदानका कूक्तिबलात्कारादिनाङ्कमुत्सङ्गमानीतेऽनन्तरं वलच्चुम्बितं सदपवृत्तं तिर्यग्भूतं मुखं यस्य तत्र । चुम्बनासहत्वात् । एवं चुम्बनसमकालमेव स्खलन् व्रीडापीडाकामैर्भङ्गुरत्वाद व्यक्त उल्लापो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy