Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ तृतीय खण्ड प्रो० (डॉ० ) रतनचन्द्र जैन For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन संघों के इतिहास. साहित्य. सिद्धान्त और आचार की गवेषणा की गयी है। वैदिक ग्रन्थ महाभारत के उत्तंकोपाख्यान के अनुसार दिगम्बरजैनपरम्परा द्वापरयुग में (आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व) विद्यमान थी। विष्णुपुराण की स्वायंभुवमनुकथा उक्त परम्परा का अस्तित्व प्रथम स्वायंभुवमन्वन्तर में (आज से लगभग ढाई करोड़ वर्ष पहले) बतलाती है। बौद्ध पिटकसाहित्य में की गई निर्ग्रन्थों की चर्चाएँ प्रमाण देती हैं कि बुद्ध के समय (ईसा पूर्व छठी शती) में दिगम्बरजैनमत प्रचलित था। हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त नग्न जिनप्रतिमा आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व दिगम्बरजैनसंघ के अस्तित्व की सूचना देती है। लोहानीपुर (पटना, बिहार) में प्राप्त वैसी ही नग्न जिनप्रतिमा ३०० ई० पू० में दिगम्बरजैनसंघ का अस्तित्व सिद्ध करती है। अशोक के एक स्तम्भलेख में उल्लिखित 'निर्ग्रन्थ' शब्द भी ईसापूर्व तृतीय शती में उक्त परम्परा की मौजूदगी सूचित करता है। श्वेताम्बरसंघ का जन्म अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद (ईसापूर्व ४६५ में) निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से हुआ था। अर्धफालकसंघ ईसापूर्व चतुर्थ शती में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप अस्तित्व में आया था। आगे चलकर वह श्वेताम्बर और दिगम्बर संघों में विलीन हो गया । यापनीयसंघ की उत्पत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्वेताम्बरसंघ से हुई थी, और वह ईसा की १५वीं शती में विलुप्त हो गया। ईसा की पाँचवीं शती तक दिगम्बरजैनसंघ निर्ग्रन्थश्रमणसंघ के नाम से और श्वेताम्बरसंघ श्वेतपटश्रमणसंघ के नाम से प्रसिद्ध था। आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए थे और ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध तक विद्यमान रहे। ___कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में सवस्त्र-मुक्ति, स्त्रीमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यताओं का निषेध है। अतः ये सभी दिगम्बरजैनपरम्परा के ग्रन्थ हैं। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ (जैन संघों के इतिहास, साहित्य, सिद्धान्त और आचार की गवेषणा ) तृतीय खण्ड भगवती-आराधना आदि सोलह ग्रन्थों की कर्तृपरम्परा प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष : संस्कृतविभाग शा० हमीदिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय भोपाल, म.प्र. पूर्व रीडर : प्राकृत तुलनात्मक भाषा एवं संस्कृति विभाग बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल, म.प्र. सर्वोदय जैन विद्यापीठ, आगरा, उ० प्र० For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81 - 902788 - 0 - 0 ( Set ) ISBN 81 - 902788 - 3-5 ( Volume III ) सर्वोदय जैन विद्यापीठ ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 1 जैनपरम्परा और यापनीयसंघ तृतीय खण्ड प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा - 282002, उ० प्र० दूरभाष : 0562-2852278 लिप्यङ्कन : समता प्रेस, भोपाल मुद्रक : दीप प्रिण्टर्स 70ए, रामा रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, कीर्ति नगर, नई दिल्ली-110015 दूरभाष : 09871196002 प्रथम संस्करण : वी० नि० सं० 2535, ई० 2009 प्रतियाँ : 1000 मूल्य : 500 रुपये सर्वाधिकार : प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन JAINA PARAMPARĀ AURA YĀPANİYA SANGHA Vol. III By Prof. (Dr.) Ratana Chandra Jaina Published by Sarvodaya Jaina Vidyāpītha 1/205, Professors' Colony AGRA-282002, U.P. First Edition : 1000 Price : Rs. 500 ©: Prof. (Dr.) Ratana Chandra Jaina For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ईसोत्तर २०वीं-२१वीं शती के अद्भुत, अद्वितीय, अतिलोकप्रिय दिगम्बरजैन मुनि परमपूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज को, जिनकी प्रगाढ़ आगमश्रद्धा, तलस्पर्शी आगमज्ञान एवं आगमनिष्ठचर्या ने इस पंचमकाल में मुनिपद को प्रामाणिकता और श्रद्धास्पदता प्रदान की है, जिनके अलौकिक आकर्षण के वशीभूत हो अनगिनत युवा-युवतियाँ भोगपथ का परित्याग कर योगपथ के पथिक बन गये और निरन्तर बन रहे हैं, जिनकी वात्सल्यमयी दृष्टि, अर्तिहारिणी मुस्कान एवं हित-मित-प्रिय वचन दर्शनार्थियों को आनन्द के सागर में डुबा देते हैं, जिनके वात्सल्यप्रसाद का पात्र में भी बना हूँ तथा जिन्होंने अनेक शुभ उत्तरदायित्व आशीर्वाद में प्रदान कर मेरे जीवन के अन्तिम चरण को धर्मध्यान केन्द्रित बना दिया। नमोऽस्तु। गुरुचरणानुरागी रतनचन्द्र जैन For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व पृष्ठाङ्क - तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय सत्ताईस - संकेताक्षर-विवरण तेंतालीस तृतीय खण्ड भगवती-आराधना आदि सोलह ग्रन्थों की कर्तृपरम्परा त्रयोदश अध्याय भगवती-आराधना प्रथम प्रकरण-भगवती-आराधना के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण क-यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु ख-सभी हेतु असत्य या हेत्वाभास ग-दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण : यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन१. सवस्त्रमुक्तिनिषेध १.१. आचेलक्य मुनि का अनिवार्य प्रथम धर्म १.२. श्रावक का लिंग अपवादलिंग १.२.१. सपरिग्रह एवं मुनिनिन्दाकारणभूत लिंग अपवादलिंग १.२.२. गृहिभाव का सूचक लिंग अपवादलिंग १.२.३. मुक्ति के लिए त्याज्य लिंग अपवादलिंग १.२.४. श्राविका का लिंग अपवादलिंग १.३. भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य लिंग का निर्देश ... १.४. प्रेमी जी की महाभ्रान्ति in no w w w ovo or a no For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १.५. टीका में श्वेताम्बरमान्य सचेललिंग के दोषों का निरूपण १.६. टीका में अचेललिंग से ही मोक्ष का प्रतिपादन १.७. श्वेताम्बरीय मान्यताओं के आगमानुकूल होने का खण्डन - विवेचन का सार २. स्त्रीमुक्तिनिषेध २.१. वस्त्रत्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं २.२. वस्त्रत्याग से ही अपवादलिंगधारी की शुद्धि २.३. पुरुषशरीर ही संयम का हेतु २.४. किसी भी स्त्री के मुक्त होने का कथन नहीं ३. गृहिलिंग-परलिंग-मुक्तिनिषेध ४. केवलिभुक्ति-निषेध ५. परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत-विरुद्ध ५.१. बाह्यपरिग्रह भी परिग्रह ५.२. परिग्रहग्रहण देहसुख के लिए ५.३. बाह्यपरिग्रह देहासक्ति का सूचक ५.४. बाह्यपरिग्रह मूर्छा का निमित्त ५.५. तीव्र कषाय से ही परिग्रह का ग्रहण ५.६. परिग्रह से रागद्वेष की उदीरणा ५.७. परिग्रही में लेश्या की विशुद्धि असम्भव ५.८. वस्त्रादिपरिग्रह से हिंसा ५.९. परिग्रह स्वाध्याय में बाधक ५.१०. परिग्रहत्याग से रागद्वेष का त्याग ५.११. परिग्रहत्याग परीषहजय का उपाय ५.१२. परिग्रहत्याग से ध्यान-अध्ययन निर्विघ्न ५.१३. मूर्छा, राग, इच्छा, ममत्व एकार्थक ५.१४. अपरिग्रह-महाव्रत की वैकल्पिक परिभाषा नहीं ६. वेदत्रय एवं वेदवैषम्य की स्वीकृति ७. मायाचार के परिणाम के विषय में मतभेद ८. गुणस्थानानुसार कर्मक्षय का निरूपण ९. मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व १०. लोच के ही द्वारा केशत्याग का नियम ११. मांस, मधु और मद्य का सर्वथा निषेध १२. अभिग्रहविधान १३. भगवती - आराधना में कुन्दकुन्द की गाथाएँ घ - दिगम्बरग्रन्थ होने के बहिरंग प्रमाण १. सभी टीकाकार दिगम्बर २. दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत रचनाकाल यापनीय - संघोत्पत्तिपूर्व ३. द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता १. शिवार्य के गुरु दिगम्बर थे २. सर्वगुप्त के दिगम्बर होने का शिलालेखीय प्रमाण ३. दिगम्बराचार्यों के भी नाम आर्यान्त और नन्द्यन्त ४. अपराजित सूरि दिगम्बराचार्य थे ५. ७. भगवती - आराधना में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं ६. श्वेताम्बर -यापनीय - समानपूर्वपरम्परा कपोलकल्पित 'आराधना' की गाथाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थों में ७. १. गुणस्थान - विकासवाद नितान्त कपोलकल्पित ७. २. प्रकीर्णकों की रचना 'आराधना' के पश्चात् ७. ३. ग्रन्थ का बृहदाकार अर्वाचीनता का लक्षण नहीं ७.४. वर्ण्यविषय की समानता रचनाकाल की समानता का लक्षण नहीं ७.५. दिगम्बरीय-गाथाओं के श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँचने के प्रमाण ७.६. परसाहित्यांश - ग्रहण से कर्तृत्व परिवर्तन नहीं ८. 'आचेलक्कुद्देसिय' आराधना की मौलिक गाथा ९. क्षपक के लिए मुनियों द्वारा आहार - आनयन अविरुद्ध १०. 'तालपलंबसुत्तम्मि' में 'कल्प' के सूत्र का उल्लेख नहीं ११. दिगम्बरमुनि भी 'पाणितलभोजी' १२. मेतार्य मुनि की कथा लोककथा १३. ‘विजहना-विधि' दिगम्बरपरम्परानुकूल For Personal & Private Use Only [ नौ ] ४९ ५१ ५४ ५५ ५५ ५५ ५७ ५८ ६० ů w w w w w w w w ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७५ ७६ ७८ ८१ ८५ ८६ ९१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ दस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड, ३ ९४ ९५ ९९ १०० १०१ १०२ १०४ १०६ १०६ १०७ १०७ १४. भद्रबाहु-समाधिमरण बृहत्कथाकोश में १५. 'आचार', 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम नहीं १६. 'अनुयोगद्वार' शास्त्र का नाम नहीं १७. आवश्यकसूत्र की गाथा मूलग्रन्थ में उद्धृत नहीं १८. आचारांगादि नाम दिगम्बरपरम्परा में भी प्रसिद्ध O उपसंहार : दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण सूत्ररूप में तृतीय प्रकरण - भक्तप्रत्याख्यान में स्त्री के लिए नाग्न्यलिंग नहीं १. आगमोक्त दीक्षालिङ्ग ही भक्तप्रत्याख्यानलिङ्ग २. तदेव लिङ्ग ३. प्राक्तन लिङ्ग ४. आर्यिका के प्रसंग में विविक्त- अविविक्त स्थान का उल्लेख नहीं आर्यिका का अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग ही उपचार से सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्ग लिङ्ग ५. ६. आर्यिकाओं के प्रसंग में 'पुंसामिव योज्यम्' निर्देश भी नहीं ७. 'पुंसामिव योज्यम्' का अभिप्राय ८. अमहर्द्धिकादि श्राविकाओं के लिए सर्वत्र उत्सर्गलिङ्ग ९. युक्तित: भी आगमविरुद्ध १०. पं० सदासुखदास जी को अस्वीकार्य चतुर्दश अध्याय अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य प्रथम प्रकरण - अपराजितसूरि के दिगम्बर होने के प्रमाण O विजयोदयाटीका में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त १. सवस्त्रमुक्ति का निषेध : तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र उपाय १.१. सचेलत्व की मुक्ति-विरोधिता के अनेक हेतु १. १. १. दशधर्मपालन में बाधक १.१.२. संयमशुद्धि में बाधक १.१.३. इन्द्रियविजय में बाधक For Personal & Private Use Only १०८ १०८ १०९ ११० ११० १११ ११५ ११५ ११५ ११९ ११९ १२० १२१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ १२२ १२५ १२७ अन्तस्तत्त्व [ग्यारह] १.१.४. कषायविजय में बाधक १.१.५. ध्यानस्वाध्याय में बाधक १२२ १.१.६. आभ्यन्तरपरिग्रह-त्याग में बाधक १.१.७. रागद्वेष से मुक्त होने में बाधक १२३ १.१.८. शरीर के प्रति अनादरभाव में बाधक १२३ १.१.९. स्वाधीनता में बाधक १२३ १.१.१०.चित्तविशुद्धि के प्रकट होने में बाधक १२४ १.१.११.निर्भयता में बाधक १२४ १.१.१२.विश्रब्धता में बाधक १.१.१३.अप्रतिलेखना में बाधक १.१.१४.परिकर्म से मुक्त होने में बाधक १.१.१५.लाघव में बाधक १२६ १.१.१६.सचेलत्व तीर्थंकर-मार्गानुसरण में बाधक १२६ १.१.१७.बलवीर्य के प्रकटन में बाधक १.१.१८.अचेल ही निर्ग्रन्थ है १२७ १.२. किसी भी सचेल का निर्दोष रहना असंभव २. गृहस्थमुक्तिनिषेध १२८ ३. परतीर्थिकमुक्ति-निषेध ४. स्त्रीमुक्तिनिषेध १३२ ५.. अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध १३६ ६. केवलिभुक्तिनिषेध १३७ ७. यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त द्वितीय प्रकरण-यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता । १. मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग अमान्य १४१ १.१. सवस्त्रमुक्ति के घोर विरोधी १४२ १.२. सचेललिंगधारी के मुनि होने का निषेध १.३. परिग्रहधारी यति (संयत) नहीं १४४ १.४. वस्त्रधारी गृहस्थ ही वस्त्रधारी श्वेताम्बर साधु बनता है १४५ १.५. मुनिधर्म उत्सर्ग, श्रावकधर्म अपवाद १४६ १२७ १३१ १३८ १४१ १४३ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ १५१ १५४ १६२ १६३ १६५ [बारह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १.६. विकल्प और अपवाद में अन्तर १४७ १.७. परिग्रहसहितलिंग अपवादलिंग १४८ १.८. प्रशस्तलिंगादिवालों का भी सचेललिंग अपवादलिंग १४९ १.९. परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण १.१०. मुनि के अपवादलिंग में वस्त्रग्रहण का विधान नहीं श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य अस्वीकार्य १५४ २.१. सचेलमुक्ति का निषेध २.२. श्वेताम्बरागमों में वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष, निर्दोषतापेक्ष नहीं १५५ २.३. श्वेताम्बरागम-वचनों का स्वीकरण और निरसन १५९ २.४. श्वेताम्बर-आगमों में अचेलता के उपदेश का हेतु : वस्त्रग्रहण की सदोषता २.५. श्वेताम्बरमान्य सचेलमुक्ति पर तीव्र प्रहार २.६. श्रुतसागरसूरि की भूल २.७. दिगम्बर-आगमों का प्रामाण्य स्वीकार्य ३. कवलाहार-विषयक अवर्णवाद का उदाहरण अनावश्यक ४. दिगम्बर-चन्द्रनन्दी यापनीय-चन्द्रनन्दी से भिन्न ५. दिगम्बर-दशवैकालिक श्वेताम्बर-दशवैकालिक से भिन्न १७० ६. काणू या क्राणूर् दिगम्बर-मूलसंघ का ही गण रात्रिभोजनत्यागवत दिगम्बरमत में भी मान्य ८. अथालन्दसंयमादि दिगम्बरमान्य - श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि का स्वरूप - विजयोदयाटीका में अथालन्दकादि का स्वरूप - दोनों में विरोध १७८ ९. भिक्षुप्रतिमाएँ दिगम्बरमतानुकूल १०. सात घरों से भिक्षा दिगम्बरमतानुकूल १८३ ११. पुरुषवेदादि का पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य १२. प्रथम शुक्लध्यान दिगम्बरमतानुकूल १८८ - उपसंहार : दिगम्बराचार्य होने के प्रमाण सूत्ररूप में १६७ १६८ १६९ १७२ १७३ १७५ १७५ १७६ १८१ १८५ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व पञ्चदश अध्याय मूलाचार प्रथम प्रकरण - मूलाचार के दिगम्बर ग्रन्थ होने के प्रमाण क- मूलाचार का महत्त्व ख- - मूलाचार संग्रहग्रन्थ नहीं ग - • यापनीय ग्रन्थ होने की नई उद्भावना : समर्थक हेतु घ- सभी हेतु असत्य - दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण : यापनीयमत विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन १. सवस्त्रमुक्ति अमान्य ङ - २. १.१. आचेलक्य मुनि का मूलगुण १.२. आचेलक्य के बिना संयतगुणस्थान असंभव १.३. सर्वांग - निर्वस्त्रता ही अचेलता और निर्ग्रन्थता १.४. आचेलक्य का अर्थ अल्पचेलत्व नहीं १.५. आचेलक्य चारित्र का साधन १.६. निर्ग्रन्थ को ही निर्वाण की प्राप्ति यापनीय - अमान्य २८ मूलगुणों का विधान२.१. योगचिकित्साविधि - न्याय कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल २.२. यापनीय परम्परा में अन्य प्रकार के २७ मूलगुण २.३. उत्तरगुण भी यापनीयमत में अमान्य ३. स्त्रीमुक्ति अमान्य ४. अन्यलिंग से मुक्ति का निषेध ५. गृहिलिंग से मुक्ति का निषेध ६. अपरिग्रह का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध ७. गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास की मान्यता ८. सोलह कल्पों की मान्यता ९. नौ अनुदिश- स्वर्गों की मान्यता १०. वेदत्रय की स्वीकृति च - दिगम्बरकृतित्व - विषयक बहिरंग प्रमाण For Personal & Private Use Only [ तेरह ] १९३ १९३ १९६ १९७ १९८ १९८ १९८ १९८ २०० २०० २०० २०१ २०२ २०२ २०७ २०८ २१० २१० २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१८ २१९ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ २२७ २३० २३५ २३९ [चौदह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १. दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत २१९ २. समस्त टीकाएँ दिगम्बर आचार्यों और पण्डितों द्वारा लिखित २२० ३. मूलाचार की रचना यापनीयसंघोत्पत्ति-पूर्व २२१ द्वितीय प्रकरण-यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता का उद्घाटन २२२ १. 'विरती' शब्द का प्रयोग उपचार से २२२ - निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग नहीं २२५ २. आर्यिकाओं के लिए मुनियोग्य सामाचार का विधान नहीं ३. आर्यिकाओं की परम्परया मुक्ति का कथन ४. आर्यिका का मुनिसंघ में समावेश मुनितुल्य होने का प्रमाण नहीं २२९ ५. स्त्री की औपचारिक दीक्षा मान्य ६. समान गाथाएँ दिगम्बरग्रन्थों से गृहीत २३३ ७. कथित गाथाएँ दिगम्बरत्व-विरोधी नहीं ८. 'आचार', 'जीतकल्प' ग्रन्थों के नाम नहीं २३८ ९. 'आराधनानियुक्ति' आदि दिगम्बरग्रन्थों के नाम १०. 'मूलाचार' की रचना का आधार 'आवश्यकनियुक्ति' नहीं २४४ ११. कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ २४५ १२. 'मूलाचार' में श्वेताम्बरीय गाथाओं का अभाव - उपसंहार : दिगम्बरकृति होने के प्रमाणसूत्ररूप में २४८ षोडश अध्याय तत्त्वार्थसूत्र प्रथम प्रकरण-तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ न होने के प्रमाण २५३ क- श्वेताम्बरग्रन्थ होने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु २५३ ख– हेतुओं की असत्यता और हेत्वाभासता २५४ ग- सूत्र और भाष्य के भिन्नकर्तृत्व-साधक प्रमाण २५५ १. सूत्र और भाष्य में सम्प्रदाय भेद १.१. सूत्र में अन्यलिंगि-मुक्तिनिषेध १.२. सूत्र में गृहिलिंगि-मुक्तिनिषेध १.३. सूत्र में सवस्त्रमुक्तिनिषेध २६३ २४७ २५५ २५६ २६१ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व २६५ २६८ २७० २७१ २७५ २७८ [पन्द्रह] १.३.१. नग्न रहने पर ही शीतादिपरीषह संभव २६३ १.३.२. श्वेताम्बरागमों में परीषहत्राणार्थ ही वस्त्रधारण की अनुमति २६४ १.३.३. चोलपट्टधारी को नाग्न्यपरीषह संभव नहीं १.३.४. अर्धफालकधारी को नाग्न्यशीतादि-परीषह संभव नहीं १.३.५. श्वेताम्बरमत में नाग्न्य हेय है १.३.६. श्वेताम्बरमत में शीतादिपरीषह निवारणीय हैं, सहनीय नहीं १.३.७. तत्त्वार्थसूत्र में उपचारनाग्न्य मान्य नहीं १.३.८. परीषहजय की कल्पित परिभाषा युक्तिसंगत नहीं २७४ १.३.९. याचनापरीषहजय भी सवस्त्रमुक्तिविरोधी २७४ १.३.१०. दिन को रात बना देने का अद्भुत साहस १.४. सूत्र में स्त्रीमुक्तिनिषेध १.५. अपरिग्रह की परिभाषा वस्त्रपात्रादिग्रहण-विरोधी १.६. तीर्थंकरप्रकृति-बन्धक हेतुओं की सोलह संख्या श्वेताम्बरमत-विरुद्ध २८८ १.७. सूत्र में केवलिभुक्ति-निषेध- १.७.१. नाग्न्यपरीषह के उल्लेख से केवली का कवलाहारी होना निषिद्ध २९६ १.७.२. अनन्तसुख की अवस्था में कोई भी परीषह संभव नहीं १.७.३. केवली में चर्यादि-परीषहों का अभाव अन्य कारणों से भी १.७.४. याचनापरीषह-निषेध से केवलिभुक्ति का निषेध । २९८ १.७.५. इच्छा, याचना तीव्रमोहोदय का कार्य २९९ १.७.६. परीषह न होने पर भी होने का कथन क्यों? ३०० १.७.७. साम्प्रदायिकता का आरोप और उसका निराकरण ३०५ २. सूत्र और भाष्य में विसंगतियाँ ३०६ ____ . २.१. 'यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' ३०७ २८५ २८९ २९७ २९८ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ ३१८ [सोलह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ २.२. आक्षेप का निराकरण ३०८ २.३. 'क्षयोपशमनिमित्तः' रखने का प्रयोजन ३१० २.४. 'यथोक्तनिमित्तः' को हटाने का आरोप मिथ्या ३११ २.५. 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया:---' ३११ २.६. 'इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंश---' ३१४ २.७. आक्षेप का निराकरण ३१५ २.८. 'सारस्वत्यादित्य---' २.९. सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दर्शनी ३१८ २.१०. 'मतिः स्मृतिः---' २.११. शब्दादि नय ३१९ २.१२. चरमदेहोत्तमपुरुष ३१९ २.१३. प्राणापान ३२० २.१४. घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः ३२० २.१५. 'औदारिकवैक्रिय---' ३२१ २.१६. महाव्रत संवर के हेतु ३२१ २.१७. 'कालश्चेत्येके' ३२२ २.१८. 'बादरसाम्पराये सर्वे' ३. सूत्र-भाष्य-एककर्तृत्वविरोधी अन्य हेतु ३२४ ३.१. कर्मणो योग्यान् ३२४ ३.२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति ३२४ ३.३. सटिप्पण प्रति में कुछ अधिक सूत्र ३२६ ३.४. भाष्य के पूर्व भी कुछ श्वेताम्बरटीकाएँ रचित ४. एककर्तृत्व के पक्षधर हेतुओं की हेत्वाभासता के प्रमाण४.१. स्वोपज्ञता सर्वमान्य नहीं है ३२८ ४.२. उत्तमपुरुष की क्रिया सूत्रकार-भाष्यकार के एकत्व का प्रमाण नहीं ३३१ ४.३. सूत्र और भाष्य में विरोध एवं विसंगतियाँ ५. एककर्तृत्वविरोधी बाह्य हेतु ३३६ द्वितीय प्रकरण-सर्वार्थसिद्धि की भाष्यपूर्वता के प्रमाण ३३८ १. सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में वाक्यगत साम्य ३३८ ३२३ ३२६ ३२८ ३३५ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व २. सर्वार्थसिद्धि में भाष्य का अनुकरण नहीं ३. भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण ४. सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का भाष्य में उल्लेख ५. सर्वार्थसिद्धि में भाष्य की चर्चा नहीं ६. सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करनेवाले हेतु असत्य — ६.१. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की शैली अर्वाचीन ६.२. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अर्थविस्तार ६.३. अव्याख्या व्याख्याग्रन्थ की अविकसितता का लक्षण नहीं ६.४. दोनों की रचना सम्प्रदायभेद के बाद ७. भाष्य का रचनाकाल छठी शती ई० का पूर्वार्ध ८. तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता का नाम गृध्रपिच्छाचार्य तत्त्वार्थसूत्रकार का 'उमास्वाति' नाम संभव नहीं तृतीय प्रकरण - 'तत्त्वार्थ' के सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध नहीं १. बारह स्वर्ग भी दिगम्बरमत में मान्य २. 'कालश्चेत्येके' सूत्र मौलिक नहीं ३. पुलाकादि मुनि दिगम्बरमत- विरुद्ध नहीं ४. दिगम्बरग्रन्थों में भी केवली का दर्शनज्ञानयौगपद्य चतुर्थ प्रकरण – तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार दिगम्बरग्रन्थ - १. श्वेताम्बर - आगम तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार नहीं " २. सूत्रों की दिगम्बरग्रन्थों से शब्द - अर्थ - रचनागत समानता ३. गुणस्थानाश्रित निरूपण के आधार दिगम्बरग्रन्थ पञ्चम प्रकरण – तत्त्वार्थसूत्र के उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का ग्रन्थ न होने के प्रमाण १. तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सम्प्रदाय का ग्रन्थ होने की मान्यता २. उमास्वाति को उक्त सम्प्रदाय का आचार्य मानने के हेतु निरसन O षष्ठ प्रकरण – तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल द्वितीय शताब्दी ई० सप्तम प्रकरण – तत्त्वार्थसूत्र के यापनीयग्रन्थ न होने के प्रमाण O उपसंहार – तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ : प्रमाण सूत्ररूप में For Personal & Private Use Only [ सत्रह ] ३४१ ३४१ ३४४ ३४७ ३५१ ३५१ ३५६ ३६४ ३६९ ३७३ ३७५ ३७९ ३८२ ३८२ ३८५ ३८७ ३८८ ३९० ३९० ३९४ ४११ ४१२ ४१२ ४१३ ४१५ ४१७ ४१९ ४२६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ WW ४३५ ४३६ [अठारह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सप्तदश अध्याय तिलोयपण्णत्ती प्रथम प्रकरण-तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण ४३१ क- रचनाकाल : ईसा की द्वितीय शती का उत्तरार्ध ४३१ ख-यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु ग- सभी हेतु असत्य घ- तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त १. सवस्त्रमुक्तिनिषेध ४३३ २. स्त्रीमुक्तिनिषेध २.१. स्त्रियाँ पूर्वधर नहीं होती २.२. मल्लिनाथ के साथ कोई स्त्रीदीक्षा नहीं ४३६ २.३. समस्त तीर्थंकरों के तीर्थ में केवल मुनियों को ही मोक्ष- ४३७ २.४. मल्लिनाथ का अवतार अपराजितस्वर्ग से, जयन्त से नहीं। २.५. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर का उल्लेख नहीं ३. गृहस्थमुक्तिनिषेध ४. अन्यलिंगिमुक्तिनिषेध ५. केवलिभुक्तिनिषेध ४४० ६. आचार्यपरम्परा दिगम्बरमतानुसार ४४२ ७. आगमों के विच्छेद का कथन ४४३ ८. कल्पों की संख्या १२ और १६ दोनों मान्य ९. नव अनुदिश मान्य १०. अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ मान्य ११. काल की स्वतंत्रद्रव्य के रूप में मान्यता १२. मोक्षमार्ग की चतुर्दश-गुणस्थानात्मकता ४४९ १३. दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक ४५० १४. चामर-प्रातिहार्य में चामरों की बहुलता १५. तीर्थंकर के नभोयान का उल्लेख १६. कुन्दकुन्द की गाथाओं का संग्रहण एवं अनुकरण ४५४ ४३८ ४३८ ४३९ ४४० ४४५ ४४५ ४५१ ४५३ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्नीस ] ४५६ ४५६ ४५७ ४५७ ४. शिवार्य दिगम्बर थे ४५८ ५. नाम के साथ 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं ४५८ ६. स्त्रीमुक्त्यादि-निषेध का अनुल्लेख यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं ७. न शिवार्य यापनीय थे, न यतिवृषभ ८. 'गणी' शब्द यतिवृषभ का सूचक नहीं ९. O अन्तस्तत्त्व द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता १. कसायपाहुडचूर्णि एवं यतिवृषभ यापनीय नहीं २. दिगम्बरों में कसायपाहुडचूर्णि का लेखन ३. उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा कपोलकल्पित ५. आगमविच्छेदक्रम न प्रक्षिप्त, न यापनीयकथित उपसंहार — ति० प० के दिगम्बराचार्यकृत होने के प्रमाण सूत्ररूप में प्रथम प्रकरण – सन्मतिसूत्रकार के दिगम्बर होने के प्रमाण १. सन्मतिसूत्र जैनदर्शन - प्रभावक ग्रन्थ २. सिद्धसेन नाम के अनेक ग्रन्थकार ३. कल्याणमन्दिरस्तोत्र - वर्णित पार्श्वनाथ - उपसर्ग श्वेताम्बरमत-विरुद्ध न्यायावतार एवं ३२ द्वात्रिंशिकाओं का परिचय ४. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन केवल 'सन्मतिसूत्र' के कर्त्ता O समान प्रतिभा का हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास ५. १. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन अभेदवाद ( एकोपयोगवाद) पुरस्कर्त्ता ५.२. प्रथम-द्वितीय-पंचम द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वादप्रतिपाद ५.३. निश्चयद्वात्रिंशिका एकोपयोगवाद-विरोधी, युगपद्वादी ५.४. निश्चयद्वात्रिंशिका मति - श्रुतभेद - अवधि - मन:पर्ययभेदविरोधी अष्टादश अध्याय सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य ५.५. 'सन्मतिसूत्र' मतिज्ञान - श्रुतज्ञान - भेदसमर्थक ५.६. न्यायावतार मतिज्ञान - श्रुतज्ञानादि - भेदसमर्थक For Personal & Private Use Only ४५९ ४५९ ४६० ४६१ ४६४ ४६९ ४६९ ४७० ४७२ ४७३ ४७९ ४८१ ४८२ ४८४ ४८६ ४८६ ४८७ ४८७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ [बीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ५.७. निश्चयद्वात्रिंशिका में ज्ञानदर्शनचारित्र व्यस्तरूप से मोक्षमार्ग, सन्मतिसूत्र में समस्तरूप से . ४८९ ५.८. निश्चयद्वात्रिंशिका में धर्म-अधर्म-आकाश द्रव्य अमान्य, सन्मतिसूत्र में मान्य ४९० ५.९. निश्चयद्वात्रिंशिकाकार सिद्धसेन के लिए 'द्वेष्य श्वेतपट' विशेषण का प्रयोग ५.१०. न्यायावतार सन्मतिसूत्र से एक शताब्दी पश्चात् की रचना ४९२ ६. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नियुक्तिकार भद्रबाहु से उत्तरवर्ती ७. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का समय छठी और ७वीं शती ई० का मध्य७.१. पूज्यपाद-उल्लिखित सिद्धसेन सन्मतिसूत्रकार से भिन्न एवं पूर्ववर्ती ७.२. पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख ७.३. न्यायावतार में समन्तभद्र का अनुकरण ७.४. प्रथम द्वात्रिंशिका में समन्तभद्र का प्रचुर अनुकरण ७.५. आद्य जैन तार्किक सिद्धसेन नहीं, अपितु समन्तभद्र ७.६. कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन पूज्यपाद से पूर्ववर्ती ५१४ ८. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य ८.१. दिगम्बर-सेनगण के आचार्य ८.२. सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि की 'पञ्चवस्तु' में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के लिए 'दिवाकर' उपनाम का प्रयोग ८.३. नामसाम्य के कारण 'दिवाकर' उपनाम अन्य सिद्धसेनों के भी साथ जुड़ गया ५२१ ८.४. रविषेण के पद्मचरित में 'दिवाकरयति' का उल्लेख ८.५. दूसरी, पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में युगपद्वाद एवं स्त्रीवेदी पुरुष-मुक्ति मान्य ८.६. सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बरमान्य क्रमवाद का खण्डन ५२७ ८.७. श्वेताम्बराचार्यों द्वारा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की निन्दा ५२८ ८.८. दिगम्बरसाहित्य में सन्मतिसूत्रकार का गौरवपूर्वक स्मरण ५२८ ५१३ ५१५ ५१६ ५१८ ५२२ ५२३ For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ५३३ ५४० ५५५ ५५५ अन्तस्तत्त्व [इक्कीस] ९. कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता एक अन्य दिगम्बर सिद्धसेन और कुछ श्वेताम्बर सिद्धसेन १०. न्यायावतार के कर्ता एक अन्य श्वेताम्बर सिद्धसेन ५३१ द्वितीय प्रकरण-मुख्तार जी के निर्णयों का विरोध और उसकी आधारहीनता तृतीय प्रकरण-सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव ___ लेख-सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव पं० जुगलकिशोर मुख्तार , सम्पादक-'अनेकान्त' ५४० चतुर्थ प्रकरण-सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती नहीं - आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र ही रत्नकरण्ड के कर्ता - लेख-रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय लेखक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार ५५७ - प्रो० हीरालाल जी जैन का नया मत–'रत्नकरण्ड' का 'क्षुत्पिपासा'. पद्यगत 'दोष' शब्द आप्तमीमांसाकार के मतानुरूप नहीं - निरसन ५६३ आप्तमीमांसा में आप्तदोष के स्वरूप का वर्णन नहीं ५६३ अष्टसहस्री के 'विग्रहादिमहोदय' में भुक्त्युपसर्गाभाव अन्तर्भूत ५६४ आप्तमीमांसाकार को केवली में क्षुधादिदोष मान्य नहीं . ५६७ 'विद्वान्' शब्द 'तत्त्वज्ञानी' का वाचक, 'सर्वज्ञ' का नहीं ५६९ 'स्वदोषशान्त्या' आदि पद्यों में केवली के क्षुधादि दोषों की शान्ति का कथन ५७४ पूर्व में रत्नकरण्ड का समन्तभद्रकर्तृत्व एवं प्राचीनता स्वीकृत ५७५ ७. सर्वार्थसिद्धि में रत्नकरण्ड के शब्दार्थादि का अनुकरण ५७७ - ७वीं शती ई. के 'न्यायावतार' में 'रत्नकरण्ड' का पद्य ५७९ पञ्चम प्रकरण-रत्नकरण्ड और रत्नमाला में सैद्धान्तिक एवं कालगत भेद ६०४ ____ लेख-क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति . नहीं है?-लेखक : न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया १५७ ६०५ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बाईस ] षष्ठ प्रकरण— रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसादि में शब्दार्थसाम्य सप्तम प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता अष्टम प्रकरण - उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के पक्षधर हेतुओं की असत्यता एकोनविंश अध्याय रविषेणकृत पद्मपुराण प्रथम प्रकरण - पद्मपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ६१३ ६१७ O पद्मपुराण में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त १. वैकल्पिक सवस्त्र - मुनिलिंग का निषेध १. १. मुनियों का एक ही लिंग : दिगम्बरलिंग १.२. दिगम्बर मुनि की ही मुनि, श्रमण, साधु आदि संज्ञाएँ १.३. 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'दिगम्बर' का वाचक १.४. वस्त्र का भी परित्याग 'अशेष परिग्रहत्याग' का लक्षण १.५. सभी के द्वारा दिगम्बर दीक्षा का ग्रहण १.६. सभी को दिगम्बर मुनि बनने का उपदेश १.७. वस्त्रपात्रादि उपकरणधारी कुलिंगी हैं १.८. जैनलिंग से ही मोक्ष की प्राप्ति २. वस्त्रमात्र - परिग्रहधारी की क्षुल्लक संज्ञा ३. गृहस्थमुक्तिनिषेध ४. परतीर्थिक- मुक्तिनिषेध ५. स्त्रीमुक्तिनिषेध ६. सोलहकल्पादि की स्वीकृति ७. कथावतार की दिगम्बरपद्धति द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता विंश अध्याय वराङ्गचरित प्रथम प्रकरण - वराङ्गचरित के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण वराङ्गचरित में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त O For Personal & Private Use Only ६२५ ६२९ ६३० ६३० ६३० ६३२ ६३२ ६३३ ६३४ ६३५ ६३६ ६३६ ६३७ ६३९ ६४० ६४१ ६४३ ६४३ ६४५ ६५५ ६५५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तत्त्व [ तेईस] ६५५ ६५६ ६५६ ६५७ ६५८ ६६० ६६१ ६६२ ६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ६६७ १. केवलिभुक्तिनिषेध - केवलिभुक्तिनिषेध पर आवरण : छलवाद २. वैकल्पिक-सवस्त्रमुक्तिनिषेध २.१. राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा २.२. वसंगियों के वर्णन को वरांग का वर्णन कहना छलवाद २.३. वरांग की सवस्त्रदीक्षा की संभावना के लिए स्थान नहीं २.४. साधु के साथ 'सवस्त्र' शब्द का प्रयोग एक भी बार नहीं २.५. 'विशीर्णवस्त्रा' मुनियों का नहीं, आर्यिकाओं का विशेषण २.६. निर्ग्रन्थशूर ही मोक्ष के पात्र २.७. परीषहजयविधान दिगम्बरत्व की अनिवार्यता का सूचक ३. स्त्रीमुक्तिनिषेध ४. महावीर का विवाह न होने की मान्यता ५. अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध ६. महाव्रतों की भावनाएँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से भिन्न ७. यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त द्वितीय प्रकरण-यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता १. 'श्रवण' या 'श्रमण' सचेलमुनि का वाचक नहीं २. पुन्नाटसंघ का विकास पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं ३. काणूगण दिगम्बरसम्प्रदाय का ही गण था ४. कोप्पल से सम्बद्ध होना यापनीय होने का लक्षण नहीं ५. 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं ६. वरांगचरित में श्वेताम्बरसाहित्य का अनुसरण नहीं ७. विमलसूरि के पउमचरिय का अनुकरण नहीं ८. कल्पों की बारह संख्या भी दिगम्बरमान्य ९. दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था मान्य - उपसंहार : वरांगचरित के दिगम्बरकृति होने के प्रमाण सूत्ररूप में ६६७ ६६८ ६७० ६७० ६७४ ६७५ ६७६ ६७६ ६७७ ६७९ ६८० ६८० ६८३ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौबीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ एकविंश अध्याय हरिवंशपुराण प्रथम प्रकरण – हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण हरिवंशपुराण में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त स्त्रीमुक्तिनिषेध १. २. सवस्त्रमुक्ति एवं गृहस्थमुक्ति का निषेध ३. परतीर्थिकमुक्ति का निषेध ४. केवलिभुक्तिनिषेध ५. यापनीयमत- विरुद्ध अन्य सिद्धान्त ६. दिगम्बर - गुरुपरम्परा से सम्बद्ध ७. दिगम्बर-ग्रन्थकारों का गुणकीर्त्तन ८. दिगम्बरग्रन्थों का अनुकरण द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता द्वाविंश अध्याय स्वयम्भूकृत पउमचरिउ प्रथम प्रकरण - पउमचरिउ के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण १. कथावतार की दिगम्बरीय पद्धति २. सोलह स्वप्नों का वर्णन ३. सोलह कल्पों की मान्यता ४. स्त्रीमुक्तिनिषेध ५. परतीर्थिकमुक्तिनिषेध ६. सचेलमुक्ति का प्रतिपादन नहीं ७. दिव्यध्वनि द्वारा चौदह गुणस्थानों का उपदेश द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की हेत्वाभासता १. 'पद्म' नाम का प्रयोग यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं २. दिगम्बरपरम्परा में भी नैगमदेव मान्य For Personal & Private Use Only ६८७ ६८७ ६८७ ६८९ ६९१ ६९२ ६९३ ६९५ ६९६ ६९६ ६९९ ७१७ ७१८ ७१८ ७१९ ७२० ७२१ ७२३ ७२५ ७२६ ७२६ ७२७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पच्चीस] ३. आचार्य प्रभव का उल्लेख यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं ४. देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरीय मान्यता भी ५. मागधीभाषा में उपदेश दिगम्बरपरम्परा में भी मान्य ६. अदिगम्बरीय मान्यताओं का यापनीयमान्यता होना अप्रामाणिक ७२८ ७२८ ७२९ ७३० ७३५ ७३५ ७४४ ७४९ ७५० ७५८ ७५८ ७५९ ७६० त्रयोविंश अध्याय बृहत्कथाकोश - बृहत्कथाकोश के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण१. स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन नहीं, अपितु निषेध २. गृहस्थमुक्तिनिषेध ३. सवस्त्रमुक्तिनिषेध - सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण ४. भगवती-आराधना दिगम्बरग्रन्थ ५. पुन्नाटसंघ दिगम्बरसंघ ६. दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्य प्रमाण ७. भद्रबाहुकथानक में कोई भी अंश प्रक्षिप्त नहीं चतुर्विंश अध्याय .. छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी - इनके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण- छेदपिण्ड १. मुनि के दिगम्बरमान्य अट्ठाईस मूलगुणों का विधान २. अचेलव्रत भंग करने पर प्रायश्चित का विधान - यापनीयपक्ष-समर्थक हेतुओं का निरसन १. दिगम्बरग्रन्थों में भी श्रमणी का उल्लेख २. काणूर्गण दिगम्बरसंघ का गण ३. रविषेण दिगम्बराचार्य हैं ४. छेदपिण्ड के कर्ता इन्द्र यापनीय नहीं ७६५ ७६५ ७६५ ७६६ ७६७ ও59 ७६८ ७६९ ७६९ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অ9o ७७२ ७७६ ७७७ [छब्बीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ५. गोम्मटसार के कर्ता के गुरु इन्द्रनन्दी दिगम्बर ७६९ ६. श्वेतपटश्रमणों का पाषण्डरूप में उल्लेख 99o ७. 'कल्पव्यवहार' आदि ग्रन्थ दिगम्बरपरम्परा में भी ८. छेदपिण्ड 'मूलाचार' आदि दिगम्बरग्रन्थों की परम्परा का ७७१ ९. 'देशयति' शब्द देशव्रती या श्रावक का ही पर्यायवाची छेदशास्त्र - प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी पंचविंश अध्याय बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र - इसके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण१. दिगम्बरमत में भी जिनकल्प-स्थविरकल्प मान्य, किन्तु दोनों नाग्न्यलिंगी ७८७ २. यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेष बल नहीं ३. केवलिभुक्ति-भ्रम-परिहारार्थ परीषहसूत्रों का अनुल्लेख ७९० ४. आचार्य अमृतचन्द्र का अनुसरण ५. भाववेदत्रय की स्वीकृति ७९१ ६. 'दशसूत्र' शब्द का प्रयोग - शब्दविशेष-सूची ७९३ - प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची ८२१ ७८७ ७९० ७९१ ७९१ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय बाबा सा० स्व० श्री रतनलाल जी पाटनी (मेसर्स आर० के० मार्बल ग्रुप, मदनगंज-किशनगढ़) दिगम्बर जैन समाज के नररत्न, बालब्रह्मचर्य के साथ शताधिकवर्षजीवी, देशव्रती बाबासाहब श्री रतनलाल जी पाटनी एवं उनके परिवारजनों ने धार्मिक एवं सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में उत्कृष्ट कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ये तीर्थक्षेत्रों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार, यात्रीनिवास, पाठशाला, अस्पताल आदि के निर्माण तथा साहित्यप्रकाशन में पर्याप्त आर्थिक सहयोग प्रदान करने में सदैव अग्रणी रहे हैं। इस अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशन का पुण्यार्जन भी इन्हीं के यशस्वी परिवार के उदारमना श्री अशोककुमार जी पाटनी ने किया है। एतदर्थ उन्हें अनेक साधुवाद। प्रकाशक For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ पृथक्-पृथक् ग्रथित तीन खण्डों में विभक्त है, अतः तीनों खण्डों की विषय वस्तु से एक साथ परिचित होने के लिए उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। प्रथम खण्ड की विषयवस्तु प्रथम खण्ड में क्रमशः प्रकाशकीय वक्तव्य, ग्रन्थकथा (ग्रन्थ-लेखन का प्रसंग, प्रेरणा, अनुकूलताओं का अतिशय, सहयोगियों का सौहार्द, गुरुओं का आशीर्वाद, प्रोत्साहन, उनके द्वारा पाण्डुलिपि का श्रवण एवं परिमार्जन, तथा आवश्यक ग्रन्थों की व्यवस्था इत्यादि का विवरण), ग्रन्थसार (ग्रन्थ के सभी अध्यायों का सार) और संकेताक्षरविवरण तथा प्रथम अध्याय से लेकर सप्तम अध्याय तक निम्नलिखित विषयों का विवेचन किया गया है प्रथम अध्याय-इस अध्याय में श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों के उन कपोलकल्पित मतों एवं कथाओं का वर्णन किया गया है, जिन्हें उन्होंने यह सिद्ध करने के लिए हेतु रूप में प्रस्तुत किया है कि दिगम्बरजैनमत तीर्थंकरोपदिष्ट एवं प्राचीन नहीं है, अपितु उसे वीरनिर्वाण सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में गृहकलह के कारण श्वेताम्बर स्थविरकल्पी साधु बन जानेवाले बोटिक शिवभूति नाम के एक साधारण पुरुष ने चलाया था। कुछ आधुनिक श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का कथन है कि दिगम्बरजैनमत का प्रवर्तन विक्रम की छठी शती में दक्षिण भारत में हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने किया था। आधुनिक श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने कथा गढ़ी है कि आचार्य कुन्दकुन्द पहले यापनीयसंघ में दीक्षित हुए थे, पश्चात् उससे अलग हो गये और उन्होंने दिगम्बरमत की स्थापना की। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने यह कल्पना की है कि आचार्य कुन्दकुन्द पहले भट्टारकसम्प्रदाय में भट्टारकपद पर दीक्षित हुए थे, कुछ समय बाद उस सम्प्रदाय की प्रवृत्तियों से असन्तुष्ट होकर उन्होंने आगमोक्त दिगम्बरजैनमत को पुनरुज्जीवित किया। वर्तमान श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी द्वारा यह कहानी रची गयी है कि 'भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश नहीं दिया था, अपितु अचेल-सचेल दोनों धर्मों का उपदेश दिया था। अतः उनका अनुयायी श्रमणसंघ उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के नाम से जाना जाता था। ईसा की पाँचवीं For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अट्ठाईस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ शती में इस संघ से केवल सचेलधर्म के समर्थक श्वेताम्बरसंघ का और संचेलअचेल दोनों धर्मों के समर्थक यापनीयसंघ का जन्म हुआ।' ये तीनों संघ सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति को मानते थे। महावीर का गर्भपरिवर्तन भी इन तीनों को मान्य था। डॉ० सागरमल जी ने अपनी कहानी में यह भी गढ़ा है कि कुन्दकुन्द का श्रमणसंघ दक्षिणभारतीय-निर्ग्रन्थसंघ कहलाता था और उनका जन्म ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में नहीं, अपितु ईसोत्तर पाँचवीं (विक्रम की छठी) शताब्दी में हुआ था। दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यह उद्भावना की है कि भगवतीआराधना, उसकी विजयोदयाटीका, मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं हैं, बल्कि यापनीयपरम्परा के ग्रन्थ हैं। दिगम्बर जैन विदुषी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ और दिगम्बरग्रन्थों को भी यापनीय-परम्परा में रचित बतलाया है। इससे प्रेरणा पाकर श्वेताम्बर विद्वान् डॉ. सागरमल जी ने उक्त ग्रन्थों के साथ षट्खण्डागम, कसायपाहुड, तिलोयपण्णत्ती, वरांगचरित आदि सोलह दिगम्बर-ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ घोषित कर दिया और तत्त्वार्थसूत्र तथा सन्मतिसूत्र को स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्यों द्वारा रचित बतलाया है। उन्होंने अनेक कपोलकल्पित हेतुओं के द्वारा इसकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया है। द्वितीय अध्याय-उपर्युक्त मिथ्या मान्यताओं को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये कपोलकल्पित हेतुओं में से अनेक की कपोलकल्पितता का उद्घाटन द्वितीय अध्याय में किया गया है। इस अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि १. वीरनिर्वाण सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में बोटिक शिवभूति ने दिगम्बरमत की स्थापना नहीं की थी, अपितु श्वेताम्बरमत छोड़कर परम्परागत दिगम्बरमत का वरण किया था। शिवभूति की मान्यता थी कि श्रुत में अचेलत्व का ही उपदेश है और जिनेन्द्र-गृहीत होने से अचेललिंग ही प्रामाणिक है। यह शिवभूति के वचनानुसार दिगम्बरमत के परम्परागत होने का प्रमाण है। २. आचार्य कुन्दकुन्द को आधुनिक श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने ईसा की पाँचवीं शताब्दी (४७०-४९० ई०) के कदम्बवंशी राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा का समकालीन एवं दिगम्बरमत का संस्थापक माना है। किन्तु इसी राजा के देवगिरिताम्रपत्रलेख में श्वेतपट-महाश्रमणसंघ के साथ उसके प्रतिपक्षी दिगम्बरजैनसंघ का निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के नाम से उल्लेख हुआ है, जिससे सिद्ध है कि दिगम्बरजैनमत पाँचवीं शताब्दी ई० के पूर्व से चला आ रहा था। इसके अतिरिक्त पाँचवीं शती ई० For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [उनतीस] (४५० ई०) के पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में दिगम्बरजैनमत का प्रतिपादन किया है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बर जैनमत इसके बहुत पहले से प्रचलित था। अतः यह मान्यता मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बरमत की स्थापना की थी। ३. उपर्युक्त देवगिरि-ताम्रपत्रलेख से सिद्ध है कि ईसा की पाँचवी शताब्दी तक निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए लोकप्रसिद्ध था। और ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के अशोक के सातवें स्तम्भलेख में निर्ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि दिगम्बरजैनसंघ ईसापूर्व तृतीय शताब्दी में विद्यमान था। ईसापूर्व छठी शताब्दी के बुद्धवचनों के संग्रहरूप प्राचीन पिटकसाहित्य में तथा ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी तक के बौद्धसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों को निर्ग्रन्थ शब्द से अभिहित किया गया है। इन प्रमाणों से भी श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता कपोलकल्पित सिद्ध हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बरजैनमत का प्रवर्तन किया था। ४. श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति के पूर्व निर्ग्रन्थसंघ के सभी साधु अचेल (नग्न) होते थे, अतः निर्ग्रन्थ शब्द जैनसाधु का पर्यायवाची बन गया था। इसलिए जब निर्ग्रन्थसंघ के कुछ साधुओं ने वस्त्रपात्र धारण कर श्वेताम्बरसंघ बना लिया, तब भी उन्होंने जैनसाधु के रूप में अपनी पहचान कराने हेतु अपने लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग प्रचलित रखा। किन्तु यह प्रयोग उनके शास्त्रों तक ही सीमित रहा। इस नाम से वे अपने संघ को प्रसिद्ध नहीं कर सके, क्योंकि यह पहले से ही अचेल (दिगम्बर) जैनश्रमणसंघ के लिए प्रसिद्ध था और यह (निर्ग्रन्थ) शब्द श्वेताम्बरों की साम्प्रदायिक विशिष्टता के विज्ञापन में भी बाधक था। इसलिए उन्होंने अपने संघ को श्वेतपटसंघ नाम से प्रसिद्ध किया। ईसापूर्व प्रथम शती के बौद्धग्रन्थ अपदान में श्वेताम्बरों को सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र) नाम से अभिहित किया गया है और पाँचवीं शताब्दी ई० के देवगिरि-ताम्रपत्रलेख में उनके संघ का उल्लेख श्वेतपटमहाश्रमणसंघ शब्द से हुआ है। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बरसंघ आरंभ से ही 'श्वेतपट' नाम से प्रसिद्ध रहा है। और 'निर्ग्रन्थ' शब्द उनके शास्त्रों में भी मिलता है। इससे सिद्ध होता है निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) श्वेताम्बरसंघ से प्राचीन है। ५. यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख पाँचवीं शती ई० (सन् ४७०-४९० ई०) के कदम्बवंशीय राजा मृगेशवर्मा के हल्सी-ताम्रपत्रलेख में उपलब्ध होता है। इससे पूर्व किसी भी शिलालेख या ग्रन्थ में उसका उल्लेख नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति उक्त ताम्रपत्रलेख के काल से अधिक से अधिक पचास वर्ष पूर्व अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुई थी। डॉ० सागरमल जी ने भी यही माना है। दूसरी ओर आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक था। इसका सप्रमाण प्रतिपादन कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में किया गया है। अतः जिस यापनीयसंघ का उदय कुन्दकुन्द के अस्तित्वकाल से पाँच सौ वर्ष बाद हुआ, उसमें उनका दीक्षित होना सर्वथा असंभव है। ६. इसी प्रकार भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शताब्दी में हुआ था । इसकी सप्रमाण सिद्धि अष्टम अध्याय में की गयी है। अतः इससे ११०० वर्ष पूर्व हुए कुन्दकुन्द का भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना असंभव है। ७. ईसा की पाँचवीं शताब्दी में उत्पन्न हुए यापनीयसंघ से पूर्व भारत में ऐसा कोई भी जैनसम्प्रदाय नहीं था जो अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति मानता हो । पाँचवीं शताब्दी ई० तथा उससे पूर्व के किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में ऐसे सम्प्रदाय का उल्लेख नहीं मिलता। इसका सप्रमाण प्रतिपादन द्वितीय अध्याय में किया गया है। अतः डॉ० सागरमल जी की यह मान्यता अप्रमाणिक सिद्ध हो जाती है कि उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का जन्म हुआ था और तत्त्वार्थसूत्र एवं सन्मतिसूत्र की रचना इसी सम्प्रदाय में हुई थी। तृतीय अध्याय – इस अध्याय में वे प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत को मान्यता दी गयी है । आचारांग और स्थानांग में अचेलत्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। परीषहजय एवं तप के लिए पूर्ण निर्वस्त्रता की अनुशंसा की गयी है । द्रव्य - परिग्रह को भी परिग्रह स्वीकार किया गया है। सभी तीर्थंकरों के दिगम्बरमुद्रा से ही मुक्त होने का कथन है। आदि और अन्तिम तीर्थंकरों द्वारा अचेलकधर्म का ही उपेदश दिये जाने का वर्णन है । और आचारांग में 'अचेल' का अर्थ 'अल्पचेल' नहीं किया गया है, सर्वथा अचेल ही किया गया है । इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि दिगम्बरमत आचारांग और स्थानांग के रचनाकाल से भी प्राचीन है। चतुर्थ अध्याय - वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य और बौद्धसाहित्य में भी दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा की गई है। इसके प्रमाण चतुर्थ अध्याय में दिये गये हैं । ईसापूर्व १५वीं शती के ऋग्वेद में वातरशन (वायुरूपी वस्त्र धारण करनेवाले) मुनियों का उल्लेख है । ईसापूर्व ८०० के महर्षि यास्करचित निघण्टु में दिगम्बर एवं वातवसन (वायुरूपी For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [ इकतीस ] वस्त्रधारी) मुनियों की चर्चा की गयी है । ५०० ई० पू० से १०० ई० पू० तक रचित महाभारत में नग्नक्षपणक शब्द से दिगम्बरजैन साधुओं का कथन हुआ है । ३०० ई० के पञ्चतन्त्र (अपरीक्षितकारक) में नग्नक, क्षपणक और दिगम्बर शब्दों से तथा धर्मवृद्धि के आशीर्वाद के उल्लेख से दिगम्बरजैन मुनियों का वर्णन किया गया है। मत्स्यपुराण (३०० ई०), विष्णुपुराण (३०० - ४०० ई०) मुद्राराक्षस नाटक (४००-५०० ई०) वायुपुराण (५०० ई०) तथा वराहमिहिर - बृहत्संहिता ( ४९० ई०) में दिगम्बर जैन मुनियों के लिए नग्न, निर्ग्रन्थ, दिग्वासस् और क्षपणक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। बौद्ध पिटकसाहित्य में ईसापूर्व छठी शती के बुद्धवचनों का संकलन है, जो ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में लिपिबद्ध हो चुका था । उसके अन्तर्गत सुत्तपिटक के अंगुतरनिकाय में निर्ग्रन्थों को अहिरिका ( अहीक = निर्लज्ज ) कहा गया है, जिससे उनका नग्न रहना सूचित होता है । अंगुत्तरनिकाय में ही इन्हें अचेल शब्द से भी अभिहित किया गया है। प्रथम शती ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में निर्ग्रन्थों को नग्न विचरण करनेवाला कहा गया है। धम्मपद - अट्ठकथा (४-५वीं शती ई०) की विसाखावत्थु कथा में भी निर्ग्रन्थों को नग्नवेशधारी ही बतलाया गया है तथा आर्यशूर ( चौथी शती ई० ) ने संस्कृत में रचित जातकमाला में निर्ग्रन्थों को वस्त्रधारण करने के कष्ट से मुक्त कहा है। इन जैनेतर साहित्यिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैनमत ऋग्वेद के रचनाकाल (ई० पू० १५०० ) से भी प्राचीन है । अतः उसे वीर निर्वाण सं० ६०९ ( ई० सन् ८२) में बोटिक शिवभूति के द्वारा अथवा विक्रम की छठी शती में आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा प्रवर्तित बतलाया जाना एक बहुत बड़ा झूठ है । पञ्चम अध्याय - - इस अध्याय में पुरातत्त्व के प्रमाणों के आधार पर दिगम्बरजैनमत की प्राचीनता सिद्ध की गई है। हड़प्पा की खुदाई में ई० पू० २४०० वर्ष पुरानी एक मस्तकविहीन नग्न जिनप्रतिमा प्राप्त हुई है। ठीक वैसी ही एक मौर्यकालीन ( ई० पू० तृतीय शताब्दी की ) नग्न जिनप्रतिमा लोहानीपुर ( पटना, बिहार) में उपलब्ध हुई है। ये प्राचीन नग्न जिनप्रतिमाएँ इस बात का सबूत हैं कि दिगम्बर जैन - परम्परा ईसापूर्व ३०० वर्ष से पुरानी तो है ही, ईसापूर्व २४०० वर्ष से भी प्राचीन है। श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण कभी नहीं हुआ, क्योंकि श्वेताम्बर नग्नत्व को अश्लील एवं लोकमर्यादा के विरुद्ध मानते हैं, इसलिए उन्होंने यह कल्पना की है कि तीर्थंकरों का नग्न शरीर दिव्य शुभप्रभामंडल से आच्छादित हो जाता है, फलस्वरूप वे नग्न दिखाई नहीं देते। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बत्तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ षष्ठ अध्याय-दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास इस अध्याय का विषय है। प्रायः सभी दिगम्बरजैनों की यह धारणा है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद ईसापूर्व चौथी शताब्दी में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु यह धारणा संशोधनीय है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद नहीं हुआ था, अपितु दिगम्बर-अर्धफालक-भेद हुआ था। दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद तो जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० ६२ = ४६५ ई० पू०) के पश्चात् ही हो गया था। इसका प्रमाण यह है कि उनके निर्वाण के पश्चात् ही दोनों सम्प्रदायों की गुरुशिष्य-परम्परा अलग-अलग हो गयी थी। निर्ग्रन्थसंघ से पहली बार तो श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति शीतादिपरीषहों की पीड़ा सहने में असमर्थ साधुओं के अचेलत्व को छोड़कर वस्त्रपात्र-कम्बल आदि ग्रहण कर लेने से हुई थी, किन्तु दूसरी बार उससे (निर्ग्रन्थसंघ से) अर्धफालकसंघ का जन्म द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण आहारप्राप्ति में उत्पन्न कठिनाइयों के फलस्वरूप हुआ था। अर्धफालक साधु नग्न रहते थे, किन्तु वायें हाथ पर सामने की ओर आधा वस्त्र लटकाकर गुह्यांग छिपाते थे। इस कारण वे अर्धफालक नाम से प्रसिद्ध हुए। सप्तम अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में यापनीयसंघ की उत्पत्ति के स्रोत एवं काल का अनुसन्धान किया गया है। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) का प्राचीनतम उल्लेख बौद्धों के पिटकसाहित्य (अंगुत्तरनिकाय) एवं अशोक के सप्तम स्तम्भलेख में मिलता है। तथा श्वेतपटसंघ की चर्चा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के बौद्धग्रन्थ अपदान में उपलब्ध होती है। किन्तु यापनीयसंघ का उल्लेख सर्वप्रथम कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्मा के हल्सीताम्रपत्रलेख (४७०-४९० ई०) में हुआ है। इससे पूर्व किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में यापनीयसंघ का नाम नहीं मिलता। इससे निर्णीत होता है कि यापनीयसंघ का उदय उक्त उल्लेख से लगभग ५० वर्ष पूर्व अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। डॉ० सागरमल जी ने भी यही माना है। इस संघ का उल्लेख करनेवाले प्रायः सभी शिलालेख एवं इस संघ के बनवाये हुए मंदिर दक्षिण भारत में ही प्राप्त हुए हैं, जो इस बात के प्रमाण हैं कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई थी। इस संघ के साधु प्रायः दिगम्बर-साधुओं के समान नग्न रहते थे, मयूरपिच्छी रखते थे और पाणितलभोजी होते थे, तथापि शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ अथवा नग्न रहने में लज्जा का अनुभव करनेवाले या जिनका पुरुषचिह्न विकृत होता था, उन साधुओं के लिए इस संघ में श्वेताम्बरों के समान वस्त्रपात्रादि रखने की अनुमति दी गयी थी। इस प्रकार दिगम्बरों के समान नग्नत्व को छोड़कर इसकी सभी मान्यताएँ श्वेताम्बरीय मान्यताओं के समान थीं। अर्थात् यापनीय भी श्वेताम्बरों के समान For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [तेंतीस] सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति एवं महावीर के गर्भपरिवर्तन की बात मानते थे। वे श्वेताम्बर-आगमों को भी मानते थे। इस अत्यन्त समानता से सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति श्वेताम्बरसंघ से हुई थी। इस अध्याय में उन विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला गया है, जो यापीनयग्रन्थ के असाधारणधर्म या लक्षण हैं, जिनके सद्भाव या अभाव से यह निर्णय होता है कि अमुक ग्रन्थ यापनीयग्रन्थ है या नहीं। ____ सप्तम अध्याय के अन्त में क्रमशः शब्दविशेष-सूची तथा प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची विन्यस्त की गयी हैं। द्वितीय खण्ड की विषयवस्तु इस खण्ड में आठवें अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय तक कुल पाँच अध्याय निबद्ध किये गये हैं। अष्टम अध्याय-आचार्य कुन्दकुन्द ने किसी भी ग्रन्थ में अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि कुन्दकुन्द शुरू में बोटिक शिवभूति द्वारा प्रवर्तित यापनीयसंघ में उसकी परम्परा के किसी शिष्य द्वारा दीक्षित हुए थे। किन्तु आगे चलकर उन्हें अपने गुरु का शिथिलाचार तथा यापनीयमत की अयुक्तिसंगत मान्यताएँ पसन्द नहीं आयीं, इसलिए वे उनके विरुद्ध हो गये। अन्ततः उन्होंने अपने गुरु का साथ छोड़ दिया और पृथक् दिगम्बरसंघ स्थापित कर लिया। इसीलिए उन्होंने अपने गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी का कथन है कि कुन्दकुन्द प्रारम्भ में मन्दिर मठों में नियतवास करनेवाले और राजाओं से भूमिदान आदि ग्रहण करनेवाले भट्टारकसम्प्रदाय के भट्टारक थे। किन्तु, जब उन्हें धर्म के तीर्थंकरप्रणीत वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ, तब उनके मन में अपने भट्टारक गुरु के प्रति अश्रद्धा हो गयी और वे उनसे अलग हो गये। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का स्मरण नहीं किया। आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल वीर नि० सं० १००० अर्थात् ४७३ ई० के लगभग माना है और उस समय जो दिगम्बरजैन मुनि मन्दिर-मठ में नियतवास करते थे और राजाओं से ग्राम-भूमि आदि का दान ग्रहण कर गृहस्थों जैसा जीवन व्यतीत करते थे, उनके सम्प्रदाय को भी भट्टारकसम्प्रदाय घोषित किया है। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौंतीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ प्रस्तुत अध्याय में इन दोनों मतों को निम्नलिखित प्रमाणों के आधार पर कपोलकल्पित सिद्ध किया गया है १. विशेषावश्यकभाष्य में वर्णित बोटिकमतोत्पत्ति कथा से सिद्ध है कि बोटिक शिवभूति यापनीयसंघ का प्रवर्तक नहीं था, अपितु उसने श्वेताम्बरमत छोड़कर परम्परागत दिगम्बरमत का वरण किया था, अतः उसकी परम्परा में दीक्षित कोई भी व्यक्ति यापनीय नहीं हो सकता था। शिवभूति के दिगम्बर होने पर भी कुन्दकुन्द उसके शिष्य या प्रशिष्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध और ईसोत्तर पथम शताब्दी के पूर्वार्ध) में हुए थे। (देखिये, अध्याय १०) और बोटिक शिवभूति ने ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण (वीर निर्वाण सं० ६०९ = ई० सन् ८२) में दिगम्बरमत स्वीकार किया था। २. कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीय होने का उल्लेख न तो कुन्दकुन्द ने स्वयं अपने किसी ग्रन्थ में किया है, न किसी अन्य ग्रन्थ या शिलालेख में मिलता है। ____३. आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और यापनीयसंघ की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई थी। (देखिये, अध्याय ७)। इससे भी कुन्दकुन्द का यापनीयसंघ में दीक्षित होना असंभव था। ४. इसी प्रकार भगवान् महावीर द्वारा अनुपदिष्ट सवस्त्र-साधुलिंग को धारणकरनेवाले भट्टारक सम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शताब्दी में हुआ था, अतः ग्यारह सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य कुन्दकुन्द का. भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना नामुमकिन है। ५. १२वीं शताब्दी के पूर्व जिन दिगम्बरजैन साधुओं ने मन्दिरों और मठों में नियतवास आरंभ कर दिया था और भूमि-ग्रामादि का दान ग्रहण करने लगे थे, उनका सम्प्रदाय पासत्थादि-मुनिसम्प्रदाय कहलाता था, भट्टारक-सम्प्रदाय नहीं। पासत्थादिमुनिसम्प्रदाय और भट्टारकसम्प्रदाय में मौलिक भेद यह था कि पहले ने मुनि अवस्था में रहते हुए गृहस्थकर्म अपना लिया था और दूसरे ने गृहस्थावस्था में रहते हुए मुनिकर्म (धर्मगुरु का पद) हथिया लिया था। इस प्रकारक कुन्दकुन्द के समय में पासत्थादिमुनियों के सम्प्रदाय का अस्तित्व था, भट्टारकसम्प्रदाय का नहीं। अतः कुन्दकुन्द का भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना असंभव था। ___ यह सुनिश्चित करने के लिए कि भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शती में ही हुआ था, उसके पूर्व नहीं, प्रस्तुत अध्याय में भट्टारकों के असाधारणधर्मों For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [पैंतीस] का विस्तार से वर्णन किया गया है और उन धर्मों का विकास १२वीं शती में ही हुआ था, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। ___ इसी प्रकार इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि मन्दिर-मठों में नियतवास करनेवाले और राजाओं से ग्राम-भूमि आदि का दान लेकर गृहस्थों जैसा जीवन व्यतीत करनेवाले दिगम्बर जैन मुनियों के लिए 'भट्टारक' संज्ञा का प्रयोग किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता उन्हें सर्वत्र पासत्थ (पार्श्वस्थ), कुसील (कुशील), संसत्त (संसक्त) और ओसण्ण (अवसन्न), इन विशेषणों से युक्त 'मुनि' शब्द से ही अभिहित किया गया है। निष्कर्ष यह कि आचार्य कुन्दकुन्द, न तो कभी यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, न भट्टारकसम्प्रदाय में, अतः मुनि कल्याणविजय जी और आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द के द्वारा अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख न किये जाने के जो कारण बतलाये हैं, वे सर्वथा मिथ्या हैं। __ श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने सुप्रसिद्ध दिगम्बरग्रन्थ गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती को भी यापनीयसम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है। इसका भी सप्रमाण खण्डन प्रस्तुत अध्याय का एक प्रासंगिक विषय है। नवम अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में इस प्रश्न का समाधान किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वरचित ग्रन्थों में अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया? वह समाधान यह है कि प्राचीनकाल में प्रायः ग्रन्थकारों के द्वारा अपने ग्रन्थों में स्वयं के तथा स्वगुरु के नाम का उल्लेख करने की परम्परा नहीं थी। षट्खण्डागम के कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि, कसायपाहुड के कर्ता गुणधर, तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपिच्छ, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपादस्वामी आदि दिगम्बराचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में स्वनाम एवं स्वगुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। इसी प्रकार पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, पतञ्जलि ने योगदर्शन में और वाल्मीकि ने रामायण में अपने गुरु के नाम का निर्देश नहीं किया। दशम अध्याय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ हैं। डॉ० के० बी० पाठक, मुनि कल्याणविजय जी, पं० दलसुख मालणिया, डॉ० आर० के० चन्द्र एवं डॉ० सागरमल जी ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल विक्रम की छठी शती (५वीं शती ई० का उत्तरार्ध) माना है। प्रो० एम० ए० ढाकी ने तो कुन्दकुन्द को आठवीं शती ई० में ढकेलने का प्रयत्न किया है। श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने उन्हें पहले ई० सन् ४७३ में उत्पन्न बतलाया, बाद में उनका उत्पत्तिकाल ई० For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सन् ७१३ मान लिया। प्रो० हीरालाल जी जैन ने कुन्दकुन्द का समय ईसा की द्वितीय शताब्दी बतलाया है, जब कि ब्र० भूरामल जी (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी) ने उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का तथा पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भद्रबाहु-द्वितीय का साक्षात् शिष्य मानकर उनका समकालीन माना है। ये सभी मत असमीचीन हैं। ई० सन् १८८५ में राजपूताना की यात्रा के समय श्री सेसिल बेण्डल (Mr. Cecil Bendall) को जयपुर के पण्डित श्री चिमनलाल जी ने मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, नन्दी-आम्नाय और बलात्कारगण की दो पावलियाँ प्रदान की थीं। श्री बेण्डल ने वे प्रो० (डॉ०) ए० एफ० रूडाल्फ हॉर्नले (Rudolf Hoernle) को सौंप दीं। प्रो० हार्नले ने उन पट्टावलियों का समस्त विवरण अँगरेजी में एक तालिका में निबद्ध किया और उसे तत्कालीन शोधपत्रिका 'The Indian Antiquary, Vol. Xx, october 1891' में प्रकाशित कराया। इस (इण्डियन ऐण्टिक्वेटी में प्रकाशित) तालिकाबद्ध पट्टावली में बतलाया गया है कि कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से ५२ वर्ष पूर्व हुआ था और ईसा से ८ वर्ष पहले ४४ वर्ष की आयु में वे आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे तथा ५१ वर्ष, १० मास एवं १० दिन तक आचार्यपद पर आसीन रहे। उसके ५ दिन बाद स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार उनका जीवनकाल ९५ वर्ष, १० मास और १५ दिन था। आचार्य कुन्दकुन्द के इस समय की पुष्टि साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से होती है। दशम अध्याय में इन्हीं प्रमाणों को प्रस्तुत कर आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक) निर्धारित किया गया है और उपर्युक्त विद्वानों द्वारा प्रस्तुत समस्त विरोधी मतों को उनके आधारभूत हेत्वाभासों का युक्ति-प्रमाणपूर्वक विस्तार से निरसन करते हुए निरस्त किया गया है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में वर्णित जैनदर्शन के स्वरूप को तत्त्वार्थसूत्र (उनके अनुसार तीसरी-चौथी शताब्दी ई०) में वर्णित जैनदर्शन के स्वरूप की अपेक्षा विकसित मानकर कुन्दकुन्द को उमास्वाति से परवर्ती (पाँचवीं शती ई०) सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार डॉ० सागरमल जी ने गुणस्थानसिद्धान्त और नय-प्रमाण-सप्तभंगी को जिनोपदिष्ट न मानकर छद्मस्थ आचार्यों द्वारा विकसित बतलाया है और कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र में ये दोनों सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होते, जब कि कुन्दकुन्दसाहित्य में उपलब्ध होते हैं, अतः कुन्दकुन्द उमास्वाति से उत्तरवर्ती (५वीं शती ई० के) हैं। दशम अध्याय में इन तीनों विकासवादों को अखण्ड्य प्रमाणों द्वारा मिथ्या सिद्ध किया गया है, जिससे कुन्दकुन्द के अस्तित्व For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [सैंतीस] को ईसा की पाँचवीं शताब्दी में सिद्ध करने का प्रयत्न धराशायी हो जाता है और उनके ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में विद्यमान होने का तथ्य अक्षुण्ण रहता है। एकादश अध्याय-षट्खण्डागम को केवल श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने यापनीयग्रन्थ माना है। उनका प्रमुख तर्क यह है कि उसके प्रथम खण्ड 'सत्प्ररूपणा' (पुस्तक १) के ९३ वें सूत्र में मणुसिणी (मनुष्यस्त्री) में संयत-गणुस्थान बतलाये गये हैं। 'मणुसिणी' शब्द का अर्थ केवल द्रव्यस्त्री है, उसे जो भावस्त्री का भी वाचक माना गया है, वह गलत है। इससे सिद्ध है यह ग्रन्थ स्त्रीमुक्तिसमर्थक यापनीयसम्प्रदाय का है। इसे स्त्रीमुक्ति-समर्थक श्वेताम्बरसम्प्रदाय का इसलिए नहीं माना जा सकता कि यह शौरसेनी प्राकृत में है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय के सभी प्राकृतग्रन्थ अर्धमागधी में रचे गये हैं। एकादश अध्याय में इस तर्क का निरसन करने के लिए अनेक युक्तिप्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि जो द्रव्य (शरीर) से स्त्री है, उसे तो षट्खण्डागम में 'मणुसिणी' कहा ही गया है, किन्तु जो द्रव्य से स्त्री नहीं हैं, अपितु पुरुष है, तथापि स्त्रीवेदनोकषाय के उदय से स्त्रीत्वभाव से युक्त है, उसे भी ‘मणुसिणी' शब्द से अभिहित किया गया है। यह भी दर्शाया गया है कि ऐसे मनुष्यों के लिए सर्वार्थसिद्धि (१/ ७/२६/पृ.१७), तत्त्वार्थराजवार्तिक (९/७/११/पृ.६०५) आदि अन्य दिगम्बरजैन ग्रन्थों में भी 'मानुषी' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा इस प्रकार के मनुष्य, लोक में भी मिलते हैं। षट्खण्डागम के उपर्युक्त सूत्र में ऐसे ही स्त्रीत्वभाव से युक्त पुरुषशरीरधारी मनुष्यों को 'मणुसिणी' शब्द से अभिहित करते हुए उनमें संयतगुणस्थानों का कथन किया गया है। अतः षट्खण्डागम स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं है। किसी मनुष्य का स्त्रीवेदनोकषाय-नामक कर्म के उदय से भाव से स्त्री होना और पुरुषांगोपांग-नामकर्म के उदय से द्रव्य (शरीर) से पुरुष होना वेदवैषम्य कहलाता है। कर्मभूमि के किसी-किसी गर्भज संज्ञी-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य मे ऐसा वेदवैषम्य होता है, यह दिगम्बरजैन-कर्मसिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस वेदवैषम्य के कारण लोक में दो प्रकार के पुरुष मिल सकते हैं-एक वह, जो मन (भाव) और शरीर (द्रव्य) दोनों से पुरुष हो और दूसरा वह, जो मन से स्त्री हो, लेकिन शरीर से पुरुष। इन दोनों ही प्रकार के पुरुषों का मोक्षसंभव है। किन्तु जो मनुष्य, भाव से पुरुष हो, परन्तु द्रव्य से स्त्री, उसका मोक्ष संभव नहीं है। ___ इस वेदवैषम्य को यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन (९वीं शताब्दी ई०) और बीसवीं शती ई० के दिगम्बरजैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन ने अमान्य For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अड़तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ किया है। इन दोनों विद्वानों की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का सप्रमाण-सयुक्तिक निरसन भी प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। इस अध्याय में षट्खण्डागम में उपलब्ध उन सिद्धान्तों का भी वर्णन किया गया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं और इस बात के अखण्ड्य प्रमाण हैं कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपम्परा का ग्रन्थ है। यहाँ यह भी सिद्ध किया गया है कि षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शती के पूर्वार्ध में हुई थी और यापनीयसम्प्रदाय का जन्म ईसोत्तर पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। इस कारण भी षट्खण्डागम का यापनीयग्रन्थ होना असंभव है। डॉ. सागरमल जी ने षटखण्डागम को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए और भी जो तर्क उपस्थित किये हैं, उन सबका निरसन इस अध्याय में किया गया है। द्वादश अध्याय-डॉ० सागरमल जी ने 'कसायपाहुड' को भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ बतलाया है और इसके समर्थन में यह तर्क रखा है कि उसमें स्त्री, पुरुष और नपुंसक के अपगतवेदी होकर चतुर्दश गुणस्थान तक पहुँचने की बात कही गयी है, जो उसके स्त्रीमुक्ति-समर्थक होने का प्रमाण है। चूंकि वह अर्धगामधी प्राकृत में न होकर शौरसैनी प्राकृत में है, इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु यापनीयपरम्परा का है। __उक्त मत का निरसन करने के लिए इस अध्याय में यह प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि कसायपाहुड में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, इन तीन भाववेदों (नोकषायों) का पृथक्-पृथक् अस्तित्व एवं गुणस्थानसिद्धान्त स्वीकार किया गया है। ये दोनों बातें यापनीयों को अमान्य हैं। अपगतवेदत्व भी वेदत्रय के अस्तित्व की मान्यता और गुणस्थान- सिद्धान्त पर आश्रित होने से यापनीयमत के विरुद्ध है, अतः कसायपाहुड यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके द्वारा विन्यस्त हेतुओं का सप्रमाण निरसन सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने अपने एक लेख में किया है। यह लेख भी प्रस्तुत अध्याय में ज्यों का उद्धृत किया गया है। तृतीय खण्ड की विषयवस्तु इस खण्ड में तेरहवें अध्याय से लेकर पच्चीसवें अध्याय तक कुल तेरह अध्याय हैं। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [उनतालीस] त्रयोदश अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में इस भ्रान्ति का निवारण किया गया है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को सर्वप्रथम दिगम्बर विद्वान् पं०. नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ घोषित किया था। फिर तो श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी, दिगम्बर विद्वान् प्रो० हीरालाल जी जैन, दिगम्बर विदुषी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया, श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन आदि ने भी इसे यापनीयसम्पद्राय का ग्रन्थ मान लिया। इसके समर्थन में इन सब विद्वानों ने उन्हीं हेतुओं का अनुसरण किया है, जो पं० नाथूराम जी प्रेमी ने प्रस्तुत किये हैं। प्रेमी जी ने जो प्रमुख तर्क दिया है, वह यह है कि भगवती-आराधना में मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान है। किन्तु यह उनकी महाभ्रान्ति है। भगवतीआराधना में मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान नहीं है, अपितु मुनि के नाग्न्यलिंग को उत्सर्गलिंग और श्रावक के सवस्त्रलिंग को अपवादलिंग शब्द से अभिहित किया गया है। इसकी पुष्टि भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य तथा टीकाकार अपराजित सूरि के अनेक वचनों से की गयी है। इन दोनों आचार्यों ने मुनि के लिए आचेलक्य को अनिवार्य बतलाया है, अपवादलिंग का कोई विकल्प नहीं रखा, जिससे सिद्ध है कि भगवती-आराधना दिगम्बरपम्परा का ग्रन्थ है, यापनीयपरम्परा का नहीं। प्रेमी जी ने दूसरा तर्क देते हुए कहा कि 'भगवती-आराधना की कई गाथाएँ दिगम्बरजैनमत के विरुद्ध हैं और अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों से ग्रहण की गयी हैं। यह यापनीयग्रन्थ में ही संभव है।' यह तर्क भी भ्रान्ति से परिपूर्ण है। जिन गाथाओं को दिगम्बरजैनमत के विरुद्ध बतलाया गया है, वे दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल हैं तथा जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों से गृहीत बतलायी गयी हैं, वे दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद से पूर्व की मूल-अचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा से आयी हैं। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। इन तथ्यों की सिद्धि अनेक युक्ति-प्रमाणों से प्रस्तुत अध्याय में की गयी है। भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत सभी तर्कों का निरसन यहाँ किया गया है। डॉ० सागरमल जी ने भी दो नये हेतु जोड़े हैं, उनकी अप्रामाणिकता भी उद्घाटित की गयी है। भगवती-आराधना में सापवाद सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति केवलिभुक्ति आदि का निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के सिद्धान्त हैं। इसमें यापनीयों को अमान्य गुणस्थानसिद्धान्त, वेदत्रय एवं वेदवैषम्य को मान्य किया गया है। इन लक्षणों से स्पष्टतः सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, यापनीयपरम्परा का नहीं। इन सबके उदाहरण इस अध्याय में विस्तार से प्रस्तुत किये गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ चतुर्दश अध्याय-जिन विद्वानों ने भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ माना है, उन्होंने ही उसके टीकाकार अपराजितसूरि को भी यापनीय आचार्य कहा है। इसका प्रमुख कारण यह बतलाया है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से वे उद्धरण दिये हैं, जिनमें यह कहा गया है कि साधु विशेष परिस्थितियों में अपवादरूप से वस्त्र धारण कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर विशेष परिस्थिति में साधु के अपवादरूप से वस्त्रधारण को उचित ठहराया है। श्वेताम्बरआगमों के विधान को श्वेताम्बर के अतिरिक्त वही व्यक्ति मान्यता दे सकता है, जो यापनीय हो, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय हैं। उपर्युक्त विद्वानों की यह मान्यता भी महान् भ्रान्ति का परिणाम है। प्रस्तुत अध्याय में इसका निराकरण किया गया है। निराकरण हेतु सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि अपराजित सूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर साधु के लिए विशेष परिस्थिति में वस्त्रधारण का औचित्य नहीं ठहराया है, अपितु श्वेताम्बर शंकाकार ('अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु---' वि.टी./भ.आ./गा.४२३/पृ.३२३, ३२४) का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में भी मोक्ष के लिए अचेलत्व को आवश्यक बतलाया गया है और भिक्षुओं को वस्त्रग्रहण की अनुमति विशेष परिस्थितियों में ही दी गयी है। वे विशेष परिस्थितियाँ तीन हैं- १. नग्न रहने में लज्जा की अनुभूति होना, २. पुरुषचिह्न का अशोभनीय होना और ३. परीषहसहन में असमर्थ होना। किन्तु विशेष परिस्थिति में जो उपकरण ग्रहण किया जाता है, उसके ग्रहण की विधि तथा ग्रहण किये गये उपकरण के त्याग का कथन भी आगम में आवश्यक कहा गया है। अतः जब आगम के आधार पर विशेष परिस्थिति में साधु के लिए वस्त्रग्रहण का विधान बताया जाता है, तब उसके त्याग का विधान भी अवश्य बताया जाना चाहिए। (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/पृ.३२५)। अपराजितसूरि ने.'अचेलता' के विरोधी श्वेताम्बरागम-वचन को स्पष्ट शब्दों अप्रामाणिक ठहराया है। श्वेताम्बरपक्ष को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि यदि आप यह मानते हैं कि सूत्र (आगम) में पात्र की प्रतिष्ठापना कही गयी है, अतः संयम के लिए पात्रग्रहण आगमोक्त सिद्ध होता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अचेलता का अर्थ है परिग्रहत्याग, और पात्र परिग्रह है, अतः उसका भी त्याग आगमसिद्ध ही है-"पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यतीति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्याग सिद्ध एवेति।" (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/ पृ. ३२५)। इस प्रकार अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर दिगम्बरमत की ही पुष्टि की है, श्वेताम्बरमत की नहीं। उन्होंने जोर देकर कहा है कि मुक्ति का For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [इकतालीस] अभिलाषी मुनि वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वस्त्र मुक्ति का उपाय नहीं है तथा केवल वस्त्र का त्याग करने और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत (मुनि) नहीं होता"मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.८४)। "नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./ भ. आ./गा. १११८)। इन वचनों से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के प्रामाण्य को स्वीकार नहीं, अस्वीकार किया है। अतः यह कहना कि अपराजितसूरि श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते हैं, एक हिमालयाकार भ्रान्ति है। अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति-निषेध के अतिरिक्त स्त्रीमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का भी निषेध किया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। प्रस्तुत अध्याय में इन सबके प्रमाण प्रस्तुत कर सिद्ध किया गया है कि अपराजितसूरि पक्के दिगम्बर थे, उन्हें जो यापनीय मान लिया है, वह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। पञ्चदश अध्याय-इस अध्याय में उन हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता प्रकट की गयी है, जो यापनीयपक्षधर विद्वानों ने मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये हैं। इसके साथ उन प्रमाणों का साक्षात्कार कराया गया है, जिनसे सिद्ध होता है कि मूलाचार शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। षोडश अध्याय-इस अध्याय में तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर, यापनीय एवं कपोलकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उपस्थित किये गये हेतुओं का निरसन कर उसे दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करनेवाले प्रमाण और युक्तियाँ विन्यस्त की गयी हैं। सप्तदश अध्याय-इस अध्याय में उपर्युक्त न्याय से तिलोयपण्णत्ती के कर्ता यतिवृषभ को दिगम्बराचार्य सिद्ध किया गया है। अष्टादश अध्याय-इस अध्याय में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को श्वेताम्बर, यापनीय एवं उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का आचार्य सिद्ध करनेवाले हेतुओं को असत्य या हेत्वाभास सिद्धकर वे प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बराचार्य हैं, अतः सन्मतिसूत्र दिगम्बरग्रन्थ है। इसमें रत्नकरण्डश्रावकार को स्वामी समन्तभद्र की कृति न मानने के पक्ष में रखे गये तर्कों का भी निरसन किया गया है और यह भी स्थापित किया गया है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन पूज्यपाद स्वामी से पूर्ववर्ती नहीं, अपितु उत्तरवर्ती हैं। इसी प्रकार यापनीयग्रन्थ होने के पक्ष में रखे गये हेतुओं का निरसन कर दिगम्बरग्रन्थसाधक प्रमाणों के प्रस्तुतीकरण द्वारा एकोनविंश अध्याय में रविषेणकृत पद्मपुराण For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बयालीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ (पद्मचरित) को, विंश अध्याय में जटासिंहनन्दिकृत वराङ्गचरित को, एकविंश अध्याय में पुन्नाटसंघीय जिनसेनरचित हरिवंशपुराण को, द्वाविंश अध्याय स्वयम्भू-निर्मित पउमचरिउ को, त्रयोविंश अध्याय में हरिषेण-प्रणीत बृहत्कथाकोश को, चतुर्विंश अध्याय में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी को और पंचविंश अध्याय में बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध किया गया है। इस खण्ड के अन्त में भी शब्दविशेष- सूची तथा प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची निबद्ध की गयी हैं। For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. --- / प्र.-- अ. --- / प्र.--- / शी. अनु. अभि. रा. को. /--~/~-~ आ. ख्या. आचारांग / --~/ ~~~/~~~/~-- आव. चू. / उपो. निर्यु. / आव. सू. / पू. भा. आ. निर्युक्ति आ. वृ./ मूला. आदि पु. /---/--- आतुरप्रत्या. आ. मी. आव. सू. /---/--- इ. न. श्रुता. इण्डि. ऐण्टि. इष्टो. ईशाद्यष्टो. संकेताक्षर - विवरण उत्त. सू. /---/--- ऋग्वेद /---/---/--- अध्याय क्रमांक / प्रकरण क्रमांक | अध्याय क्रमांक / प्रकरण क्रमांक / शीर्षक क्रमांक । अनुच्छेद (पैराग्राफ)। अभिधान राजेन्द्र कोष / भाग क्रमांक / पृष्ठ क्रमांक । आत्मख्याति व्याख्या । श्रुतस्कन्ध क्रमांक/अध्ययन क्रमांक / उद्देशक क्रमांक / सूत्र क्रमांक । आवश्यकचूर्णि / उपोद्घातनिर्युक्ति / आवश्यकसूत्र / पूर्वभाग | आवश्यक नियुक्ति आचारवृत्ति / मूलाचार । आदिपुराण / पर्व क्रमांक / श्लोक क्रमांक । आतुरप्रत्याख्यान । आप्तमीमांसा । आवश्यकसूत्र / आवश्यक क्रमांक / सूत्र क्रमांक । इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार । दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी । इष्टोपदेश । ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् | उत्तराध्ययनसूत्र / अध्ययन क्रमांक / गाथा क्रमांक । मंडल क्रमांक / सूक्त क्रमांक / ऋचा क्रमांक । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चवालीस ] क. पा. कै. च. शास्त्री कसायपाहुड। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । क्र. क्रमांक । गुण. सिद्धा. : एक वि. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण । गो. क. गोम्मटसार - कर्मकाण्ड | गो. जी. गोम्मटसार - जीवकाण्ड | चा. पा. चारित्तपाहुड | छान्दोग्योपनिषद् /--~/~~~/~~~ अध्याय क्र. / खण्ड क्र. / वाक्य क्र. । ज. ध. / क. पा. / भा--- जयधवलाटीका / कसायपाहुड / भाग क्रमांक । ज.ध. / क. पा. / भा. --- / गा. --- / जयधवला / कसायपाहुड / भाग क्रमांक / गाथा क्र./ अनुच्छेद क्रमांक / पृष्ठ क्रमांक । अनु. ---/ पृ. जाबालोपनिषद् । जाबालो जी. त. प्र. / गो. क. जी. त. प्र. / गो. जी. जै. आ. सा. म. मी. जै. ध. मौ. इ. जै. ध. या. स. जै. शि. सं. / मा. च. जै. शि. सं. / भा. ज्ञा. जै. स. या. सं. प्र. जै. सं. सं. सं. शोलापुर जै. सा. इ. जै. सा. इ. - जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ प्रेमी जीवतत्त्वप्रदीपिकावृत्ति / गोम्मटसार- कर्मकाण्ड । जीवतत्त्वप्रदीपिकावृत्ति / गोम्मटसार - जीवकाण्ड । जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा । जैनधर्म का मौलिक इतिहास। जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय । जैन - शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, मुंबई | जैन - शिलालेख संग्रह / भारतीय ज्ञानपीठ । " जैन सम्प्रदाय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश" (लेख)। जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर । जैन साहित्य और इतिहास | जैन साहित्य और इतिहास – पं० नाथूराम प्रेमी । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर-विवरण जै. सा. इ. ( कै. च. शास्त्री ) जै. सा. इ./पू. पी. जै. सा. इ.वि. प्र./खं.१ जै. सि. को. /---/--- जै. सा. बृ. इ./--- जै. सि. भा./भा. ---/कि. --- डॉ. सा. म. जै. अभि. ग्र. त. नि. प्रा. त. दी. तत्त्वा. भाष्य. त. भाष्यवृत्ति त. र. दी./ षड्. समु./---/--- [पैंतालीस] जैनसाहित्य का इतिहास (सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री)। जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका। जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश । प्रथमखंड। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / भाग क्रमांक / पृष्ठ क्रमांक। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास / भाग क्रमांक। जैन सिद्धान्त भास्कर/भाग क्रमांक/किरण क्रमांक। डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ। तत्त्वनिर्णयप्रासाद। तत्त्वदीपिकावृत्ति। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य। तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति। तर्करहस्यदीपिका (गुणरत्नकृत टीका) / षड्दर्शनसमुच्चय / अधिकार-क्रमांक / पृष्ठक्रमांक। तत्त्वार्थराजवार्तिक / अध्याय क्रमांक / सूत्र क्रमांक । वार्तिक क्रमांक तत्त्वार्थसूत्र / अध्याय क्रमांक / सूत्र क्रमांक। तत्त्वार्थसूत्र। तत्त्वार्थसूत्र / विवेचनसहित। तत्त्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय। तात्पर्यवृत्ति। तिलोयपण्णत्ती / महाधिकार क्रमांक / गाथा क्रमांक। तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा / खण्ड क्रमांक। त. रा. वा. /---/---/--- त. सू. ---/--- तत्त्वार्थ त. सू./वि. स. त. सू. जै. स. E or ति. प. /---/--- ती. म. आ. प./--- For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 दश. वै. सू. [छियालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ दंसणपाहुड। द्रव्यसंग्रह। द्वितीय संस्करण। दशवैकालिकसूत्र। दिगम्बर। धम्मपद-अट्ठकथा/भा.---/---/ धम्मपद-अट्ठकथा / भाग क्र./ वग्ग क्र./ कथा क्र. धवला / ष. खं./ पु.--- धवलाटीका / षट्खण्डागम / पुस्तक क्रमांक। नि. सा. नियमसार। न्यायदीपिका /---/--- प्रकाश क्रमांक / अनुच्छेद क्रमांक, न्या. वा. वृ. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति। प.च./---/---/---/--- पउमचरिउ / भाग क्र./ सन्धि क्र./दोहासमूह क्र./ दोहा क्रमांक। प. पु./---/--- पद्मपुराण (पद्मचरित)/ भाग क्र./पर्व क्र./ श्लोक क्र.। पद्ममहापुराण/---/---/---/--. भाग क्रमांक/खण्ड क्रमांक (भूमिखण्ड)/ अध्याय क्रमांक / श्लोक क्रमांक। प.प्र./---/--- परमात्मप्रकाश / महाधिकार क्रमांक / दोहा क्रमांक। परमा. प्र. परमात्मप्रकाश। पञ्चास्तिकाय। पं. र. च. जै. मुख्तार : व्यक्ति. कृति. पण्डित रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व। परि. पर्व परिशिष्टपर्व। पा. टि. पादटिप्पणी। पुरा. जै. वा. सू. पुरातन-जैन-वाक्य-सूची। पुस्तक। पृष्ठक्रमांक। प्रथम संस्करण। पं. का. For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर-विवरण प्रव. परी. /---/---/--- [सैंतालीस] प्रवचनपरीक्षा / भाग क्रमांक (पूर्व या उत्तर)/ विश्राम क्रमांक / गाथा क्रमांक। प्रवचनसार / अधिकार क्रमांक / गाथा क्रमांक। प्र.सा./---/--- प्रस्ता . प्रा. सा. इ. बा. अ. बा. अणु. बृ. क. को. बृहत्कल्पसूत्र /---/--- बृ. कल्प./लघुभाष्यवृत्ति /---/--- प्रस्तावना। प्राकृत साहित्य का इतिहास। बारस अणुवेक्खा। बारस अणुवेक्खा। बृहत्कथाकोश। उद्देशक्रमांक / सूत्रक्रमांक। बृहत्कल्पसूत्र / लघुभाष्यवृत्ति / उद्देशक्रमांक / गाथाक्रमांक। अध्याय क्रमांक / ब्राह्मण क्रमांक / वाक्य क्रमांक। बोधपाहुड। अध्याय क्रमांक / पाद क्रमांक / सूत्र क्रमांक। भगवती-आराधना। भट्टारकसम्प्रदाय। भद्रबाहुचरित / परिच्छेद क्रमांक / श्लोक क्रमांक। भद्रबाहुकथानक। बृहदारण्यकोपनिषद्/---/---/--- बो. पा. ब्रह्मसूत्र /---/---/--- भ. आ. भट्टा. सम्प्र. भ. बा. च./---/--- भ. बा. क. भाग। भा. ज्ञा. भा. पु./---/---/--- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली / वाराणसी। भागवतपुराण / स्कन्ध क्रमांक । अध्याय क्रमांक / श्लोक क्रमांक या गद्यखण्ड क्रमांक । भावपाहुड। भारतीय इतिहास : एक दृष्टि (डॉ० ज्योतिप्रसाद भा. पा. भा. इ. ए. दृ. . जैन)। For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अड़तालीस] भा. सं. जै. ध. यो. दा. महापुराण/---/--- जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान। सर्ग क्रमांक / श्लोक क्रमांक। . पर्व क्रमांक / अध्याय क्रमांक / श्लोक क्रमांक। माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई। महाभारत/---/---/--- मा.च. मूलाचार। मूला. मूला./पू. मूला./उत्त. मो. पा. या. औ. उ. सा. मूलाचार/ पूर्वार्ध। मूलाचार / उत्तरार्ध। मोक्खपाहुड। यापनीय और उनका साहित्य। युक्त्यनुशासन। योगसार यु. अनु. यो. सा. र. क. श्रा. लिं. पा. वरांगचरित /---/--- वायुपुराण /---/--- वि. टी./भ. आ. विशे. भा. विष्णुपुराण/---/---/--- व्या. प्र. /---/---/--- रत्नकरण्डश्रावकाचार। लिंगपाहुड। सर्ग क्रमांक / श्लोक क्रमांक। अध्याय क्रमांक / श्लोक क्रमांक। विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना। विशेषावश्यकभाष्य। अंश क्र./ अध्याय क्र./ श्लोक क्र.। व्याख्याप्रज्ञप्ति / शतक क्रमांक / उद्देशक क्रमांक । प्रश्नोत्तर क्रमांक शोलापुर प्रकाशन। श्रमण भगवान् महावीर। श्वेताम्बर। षट्खण्डागम / पुस्तक क्रमांक / खण्ड क्रमांक, शो. प्र. श्र. भ. म. पवे. ष.ख./---/---,--- For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर-विवरण षट्. परि. स.सा./--- समवायांग/---/--- स. तन्त्र सं. सा. इ.- ब. दे. उ. स.सि./---/---/--- सा. ध. सुत्त. पा. सूत्रकृतांग /---/---/--- स्त्रीनिर्वाण प्र. स्था. सू./---/---/--- स्था. सू./---/--- स्व. स्तो. स्वा. स. भ. ह. पु. ( हरि. पु.)/---/--- हारि. वृत्ति हेम. वृत्ति / विशे. भा. [उनचास] भाग क्रमांक, सूत्र क्रमांक। षट्खण्डागम-परिशीलन। समयसार / गाथा क्रमांक। समवाय क्रमांक / सूत्र क्रमांक। समाधितन्त्र (समाधिशतक)। संस्कृत साहित्य का इतिहास - बलदेव उपाध्याय। सर्वार्थसिद्धि/अध्याय क्रमांक/सूत्र क्रमांक/ अनुच्छेद क्रमांक। सागारधर्मामृत। सुत्तपाहुड। श्रुतस्कन्ध क्रमांक/अध्ययन क्रमांक/उद्देशक क्रमांक। स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। स्थानांगसूत्र/स्थान क्रमांक/उद्देशक्रमांक/सूत्र क्रमांक। स्थानांगसूत्र / स्थान क्रमांक / सूत्र क्रमांक । स्वयम्भूस्तोत्र। स्वामी समन्तभद्र। हरिवंशपुराण / सर्गक्रमांक / श्लोकक्रमांक। हारिभद्रीय वृत्ति। मलधारी हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य। Aspects of Jainology. Foot Note. Asp. of Jaino. F. N. For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय भगवती आराधना प्रथम प्रकरण भगवती - आराधना के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण क यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु भगवती - आराधना के कर्त्ता शिवार्य हैं, जैसा कि उन्होंने स्वयं ग्रन्थ के अन्त में कहा है। इसे उन्होंने 'आराधना' और 'भगवती आराधना २ दोनों नामों से अभिहित किया है। आचार्य अमितगति ने 'भगवती - आराधना' नाम का अनुकरण किया है। पं० आशाधर जी ने इसे 'मूलाराधना' नाम से उद्धृत किया है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० निर्धारित किया है । ३ शिवार्य दिगम्बर - आचार्य थे और 'भगवती - आराधना' दिगम्बरग्रन्थ है। किन्तु पं० नाथूराम जी प्रेमी, श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी, प्रो० हीरालाल जी जैन ' डॉ० श्रीमती कुसुम पटोरिया' तथा श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने इस १. पुव्वायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराधना सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥ २१६० ॥ भगवती आराधना । २. आराधणा भगवदी एवं भत्तीए वण्णिदा संती । संघस्स सिवज्जस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ॥ २१६२ ॥ भगवती आराधना । ३. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड २ / पृष्ठ १२७-१२८ ४. जैन साहित्य और इतिहास (प्रथम संस्करण) / पृष्ठ ५६-६० । ५. मुनि कल्याणविजय जी एवं प्रो. हीरालाल जी जैन ने भगवती आराधना के कर्त्ता शिवार्य एवं बोटिक सम्प्रदाय के संस्थापक शिवभूति को एक ही व्यक्ति माना है । उनके अनुसार यह सम्प्रदाय सचेलाचेलमार्गी था। यही आगे चलकर कुन्दकुन्द के समय (मुनि जी के अनुसार ५ वीं शती ई० तथा प्रोफेसर सा० के अनुसार द्वितीय शती ई०) में यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रो० हीरालाल जी का मत - देखिये, अध्याय १० / प्रकरण ८ / शीर्षक १.१. एवं १.२ । ६. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १२५-१३२ । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०१ ग्रन्थ को यापनीय-आचार्यकृत बतलाया है, जो सर्वथा मिथ्या है। अन्तिम चार विद्वानों ने प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत हेतुओं को ही पुनरुक्त किया है। डॉ० सागरमल जी ने कुछ नये हेतु भी जोड़े हैं। इन सबको उन्होंने अपने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ में संगृहीत किया है। प्रेमी जी ने भगवती-आराधना को यापनीयमत का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास' (प्रथम संस्करण /पृ.५६-६० तथा द्वितीय संस्करण/ पृ.६८-७३) में निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. शिवार्य तथा उनके गुरुओं के नाम दिगम्बरपट्टावलियों या गुर्वावलियों में नहीं मिलते। २. यापनीय-आचार्य (अपराजित सूरि) द्वारा भगवती-आराधना की टीका की गई है। ३. भगवती-आराधना की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से मिलती ४. यापनीय-आचार्य शाकटायन ने शिवार्य के गुरु सर्वगुप्त का उल्लेख किया 20% ५. शिवार्य ने अपने लिए 'पाणितलभोजी' विशेषण का प्रयोग किया है। ६. श्वेताम्बरसाहित्य में प्रसिद्ध मेतार्य मुनि की कथा भगवती-आराधना में मिलती ७. उसमें क्षपक के लिए चार मुनियों द्वारा आहार लाये जाने का विधान दिगम्बरमत के विरुद्ध है। ८. अवमौदर्य-कष्ट को साम्यभाव से सहन करते हुए भद्रबाहु के समाधिमरण की कथा भगवती-आराधना को छोड़कर दिगम्बरसम्प्रदाय के अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलती। ९. उसमें मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान है। १०. भगवती-आराधना में 'आचार', 'जीतशास्त्र' आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों का उल्लेख ११. भगवती-आराधना में वर्णित मृत मुनि के शवसंस्कार की विजहना-विधि दिगम्बरमत के प्रतिकूल है। ७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय । पृ. १२०-१३० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ५ १२. भगवती-आराधना की 'देसामासियसुत्तं' गाथा (११२३) के 'तालपलंबसुत्तम्मि' पद में श्वेताम्बरग्रन्थ 'बृहत्कल्प' के सूत्र का उल्लेख है। १३. 'आराधणापुरस्सर' गाथा (७५२) की विजयोदयाटीका में श्वेताम्बरग्रन्थ 'अनुयोगद्वारसूत्र' का निर्देश किया गया है। १४. उत्तरगुणउज्जमणे' गाथा (११८) की विजयोदयाटीका में 'पंचवदाणिजदीणं' इत्यादि 'आवश्यकसूत्र' (श्वेताम्बरग्रन्थ) की गाथा उद्धृत की गई है। १५. 'अंगसुदे बहुविधे' गाथा (४९९) की विजयोदयाटीका में श्रुत के 'आचारांग' आदि भेदों का वर्णन है। ये नाम श्वेताम्बरपरम्परा के आगमों के हैं। डॉ० सागरमल जी ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ( पृ.१२१, १२९) में ये दो नये हेतु और जोड़े हैं १६. 'शिवार्य' जैसे आर्यान्त तथा 'जिननन्दी' जैसे नन्द्यन्त नाम यापनीयसम्प्रदाय में ही मिलते हैं। १७. भगवती-आराधना में श्वेताम्बर-प्रकीर्णक-ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ हैं। ख सभी हेतु असत्य या हेत्वाभास इनमें से कुछ हेतुओं का तो अस्तित्व ही नहीं है, अतः वे असत्य हैं और कुछ यापनीयग्रन्थ के लक्षण नहीं हैं, क्योंकि वे अव्याप्ति, अतिव्याप्ति या असम्भवदोष से युक्त हैं, इसलिए वे हेत्वाभास हैं। यापनीयग्रन्थ के लक्षण ‘यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में बतलाये गये हैं। तदनुसार जो श्वेताम्बरग्रन्थ न हो, फिर भी जिसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सिद्धान्तों का विधान हो अथवा निषेध न किया गया हो, वह यापनीयग्रन्थ है और जिसमें इनका विधान न हो अथवा निषेध किया गया हो, वह यापनीयग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। भगवती-आराधना में यापनीयग्रन्थ के ये लक्षण उपलब्ध नहीं होते, अपितु उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध किया गया है, अतः वह यापनीयग्रन्थ नहीं, दिगम्बरग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त कुछ बहिरंग प्रमाणों से भी उसका दिगम्बराचार्यकृत होना सिद्ध होता है। यहाँ पहले इन अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है। तत्पश्चात् यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में जो हेतु प्रस्तुत किये गये हैं, उनकी असत्यता एवं हेत्वाभासता का प्रदर्शन किया जायेगा। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण . यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन सवस्त्रमुक्तिनिषेध १.१. आचेलक्य मुनि का अनिवार्य प्रथम धर्म ___ यापनीयमत में मुनियों के लिए अचेललिंग के साथ सचेललिंग भी स्वीकार किया गया है, किन्तु भगवती-आराधना में एकमात्र अचेललिंग का ही विधान है। उसकी निम्नलिखित गाथा में कहा गया है कि जो आचार्य सदा दस प्रकार के स्थितिकल्प में स्थित रहता है, वह आचारवान् है। वह आचार्य समिति-गुप्तिरूप प्रवचन-माताओं में तत्पर रहता है दसविहठिदिकप्पे वा हवेज जो सुट्टिदो सयायरिओ। आयारवं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो॥ ४२२॥ भ.आ.। वे दस स्थितिकल्प इस प्रकार हैं आचेलक्कुद्देसिय- सेज्जाहर-रायपिंडकिरियम्मे। वद-जेट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो॥ ४२३॥ भ.आ.। अनुवाद-"आचेलक्य (नग्नता), औदेशिक (उद्दिष्ट भोजन) का त्याग, शय्यागृह का त्याग, राजपिण्ड (राजा के आहार या राजस आहार) का त्याग, कृतिकर्म (गुरु की विनय-सेवा करना), व्रत, ज्येष्ठता (आर्यिका की अपेक्षा मुनि की ज्येष्ठता) का पालन, प्रतिक्रमण, मासकल्प (छह ऋतुओं में एक-एक मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना), पर्युषणाकल्प (वर्षाकाल में एक स्थान पर चार-मास तक निवास करना), ये दस स्थितिकल्प हैं।"८ 'कल्प' का अर्थ है साध्वाचार ("कल्पः साध्वाचारः"-कल्पसूत्र/कल्पप्रदीपिकावृत्ति/ गाथा १) और स्थिति का अर्थ है नियोगतः अर्थात् अनिवार्यतया पालन करने योग्य (नियोगः = अनिवार्यता / आप्टे-संस्कृत-हिन्दी-कोश)। इस प्रकार स्थितिकल्प का अर्थ है मुनि के लिए अनिवार्यतया पालन करने योग्य आचार, जैसा कि अपराजित सूरि ने स्पष्ट किया है ८. इन के अर्थों का प्रतिपादन प्रस्तुत गाथा की विजयोदया टीका में किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ७ "नियोगतो मुमुक्षूणां यत्कर्त्तव्यतया स्थितं तत्स्थितमुच्यते स्थितकल्प: स्थितप्रकारः।" (वि. टी./भ.आ. / गा. 'देसामासियसुत्तं' १११७)। तात्पर्य यह कि शिवार्य ने आचेलक्य को स्थितकल्प या स्थितिकल्प कहकर यह सूचित किया है कि वस्त्रत्याग किये बिना कोई भी मुमुक्षु 'मुनि' नहीं कहला सकता। यह भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्तिनिषेध का ज्वलन्त प्रमाण है। और आचेलक्य (नग्नता) शब्द से केवल वस्त्रत्याग अभिप्रेत नहीं है, वह तो उपलक्षण है। अतः उससे वस्त्र, पात्र, आभूषण, धन-धान्य आदि समस्त परिग्रह का त्याग सूचित किया गया है। इसका स्पष्टीकरण भगवती-आराधनाकार ने निम्नलिखित गाथा में किया है देसामासियसुत्तं आचेलक्कंति तं ख ठिदिकप्पे। लुत्तोत्थ आदिसहो जह तालपलंबसुत्तम्मि॥ १११७॥ भ.आ.। अनुवाद-"दस स्थितिकल्पों में जो आचेलक्य कल्प है वह देशामर्शक सूत्र है अर्थात् एकदेश का कथन कर सम्पूर्ण को सूचित करनेवाला शब्द है। इसे उपलक्षण कहते हैं। अभिप्राय यह कि 'आचेलक्य' में चेल शब्द परिग्रह का उपलक्षण है, अर्थात् वह चेल के अतिरिक्त पात्र, दण्ड आदि समस्त परिग्रह का सूचक है। अतः 'आचेलक्य' का अर्थ समस्त परिग्रह का त्याग है। जैसे तालप्रलम्ब (ताड़वृक्ष की शाखा) शब्द में 'आदि' शब्द विलुप्त है, तो भी उससे सभी प्रकार की वनस्पतियों का द्योतन होता है, वैसे ही चेल शब्द में 'आदि' शब्द का अभाव है, फिर भी वह समस्त परिग्रह का द्योतक है।" अपराजितसूरि ने यह अर्थ निम्नलिखित व्याख्या द्वारा ज्ञापित किया है"चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थः।"९ अनुवाद-"चेल शब्द का प्रयोग परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए सकल परिग्रह का त्याग 'आचेलक्य' शब्द का अर्थ है।" आचेलक्यरूप प्रथम स्थितिकल्प को समस्त मुमुक्षुओं के लिए अनिवार्य बतलाते हुए शिवार्य कहते हैं चेलादिसव्वसंगच्चाओ पढमो हु होदि ठिदिकप्यो। इहपरलोइयदोसे सब्वे आवहदि संगो हु॥ १११६॥ भ.आ.। अनुवाद-"वस्त्रादि सर्व परिग्रह का त्याग प्रथम स्थितिकल्प है, अर्थात् मुमुक्षुओं के लिए अनिवार्यतया पालनीय सर्वप्रथम आचार है, क्योंकि परिग्रह इस लोक और परलोक, दोनों लोकों को बिगाड़नेवाले दोष ढोकर लाता है।" ९. विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा.१११७ / पृ. ५७६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ इससे स्पष्ट हो जाता है कि शिवार्य मोक्ष के लिए वस्त्रादि-सर्व-परिग्रह-त्याग को सर्वप्रथम आवश्यक मानते हैं, अर्थात् उन्हें सवस्त्रमुक्ति मान्य नहीं है। यदि मान्य होती तो वे वस्त्रादिपरिग्रह को परलोक को बिगाड़नेवाला न कहते। ___ निम्नलिखित गाथा में वस्त्रादित्याग के बिना मुनि-पद की प्राप्ति असंभव बतलायी गयी है ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं॥ १११८॥ भ.आ.। अनुवाद-"मात्र वस्त्र का त्याग करने से और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत (मुनि) नहीं होता। इसलिए आचेलक्य में समस्तपरिग्रह का त्याग गर्भित है।" इस गाथा की 'विजयोदया' टीका में अपराजित सूरि ने यह भी स्पष्ट किया है कि महाव्रतों का कथन करनेवाले सूत्र इस बात के ज्ञापक हैं कि आचेलक्य शब्द द्वारा सर्वपरिग्रह के त्याग का उपदेश दिया गया है। अर्थात् अपरिग्रह-महाव्रत वस्त्रपात्रादिसमस्तपरिग्रह के त्याग से निष्पन्न होता है, अतः वस्त्रपात्रादि धारण करनेवाला कोई भी पुरुष महाव्रती नहीं हो सकता। इस प्रकार ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों ने वस्त्रपात्रादि-सर्वसंगत्याग के बिना मुनिपद या महाव्रतित्व की प्राप्ति असंभव बतलाकर सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया है। १.२. श्रावक का लिंग अपवादलिंग शिवार्य के सवस्त्र-मुक्ति-निषेधक होने का एक बलवान् प्रमाण यह है कि जहाँ यापनीयमत में मुनियों के लिए अचेल और सचेल, इन दो लिंगों का विधान किया गया है, वहाँ शिवार्य ने मुनियों के लिए मात्र अचेललिंग का नियम बतलाया है और मुनियों के अचेललिंग को उत्सर्गलिंग तथा श्रावकों के सचेललिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी है। इस तरह उन्होंने श्वेताम्बरों की इस मान्यता को निरस्त किया है कि मुनियों के भी स्थविरकल्प के रूप में अपवादलिंग होता है। शिवार्य ने श्रावक के ही लिंग को अपवादलिंग नाम दिया है, यह उनके द्वारा प्रतिपादित उत्सर्ग और अपवाद की निम्नलिखित परिभाषाओं से सिद्ध होता है १.२.१. सपरिग्रह एवं मुनिनिन्दा-कारणभूत लिंग अपवादलिंग-भगवतीआराधना में उत्सर्ग और अपवाद शब्द सामान्यनियम एवं विशेषनियम के वाचक नहीं १०."किं च महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसङ्गत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १११८ / पृ. ५७४। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ९ हैं, अपितु सकलपरिग्रहाभाव और सकलपरिग्रहसद्भाव के वाचक हैं। अतः उत्सर्गलिंग का अर्थ है परिग्रहरहित-लिंग अर्थात् मुनिलिंग और अपवादलिंग का अर्थ है परिग्रहसहितलिंग अर्थात् श्रावकलिंग। इन अर्थों को भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है "उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रन्थपरित्यागे भवं लिङ्गमौत्सर्गिकम् ---- । यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः, अपवादो यस्य विद्यते इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गं भवति।" (वि.टी./ भ.आ./गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६)। अनुवाद-"उत्कृष्टरूप से सर्जन अर्थात् सकल परिग्रह का त्याग उत्सर्ग कहलाता है। उत्सर्ग से अर्थात् सकलपरिग्रह के त्याग से होनेवाले लिंग को औत्सर्गिक-लिंग कहते हैं। ---मुनियों के अपवाद (निन्दा) का कारण होने से परिग्रह की अपवाद संज्ञा है। अपवाद जिसके पास हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रहसहित-लिंगवाला अपवादिकलिंगी होता है।" इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में सकलपरिग्रह-रहितलिंग को उत्सर्गलिंग एवं परिग्रहसहित-लिंग को अपवादलिंग कहा गया है। यहाँ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है। टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि कि मुनियों को निन्दा का पात्र बनाने के कारण परिग्रह अपवाद कहलाता है। अतः परिग्रहसहितलिंग धारण करनेवाले को अपवादिक-लिंगी कहा गया है। ये शब्द इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना में उल्लिखित अपवादलिंग श्रावकलिंग का वाचक है, मुनिलिंग का नहीं। श्वेताम्बर एवं यापनीय मतों में स्थविरकल्पी साधुओं के वस्त्रपात्रादि को परिग्रह नहीं माना गया है, अपितु संयमोपकरण माना गया है।११ अतः अपराजित सूरि द्वारा सपरिग्रहलिंग को अपवादलिंग कहे जाने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना में श्रावकलिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है। १.२.२. गृहिभाव का सूचक लिंग अपवादलिंग-भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा में उत्सर्गलिंग के स्वरूप का वर्णन किया गया है अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विहो होदि उस्सग्गे॥ ७९॥ भ.आ.। ११. यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम्। धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहाऽर्हन्॥ १२॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। अधिकरणम् = परिग्रहः। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ अनुवाद-"अचेलता, केशलोच, शरीर से ममत्वाभाव और प्रतिलेखन (पिच्छी रखना), ये चार उत्सर्गलिंग के लक्षण हैं।" इसके बाद इस लिंग के ग्रहण से होनेवाले लाभों का वर्णन करते हुए भगवतीआराधनाकार कहते हैं जत्तासाधुचिह्नकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं। . गिहिभावविवेगो वि य लिंगग्गहणे गुणा होंति॥ ८१॥ भ.आ.। अनुवाद-"उत्सर्गलिंग के ग्रहण से ये चार लाभ होते हैं-१. आहारदान की पात्रता सूचित होती है,१२ २. लोगों में मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है,१३ ३. स्वभाव में स्थित होने की प्रेरणा मिलती है१४ और ४. मुनि के गृहस्थ से भिन्न होने का ज्ञापन होता है।"१५ यहाँ शिवार्य ने कहा है कि अचेलत्वरूप उत्सर्गलिंग धारण करने से मुनि गृहस्थ से भिन्न दिखता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि अपवादलिंग ग्रहण करने से भी गृहस्थ से भिन्न दिखता है। इससे सिद्ध है कि वे अपवादलिंग को गृहस्थ का ही लिंग मानते हैं। इस प्रकार शिवार्य ने यह प्रतिपादित किया है कि गृहिभाव (गृहस्थत्व) का सूचक लिंग अपवादलिंग है। १.२.३. मुक्ति के लिए त्याज्य लिंग अपवादलिंग-नीचे उद्धत गाथा में शिवार्य ने मुक्ति के लिए त्यागे जाने योग्य लिंग को अपवादलिंग नाम दिया है। अपवादलिंग साक्षात् मुक्ति का हेतु नहीं है। उसे त्यागने पर ही मुक्ति संभव है। इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए टीकाकार अपराजित सूरि ने निम्नलिखित उत्थानिका के साथ उक्त गाथा का वर्णन किया है १२. "यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिक्रिया। तस्याः साधनं यल्लिङ्गजातं चिह्नजातं तस्य करणम्। न हि गृहस्थवेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति। अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयच्छन्ति। ततो न स्याच्छरीरस्थितिः।---गुणवत्तायाः सूचनं लिङ्गं भवति।" वि.टी./भ.आ./ गा.८१ / पृ.११६। १३. "ननु श्रद्धा प्राणिधर्मः। अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिङ्गम्। तत्किमुच्यते लिङ्गं जगत्प्रत्यय इति? सकलसङ्गपरिहारो मार्गो मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिङ्गमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितम्। न चेत् सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिङ्गं किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयते इति?" वि.टी./ भ.आ./ गा.८१/ पृ. ११६-११७। १४. "आत्मनः स्वस्य अस्थिरस्य स्थिरतापादनम्। क्व मुक्तिवर्मनि व्रजने। किं मम परित्यक्त वसनस्य रागेण रोषेण मानेन मायया लोभेन वा। वसनाग्रेसराः सर्वा लोकेऽलङ्क्रियाः तच्च निरस्तम्। को मम रागस्य अवसर इति?---।" वि. टी./ भ. आ. /गा. ८१ / पृ.११७। १५. "गृहित्वात् पृथग्भावो दर्शितो भवति।" वि.टी./भ. आ./गा.८१/पृ.११७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ११ ___ "अपवादलिङ्गमुपगतः किमु न शुद्धयत्येवेत्याशङ्कायां तस्यापि शुद्धिरनेन क्रमेण भवतीत्याचष्टे अववादियलिंगकदो विसयासत्तिं अगूहमाणो य। णिंदण-गरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो॥ ८६॥ भ.आ.। अनुवाद-"क्या अपवादलिंगधारी शुद्ध (कर्ममल से मुक्त) होता ही नहीं है? इस शंका का समाधान करने के लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि उसकी शुद्धि भी इस क्रम से होती है-अपवादलिंग में स्थित मनुष्य भी यदि निज शक्ति को न छिपाकर अपनी निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग कर देता है, तो वह शुद्ध हो सकता है।" अपराजित सूरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए लिखते हैं "अपवादलिङ्गस्थोऽपि --- कर्ममलापायेन शुद्ध्यति। कीदृक् सन्? यः स्वां शक्तिम् अगूहमानः सन् परिग्रहं परित्यजन् योगत्रयेण। सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इति अन्तःसन्तापो निन्दा। गर्दा परेषाम् एवं कथनम्। ताभ्यां युक्तो निन्दागाँक्रियापरिणत इति यावत्। एवमचेलता व्यावर्णितगुणा मूलतया गृहीता।" (पृ. १२२)। ___ अनुवाद-"अपवादलिंग में स्थित पुरुष भी कर्ममल को दूर करके शुद्ध होता है। किस रीति से? अपनी शक्ति को न छिपाते हुए मन-वचन-काय से परिग्रह का त्याग करने पर। सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों से डरकर वस्त्रपात्रादि परिग्रह ग्रहण किया, इस प्रकार मन में सन्ताप करना निन्दा है। दूसरों से ऐसा कहना गर्दा है। इन दोनों से युक्त होने पर अर्थात् अपनी निन्दागर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग करने पर शुद्ध होता है।" इस गाथा और इसकी टीका से स्पष्ट है कि शिवार्य ने मोक्ष के लिए त्यागे जाने योग्य वस्त्रपात्रादि-परिग्रहयुक्त लिंग को ही अपवादलिंग नाम दिया है। यदि स्थविरकल्पी साधु के सचेललिंग को अपवादलिंग कहा जाता, तो उसकी शुद्धि के लिए वस्त्रपात्रादिपरिग्रह का त्याग आवश्यक न बतलाया जाता, वस्त्रपात्र धारण किये हुए ही उसकी शुद्धि (मुक्ति) स्वीकार कर ली जाती। १.२.४. श्राविका का लिंग अपवादलिंग-भगवती-आराधना में श्रावक के लिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि इसी ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथा में आर्यिका के एकवस्त्रात्मक लिंग को उत्सर्गलिंग और श्राविका के लिंग को अपवादलिंग कहा गया है For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ इत्थीवि य जं लिंगं दिg उस्सग्गियं व इदरं वा। .. तं तत्थ होदि हु लिंग परित्तमुवधिं करेंतीए॥ ८०॥ भ.आ.। अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो औत्सर्गिक और आपवादिक लिंग आगम में कहे गये हैं, वे ही भक्तप्रत्याख्यान के समय में भी उनके लिंग होते हैं। आर्यिकाओं का एक-साड़ीमात्र-अल्पपरिग्रहात्मकलिंग औत्सर्गिक लिंग है और श्राविकाओं का बहुपरिग्रहात्मक लिंग अपवादलिंग है।" इस कथन का समर्थन टीकाकार अपराजित सूरि के निम्नलिखित वचनों से होता है "स्त्रियोऽपि यल्लिङ्गं दृष्टमागमेऽभिहितम् औत्सर्गिकं तपस्विनीनाम् इतरं वा श्राविकाणां तदेव भक्तप्रत्याख्याने भवति। लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिव योज्यम्। यदि महर्द्धिका, लज्जावती, मिथ्यादृष्टिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गं, विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति 'परित्तं' अल्पं उपधिं परिग्रहं कुर्वत्याः।" (वि.टी./भ.आ./गा.८०)। अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो लिंग आगम में बतलाये गये हैं अर्थात् तपस्विनियों (आर्यिकाओं) का औत्सर्गिक और श्राविकाओं का आपवादिक, वे ही भक्तप्रत्याख्यान में भी होते हैं। तपस्विनियों का लिंग तो पहले धारण किया हुआ (प्राक्तन) अर्थात् औत्सर्गिक (एकवस्त्रात्मक) ही होता है, श्राविकाओं का लिंग पुरुषों के समान समझना चाहिए। अर्थात् श्राविका यदि महासम्पत्तिशाली है या लज्जाशील है अथवा उसके परिवारजन विधर्मी हैं, तो सार्वजनिकस्थान में उसे पूर्वधृत लिंग अर्थात् अपवादलिंग ही दिया जाना चाहिए, किन्तु एकान्त स्थान में सकलपरिग्रहत्यागरूप (एकवस्त्रात्मक) उत्सर्गलिंग दिया जा सकता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि स्त्रियों के लिए सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिंग कैसे संभव है? उत्तर यह है कि परिग्रह को अल्प करने से अर्थात् एकवस्त्रात्मक अल्पपरिग्रह से उत्सर्गलिंग संभव है।" कुछ विद्वानों की धारणा है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना में संस्तरारूढ़ होने) के समय आर्यिकाओं और श्रावकाओं के लिए मुनि के समान नाग्न्यलिंग ग्रहण करने का विधान किया गया है। किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। इसका निराकरण अन्तिम (तृतीय) प्रकरण में किया जायेगा। शिवार्य द्वारा प्रतिपादित अपवादलिंग की इन परिभाषाओं से सिद्ध है कि उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं के सचेललिंग को ही अपवादलिंग शब्द से अभिहित किया है तथा मुनियों के अचेललिंग एवं आर्यिकाओं के एक-वस्त्रात्मक लिंग को उत्सर्गलिंग For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / १३ संज्ञा प्रदान की है। शिवार्य ने आचेलक्य को मुनि का अनिवार्य धर्म बतलाया है और वस्त्रादि-समस्त-परिग्रह-त्याग के बिना संयतगुणस्थान की प्राप्ति का निषेध किया है तथा भगवती-आराधना में कहीं भी मुनि के स्थविरकल्पिक भेद का उल्लेख नहीं किया। ये इस बात के प्रमाण हैं कि उनके सिद्धान्त में स्थविरकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है, अतः भगवती-आराधना में उल्लिखित अपवादलिंग का स्थविरकल्पी साधु से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध श्रावक से ही है। १.३. भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य लिंग का निर्देश ये उत्सर्ग और अपवाद लिंग विरत (मुनि एवं आर्यिका) और अविरत (श्रावक एवं श्राविका) के नित्यलिंग हैं। किन्तु भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना-मरण) के समय में परिस्थिति अनुकूल होने पर श्रावक-श्राविका को अपना नित्यलिंग छोड़कर मुनि एवं आर्यिका का लिंग ग्राह्य होता है। इसका प्ररूपण शिवार्य ने भगवती-आराधना में किया है। पहले वे निम्नलिखित गाथा में यह बतलाते हैं कि जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, असाध्यरोग, अतिवृद्धावस्था आदि के कारण धर्म का पालन असंभव हो जाय, तब पाप से बचने और धर्म की रक्षा के लिए विरत और अविरत दोनों भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होते हैं अण्णम्मि चावि एदारिसंमि आगाढकारणे जादे। अरिहो भत्तपरिणाए होदि विरदो अविरदो वा॥ ७३॥ भ.आ.। अनुवाद-"(पूर्व गाथाओं में वर्णित दुःसाध्य व्याधि, उपसर्ग, अतिवृद्धावस्था आदि के अतिरिक्त) इसी प्रकार के अन्य अपरिहार्य कारण के उपस्थित होने पर विरत (मुनि और आर्यिका) और अविरत (श्रावक एवं श्राविका) भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होते हैं।" इसके बाद उत्तर गाथाओं में शिवार्य यह निर्देश करते हैं कि भक्तप्रत्याख्यान के योग्य विरत और अविरत को भक्तप्रत्याख्यान के समय किस स्थिति में और कैसे स्थान में कौन सा लिंग ग्रहण करना चाहिये, जैसा कि टीकाकार अपराजित सूरि के द्वारा गाथा के आरम्भ में दी गयी उत्थानिका से ज्ञात होता है"भक्तप्रत्याख्यानार्हस्य तत्प्रत्याख्यानपरिकरभूतलिंङ्गनिरूपणं उत्तरगाथाभिः क्रियते उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव। अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं॥ ७६॥ भ.आ.। अनुवाद-"भक्तप्रत्याख्यान के योग्य विरत और अविरत के भक्तप्रत्याख्यान के साधनभूत लिंग का निरूपण उत्तरगाथाओं से किया जा रहा है Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ "भक्तप्रत्याख्यान के समय उत्सर्गलिंगधारी के लिए तो उत्सर्गलिंग का ही विधान है, अपवादलिंगधारी के लिए भी उत्सर्गलिंग ही प्रशस्त होता है।"१६ जस्स वि अव्वभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि। सो वि हु संथारगदो गेण्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं॥ ७७॥ भ.आ.। अनुवाद-"जिसके लिंग और दोनों अण्डकोष, इन तीन स्थानों में ऐसा दोष है, जिसे औषध आदि से भी दूर नहीं किया जा सकता, उसे भी वसतिका में (सार्वजनिक स्थान में नहीं) संस्तरारूढ़ होने पर औत्सर्गिकलिंग अवश्य ग्रहण करना चाहिए।" आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महड्डिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं॥ ७८॥ भ.आ.। अनुवाद-"किन्तु जो अपवादलिंगधारी महासम्पत्तिशाली हो अथवा लज्जालु हो या जिसके स्वजन (परिवार के लोग) मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हों, उसे सार्वजनिक स्थान में (भक्तप्रत्याख्यान के समय) अपवादलिंग ही ग्रहण करना चाहिये, भले ही उसका लिंग और दोनों अण्डकोश प्रशस्त हों। १७ आर्यिका और श्राविका के लिए निर्धारित किये गये भक्त-प्रत्याख्यानकालीन लिंगों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। (देखिये, शीर्षक १.२.४)। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि शिवार्य ने पूर्वोद्धृत ७३वीं गाथा में विरत और अविरत को ही भक्त प्रत्याख्यान के योग्य बतलाया है और तत्पश्चात् उत्तरवर्ती गाथाओं में जो भक्तप्रत्याख्यान के योग्य हैं, उन्हीं के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्रहण करने योग्य उत्सर्ग या अपवादलिंग का निर्देश किया है, इससे एकदम स्पष्ट है कि उत्सर्ग लिंग का सम्बन्ध विरतों (मुनि-आर्यिका) से तथा अपवादलिंग का सम्बन्ध अविरतों (श्रावक-श्राविका) से है। १६. टीकाकार अपराजित सूरि ने 'प्रशस्त' शब्द से प्रशस्त पुरुषचिह्न अर्थ ग्रहण किया है। यथा "जइ पसत्थलिंगं यदि प्रशस्तं शोभनं लिङ्गं मेहनं भवति। चर्मरहितत्वम्, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वम् असकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत्। पुंस्त्वलिङ्गता इह गृहीतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहणम्। अतिलम्बमानतादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गृहीता।" (विजयोदया-टीका/भ.आ./ गा.७६) । अर्थात् यदि पुरुषचिह्न प्रशस्त हो, चर्मरहितत्व आदि दोषों से रहित हो, तो अपवादलिंगधारी को भक्तप्रत्याख्यान के समय (सार्वजनिक स्थान में भी) उत्सर्गलिंग धारण करना चाहिए। १७. “अपवादलिङ्गस्थानां प्रशस्तलिङ्गानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिक-लिङ्गतेत्यस्यामारेकायामाह 'आवसधे वा अप्पाउग्गे' ---।" विजयोदयाटीका/पातनिका/भगवती-आराधना/गा.७८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / १५ १.४. प्रेमी जी की महाभ्रान्ति __पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि भगवती-आराधना की "गाथा ७९-८३ में मुनि के उत्सर्ग और अपवादमार्ग का विधान है, जिसके अनुसार मुनि वस्त्रधारण कर सकता है।" इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने विजयोदया टीका के निम्नलिखित वाक्य उद्धृत किये हैं-"वसनसहित-लिङ्गधारिणो हि वस्त्रखण्डादिकं शोधनीयं महत्। इतरस्य पिच्छादिमात्रम्।" (भ.आ./ गा. गंथच्चाओ'८२)।१८ प्रेमी जी आगे लिखते हैं-"गाथा ७९-८०-८१ में शिवार्य ने भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में कहा है कि उत्सर्गलिंगवाले (वस्त्रहीन) को तो, जो कि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता है, उत्सर्गलिंग ही चाहिए, परन्तु जो अपवादलिंगी (सवस्त्र) है, उसे भी उत्सर्गलिंग ही प्रशस्त कहा है, अर्थात् उसे भी नग्न हो जाना चाहिए और जिसके लिंगसम्बन्धी तीन दोष दुर्निवार हों, उसे वसति में संस्तरारूढ़ होने पर उत्सर्गलिंग धारण करना चाहिए। १८ यह निष्कर्ष प्रेमी जी की महाभ्रान्ति का फल है। यह भ्रान्ति इसलिए हुई है कि उन्होंने निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया १. उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि शिवार्य ने अपवादलिंग की जो परिभाषा की है, वह श्वेताम्बर-यापनीय-मान्य परिभाषा से भिन्न है। उन्होंने सपरिग्रह और मुक्ति के लिए त्याज्य तथा मुनि के लिए निन्दा के कारणभूत लिंग को अपवादलिंग कहा है, जो स्पष्टतः श्रावक का लिंग है। २. उनकी दृष्टि इस तथ्य पर भी नहीं गयी कि शिवार्य ने आचेलक्य को मुनि का स्थितिकल्प अर्थात् अनिवार्य आचार बतलाया है और वस्त्रादि-सकलपरिग्रह त्याग किये बिना संयतगुणस्थान की प्राप्ति असंभव बतलायी है, इसलिए उनके सिद्धान्त में श्वेताम्बर-यापनीय-मान्य स्थविरकल्प के लिए स्थान हो ही नहीं सकता। ३. उन्होंने इस बात पर भी गौर नहीं किया कि श्वेताम्बर और यापनीय ग्रन्थों में जिनकल्प और स्थविरकल्प का विधान है, किन्तु भगवती-आराधना में सवस्त्र स्थविरकल्प को कहीं भी मुनिधर्म या मोक्षमार्ग नहीं माना गया है। इसलिए उसे अपवादलिंग कहे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। ४. प्रेमी जी ने इस तथ्य को भी दृष्टि से ओझल किया है कि शिवार्य ने अपवादलिंगधारी को महासम्पत्तिवान् एवं परिवारवाला कहा है। ये धर्म न तो जिनकल्पिक मुनि में हो सकते हैं, न स्थविरकल्पिक मुनि में, क्योंकि दोनों अनगार होते १८. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./ पृ.७१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ हैं। यदि कहा जाय कि स्थविरकल्पी को भूतार्थग्राही-नय से महासम्पत्तिवान् एवं परिवारयुक्त कहा गया है, तो यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि भगवती-आराधना में सवस्त्र-स्थविरकल्प स्वीकार ही नहीं किया गया है, तब स्थविरकल्पी को भूतार्थग्राही नय से सम्पत्तिवान्, परिवारयुक्त आदि कहे जाने की बात वैसी ही है, जैसे बन्ध्यापुत्र को सुन्दर या असुन्दर कहा जाय। अतः इन विशेषणों से श्रावक का ही अपवादलिंगधारी कहा जाना युक्तिमत् सिद्ध होता है। ५. प्रेमी जी ने इस तथ्य पर भी दृष्टि नहीं डाली कि शिवार्य के टीकाकार अपराजित सूरि ने श्राविका को स्पष्ट शब्दों में अपवादलिंगस्थ कहा है, अतः इस न्याय से श्रावक का ही अपवादल्लिंगधारी कहा जाना घटित होता है। ६. उन्होंने इस बात का भी विचार नहीं किया कि शिवार्य ने विरत और अविरत दोनों को भक्तप्रत्याख्यान के योग्य बतलाया है और भक्त प्रत्याख्यानकालीन लिंगों का निर्देश भक्तप्रत्याख्यान-योग्य व्यक्तियों के लिए ही किया है, इसलिए अपवादलिंग का सम्बन्ध अविरत (श्रावक-श्राविका) से ही है। प्रेमी जी यदि इन तथ्यों पर ध्यान देते, तो उन्हें उक्त महाभ्रान्ति नहीं होती। वे यह भली-भाँति देख पाते कि शिवार्य ने श्रावक-श्राविका के ही लिंग को अपवादलिंग कहा है। फलस्वरूप उनसे एक महत्त्वपूर्ण दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ घोषित करने की एतिहासिक भूल न होती। ___पं० नाथूराम जी प्रेमी के उपर्युक्त निष्कर्ष को गलत सिद्ध करनेवाले और भी अनेक तथ्य भगवती-आराधना और उसकी विजयोदया टीका में उपलब्ध होते हैं। उनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। १.५. टीका में श्वेताम्बरमान्य सचेललिंग के दोषों का निरूपण प्रेमी जी ने अपने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि के निम्नलिखित वचन उद्धृत किये हैं-"वसनसहितलिङ्गधारिणो हि वस्त्रखण्डादिकं शोधनीयं महत्। इतरस्य पिच्छिादिमात्रम्" (गा.८२/ पृ.११८) और कहा है कि इन वचनों से सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल अपवादमार्ग का विधान है। प्रेमी जी की यह मान्यता उनकी पूर्वकथित महाभ्रान्ति का ही अंग है। अपराजित सूरि ने उक्त वचन भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा की टीका में व्यक्त किये हैं गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च। संसज्जणपरिहारो परिकम्मविवज्जणा चेव॥ ८२॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - आराधना / १७ अ० १३ / प्र० १ अनुवाद - " परिग्रह का त्याग, लाघव, अप्रतिलेखन, निर्भयता, सम्मूर्च्छन जीवों की रक्षा तथा परिकर्म का त्याग, ये गुण भी मुनियों के लिए निर्धारित उत्सर्गलिंग में होते हैं । " अपराजित सूरि ने दिगम्बर मुनियों द्वारा गृहीत अचेललिंग के इन गुणों का विवेचन श्वेताम्बर मुनियों द्वारा स्वीकृत सचेललिंग के दोषों को दर्शाते हुए किया है । यथा “गंथच्चागो—परिग्रहत्यागः । लाघवं - हृदयसमारोपितशैल इव भवति परिग्रहवान् । कथमिदमन्येभ्यश्चौरादिभ्यः पालयामीति दुर्धरचित्तखेदविगमाल्लघुता भवति । अप्पडिलिहणं-वसनसहितलिङ्गधारिणो हि वस्त्रखण्डादिकं शोधनीयं महत् । इतरस्य पिच्छादिमात्रम् । परिकम्मविवज्जणा चेव - याचनसीवनशोषणप्रक्षालनादिरनेको हि व्यापारः स्वाध्यायध्यानविघ्नकारी, अचेलस्य तन्न तथेति परिकर्मविवर्जनम् । गदभयत्तं—भयरहितता। भयव्याकुलितचित्तस्य न हि रत्नत्रयघटनायामुद्योगो भवति । सवसनो यतिर्वस्त्रेषु यूकालिक्षादिसम्मूर्च्छनज - जीवपरिहारं न विधातुमर्हः । अचेलस्तु तं परिहरतीत्याह—'संसज्जणं परिहारो' इति । परिसह अधिवासणा चेव १९ – शीतोष्णदंशमशकादिपरीषहजयो युज्यते नग्नस्य । वसनाच्छा-दनवतो न शीतादिबाधा येन तत्सहनपरीषहजयः स्यात् । पूर्वोपात्तकर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा इति वचनान्निर्जरार्थिभिः परिषोढव्याः परीषहाः ।" (वि.टी. / भ. आ./गा.८२/पृ. ११७-११८)। अनुवाद "परिग्रह का छूटना उत्सर्गलिंग के ग्रहण का पहला गुण है। दूसरा गुण है लाघव, क्योंकि परिग्रही को ऐसा लगता है, जैसे उसकी छाती पर पहाड़ रखा हो। 'चोर आदि से इस परिग्रह की रक्षा कैसे करूँ,' चित्त से यह बोझ हट जाने पर बहुत हलकापन महसूस होता है। "जो मुनि वस्त्रसहित लिंगधारण करते हैं, उन्हें वस्त्रादि अनेक वस्तुओं का शोधन करना पड़ता है, किन्तु वस्त्ररहित साधु के लिए केवल पिच्छी - कमण्डलु का ही शोधन आवश्यक होता है। अतः अप्रतिलेखन भी अचेलत्व का एक गुण है । १९. इस गुण का उल्लेख अगली गाथा में है, जो इस प्रकार हैविस्सासकरं रूवं अणादरो विसयदेहसुक्खेसु । सव्वत्थं अप्पवसदा परिसह - अधिवासणा चेव ॥ ८३ ॥ भगवती - आराधना । For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०, १३ / प्र० १ " वस्त्रधारी साधु को वस्त्र माँगना, सीना, धोना, सुखाना आदि अनेक कार्य करने पड़ते हैं, जिनसे स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न होता है, किन्तु वस्त्ररहित साधु इन सबसे . मुक्त रहता है। अतः परिकर्म से मुक्त रहना अचेललिंग का एक अन्य गुण है। 44 'अचेल साधु निर्भय भी रहता है। जिसका चित्त भय से व्याकुल रहता है, वह रत्नत्रय की साधना का उद्यम नहीं कर पाता । सचेल साधु वस्त्रों में उत्पन्न होनेवाले जूँ, लीख आदि सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा से नहीं बच सकता, जब कि अचेल साधु बच जाता है। अतः संसञ्जण - परिहार भी उसका एक गुण है। 44 ' तथा नग्न साधु शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषहों को जीतता है, किन्तु जिसका शरीर वस्त्राच्छादित है, उसे शीतादि की बाधा नहीं होती, अतः उसके लिए परीषहजय संभव नहीं है। "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः " तत्त्वार्थसूत्र (९ / ८) के इस वचनानुसार कर्मनिर्जरा के अभिलाषियों को परीषह सहना आवश्यक है । " इस टीका से स्पष्ट है कि अपराजित सूरि ने श्वेताम्बरसाधु द्वारा गृहीत सचेललिंग से तुलना करते हुए दिगम्बरसाधु द्वारा स्वीकृत अचेललिंग के गुणों का प्ररूपण किया है । सचेललिंग में दोष ही दोष बतलाये हैं और अचेललिंग में गुण ही गुण । सचेललिंग को स्वाध्याय और ध्यान में विघ्नकारक, सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा का हेतु तथा कर्मनिर्जरा में बाधक बतलाया है, और यह स्पष्ट किया है कि वह मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष का मार्ग केवल अचेललिंग है। इस प्रकार जहाँ भगवती आराधना और उसकी टीका में सचेललिंग के मोक्षमार्ग होने का निषेध किया गया है, वहाँ पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उक्त ग्रन्थ में उसका मोक्ष के अपवादमार्ग के रूप में प्रतिपादित होना मान लिया है। इतना उलटा, इतना विपरीत आकलन ! महान् आश्चर्य है। इससे भी महान् आश्चर्य की बात है उनके अनुगामियों द्वारा आँख बन्द कर उनका अनुसरण किया जाना । एक और अचरज की बात है। अपराजित सूरि ने उपर्युक्त व्याख्यान में मुनि के सचेललिंग को कहीं भी अपवादमार्ग नहीं कहा है, किन्तु प्रेमी जी ने उसे अपने मन से अपवादमार्ग नाम दे दिया है। इस प्रकार उन्होंने एक महान् भ्रान्ति के वशीभूत होकर भगवती - आराधना में मुनि के लिए आपवादिक सचेललिंग के विधान का जबरदस्ती आरोपण कर डाला और उसे यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया । १.६. टीका में अचेललिंग से ही मोक्ष का प्रतिपादन अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की टीका में सर्वत्र सचेललिंग के मोक्षमार्ग होने का निषेध किया है और एकमात्र अचेललिंग को ही मुक्ति का उपाय प्रतिपादित किया है। उनके निम्नलिखित वचन प्रमाण हैं For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / १९ १. "मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्।" (गा. 'जिणपडिरूवं' ८४)। अनुवाद-"मुक्ति का इच्छुक मुनि वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है।" २. "सकलसङ्गपरिहारो मार्गो मुक्तेः। --- न चेत् सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिङ्ग किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयत इति?" (गा.' जत्तासाधण' ८१ / पृ.११७)। अनुवाद-"समस्त परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है। यदि सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का लिंग न होता, तो उसे नियमपूर्वक (अनिवार्यतः) ग्रहण क्यों किया जाता?" ३. "सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषह-भीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा।" (गा. अववादिय'८६ / पृ.१२२)। अनुवाद-"सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि-परिग्रह ग्रहण किया, ऐसा अन्तःसन्ताप निन्दा कहलाता है।" ४. "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थः।" (गा. 'देसामासिय'१११७/ पृ.५७३)। __ अनुवाद-"वस्त्रग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है, अतः समस्त परिग्रह का त्याग आचेलक्य शब्द का अर्थ है।" ५. "नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (गा.'ण य होदि' १११८/पृ.५७४)। अनुवाद-"वस्त्रमात्र छोड़ देने और शेष परिग्रह रखने से कोई संयत नहीं होता।" ६. "यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः। अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिङ्गम्।" (गा.' उस्सग्गिय' ७६ पृ./११३)। अनुवाद-"मुनियों के लिए अपवाद (निन्दा) का कारण होने से परिग्रह अपवाद कहलाता है। परिग्रह जिस लिंग में होता है, वह परिग्रहसहितलिंग आपवादिकलिंग है।" इन प्रमाणों को देखते हुए यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भगवतीआराधना या उसकी टीका में कहीं भी मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का विधान किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १. ७. श्वेताम्बरीय मान्यताओं के आगमानुकूल होने का खण्डन अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की टीका में अनेक स्थानों पर श्वेताम्बरीय मान्यताओं के युक्ति और आगम के अनुकूल होने का खण्डन किया है। यह इस बात से स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए उन्होंने कई जगह श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण दिये हैं और श्वेताम्बर साधुओं के 'वस्त्रपात्र' आदि उपकरणों का उल्लेख किया है तथा सग्रन्थ होते हुए भी उनके द्वारा अपने को निर्ग्रन्थ कहे जाने पर आक्षेप किया है । यथा १. 'आचेलक्कुद्देसिय' इस गाथा (४२३) की टीका में उन्होंने जो अनेक युक्तियों से सचेललिंग के बहुविध दोषों का विस्तार से उद्घाटन किया है, वह श्वेताम्बर साधुओं केही सचेललिंग के दोषों का उद्घाटन है, क्योंकि उन्होंने ( अपराजितसूरि ने ) श्वेताम्बरों की ओर से सचेललिंग के समर्थन हेतु आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि श्वेताम्बरमान्य आगमों के वचन उद्धृत किये हैं और उनका युक्तिपूर्वक निराकरण कर एकमात्र अचेललिंग को ही मुक्ति का मार्ग सिद्ध किया है । २० २. श्वेताम्बर साधु वस्त्रधारण करते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हैं । इस पर तीक्ष्ण आक्षेप करते हुए अपराजित सूरि ने कहा है अ० १३ / प्र० १ “चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ?” (गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ.३२३) । अनुवाद - " वस्त्रधारण करते हुए भी जो स्वयं को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके कथन से क्या अन्य सम्प्रदाय के साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध नहीं होंगे? अर्थात् उसके मत से तो सभी सम्प्रदायों के साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध होते हैं । " ३. श्वेताम्बरग्रन्थों में कहा गया है कि तीर्थंकर अनुपम धृति और प्रथम संहनन आदि अतिशयों के धारी होते हैं, अतः वे जिनकल्प या अचेललिंग ग्रहण करते हैं, किन्तु शिष्य उनके समान नहीं होते, अतः उन्हें तीर्थंकरों के लिंग का अनुकरण नहीं करना चाहिए। तीर्थंकरों ने उनके लिए सचेललिंग ( स्थविरकल्प) का उपदेश दिया है।२१ अपराजित सूरि इससे सहमत नहीं है । अतः उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियाँ इस श्वेताम्बरीय मत के ही खण्डन में लिखी हैं "जिनानां प्रतिबिम्बं चेदमचेललिङ्गम् । ते हि मुमुक्षवो मुक्त्युपायज्ञा यद् गृहीतवन्तो लिङ्गं तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ तदनुपायमादत्ते २०. देखिए, चतुर्दश अध्याय 'अपराजित सूरि : दिगम्बराचार्य ।' २१. देखिए, तृतीय अध्याय का द्वितीय प्रकरण / शीर्षक ९ । For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - आराधना / २१ अ० १३ / प्र० १ यथा घटार्थी तुरिवेमादीन् । मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् । यच्चात्मनोऽभिप्रेतस्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं तथा यतिरप्यचेलताम् । तदुपायता चाचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव ।" (गा.' जिणपडिरूवं'८४/पृ.१२०)। अनुवाद - "यह अचेललिंग जिनदेवों का प्रतिबिम्ब है । जिनदेव मोक्ष के अभिलाषी थे और मुक्ति का उपाय जानते थे, अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही अन्य मोक्षार्थियों के ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि जो जिस वस्तु को चाहता है और विवेकशील होता है, वह उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करता, जो उस वस्तु के उपाय नहीं हैं। जैसे घटनिर्माण का इच्छुक मनुष्य तुरी - वेमादि ( पटनिर्माण के साधनों) को ग्रहण नहीं करता, वैसे ही मुक्ति का अभिलाषी साधु वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वस्त्र मुक्ति का उपाय नहीं है । और जो अपनी अभीष्ट वस्तु का उपाय होता है, उसे मनुष्य नियम से ग्रहण करता है । जैसे घटनिर्माण का इच्छुक व्यक्ति चक्रादि को अवश्य ग्रहण करता है, वैसे ही मोक्षार्थी साधु भी अचेलता को अनिवार्यतः अंगीकार करता है। और अचेलता ज्ञानदर्शन की तरह मुक्ति का उपाय है, यह जिनेन्द्रदेव के ही आचरण से सिद्ध है ।" 1 यहाँ अपराजित सूरि ने एक अखण्ड्य युक्ति के द्वारा अचेललिंग को ही मोक्षमार्ग सिद्ध किया है। प्रश्न यह है कि भले ही तीर्थंकर अनुपम धृति और प्रथम संहनन आदि अतिशयों से युक्त थे, किन्तु जब सचेललिंग से भी मोक्ष हो सकता है, तब उन्होंने अचेललिंग क्यों चुना, जब कि वह अत्यन्त कठिन है ? जिनेन्द्र भगवान् के बारे में 'भगवान् की लीला' जैसा तर्क तो उपयुक्त नहीं हो सकता । इस प्रश्न के समाधान हेतु अपराजित सूरि ने विवेकवान् मनुष्यों की कार्यपद्धति को युक्ति के रूप में ग्रहण किया है । युक्ति यह है कि जो विवेकशील होते हैं, वे अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए उसी सामग्री को अपनाते हैं, जिससे कार्यसिद्धि संभव है । जिससे कार्यसिद्धि संभव नहीं है, वे उस सामग्री का अवलम्बन नहीं करते। तीर्थंकर विवेकवान् थे और उन्होंने मुक्ति के लिए अचेललिंग अपनाया था, इससे सिद्ध है कि अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र उपाय है, सचेललिंग नहीं । अतः मोक्षार्थियों को उसी लिंग का आश्रय लेना चाहिए । इस युक्ति के द्वारा अपराजित सूरि ने श्वेताम्बरों की इस मान्यता को भी अयुक्तिमत् सिद्ध कर दिया है कि समान्य मनुष्यों को तीर्थंकरों द्वारा गृहीत अचेललिंग ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु श्वेताम्बराचार्यों का कहना है कि तीर्थंकर वस्त्रत्याग इसलिए नहीं करते किं नग्नता मोक्ष का उपाय है, अपितु इसलिए करते हैं कि उन्हें वस्त्रधारण की आवश्यकता नहीं होती । कारण यह है कि उनका शरीर शुभ प्रभामण्डल से आच्छादित हो जाता For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ है, जिससे उनकी नग्नता दिखाई नहीं देती। तथा जितपरीषह होने से उन्हें शीतादि की बाधाएँ नहीं होतीं।२२ अपराजितसूरि इससे सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि मोक्ष का उपाय होने के कारण ही तीर्थंकर वस्त्रसहित समस्त परिग्रह का त्याग करते हैं। अतः अचेलत्व ही मोक्ष का उपाय है। ४. श्वेताम्बरमत में साधुओं का वस्त्रपात्र रखना परिग्रह नहीं माना गया है, क्योंकि वे उक्त मत में संयम के साधन माने गये हैं। अपराजित सूरि को यह मान्य नहीं है। वे उन्हें परिग्रह ही निरूपित करना चाहते हैं। अतः वे बाह्यपरिग्रह को 'क्षेत्र-वास्तु' आदि शब्दों से संकेतित न कर 'वस्त्रपात्रादि' शब्दों से संकेतित करते हैं "सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा।" (गा. अववादिय' ८६ / पृ.१२२)। स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि अन्य श्वेताम्बर-मान्यताओं का खण्डन करनेवाले अपराजित सूरि के वचन यथाप्रसंग आगे उद्धृत किये जायेंगे। 'गंथच्चाओ लाघवं' (८२) इस गाथा की टीका में भी अपराजित सूरि ने 'वसनसहितलिङ्गधारिणो हि' (पृ.११८) इत्यादि वचनों के द्वारा श्वेताम्बर-सचेललिङ्ग के ही दोष उद्घाटित किये हैं और उसे मुक्तिसाधन के अयोग्य ठहराया है। अतः पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उक्त वचनों को, जो भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का प्रतिपादक मान लिया है, वह उनकी महाभ्रान्ति है। और उनके अनुयायियों ने जो उनका अनुकरण किया है, वह अन्धानुकरण है। माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल-अपवादलिंग के विधान को अस्वीकार किया है। वे जैनसंस्कृति-संरक्षकसंघ, शोलापुर से प्रकाशित 'भगवती-आराधना' की प्रस्तावना में लिखते हैं "यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि यदि ग्रंथकार और टीकाकार को सवस्त्रमुक्ति अभीष्ट होती, तो वह भक्तप्रत्याख्यान के लिए औत्सर्गिकलिंग आवश्यक नहीं रखते और न टीकाकार उत्सर्ग का अर्थ सकलपरिग्रह का त्याग करते तथा परिग्रह को यतिजनों के अपवाद का कारण होने से अपवादरूप न कहते। और न स्त्रियों से ही अन्तिम समय एकान्त स्थान में परिग्रह का त्याग कराते। "श्वेताम्बरपरम्परा में जो भक्तप्रत्याख्यान-विषयक मरणसमाधि आदि ग्रन्थ हैं, जिनके साथ इस ग्रन्थ की अनेक गाथाएँ भी मेल खाती हैं, उनमें भक्तप्रत्याख्यान के २२. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/३१ / पृ.९२-९३। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / २३ लिए आवश्यक लिंग का कथन ही नहीं है। किन्तु भगवती-आराधना में उस पर बहुत अधिक जोर दिया गया है और इस विषय में ग्रन्थकार और टीकाकार में एकरूपता है। दोनों ही साधु-आचार के विषय में इतने कट्टर हैं कि दिगम्बर आचार्यों को भी मात करते हैं।" २३ भक्तप्रत्याख्यान के समय जो अपवादलिंगी (गृहस्थ) के लिये भी उत्सर्गलिंग (वस्त्रत्याग) का विधान भगवती-आराधना में किया गया है, उससे भी सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार एकमात्र उत्सर्गलिंग को ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं। डॉ० एम० डी० वसन्तराज का भी कथन है कि "मान्य नाथूराम जी प्रेमी ने मूलाराधना (भगवती-आराधना) के कर्ता शिवार्य को भी यापनीयपंथ का कहा है, परन्तु इस ग्रन्थ में केवलिभुक्ति, सचेलमुक्ति, स्त्रीपर्याय में मुक्ति बतानेवाला कोई अंश नहीं है।"२४ विवेचन का सार उपर्युक्त विवेचन का सार यह है कि भगवती-आराधना में-१. मुनि के दस स्थितिकल्पों में आचेलक्य का ही विधान है, सचेलत्व का नहीं, २. वस्त्र पात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही जीव का संयत होना बतलाया गया है, ३. मुनि और श्रावक तथा आर्यिका और श्राविका को ही भक्तप्रत्याख्यान का अधिकारी कहा गया है और इनके ही भक्तप्रत्याख्यान-सम्बन्धी लिंगों का वर्णन उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग नाम से किया गया है, ४. मुनि वस्त्रादि-परिग्रह के सम्पर्क से अपवाद (निन्दा) का पात्र बनता है, अतः परिग्रह से युक्त लिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी गई है, ५. अपवादलिंगधारियों के साथ जो महांसम्पत्तिशाली आदि विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, वे श्रावकों के ही धर्म हैं, मुनियों के नहीं, ६. श्राविका के लिंग को भी अपवादलिंग कहा गया है और उसके साथ महासम्पत्तिशाली आदि विशेषण प्रयुक्त हुए है, ७. आचेलक्य को ही गृहस्थभाव से भिन्नता द्योतित करनेवाला धर्म कहा गया है, ८. अपवादलिंगी को वस्त्रत्याग करने पर ही मुक्ति का पात्र बताया गया है, ९. सचेललिंग से मोक्षप्राप्ति का निषेध किया गया है, १०. सम्पूर्ण ग्रन्थ में अचेललिंग को ही मोक्ष का साधक प्ररूपित किया गया है तथा ११. अपराजित सूरि ने अपनी टीका में श्वेताम्बरीय मान्यताओं को आगम, युक्ति एवं मोक्ष के प्रतिकूल बतलाया है। २३. भगवती-आराधना ( जैनसंस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर )/ प्रस्तावना / पृ.३०-३१ । २४. गुरुपरम्परा से प्राप्त दिगम्बर जैन आगम : एक इतिहास / पृ.६५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना में प्रतिपादित इन सिद्धान्तों से सिद्ध है कि उसमें श्रावकलिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, यापनीय मुनि के सचेललिंग को नहीं। अतः प्रेमी जी की यह मान्यता असत्य सिद्ध हो जाती है कि उसमें मुनि के लिए अचेलउत्सर्गलिंग के साथ सचेल-अपवादलिंग का भी विधान है। इस मान्यता के असत्य सिद्ध हो जाने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, अतः वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। स्त्रीमुक्तिनिषेध स्त्रीमुक्ति की मान्यता यापनीयमत का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। भगवतीआराधना में इसका भी निषेध किया गया है। इसके प्रमाण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं। २.१. वस्त्रत्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं निम्नलिखित गाथा पूर्व में सवस्त्रमुक्ति-निषेध के प्रसंग में उद्धृत की गयी है। यह स्त्रीमुक्ति-निषेधक भी है, अतः 'प्रत्यक्षप्रमाण के लिए इसे पुनः उद्धृत किया जा रहा है ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं॥ १११८॥ भ.आ.। इसमें कहा गया है कि वस्त्रमात्र के त्याग से संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती, अपितु समस्त परिग्रह के त्याग से होती है। छठे से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थान संयतगुणस्थान कहलाते हैं, वे वस्त्रत्याग के बिना संभव नहीं हैं। स्त्री के लिए वस्त्रत्याग असंभव है, अतः संयतगुणस्थान भी असंभव हैं। भगवती-आराधना में यह स्त्रीमुक्तिनिषेध का पहला सुदृढ़ प्रमाण है। इस गाथा की टीका में अपराजितसूरि ने कहा है कि महाव्रत का कथन करनेवाले सूत्र इस बात के ज्ञापक हैं कि आचेलक्य में वस्त्रादि-समस्तपरिग्रह के त्याग का निर्देश किया गया है-"किंच महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसङ्गत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.१११८/पृ.५७४) । अर्थात् आचेलक्य के बिना महाव्रत संभव नहीं हैं। भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्तिनिषेध का यह दूसरा बलिष्ठ प्रमाण है। आर्यिका उपचार से महाव्रती कहलाती है, परमार्थतः नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / २५ २.२. वस्त्रत्याग से ही अपवादलिंगधारी की शुद्धि अधोनिर्दिष्ट गाथा भी पूर्वोद्धृत है। इससे भी स्त्रीमुक्ति का निषेध होता है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण हेतु यह भी फिर से उद्धृत की जा रही है अववादियलिंगकदो विसयासत्तिं अगूहमाणो य। जिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो॥ ८६॥ भ.आ.। यह गाथा कहती है कि अपवादलिंगधारी अर्थात् वस्त्रादिपरिग्रहधारी गृहस्थ जब शक्ति को छिपाये बिना अपने सपरिग्रहत्व की निन्दा-गर्दा करता हुआ परिग्रह का त्याग करता है, तब शुद्ध होता है अर्थात् मोक्ष के योग्य बनता है। स्त्री वस्त्रपरिग्रहात्मक अपवादलिंग का परित्याग कर नहीं सकती, अतः उसमें मोक्षयोग्य शुद्धता का आविर्भाव भी नहीं हो सकता। यह स्त्रीमुक्ति के निषेध का भगवतीआराधना में उपलब्ध तीसरा अकाट्य प्रमाण है। २.३. पुरुषशरीर ही संयम का हेतु __शिवार्य ने निम्नलिखित गाथाओं में पुरुषशरीर को संयम का साधन बतलाया है और उसकी आकांक्षा को प्रशस्तनिदान कहा है संजमहेदं पुरिसत्त-सत्त-बलविरियसंघडणबुद्धी। सावअ-बंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥ १२१०॥ भ.आ.। अपराजितसूरि ने इसका खुलासा इस प्रकार किया है-"संयमनिमित्तं पुरुषत्वमुत्साहः,२५ बलं शरीरगतं दाढय, वीर्यं वीर्यान्तराय-क्षयोपशमजः परिणामः, अस्थिबन्धविषया वज्रऋषभ-नाराच-संहननादिः। एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानम्।६ श्रावकबन्धुनिदानम् अदरिद्रकुले अबन्धुकुले वा उत्पत्तिप्रार्थना प्रशस्त-निदानम्।" (वि.टी./भ.आ./गा.१२१० / पृ.६१४)। अनुवाद-"पुरुषत्व, उत्साह, शारीरिक दृढ़ता, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न वीर्य-परिणाम, अस्थिबन्धनविशेषरूप-वज्रऋषभनाराचसंहनन आदि संयम के निमित्त हैं। ये पुरुषत्वादि संयम के साधन मुझे प्राप्त हों, चित्त में ऐसा विचार उत्पन्न होना प्रशस्तनिदान है। तथा मेरा जन्म श्रावककुल में हो, अदरिद्रकुल में हो, तथा बन्धुबान्धवरहित कुल में हो, ऐसी प्रार्थना भी प्रशस्तनिदान है।" २५. सत्तं सत्त्वं = उत्साहः। २६. तत्थ णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं। तिविधं पि तं णिदाणं परिपंथो सिद्धिमग्गस्स॥ १२०९॥ भगवती-आराधना। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ इस गाथा में पुरुषत्व को अर्थात् पुरुषशरीर को संयम का साधना कहा गया है, स्त्रीशरीर एवं नपुंसकशरीर को नहीं, जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रीशरीर संयम का साधन नहीं है, अतः स्त्रीमुक्ति असम्भव है। तथा वज्रवृषभनाराचसंहनन को भी संयम का साधन कहकर यह प्रकट किया गया है कि स्त्रीशरीर संयमधारण में सक्षम नहीं है, क्योंकि कर्मभूमि की स्त्रियों में आदि के तीन संहनन नहीं होते। (गो.क./ गा. ३२)। यह कथन भी स्त्रीमुक्ति विरोधी है। आगे पुरुषत्वादि की आकांक्षारूप प्रशस्तनिदान को भी मोक्षविरोधी बतलाते हुए कहा गया है पुरिसत्तादिणिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति। जं पुरिसत्ताइमओ भवो भवमओ य संसारो॥ १२१८॥ भ.आ.। अनुवाद-"मोक्षामिलाषी मुनि 'मैं मरकर पुरुष होऊँ' या मुझे वज्रवृषभनाराचसंहनन की प्राप्ति हो, ऐसा निदान भी नहीं करते, क्योंकि पुरुषादिपर्याय भवरूप है और नाना भवों को धारण करना ही संसार है।" ग्रन्थकार आगे कहते हैं पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए। आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि॥ १२२०॥ भ.आ.। अनुवाद-"जो रत्नत्रय की आराधना करता है, उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्म में पुरुषशरीर आदि सामग्री तथा संयम की उपलब्धि नियम से होती इन समस्त कथनों में भगवती-आराधना के कर्ता ने यह सूचित किया है कि पुरुष-शरीर ही संयम का साधन है, स्त्री या नपुंसक का शरीर नहीं, अतः स्त्री एवं नपुंसक की मुक्ति संभव नहीं है। ग्रंथकार ने नारीशरीर को संयम की बजाय भोग का निमित्त बतलाया है। भोगनिदान का लक्षण बतलाते हुए वे कहते हैं कि देवों और मनुष्यों में होनेवाले भोगों की आकांक्षा करना तथा भोगों के लिए नारीत्व, ईश्वरत्व, श्रेष्ठित्व, सार्थवाहत्व, नारायणत्व और सकलचक्रवर्तित्व की कामना करना भोगनिदान है देविग-माणुसभोगे णारिस्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं।२७ केसव-चक्कधरत्तं पत्थंते होदि भोगकदं॥ १२१३॥ भ.आ.। २७. "णारि-स्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं/ पृ.६१५-नारीत्वम् ईश्वरत्वं श्रेष्ठित्वं सार्थवाहत्वं च।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १२१३ / पृ. ६१५। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / २७ इससे यह बात और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि भगवती-आराधनाकार नारीशरीर को संयम का साधक नहीं मानते, अत एव वे स्त्रीमुक्तिविरोधी हैं। आगे चलकर तो ग्रन्थकार और टीकाकार ने स्पष्ट शब्दों में पुरुषशरीर को ही परम्परया मोक्ष का कारण होने से निदान का विषय निरूपित किया है और उसके निदान को संसारवृद्धि का हेतु कहा है जइदा उच्चत्तादिणिदाणं संसारवड्डणं होदि। कह दीहं ण करिस्सदि संसारं परवधणिदाणं॥ १२३३॥ भ.आ.। अपराजितसूरि ने इसका खुलासा इन शब्दों में किया है-"यदि तावत् उच्चैर्गोत्रता पुरुषत्वं, स्थिरशरीरता, अदरिद्रकुलप्रसूतिबन्धुतेत्येवमादिकं मुक्तेः परम्परया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि संसारवृद्धिं करोति (तर्हि ) कथं न करिष्यति दीर्घसंसारं परवधे चित्तप्रणिधानम्?" (वि.टी./गा.१२३३/पृ.६२३)। अनुवाद-"उच्चगोत्र, पुरुषत्व, शरीर की स्थिरता, अदरिद्रकुल में जन्म तथा बन्धुबान्धव आदि परम्परया मुक्ति के कारण हैं, ऐसा चित्त में विचारकर इनका निदान करना (इच्छा करना) यदि संसार बढ़ानेवाला है, तो दूसरे के वध का चित्त में निदान करना दीर्घसंसार का कारण क्यों नहीं होगा ?" इस प्रकार ग्रन्थकार ने सर्वत्र पुरुषशरीर को ही संयम का साधक और परम्परया मोक्ष का हेतु प्रतिपादित किया है, जिससे स्त्रीमुक्ति का विरोध होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि आचार्य शिवार्य यापनीयमत के अनुगामी नहीं, अपितु विरोधी हैं। २.४. किसी भी स्त्री के मुक्त होने का कथन नहीं 'भगवती-आराधना' में 'किं पुण गुण सहिदाओ' इत्यादि ९८९ वी गाथा से लेकर 'तम्हा सा पल्लवणा' इत्यादि ९९६वीं गाथा तक स्त्रियों के गुणदोषों की चर्चा की गई है। पुरुषों के ब्रह्मचर्य में बाधक होने के कारण स्त्रियों की घोर निन्दा करने के बाद ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि "सभी स्त्रियाँ ऐसी नहीं होतीं। बहुत सी स्त्रियाँ गुणवती भी होती हैं। अनेक स्त्रियों ने अपने गुणों के द्वारा लोक में यश फैलाया है। मनुष्यलोक में वे देवताओं के समान हैं और देवों से पूजनीय हैं। उनकी जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्मदेनेवाली महिलाएँ अच्छे देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय होती हैं। कितनी ही महिलाएँ एकपतिव्रत और कन्याव्रत (कौमार = ब्रह्मचर्यव्रत) धारण करती हैं। कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती हैं। ऐसी भी अनेक शीलवती स्त्रियाँ सुनने में आती हैं, जिन्हें देवों से सम्मान प्राप्त हुआ और शील के प्रभाव से शाप देने और अनुग्रह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ करने की सामर्थ्य उपलब्ध हुई। कितनी ही शीलवती स्त्रियों को महानदी का जलप्रवाह भी नहीं डुबा सका, धधकती हुई घोर अग्नि भी नहीं जला सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न, साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ, चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देनेवाली माताएँ हुई हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं और मोह का उदय स्त्रीपुरुषों में समानरूप से होता है। अतः पूर्व में जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया है, वह स्त्रीसामान्य की दृष्टि से किया गया है। शीलवती स्त्रियों में उपर्युक्त दोष कैसे हो सकते हैं?" यहाँ ग्रन्थकार ने स्त्रियों में शील और व्रतों के द्वारा यश, सम्मान, तीर्थंकरादि का मातृत्व तथा कुछ अद्भुत शक्तियों को पाने की सामर्थ्य तो बतलायी है, किन्तु किसी स्त्री ने व्रतों के द्वारा मोक्ष भी प्राप्त किया है, ऐसा कथन नहीं किया, जबकि ज्ञातृधर्मकथांग में मल्लि, मरुदेवी आदि अनेक स्त्रियों के मोक्ष प्राप्त करने का कथन है। इससे स्पष्ट है कि भगवती-आराधनाकार स्त्रियों में मोक्षप्राप्ति की सामर्थ्य स्वीकार नहीं करते। अन्यथा एक गाथा इस आशय की जोड़ देने में क्या दिक्कत थी? प्रसंग तो स्त्रीसामर्थ्य के निरूपण का था ही। इस प्रकार भगवती-आराधना का कथन है कि वस्त्रादि परिग्रह के त्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं है, महाव्रत संभव नहीं हैं, मोक्षयोग्य शुद्धि संभव नहीं है तथा पुरुषशरीर के अभाव में संयम की साधना असम्भव है। ये इस बात के सुदृढ़ प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति अमान्य की गयी है। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी लिखा है कि "इस ग्रन्थ में न तो स्त्रीमुक्ति का ही समर्थन है और न केवलिभुक्ति का, प्रत्युत अन्त में स्त्री से भी वस्त्रत्याग कराने की इसमें चर्चा है।" (भगवती-आराधना / शोलापुर / प्रधानसम्पादकीय/ पृ.१)। किन्तु केवल स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का समर्थन न होना इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य नहीं है, अपितु उनका निषेध होना उल्लेखनीय विशेषता है, जो इसके दिगम्बरग्रन्थ होने का अखण्ड्य प्रमाण है। डॉ० सागरमल जी लिखते हैं कि भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का उल्लेख नहीं है, क्योंकि "स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के प्रश्न ही ६-७वीं सदी के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर-दिगम्बरग्रन्थ में चर्चित नहीं हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.१२३)। यह एक महान् असत्य का प्रचार है। भगवती-आराधना में एकमात्र अचेललिंग से ही मुक्ति का प्रतिपादन, वस्त्रपात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही संयतगुणस्थान की प्राप्ति का कथन तथा केवल पुरुषशरीर को ही संयम की साधना के योग्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / २९ बतलाया जाना, ये इस बात के सबूत हैं कि प्रथमशती ई० की भगवती-आराधना में स्पष्ट शब्दों में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है। केवलिभुक्ति-निषेध के प्रमाण आगे दिये जा रहे हैं। स्त्रीमुक्ति की मान्यता यापनीयमत का दूसरा मौलिक सिद्धान्त है। उसका निषेध होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीय-परम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। ३ गृहिलिंग-परलिंग-मुक्तिनिषेध जैसा कि पूर्वोद्धृत प्रमाणों से सिद्ध है, भगवती-आराधना में मुनि के लिए एकमात्र अचेललिंग का विधान है, आपवादिक सचेललिंग का विधान नहीं हैं। उसका विधान केवल श्रावक के लिए है, और वह भी जब उसका त्यागकर पूर्ण अपरिग्रही बन जाता है, तभी मुक्ति का पात्र होता है। भगवती-आराधना में यह भी कहा गया है कि वस्त्रादि-परिग्रहधारी को संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा देशविरत (श्रावक) बालपण्डितमरण करने पर नियम से सौधर्मादिकल्पों में उत्पन्न होता है और अधिक से अधिक सात भवों में निश्चितरूप से मुक्त हो जाता है।८ इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार को गृहस्थों और जैनेतर-लिंगधारियों की मुक्ति स्वीकार्य नहीं है। यह भगवतीआराधना के यापनीयग्रन्थ न होकर दिगम्बरग्रन्थ होने का अन्य प्रमाण है। केवलिभुक्तिनिषेध भगवती-आराधना में सम्यक्त्व के अतीचारों का वर्णन करते हुए कहा गया है सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा। परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चेव॥ ४३॥ अनुवाद-"शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा (ग्लानि), परदृष्टियों की प्रशंसा तथा अनायतनों की सेवा. ये सम्यक्त्व के अतीचार हैं।" २८. आलोचिदणिस्सल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं। जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं बालपंडिदयं ॥ २०७८॥ वेमाणिएसु कप्पोवगेसु णियमेण तस्स उववादो। णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण वा सत्तमम्मि भवे ॥ २०८० ॥ भगवती-आराधना। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ यहाँ 'कांक्षा' शब्द की व्याख्या करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं- "कांक्षा गार्द्धार्यम् आसक्तिः, सा च दर्शनस्य मलम् । यद्येवम् आहारे कांक्षा, स्त्री-वस्त्र-गन्धमाल्यालङ्कारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेर्विरताविरतस्य वा भवति । यथा प्रमत्तसंयतस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा सम्भवतीति सातिचारदर्शनता स्यात् । तथा भव्यानां मुक्तिसुखकांक्षा अस्त्येव । इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किन्तु दर्शनाद् व्रताद् दानाद् देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं रूपं, वित्तं, स्त्रीपुत्रादिकं, शत्रुमर्द्दनं, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता एषा अतिचारो दर्शनस्य । " (वि.टी./ भ.आ./गा.४३/पृ. ८० ) । - अनुवाद - " गृद्धि या आसक्ति का नाम कांक्षा है और वह सम्यग्दर्शन का मल है । प्रश्न – यदि ऐसा है, तो असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत ( श्रावक) को आहार, स्त्री, वस्त्र, एवं गन्ध, माल्य आदि अलंकारों की आकांक्षा होती है तथा परीषह से व्याकुल प्रमत्तसंयत मुनि को आहार - जल की आकांक्षा होती है, वह भी सम्यग्दर्शन का अतीचार कहलायेगी ? और भव्यजीवों को मुक्तिसुख की कांक्षा रहती ही है। समाधान—कांक्षामात्र अतीचार नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, व्रत, दान, देवपूजा तथा तप से उत्पन्न पुण्य के द्वारा मुझे ऐसा कुल, ऐसा रूप ऐसा धन, ऐसे स्त्रीपुत्रादि प्राप्त हों, शत्रुओं का विनाश हो अथवा सातिशय स्त्रीत्व या पुरुषत्व मिले, ऐसी कांक्षा सम्यग्दर्शन का अतीचार है । " यहाँ टीकाकार अपराजित सूरि ने प्रमत्तसंयत - गुणस्थान तक के जीवों में क्षुधा - तृषापरीषहजन्य आहारजल की कांक्षा का होना बतलाया है, ऊपर के गुणस्थानवर्ती मुनियो में नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों केवली भगवान् में क्षुधातृषाजन्य परीषहों का होना नहीं मानते, जिससे उनमें आहार की इच्छा और कवलाहारग्रहण का निषेध होता है। इसके अतिरिक्त भगवती - आराधना (गा. २०९४-२११६ / पृ. ८९२ - ८९७) में केवली भगवान् के वर्णनप्रसंग में केवल उनके विहार का वर्णन है, आहार और नीहार का नहीं। तथा सिद्ध भगवान् की विशेषताएँ बतलाते हुए कहा गया है कि चूँकि सिद्धों को क्षुधादि की बाधाएँ नहीं होतीं और विषयोपभोग के कारणभूत रागादिभाव भी समाप्त हो जाते हैं, इसलिए उन्हें विषयों से प्रयोजन नहीं होता विसएहिं से ण कज्जं जं णत्थि छुदादियाओ बाधाओ । उवभोगहेदुगा णत्थि जं रागादिया य For Personal & Private Use Only तस्स ॥ २१४८ ॥ भगवती- -आराधना । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ३१ इस तरह ग्रन्थकार ने रागादि के अभाव और विषयोपभोग के अभाव में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध बतलाया है, जिससे यह सूचित होता है कि यतः केवली भगवान् में रागादिभाव नहीं होते, इसलिए उनमें आहार की इच्छा नहीं होती। इच्छा के अभाव में कवलाहार का प्रश्न नहीं उठता। इस तरह ये केवलिभुक्ति-विरोधी कथन भी भगवतीआराधना को यापनीयमत-विरोधी और दिगम्बरमत-प्रतिपादक सिद्ध करते हैं। परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत-विरुद्ध यद्यपि यापनीयमत में मुनि के लिए सामान्यतः नग्न रहने का ही विधान है, तथापि यदि जननेन्द्रिय अशोभन हो, नग्न रहने में लज्जा आती हो, परीषहजय में असमर्थ हो, भगन्दर आदि रोग हो गया हो, तो इन परिस्थितियों में वस्त्रधारण की अनुमति है, और वस्त्रधारण कर लेने पर मोक्ष में कोई बाधा नहीं मानी गयी है।२९ इसके अतिरिक्त स्त्रियों, गृहस्थों तथा अन्यलिंगियों (अन्यमतावलम्बियों) की भी मुक्ति स्वीकार की गई है। इसका तात्पर्य यह है कि यापनीयमत सवस्त्रमुक्ति को संभव मानता है, इसलिए उसकी दृष्टि में बाह्यपरिग्रह परिग्रह नहीं है। वह न केवल अपवादमार्गी (स्थविरकल्पी) मुनि एवं आर्यिका के वस्त्रपात्रादि अल्पपरिग्रह को परिग्रह नहीं मानता, बल्कि गृहस्थों और परलिंगियों के बहुपरिग्रह को भी परिग्रह नहीं मानता, क्योंकि उसके रहते हुए भी उनकी मुक्ति स्वीकार करता है। यापनीयमान्य श्वेताम्बरग्रन्थ 'दशवैकालिकसूत्र' का कथन है कि मनुष्य के पास कितना ही बाह्यपरिग्रह हो, यदि उसमें मूर्छारूप अन्तरंग परिग्रह नहीं है, तो वह अपरिग्रही है। और बाह्यपरिग्रह रहने पर मूर्छारूप अन्तरंगपरिग्रह का होना जरूरी नहीं है।३० किन्तु भगवती-आराधना में बाह्यपरिग्रह और मूर्छादिरूप अन्तरंगपरिग्रह, दोनों को परिग्रह कहा गया है तथा बतलाया गया है कि अन्तरंगपरिग्रह होने पर ही बाह्यपरिग्रह २९. क- "आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति।" विजयोदयाटीका। भगवती-आराधना /गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३/ पृ.३२४ । ख- पाल्यकीर्ति शाकटायन : स्त्रीनिर्वाणप्रकरण /श्लोक १०-१८। ३०. जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वुत्तं महेसिणा॥ ६/२० ॥ दशवैकालिकसूत्र । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ ग्रहण किया जाता है, अतः जहाँ बाह्यपरिग्रह है वहाँ अन्तरंगपरिग्रह का होना अनिवार्य है । परिग्रहग्रहण देहसुख में राग होने के कारण ही होता है, इसलिए जब तक परिग्रह है, तब तक देहसुख में राग और शरीर में आसक्ति का अस्तित्व सूचित होता है । इतना ही नहीं, बाह्यपरिग्रह के होने पर हिंसारूप असंयम तथा आर्त्तरौद्रध्यान का होना भी अनिवार्य है तथा वस्त्रादिग्रहण से संवर और निर्जरा के परीषहजयरूप साधन (नग्नत्व) का परित्याग हो जाता है, फलस्वरूप देहसुख में राग तथा शरीर में ममत्व के कारण पापकर्मों का आस्रव-बंध होता है । वस्त्रधारण से कामविकार को भी संरक्षण मिलता है। ५. १. बाह्यपरिग्रह भी परिग्रह भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथाओं में बाह्य और अन्तरंग दोनों परिग्रहों को परिग्रह कहा गया है और दोनों त्याज्य बतलाये गये हैं सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । अब्भंतर बाहिर कद - कारिदाणुमोदेहिं काय-मण-वयण- जोगेहिं ॥ ११११ ॥ अनुवाद — " हे क्षपक! तुम कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय से सब अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करो। " मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भंतरा गंथा ॥ १११२॥ अनुवाद — “ मिथ्यात्व, तीन प्रकार का वेदजन्य राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषायें, ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । " बाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धण-धण्ण- कुप्प-भंडाणि । दुपय- चउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥ १११३ ॥ अनुवाद – “खेत, मकान, धन, धान्य, वस्त्र ( कुप्य) ३१, वर्तन, द्विपद (दासदासी), चतुष्पद ( गाय-भैंस, हाथी-घोड़े ), पालकी (यान) तथा शयन - आसन आदि दस बाह्य परिग्रह हैं।" जह कुंडओ ण सक्को सोधेदं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ॥ १११४॥ अनुवाद—“जैसे तुषसहित चावल का तुष दूर किये बिना उसके भीतर के मैल को दूर करना संभव नहीं है, वैसे ही जो बाह्यपरिग्रह से आवृत है, उसके अभ्यन्तर कर्ममल का शोधन शक्य नहीं है। " ३२ ३१. “कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गाथा १११३ / पृ.५७१ । ३२. " तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषेऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं तथा बाह्यपरिग्रहमलसंसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलमशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः । " विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.१११४ । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ३३ ५.२. परिग्रहग्रहण देहसुख के लिए भगवती-आराधना की अधोलिखित गाथा में बतलाया गया है कि वस्त्रादिपरिग्रह का ग्रहण देहसुख के लिए ही किया जाता है इंदियमयं सरीरं गंथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं। इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो॥ ११५७॥ अनुवाद-"शरीर इन्द्रियमय है। इन्द्रियमय शरीर के सुख के लिए (ठंड, धूप आदि के क्लेशोत्पादक स्पर्श से बचने के लिए)३३ ही वस्त्रादि ग्रहण किये जाते हैं। अतः जो वस्त्रग्रहण करता है, उसके भीतर इन्द्रियसुख की आकांक्षा है, यह सिद्ध होता है।" टीकाकार अपराजित सूरि तो एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि वस्त्रालंकार आदि से अपने शरीर को विभूषित कर मनुष्य दूसरे के मन में कामाभिलाष उत्पन्न करता है और उसके अंग-संसर्ग से जनित सुखानुभूति के लिए उसका सेवन करता है।३४ उन्होंने यह भी कहा है कि बाह्य द्रव्य का ग्रहण लोभादिपरिणाम के कारण होता है-"लोभादिपरिणामहेतुकं बाह्यद्रव्यग्रहणम्।"(वि.टी./ भ.आ./गा.१११४)। .. अपराजित सूरि ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य का भी उद्घाटन किया है कि जो मुनि वस्त्र से शरीर को आच्छादित कर लेता है, उसके मन की शुद्धि (निर्विकारता) का पता नहीं चलता। किन्तु जो नग्न रहता है, उसके शरीर की निर्विकारता से हृदय की निर्विकारता प्रकट हो जाती है।३५ जैसे सर्यों से भरे जंगल में विद्या, मंत्र आदि से रहित पुरुष अपनी सुरक्षा के लिए दृढ़ता से प्रयत्नशील रहता है, वैसे ही जो नग्न रहता है, वह इन्द्रियों को वश में करने का पूरा प्रयत्न करता है, अन्यथा शरीर में ३३. "परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकमिन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय।" विजयोदयाटीका/भ.आ./ गा.११५७। ३४. “आत्मशरीरे वस्त्रालङ्कारादिभिरलङ्कृते पराभिलाषमुत्पाद्य तदङ्गासङ्गजनितप्रीत्यर्थितया अभिमतमापादयति।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.११५७। ३५. "चेतो विशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायाम्। कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते। निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता।" विजयोदयाटीका /भ.आ./ गा. 'आचेलक्कुदेसिय' ४२३ / पृ.३२२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ विकार उत्पन्न होने पर लजित होने की नौबत आ सकती है।३६ वस्तुतः मुनियों का वस्त्रधारण कामविकार को छिपाने और संरक्षण देने का साधन बन जाता है। ५.३. बाह्यपरिग्रह देहासक्ति का सूचक भगवती-आराधनाकार आगे कहते हैं कि बाह्यपरिग्रह देह में आदरभाव (आसक्ति या ममत्व) होने का सूचक है जम्हा णिग्गंथो सो वादादव-सीद-दंस-मसयाणं। सहदि य विविधा बाधा तेण सदेहे अणादरदा॥ ११६६॥ अनुवाद-"यतः बाह्य परिग्रह का त्यागी निर्ग्रन्थ हवा, पानी, धूप, शीत, डाँस, मच्छर आदि के विविध कष्टों को सहता है, इससे शरीर में उसकी अनास्था (अनासक्ति, ममत्वाभाव) प्रकट होती है। और शरीर को सारभूत न समझनेवाला समस्त हिंसादि पापों को छोड़ देता है तथा शक्ति को न छिपाते हुए तप का प्रयत्न करता है"शरीरे अकृतादरश्च जहात्यशेषं हिंसादिकं, तपसि च स्वशक्त्यनिगृहनेन प्रयतते।" (वि.टी./भ.आ./गा.११६६)। ५.४. बाह्यपरिग्रह मूर्छा का निमित्त आचेलक्यरूप अपरिग्रह महाव्रत की व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि लिखते हैं कि परिग्रह छह प्रकार के जीवों की पीड़ा का मूल तथा मूर्छा का निमित्त है, इसलिए समस्त परिग्रह का त्याग पाँचवाँ अपरिग्रह महाव्रत है-"परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवति इति पञ्चमं व्रतम्।" (वि.टी./भ.आ./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३३१)। __ अपराजित सूरि का यह कथन आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित मत का अनुसरण करता है- किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वमि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि॥ ३/२१॥ प्रवचनसार। अनुवाद-"बाह्य परिग्रह के रहने पर मुनि मूर्छा, आरम्भ और असंयम से कैसे बच सकता है ? और जो परद्रव्य में आसक्त है, उसके लिए आत्मा की साधना कैसे संभव है?" ३६. "सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि प्रयतते। अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.४२३/ पृ.३२१ । For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ३५ यहाँ भगवती-आराधना के मत और श्वेताम्बर-यापनीय मत के पारस्परिक विरोध पर ध्यान दिया जाय। श्वेताम्बर और यापनीय मानते हैं कि बाह्य वस्तुओं का ग्रहण परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा होना परिग्रह है, किन्तु भगवती-आराधना में बतलाया गया है कि बाह्य वस्तुओं का ग्रहण मूर्धोत्पत्ति का हेतु है, अतः वह महापरिग्रह है। परिग्रह की यह परिभाषा यापनीयमत के अत्यन्त विरुद्ध है। ५.५. तीव्र कषाय से ही परिग्रह का ग्रहण भगवती-आराधना की नीचे दी हुई गाथाओं में कहा गया है कि कषायबहुल (तीव्रकषायपरिणत) जीव ही परिग्रह ग्रहण करता है मंदा हुंति कसाया बाहिरसंगविजडस्स सव्वस्स। गिण्हइ कसायबहुलो चेव हु सव्वंपि गंथकलिं॥ १९०६ ॥ अनुवाद-"जो बाह्य परिग्रह का त्याग करता है, उसकी कषाय मन्द होती है। तीव्रकषायवाला जीव ही परिग्रहरूप पाप अर्जित करता है।" अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे चयदि। अब्भंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे॥ १९०९॥ अनुवाद-"अंतरंग में कषाय की मन्दता होने पर नियम से बाह्यपरिग्रह का त्याग होता है। अभ्यन्तर में मलिनता होने पर ही जीव बाह्यपरिग्रह स्वीकार करता है।" रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि या उदिण्णा। तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णरो कुणइ॥ १११५॥ अनुवाद-"जब राग, लोभ, मोह, संज्ञा और गारव३७ परिणामों की उत्पत्ति होती है, तब बाह्य परिग्रह को ग्रहण करने का मन होता है, उनके अभाव में नहीं।" ५.६. परिग्रह से रागद्वेष की उदीरणा परिग्रह रागद्वेष की उदीरणा का कारण है, इसका वर्णन भगवती-आराधनाकार ने इन गाथाओं में किया है ३७."ममेदं भावो रागः। द्रव्यगतगुणासक्तिर्लोभः। परिग्रहेच्छा मोहः । ममेदं भावः संज्ञा । किञ्चिन्मम भवति शोभनमिति इच्छानुगतं ज्ञानम्। तीव्रोऽभिलाषो यः परिग्रहगतः स गौरवशब्देनोच्यते। एते यदोदिताः परिणामास्तदा ग्रन्थान् बाह्यान् ग्रहीतुं मनः करोति, नान्यथा। तस्माद्यो बाह्यं गृह्णाति परिग्रहं स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवेति कर्मणां बन्धको भवति। ततस्त्याज्याः परिग्रहाः।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा.१११५ / पृ.५७२। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ जावंतु केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वजिंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो॥ १८०॥ अनुवाद-"परिग्रह रागद्वेष की उदीरणा करनेवाला होता है, उसे छोड़ कर निस्संग हुआ मुनि रागद्वेष को निश्चय से जीतता है।" जह इंधणेहिं अग्गी वड्डइ विज्झाइ इंधणेहि विणा। गंथेहिं तह कसाओ वड्डइ विज्झाई तेहिं विणा॥ १९०७॥ अनुवाद-"जैसे ईंधन से आग बढ़ती है और ईंधन के बिना बुझ जाती है, वैसे ही परिग्रह से कषाय बढ़ती है और परिग्रह के अभाव में मन्द हो जाती है।" जह पत्थरो पडतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंक। खोभेइ पसण्णमवि कसायं जीवस्स तह गंथो॥ १९०८॥ अनुवाद-"जैसे तालाब में पत्थर फेंकने से नीचे बैठी हुई कीचड़ ऊपर आ जाती है, वैसे ही परिग्रह से जीव की दबी हुई कषाय उदय में आ जाती है।" ५.७. परिग्रही में लेश्या की विशुद्धि असम्भव __भगवती-आराधना की नीचे दी हुई गाथा में बतलाया गया है कि जैसे बाहर के तुष (छिलका) रहते हुए चावल की अभ्यन्तर शुद्धि सम्भव नहीं है, वैसे ही परिग्रही जीव में लेश्या की विशुद्धि असम्भव है जध तंडुलस्स कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादं। तह जीवस्स ण सक्का लिस्सासोधी ससंगस्स॥ १९११॥ ५.८. वस्त्रादिपरिग्रह से हिंसा - वस्त्रादिपरिग्रह से जीवों की हिंसा होती है, इसका वर्णन भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथाओं में है चेलादीया संगा संसजति विविहेहिं जंतूहिं। आगंतुगा वि जंतू हवंत गंथेसु सण्णिहिदा॥ ११५२॥ अनुवाद-"वस्त्रादिपरिग्रह में नाना प्रकार के सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बाहर से भी आकर लूं,चींटी, खटमल वगैरह बस जाते हैं। धान्य में कीड़े हो जाते हैं। गुड़ आदि संचय करने पर उसमें भी जीव पैदा हो जाते हैं।" (वि.टी.)। आदाणे णिक्खेवे सरेमणे चावि तेसि गंथाणं। उक्कस्सणे वेक्कसणे फालण-पप्फोडणे चेव॥ ११५३॥ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र० १ भगवती - आराधना / ३७ छेदणबंधणवेढणआदावणधोव्वणादिकिरियासु । संघट्टण - परिदावण-हणणादी होदि जीवाणं ॥ ११५४॥ अनुवाद - " वस्त्रादि परिग्रह के ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बंधन खोलने, फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बाँधने, ढाँकने, सुखाने, धोने, मलने आदि में जीवों का घात होता है । " जदि वि विकिंचदि जंतू दोसा ते चेव हुंति से लग्गा । होदि य विकिंचणे वि हु तज्जोणिविओजणा णिययं ॥ ११५५ ॥ अनुवाद - " यदि वस्त्रादि परिग्रह से जन्तुओं को अलग किया जाय, तब भी वे ही दोष लगते हैं, क्योंकि उन जंतुओं को दूर करने पर उनका योनिस्थान (उत्पत्तिस्थान) छूट जाता है और इससे उनका मरण हो जाता है । " ५. ९. परिग्रह स्वाध्याय में बाधक भगवती - आराधना की अधोवर्णित गाथा दर्शाती है कि परिग्रह स्वाध्याय और ध्यान में बाधक है गंथस्स गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो । विक्खित्तमणो ज्झाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ ॥ ११५८ ॥ अनुवाद - " परिग्रह के ग्रहण, रक्षण और उसके सार - सम्हाल में सदा लगे रहनेवाले पुरुष का मन उसी में व्याकुल रहता है, तब स्वाध्याय छूट जाने से शुभध्यान कैसे कर सकता है ? "" ५.१०. परिग्रहत्याग से रागद्वेष का त्याग परिग्रह त्याग देने से रागद्वेष छूट जाते हैं, इस तथ्य का प्रकाशन भगवतीआराधना की इन गाथाओं में हुआ है रागो हवे मणुण्णे गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चाएण पुण रागद्दोसा हवे अनुवाद - " मनोज्ञ विषय में राग होता है और अमनोज्ञ विषय में द्वेष, अतः परिग्रह का त्याग कर देने से रागद्वेष का त्याग हो जाता है । " चत्ता ॥ ११६४॥ अपराजित सूरि ने भी प्रस्तुत गाथा की व्याख्या में यही बात कही है - " रागद्वेषयोः कर्मणां मूलयोर्निमित्तं परिग्रहः । परिग्रहत्यागे रागद्वेषौ एव त्यक्तौ भवतः । " (वि.टी./ पृ. ५८६)। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ णिस्संगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू। । संगा हू उदीरेंति कसाय अग्गीव कट्ठाणि॥ ११६९॥ अनुवाद-"अपरिग्रही साधु ही सदा कषायरूप परिणामों को कृश करता है, परिग्रही नहीं, क्योंकि जैसे लकड़ी डालने से आग भड़कती है, वैसे ही परिग्रह से कषाय भड़कती है।" ५.११. परिग्रहत्याग परीषहजय का उपाय इसका वर्णन भगवती-आराधना में निम्न गाथा द्वारा हुआ है सीदुण्ह-दंसमसयादियाण दिण्णो परीसहाण उरो। सीदादि-णिवारणए गंथे णिययं जहंतेण॥ ११६५॥ अनुवाद-"शीत आदि का निवारण करनेवाले वस्त्रादि परिग्रह को जो. नियम से त्याग देता है, वह शीत, उष्ण, दंशमशक आदि के परीषहों ३८ को सहने के लिए अपनी छाती आगे कर देता है।" ५.१२. परिग्रहत्याग से ध्यान-अध्ययन निर्विन परिग्रहरहित साधु के ध्यान और अध्ययन निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं, इस तथ्य का प्रकाशन करनेवाली भगवती-आराधना की यह गाथा द्रष्टव्य है संगपरिमग्गणादी णिस्संगे णथि सव्वविक्खेवा। ज्झाण-ज्झेणाणि तओ तस्स अविग्घेण वच्चंति॥ ११६७॥ इस गाथा के भाव को अपराजित सूरि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-“इष्ट परिग्रह को खोजने में कष्ट होता है। वह मिल भी जाय, तो उसके स्वामी को ढूंढने में कष्ट होता है। स्वामी मिल जाय, तो उससे याचना करनी पड़ती है। याचना करने पर मिल जाय, तो सन्तोष होता है, न मिले तो मन में दीनता का भाव आता है। मिलने पर उसको लाना, उसका संस्कार करना, उसकी रक्षा करना, इत्यादि कार्यों के कष्ट उठाने पड़ते हैं। इस तरह परिग्रह अनेक आकुलताओं का घर है। परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ बन जाने पर ये सब झंझटें नहीं रहतीं। तब चित्त में किसी प्रकार की आकुलता न होने से निर्ग्रन्थ साधु के ध्यान और स्वाध्याय निर्विघ्न चलते हैं। इस प्रकार इस गाथा के द्वारा कहा गया है कि समस्त तपों में ध्यान और स्वाध्याय प्रधान हैं और परिग्रह का त्याग उनका उपाय है।" ३९ ३८. "दुःखोपनिपाते सङ्क्लेशरहितता परीषहजयः।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा. ११६५ । ३९. "परिग्रहान्वेषणादि परिग्रहस्य स्वाभिलषितस्य अस्तित्वगवेषणे क्लेशमस्तीति। तथा तत्स्वामिनां, कोऽस्य स्वामित्वं वा क्वासौ अवतिष्ठते इति । पुनर्याच्या। लाभे सन्तोषः, अलाभे दीनमनस्कता। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ३९ ५.१३. मूर्छा, राग, इच्छा, ममत्व एकार्थक यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि 'मूर्छा' शब्द में राग, इच्छा, आसक्ति, ममत्व आदि अर्थ गर्भित हैं। कसायपाहुड (भाग १२ / पृ.१८९) में कहा गया है कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज दोसो य। णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य॥ ८९॥ सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विज जिब्भा य। लोभस्स णामधेजा बीसं एगट्ठिया भणिदा॥ ९०॥ अनुवाद-"काम, राग, निदान, छन्द, सुत या स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शाश्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा ये बीस लोभ के एकार्थक नाम कहे गये हैं।" समवायांग में भी लोभ के ये ही पर्यायवाची बतलाये गये हैं-"लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तिण्हा भिजा अभिजा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदी रागे।" (समवाय ५२)। अपराजित सूरि ने भी ममत्व (मूर्छा) को राग का समानार्थी बतलाया है-"ममेदं भावो रागः।" (वि.टी./भ.आ./गा.१११५/पृ.५७२)। आचार्य कुन्दकुन्द ने इच्छा को परिग्रह कहा है-'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स. सा./गा.२१०)। अर्थात् जो इच्छारहित है वह अपरिग्रही है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसका स्पष्टीकरण अपनी 'आत्मख्याति' संज्ञक टीका में "इच्छा परिग्रहः" (इच्छा परिग्रह है) कहकर किया है। ___ इस प्रकार राग, इच्छा, लोभ, मूर्छा, ममत्व ये एकार्थक शब्द हैं। यह भी कहा जा सकता है कि 'मूर्छा' शब्द में ये सभी अर्थ गर्भित हैं। परिग्रह के उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि भगवती-आराधनाकार ने मूर्छा और बाह्यपरिग्रह में अन्वय-व्यतिरेक या अन्योन्याश्रयसम्बन्ध दर्शाया है। अर्थात् मूर्छा (राग, देहसुख की इच्छा) होने पर ही जीव बाह्यपरिग्रह ग्रहण करता है और बाह्यपरिग्रह होने पर मूर्छा की उत्पत्ति अनिवार्यतः होती है। इसलिए जहाँ मूर्छा है, वहाँ बाह्यपरिग्रह भले न हो, किन्तु जहाँ बाह्यपरिग्रह है, वहाँ मूर्छा का अस्तित्व अवश्य होता है। तदानयनं, तत्संस्करणं, तद्रक्षणम् इत्यादिकम् आदिशब्देन गृहीतम्। सङ्गरहिते न सन्ति सर्वे व्याक्षेपाः। ध्यानमध्ययनं च व्याक्षेपाभावात् चेतसि, अपरिग्रहस्य विघ्नमन्तरेण वर्तते। सर्वेषु तपस्सु प्रधानयोर्ध्यानस्वाध्यायोरुपायो अपरिग्रहता इत्याख्यातमनया गाथया।" वि.टी./भ.आ./गा.११६७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधनाकार के इस विवेचन से सिद्ध है कि उनके मतानुसार वस्त्रधारण करनेवाला सदा मूर्छाग्रस्त रहता है, अतः वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। मुक्ति के लिए वस्त्रादि सम्पूर्ण बाह्यपरिग्रह का त्याग अनिवार्य है। इससे सवस्त्र मुनि, स्त्री, गृहस्थ एवं परलिंगी, सभी की मुक्ति का निषेध हो जाता है। इस प्रकार भगवती-आराधना में परिग्रह की जो परिभाषा की गई है, वह यापनीयमत के सर्वथा विरुद्ध है, अतः यह ग्रन्थ किसी भी हालत में यापनीय कृति नहीं है। डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि जहाँ मूर्छारूप भावपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्णत्याग मोक्ष के लिए आवश्यक माना गया हो, वहाँ स्त्रीमुक्ति के साथ गृहस्थों और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति का निषेध स्वतः हो जाता है। उनके शब्द इस प्रकार हैं "किन्तु जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्षमार्ग स्वीकार करके मूर्छादि भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्यक मान लिया गया, तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिकों और गृहस्थों की मुक्ति का भी निषेध कर दिया जाय।" (जै.ध.या.स./ पृ.४१२)। "अब्भंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि" इस गाथा (११११) से स्पष्ट है कि भगवती-आराधना में मोक्ष के लिए भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। अतः इस प्रमाण से तो स्वयं डॉ० सागरमल जी के वचनों के अनुसार भगवती-आराधना में सवस्त्रमुनि, स्त्री, गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक की मुक्ति का निषेध सिद्ध है। ५.१४. अपरिग्रह-महाव्रत की वैकल्पिक परिभाषा नहीं सम्पूर्ण भगवती-आराधना में अपरिग्रहमहाव्रत में उक्त दोनों परिग्रहों का त्याग प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक बतलाया गया है, स्त्रियों और असमर्थ पुरुषों के लिए अपरिग्रह-महाव्रत की कोई वैकल्पिक परिभाषा नहीं दी गई है। वेदत्रय एवं वेदवैषम्य की स्वीकृति षट्खण्डागम नामक ११वें अध्याय में सप्रमाण दर्शाया गया है कि यापनीयमत में वेदकषाय के पुरुषवेद, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेद ये तीन भेद नहीं माने गये हैं, अपितु एक ही वेदसामान्य (कामभाव-सामान्य) माना गया है, जो उक्त मत के अनुसार पुरुष, स्त्री और नपुंसक में समानरूप से रहता है, जैसे एक ही क्रोध-कषाय स्त्री, For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - आराधना / ४१ अ० १३ / प्र० १ पुरुष, नपुंसक तीनों में रहती है। इस प्रकार पच्चीस कषायों में से यापनीयमत केवल तेईस कषायों को मान्य करता है। वेद के तीन भेद न मानने से वेदवैषम्य भी यापनीयमत में अमान्य किया गया है । यह दिगम्बरमत से यापनीयमत का एक महत्त्वपूर्ण भेद है । किन्तु भगवती - आराधना में तीनों वेद स्वीकार किये गये हैं। देखिए - मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्धंतरा गंथा ॥ १११२ ॥ अनुवाद - " मिथ्यात्व, तीन प्रकार का वेदजनित राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । " इसकी व्याख्या में अपराजित सूरि कहते हैं - "वेद- शब्द से स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नाम के कर्मों का ग्रहण किया गया है। इनके उदय से स्त्री-पुरुष आदि में जो पारस्परिक आकर्षण उत्पन्न होता है, वह राग है । स्त्रियों का पुरुषों में राग होता है, पुरुषों का स्त्रियों में और नपुंसकों का दोनों में । ४० कषायों के क्षयक्रम का वर्णन करते हुए शिवार्य भगवती - आराधना में कहते हैं-. तत्तो णवुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं। कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो ॥ २०९१ ॥ 44 अनुवाद- 'क्षपक नवम गुणस्थान में नपुंसकवेद और स्त्रीवेद तथा हास्यादि छह नोकषायों को पुरुषवेद में क्षेपण करके नष्ट करता है, पुरुषवेद का क्रोधसंज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता है । इसी प्रकार क्रोधसंज्वलन का मानसंज्वलन में, मानसंज्वलन का मायासंज्वलन में और मायासंज्वलन का लोभसंज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता है । अन्त में बादर कृष्टि के द्वारा लोभसंज्वलन को कृश करता है, जिससे सूक्ष्मलोभसंज्वलन कषाय शेष रहती है । " यहाँ तीनों वेदों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। शिवार्य ने यह भी कहा है कि पुरुषों के ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले जो दोष स्त्रियों में होते हैं, वैसे दोष कुछ नीच पुरुषों में भी होते हैं महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं पि हुंति णीयाणं । तत्तो अहियदरा वा तेसिं बलसत्तिजुत्ताणं ॥ ९८७ ॥ ४०." वेदशब्देन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाख्यानां कर्मणां ग्रहणम् । तज्जनिताः स्त्र्यादीनामन्योन्यविषयरागाः । स्त्रियः पुंसि रागः, पुंसो युवतिषु, नपुंसकस्योभयत्र ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा.१११२ । For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ अनुवाद-"स्त्रियों में जो दोष होते हैं, वे नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त हैं, उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं।" इसका भावार्थ बतलाते हुए पं० सदासुखदास जी लिखते हैं-"कितने पुरुषनि का तो परिणाम ही नपुंसकनितें अधिक नीच है, नित्य ही भण्डवचन बोलनेवाले, अतिहास्य स्वभाव के धारक हैं, रात्रिदिन काम की तीव्रताकू धारे हैं। तथा पुरुषपणा में हू कितने ऐसे हैं, जे स्त्री के से आभरण, केशभार, दन्तनि के मसी, कज्जल-कुंकुमादिक, हावभाव, विलास-विभ्रम, गान, स्पर्शन, वचनकू धारण करिके अर आपकू धन्य माने हैं। स्त्रीनि की नाईं अंग की चेष्टा, केशनि का संस्कार करे हैं, ते पुरुषपर्याय में हूं नीच आचरण के धारक, तिनि की संगति कू व्यभिचारिणी स्त्री का संग की नाईं त्याग करि उच्च आचरण करना योग्य है।"४१ ।। इसका अभिप्राय यह है कि किसी-किसी पुरुष में भी पुरुषों के साथ रमण करने की इच्छा होती है। अतः साधुओं को ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा करने हेतु स्त्रियों के समान स्त्रैण पुरुषों से भी दूर रहने के लिए भगवती-आराधनाकार ने सावधान किया है। यह भगवती-आराधनाकार द्वारा वैदवैषम्य की स्वीकृति है। भगवती-आराधना में वेदत्रय और वेदवैषम्य की स्वीकृति यापनीयमत के विरुद्ध है। कोई आचार्य अपने ही मत का विरोध करनेवाला ग्रन्थ नहीं रच सकता। अतः सिद्ध है कि 'भगवतीआराधना' दिगम्बराचार्य की ही कृति है। मायाचार के परिणाम के विषय में मतभेद श्वेताम्बर आगम ज्ञातृधर्मकथाङ्ग के अनुसार मल्ली तीर्थंकर के उपान्त्य पूर्वभव का जीव राजकुमार महाबल अपने छह मित्रों के साथ अनगार हुआ और सातों मित्रों ने यह प्रतिज्ञा की, कि वे एक ही बराबर तप करेंगे, कोई ज्यादा, कोई कम नहीं। किन्तु प्रतिज्ञा करके महाबल मित्रों से छिपाकर उनसे अधिक तप करने लगा। इस मायाचार के फलस्वरूप उसने स्त्रीगोत्रनामकर्म का बन्ध किया।२ बीस भावनाओं के ४१. भगवती आराधना/प्रकाशक-विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन सर्राफ, देहली/ गाथा ९९९ / पृष्ठ ३८८ (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचंद दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित संस्करणों में इस गाथा का क्रमांक ९८७ है)। ४२. "तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थियणामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु ---।" ज्ञाताधर्मकथाङ्ग । अध्याय ८/पृष्ठ २१७ / आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१ । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ४३ द्वारा उसने तीर्थंकर-प्रकृति का भी बन्ध किया।३ किन्तु बाँधे गये स्त्रीगोत्रनामकर्म का स्त्रीपर्यायरूप फल उसे दूसरे भव में नहीं मिला, अपितु उसने जयन्त नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय प्राप्त कर ली।" उस देवपर्याय से च्युत होने पर तीर्थंकर मल्लीकुमारी के रूप में उसने स्त्रीपर्याय प्राप्त की और मुक्त हो गया। इस प्रकार मायाचार का उसे कोई दुष्परिणाम नहीं भोगना पड़ा। न तो वह रत्नत्रय से च्युत हुआ, न तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध से वंचित हुआ, न आगामी भव में उसने दुःखमय स्त्रीपर्याय प्राप्त की। जब तीसरे भव में वह स्त्री हुआ, तब स्त्री शरीर के साथ उसे अत्यन्त महिमामयी तीर्थंकरपर्याय प्राप्त हुई, जिसमें दुःख का नामोनिशाँ नहीं था, बल्कि मोक्ष की सम्पूर्ण सामग्री उपलब्ध थी। महाबल की पर्याय में मायाशल्य रहते हुए भी वह व्रती बना रहा, 'निःशल्यो व्रती' (त.सू.७ / १८) का नियम उस पर लागू नहीं हुआ। किन्तु, भगवती-आराधना में पुष्पदन्ता नामक आर्यिका की कथा है। वह मायाचार करती है, तो रत्नत्रय से भ्रष्ट हो जाती है और मरकर दूसरे ही भव में सागरदत्त नाम के वणिक के यहाँ महादुर्गन्धदेहवाली पूतिमुखी नाम की दासी बनती है।५ मायाचार के परिणाम के विषय में यह मतभेद भगवती-आराधना को यापनीयमान्य श्वेताम्बरआगमों का प्रतिपक्षी सिद्ध करता है। गुणस्थानानुसार कर्मक्षय का निरूपण भगवती-आराधना के यापनीयग्रन्थ न होने का एक अन्य प्रमाण है उसमें गुणस्थानसिद्धान्त की उपलब्धि। षट्खण्डागम के अध्याय में सप्रमाण दर्शाया गया है कि यह सिद्धान्त श्वेताम्बरों और यापनीयों को मान्य नहीं है, क्योंकि यह उनके सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और परलिंगिमुक्ति के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। गुणस्थान-सिद्धान्त के अनुसार गुणस्थानक्रम से ही कर्मों का क्रमिक क्षय होता है और चौदहवें गुणस्थान के अन्त में सम्पूर्ण कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। ४३. "इमेहि य वीसाएहि य कारणेहि आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु तं जहा...।" वही / अध्याय ८/ पृष्ठ २१७। ४४. "तएं णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा -- जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना।" वही । अध्याय ८/ पृष्ठ २२० । ४५. पब्भट्टबोधिलाभा मायासल्लेण आसि पूदिमुही। दासी सागरदत्तस्स पुष्पदंता हु विरदा वि॥ १२८०॥ भगवती-आराधना। इसकी कथा 'बृहत्कथाकोश' में क्रमांक ११० पर है। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ देशविरत - गुणस्थानवर्ती श्रावक के बालपण्डितमरण का लक्षण और फल बतलाते हुए भगवती - आराधनाकार कहते हैं— आलोचिदणिसल्लो सघरे - चेवारुहितु संथारं । जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं वेमाणिएस कप्पोवगेसु णियमेण णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण वा २०८० ॥ अनुवाद - " यदि देशविरत ( श्रावक) विधिपूर्वक आलोचना करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों से मुक्त होकर अपने घर में संस्तर पर आरूढ़ होकर मरता है, तो उसे बालपण्डितमरण कहते हैं । ( २०७८ ) । वह श्रावक मरकर नियम से सौधर्मादि कल्पोपन्न वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और अधिक से अधिक सात भवों में निश्चितरूप से मुक्त हो जाता है । " (२०८०) । बालपंडिदयं ॥ २०७८ ॥ इस कथन से स्पष्ट है कि गृहिलिंग से मुक्ति नहीं होती । गृहस्थ यदि बद्धायुक नहीं है, तो अपने अणुव्रतादि के द्वारा नियम से देवगति ही प्राप्त करता है। इस तरह गुणस्थान सिद्धान्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत (पंचम) गुणस्थान तक के जीवों की मुक्ति का निषेधक है। इससे अन्यलिंगी की भी मुक्ति का निषेध हो जाता है, क्योंकि वह मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में स्थित होता है । ४६ ग्रन्थकार भगवती आराधना में आगे कहते हैं । तस्स उववादो सत्तमम्मि भवे ॥ साहू हुत्तचा वट्टंतो अप्पमत्तकालम्मि । ज्झाणं उवेदि धम्मं पविट्टुकामो खवगसेटिं ॥ २०८२ ॥ ४६. एक्कं पि अक्खरं जो अरोचमाणो मरेज्ज जिणदिट्ठे । अरोचंतो ॥ सो वि कुजोणि- णिवुड्डो किं पुण सव्वं पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी संजोयणाकसाए खवेदि झाणेण तेण सो पढमं । मिच्छत्तं सम्मिस्सं कमेण सम्मत्तमवि य तदो ॥ २०८६॥ अनुवाद - " शास्त्रोक्तमार्ग पर चलता हुआ साधु क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा से अप्रमत्तगुणस्थान में धर्मध्यान करता है। धर्मध्यान से वह पहले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है, तत्पश्चात् क्रमशः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों का। इस प्रकार सात प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि सुत्तणिद्दिद्वं । मुणेयव्वो ॥ ६१ ॥ भगवती - आराधना । ३८ ॥ भगवती - आराधना । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ४५ होता है। उसके बाद क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने के लिए अप्रमत्तगुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण करता है।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में केवल दर्शनमोहनीय की उक्त तीन प्रकृतियों और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार प्रकृतियों का क्षय हो सकता है, अन्य किसी भी प्रकृति का नहीं। चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियाँ और शेष सात कर्मों की सभी प्रकृतियाँ विद्यमान रहती हैं। इससे भी सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार गृहिलिंगी एवं अन्यलिंगी की मुक्ति नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त यहाँ केवल साधु को ही अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती एवं क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने का अभिलाषी कहा गया है, आर्यिका को नहीं। आचारांग और कल्पसूत्र आदि श्वेताम्बर आगमों में तो भिक्खु के साथ भिक्खुणी८ और निर्ग्रन्थ के साथ निर्ग्रन्थी ९ दोनों का उल्लेख करके ही समान आचारनियमों के पालन का उपदेश दिया गया है। भगवती-आराधना के उपर्युक्त प्रसंग में तथा अन्यत्र ऐसा नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि भगवतीआराधनाकार को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। इस तरह गुणस्थानसिद्धान्त स्त्रीमुक्ति का भी निषेधक है। आगे के गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के क्षय का क्रम बतलाते हुए भगवतीआराधनाकार कहते हैं :: अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो। होइ तमपुव्वकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति॥ २०८७॥ अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म। णिहाणिद्दा पयलापयला तध थीणगिद्धिं च॥ २०८८॥ णिरयगदियाणुपुट्विं णिरयगदिं थावरं च सुहमं च। साधारणादवुज्जोवतिरयगदिं आणुपुव्वीए॥ २०८९॥ इग-विग-तिग-चतुरिंदियणामाई तध तिरिक्खगदिणामं। खवयित्ता मज्झिल्ले खवेदि सो अट्ठवि कसाए॥ २०९०॥ ४७. क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा क्षपकश्रेण्यधिरोहणाभिमुखोऽधःप्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्थाने प्रतिपद्य---।" _ विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.२०८६ । ४८. “से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव---" आचारांग २/१/१ / २-९। ४९. "वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा ।" कल्पसूत्र । सूत्र २६२-२८९। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ तत्तो णवंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं। कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो॥ २०९१॥ अध लोभसुहुमकिट्टि वेदंतो सुहमसंपरायत्तं। पावदि पावदि य तथा तण्णामं संजमं सुद्धं ॥ २०९२॥ तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्टीसु। एयत्तवितक्कावीचारं तो ज्झादि सो ज्झाणं॥ २०९३॥ झाणेण य तेण अधक्खादेण य संजमेण घादेदि। सेसा घादिकम्माणि समं अवरंजणाणि तदो॥ २०९४॥ णिहापचला य दुवे दुचरिमसमयम्मि तस्स खीयंति। सेसाणि घादिकम्माणि चरिमसमयम्मि खीयंति॥ २०९६॥ तत्तो णंतरसमए उप्पजदि सव्वपजयणिबंधं। केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चेव॥ २०९७॥ अनुवाद "अधःप्रवृत्तकरण द्वारा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर साधु अपूर्वकरण करता है। उसे अपूर्वकरण इसलिए कहते हैं कि उस साधु ने इस प्रकार के परिणाम कभी भी नीचे के गुणस्थानों में प्राप्त नहीं किये थे।" (२०८७)। "तत्पश्चात् वह साधु अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान को प्राप्त कर निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, उद्योत, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और तिर्यग्गति, इन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय करके मध्य की आठ कषायों (अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ) का क्षय करता है।" (२०८८-२०९०)। ___ "फिर उसी नवम गुणस्थान में क्रमश: नपंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और संज्वलन-क्रोध-मान-माया का क्षय करता है। अन्त में संज्वलन-लोभ का क्षय करता है।" (२०९१)। (क्षय का क्रम इस प्रकार है-पहले नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रमशः नाश करता है, फिर हास्यादि छह नोकषायों को पुरुषवेद में क्षेपण करके नष्ट करता है। पुरुषवेद को क्रोध-संज्वलन में, क्रोध-संज्वलन को मान-संज्वलन में, मान-संज्वलन को माया-संज्वलन में और माया-संज्वलन को लोभ-संज्वलन में क्षेपण करके क्षीण करता है। अंत में बादरकृष्टि के द्वारा लोभ-संज्वलन को कृश करता है, जिससे सूक्ष्म लोभ-संज्वलन कषाय शेष रहती है। स.सि./१०/१)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ४७ "तत्पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ का वेदन करता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त होता है, जहाँ उसे सूक्ष्मसाम्पराय-संयम की उपलब्धि होती है। दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभकृष्टि का क्षय होता है और साधु क्षीणकषायनामक १२वें गुणस्थान में पहुँचता है। वहाँ एकत्ववितर्कावीचार नामक शुक्लध्यान और यथाख्यातचारित्र के द्वारा शेष घातिकर्मों का. क्षय करता है, जो जीव के अन्यथाभाव में कारण होते हैं।"५० क्षीणकषाय गुणस्थान के उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का विनाश होता है तथा अन्तिम समय में शेष घाती कर्मों (पाँच ज्ञानावरणों, चार दर्शनावरणों और पाँच अन्तराय कर्मों) का। उसी समय शुद्धकेवलज्ञान और शुद्धकेवलदर्शन उत्पन्न होते हैं।" (२०९२-२०९७)। इसके बाद उत्तर गाथाओं में अघातीकर्मों के क्षय का क्रम बतलाते हुए भगवतीआराधनाकार लिखते हैं "केवलज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर जब तक शेष कर्मों की तथा अनुभूयमान मनुष्यायु की समाप्ति नहीं होती, तब तक केवलज्ञानी विहार करते रहते हैं। वे चारित्र को बढाते हए अधिक से अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटि तक और कम से कम अन्तर्मुहूर्तमात्र काल तक विहार करते हैं। फिर अघाती कर्मों को नष्ट करने के लिए सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, औदारिक-काययोग, औदारिक-मिश्रकाययोग तथा कार्मण-काययोग का निग्रह प्रारंभ करते हैं। उत्कर्ष से छह मास आयु शेष रहने पर जो केवलज्ञानी होते हैं, वे समुद्धात अवश्य करते हैं, शेष केवलज्ञानी करते भी हैं, नहीं भी करते हैं। जिनके नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म की स्थिति आयुकर्म के समान होती है, वे सयोगकेवली जिन समुद्धात किये बिना शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। किन्तु जिनके आयुकर्म की स्थिति कम होती है और नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक होती है, वे समुद्धात करके ही शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं, अर्थात् अयोगकेवली होते हैं। वे अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर सयोगकेवली-अवस्था में चारों कर्मों की स्थिति समान करने के लिए समुद्घात करते हैं।" (भ.आ./गा.२१०१-२१०६)। "जैसे गीला वस्त्र फैला देने पर शीघ्र सूख जाता है, उतनी जल्दी इकट्ठा रखा हुआ नहीं सूखता, कर्मों की भी दशा वैसी ही है। आत्मप्रदेशों के फैलाव से सम्बद्धकर्म की स्थिति बिना भोगे घट जाती है। समुद्धात से स्थितिबन्ध का कारणभूत स्नेह गुण नष्ट हो जाता है, जिसके फलस्वरूप शेष कर्मों की स्थिति घट जाती है। इस प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति आयु के समान करके मुक्ति की ५०."अवरंजणाणि जीवस्यान्यथाभावकारणानि।" विजयोदयाटीका / भ.आ. / गा.२०९४ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०१ ओर बढ़नेवाले सयोगकेवली जिन योगों का निरोध करते हैं। योगनिरोध का क्रम इस प्रकार है-स्थूलकाययोग में स्थित होकर बादरवचनयोग और बादरमनोयोग के रोकते हैं और सूक्ष्मकाययोग में स्थित होकर स्थूलकाययोग को रोकते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्मवचनयोग को रोककर सयोगकेवर्ल जिन सूक्ष्मकाययोग में स्थित होते हैं। सूक्ष्मलेश्या के द्वारा सूक्ष्मकाययोग से वे सातावेदनीर कर्म का बन्ध करते हैं तथा सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यान को ध्याते हैं। उस शुक्लध्यान के द्वारा सूक्ष्मकाययोग का निरोध करके वे शैलेशी अवस्था प्राप्त कर ले हैं। तब आत्मा के प्रदेशों के निश्चल हो जाने से उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता। उस समय अयोगकेवली होकर वे मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पर्याप्ति, आदेय, सुभग, यश:कीर्ति साता या असातावेदनीय, त्रस, बादर, उच्चगोत्र और मनुष्यायु, इन ग्यारह कर्मप्रकृतियं के उदय का भोग करते हैं। यदि वे तीर्थंकर होते हैं तो तीर्थंकरप्रकृति-सहित बारा प्रकृतियों का अनुभव करते हैं।" (भ.आ./ गा.२१०७-१६)। "तत्पश्चात् अयोगकेवली जिन परम-औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरं के बन्धन से छूटने के लिए समुच्छन्नक्रिय-अप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान कर हैं। इस ध्यान का काल 'अ इ उ ऋ लु' इन पाँच ह्रस्व मात्राओं के उच्चारणका के बराबर होता है। इसके द्वारा वे अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बिन उदीरणा के ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय कर देते हैं और अन्तिम समय में तीर्थंक केवली १२ प्रकृतियों का तथा सामान्य केवली ११ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। नामकर का क्षय होने से तैजस-शरीरबन्ध का भी क्षय हो जाता है, और आयुकर्म का क्षर होने से औदारिक-शरीरबन्ध का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार बन्धन से मुत्त हुआ जीव बन्धनमुक्त एरण्ड-बीज के समान ऊपर की ओर जाता है।" (भ.आ. गा.२११७-२१)। इस विस्तृत वर्णन में भगवती-आराधनाकार ने स्पष्ट किया है कि कर्मों क क्षय गुणस्थानक्रम से होता है और सम्पूर्ण कर्म अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थाके अन्त में क्षीण होते हैं। अन्यलिंगियों के मिथ्यादृष्टिगुणस्थान ही होता है और गृहस्थं के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक पाँच गुणस्थान होते हैं। तथा पुरुष ही संयतगुणस्थान को प्राप्त होता है, स्त्री नहीं। इस तरह गुणस्थानसिद्धान्त अन्यलिंगियों गृहिलिंगियों, सवस्त्रमुनियों तथा स्त्रियों की मुक्ति का निषेधक है, जो यापनीयमत वे विरुद्ध है। भगवती-आराधना में इस यापनीयमत-विरोधी गुणस्थान-सिद्धान्त की उपस्थिति से सिद्ध है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्पर का ग्रन्थ है। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ४९ मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान भगवती-आराधना में मुनि के लिए मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान किया गया है। यथा जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ विराहणा होज। पढमे विदिए तदिए चउत्थए पंचमे च वदे॥ ५८६॥ इसकी टीका करते हुए अपराजित सूरि ने मूलगुणों में चारित्र अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों का एवं उत्तरगुणों में अनशनादि तपों का समावेश किया है, जैसा कि उनके निम्नलिखित वचनों से सूचित होता है "यदि मूलगुणे उत्तरगुणे च कस्यचिद्विद्यते मूलगुणे, चारित्रे, तपसि वा अनशनादावुत्तरगुणे अतिचारो भवेत् अहिंसादिके व्रते।" (वि.टी./ गा.५८६)। मूलगुणों और उत्तरगुणों का यह विभाजन दिगम्बर-मतानुसार है। श्वेताम्बरमत में मूलगुण २७ माने गये हैं तथा अनेक मूलगुण दिगम्बरमान्य मूलगुणों से भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त उनके ग्रन्थों में उत्तरगुणों का उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बरमान्य मूलगुणों का वर्णन मूलाचार के अध्याय में द्रष्टव्य है। यतः यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, अतः भगवती-आराधना में वर्णित मूलगुण और उत्तरगुण यापनीयमान्यता के विरुद्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि वह यापनीयों का नहीं, अपितु दिगम्बरों का ग्रन्थ है। लोच के ही द्वारा केशत्याग का नियम भगवती-आराधना में साधु के लिए लोच के ही द्वारा केशत्याग का विधान किया गया है, छुरे या कैंची से मुण्डन कराने का विकल्प नहीं है। लोच से केशत्याग के गुण बतलाते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-"केशलोच से आत्मा दमित होता है, सुख में आसक्त नहीं होता और स्वाधीन, निर्दोष तथा ममत्वरहित हो जाता है। लोच करने से धर्म में श्रद्धा प्रदर्शित होती है। लोग सोचते हैं कि इसकी धर्म में बहुत श्रद्धा है, यदि न होती तो इतना दुःसह कष्ट क्यों सहता? इससे दूसरों के मन में भी धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है और बढ़ती है। इस तरह उपबृंहण नामक गुण भी विकसित होता है। लोच से कायक्लेश नामक उग्र तप होता है और अन्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ दुःखों को सहने की शक्ति आती है। दुःख सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है।" ५१ किन्तु श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पसूत्र में लोच को अनिवार्य नहीं बतलाया गया है। भिक्षुभिक्षुणियाँ कैंची और छुरे से भी मुण्डन करा सकती हैं। उसमें कहा गया है-"वर्षावास में रहे हुए साधुओं और साध्वियों को मस्तक पर गाय के रोम के बराबर भी केश उग आने पर पर्युषण (आषाढ़ी चौमासी से पचासवें दिन की रात्रि) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इससे पहले ही उस्तरे से मुंडन अथवा लुंचन करके केशरहित हो जाना चाहिए। पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में बालों का व्यपरोपण करना चाहिए। उस्तरे से मुण्डित होनेवाले को मास-मास में मुंडन कराना चाहिए, कैंची से मुंडन करानेवाले को पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में तथा लुंचन करनेवाले को छह माह में लुंचन करना चाहिए और स्थविरों को सांवत्सरिक लोच करना चाहिए।"५२ इस तरह एक परम्परा में केशलोच की अनिवार्यता और दूसरी में अननिवार्यता दोनों में महान् चारित्रिक भेद का द्योतन करती हैं। यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानता था। कल्पसूत्र की उसमें बहुत मान्यता थी। श्रुतसागर सूरि ने लिखा है कि वे कल्पसूत्र का वाचन करते थे।५३ इससे प्रकट है कि यापनीय भी केशलोच को अनिवार्य नहीं मानते थे। उनके मत में भी मुनि उस्तरे या कैंची से मुण्डन करवा सकते थे। यापनीयमत से यह सैद्धान्तिक भिन्नता भगवती-आराधना को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं करती। धर्म में श्रद्धा के उपबृंहण, कायक्लेश तप के अनुष्ठान, ५१. क- अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि। साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा॥ ९०॥ आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसङ्घा य। उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च॥ ९१॥ भगवती-आराधना। ख- "महती धर्मस्य श्रद्धाऽन्यथा कथमिदं दुःसहं क्लेशमारभत इति । आत्मनो धर्मश्रद्धाप्रकाशनेन परस्यापि धर्मश्रद्धाजननोपबृंहणं कृतं भवति।--- उग्रं च तपः कायक्लेशाख्यं दुःखान्त राणि च सहते।--- दुःखसहनान्निर्जरा भवत्यशुभकर्मणाम्।" वि.टी./भ.आ./गा.९१ । ग- लोच = लुञ्चन, केशों को हाथ से उखाड़ना। 'लोच' संस्कृत शब्द भी है "तथा चेयमदोषा लोचक्रिया।" विजयोदयाटीका / भ.आ. / गा.९०/ पृ.१२५ । ५२. "वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोम प्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवायणावित्तए। अजेणं खुरमुंडेण वा लुक्क-सिरएण वा होयव्वं सिया। पक्खिया आरोवणा, मासिए खुरमुंडए , अद्धमासिए कत्तरिमुंडे, छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे।" कल्पसूत्र / प्राकृत भारती जयपुर / सूत्र २८३। ५३. "यापनीयास्तु वेसरा गर्दभा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति"। ___ दंसण-पाहुड । टीका / गाथा ११। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ५१ दुःखसहन के अभ्यास एवं अशुभकर्मों की निर्जरा के उद्देश्य से केशलोच की अनिवार्यता का विधान उसे दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध करता है। मांस, मधु और मद्य का सर्वथा निषेध भगवती-आराधना में कहा गया है कि मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ (चित्त में महान् विकार उत्पन्न करने वाले कारण) हैं। इनके भक्षण से गृद्धि, प्रसंग (बार-बार उन्हीं में प्रवृत्ति), दर्प और असंयम की उत्पत्ति होती है। सर्वज्ञ की आज्ञा के प्रति आदरवान् , पापभीरु और तप में एकाग्रता का अभिलाषी जीव इन महाविकृतियों को सल्लेखना ग्रहण करने के बहुत पहले ही जीवनपर्यन्त के लिए छोड़ चुका होता है।४ एषणासमिति की व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं-"साधु टूटे-फूटे करछुल आदि से दिया हुआ अथवा कपाल, जूठे पात्र तथा कमलपत्र या कदलीपत्र आदि में रखकर दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु , मक्खन एवं साबुत (अखण्डित) फल ग्रहण न करे तथा मूल, पत्र, अंकुरित अन्न और कन्द ग्रहण न करे। इनसे जो भोजन छू गया हो, उसे भी ग्रहण न करे।"५५ किन्तु कल्पसूत्र में इन महाविकृतियों को केवल बार-बार खाने का निषेध किया गया है, सर्वथा खाने का नहीं। देखिए "वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हट्ठाणं आरोग्गाणं बलियसरीराणं इमाओ नव रसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए, तं जहा-खीरे, दहि, नवणीयं, सप्पिं, तिल्लं, गुडं, महुं, मजं, मंसं।" (सूत्र २३६)। अनुवाद-"वर्षावास में श्रमणों और श्रमणियों को, जो हृष्ट-पुष्ट हों, नीरोग हों, बलिष्ठ शरीरवाले हों, उन्हें दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु, मद्य ५४. चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीदमज्जमंसमहू। कंखा-पसंग-दप्पाऽसंजमकारीओ एदाओ॥ २१५॥ आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तबसमाधिकामेण। ताओ जावज्जीवं णिज्जूढाओ पुरा चेव॥ २१६ ॥ भगवती-आराधना। ५५. "न खण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं, कपालोच्छिष्टभाजने पद्मकदलीपत्रादिभाजने निक्षिप्य दीयमानं वा मांसं, मधु , नवनीतं, फलम् अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्करं, कन्दं च वर्जयेत्। तत्संस्पृष्टानि सिद्धान्यपि---न दद्यान्नखादेन्न स्पृशेच्च।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.१२००/ पृ.६०९। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ और मांस, इन नौ रस-विकृतियों (चित्तविकारोत्पादक रसों) को बार-बार नहीं खाना चाहिए।" ५६ यहाँ, मद्य, मांस, मधु और नवनीत को कभी भी न खाने का उपदेश दिया जाना चाहिए था, जो नहीं दिया गया। केवल बार-बार खाने का निषेध किया गया है, वह भी केवल वर्षावास में। इससे स्पष्ट है कि कल्पसूत्र श्रमण और श्रमणियों को वर्षावास में कभी-कभी मद्य, मांस और मधु खाने की अनुमति देता है, बारबार नहीं। किन्तु वर्षावास के बाद बार-बार खाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। न केवल कल्पसूत्र में, आचारांग,५७ ज्ञातृधर्मकथा, निशीथसूत्र, दशवैकालिक आदि में भी उपर्युक्त पदार्थों के भक्षण की अनुमति दी गई है। ज्ञातृधर्मकथा में शैलक राजर्षि (जो राजा से मुनि बन गये थे) की कथा है। एक बार वे बीमार पड़ गये। उनके पुत्र राजा मंडुक ने चिकित्सकों को बुलाया और आज्ञा दी कि तुम राजर्षि शैलक की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो। तब चिकित्सकों ने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजनपान से उनकी चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी। राजर्षि ने वैसा ही किया। फलस्वरूप साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान तथा मद्य के सेवन से शैलक राजर्षि का रोगातङ्क शान्त हो गया। किन्तु वे स्वादिष्ट भोजन और मद्यपान में अत्यन्त आसक्त और मूर्च्छित. हो गये।५८ माननीय पं० दलसुखभाई मालवणिया (प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान्) निशीथ : एक अध्ययन में साधु के मांसादि ग्रहण के विषय में शास्त्रीय विधान को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं "वस्तुविचार में यह स्पष्ट है कि साधु के लिए यह उत्सर्गमार्ग है कि वह मद्य-मांस आदि वस्तुओं को आहार में न ले। अर्थात् उक्त दोषपूर्ण वस्तुओं की ५६. अनुवादक-महोपाध्याय विनयसागर जी / कल्पसूत्र / प्रकाशक-प्राकृत भारती, जयपुर। ५७. आचारांग/द्वितीय श्रुतस्कन्ध/अध्ययन १/उद्देशक १०/सूत्र ५८/सम्पादक पं. बसन्तीलाल नलवाया / प्रकाशक-धर्मदास जैनमित्रमण्डल, रतलाम/१९८२ ई.। ५८. "तए णं तेगिच्छिया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सेलयस्स रायरिसिस्स अहा पवित्तेहिं ओसह-भेसज-भत्त-पाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति। मज्जपाणयं च से उवदिसंति। तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहिं जाव मज्जपाणेणं रोगायंके उवसंते होत्था, हढे जाव बलियसरीरे (गलियसरीरे) जाए ववगयरोगायंके। तए णं से सेलए तंसि रोगायकंसि उवसंतंसि समाणसि, तंसि विपुलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि मजपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे ---।" ज्ञाताधर्मकथांग/अध्ययन ५, शैलक/अनुवादक : मधुकर मुनि/आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, राजस्थान / पृष्ठ १८५। For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - आराधना / ५३ अ० १३ / प्र० १ गवेषणा न करे और कभी कोई देता है, तो कह दे कि ये वस्तुएँ मेरे लिए अकल्प्य हैं । ५९ और यह भी स्पष्ट है कि भिक्षु का उत्सर्गमार्ग तो यही है कि पिण्डैषणा के नियमों का यथावत् पालन करे । अर्थात् अपने लिए बनी कोई भी चीज न ग्रहण करे । तारतम्य का प्रश्न तो अपवादमार्ग में उपस्थित होता है कि जब अपवादमार्ग का अवलम्बन करना हो, तब क्या करे? क्या वह वस्तु को महत्त्व दे या नियमों को ? निशीथ में रात्रिभोजनसम्बन्धी अपवादों के वर्णन-प्रसंग में जो कहा गया है, वह प्रस्तुत में निर्णायक हो सकता है । अत एव यहाँ उसकी चर्चा की जाती है। कहा गया है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक का मांस हो, तो अल्पेन्द्रिय जीवों का मांस लेने में कम दोष है और उत्तरोत्तर अधिकेन्द्रिय जीवों का मांस ग्रहण करने में उत्तरोत्तर अधिक दोष है। जहाँ के लोगों को यह पता हो कि 'जैनश्रमण मांस नहीं लेते' वहाँ आधाकर्मदूषित अन्य आहार लेने में कम दोष है और मांस लेने में अधिक दोष, क्योंकि परिचित जनों के यहाँ से मांस लेने पर निन्दा होती है । किन्तु जहाँ के लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि 'जैन श्रमण मांस नहीं खाते' वहाँ मांस का ग्रहण करना अच्छा है और आधाकर्म- दूषित आहार लेना अधिक दोषावह है, क्योंकि आधाकर्मिक आहार लेने में जीवघात है। अतएव ऐसे प्रसंग में सर्वप्रथम द्वीन्द्रिय जीवों का मांस ले, उसके अभाव में क्रमशः त्रीन्द्रिय आदि का । इस विषय में स्वीकृत साधुवेश में ही लेना या वेष बदलकर इसकी भी चर्चा है । ६° उक्त समग्र चर्चा का सार यह है कि जहाँ अपनी आत्मसाक्षी से ही निर्णय करना है और लोकापवाद का कुछ भी डर नहीं है, वहाँ गोचरी-सम्बन्धी नियमों के पालन का ही अधिक महत्त्व है। अर्थात् औद्देशिक फलाहार की अपेक्षा मांस लेना, न्यूनदोषावह समझा जाता है - ऐसी स्थिति में साधक की अहिंसा कम दूषित होती है। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जब फासुग - अचित्त वस्तु मांसादि का सेवन भी अपने बलवीर्य की वृद्धि के निमित्त करना अप्रशस्त है, तो जो आधाकर्मादि दोष से दूषित अविशुद्ध भोजन करता है, उसका तो कहना ही क्या ? ६१ अर्थात् वह तो अप्रशस्त है ही। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मांस को भी फासुग—अचित्त माना गया है ।" ६२ मालवणिया जी आगे लिखते हैं- " निशीथ सूत्र (११-८०) में, यदि भिक्षु मांसभोजन की लालसा से उपाश्रय बदलता है, तो उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान है। ५९. दशवैकालिक ५.७३, ७४, गा. ७३ के ' पुग्गल' शब्द का अर्थ मांस है। इसका समर्थन निशीथचूर्णि से भी होता है - गाथा २३८, २८८, ६१०० । 'निशीथ : एक अध्ययन / पादटिप्पणी / पृष्ठ ६२ । ६०. निशीथ / गाथा ४३६-३९, ४४३-४४७ । ६१. निशीथ / चूर्णि गाथा ४६९ । ६२. निशीथ : एक अध्ययन (निशीथसूत्र पीठिका) / पृष्ठ ६२-६३ । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० १ किन्तु अपवाद में गीतार्थ साधु संखड़ी आदि में जाकर मांस का ग्रहण कर सकते हैं ( निशीथ, गाथा ३४८७) । रोगी के लिए चोरी से या मन्त्रप्रयोग करके, वशीकरण से भी अभीप्सित औषधि प्राप्त करना अपवादमार्ग में उचित माना गया है (निशीथ, गाथा ३४७)। औषधि में हंसतेल जैसी वस्तु लेना भी, जो मांस से भी अधिक पापजनक है, और वह भी आवश्यकता पड़ने पर चोरी या वशीकरण के द्वारा, अपवादमार्ग में शामिल है । ६३ चूर्णिकार ने हंसतेल बनाने की विधि का जो उल्लेख किया है, उसे पढ़कर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हंस को चीरकर, मलमूत्र निकालकर, अनन्तर उसके पेट को कुछ वस्तुएँ भरकर सी लिया जाता है और फिर पकाकर जो तेल तैयार किया जाता है, वह हंसतेल है ( निशीथ, गा. ३४८ की चूर्णि ) । ६४ 1 यह दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में अहिंसामहाव्रत, आहारशुद्धि और संयम की दृष्टि से महान् भेद होने का प्रमाण है । यह एक गम्भीर चारित्रिक अन्तर है, जो दोनों परम्पराओं की बुनियाद तक जाता है । जैसा कि प्रसिद्ध है, यापनीयमत के अनुयायी श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाणरूप में स्वीकार करते थे, इससे सूचित होता है कि उनके मत में भी भिक्षु भिक्षुणियों को अपवादमार्ग के रूप में मद्य, मांस और मधु के भक्षण की अनुमति थी । इस तरह हम देखते हैं कि भगवती आराधना का यापनीयमत से कितना गम्भीर सैद्धान्तिक मतभेद है ! जहाँ यापनीयमत भिक्षु - भिक्षुणियों के लिए मद्य, मांस, मधु जैसे सर्वथा अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण की अपवादरूप से अनुमति देता हैं, वहाँ भगवती-आराधना में इनके भक्षण का तो क्या, इनसे छुए हुए भक्ष्य पदार्थों के भी भक्षण का निषेध किया गया है। अपवादरूप से भी इनका भक्षण वर्जित है। यापनीयमत से यह गम्भीर मतभेद भगवती - आराधना के यापनीयग्रन्थ न होने का प्रबल प्रमाण है। १२ अभिग्रहविधान भगवती - आराधना में मुनि के भिक्षार्थ निकलते समय अनेक प्रकार के वृत्तिपरिसंख्यान या अभिग्रहों का विधान किया गया है। मुनि को इस तरह प्रतिज्ञा करनी होती है कि " जिस मार्ग से पहले गया था, उसी से लौटते हुए भिक्षा मिलेगी, तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। सीधे मार्ग से जाने पर मिली, तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। (गा‘गत्तापच्चा' २२० ) । एक ही अन्न की या दो अन्नों की भिक्षा ग्रहण करूँगा, अधिक की नहीं। एक दाता के ही द्वारा या दो दाताओं के ही द्वारा दिये जाने पर ६३. निशीथ / गाथा ३४८ / गा. चूर्णि ५७२२ । ६४. निशीथ : एक अध्ययन (निशीथसूत्र पीठिका) / पृष्ठ ६४ । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ५५ ग्रहण करूँगा। दाता के द्वारा लायी गई भिक्षा में से इतने ही ग्रास ग्रहण करूँगा। (गा. पाडय' २२१)। सोने, चाँदी, काँसे या मिट्टी के पात्र में ही लाया गया भोजन ग्रहण करूँगा। स्त्री, बालिका, युवती या वृद्धा के ही द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करूँगा। (गा. पत्तस्स' २२३)। इस प्रकार के अभिग्रहों का विधान श्वेताम्बर-आगमों में नहीं मिलता। श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सुरेश सिसोदिया लिखते हैं-"दिगम्बर-परम्परा के श्रमण संकल्प या अभिग्रह लेकर आहार के लिए गमन करते हैं। जहाँ उनका अभिग्रह पूरा होता है, वहीं वे आहार ग्रहण करते हैं। भगवती-आराधना में विविध प्रकार के अभिग्रह एवं संकल्पों का उल्लेख हुआ है। श्वेताम्बरपरम्परा के श्रमण आहार-ग्रहण के लिए किसी तरह का अभिग्रह या संकल्प नहीं करते।"६५ यतः यापनीय-साधु श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, अतः यापनीयमत में भी इन अभिग्रहों की मान्यता नहीं थी, यह स्वतः सिद्ध होता है। भगवती-आराधना में प्रतिपादित यह अभिग्रहविधान भी यापनीयमत के विरुद्ध है, जिससे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। . १३ भगवती-आराधना में कुन्दकुन्द की गाथाएँ . भगवती-आराधना में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की गयी हैं, जिनके उदाहरण आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दसवें अध्याय के प्रथम प्रकरण में दिये गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि वह कुन्दकुन्द की परम्परा का ग्रन्थ है। यह उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का एक अन्य अन्तरंग प्रमाण है। घ दिगम्बरग्रन्थ होने के बहिरंग प्रमाण सभी टीकाकार दिगम्बर भगवती-आराधना पर जितनी भी टीकाएँ लिखी गई हैं,६६ उन सब के लेखक दिगम्बरमुनि और दिगम्बर पण्डित ही थे। उनमें से एक भी यापनीय नहीं था। ६५. डॉ० सुरेश सिसोदिया : जैनधर्म के सम्प्रदाय / पृ.१७९-१८०। ६६. देखिए , पं० नाथूराम जी प्रेमीकृत 'जैन साहित्य और इतिहास'। (प्रथम संस्करण)। पृ.३१-३७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ ,,६७ विजयोदयाटीका के कर्त्ता अपराजितसूरि अपरनाम श्रीविजयाचार्य दिगम्बर हीं थे, इसके प्रमाण 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक चतुर्दश अध्याय में द्रष्टव्य हैं । 'मूलाराधनादर्पण' टीका के लेखक पं० आशाधर जी (१३वीं शती ई०) दिगम्बर थे, यह सर्वविदित है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने पूना के भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधक मन्दिर में एक 'आराधनापञ्जिका' नामक टीका की प्रति देखी थी। इसके विषय में उन्होंने लिखा है - " मेरा अनुमान है कि शायद यह पञ्जिका प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदि के कर्त्ता आचार्य प्रभाचन्द्र की हो । उनके ग्रन्थों की सूची में एक 'आराधनापञ्जिका' का उल्लेख है ।' ये स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति आदि श्वेताम्बरीय और यापनीय- मतों का प्रबल युक्तियों से खण्डन करने वाले दिगम्बराचार्य थे, यह प्रसिद्ध ही है । 'भावार्थदीपिका' नामक टीका की प्रति भी पूना के भाण्डारकर प्राच्यविद्या - संशोधक मन्दिर में विद्यमान है, ऐसा प्रेमी जी ने लिखा है । ६८ इसके मंगलाचरण में टीकाकार ने कुन्दकुन्द मुनि को नमस्कार किया है, जिससे उनका दिगम्बर होना प्रमाणित है । ६९ माथुरसंघ के आचार्य अमितगति ने भगवती- आराधना का संस्कृतपद्यानुवाद किया है। माथुरसंघ भी स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति का विरोधी था, ये केवल पिच्छी को अनावश्यक मानते थे । ७० अतः अमितगति भी यापनीय नहीं थे, दिगम्बर ही थे। पं० सदासुखदास जी ने भी भगवती - आराधना पर भाषावचनिका लिखी है, जो कट्टर तेरापन्थी दिगम्बर जैन थे । इस प्रकार जब यापनीयसम्प्रदाय फल-फूल रहा था, उस काल में अपराजित सूरि, प्रभाचन्द्र एवं पं० आशाधर जी जैसे दिगम्बर मुनियों एवं विद्वानों के ही द्वारा भगवती-आराधना पर टीकाएँ लिखी गईं, किसी यापनीय आचार्य ने उस पर कोई टीका नहीं लिखी, यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि भगवती आराधना का पठनपाठन केवल दिगम्बरसम्प्रदाय में ही होता था और टीकाकार उस पर टीकाएँ लिखकर उसके पठन-पाठन को प्रोत्साहित करते थे । इससे यह सूचित होता है कि भगवती - आराधना का पठन-पाठन करनेवाले और उस पर टीकाएँ लिखनेवाले दिगम्बर आचार्यों I ६७. वही / पृ.३३ । ६८. वही / पृ.३४ । ६९. क— घनघटितकर्मनाशं गुरुं च वंशाधिपं च कुन्दाह्वम् । वन्दे शिरसा तरसा ग्रन्थसमाप्तिं समीप्सुरहम् ॥ २ ॥ ख- महासंघे गच्छे गिरिगणबलात्कारपदके, ७०. गुरौ नन्द्याम्नायेऽन्वयवरगुरौ कुन्दमुनिपे । भावार्थदीपिका टीका । पं० नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास / प्र.सं./ पृ.३४-३५ पर उद्धृत । षड्दर्शनसमुच्चय / त.र.दी. - गुणरत्नकृतटीका / चतुर्थ अधिकार / पृ.१६१ । For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ५७ और पण्डितों को उसमें ऐसा कोई भी सिद्धान्त दिखाई नहीं देता था, जो दिगम्बरमत के प्रतिकूल हो। अतः वे उसे दिगम्बराचार्य की ही कृति मानते थे। इसके विपरीत उस पर किसी यापनीय-आचार्य की टीका उपलब्ध न होना, इस बात का सबूत है कि उसका अध्ययन-अध्यापन यापनीय-सम्प्रदाय में नहीं होता था। सम्भवतः वे उससे परिचित ही नहीं थे। यदि वह स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति का पोषण करनेवाले यापनीयमत का ग्रन्थ होता, तो इसका अध्ययन-अध्यापन उस सम्प्रदाय में प्रचलित होता और तत्कालीन दिगम्बरमुनि इस बात से भली-भाँति परिचित होते। इस स्थिति में वे किसी जैनाभासी सम्प्रदाय के ग्रन्थ पर टीका लिखकर अपने सम्यक्त्व को दूषित न करते, जब कि उसके द्वारा प्रतिष्ठित दिगम्बर प्रतिमाएँ भी अपूज्य मानी जाती थीं। इससे सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ यापनीय-परम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बर-परम्परा का ही है। दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत भगवती-आराधना दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ इसलिए भी सिद्ध होता है कि भगवजिनसेन ने आदिपुराण (१/४९) में आराधनाकार शिवकोटि (शिवार्य) को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया है। जिनसेन ८वीं शती ई० में हुए थे। (देखिये , अध्याय १०/प्रकरण १/शीर्षक १०.१)। उस समय यापनीय-सम्प्रदाय फल-फूल रहा था। उसकी विपरीत मान्यताओं से जिनसेन को वह जैनाभास भी प्रतीत हुआ होगा, क्योंकि विक्रम की १३वीं शताब्दी के इन्द्रनन्दी भट्टारक ने 'नीतिसार' (श्लोक १०) में यापनीयसम्प्रदाय को जैनाभास कहा है। इसलिए यदि आचार्य जिनसेन भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ और शिवार्य को यापनीय-आचार्य मानते, तो उन्हें नमस्कार कदापि न करते। सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को भी उन्होंने दिगम्बर होने के कारण ही नमस्कार किया है। (आदिपुराण १/४२)। पाँचवीं शती ई० में हुए पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (९/२२) में भगवती-आराधना की यह गाथा 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की है औकंपिय अणुमाणिय जं दिटुं बादरं च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥ ५६४॥२ ७१. या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहिताऽपि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता सा न वन्दनीया, न चार्चनीया।" । श्रुतसागरटीका / बोधपाहुड / गा.१० । ७२. पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित तथा भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि (९/२२/पृ.३४६) में यह गाथा पादटिप्पणी में दी गई है। इस ग्रन्थ के परिशिष्ट २ में निबद्ध श्री प्रभाचन्द्रविरचित 'तत्त्वार्थवृत्तिपदम्' में भी पृष्ठ ४२६ पर सूत्र ९/२२ की व्याख्या में यह गाथा 'तदुक्तं' निर्देशपूर्वक उद्धृत की गई है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ पण्डित परमानन्द जी शास्त्री लिखते हैं-"इसके सिवाय आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में इस आराधना-ग्रन्थ पर से और भी बहुत कुछ लिया है, जिसका एक नमूना नीचे दिया जाता है __ "निक्षेपश्चतुर्विधः अप्रत्यक्षवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणं चेति। संयोगो द्विविधो भक्तपानसंयोगाधिकरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति। निसर्गस्त्रिविधः कायनिसर्गाधिकरणं वाग्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति।" (स.सि./६/९)। "यह सब व्याख्या भगवती-आराधना ग्रन्थ की निम्न गाथाओं पर से ली गई जान पड़ती है सहसाणाभोगिय दुप्पमजिद अपच्चवेक्खणिक्खेवो। देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिव्वत्ति॥ ८०८॥ संजोयणमुवकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च। दुट्ठणिसिट्ठा मणवचिकाया भेदा णिसग्गस्स॥ ८०९॥"७३ पूज्यपाद स्वामी द्वारा भगवती-आराधना को इस प्रकार प्रमाण माना जाना भी सिद्ध करता है कि यह दिगम्बरग्रन्थ ही है। रचनाकाल यापनीय-संघोत्पत्तिपूर्व आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि 'भगवती-आराधना' की रचना प्रथम शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में हुई थी, जबकि यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव पाँचवी शताब्दी ई० के आरम्भ में हुआ था, यह 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः जो ग्रन्थ यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व लिखा गया हो, उसके यापनीयग्रन्थ होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। डॉ० सागरमल जी जब तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को इस आधार पर यापनीयकृति मानने से इनकार करते हैं कि “भाष्य तीसरी-चौथी शती का है और यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव चौथी-पाँचवी शताब्दी के बाद कभी हुआ था,"७४ तब वे प्रथम शताब्दी में रची गयी ७३. 'भगवती आराधना और शिवकोटि'/'अनेकान्त'/१ अप्रैल १९३९ / पृष्ठ ३७५ । ७४. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/ पृष्ठ ३५७। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र० १ भगवती - आराधना / ५९ भगवती-आराधना को यापनीयकृति कैसे कह सकते हैं? अतः रचनाकाल के आधार पर भी सिद्ध होता है कि भगवती आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। हाँ, यदि बोटिककथा से सम्बद्ध शिवभूति और मथुरा के शिलालेख में उल्लिखित शिवभूति से शिवार्य का एकत्व माना जाय, तो अधिक से अधिक यह सम्भावना की जा सकती है कि शिवार्य पहले श्वेताम्बर रहे होंगे, पश्चात् दिगम्बर हो गये होंगे, उसके बाद उन्होंने भगवतीआराधना ग्रन्थ रचा होगा । अतः यह हर हालत में दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ है, यापनीयाचार्यकृत कदापि नहीं । इस तरह हम देखते हैं कि भगवती - आराधना में वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति, इन यापनीय मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है । यह बात विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है कि उसमें न केवल इन मान्यताओं का विधान नहीं किया गया है, अपितु इनका निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि भगवतीआराधना यापनीय - आचार्य द्वारा रचा गया ग्रन्थ नहीं है, क्योंकि कोई भी आचार्य अपने ग्रन्थ में अपनी ही मान्यताओं के विरुद्ध प्रतिपादन नहीं कर सकता। भगवती आराधना के उपर्युक्त सभी सिद्धान्त दिगम्बरमत के सिद्धान्त हैं, अतः यह दिगम्बराचार्य की ही कृति है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्द का अनुसरण किया गया है, इस पर सभी टीकाएँ दिगम्बरों ने ही लिखीं है तथा इसकी रचना यापनीयमत की उत्पत्ति के पूर्व हुई है, इन तथ्यों से भी इसी बात की पुष्टि होती है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है । ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता यतः भगवती - आराधना में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से उसका यापनीयग्रन्थ होना असिद्ध हो जाता है, अतः यापनीयपक्षधर विद्वानों ने उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं, यह सिद्ध होता है। उनमें से कौन सा हेतु असत्य है और कौन सा हेत्वाभास है, इसका दिग्दर्शन नीचे किया जा रहा है । १ शिवार्य के गुरु दिगम्बर थे यापनीयपक्ष पं० नाथूराम जी प्रेमी जी का कथन है कि शिवार्य ने भगवती आराधना (गा. २१५९) में अपने तीन गुरुओं का उल्लेख किया है: आर्य जिननन्दगणी, आर्य सर्वगुप्तगणी और आर्य मित्रनन्दिगणी । इनके नाम दिगम्बरसम्प्रदाय की किसी पट्टावली या गुर्वावली में नहीं मिलते, अतः ये यापनीयपरम्परा के आचार्य रहे होंगे । फलस्वरूप इनके शिष्य शिवार्य भी यापनीय होंगे। इसलिए उनके द्वारा रचित भगवती आराधना भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ है। (जै.सा. इ./ प्र.सं./पृ. ५६-५७)। दिगम्बरपक्ष १. वट्टकेर, यतिवृषभ, समन्तभद्र, स्वामिकुमार, जोइंदुदेव जैसे दिगम्बराचार्यों के नाम भी दिगम्बर- पट्टावलियों में नहीं मिलते, फिर भी वे यापनीय नहीं थे। इसलिए दिगम्बर- पट्टावलियों में नाम न होना यापनीय होने का हेतु नहीं है। - २. शिवार्य के गुरुओं के नाम यापनीय-पट्टावलियों में भी नहीं मिलते, अतः उपर्युक्त हेतु के अनुसार वे दिगम्बर सिद्ध होते हैं। इस तरह भी दिगम्बर पट्टावलियों में नाम का अभाव यापनीय होने का हेतु सिद्ध नहीं होता । ३. भगवती - आराधना में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों की उपलब्धि से उसका यापनीयग्रन्थ होना असिद्ध है, अतः उसके कर्त्ता और कर्त्ता के गुरुओं का भी यापनीय होना असिद्ध है। ४. उक्त ग्रन्थ में दिगम्बरमत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, फलस्वरूप उसके कर्त्ता और कर्त्ता के गुरुओं का भी दिगम्बराचार्य होना प्रमाणित होता है । For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ६१ ये समस्त हेतु इस बात के निर्णायक हैं कि किसी ग्रन्थकार का दिगम्बरपट्टावलियों में नाम न होना उसके यापनीय होने का हेतु नहीं है, अतः उसे यापनीय होने का हेतु मानना हेत्वाभास है। इसलिए प्रेमी जी का भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ कहना मिथ्या है। सर्वगुप्त के दिगम्बर होने का शिलालेखीय प्रमाण यापनीयपक्ष प्रेमी जी लिखते हैं- "जिन तीन गुरुओं के चरणों में बैठकर उन्होंने (शिवार्य ने) आराधना रची है, उनमें से सर्वगुप्तगणी शायद वही हैं, जिनके विषय में शाकटायन की अमोघवृत्ति में लिखा है कि 'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' (१-३-१०४)। अर्थात् सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से नीचे हैं। चूँकि शाकटायन यापनीयसंघ के थे, इसलिए विशेष संभव यही है कि सर्वगुप्त यापनीयसंघ के ही सूत्रों या आगमों के व्याख्याता हों।"(जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.५७)। दिगम्बरपक्ष १. शिवार्य के गुरु सर्वगुप्त और शाकटायन द्वारा उल्लिखित सर्वगुप्त में एकत्व सिद्ध करनेवाला प्रमाण उपलब्ध नहीं है। २.यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादक होने से भगवती-आराधना दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसके कर्ता शिवार्य और उनके गुरु सर्वगुप्त का दिगम्बर होना सिद्ध है। उदारदृष्टि होने के कारण यापनीय-शाकटायन के द्वारा दिगम्बर-सर्वगुप्त का उल्लेख किया जाना संभव है। ३. शिलालेखीय प्रमाण से सर्वगुप्त दिगम्बराचार्य ही सिद्ध होते हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने एक पूर्व लेख ७५ में स्वयं लिखा है "आर्य शिव ने अपने जिन तीन गुरुओं का उल्लेख किया है, उनमें से सर्वगुप्त का नाम श्रवणबेलगोला के १०५वें नम्बर के शिलालेख में मिलता है। इस शिलालेख में अंगधारी मुनियों का उल्लेख करके फिर, कुम्भ, विनीत, हलधर, वसुदेव, अचल, ७५. "भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ"। अनेकान्त/वर्ष १/किरण ३/ माघ, वीर नि. सं. २४५६ / पृ.१४९। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० २ मेरुधीर, सर्वज्ञ, सर्वगुप्त, महीधर, धनपाल, महावीर, वीर, इन आचार्यों के इत्याद्यनेकसूरि कहकर नाम लिये हैं और फिर कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा दी है। "७६ सर्वगुप्त को दिगम्बर सिद्ध करनेवाले इन प्रमाणों की उपलब्धि से सिद्ध है कि उन्हें यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त उपर्युक्त हेतु हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। यतः निर्णायक हेतु हेत्वाभास है, अतः निर्णय भी आभासरूप अर्थात् भ्रान्तिपूर्ण है । , ३ दिगम्बराचार्यों के भी नाम आर्यान्त और नन्द्यन्त यापनीयपक्ष डॉ० सागरमल जी ने एक नया तर्क यह दिया है कि " मुनि के नाम के साथ आर्य विशेषण का प्रयोग श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में लगभग छठीसातवीं सदी तक प्रचलित रहा है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में इसका प्रयोग नहीं देखा जाता। शिवार्य के साथ लगे हुए 'आर्य' और 'पाणितलभोजी' विशेषण उन्हें यापनीयआर्यकुल से सम्बद्ध करते हैं। उनके गुरुओं के 'नन्दि' - नामान्तक नामों के आधार पर भी उनका सम्बन्ध यापनीयपरम्परा के नन्दिसंघ से माना जा सकता है।" (जै. ध. या.स./ पृ.१२१)। दिगम्बरपक्ष १. दिगम्बराचार्यों के भी नाम के अंत में 'आर्य' शब्द का प्रयोग मिलता है। भगवान् महावीर की शिष्य - परम्परा में द्वितीय केवली का नाम 'लोहार्य' (लोहाचार्य) था, जो 'सुधर्म' नाम से भी प्रसिद्ध थे। कहा भी गया है तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर - सुधम्मणा खलु णिद्दिद्वं ॥ ७७ जंबूणामस्स ७६. श्रीमान्कुम्भो विनीतो हलधरवसुदेवाचला सर्व्वज्ञः सर्व्वगुप्तो महिधरधनपालौ पदमुपेतेषु मेरुधीर : महावीरवीरौ । इत्याद्यनेकसूरिष्वथ दीव्यत्तपस्या शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥ १३ ॥ जै. शि. सं. / मा.च. / भा.१/ ले.क्र.१०५ (२५४) सिद्धरबस्ती में उत्तर की ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण (शक सं. १३२० ) । ७७. षट्खण्डागम-प्रस्तावना : डॉ० हीरालाल जैन / पुस्तक १/ पृ.१८ - १९ पर उद्धृत । For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ६३ . इसके अतिरिक्त चार आचारांगधारी शिष्यों में भी एक लोहार्य नाम के शिष्य थे।८ विष्णुनन्दी, नन्दिमित्र और अपराजित नाम भी पाँच श्रुतकेवलियों में पाये जाते हैं। ९ एक-अंगधारियों में माघनन्दी का नाम है। नन्द्यन्त नाम दिगम्बर-परम्परा में और भी गिनाये जा सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का एक नाम पद्मनन्दी था। पूज्यपादस्वामी देवनन्दी-नाम-धारी थे। 'परीक्षामुख' के कर्ता माणिक्यनन्दी का नाम भी ऐसा ही है। अतः आर्यान्त और नन्द्यन्त नाम होना यापनीयसंघी होने का हेतु (असाधारणधर्म या लक्षण) नहीं है, अपितु हेत्वाभास है। पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं-"आर्य शब्द आचार्य का पर्यायवाची है। प्राचीन ग्रन्थों में यह अधिक व्यवहृत हुआ है।"८१ इसका प्रमाण यह है कि लोहार्य को लोहाचार्य भी कहा गया है। ____२. पाणितलभोजी दिगम्बर मुनि भी होते हैं, अतः यह विशेषण भी यापनीयत्व का असाधारणधर्म नहीं है। फलस्वरूप यह भी हेत्वाभास है। इसलिए आर्यान्त और नन्द्यन्त नामों तथा पाणितलभोजी विशेषण के आधार पर भी भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ कहना भ्रान्तिपूर्ण है। अपराजित सूरि दिगम्बराचार्य थे यापनीयपक्ष पं० नाथूराम जी प्रेमी-"अपराजित सूरि यदि यापनीय संघ के थे, तो अधिक संभव यही है कि उन्होंने अपने ही सम्प्रदाय के ग्रन्थ की टीका की है।" (जै.सा.इ./ प्र.सं./पृ.५७)। दिगम्बरपक्ष १.अपराजित सूरि ने भगवती-अराधना की विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और परतीर्थिकमुक्ति का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ७८. वही/ पुस्तक १/ पृ.१८॥ ७९. वही/ पुस्तक १/ पृ.१८-१९ । ८०. वही/ पुस्तक १/ पृ.२३ । ८१. "भगवती-आराधना और उसकी टीकाएँ" अनेकान्त/ वर्ष १/ किरण ३/ माघ, वी. नि. सं. २४५६ / पृ.१४६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० है, जिससे सिद्ध है कि वे यापनीयपरम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा के आचार थे। इसका सप्रमाण विवेचन अगले अध्याय में द्रष्टव्य है। २."अपराजित सूरि यदि यापनीयसंघ के थे" प्रेमी जी के इन उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि अपराजित सूरि के यापनीयसंघी होने का उनके पास कोई प्रमा नहीं है। ___ इन दो कारणों से सिद्ध होता है कि यह हेतु असत्य है। हेतु के असत्य हो से निर्णय भी असत्य है। अर्थात् अपराजितसूरि को यापनीय मानना असत्य है, अत भगवती-आराधना को भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ कहना असत्य है। भगवती-आराधना में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं यापनीयपक्ष __पं. नाथूराम जी प्रेमी-"आराधना की गाथाएँ काफी तादाद में श्वेताम्बर सूत्र में मिलती हैं। इससे शिवार्य के इस कथन की पुष्टि होती है कि पूर्वाचार्यों की रर्च हुई गाथाएँ उनकी उपजीव्य हैं।" (जै.सां.इ./प्र.सं./पृ.५७)। अर्थात् शिवार्य श्वेताम्बराचार्य को अपना पूर्वाचार्य मानते थे, इसीलिए उनके द्वारा रचित गाथाएँ उन्होंने भगवतीआराधना में ग्रहण की हैं, जो उनके यापनीय होने का प्रमाण है। दिगम्बरपक्ष प्रेमी जी ने उपर्युक्त विचार सन् १९३९ ई० में लिखे एक लेख में व्यक्त किये हैं। किन्तु इससे दस वर्ष पूर्व (सन् १९२९ ई० में) जो लेख उन्होंने लिखा था, उसमें इसके ठीक विपरीत विचार प्रकट किये थे। लेख का सम्बन्धित अंश नीचे उद्धृत किया जा रहा है "आचार्य वट्टकेर का 'मूलाचार' और यह 'भगवती-आराधना', दोनों ग्रन्थ उस समय के हैं, जब मुनिसंघ और उसकी परम्परा अविच्छिन्नरूप से चली आ रही थी और जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम की मुख्य शाखाएँ एक-दूसरे से इतनी अधिक जुदा और कटुभावापन्न नहीं हो गई थीं, जितनी कि आगे चलकर हो गयीं। इन दोनों ही ग्रन्थों में ऐसी सैकड़ों गाथाएँ हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के भी प्राचीन ग्रन्थों में मिलती हैं और जो दोनों सम्प्रदायों के जुदा होने के इतिहास की खोज करनेवालों को बहुत सहायता दे सकती हैं। पं० सुखलाल जी ने पंचप्रतिक्रमण नामक ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में एक गाथासूची देकर बतलाया है कि भद्रबाहु स्वामी की आवश्यक For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - आराधना / ६५ अ० १३ / प्र० २ नियुक्ति और वट्टकेर स्वामी के मूलाचार की पचासों गाथाएँ बिलकुल एक हैं। अभी बम्बई में जब मैंने भगवती आराधना की कुछ गाथाएँ पढ़कर सुनाईं, तब उन्होंने कहा कि उनमें से भी अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों में मिलती हैं। उदाहरण के लिए ४२७ नम्बर की नीचे लिखी गाथा देखिए आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिण्डकिरियम्मे । वदजेटुपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ " इस गाथा में दस प्रकार के श्रमणकल्प का नामोल्लेख है। बिलकुल यही गाथा श्वेताम्बर - कल्पसूत्र में मिलती है और शायद आचारांगसूत्र में भी है। इस बात का उल्लेख करते हुए पण्डित जी ८२ लिखते हैं कि - "मूलाचार में श्री भद्रबाहुकृत निर्युक्तिगत गाथाओं का पाया जाना बहुत अर्थसूचक है। इसमें श्वेताम्बर - दिगम्बर-सम्प्रदाय की मौलिक एकता के समय का कुछ प्रतिभास होता है।'' ८३ इस पूर्व लेख में प्रेमी जी ने भगवती आराधना को दिगम्बरग्रन्थ ही माना है और बतलाया है कि भगवती आराधना आदि दिगम्बरग्रन्थों तथा आवश्यकनिर्युक्ति आदि श्वेताम्बर - ग्रंथों में जो समान गाथाएँ मिलती हैं, वे दोनों सम्प्रदायों को अपनी समान मातृपरम्परा से प्राप्त हुई हैं । इस गाथागत समानता से दोनों सम्प्रदायों की मौलिक एकता पर प्रकाश पड़ता है। इस मत के समर्थन में प्रेमी जी ने श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी के वचन भी उद्धृत किये हैं । इस प्रकार प्रेमी जी का उत्तरकालीन मत उनके ही पूर्वकालीन मत से बाधित है। पं० सुखलाल जी के वचन भी प्रेमी जी के उत्तरकालीन मत का खण्डन करते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भी कुछ गाथाएँ श्वेताम्बर - आगमों की गाथाओं से सादृश्य रखती हैं। इसका कारण बतलाते हुए डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में लिखा है "The traditional aspect of Kundakunda's works is clear from the fact that his works have some common verses with some texts of the Śvetambara canon, being a common property in early days they have been preserved by both the sections independently.” (p. 23). ८२. पण्डित सुखलाल जी संघवी, प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् । ८३. पं० नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ / ' अनेकान्त ' / वर्ष १ / किरण ३ / माघ, वीर नि. सं. २४५६ / पृ. १४९ / लेख का शेषांश 'अनेकान्त / वर्ष १ / किरण ४ / दिनांक २२.१२.२९ : में प्रकाशित । For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ इस तरह प्रेमी जी के पूर्वलेख तथा उसमें उद्धृत पं० सुखलाल जी के वचनों एवं डॉ० उपाध्ये के उपर्युक्त शब्दों से यह ऐतिहासिक तथ्य सामने आता है कि न तो दिगम्बरों ने श्वेताम्बरग्रन्थों से कुछ लिया है, न श्वेताम्बरों ने दिगम्बरग्रन्थों से। दोनों को एक ही मूल स्रोत से अर्थात् विभाजनपूर्व के समान आचार्यों से, जो एकान्तअचेलमुक्तिवादी थे, वह सब प्राप्त हुआ है, जो दोनों सम्प्रदायों में एक जैसा है। उसे दोनों सम्प्रदायों ने स्वतन्त्ररूप से श्रुतिपरम्परा द्वारा अपने-अपने पास सुरक्षित रखा है, जैसे उपर्युक्त गाथाएँ, चौबीस तीर्थंकरों के नाम तथा कर्मसिद्धान्त, सात तत्त्व, षड् द्रव्य आदि से सम्बन्धित ज्ञान। इसलिए भगवती-आराधना में जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों से गृहीत नहीं हैं, अपितु दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की जो एकान्त-अचेलमार्गी समान आचार्य-परम्परा थी, उससे भगवतीआराधनाकार को प्राप्त हुई हैं। अतः भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो श्वेताम्बरग्रन्थों से गाथाएँ ग्रहण किये जाने का हेतु बतलाया गया है, वह असत्य है। हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। . श्वेताम्बर-यापनीय-समानपूर्वपरम्परा कपोलकल्पित डॉ० सागरमल जी भी स्वीकार करते हैं कि उक्त समान गाथाएँ समान पूर्वपरम्परा से भगवती-आराधना में आयी हैं। किन्तु उन्होंने समान पूर्वपरम्परा के ही आधार पर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए एक कपोलकल्पित हेतु प्रस्तुत किया है। वह यह कि मूल निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का नहीं, अपितु श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव हुआ था। अतः इन दोनों सम्प्रदायों की ही समान पूर्वपरम्परा थी। इसलिए इन दोनों को ही समान पूर्वपरम्परा से समान तत्त्व प्राप्त हुए थे। फलस्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखनेवाली गाथाएँ जिन श्वेताम्बरेतर ग्रन्थों में हैं, वे यापनीय-सम्प्रदाय के ग्रन्थ हैं, दिगम्बर-सम्प्रदाय के नहीं। अपने इस मन्तव्य को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं- . "यदि हम यह स्वीकार न भी करें कि ये गाथाएँ श्वेताम्बरसाहित्य से 'आराधना' में ली गई हैं, तो यह तो मानना ही होगा कि दोनों की कोई सामान्य पूर्वपरम्परा थी, जहाँ से दोनों ने ये गाथाएँ ली हैं और सामान्य पूर्वपरम्परा श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) की थी, क्योंकि दोनों आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति-साहित्य के समानरूप से उत्तराधिकारी रहे हैं। अतः भगवती-आराधना में आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ६७ संथारग, मरणसमाही एवं नियुक्ति आदि की अनेकों गाथाओं की उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१३०)। डॉक्टर सा० द्वारा उपस्थित किया गया यह हेतु असत्य है, क्योंकि श्वेताम्बरों और यापनीयों की जिस सामान्य पूर्वपरम्परा से श्वेताम्बरीय गाथाओं-सदृश गाथाओं की भगवती-आराधना को उत्तराधिकार में प्राप्ति मानी गयी है, वह थी ही नहीं। इसकी सप्रमाण सिद्धि द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। अतः हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नही है। दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास नामक षष्ठ अध्याय में युक्ति-प्रमाण-पूर्वक सिद्ध किया गया है कि एकान्त-अचेल-मुक्तिवादी मूल निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से केवल नवीन श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति हुई थी, न कि श्वेताम्बर और यापनीय दो संघों की। अतः सामान्य पूर्वपरम्परा अर्थात् विभाजनपूर्व की समान आचार्यपरम्परा एकान्तअचेलमुक्तिवादी मूल निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) तथा उससे उत्पन्न नवीन श्वेताम्बरसंघ की थी, श्वेताम्बर और यापनीय संघों की नहीं। इससे सिद्ध है कि भगवती-आराधनाकार को उक्त सदृश गाथाएँ दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की इसी एकान्त-अचेलमुक्तिवादी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं। 'आराधना' की गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों में यद्यपि यह युक्तिसंगत है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में जो समान गाथाएँ हैं, वे दोनों सम्प्रदायों को उनकी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं, तथापि यह भी संभव है कि उनमें से अनेक दिगम्बरग्रन्थों से श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हों, क्योंकि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के साहित्य से स्वमतानुरूप सूक्तियाँ और नीतिकथाएँ निःसंकोच ग्रहण करता आया है। डॉ० सागरमल जी ने यह संभावना देखते हुए भगवतीआराधना का रचनाकाल उन श्वेताम्बरग्रन्थों के रचनाकाल से पश्चाद्वर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिनमें भगवती-आराधना की गाथाओं से मिलती-जुलती गाथाएँ हैं, ताकि यह सिद्ध न हो सके कि वे समान गाथाएँ भगवती-आराधना' से श्वेताम्बरग्रन्थों में आयी हैं, बल्कि यह सिद्ध हो कि श्वेताम्बरग्रन्थों से भगवती-आराधना में पहुंची हैं। उनका हेतुवाद निम्नलिखित वक्तव्य में दर्शनीय है "भगवती-आराधना के यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होने के सम्बन्ध में---एक अन्य महत्त्वपूर्ण आधार यह भी है कि उसमें श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य प्रकीर्णकों से अनेक गाथाएँ हैं। पं० कैलाशचन्द्र जी ने भगवती-आराधना की भूमिका में इसका उल्लेख Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ किया है। जिन प्रकीर्णकों की गाथाएँ भगवती-आराधना में मिलती हैं उनमें आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग, मरणसमाही प्रमुख हैं। यद्यपि पण्डित जी गाथाओं की इस समानता को तो सूचित करते हैं, फिर भी वे स्पष्टरूप से यह नहीं कहते हैं कि इन ग्रन्थों से ये गाथाएँ ली गई हैं। वस्तुतः इन गाथाओं के आदान-प्रदान के सम्बन्ध में तीन विकल्प हो सकते हैं। या तो ये गाथाएँ भगवती-आराधना से इन ग्रन्थों में गई हों या फिर भगवती-आराधनाकार ने इन ग्रन्थों से ये गाथाएँ ली हों अथवा ये गाथाएँ दोनों की एक ही पूर्वपरम्परा से चली आ रही हों, जिन्हें दोनों ने लिया हो। इसमें प्रथम विकल्प है कि भगवती-आराधना से इन ग्रन्थकारों ने ये गाथाएँ ली हों. यह इसलिए सम्भव नहीं है कि ये ग्रन्थ भगवती-आराधना की अपेक्षा प्राचीन हैं। नन्दी, मूलाचार आदि में इनमें से कुछ ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं। पुनः इन ग्रन्थों में गुणस्थान जैसे विकसित सिद्धान्त का भी निर्देश नहीं है, जबकि भगवती-आराधना में वह सिद्धान्त उपस्थित है। तीसरे यह स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ आकार में लघु हैं, जबकि 'आराधना' एक विशालकाय ग्रन्थ है। यह सुनिश्चित है कि प्राचीन स्तर के ग्रन्थ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिकरूप से याद रखना होता था, अत: वे 'आराधना' की अपेक्षा पूर्ववर्ती हैं। "भगवती-आराधना में विजहना (मृतक के शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है, वह प्रकीर्णकों में तो नहीं हैं, किन्तु भाष्य और चूर्णि में है। अतः प्रस्तुत 'आराधना' भाष्य-चूर्णियों के काल की रचना रही होगी। अतः यह प्रश्न तो उठता ही नहीं है कि ये गाथाएँ 'आराधना' से इन प्रकीर्णकों में गई हैं। "--- यह बात तो अनेक दिगम्बर विद्वान् भी मान रहे हैं कि मूलाचार और आराधना में अनेकों गाथाएँ समान हैं और मूलाचार में वे गाथाएँ आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, नियुक्ति आदि श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य ग्रन्थों से ही उद्धृत हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०)। इस वक्तव्य में डॉ० सागरमल जी ने भगवती-आराधना का रचनाकाल छठी शती ई० (भाष्य-चूर्णि का रचनाकाल) सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जो प्रकीर्णक ग्रन्थों और आवश्यकनियुक्ति के पश्चात् आता है। ऐसा करने के लिए उन्होंने जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे कपोलकल्पित एवं अनैकान्तिकता आदि दोषों से युक्त हैं अर्थात् असत्य एवं हेत्वाभास हैं। इसके प्रमाण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं७.१. गुणस्थान-विकासवाद नितान्त कपोलकल्पित डॉक्टर सा० के पूर्वोक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) से उनकी यह मान्यता प्रकट होती है कि "श्वेताम्बरीय प्रकीर्णकग्रन्थों में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, जब Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ६९ कि भगवती-आराधना में है। इससे सिद्ध होता है कि प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचनाकाल तक गुणस्थान-सिद्धान्त का विकास नहीं हुआ था, अतः प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना से पूर्वकालीन हैं। इसलिए उक्त समान गाथाएँ भगवती-आराधना से प्रकीर्णक ग्रन्थों में नहीं पहुँच सकतीं, फलस्वरूप प्रकीर्णक ग्रन्थों से ही भगवती-आराधना में पहुँची हैं।" किन्तु उक्त विद्वान् का गुणस्थान-विकासवाद सर्वथा कपोलकल्पित है, यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। गुणस्थान-सिद्धान्त भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट है, अतः उसके विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यतः गुणस्थान-विकासवाद का हेतु असत्य है, अतः यह निष्कर्ष भी असत्य है कि प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना से पूर्वकालीन हैं। ७.२. प्रकीर्णकों की रचना 'आराधना' के पश्चात् ____ यापनीयपक्षधर विद्वान् ने उपर्युक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) में प्रकीर्णक ग्रन्थों के भगवती-आराधना से पूर्ववर्ती होने का जो यह हेतु बतलाया है कि उनका उल्लेख नन्दीसूत्र और मूलाचार जैसे प्राचीन ग्रन्थों में हुआ है, वह भ्रामक है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि भगवती-आराधना का रचनाकाल प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है, और यह श्वेताम्बर स्रोतों से ही सिद्ध है कि भद्रबाहु-द्वितीयकृत आवश्यकनियुक्ति का रचनाकाल छठी शती ई० (वि० सं० ५६२, ई० सन् ५०५) है। तथा उपलब्ध प्रकीर्णक ग्रन्थों में वीरभद्ररचित आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा), आराधनापताका तथा चउसरण (चतुःशरण) ग्यारहवीं शती ई० (१००८ या १०७८ ई०) के हैं।८५ महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि के रचयिताओं के नाम अनुपलब्ध हैं, इसलिए इतिहास-लेखकों ने इनके काल का निर्देश नहीं किया है। ६ नन्दीसूत्र (५वीं शती ई०) में आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, देवेन्द्रस्तव आदि प्रकीर्णकों के नामों का उल्लेख है। अतः डॉ० सागरमल जी ने इनका रचनाकाल ५वीं शती ई० से पहले माना है, किन्तु नन्दीसूत्र की हिन्दीविवेचना में मुनि श्री लालमुनि जी एवं मुनि श्री पारसकुमार जी ने लिखा है कि इनका विच्छेद हो गया है।८ अर्थात् नन्दीसूत्र में इन विच्छिन्न प्रकीर्णकों के नाम ८४. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३८ ८५. डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/खण्ड २/पृ.४४ । ८६. वही/ पृ.४५। ८७. वही/ पृ.४४। ८८. नन्दीसूत्र की हिन्दी-विवेचना में २९ प्रकार के उत्कालिक शास्त्रों का वर्णन करने के बाद कहा गया है कि "इनमें से ८ विद्यमान हैं तथा २१ का विच्छेद हो गया है। (पृष्ठ ४०२)। For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ मात्र दिये गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि जो महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति आदि ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं, वे नन्दीसूत्र की रचना के बाद अर्थात् ५ वीं शती ई० के पश्चात् रचे गये हैं। ___ दूसरी बात यह है कि भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा) तो डॉक्टर सा० के ही कथनानुसार ११वीं शती ई० का ग्रन्थ है तथा उपलब्ध आतुरप्रत्याख्यान (वीरभद्ररचित), जिसकी गाथाओं को भगवती-आराधना में गृहीत माना गया है, वह भी ११वीं शती ई० में रचा गया है। भद्रबाहु-द्वितीयकृत आवश्यकनियुक्ति का रचनाकाल तो छठी शती ई० (विक्रम सं. ५६२ के लगभग)९ सर्वस्वीकृत है। इस प्रकार सिद्ध है कि आवश्यकनियुक्ति और प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना के बाद रचे गये हैं। फलस्वरूप उन्हें भगवतीआराधना से पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिए बतलाया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। ७.३. ग्रन्थ का बृहदाकार अर्वाचीनता का लक्षण नहीं ___ यापनीयपक्षधर विद्वान् के उपर्युक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) में तीसरा तर्क यह है कि "भगवती-आराधना बृहदाकार ग्रन्थ है, जब कि आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग, मरणसमाही आदि प्रकीर्णक ग्रन्थ आकार में लघु हैं। प्राचीन ग्रन्थ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिकरूप से याद रखना होता था। इसलिए सिद्ध है कि भगवती-आराधना इन प्रकीर्णक ग्रन्थों के बाद की रचना है।" यदि मान्य विद्वान् के इस तर्क को उचित मान लिया जाय, तो आचारांग, कल्पसूत्र, ज्ञातृधर्मकथा जैसे आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में छोटे-छोटे ३५७ सूत्र हैं, जो दस-बारह पृष्ठों में समा जाते हैं, जबकि आचारांग में सूत्र नहीं, आधे-आधे पृष्ठ के गद्यांश हैं और कोई-कोई तो एक-एक पृष्ठ के हैं तथा इनसे दो श्रुतस्कन्ध भरे हुए हैं, जिनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९ अध्ययन और प्रत्येक इन विच्छिन्न शास्त्रों में मरणविभक्ति आदि का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-मरणविभक्ति, इसमें मरण के १७ भेदों के स्वरूप, फल आदि का वर्णन था। आतुरप्रत्याख्यान, इसमें असाध्य ग्लान मुनि को विधिवत् आहार की कमी करते हुए भक्त-प्रत्याख्यान की विधि का वर्णन था। महाप्रत्याख्यान, इसमें भव के अन्त में किये जानेवाले अनशन आदि महाप्रत्याख्यानों का वर्णन था।" (नन्दीसत्र / पृष्ठ ४०२/ अ.भा. साधुमार्गी जैन संस्कृतिरक्षकसंघ, सैलाना म.प्र., सन् १९८४)। यहाँ भूतकालीन क्रियाओं के प्रयोग से सूचित होता है कि ये ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, अतः इनके नाम से जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनकी रचना नन्दीसूत्र की रचना के बाद की गई है। भगवती-आराधना की कथित गाथाएँ इन्हीं परवर्ती ग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं। ८९. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (सन् १९७७)। पृ. ४३८ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७१ अध्ययन में ४ से लेकर ८ उद्देशक हैं। और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन और प्रत्येक अध्ययन में कई उद्देशक हैं। इनके अतिरिक्त चार चूलाएँ हैं। ये गद्यांश हैं, इन्हें तो कोई कण्ठस्थ भी नहीं कर सकता, स्मृति में सुरक्षित रखना तो दूर की बात। कल्पसूत्र में भी कहीं-कहीं आधे-आधे पृष्ठ के गद्यांश हैं। ज्ञातृधर्मकथा तो अनेक कथाओं का संग्रहग्रन्थ है। इनकी तुलना में तत्त्वार्थसूत्र तो अत्यन्त लघुकाय ग्रन्थ है। उसे कण्ठस्थ करना अत्यन्त सरल है। सभी श्रमणों और अनेक श्रावकों को वह कण्ठस्थ होता है। अतः डॉक्टर सा० के तर्क के अनुसार आचारांग, ज्ञातृधर्मकथा, कल्पसूत्र आदि अनेक आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र से बहुत बाद के सिद्ध होंगे, जब कि वे उससे पूर्वकालीन हैं। जिस प्रकार आचारांगादि आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा विशालकाय होने पर भी तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध नहीं होते, उसी प्रकार भगवती-आराधना भी अपने बृहदाकार के कारण उपर्युक्त प्रकीर्णक ग्रन्थों से अर्वाचीन सिद्ध नहीं होती। ___ इस प्रकार ग्रन्थ के बृहदाकार होने का धर्म आचारांगादि प्राचीन ग्रन्थों में भी व्याप्त होने तथा तदपेक्षया तत्त्वार्थसूत्रादि अर्वाचीन ग्रंथों में अव्याप्त होने से अतिव्याप्ति एवं अव्याप्ति दोषों से युक्त है, अतः वह अर्वाचीनता का लक्षण नहीं है। फलस्वरूप वह हेत्वाभास है। उसके हेत्वाभास होने से भगवती-आराधना को आउरपच्चक्खाण, भक्तपरिण्णा आदि प्रकीर्णक ग्रन्थों से अर्वाचीन मानना भ्रान्तिजनित निष्कर्ष है। ७.४. वर्ण्यविषय की समानता रचनाकाल की समानता का लक्षण नहीं यापनीयपक्षधर विद्वान् ने भगवती-आराधना और भाष्य-चूर्णियों में 'विजहना' के वर्णन की समानता के कारण उन्हें समकालीन माना है। (देखिए , उपर्युक्त उद्धरण / जै. ध. या. स. / पृ.१२९-१३०) यदि ऐसा माना जाय, तो भगवती-आराधना द्वादशानुप्रेक्षा के वर्णन की समानता से मरणविभक्ति-कालीन, गुणस्थान-चतुर्विधध्यान आदि के वर्णनसाम्य से तत्त्वार्थसूत्रकालीन, अचेलत्व के गुणों के वर्णनसादृश्य से आचारांग-कालीन और कुन्दकुन्द की गाथाओं से साम्य रखनेवाली गाथाओं के समावेश से कुन्दकुन्दकालीन सिद्ध होगी। तथा यदि कोई विद्वान् आज प्राकृत में ग्रन्थ लिखकर उसमें 'विजहना' का उल्लेख करे, तो भगवती-आराधना के इक्कीसवीं सदी ई० में रचित होने का प्रसंग आयेगा। अतः वर्ण्यविषय की समानता किसी ग्रन्थ के रचनाकाल के निर्धारण का हेतु सिद्ध नहीं होती। अतः वह हेत्वाभास है। यतः भगवती-आराधना प्रथम शताब्दी ई० का ग्रन्थ है एवं आवश्यकनियुक्ति तथा उपलब्ध प्रकीर्णक ग्रन्थ पाँचवी शती ई० के बाद रचे गये हैं, अतः समान गाथाओं For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ का इन श्वेताम्बरग्रन्थों से भगवती-आराधना में आना संभव नहीं है, अपितु भगवतीआराधना से उनमें जाना संभव है। यापनीयपक्षधर विद्वान् ने लिखा है-"श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते।"९० मेरी दृष्टि से इसका कारण सम्भवतः यही है कि इन ग्रंथों की अधिकांश गाथाएँ दिगम्बरग्रंथों से ली गई हैं, जिससे वे उन्हें प्रमाणरूप नहीं मानते। ७.५. दिगम्बरीय-गाथाओं के श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँचने के प्रमाण यह तो एकदम स्पष्ट है कि आतुरप्रत्याख्यान और भक्तपरिज्ञा १ में निम्नलिखित गाथाएँ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से ली गई हैं, क्योंकि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए हैं और ये गाथाएँ उनके ग्रन्थों के अतिरिक्त किसी प्राचीन श्वेताम्बर-आगम में नहीं मिलती ममत्तिं परिवजामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे॥ नि.सा./९९, भा.पा./५७, आतुरप्रत्या./२३ । आदा खु मज्झ णाणे आदा मे देसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ स.सा./२७७, नि.सा./१००, भा.पा./५८,आतुरप्रत्या./२४ । एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ नि.सा./१०२, भा.पा./५९,आतुरप्रत्या./२६ । सम्मं मे सव्वभूदेसु वे मज्झं ण केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवजए॥ नि.सा./१०४,आतुरप्रत्या./२२। दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति॥ दंसणपाहुड/३, बारसाणुवेक्खा/१९, भक्तिपरिज्ञा /६६। ९०. डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृ.४३। ९१. कुन्दकुन्द की गाथाओं से साम्य रखनेवाली 'आतुरप्रत्याख्यान' एवं 'भक्तपरिज्ञा' की गाथाओं का उल्लेख सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी ने 'भगवती-आराधना' (शोलापुर) की प्रस्तावना (पृ.२७) में तथा डॉ० सागरमल जी ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' (पृ. १९२१९३) में किया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ७३ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि॥ सुत्तपाहुड/३। पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सो गओ वि संसारे। सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि॥ सुत्तपाहुड/४। सूई जहा ससुत्ता न न स्सइ कयवरम्मि पडिया वि। जीवो वि तह ससुत्तो न नस्सइ गओ वि संसारे॥ __ भक्तपरिज्ञा /८६। दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं। समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मझं॥ पंचमहागुरुभक्ति-कुन्दकुन्द। दुक्खक्खय कम्मक्खय समाहिमरणं च बोहिलाभो य। एयं पत्थेयव्वं न पत्थणिजं तओ अन्नं॥ भक्तपरिज्ञा / १३९। निम्नलिखित गाथाएँ भगवती-आराधना और भक्तपरिज्ञा दोनों में उपलब्ध होती हैं। इनकी विषयवस्तु पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि ये श्वेताम्बर-मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध हैं, क्योंकि इनमें आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग की बात कही गई है क- अब्भंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि। कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणवयणजोगेहिं॥ भगवती-आराधना / ११११ । अब्भिंतर-बाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि। कयकारियऽणुमईहिं कायमणोवायजोगेहिं॥ भक्तपरिज्ञा /१३१ । ख- संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं। भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमवि य जीवो॥ __ भगवती-आराधना /१११९ । संगनिमित्तं मारेइ भणइ अलियं करेइ चोरिक्कं। सेवइ मेहुण मुच्छं अप्परिमाणं कुणइ जीवो॥ भक्तपरिज्ञा/१३२। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ ग- संगो महाभयं जं विहेडिदो सावगेण संतेण। पुत्तेण चेव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साहुं॥ भगवती-आराधना / ११२४। संगो महाभयं जं विहिडिओ सावएण संतेणं। पुत्तेण हिए अत्थम्मि मणिवइ कुंचिएण जहा॥ भक्तपरिज्ञा / १३३। घ- सव्वगंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य। जं पावइ पीयिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ॥ भगवती-आराधना/११७६। सव्वगंथविमुक्को सीईभूओ पसंतचित्तो य। जं पावइ मुत्तिसुहं न चक्कवट्टी वि तं लहइ॥ भक्तपरिज्ञा / ११३४। भगवती-आराधना की इन गाथाओं में आभ्यन्तर और बाह्य, दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़ने का उपदेश दिया गया है और क्षेत्र, वास्तु , धन, धान्य, कुप्य (वस्त्र)९२ वर्तन, द्विपद, चतुष्पद, यान और शयन-आसन ये दस प्रकार की वस्तुएँ बाह्य परिग्रह बतलायी गयी हैं तथा कहा गया है कि मनुष्य इन्हीं के लिये जीवों को मारता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन करता है और अपरिमित इच्छा करता है। यह बाह्य परिग्रह महाभय का कारण है। जो इस समस्त परिग्रह से मुक्त हो जाता है, वह इतना सुखी होता है, जितना चक्रवर्ती भी नहीं हो सकता। ये गाथाएँ निरपवाद आचेलक्य९३ का प्रतिपादन करती हैं, जो दशवैकालिक सूत्र के इस कथन के विरुद्ध है कि "साधु लज्जा और संयम के लिए जो वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंच्छन रखता है, उसे भगवान् ने परिग्रह नहीं कहा, अपितु उसमें मूर्छा करने को परिग्रह कहा है।" भगवती-आराधना की उपर्युक्त गाथाओं में वस्त्रपात्रादि सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग को अपरिग्रह कहा गया है, जिससे सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध होता है। और यह बात डॉ० सागरमल जी ने स्वयं स्वीकार की है कि जहाँ मूर्छादि भावपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्यक मान लिया जाय, वहाँ स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध स्वाभाविक ही है। (जै.ध. या.स./ पृ.४१२)। अतः उक्त गाथाओं में प्रतिपादित सिद्धान्त श्वेताम्बरीय मान्यताओं के विरुद्ध ९२. "कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदयाटीका / भ. आ./ गा. 'बाहिरसंगा' १११३ / पृ.५७१ । ९३. "आचेलक्कुद्देसिय-चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.४२३ / पृ.३२० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ७५ है। इससे सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ मूलतः दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना की हैं, जो इनकी सैद्धान्तिक सूक्ष्मता पर ध्यान दिये बिना 'भक्तपरिज्ञा' के कर्ता द्वारा अपने ग्रन्थ में संगृहीत कर ली गई हैं। ७.६. परसाहित्यांश-ग्रहण से कर्तृत्व-परिवर्तन नहीं - यदि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के ग्रन्थों से कुछ अपने अनुकूल लेता भी है, तो इससे उस ग्रन्थ का कर्तृत्व नहीं बदल जाता। उत्तराध्ययनसूत्र में महाभारत और बौद्ध ग्रन्थों से अनेक श्लोक और गाथाएँ ली गई हैं। श्री मधुकर मुनि ने ज्ञाताधर्मकथांग की प्रस्तावना (पृ.३०) में निम्नलिखित उदाहरण दिये हैंमिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन। महाभारत/१२,१७,१८-१९ । मिथिलायां दह्यमानायां न मे किञ्चि अदह्यत। जातक/६/५४-५५। महिलाए डज्झमाणीए ण मे डज्झइ किंचणं। उत्तराध्ययन/९/१४। मासे मासे कुसग्गेन बालो भुजेय्य भोजनं। न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोळसिं॥ धम्मपद/७०। मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खाय धम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं॥ उत्तराध्ययन/९/४४। यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने। एकं च जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो॥ धम्मपद/१०३। जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुजए जिणे। एगं जिणेज अप्पाणं एस से परमो जओ॥ उत्तराध्ययन/९/३४। पंसु कूलधरं जन्तुं किसं धमनिसन्थतं। एकं वनस्मिं झायन्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥ धम्मपद/१३ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अविचय-मंस-सोणियं । तवस्सियं किसं दन्तं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं ॥ सुव्वयं उत्तराध्ययन / २५ / २२ उत्तराध्ययन की ऐसी अनेक गाथाएँ धम्मपद आदि की गाथाओं से साम्य रखती हैं । सूत्रकृतांग तथा इसिभासिय में भी धम्मपद की गाथाओं से मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ हैं । इस साम्य से यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तराध्ययन वैदिक या बौद्ध सम्प्रदाय का ग्रन्थ है । इसी प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में भगवती - आराधना से गाथाएँ ग्रहण किये जाने के कारण यह सिद्ध नहीं होता कि वे दिगम्बरग्रन्थ हैं। तथा भगवतीआराधना में कुन्दकुन्द की गाथाओं का उपलब्ध होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह कुन्दकुन्दकृत है । 44 अ० १३ / प्र० २ यापनीयपक्ष प्रेमी जी – “दश स्थितिकल्पों के नामवाली - गाथा, जिसकी टीका पर अपराजित सूरि को यापनीय सिद्ध किया गया है, जीतकल्पभाष्य की १९७२ नं. की गाथा है। श्वेताम्बर - सम्प्रदाय की अन्य टीकाओं और नियुक्तियों में भी यह मिलती है और प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड के स्त्रीमुक्तिविचार ( नया एडीशन, पृ. १३१ ) प्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धान्त के रूप में ही किया है- " नाचेलक्यं नेष्यते (अपि ईष्यतेव) 'आचेलक्कुद्देसिय- सेज्जाहर-रायपिंड - कियिकम्मे' इत्यादेः पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात् । " ८ 'आचेलक्कुद्देसिय' आराधना की मौलिक गाथा 'आराधना की ६६२ और ६६३ नम्बर की गाथाएँ भी दिगम्बरसम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती हैं। उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपक के योग्य निर्दोष भोजन और पानक (पेय) लावें । ९४ इस पर पं० सदासुख जी ने आपत्ति की है और लिखा है कि "यह भोजन लाने की बात प्रमाणरूप नाहीं ।" इसी तरह 'सेज्जागासणिसेज्जा' आदि गाथा पर (जो मूलाचार में भी ३९१ नं. पर है) कविवर वृन्दावनदास जी को शंका हुई थी और उसका समाधान ९४. चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६१ ॥ चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६२ ॥ भगवती - आराधना । For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७७ करने के लिए दीवान अमरचन्द्र जी को पत्र लिखा था। दीवान जी ने उत्तर दिया था कि "इसमें वैयावृत्ति करनेवाला मुनि आहार आदि से मुनि का उपकार करे, परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार स्वयं हाथ से बनाकर दे। मुनि की ऐसी चर्या आचारांग में नहीं बतलाई है।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७०-७१)। दिगम्बरपक्ष प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी और स्वयं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने स्वीकार किया है कि 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा उन गाथाओं में से है, जिनका अस्तित्व संघभेद से पूर्व था और संघविभाजन के बाद श्रुतिपरम्परा से दोनों सम्प्रदायों में चली आईं। यह पूर्व में सोद्धरण प्रतिपादित किया जा चुका है। (देखिये, प्रकरण २/शीर्षक ५)। इसलिए इसे श्वेताम्बर-आगमों से गृहीत मानकर शिवार्य को यापनीय सिद्ध करना न्यायोचित नहीं है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में इस गाथा का उल्लेख श्वेताम्बरसिद्धान्त के रूप में किया है, वह ठीक ही है। क्योंकि यह गाथा उनके ग्रन्थों में भी मिलती है। प्रभाचन्द्र ने इसे प्रमाणरूप में उद्धृत कर यह सिद्ध किया है कि मुनि के लिए अचेललिंग का उपदेश श्वेताम्बर-आगमों में भी मिलता है। अतः मोक्ष का यही परम्परागत मौलिक मार्ग है। सचेलमार्ग कल्पित है, भगवान् के द्वारा उपदिष्ट नहीं है। अतः भगवान् के उपदेश के अनुसार स्त्रियों के लिए अचेललिंग संभव न होने से स्त्रीमुक्ति सम्भव नहीं है। ___ माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी के कथन से भी इस बात का समर्थन होता है। वे लिखते हैं-"प्रेमी जी का यह लिखना यथार्थ है कि दसकल्पोंवाली गाथा श्वेताम्बरआगमसाहित्य में मिलती है। इसी से आचार्य प्रभाचन्द्र ने उसका उपयोग अपने पक्ष की सिद्धि में किया है कि आप लोग आचेलक्य नहीं मानते हैं, ऐसी बात नहीं है, आप भी मानते हैं और उन्होंने प्रमाणरूप से वही गाथा उद्धृत की है। किन्तु इससे वह गाथा तो श्वेताम्बरीय सिद्ध नहीं होती। मूलाचार में भी (१०/१७) यह गाथा आई है। आशाधर के अनगारधर्मामृत में (९/८०-८१) भी इसका संस्कृत रूप मिलता है। दस कल्प तो दिगम्बरपरम्परा के प्रतिकूल नहीं हैं, किन्तु अनुकूल ही हैं। इसका प्रबल प्रमाण प्रथमकल्प आचेलक्य ही है, जिसका अर्थ श्वेताम्बर-टीकाकारों ने अल्पचेल या अल्पमूल्यचेल आदि किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र उक्त गाथांश को उद्धृत करके लिखते हैं- "पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात्।" पुरुष के प्रति जो दश प्रकार के स्थितिकल्प कहे हैं, उनमें आचेलक्य का उपदेश है। अतः वह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ दश स्थितिकल्पों को अमान्य नहीं करते, उन्हें मान्य करके ही अपने पक्ष का समर्थन करते हैं।"९५ किन्तु रचनाकाल की पूर्वापरता के आधार पर विचार किया जाय, तो 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा जिन ग्रन्थों में प्राप्त होती है, उनमें दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० है तथा श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पनियुक्ति (भद्रबाहु द्वितीय) का छठी शती ई०९६ और जीतकल्पभाष्य (जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण)९७, बृहत्कल्पलघुभाष्य (संघदासगणि-क्षमाश्रमण)९८ एवं निशीथभाष्य (विसाहगणि-महत्तर),१९ इन सबका ७वीं शती ई० है। इससे सिद्ध होता है कि 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा मूलतः भगवती-आराधना की है। वहाँ से उपर्युक्त श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में ग्रहण की गई है। पं० सुखलाल जी संघवी के वचन पूर्व में उद्धृत किये गये हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि यह गाथा कल्पसूत्र और आचारांग में प्राप्त होती है, पर प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ने इन दोनों ग्रंथों को देखा है, दोनों में यह उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बरसाहित्य में यह गाथा सर्वप्रथम छठी शती ई० के नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीयकृत कल्पनियुक्ति (कल्पसूत्रनियुक्ति) में उपलब्ध होती है। श्वेताम्बर विद्वान् श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री लिखते हैं-"कल्पसूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या नियुक्ति और चूर्णि है। नियुक्ति गाथारूप है और चूर्णि गद्यरूप। दोनों की भाषा प्राकृत है। नियुक्ति के रचयिता द्वितीय भद्रबाहु हैं।" (कल्पसूत्र-प्रस्तावना/ पृ.१६) । उक्त मुनि जी का कथन है कि कल्पसूत्र की सभी व्याख्याओं में 'आचेलक्कुदेसिय' गाथा कल्पनियुक्ति से ही उद्धृत की गयी है। (कल्पसूत्र / परिशिष्ट १/टिप्पणी क्र. ३)। मुनि कल्याणविजय जी ने भी इसे कल्पनियुक्ति की ही गाथा बतलाया है। (श्रमण भगवान् महावीर/ पृ.३३६)। क्षपक के लिए मुनियों द्वारा आहार-आनयन अविरुद्ध संस्तरारूढ़ क्षपक के लिए चार मुनियों द्वारा आहार-पान लाये जाने का कथन भी दिगम्बरत्व-विरोधी नहीं है, क्योंकि 'चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति' गाथा ६६१ ९५. भगवती-आराधना (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७८ ई०)/ प्रस्तावना/पृ.३४-३५ । ९६. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैनागम साहित्य मनन और मीमांसा / पृ.४३८, ५४७ । ९७. वही/पृ.४६१, ४६९ । ९८. वही / पृ.४७३-७४। ९९. वही/पृ. ४७३, ४८२ तथा दलसुख मालवणिया-'निशीथ : एक अध्ययन'/पृ. ४४-४५/ निशीथसूत्र भाग १, पीठिका, सम्पादक-अमर मुनि जी/ भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली । द्वितीय संस्करण /१९८२ ई०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७९ में आयी उवकप्पेंति (उपकल्पन्ते, उपकल्पयन्ति) क्रिया में उप-1 क्लृप् अथवा उपक्लृिप्+णिच् ('कल्पयेत्'-वि.टी./भ.आ./गा.६६१) धातु का अर्थ प्रबन्ध करना है। अपराजित सूरि ने इसका अर्थ 'आनयन्ति' (लावें) किया है, वह भी घटित हो जाता है। यहाँ उपकल्पयन्ति का यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि मुनि स्वयं भोजन बनावें या श्रावकों के यहाँ से खुद याचना करके पात्रों में रखकर लावें। पाणितलभोजी शिवार्य का यह आशय हो ही नहीं सकता। उनका अभिप्राय यह है कि चार मुनि (अकेले मुनि का विहार निषिद्ध है) बस्ती में जाकर श्रावकों को संस्तरारूढ़ क्षपक मुनि के लिए योग्य आहारपान की आवश्यकता का संकेत करें, सूचना दें। सूचना पाकर श्रावक स्वयं योग्य आहार लेकर उपस्थित हो जायेंगे। जो क्षपक मुनि संस्तरारूढ़ है, निर्बलता के कारण चलने में असमर्थ है और अभी आहार-पान के सर्वथा त्याग की स्थिति नहीं आई है, उसके लिए आहारपान की व्यवस्था का यही उपाय हो सकता है। प्राचीन काल में मुनि बस्तियों से दूर ठहरते थे। आहार के लिए बस्तियों में जाते थे। इसलिए रुग्ण या संस्तरारूढ़ क्षपक के लिए भी वहीं से आहार की व्यवस्था करानी पड़ती थी। इस प्रकार वैयावृत्य में लगे मुनियों के द्वारा श्रावकों को संकेत कर क्षपक के लिए आहार का प्रबन्ध कराना ही आहार-पान को उपकल्पित करना है। यह दिगम्बरसिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रवचनसार में कहा है रोगेण वा क्षुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। .. दिट्ठा समणं साहू पडिवजदु आदसत्तीए॥ ३/५२॥ वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा॥ ३/५३॥ अनुवाद-"यदि कोई श्रमण रोग, भूख, प्यास अथवा थकावट से पीड़ित दिखाई दे, तो साधु को उसकी यथाशक्ति वैयावृत्य (सेवा) करनी चाहिए। रोग से पीड़ित गुरु (आचार्य), बाल (आयु में छोटे) तथा वृद्ध (आयु में बड़े) श्रमणों की वैयावृत्य के लिए यदि लौकिक-जनों से भी बातचीत करना आवश्यक हो, तो वह निन्दनीय नहीं है।" इससे स्पष्ट है कि मुनिगण रुग्ण या संस्तरारूढ़ क्षपक-मुनियों की वैयावृत्य हेतु आहारपान, औषधि आदि की व्यवस्था करने के लिए श्रावकों को निर्देश दे सकते हैं। यह दिगम्बर-सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। अतः भगवती-आराधना की उक्त गाथाओं को दिगम्बर-सिद्धान्त के प्रतिकूल मानकर शिवार्य को यापनीय सिद्ध करने का प्रयास यथार्थविरोधी है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० २ दीवान अमरचन्द्र जी की दृष्टि में भी मुनियों के द्वारा क्षपक के लिए इस प्रकार आहारपान का प्रबन्ध किया जाना अयुक्त नहीं था। पं० नाथूराम जी प्रेमी स्वयं इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि कवि वृन्दावन जी ने दीवान अमरचन्द्र जी से उपर्युक्त गाथाओं के औचित्य के विषय में जो प्रश्न किया था, उसके उत्तर से प्रतीत होता है कि "दीवान जी को मुनि का केवल स्वयं रसोई बनाना अयुक्त मालूम होता है, भोजन लाकर देना नहीं। परन्तु पं० सदासुखदास जी चूँकि ज्यादा कड़े तेरापन्थी थे, इस कारण उन्हें आहार लाकर देना भी ठीक नहीं जँचता था । ' १०० किन्तु सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने प्राचीनकाल की परिस्थितियों में मुनियों द्वारा आहार लाकर दिया जाना भी उचित माना है । वे लिखते हैं- " ज्ञानीजन यह जानते हैं कि जब क्षपक संस्तर पर आरूढ़ होता है, तब उसकी शारीरिक स्थिति कैसी होती है। वह गोचरी नहीं कर सकता। जब तक गोचरी करने में समर्थ होता है, तब तक संस्तरारूढ़ नहीं किया जाता। ऐसी स्थिति में यदि उसे भूखा-प्यासा रखा जाये, तो उसके परिणाम स्थिर नहीं रह सकते। अतः उस युग में जब साधु वनों में निवास करते थे, तब ऐसे मरणासन्न साधु के लिए यही व्यवस्था सम्भव थी कि अन्य साधु उसके योग्य खान-पान विधिपूर्वक लावें और उसे विधिपूर्वक देवें । आज की तरह उस समय साधुओं के निवासस्थान पर जाकर श्रावकों के चौके तो लगते नहीं थे, और लगते भी, तो इस प्रकार के उद्दिष्ट भोजन को वे स्वीकार नहीं कर सकते थे। गाथा में आहार लाने का स्पष्ट विधान है, अतः बनाकर देने की कोई बात ही नहीं है। इसलिए उक्त कथन दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध नहीं है। समाधि एकदो दिन में नहीं होती । उसमें समय लगता है और वही समय वैयावृत्य का होता है। १०१ इस प्रकार 'भगवती आराधना' की गाथाओं में वर्णित जो आचार दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है, उसे प्रतिकूल मान लिया गया है और उसे भगवती - आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए हेतुरूप में प्रस्तुत किया गया है। किन्तु यह हेतु असत्य है, अतः इसके आधार पर किया गया निर्णय भी असत्य है । अर्थात् भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है । १००. पं. नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ।' अनेकान्त' / वर्ष १ / किरण ३ / माघ, वी.नि.सं. २४५६ / पादटिप्पणी / पृष्ठ १५० । १०१. भगवती - आराधना (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ) / प्रस्तावना / पृ. ३५ । विशेष- यदि श्रावक किसी दूर स्थान में ठहरे हुए साधुओं के दर्शनार्थ जाते हैं और वहाँ वे भी ठहरकर अपने लिए भोजन बनाते हैं तथा उसमें से साधुओं को आहारदान करते हैं, तो वह उद्दिष्ट की परिभाषा में नहीं आता । For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र० २ भगवती - आराधना / ८१ १० 'तालपलंबसुत्तम्मि' में 'कल्प' के सूत्र का उल्लेख नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी — "गाथा ११२३ नं. की 'देसामासियसुत्तं " १०२ में तालपलंबसुत्तम्मि पद में जिस सूत्र का उल्लेख किया गया है, वह कल्पसूत्र (बृहत्कल्प) का है, जिसका प्रारंभ है तालपलंबं पण कप्पदि । इसकी विजयोदयाटीका में तथा चोक्तं कहकर 'कल्प' की दो गाथाएँ और दी और वे ही आशाधर ने 'कल्पे' कहकर उद्धृत की हैं। " (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७१ ) । तात्पर्य यह कि भगवती - आराधना में बृहत्कल्प के ताल लंब सूत्र का उल्लेख होना उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करता है । दिगम्बरपक्ष देसामासियसुत्तं गाथा नीचे दी जा रही है। यह आचेलक्कुद्देसिय गाथा (४२३) से उत्पन्न शंका के समाधान में लिखी गई है। 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा में मुनि के लिए दस स्थितिकल्पों का विधान किया गया है, जिनमें प्रथमकल्प आचेलक्य है। आचेलक्य का अर्थ है वस्त्र का त्याग । यहाँ शंका उत्पन्न होती है कि 'आचेलक्य' शब्द से क्या केवल वस्त्र का ही त्याग सूचित होता है, क्षेत्र, वास्तु, पात्र आदि का नहीं ?१०३ इसका समाधान भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा के द्वारा किया गया है देसामासियसुत्तं आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे । लुत्तोत्थ आदिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥ १११७ ॥ ". अनुवाद — “ दस प्रकार के स्थितिकल्पों में जो 'आचेलक्यसूत्र' है वह 'तालप्रलम्बसूत्र' के समान देशामर्शक है। यहाँ 'चेल' शब्द के साथ जुड़े 'आदि' शब्द का लोप हो गया है, जैसे 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द के साथ जुड़े 'आदि' शब्द का । देशामर्शक सूत्र का अर्थ है उपलक्षक वचन, अर्थात् एक पदार्थ के उल्लेख द्वारा तत्सदृश सभी पदार्थों का बोध करानेवाला संक्षिप्त लाक्षणिक शब्द या मुहावरा । जैसे कोई घर से बाहर जाते समय अपने पुत्र को आदेश देता है कि 'कौओं से १०२. जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से सन् १९७८ में तथा फलटण से सन् १९९० में प्रकाशित भगवती-आराधना में इस गाथा का क्रमांक १११७ है। १०३. “ श्रुतं चेलपरित्यागमेव सूचयति आचेलक्कमिति नेतरत्यागमित्याशङ्कायामाचष्टे – देसामासियसुत्तं।" (विजयोदयाटीका / पातनिका / भगवती - आराधना /गाथा १११७ / पृ.५७२) । For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ दही बचाना' (काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्), तो उसका आशय केवलं कौओं से ही नहीं है, अपितु दही को हानि पहुँचानेवाले सभी पशु-पक्षियों से है। अतः 'कौआ' शब्द सभी दधि-घातक पशुपक्षियों का उपलक्षक या देशामर्शक है। वैसे ही 'आचेलक्य' शब्द केवल चेल-परित्याग का वाचक नहीं है, अपितु चेल के साथ क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, भाण्ड (पात्र) आदि समस्त (दस प्रकार के) परिग्रह के त्याग का उपलक्षक है। 'चेल' शब्द के साथ समस्त परिग्रह का संकेत करनेवाला 'आदि' शब्द जुड़ा था, उसका लोप हो गया है, जिससे वह शेष परिग्रह का वाचक न रहकर उपलक्षक या देशामर्शक बन गया है। शिवार्य ने इसका उदाहरण तालप्रलंब-सूत्र से दिया है। इस उदाहरण के द्वारा वे स्पष्ट करते हैं कि जैसे 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द केवल ताड़वृक्ष का बोधक नहीं है, अपितु सभी प्रकार की वनस्पतियों का उपलक्षक है,१०४ वैसे ही 'आचेलक्य' पद में 'चेल' शब्द मात्र वस्त्र का वाचक नहीं है, अपितु सभी प्रकार के परिग्रह का उपलक्षक है। अतः चेलपरित्याग के विधान से सकलपरिग्रह के त्याग का विधान सूचित होता है।१०५ __ 'तालप्रलम्ब' शब्द श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर नि० सं० १७०) द्वारा रचित कहे जानेवाले श्वेताम्बर-आगम बृहत्कल्पसूत्र के "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहत्तए" (साधु-साध्वियों को कोई भी वनस्पति कच्ची [अपक्व] और विना छिन्न-भिन्न किये नहीं खानी चाहिए), इस सूत्र में भी आया है। टीकाकार अपराजित सूरि ने इसे तथा इसके भाष्य की दो गाथाएँ १०६ उद्धृत कर श्वेताम्बर जिनकल्पी साधओं को लक्ष्य करते हुए इस तथ्य को पुष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जैसे बृहत्कल्प के उपर्युक्त सूत्र में तालप्रलम्बसूत्र देशामर्शक है, अतः सभी प्रकार की वनस्पति को अपक्व और अभग्न अवस्था में खाने का निषेध करता है, वैसे ही भगवती-आराधना में 'आचेलक्यसूत्र' भी देशामर्शक है, अतः उसमें 'चेल' शब्द के द्वारा वस्त्रपात्रादि सकल परिग्रह के त्याग का विधान किया गया है। इससे पंडित नाथूराम जी प्रेमी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि शिवार्य ने तालपलंबसुत्तम्मि पद में सुत्त शब्द से बृहत्कल्प के 'नो कप्पइ निग्गंथाण' १०४. " तालपलंबं ण कप्पदिति सूत्रे तालशब्दो न तरुविशेषवचनः किन्तु वनस्पत्येकदेशस्तरुविशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतः।" विजयोदयाटीका/भगवती-आराधना/गा. १११७/ पृ.५७३ । १०५. "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थ इति।" विजयोदया - टीका / भ.आ./गा.१११७ / पृ.५७३। १०६. देखिए, उद्धृत गाथाएँ आगे विन्दु क्र. ५ के अन्तर्गत। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ८३ इत्यादि सूत्र का निर्देश किया है, अतः वे यापनीय थे। यह निष्कर्ष सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण हैं, क्योंकि १. 'तालपलंबसुत्तम्मि' पद में 'सुत्त' शब्द से किसी अन्य सूत्र का उल्लेख नहीं किया गया है, अपितु 'तालपलंब' पद को ही देशामर्शक (उपलक्षक = एकदेश के कथन द्वारा सर्व का बोध करानेवाला) होने के कारण 'सूत्र' शब्द से अभिहित किया गया है, जैसे 'आचेलक्कं' को देशामर्शक होने से सूत्र संज्ञा दी गई है।०७ २. जैसे 'आचेलक्कं' शब्द जिस गाथा में है, वह गाथा देशामर्शक नहीं है, इसलिए शिवार्य ने उसे देशामर्शकसूत्र की संज्ञा नहीं दी, वैसे ही 'तालपलंब' शब्द जिस वाक्य या सूत्र में प्रयुक्त होता है, वह देशामर्शक नहीं होता, इसलिए उसकी देशामर्शकसूत्र संज्ञा नहीं हो सकती। अतः 'तालपलंबसुत्त' शब्द से बृहत्कल्प के पूर्वोक्त सूत्र का उल्लेख मानना युक्तिसंगत नहीं है। ३. दिगम्बराचार्य वीरसेन स्वामी ने भी धवलाटीका में 'तालपलंबसुत्त' का देशामर्शक सूत्र के दृष्टान्त के रूप में निर्देश किया है,१०८ किन्तु वे यापनीय नहीं थे। इसलिए उनके विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने 'सूत्र' शब्द से बृहत्कल्प के सूत्र का उल्लेख किया है। अतः यह निष्कर्ष गलत सिद्ध हो जाता है कि तालपलंबसुत्त शब्द का प्रयोग जहाँ किया गया है, वहाँ बृहत्कल्प के उक्त सूत्र का उल्लेख है, अत एव उल्लेखकर्ता यापनीय है। ४. भगवती-आराधना में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों के प्रतिपादन से स्पष्ट है कि शिवार्य यापनीय नहीं थे। इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने 'तालपलंबसुत्तम्मि' में बृहत्कल्प के सूत्र का उल्लेख नहीं किया। ५. 'तालप्रलम्ब' संस्कृत का और तालपलंब प्राकृत का शब्द है। उसका वाच्यार्थ है ताड़वृक्ष की जटा।०९ किन्तु उसका पूर्वपद 'ताल' सभी प्रकार की वनस्पति के उपलक्षक के रूप में भी लोकप्रसिद्ध रहा है। अतः 'तालप्रलम्ब' शब्द वनस्पतिमात्र को उपलक्षित करनेवाले एक मुहावरे या लोकप्रसिद्ध लाक्षणिक शब्द के रूप में रूढ़ १०७. "परिग्रहैकदेशामर्शकारिसूत्रमाचेलक्यमिति।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १११७/ पृ.५७२। १०८. "कधमिदं सुत्तं मंगल-णिमित्त-हेउ-परिमाण-णाम-कत्ताराणं सकारणाणं परूवयं? ण, तालपलंबसुत्तं व देसामासियत्तादो।" धवला / षटखण्डागम । पु.१ / १,१,१/ पृ. ९ तथा "तालपलंबसुत्तं व तस्स देसामासियत्तादो" धवला / षट्खण्डागम / पु.६ / १, ९-८, ५/ पृ. २३०। । १०९. सर मोनियर मोनियर विलियम्स : संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ हो गया। इसीलिए बृहत्कल्प के नो कप्पइ निग्गंथाण इत्यादि सूत्र में उसे सर्वविध वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। बृहत्कल्प के भाष्यकार ने निम्नलिखित गाथाओं में स्पष्ट किया है कि 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द वनस्पति के किन प्रकारों का बोधक है हरिततणोसहिगुच्छा गुम्मा वल्लीलदा य रुक्खा य। एवं वणप्फदीओ तालोद्देसेण आदिट्ठा॥ इति॥ तालेदि दलेदित्तिव तलेव जादेत्ति उस्सिदो वत्ति। तालादिणो तरुत्तियवणप्फदीणं हवदि णाम॥१० अनुवाद-"ताल शब्द से हरिततृण, औषधि, गुच्छा, बेल, लता, वृक्ष इत्यादि वनस्पतियों का कथन किया गया है। 'ताल' शब्द 'तल्' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'तल' शब्द का अर्थ ऊँचाई भी है। जो स्कन्धरूप से ऊँचा वृक्षविशेष होता है, वह ताल वृक्ष कहलाता है। 'तालादि' में 'आदि' शब्द से वृक्ष, फूल, पत्ता आदि वनस्पति अर्थ लेना चाहिए।" यदि 'तालप्रलम्ब' समास में आया 'ताल' शब्द उपर्युक्त वनस्पतियों के उपलक्षक के रूप में प्रसिद्ध न होता, तो तालप्रलम्बसूत्र में उसका प्रयोग करने से सूत्रकार का प्रयोजन सिद्ध न होता, क्योंकि कोई भी अध्येता यह न समझ पाता कि उस शब्द के द्वारा उपर्युक्त वनस्पतियों के अपक्व और अभग्न दशा में भक्षण का निषेध किया गया है। सभी की समझ में यह आता कि केवल ताड़वृक्ष के प्रलम्ब (जटा) का ही भक्षण निषिद्ध किया गया है। तथा भाष्यकार भी यह स्पष्ट न कर पाते कि उक्त समास में 'ताल' शब्द उपर्युक्त वनस्पतियों का उपलक्षक है। पुनः उक्त वनस्पतियों के उपलक्षक के रूप में लोकप्रसिद्ध न होने पर उसका यह अर्थ सर्वस्वीकार्य भी न होता। अतः वह देशामर्शकत्व का दृष्टान्त भी नहीं बन सकता था। यतः कल्पसूत्रकार ने 'तालप्रलम्ब' पद के उपलक्षकत्व को स्पष्ट किये बिना उसका उपलक्षक के रूप में प्रयोग किया है तथा भगवती-आराधनाकार ने 'आचेलक्य' के और धवलाकार ने णमोकारमंत्र-रूप मंगलसूत्र के देशामर्शकत्व की पुष्टि के लिए उसे दृष्टान्त के रूप में उपस्थित किया है,११ इससे सिद्ध है कि वह वनस्पति मात्र के उपलक्षक के रूप में लोकप्रसिद्ध था, अत एव सर्वस्वीकृत था। अर्थात् वह एक असाम्प्रदायिक प्रयोग है। अतः उसे केवल श्वेताम्बरीय ग्रन्थ (बृहत्कल्प) का विशिष्ट प्रयोग मानना युक्तिसंगत नहीं है। ११०. 'भगवती-आराधना' की 'देसामासियसुत्तं' गाथा १११७ की विजयोदयाटीका में उद्धृत। १११. देखिए , पादटिप्पणी १०८। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना / ८५ अ० १३ / प्र० २ इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवती - आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत किया गया यह हेतु कि उसकी 'देसामासियसुत्तं' गाथा में जो तालपलंबसुत्तम्मि पद आया है, उस में बृहत्कल्प के सूत्र का उल्लेख है, एकदम सत्य है। असत्य होने से यह निर्णय भी असत्य है कि भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ है। ११ दिगम्बर मुनि भी पाणितलभोजी यापनीयपक्ष प्रेमी जी - " शिवार्य ने अपने को 'पाणितलभोजी' अर्थात् हथेलियों पर भोजन करने वाला कहा है । यह विशेषण उन्होंने अपने को श्वेताम्बरसम्प्रदाय से अलग प्रकट करने के लिए दिया है । यापनीय साधु हाथ पर ही भोजन करते थे।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.६९) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बर साधु भी पाणितलभोजी होते हैं, अतः पाणितलभोजित्व यापनीय साधुओं का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है। इसलिए वह शिवार्य के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है, अर्थात् हेतु जैसा दिखनेवाला अहेतु है । अतः हेत्वाभास से किया गया यह निर्णय कि शिवार्य यापनीय थे, भ्रान्तिपूर्ण है । अर्थात् शिवार्य यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे । वस्तुतः शिवार्य ने अपने दिगम्बरत्व को सूचित करने के लिए उक्त विशेषण का प्रयोग किया है। पण्डित परमानन्द जी शास्त्री ने इस विषय पर प्रकाश डालते हुए लिखा है " द्वितीय गाथा में प्रयुक्त हुए ग्रन्थकार के पाणिदलभोड़णा इस विशेषणपद से इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य शिवकोटि ने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की है, जब कि जैनसंघ में दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद की उत्पत्ति हो गयी थी । उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए ग्रन्थकर्त्ता ने अपने साथ उक्त विशेषणपद का लगाना उचित समझा है ।" ११२ 'अनेकान्त' के सम्पादक पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी ऐसा ही मत - प्रकट किया है। वे अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में लिखते हैं ११२. 'भगवती - आराधना और शिवकोटि ' / ' अनेकान्त / वर्ष २ / किरण ६ / वीर नि.सं. २४६५ / १ अप्रैल, १९३९ / पृष्ठ ३७३ । For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० २ 44 " इसमें ग्रन्थकर्त्ता शिवार्य ने अपना जो विशेषण 'पाणितलभोजी' दिया है, उससे इतना तो साफ ध्वनित होता है कि इस ग्रन्थ की रचना उस समय हुई है, जब कि जैनसमाज में करतलभोजियों के अतिरिक्त मुनियों का एक दूसरा सम्प्रदाय पात्र में भोजन करनेवाला भी उत्पन्न हो गया था। उसी से अपने को भिन्न दिखलाने के लिए इस विशेषण के प्रयोग की जरूरत पड़ी है। यह सम्प्रदायभेद दिगम्बर और श्वेताम्बर का भेद है, जिसका समय उभय सम्प्रदायों द्वारा क्रमशः विक्रम सं० १३६ तथा वी० नि० सं० ६०९ (वि० सं० १३९) बतलाया जाता है। इससे यह ग्रन्थ इस भेदारम्भसमय के कुछ बाद का अथवा इसके करीब का रचा हुआ है, ऐसा जान पड़ता है ।" " ११३ १२ मेतार्य मुनि की कथा : लोककथा यापनीयपक्ष 44 प्रेमीजी - " आराधना की ११३२वीं गाथा में 'मेदस्स मुणिस्स अक्खाणं' (मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनि की कथा का उल्लेख किया गया है। पं० सदासुख जी ने अपनी वचनिका में इस पद का अर्थ ही नहीं किया है । यही हाल नई हिन्दीटीका के कर्त्ता पं० जिनदास शास्त्री का भी है। संस्कृत टीकाकार पं० आशाधर जी ने तो इस गाथा की विशेष टीका इसलिए नहीं की है कि वह सुगम है, परन्तु आचार्य अमितगति ने इसका संस्कृत अनुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? वे मेतार्य के आख्यान से परिचित नहीं थे, शायद इसी कारण । "मेतार्यमुनि की कथा श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध है । वे एक चाण्डालिनी के लड़के थे, परन्तु किसी सेठ के घर पले थे । अत्यन्त दयाशील थे । एक दिन वे एक सुनार के यहाँ भिक्षा के लिए गये। उसने अपनी दूकान में उसी समय सोने के जौ बनाकर रक्खे थे। वह भिक्षा लाने के लिए भीतर गया और मुनि वहीं दूकान में खड़े रहे, जहाँ जौ रक्खे थे। इतने में एक क्रौञ्च (सारस) पक्षी ने आकर वे जौ चुग लिए । सुनार को सन्देह हुआ कि मुनि ने ही जौ चुरा लिए हैं। मुनि ने पक्षी को चुगते तो देख लिया था, परन्तु इस भय से नहीं कहा कि यदि सच बात मालूम हो जायेगी, तो सुनार सारस को मार डालेगा और उसके पेट में से अपने जौ निकाल लेगा। इससे सुनार को सन्देह हो गया कि यह काम मुनि का ही है, ११३. 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ' इस लेख पर सम्पादकीय टिप्पणी / 'अनेकान्त '/ वर्ष १ / किरण ३ / माघ / वी. नि. सं. २४५६ / पृ. १४८ । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र० २ भगवती - आराधना / ८७ इसने ही जौ चुराये हैं । तब उसने उन्हें बहुत कष्ट दिया और अन्त में भीगे चमड़े में कस दिया। इससे उनका शरीरान्त हो गया और उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । मेरी समझ में इस ढंग की कथा दिगम्बर - सम्प्रदाय में नहीं है । चाण्डालिनी के लड़के का मुनि होना भी शायद दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुकूल नहीं है।" (जै. सा. इ. / प्र. सं./पृ. ५७-५८ तथा पृ. ५८ की पा. टि. २ ) । भगवती - आराधना में इस श्वेताम्बरीय कथा के उल्लेख को प्रेमी जी ने शिवार्य के यापनीयसंघी होने का हेतु माना है । दिगम्बरपक्ष प्रेमी जी ने उपर्युक्त विचार 'जैन साहित्य और इतिहास' के प्रथम संस्करण में व्यक्त किये हैं। बाद में उन्हें पता चला कि मेतार्य मुनि की कथा हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में भी उपलब्ध है । ११४ तब उन्होंने उक्त ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में यह वाक्य हटा दिया कि "मेरी समझ में इस ढंग की कथा दिगम्बरसम्प्रदाय में नहीं है" और यह वाक्य जोड़ दिया कि " हरिषेणकृत कथाकोश में मेतार्य मुनि की कथा है, परन्तु उसमें श्वेताम्बरकथा से बहुत भिन्नता है ।" ११५ यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रेमी जी ने अपने उपर्युक्त ग्रन्थ में हरिषेण को दिगम्बर ही माना है । ११६ अब प्रश्न है कि जब मेतार्य मुनि की कथा दिगम्बर- साहित्य में भी उपलब्ध है और उसका स्वरूप श्वेताम्बरीय कथा से बहुत भिन्न है, तब भगवती - आराधना में उल्लिखित इस कथा को प्रेमी जी ने श्वेताम्बरीय कथा का उल्लेख कैसे मान लिया ? और श्रीमती कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने भी उनकी बात को बिना स्वयं छान-बीन किये कैसे स्वीकार कर लिया ? विद्वज्जनों की इस प्रवृत्ति पर आश्चर्य और खेद ही प्रकट किया जा सकता है। बृहत्कथाकोश - गत मेतार्यमुनि - कथा की श्वेताम्बरीय कथा से जो अत्यन्त भिन्नता है, वह दर्शनीय है— १. श्वेताम्बरीय कथा में मेतार्यमुनि को चाण्डलिनी - पुत्र कहा गया है, लेकिन बृहत्कथाकोश के १०५ वें हस्तक श्रेष्ठि-कथानक में उन्हें राजश्रेष्ठी का पुत्र और स्वयं राज श्रेष्ठी बतलाया गया है ११४. जैन साहित्य और इतिहास (प्रथम संस्करण) / पृष्ठ ५७१ । ११५. वही (द्वितीय संस्करण) / पृ. ६९-७० । ११६. वही (प्रथम संस्करण) / पृ. ४४६ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ मेघदत्ततनूजोऽहं मेदज्जाख्यो नरेश्वर। जातो भवत्प्रसादेन राजश्रेष्ठी महाधनः॥ २३४॥ २. श्वेताम्बरकथा में मेतार्य का सवस्त्र मुनि होना निर्विवाद है, किन्तु बृहत्कथाकोश के हस्तकश्रेष्ठि-कथानक में उन्हें दिगम्बरमुनि के रूप में चित्रित किया गया है। जब अच्युतेन्द्र गृहस्थावस्था में उनसे बार-बार मुनिदीक्षा लेने का आग्रह करता है, तब वे कुपित होकर उससे कहते हैं-"कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ रहते हो तुम, जो मेरे पास बार-बार आकर ऐसा कहते हो? इन देवोपम भोगों को छोड़कर नंगा होने से क्या फायदा? ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो घर में ही सब कुछ उपलब्ध होने पर भी भिक्षा के लिए गली-गली भटकता फिरे?" देखिए पूर्णेषु द्वादशाब्देषु देवः सम्प्राप्य तं जगौ। मेदज्ज कुरु जैनेन्द्रं तपो निवृत्तिकारणम्॥ १९७॥ देववाक्यं समाकर्ण्य मेदज्जोऽमरकुञ्जरम्। बभाण भासुराकारः . कोपलोहितलोचनः॥ १९८॥ कोऽसि त्वं वद किं नाम क्व वास्तव्यो महान् किल। भूयो भूयोऽपि मां प्राप्य येनेदं भाषसे बुध ॥ १९९॥ हित्वा देवोपमान् भोगान् नग्नत्वेन करोमि किम्। गृहसिद्धेन को नाम भिक्षां भ्रमति मूढधीः॥ २००॥ यहाँ 'नग्नत्वेन करोमि किम्?' (नग्न होकर मैं क्या करूँगा?) इन वचनों से स्पष्ट है कि अच्युतेन्द्र मेतार्य से दिगम्बरमुनि बनने का आग्रह करता है। अन्त में जब मेतार्य को वैराग्य हो जाता है, तब वे अपने राजा सिंहवाहन के साथ श्रीधर्मगुरु से दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं, जैसा कि उक्त कथानक के निम्नलिखित श्लोकों में कहा गया है मेदज्जोऽपि स्वपुत्रस्य श्रीदत्तस्य महात्मनः। श्रेष्ठिपढें बबन्धोच्चैस्तदानीं भूपसाक्षिकम्॥ २५७॥ राजादिकस्य लोकस्य कृत्वा त्रेधा क्षमापणम्। श्रीधर्मगुरु-सामीप्ये मेदज्जोऽशिश्रियत्तपः॥ २५८॥ तिलकश्रीस्तथा साध्वी कीर्तिषेणासमन्विता। द्वात्रिंशच्छेष्ठिसद्भार्याः सुव्रतान्ते प्रवव्रजुः॥ २५९॥ सिंहवाहन-भूपालो विषवाहन-सूनवे। दत्त्वा राज्यश्रियं सर्वां सामन्तादिपुरस्सरम्॥ २६०॥ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ८९ महावैराग्यसम्पन्नः सामन्तान्तःपुरान्वितः। श्रीधर्मगुरुसामीप्ये दधौ दैगम्बरं तपः॥ २६१॥ ___३. श्वेताम्बरीय कथा में कहा गया है कि मेतार्य मुनि भिक्षा के लिए सीधे स्वर्णकार के यहाँ गये, किन्तु बृहत्कथाकोश के उपर्युक्त कथानक में वर्णन है कि वे मध्याह्नवेला में आहारचर्या के समय घर-घर भ्रमण करते हुए स्वर्णकार के यहाँ पहुँचे और स्वर्णकार ने उनका प्रतिग्रहण (पड़गाहन) किया गृहाद् गृहान्तरं भ्राम्यन् मेदज्जाख्यो महामुनिः। तत्कलाद-गृहं प्राप प्रलम्बितभुजद्वयः॥ २६८॥ दृष्ट्वा स्वगृहमायातं चर्यामार्गेण योगिनम्। मन्दं मध्याह्नवेलायां कलादोऽतिष्ठिपन्मुनिम्॥ २६९॥ आहारचर्या की यह विधि दिगम्बरमतानुकूल है। ४. श्वेताम्बरीय कथा के अनुसार स्वर्णकार ने स्वर्ण के जौ बनाकर रखे थे, जिन्हें क्रौञ्च पक्षी ने आकर चुग लिया। किन्तु बृहत्कथाकोश में बतलाया गया है कि स्वर्णकार पद्मरागादि मणियों से राजा का मुकुट बना रहा था। उसी समय काकतालीयन्याय (दैवयोग) से एक मोर क्रीडा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा और जिस समय स्वर्णकार मेतार्य मुनि का पड़गाहन कर भीतर गया, उसी समय मोर ने पद्मरागमणि को निगल लिया। यह दृश्य मुनि देख रहे थे। जब स्वर्णकार बाहर आया, तब उसे वह मणि दिखाई नहीं दिया। उसने मुनि से पूछा कि आपने यहाँ से किसी को मणि ले जाते हुए देखा है? मुनि मौनव्रत धारण किये हुए थे, इसलिए वे कुछ नहीं बोले। तब स्वर्णकार ने क्रोध में आकर मुनि पर यष्टिप्रहार किया। दैवयोग से वह मुनि को न लगकर मोर के गले में लगा, जिससे पद्मरागमणि मोर के गले से निकलकर बाहर टपक पड़ा। (बृ.क.को./हस्तकश्रेष्ठि-कथानक /श्लोक २७०-७७)। ५. श्वेताम्बरकथा में बतलाया गया है कि स्वर्णकार ने मेतार्य मुनि को बहुत कष्ट देकर भीगे चमड़े में कस दिया, जिससे उनका शरीरान्त हो गया और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके विपरीत बृहत्कथाकोशकार उपर्युक्त कथानक में कहते हैं कि उपसर्ग समाप्त होने पर मेतार्य मुनि आहार ग्रहण किये बिना ही कौशाम्बी नगरी से लगे हुए देवपाद नामक उत्तुंग पर्वत पर चढ़ गये और जीवनपर्यन्त आहारत्याग का नियम लेकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। इस प्रकार स्थित रहने पर वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क-वीचार शुक्लध्यान ध्याते हुए क्रमशः अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, और क्षीणकषाय गुणस्थानों को प्राप्त हुए। क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। पश्चात् विहार For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ करते हुए खड्गवंश नामक पर्वत पर उनका निर्वाण हो गया। इस वृत्तान्त का वर्णन हस्तकश्रेष्ठि-कथानक के निम्नलिखित पद्यों में किया गया है उपसर्गावसाने च तत्कलाद-गृहादरम्। अकृताहारसम्बन्धी निर्जगाम स धीरधीः॥ २७८॥ कौशाम्बीकापुरं लग्नं देवपादाभिधं गिरिम्। आरुरोह समुत्तुङ्गं भेदज्जाख्यो मुनिस्तदा॥ २७९॥ यावज्जीवं विधायात्र शरीराहारपूर्वकम्। नियम स मुनिर्धारः कायोत्सर्गेण तस्थिवान्॥ २८०॥ एवं स्थित्वा मुनिस्तत्र क्षपकश्रेणिकारणात्। आद्यं पृथक्त्ववीचारं शुक्लध्यानं प्रविष्टवान्॥ २८१॥ तच्छुक्लध्यानयोगेन सूक्ष्मादौ साम्परायिके। स्थित्वा स्थाने ददाहायं मोहनीयं विशेषतः॥ २८२॥ ततः क्षीणकषायाख्यस्थाने स्थित्वा सधीरधीः। ध्यानमेकत्ववीचारं द्वितीयं शुक्लमाश्रितः॥ २८३॥ अयमेकत्ववीचारध्यानयोगेन सत्वरम्। अन्तरायं निहन्ति स्म कर्म चावरणद्वयम्॥ २८४॥ सयोगिस्थानमाप्तस्य मेदज्जाख्यमुनेररम्।। केवलज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम्॥ २८५॥ मेदज्जकेवली कृत्वा विहारं केवलस्य सः। पर्वते खड्गवंशाख्ये निर्वाणमगमत्पुनः॥ ३३४॥ इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बरीय कथा में मेतार्य मुनि को जिस ढंग से (कायोत्सर्ग, क्षपकश्रेणी, शुक्लध्यान और उच्चतर गुणस्थानों की प्राप्ति के बिना) केवलज्ञान और निर्वाण की उपलब्धि बतलायी गयी है, वह दिगम्बरजैन-सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है, किन्तु बृहत्कथाकोश में जिस रीति से बतलायी गयी है, वह दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बरसाहित्य में भी मेतार्य मुनि की कथा है और वह दिगम्बरमतानुरूप है। हरिषेण ने कहा है कि उन्होंने आराधनाग्रंथ से कथाएँ उद्धत कर कथाकोश का निर्माण किया है।११७ इससे स्पष्ट होता है कि चारधाः। ११७. आराधनोद्धतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम्। हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले॥ बृहत्कथाकोश/प्रशस्ति / श्लोक ८। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९१ 'भगवती-आराधना' आदि आराधना-ग्रन्थों में जो कथाएँ हैं, अथवा (अनुपलब्ध आराधनाग्रन्थों में) रही होंगी, वे दिगम्बरपरम्परा की ही कथाएँ हैं। अतः भगवतीआराधना में उल्लिखित मेतार्य मुनि की कथा भी दिगम्बरसाहित्य की ही कथा है, उसे श्वेताम्बरीय कथा मानने का कोई आधार नहीं है। फलस्वरूप उसे श्वेताम्बरीय कथा मानना असत्य मान्यता है। अतः इस हेतु के असत्य होने से इसके आधार पर किया गया निर्णय भी असत्य है। अर्थात् भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। आश्चर्य तो यह है कि प्रेमी जी को जब यह पता चल गया कि दिगम्बरग्रन्थ बृहत्कथाकोश में भी मेतार्य मुनि की कथा है और वह दिगम्बरमत के सर्वथा अनुरूप है, तब भी उन्होंने अपने ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में इस हेतु को निरस्त नहीं किया। 'विजहना-विधि' दिगम्बरपरम्परानुकूल यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"आराधना का चालीसवाँ 'विजहना' नामक अधिकार भी विलक्षण और दिगम्बर-सम्प्रदाय के लिए अभूतपूर्व है, जिसमें मुनि के मृत शरीर को रात्रिभर जागरण करके रखने की और दूसरे दिन किसी अच्छे स्थान में वैसे ही (बिना जलाये) छोड़ आने की विधि वर्णित है। अन्य किसी दिगम्बरग्रन्थ में अभी तक यह पारसी लोगों जैसी विधि देखने में नहीं आई है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.५९)। दिगम्बरपक्ष __इन्हीं प्रेमी जी ने अपने एक पूर्व लेख में इस विधि का विस्तार से वर्णन किया है और स्वयं उन्होंने इसका औचित्य इन शब्दों में प्रतिपादित किया है "जहाँ तक हम जानते हैं, बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि पारसियों के समान जैन साधुओं का शरीर भी पूर्वकाल में खुली जगह में छोड़ दिया जाता था और उसे पशु-पक्षी भक्षण कर जाते थे। वास्तव में सर्वथा स्वावलम्बशील साधुसमुदाय के लिए, जो जनहीन जंगल-पहाड़ों के रास्ते हजारों कोस विहार करता था, इसके सिवाय और विधि हो ही नहीं सकती थी। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के विद्वानों से मालूम हुआ कि उनके ग्रन्थों में भी मुनियों के शवसंस्कार की पुरातन विधि यही है।" ११८ ११८. पं० नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ'। 'अनेकान्त'। वर्ष १/ किरण ३/माघ, वीर नि.सं. २४५६ / पृष्ठ १५१। For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ डॉ० सागरमल जी ने भी लिखा है कि "भगवती आराधना में विजहना (मृतक शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है वह प्रकीर्णकों में तो नहीं है, किन्तु भाष्य और चूर्णि में है।" (जै.ध. या.स./ पृ.१३०)। माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी विजहनाविधि के औचित्य को दर्शाते हुए लिखते हैं-"उस समय का विचार कीजिए जब बड़े-बड़े साधुसंघ वनों में विचरते थे। उस समय किसी साधु का मरण हो जाने पर वन में शव को रख देने के सिवाय दूसरा मार्ग क्या था? वे न जला सकते थे, न जलाने का प्रबंध कर सकते थे। अतः उसका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय-विशेष से नहीं है। यह तो सामयिक परिस्थिति और प्रचलन पर ही निर्भर है।" (भ.आ./शोलापुर/ प्रस्ता./पृ.३६)। 'विजहना' के आधार पर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का 'प्रेमी' जी का तर्क उनके ही पूर्ववचनों से खंडित हो जाता है। और श्वेताम्बरग्रंथों में भी विजहना-विधि का उल्लेख है, इससे सिद्ध होता है कि यह संघभेद से पूर्व की विधि है, जो संघविभाजन के बाद दोनों सम्प्रदायों में कुछ समय तक चलती रही। और मेरा ख्याल है कि यह विधि प्राचीनकाल में अन्य सम्प्रदायों में भी प्रचलित रही होगी। अतः यह एक सामान्य प्रथा थी, कम से कम दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में तो इसके प्रमाण मिलते ही हैं। अतः यह दिगम्बरों में नहीं थी, केवल श्वेताम्बरों और यापनीयों में थी, ऐसा तर्क कर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास सत्य का अपलाप मात्र है। हाँ, यदि विजहनाविधि यापनीयसम्प्रदाय की ही विशिष्टता होती, तो भगवती-आराधना में उसका उल्लेख होने से कहा जा सकता था कि वह यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ है। किन्तु प्रेमी जी ने इसका कोई प्रमाण नहीं दिया कि विजहनाविधि यापनीयसम्प्रदाय की ही विशिष्टविधि थी। प्रमाण है भी नहीं। अतः बिना प्रमाण के उसे यापनीयों की विशिष्टविधि मान लेना इतिहासनिर्धारण की वस्तुनिष्ठ पद्धति नहीं है। विक्रम की १५वीं शताब्दी (१४४०-१५३०) में हुए अपभ्रंश-भाषा के दिगम्बर जैन महाकवि रइधू ने अपने 'भद्रबाहुचरित्र' (भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त-कथानक) नामक काव्य में लिखा है कि जब श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की आशंका से अपने शिष्यों के साथ दक्षिणापथ को जा रहे थे, तब चलते-चलते एक अटवी में ठहरे। वहाँ आकाशवाणी ने घोषणा की, कि उनका समाधिमरण उसी अटवी में होगा। तब उन्होंने अपने शिष्य विशाखनन्दी के नेतृत्व में समस्त संघ को दक्षिण की ओर विसर्जित कर दिया तथा वे वहीं रह गये। मुनि चन्द्रगुप्त भी गुरु की सेवा के लिए वहाँ रुक गये। कुछ समय बाद श्रुतकेवली भद्रबाहु ने धर्मध्यान करते हुए एक Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ९३ गुफा में प्राणों का परित्याग कर दिया। मुनि चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु का शव उठाकर एक शिलातल पर रख दिया और गुफा की दीवार पर उनके चरणचिह्न उत्कीर्ण कर उनकी उपासना करते हुए वहीं स्थित रहे।११ यह कथानक इस बात का प्रमाण दे देता है कि प्राचीन काल में दिगम्बरपरम्परा में मुनियों के शव को उनके शिष्यों या संघस्थ मुनियों के द्वारा शिलातल पर रख दिया जाता था, जिसे पशुपक्षी खाकर समाप्त कर देते थे। यही उनके अन्तिम संस्कार की विधि थी। इसी का नाम विजहना है। बीसवीं सदी ई० के आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने भी अपने शव की विजहना का आदेश दिया था। नवभारत टाइम्स, दिल्ली के सहायक सम्पादक श्री पूर्ण सोमसुन्दरम् का 'जैनगजट' के आचार्य-शान्तिसागर-श्रद्धाञ्जलि-अंक में 'स्वर्ग के सोपानों पर' शीर्षक से निम्नलिखित संस्मरण प्रकाशित हुआ था "१७ अगस्त (१९५५) को आचार्यश्री जब यम-सल्लेखना महाव्रत की घोषणा कर चुके थे, तब उनके भक्तों के मन में स्वभावतः यह प्रश्न उठा कि स्वर्गारोहण के बाद महाराज के शरीर का क्या किया जाय? श्री माणिकचन्द्र, वीरचन्द्र और श्री बालचन्द्र ने निवेदन किया "महाराज! अपनी कोई इच्छा या आदेश हो, तो बतायें।" आचार्यश्री ने मुस्कराकर कहा "बताऊँ तो पूरा करोगे?" "अवश्य! आज्ञा कीजिए" भक्तों ने कहा। "अच्छी तरह पुनः विचार कर लो । बाद में बदलना मत," आचार्यश्री ने कहा। __ भक्तों ने जब पुनः आश्वासन दिया, तब आचार्य महाराज बोले, "देहविसर्जन के बाद मेरे शरीर को किसी नदी के निर्जन तट पर या किसी पर्वत के शिखर पर एकान्त स्थान पर छोड़ दो।" सुनकर भक्त लोग सन्न रह गये। बालचन्द्र जी ने कहा-"महाराज! यह क्रम तो केवल मुनिसंघ के लिए नियत है। हम तो श्रावक हैं। हम पर यह आज्ञा कैसे लागू हो सकती है?" ११९. भद्दबाहु चेयणि झाएप्पिणु धम्मज्झाणे पाण-चएप्पिणु। गउ सुरहरि रिसि सुयकेवलि तासु कलेवरु ठविउ सिलायलि॥ गुरुहुँ पाय गुरुभित्तिहिँ लिहियइँ णियचित्तंतरम्मि स णिहियइँ। चंदगुत्ति संठिउ सेवंतउ गुरुहुँ विणउ तियलोयमहंतउ॥ १६॥ भद्रबाहुचरित्र/पृ.३२ । सम्पादक-डॉ० राजाराम जैन/ प्रकाशक-दिगम्बर जैन युवक-संघ / सन् १९९२ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ "तो फिर अपनी इच्छानुसार करो। निर्दोष (जीव या घासफूसरहित) स्थान पर बिना आडम्बर के दाहकर्म कर दो। स्मारक बगैरह कुछ नहीं चाहिए।" महाराज ने स्वीकृति दी। "भीष्मपितामह की भाँति मरण की प्रतीक्षा करते हुए शरीर की दाहक्रिया के सम्बन्ध में इस प्रकार निर्ममता के साथ आदेश देना आचार्यश्री जैसे वीतरागियों के लिए ही संभव था।" इस प्रकार विजहना दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित थी। फिर भी उसे दिगम्बरपरम्परा के प्रतिकूल बतलाकर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भगवती-आराधना में उसका उल्लेख होने से वह दिगम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु यापनीयग्रन्थ है। यतः इस निष्कर्ष का आधारभूत हेतु असत्य है, अतः निष्कर्ष भी असत्य है। निष्कर्ष के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है, दिगम्बरग्रन्थ ही है। १४ भद्रबाहु-समाधिमरण बृहत्कथाकोश में यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"नम्बर १५४४ की गाथा'२० में कहा है कि घोर अवमौदर्य या अल्प भोजन के कष्ट से बिना संक्लेशबुद्धि के भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थान को प्राप्त हुए। परन्तु दिगम्बर-सम्प्रदाय की किसी भी कथा में भद्रबाहु के इस ऊनोदर-कष्ट के सहन का उल्लेख नहीं है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.५९)। दिगम्बरपक्ष इसका समाधान माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने किया है। वे लिखते हैं"हरिषेण-कथाकोश सब कथाकोशों से प्राचीन है। इसमें १३१ नम्बर में भद्रबाहु की कथा है। जब मगध में दुर्भिक्ष पड़ा, तो वह सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिणापथ को चले। आगे लिखा है भद्रबाहुमुनिर्धारो भय-सप्तक-वर्जितः। पम्पाक्षुधाश्रमं तीव्र जिगाय सहसोत्थितम्॥ ४२॥ १२०. ओमोदरिए घोराए भद्दबाहू असंकिलिट्ठमदी। घोराए विगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ॥ १५३९॥ भगवती-आराधना (फलटण एवं जै. सं.सं.सं शोलापुर प्रकाशन)। For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९५ प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदजयिनीभवम्। चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम्॥ ४३॥ आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम्। समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ॥ ४४॥ __ "अर्थात् सात भयों से रहित भद्रबाहु मुनि ने सहसा उत्पन्न हुए भूख-प्यास के श्रम को जीता और उज्जयिनी-सम्बन्धी भाद्रपद देश में पहुँचकर बहुत समय तक अनशन किया तथा चार प्रकार की आराधना करके समाधिमरण को प्राप्त हो स्वर्ग गये। ___ "इस गाथा से तो दिगम्बर-मान्यता की ही पुष्टि होती है कि मगध में दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिणापथ चले गये थे। श्वेताम्बर ऐसा नहीं मानते। इसी से 'मरणसमाधि' आदि में भद्रबाहु का उदाहरण नहीं है। अतः (पं० नाथूराम जी प्रेमी का) उक्त कथन भी ठीक नहीं है।" (भ. आ./जै. सं.सं.सं./शोलापुर प्रस्ता./पृ.३६)। हरिषेण दिगम्बराचार्य थे, यह उल्लेख 'जैन साहित्य और इतिहास' (प्र.सं./ पृ.४४६) में स्वयं प्रेमी जी ने किया है। इस तरह दिगम्बरग्रन्थ में भद्रबाहु के ऊनोदर-कष्टसहन का अथवा अनशनकष्टसहन का उल्लेख है, अतः भगवती-आराधना' में उसका वर्णन होने से वह यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए बतलाया गया उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। १५ 'आचार,' 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"नं० ४२८ की गाथा१२१ में आधारवत्त्व गुण के धारक आचार्य को कप्पववहारधारी विशेषण दिया है और कल्पव्यवहार, निशीथसूत्र श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के १२१. चोद्दसदसणवपुव्वी महामदी सायरोव्व गंभीरो। कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम॥ ४२८॥ भगवती-आराधना। (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचन्द दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित प्रतियों में गाथा क्र. ४३० है।) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० २ ''' प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इसी तरह ४०७ नम्बर की गाथा में १२२ निर्यापक गुरु की खोज के लिए परसंघ में जानेवाले मुनि की आयार-जीद - कप्पगुणदीवणा होती है । विजयोदयाटीका में इस पद का अर्थ किया है - ' आचारस्य जीतसंज्ञितस्य कल्पस्य गुणप्रकाशना । और पं० आशाधर की टीका में लिखा है- " आचारस्य जीदस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचाररत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति ।" पं० जिनदास शास्त्री ने हिन्दी अर्थ में लिखा है कि " आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है।" अर्थात् तीनों के मत से इन नामों के शास्त्र हैं और यह कहने की जरूरत नहीं है कि आचारांग और जीतकल्प श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । इन सब बातों से मेरा अनुमान है कि शिवार्य भी यापनीयसंघ के आचार्य होंगे।" (जै. सा. इ./ प्र.सं./पृ.५९-६०)। दिगम्बरपक्ष 'आचारस्य जीदसंज्ञितस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचार - रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति ।" ये वाक्य विजयोदयाटीका (गा. ४११ / पृ. ३१४) के हैं, जो पं० आशाधर जी द्वारा अपनी टीका में अनुकृत किये गये हैं । अर्थात् अपराजित सूरि के अनुसार भी 'आचार' और 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम हैं । किन्तु प्रस्तुत गाथा और उसकी उत्तरवर्ती गाथाओं के वर्ण्यविषय से ज्ञात होता है कि यहाँ 'आचार' और 'जीतकल्प' से इन नामों के शास्त्र अभिप्रेत नहीं हैं, अपितु क्षपक के चरण (आचरण) और करण (आवश्यक क्रियाएँ) अभिप्रेत हैं। गाथा में अन्य संघ के निर्यापक आचार्य के समीप जाने से क्षपक के जिन गुणों का प्रकाशन या दीपन होता है, उनका वर्णन किया गया है, न कि किन्हीं शास्त्रों के विषय के प्रकाशन का । यदि यहाँ यह अभिप्राय होता कि अन्य संघ के निर्यापक आचार्य के समीप जाने से आचारांग और जीतकल्प आदि शास्त्रों के अर्थ का प्रकाशन (ज्ञान) होता है, तो गाथा में 'गुण' के स्थान में 'अर्थ' शब्द का प्रयोग किया जाता । किन्तु सम्पूर्ण गाथा में क्षपक के ही विविध गुणों के प्रकाशन का कथन है । इसलिए यहाँ 'आचार' और 'जीतकल्प' से क्षपक के ही गुणविशेष विवक्षित हैं, जिनका विवरण उत्तर - गाथाओं में किया गया है। आचार का अर्थ तो स्पष्टतः 'आचरण' है। 'जीतकल्प' शब्द की व्याख्या श्वेताम्बर - कल्पसूत्र की कल्पकौमुदी नामक टीका में मिलती है। उसमें भगवान् महावीर को सम्बोधित करने 44 १२२. आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा । अज्जव-मद्दव-लाघव-तुट्ठी - पल्हादणं च गुणा ॥ ४०७ ॥ भगवती - आराधना । (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित संस्करणों में गाथा क्र. ४११ है । ) For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९७ के लिए आनेवाले लौकान्तिक देवों को जीअकप्पिएहिं देवेहिं कहा गया है और इसकी निरुक्ति "जीतस्य अवश्यकरणीयस्याचारस्य कल्पिकैः कारकैर्देवैः'१२३ (गा. ४११/पृ.३१४) इस प्रकार की गई है। अर्थात् जीत का अर्थ है अवश्य करने योग्य आचार। कल्प शब्द का भी अर्थ आचार है-'कल्पः साध्वाचारः।१२४ और 'आयारजीदकप्पगुणदीवणा' (गा.४११/ पृ.३१४) इस गाथा के आगे भगवती-आराधना में जो गाथाएँ हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि आचार का अर्थ चरण (आचरण) और जीतकल्प का अर्थ करण (षडावश्यक) है, क्योंकि उन गाथाओं में कहा गया है कि संघ में आया हुआ मुनि और संघ में रहनेवाले मुनि एक-दूसरे के चरण और करण को जानने के लिए उनकी प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, विहार, भिक्षाग्रहण आदि क्रियाओं की परीक्षा करते हैं।२५ परीक्षा किस प्रकार करते हैं, इसका विस्तार से विवेचन आवासय-ठाणादिसु गाथा (४१४) की विजयोदयाटीका में किया गया है। अपराजित सूरि ने ४१३ वीं और ४१४ वीं गाथाओं की टीका में यह भी बतलाया है कि चरण का अर्थ है समिति और गुप्ति तथा करण का अर्थ है आवश्यक अर्थात् सामायिक आदि___"समितयो गुप्तयश्चरणशब्देनोच्यन्ते करणमित्यावश्यकानि गृहीतानि।" (वि. टी./ गा.४१३)। "अवश्यमेव संवरनिर्जरार्थिभिः कर्त्तव्यानि सामायिकादीनि आवश्यकान्युच्यन्ते।" (वि.टी./ गा.४१४)। इस प्रकार दूसरे संघ में जाने पर जब उस संघ के मुनि आगन्तुक मुनि के आचार (चरण = गुप्तिसमिति) तथा जीतकल्प (करण = षडावश्यक) की परीक्षा करते हैं, तभी उसके इन गुणों का प्रकाशन (दीपना) होता है। अपने संघ के मुनि एकदूसरे के चरण-करण से परिचित होते हैं, अतः इस प्रकार परीक्षा नहीं करते। इस तरह आचार और जीतकल्प मुनि के ही गुण हैं। गाथा में वर्णित अन्य गुण भी मुनि से ही सम्बन्धित हैं। जैसे अन्य संघ के निर्यापकाचार्य के पास जानेवाले मुनि की १२३. कल्पसूत्र / कल्पकौमुदीवृत्ति/ पञ्चम क्षण / पृष्ठ ११० । १२४. कल्पसूत्र / कल्पप्रदीपिकावृत्ति / पातनिका / गाथा १। १२५. क- आगंतुग-वच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं । अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेतुं परिक्खंति ॥ ४१३ ॥ भगवती-आराधना। वच्छव्वा = वास्तव्याः (संघ में रहनेवाले)। ख-आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति ॥ ४१४॥ भगवती-आराधना। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ आत्मशुद्धि होती है, संक्लेश का अभाव होता है तथा आर्जव, मार्दव, लाघव, तुष्टि और प्रह्लाद, इन गुणों की अभिव्यक्ति होती है।"१२६ अतः उक्त गाथा में 'आचार' और 'जीतकल्प' शब्दों से तन्नामक श्वेताम्बरशास्त्रों का अभिप्राय ग्रहण कर ग्रन्थकार शिवार्य को यापनीयसंघ से सम्बद्ध करना भ्रमजन्य चेष्टा है। फिर भी यदि यह माना जाय कि वे शास्त्रों के ही नाम हैं, तो उन नामों का स्वरूप प्रामाणिक नहीं है। 'आयारजीदकप्पगुणदीवणा' इत्यादि गाथा किंचित् परिवर्तन के साथ भगवती-आराधना (शोलापुर एवं फलटन-संस्करणों) में भी १३२ क्रमांक पर है। उसकी टीका में अपराजित सूरि ने अन्य व्याख्याकारों के मतानुसार 'आचार' और 'जीतकल्प' के स्थान में आचारजीत और कल्प नामक शास्त्रों का उल्लेख बतलाया है और 'आचारजीत' शब्द का अर्थ 'आचारशास्त्र में निर्दिष्टक्रम' किया है तथा जिसके द्वारा अपराध के अनुरूप दण्ड दिया जाता है, उस शास्त्र को 'कल्प' नाम से अभिहित किया है। एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि आचारजीत का अर्थ है आचार का क्रम तथा कल्प्यगुण का अर्थ है योग्यगुण। अतः आचार के क्रम और योग्यगुणों का प्रकाशन आचारजीद-कल्पगुणदीवणा शब्द का अर्थ है ___ "आयारजीदकप्पगुणदीवणा-रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममङ्गमाचारशब्देनोच्यते। आचारशास्त्रनिर्दिष्टः क्रमः आचारजीदशब्देनोच्यते। कल्प्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डः स कल्पस्तस्य गुणः उपकारस्तेन निर्वर्त्यत्वात्। अनयोः प्रकाशनम् 'आचारजीद-कप्पगुणदीवणा'। एतदुक्तं भवति-कायिको वाचिकश्च विनयः प्रवर्तमानः आचारशास्त्रनिर्दिष्टं क्रमं प्रकाशयति। कल्पोऽपि विनयं विनाशयतो दण्डयतो विनयं निरूपयति। तद्भयादयं प्रवर्त्यते इति कल्पसम्पाद्य उपकारः प्रकटितो भवति इति केषाञ्चिद् व्याख्यानम्। अन्ये तु वदन्ति-कल्पयते इति कल्प्यं योग्यं कल्प्या गुणाः कल्प्यगुणाः आचारक्रमस्य कल्प्यानां च गुणानां प्रकाशनम् आचारजीदकल्पगुणदीवणा-शब्देनोच्यते श्रुताराधना चारित्राराधना च कृता भवतीत्येतदाख्यातम् अनेनेति।" (वि.टी./भ.आ./गा.१३२/पृ.१७१)। इस प्रकार 'आचार' और 'जीतकल्प' के स्थान में 'आचारजीत' और 'कल्प' अथवा 'कल्प्यगुण' नाम भी मान्य होने से 'आचारांग' और 'जीतकल्प' नामों के उल्लेख १२६. "अत्तसोधि = आत्मनः शुद्धिः, णिज्झंझा = सङ्क्लेशाभावः। न हि सङ्क्लेशवान् इत्थं दूर प्रयातुमीहते। स्वदोषप्रकटनान्माया त्यक्ता भवत्येव, तत एव माननिरासो मार्दवम्। शरीरपरित्यागाहितबुद्धितया लाघवम्। कृतार्थोऽस्मीति तुष्टिर्भवति। प्रस्थितस्य प्रह्लादनं हृदयसुखं च स्वपरोपकाराभ्यां गमितः कालः, इत उत्तरं मदीय एव कार्ये प्रधाने उद्युक्तो भविष्यामि इति चिन्तया।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा.४११/पृ.३१४ । For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ९९ की मान्यता प्रामाणिक सिद्ध नहीं होती। अतः भगवती-आराधना में श्वेताम्बरशास्त्रों के उल्लेख की मान्यता निरस्त हो जाती है, क्योंकि श्वेताम्बर शास्त्रों के नाम 'आचारजीत' एवं कल्प' अथवा 'कल्प्यगुण' नहीं हैं, अपितु 'आचारांग' और 'जीतकल्प' हैं। पूर्वोक्त . नाम दिगम्बरशास्त्रों के हैं, जो वर्तमान में 'मूलाचार,' 'छेदशास्त्र' आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त 'आचारक्रम' और 'कल्प्यगुण' तो शास्त्रों के नाम ही नहीं हैं, अपितु क्षपक के गुणों के सूचक शब्द हैं। भगवती-आराधना की चोद्दस-दस-णवपुव्वी गाथा (४३०) में कप्पववहारधारी का भी अर्थ कल्पव्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्तशास्त्र को जाननेवाला है। यह शास्त्र अर्थात् प्रायश्चित्त के नियम दिगम्बरसाहित्य में भी हैं। अतः उसे केवल श्वेताम्बरशास्त्र ही मान लेना यथार्थ निर्णय नहीं है। आचार, जीतकल्प आदि को श्वेताम्बर-शास्त्र-वाचक तब माना जा सकता था, जब भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति आदि श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यताओं का विरोध न होता। किन्तु इन मान्यताओं का विरोध पदपद पर है। इससे सिद्ध है कि वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। और इसी से सिद्ध होता है कि उसमें उल्लिखित आचार, जीतकल्प आदि श्वेताम्बर-शास्त्रों के नाम नहीं हैं। ___ यतः उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना में 'आचार', 'जीतकल्प' आदि श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है कि उसमें इन श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख है। हेतु के असत्य होने से यह निर्णय भी असत्य है कि वह यापनीयग्रन्थ है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने तर्कों की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ ऐसे तर्क भी रखे हैं, जिनका मूलग्रन्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है, विजयोदयाटीका से है। अतः वे मूलग्रन्थ के सम्प्रदाय के निर्णय में कार्यकारी नहीं हैं। वे भी भ्रान्तिजन्य हैं। अतः भ्रान्तिनिवारणार्थ आगे उनका निराकरण किया जा रहा है। १६ 'अनुयोगद्वार' शास्त्र का नाम नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"तीसरी गाथा की विजयोदयाटीका "अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः" आदि में 'अनुयोगद्वारसूत्र' का उल्लेख किया है।" (जै.सा.इ./ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ द्वि.सं./ पृ.७३)। यह एक श्वेताम्बरग्रन्थ का नाम है। मूलग्रन्थ की टीका में उसका उल्लेख हुआ है। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। डॉ० सागरमल जी ने भी इस हेतु का उल्लेख किया है। (जै.ध.या.स./ पृ.१२९)। दिगम्बरपक्ष यहाँ 'अनुयोगद्वार' शास्त्र का नाम नहीं है, अपितु जिन विभिन्न द्वारों से वस्तु का निरूपण किया जाता है उन सत् , संख्या, क्षेत्र, आदि निरूपणद्वारों को अनुयोगद्वार कहा गया है। इसीलिए टीकाकार ने कहा है कि विस्तार से कथन मन्दबुद्धियों के लिए दुरवगम होता है, अतः विविध अनुयोगद्वारों आदि का उपन्यास न करके संक्षेप में निरूपण किया गया है।१२७ उन्होंने नमस्कार का निरूपण करते समय स्पष्ट भी किया है कि निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन. अनुयोगद्वारों से नमस्कार का निरूपण किया जा रहा है-"निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानैरनुयोगद्वारैर्निरूप्यते।" (वि.टी./भ.आ./गा. आराधणापुरस्सर'७५२/पृ.४७१)। इस प्रकार भगवती-आराधना में या उसकी विजयोदयाटीका में श्वेताम्बरग्रन्थ 'अनुयोगद्वारसूत्र' का उल्लेख नहीं है, अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। १७ आवश्यकसूत्र की गाथा मूलग्रन्थ में उद्धृत नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"भगवती-आराधना (गाथा ११६, पृ. २७७) में १२८ 'पंचवदाणि जदीणं१२९ आदि आवश्यकसूत्र की गाथा उद्धृत की है।" इसी प्रकार 'देसामसियसुत्तं' १२७. "वस्तु बहूपन्यस्तं दुरवगमं मन्दबुद्धीनामिति तदनुग्रहाय स्वल्पोपन्यासः।--- अनुयोगद्वारा दीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः प्रस्तुतस्यार्थसंक्षेपः।" विजयोदया टीका / भगवती-आराधना / गा.३/ पृ.१२। १२८. फलटण एवं जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा क्रमांक ११८ पर है। "तथावश्यकेऽप्युक्तम्पंचवदाणि जदीणं अणुव्वदाइं च देसविरदाणं। ण हु सम्मत्तेण विणा तो सम्मत्तं पढमदाए॥" वि.टी./भ.आ./ गा.११८ / पृ.१५९ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / १०१ गाथा (११२३)१३० की टीका में 'हरिततणोसहिगुच्छा' आदि दो गाथाएँ बृहत्कल्पसूत्र से ग्रहण की गई हैं। अतः श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ उद्धृत होने से यह यापनीयग्रन्थ है। (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७३)। दिगम्बरपक्ष उपर्युक्त गाथाएँ भगवती-आराधना में नहीं, अपितु उसकी टीका में उद्धृत की गई हैं। इससे मूलग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। टीकाकार ने तो अन्य ग्रन्थों से भी अनेक नीति के श्लोक उद्धृत किये हैं, जैसे 'संसारसागरम्मि' (४४८) इस गाथा की टीका में भर्तृहरि के शृंगारशतक से 'स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनीं' यह श्लोक। तब क्या टीकाकार ने जिस-जिस सम्प्रदाय के ग्रन्थ से कोई श्लोक उद्धृत किया है, उसी-उसी सम्प्रदाय का उन्हें मान लिया जायेगा? यदि टीकाकार श्वेताम्बरग्रन्थ से गाथा उद्धृत करने के कारण यापनीय हो जाते हैं और उसके कारण मूलग्रन्थकार भी यापनीय हो जाते हैं, तो टीकाकार ने टीका में आचार्य कुन्दकुन्द १३१ और समन्तभद्र के ग्रन्थों से भी उद्धरण दिये हैं, इससे तो वे और मूलग्रन्थकार दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं। मूलग्रन्थकार ने तो कुन्दकुन्द की अनेक गाथाएँ अपने ग्रन्थ में ही ग्रहण कर ली हैं। अतः प्रेमी जी का उपर्युक्त हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है। इसलिए उसके आधार पर किया गया यह निर्णय भी भ्रान्तिपूर्ण है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। १८ आचारांगादि नाम दिगम्बर परम्परा में भी प्रसिद्ध यापनीयपक्ष प्रेमी जी-'अंगसुदे य बहुविधे' १३२ इस गाथा (४९९) की टीका में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के आचारांग, सूत्रकृतांग, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि भेदों का वर्णन किया गया है। ये नाम श्वेताम्बर-परम्परा के आगमों के हैं। अतः टीका में इनका उल्लेख होने से मूलग्रन्थ भी यापनीय सिद्ध होता है। (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.७३)। १३०. फलटण एवं जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा क्रमांक १११७ पर है। १३१. देखिए, अध्याय १०/ प्रकरण १/शीर्षक ९.२। १३२. फलटण एवं जै.सं.सं.सं. शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा का क्रमांक ५०१ है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ दिगम्बरपक्ष अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के आचारांगादि उपर्युक्त नाम दिगम्बरपरम्परा में भी प्रसिद्ध हैं। अतः प्रेमी जी का उपर्युक्त हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है। इसलिए उसके द्वारा किया गया यह निर्णय भी असत्य है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। इस तरह हम देखते हैं कि यापनीय-पक्षधर विद्वानों ने भगवती-आराधना को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनमें से अनेक का तो अस्तित्व ही नहीं है अर्थात् वे असत्य हैं, और अनेक में हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, कोई प्रकरणसम हेत्वाभास है, कोई साधारणानैकान्तिक, तो कोई बाधितविषय। ऐसा कोई भी हेतु उपलब्ध नहीं, है, जिससे यह सिद्ध हो कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। जितने भी अन्तरंग और बहिरंग प्रमाण उपलब्ध होते हैं, वे उसे दिगम्बरग्रन्थ ही सिद्ध करते हैं। अतः वह दिगम्बर ग्रन्थ ही है और उसके कर्ता शिवार्य दिगम्बराचार्य ही हैं, इसमें सन्देह के लिए स्थान नहीं है। उपसंहार दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण सूत्ररूप में अंत में उन समस्त प्रमाणों को सूत्ररूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं १. भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति, इन यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है। २. परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत के विरुद्ध है। ३. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयों को अमान्य हैं। ४. बंध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थानाश्रित बतलायी गयी है। यह यापनीयमत में स्वीकृत गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिक-मुक्ति एवं द्रव्यस्त्री-मुक्ति के विरुद्ध है। __५. मुनि के लिए दिगम्बरमत में मान्य मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान किया गया है। ६. लोच के द्वारा ही केशत्याग का नियम निर्धारित किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में छुरे या कैंची से भी मुण्डन की अनुमति दी गई है। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०२ भगवती-आराधना / १०३ ७. आहार में मद्य, मांस और मधु के ग्रहण का सर्वथा निषेध किया गया है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में वे अपवादरूप से ग्राह्य माने गये हैं।। ८. भगवती-आराधना में मुनियों के लिए अभिग्रह का विधान किया गया है। यापनीय-मान्य श्वेताम्बर-आगमों में इसका अभाव है। ९. भगवती-आराधना में कुन्दकुन्द का अनुसरण किया गया है। १०. इसकी सभी टीकाएँ दिगम्बरों द्वारा ही लिखी गई हैं। ११. भगवती-आराधना को दिगम्बराचार्यों ने प्रमाणरूप में स्वीकार किया है और उसके कर्ता शिवार्य के प्रति आदरभाव व्यक्त किया है। १२. भगवती-आराधना की रचना यापनीयसंघ की उत्पत्ति से बहुत पहले हो चुकी थी। For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकरण भक्तप्रत्याख्यान में स्त्री के लिए नाग्न्यलिंग नहीं प्रसंगवश यहाँ एक दीर्घकालीन मिथ्याधारणा का निराकरण आवश्यक है। प्रायः सभी विद्वानों, मुनियों एवं आर्यिकाओं की धारणा है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना में संस्तरारूढ़ होने) के समय आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए मुनि के समान नाग्न्यलिंग ग्रहण करने का विधान किया गया है। किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा में स्त्रियों के द्वारा भक्त-प्रत्याख्यान (सल्लेखना) के समय धारण किये जाने योग्य लिङ्गों का वर्णन किया गया है इत्थीवि य जं लिंगं दिलृ उस्सग्गियं व इदरं वा। ' तं तत्थ होदि हु लिंगं परित्तमुवधि करेंतीए॥ ८०॥ अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो औत्सर्गिक और आपवादिक लिङ्ग आगम में कहे गये हैं, वे ही भक्तप्रत्याख्यान के समय में भी उनके लिङ्ग होते हैं। आर्यिकाओं का एकसाड़ीमात्र-अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग औत्सर्गिक लिङ्ग है और श्राविकाओं का बहुपरिग्रहात्मक लिङ्ग आपवादिकलिङ्ग है।" इस अर्थ का समर्थन टीकाकार अपराजित सूरि के अधोलिखित वचनों से होता है-"स्त्रियोऽपि यल्लिङ्गं दृष्टमागमेऽभिहितम् औत्सर्गिकं तपस्विनीनाम् 'इदरं वां' श्राविकाणां 'तं' तदेव 'तत्थ' भक्तप्रत्याख्याने भवति। लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिव योज्यम्। यदि महर्द्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टिस्वजनाश्च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गम्। विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति 'परित्तं' अल्पं 'उवधिं' परिग्रहं 'करेंतीए' कुर्वत्याः।" (विजयोदया टीका / भगवती-आराधना गाथा ८०)। अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो लिङ्ग आगम में बतलाये गये हैं, अर्थात् तपस्विनियों (आर्यिकाओं) का औत्सर्गिक और श्राविकाओं का आपवादिक, वे ही भक्तप्रत्याख्यान में भी होते हैं। तपस्विनियों का लिङ्ग तो पूर्वगृहीत अर्थात् औत्सर्गिक (एक-साड़ीरूप अल्पपरिग्रहात्मक) ही होता है, श्राविकाओं का लिङ्ग पुरुषों के समान समझना चाहिए। अर्थात् श्राविका यदि अतिवैभवसम्पन्न है या लज्जाशील है अथवा उसके परिवारजन विधर्मी हैं, तो अविविक्त (सार्वजनिक) स्थान में उसे पूर्वगृहीत लिङ्ग अर्थात् बहुपरिग्रहात्मक अपवादलिङ्ग ही दिया जाना चाहिए, किन्तु विविक्त (एकान्त ) स्थान में सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग दिया जा सकता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि स्त्रियों के Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३ / प्र०३ भगवती-आराधना / १०५ लिए सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग कैसे निरूपित किया जा सकता है? उत्तर यह है कि परिग्रह को अल्प करने से अर्थात् साड़ीमात्र-अल्पपरिग्रह रखने से स्त्रियों का लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग कहा गया है। उपर्युक्त गाथा और उसकी इस विजयोदयाटीका में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि स्त्रियों को भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्तस्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करना चाहिए। उसे धारण करने की भ्रान्तधारणा पं० आशाधर जी की भ्रान्तिजनित व्याख्या से जनमी है। उन्होंने भगवती-आराधना पर मूलाराधनादर्पण नामक टीका रची है। उसमें उपर्युक्त गाथा की टीका में लिखा है "औत्सर्गिकं तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्व-परित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्यव्यवहरणानुसरणात्। इतरम् अपवादिकं श्राविकाणां तथाविधममत्वपरित्यागाभावादुपचारतोऽपि नैर्गन्थ्यव्यवहारानवतारात्। 'तत्थ' तत्र भक्तप्रत्याख्याने सन्यासकाले इत्यर्थः। लिङ्गं तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिवेति योज्यम्। इदमत्रतात्पर्यं–तपस्विनी मृत्युकालेयोग्ये स्थाने वस्त्रमात्रमपि त्यजति अन्या तु यदि योग्यं स्थानं लभते। यदि च महर्द्धिका सलज्जा मिथ्यात्वप्रचुरज्ञातिश्च न तदा पुंवद्वस्त्रमपि मुञ्चति। नो चेत् प्राग्लिङ्गेनैव म्रियते। तथा चोक्तं यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गं दृष्टं स्त्रियाः श्रुते। पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः॥" (मूलाराधना/आश्वास २/ गा.८१/ पृ.२१०-२११)। अनुवाद-"तपस्विनियों (आर्यिकाओं) के साड़ीमात्र का परिग्रह होने पर भी उसमें ममत्व का परित्याग कर देने से उनके उपचार से नैर्ग्रन्थ (सकलपरिग्रहत्याग) कहा गया है। अतः उनके लिङ्ग को औत्सर्गिक लिङ्ग कहते हैं। किन्तु श्राविकाएँ अपने वस्त्रादि में ममत्व का परित्याग नहीं करतीं, अतः उनके उपचार से भी नैर्ग्रन्थ्य नहीं कहा जा सकता। इसलिए उनका लिङ्ग आपवादिक लिङ्ग होता है। ये लिङ्ग उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान काल अर्थात् संन्यासकाल (सल्लेखनाकाल) में ग्रहण करने योग्य हैं। अभिप्राय यह है कि अयोग्य (अविविक्त = सार्वजनिक ) स्थान में तपस्विनियों को अपना पूर्वलिङ्ग अर्थात् एकसाड़ीरूप औत्सर्गिक लिङ्ग ही धारण करना चाहिए। अन्य स्त्रियों (श्राविकाओं) का लिङ्ग पुरुषों (श्रावकों) के समान समझना चाहिए। तात्पर्य यह कि तपस्विनी मृत्यु के समय योग्य (विविक्त = एकान्त) स्थान में वस्त्र का भी परित्याग कर देती है। किन्तु श्राविका, यदि योग्य स्थान मिलता है, तो वस्त्र त्यागती है। यदि वह अतिवैभवशालिनी है या लज्जालु है अथवा उसके स्वजन प्रचुरमिथ्यादृष्टि हैं, तो वह इसी श्रेणी के श्रावकों के समान वस्त्रत्याग नहीं करती, अपने पूर्व (बहुपरिग्रहात्मक) लिङ्ग से ही मरण करती है। ऐसी कहा भी गया है For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०३ . "स्त्री के लिए आगम में जो औत्सर्गिक या आपवादिक लिङ्ग कहा गया है, वह मृत्युकाल में परिग्रह अल्प करनेवाली स्त्री के विषय में पुरुष के समान समझना चाहिए।" इस व्याख्या में पण्डित जी ने भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिका और श्राविका के लिए एकान्तस्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग धारण करने का विधान बतलाया है, किन्तु यह भगवती-आराधना की उक्त गाथा एवं उसकी विजयोदयाटीका में प्रतिपादित अर्थ के सर्वथा विरुद्ध है। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं१. आगमोक्त दीक्षालिङ्ग ही भक्तप्रत्याख्यानलिङ्ग उक्त गाथा और उसकी विजयोदयाटीका में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक एवं आपवादिक लिङ्ग आगम में कहे गये हैं, वे ही उनके भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी होते हैं। उपर्युक्त दोनों लिङ्ग दीक्षालिङ्ग हैं। स्त्री के लिए कहा गया औत्सर्गिक लिङ्ग आर्यिका का दीक्षालिङ्ग है और अपवादलिङ्ग श्राविका का। ये दोनों क्रमशः उपचारमहाव्रतों और अणुव्रतों की दीक्षा ग्रहण करते समय ही धारण कर लिये जाते हैं। शिवार्य ने स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में इन्हीं दीक्षालिङ्गों को ग्राह्य बतलाया है। और यह आगमप्रसिद्ध है कि आर्यिका का दीक्षालिङ्ग एक साड़ीपरिधान-रूप होता है तथा श्राविका का एकाधिक-वस्त्रपरिधान-रूप। अतः यह स्वतः सिद्ध है कि शिवार्य ने इन्हीं सवस्त्रलिङ्गों को आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य बतलाया है। आगम में मुनिवत् नग्नरूप को न तो आर्यिका का दीक्षा लिङ्ग कहा गया है, न श्राविका का। अतः यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भगवती-आराधना में आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्त स्थान में मुनिवत् नग्न रूप धारण करने का विधान किया गया है। उक्त गाथा से तो उनके नग्न रूप धारण करने का निषेध होता है। २. तदेव लिङ्ग विजयोदयाटीका (भ.आ./ गा.८०) के पूर्वोद्धृत 'तदेव भक्तप्रत्याख्याने भवति' (वही लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान में होता है), इस वाक्य में प्रयुक्त 'एव' शब्द अवधारणात्मक (सीमाबंधन करनेवाला) है। अर्थात् वह स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यान में आगमोक्त दीक्षालिङ्ग के अतिरिक्त अन्य लिङ्ग की ग्राह्यता का निषेध करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का सर्वथा (एकांत एवं सार्वजनिक, सभी स्थानों में) निषेध किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १३ / प्र०३ भगवती-आराधना / १०७ ३. प्राक्तन लिङ्ग इस प्रकार विजयोदयाटीका के 'लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्' (गा.८०/ पृ.११५) वाक्य में प्रयुक्त प्राक्तनम् (पूर्वगृहीत) शब्द स्पष्ट करता है कि आर्यिकाएँ जो लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व धारण करती हैं, वही उन्हें भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी धारण करना चाहिए। आर्यिकाएँ भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व एकसाड़ीरूप औत्सर्गिक दीक्षालिङ्ग ही धारण करती हैं, मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं। अतः 'प्राक्तन' शब्द भी उनके लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के ग्राह्य होने का निषेध करता है। ४. आर्यिका के प्रसंग में विविक्त-अविविक्त स्थान का उल्लेख नहीं विजयोदयाटीका में जैसे भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी श्राविकाओं के लिए विविक्त और अविविक्त स्थानों का भेद करके अविविक्त स्थान में प्राक्तन लिङ्ग (पूर्वगृहीत अनेकवस्त्रात्मक अपवादरूप दीक्षालिङ्ग) का तथा विविक्त (एकांत) स्थान में आर्यिकावत् एकसाड़ीरूप अल्प-परिग्रहात्मक औत्सर्गिक-लिङ्ग का विधान किया गया है, वैसे विविक्त और अविविक्त स्थान का भेद आर्यिकाओं के प्रसंग में नहीं किया गया है। अत एव उनके लिए प्राक्तन औत्सर्गिक लिङ्ग के अतिरिक्त अन्य किसी भी लिङ्ग का विकल्प भगवतीआराधना में निर्दिष्ट नहीं है। इससे उनके लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विकल्प स्वतः निरस्त हो जाता है। किन्तु पं० आशाधर जी ने विजयोदयाटीका के 'लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्' इस वाक्य में अपनी तरफ से 'लिङ्गं तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनम्' इस प्रकार अयोग्यस्थाने पद जोड़कर यह अर्थ उद्भावित किया है कि भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिकाओं को अयोग्य (अविविक्त = सार्वजनिक) स्थान में तो अपना प्राक्तन (एकसाड़ीपरिधानरूप औत्सर्गिक) लिङ्ग ही धारण करना चाहिये, किन्तु योग्य (विविक्त = एकान्त) स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण कर लेना चाहिए। इस प्रकार पं० आशाधर जी ने स्वकल्पित, असंगत, आगम-प्रतिकूल व्याख्या से इस भ्रान्त धारणा को जन्म दिया है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विधान किया गया है। पं० आशाधर जी ने अपने मत के समर्थन में "यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गं दृष्टं स्त्रिया:श्रुते" इत्यादि श्लोक उद्धृत किया है, पर उससे उनके मत का समर्थन नहीं होता, क्योंकि वह भगवती-आराधना की "इत्थीविय जं लिंगं दिटुं उस्सग्गियं व इदरं वा" गाथा का आचार्य अमितगति-कृत संस्कृत पद्यानुवाद है। उसमें भी 'यद् दृष्टं श्रुते' शब्दों से यह कहा गया है कि स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक और आपवादिक दीक्षालिङ्ग आगम में निर्धारित किए गए हैं, वे ही उनके लिए मृत्युकाल में भी ग्राह्य होते हैं, और यतः For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० ३ आगम में उनके लिए सवस्त्र दीक्षालिङ्ग ही निर्धारित किए गए हैं, अतः उक्त श्लोक में भी उनके लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में सवस्त्रलिङ्ग ही ग्राह्य बतलाया गया है, मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं । ५. आर्यिका का अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग ही उपचार से सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग विजयोदयाटीका में कहा गया है कि श्राविका को भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांतस्थान में सकलपरिग्रहत्याग-रूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। संभवतः यहाँ उत्सर्गलिङ्ग के साथ 'सकलपरिग्रह - त्यागरूप' विशेषण देखकर पं० आशाधर जी को यह भ्रम हो गया कि भगवती - आराधना में स्त्रियों के लिए एकांतस्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने के लिए कहा गया है। अपराजित सूरि को इस बात का अंदेशा था कि पाठकों को ऐसा भ्रम हो सकता है, अतः उन्होंने उक्त कथन के बाद स्वयं शंका उठाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ एकसाड़ीमात्र अल्पपरिग्रह को उपचार से सकल परिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग कहा गया है । यथा “विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम् । उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह- तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।” (वि. टी./ भ.आ./गा.८० ) । अपराजित सूरि के कथन का अभिप्राय यह है कि यद्यपि निश्चयनय से तो वस्त्र का भी त्याग कर देनेवाले मुनि का लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग होता है, तथापि स्त्री के प्रसंग में एकसाड़ी-- मात्र रखकर शेष परिग्रह त्याग देनेवाली आर्यिका और श्राविका के अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग को भी उपचार से उत्सर्गलिङ्ग नाम दिया गया है। उपचार - महाव्रत - धारिणी, उपचारतपस्विनी, उपचारसंयती और उपचार श्रमणी के समान उपचार - उत्सर्गलिङ्ग नाम का व्यवहार युक्तिसंगत भी है। पं० आशाधर जी ने भी यह बात अपनी पूर्वोद्धृत टीका में निम्नलिखित शब्दों में स्वीकार की है-" औत्सर्गिकं तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्यव्यवहरणानुसरणात्। " (मूलाराधनादर्पण / भ.आ./ गा. ८०) । फिर भी ( अपराजित सूरि के स्पष्टीकरण एवं आत्म-स्वीकृति के बाद भी ) पण्डित जी ने आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों के लिए निर्धारित उपचार - उत्सर्गलिङ्ग के स्थान में पुरुषों के लिए निर्धारित निश्चय - उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य बतलाया है, यह आश्चर्य की बात है । यह तो स्पष्टतः भगवती आराधना की उक्त गाथा में प्रतिपादित अर्थ के प्रतिकूल है। ६. आर्यिकाओं के प्रसंग में 'पुंसामिव योज्यम्' निर्देश भी नहीं विजयोदयाटीका में जैसे 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' (भ.आ./गा. ८०) इस वाक्य के द्वारा भक्तप्रत्याख्यान - काल में श्राविकाओं की लिङ्गव्यवस्था को पुरुषों की For Personal & Private Use Only - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०३ भगवती-आराधना / १०९ लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने का निर्देश किया गया है, वैसे आर्यिकाओं की लिङ्गव्यवस्था को पुरुषों की लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने का निर्देश नहीं किया गया है। अतः उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्तस्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्राह्य बतलाना अप्रामाणिक प्ररूपण है। ७. 'पुंसामिव योज्यम्' का अभिप्राय भगवती-आराधना की 'उस्सग्गियलिंगकदस्स' (गा. ७६), तथा 'आवसधे वा अप्पाउग्गे' (गा.७८) इन गाथाओं में कहा गया है कि यदि श्रावक महर्द्धिक (अतिवैभवसम्पन्न) है, लज्जालु है अथवा उसके परिवारजन मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय अविविक्त (सार्वनिक) स्थान में पूर्वगृहीत सवस्त्र अपवाद-लिङ्ग दिया जाना चाहिए तथा विविक्त (एकान्त) स्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग दिया जा सकता है। अपराजितसूरि ने इन गाथाओं को दृष्टि में रखते हुए "इत्थीवि य जं लिंगं दिटुं" इस पूर्वोद्धृत ८०वीं गाथा की विजयोदया टीका में 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' यह उपर्युक्त वाक्य लिखा है अर्थात् श्राविकाओं की भक्तप्रत्याख्यानकालिक लिङ्गव्यवस्था पुरुषों (श्रावकों) के लिए उक्त गाथाओं में निर्धारित व्यवस्था के समान समझनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई श्राविका भी महर्द्धिक या लज्जालु है अथवा उसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत बहुवस्त्र-परिधानरूप अपवादलिङ्ग ग्राह्य है, किन्तु एकान्तस्थान में वह आर्यिकावत् एकसाड़ीमात्र-परिधानरूप अल्पपरिग्रहात्मक उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण कर सकती है। यह अर्थ अपराजित सूरि ने 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' इस वाक्य के अनन्तर निम्न शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-"यदि महर्द्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टि-स्वजनाश्च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गम्। विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।" (वि.टी./भ. आ. / गा.८०)। इन वाक्यों में अपराजित सूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि श्राविका को एकान्त स्थान में स्त्रियों के लिए निर्धारित अल्पपरिग्रहात्मक (एकसाड़ी-मात्रपरिधानरूप) उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य है। किन्तु पं० आशाधर जी ने 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' का अर्थ यह लगा लिया कि भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि स्वजनवाली श्राविका एकान्त स्थान में इन्हीं गुणोंवाले श्रावक के समान वस्त्र भी त्याग देती है। (देखिए , उनकी पूर्वोद्धृत टीका) यह अर्थ भगवती-आराधना की उक्त गाथा और उसकी अपराजितसूरिकृत उपर्युक्त टीका के एकदम विपरीत है। For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ८. अमहर्द्धिकादि श्राविकाओं के लिए सर्वत्र उत्सर्गलिङ्ग अपराजितसूरि ने कहा है कि जो श्राविका महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि परिवार की है, उसे सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत अपवादलिङ्ग ग्रहण करने की अनुमति है, किन्तु एकान्त स्थान में उसे उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जो श्राविका महर्द्धिक या मिथ्यादृष्टि - परिवार की नहीं है, उसकेलिए सार्वजनिक स्थान में भी उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का आदेश है । अब यदि इस उत्सर्गलिङ्ग को मुनिवत् नाग्न्यरूप - उत्सर्गलिङ्ग माना जाए, तो स्त्री के सार्वजनिक स्थान में नग्न होने का प्रसंग आयेगा, जो स्त्री के शीलरक्षणार्थ आवश्यक लज्जारूप धर्म के और लोकमर्यादा के विरुद्ध है, जिनके पालन की आज्ञा आगम में दी गई है - "गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ ।" (मूलाचार / गा. १८८)। आगम में स्त्री को सार्वजनिक स्थान में अपने अंगों को सदा आवृत रखने का आदेश है। आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमितगति ने कहा है कि स्त्री का गात्र स्वयं संवृत (ढँका हुआ) नहीं होता, इसलिए उसे वस्त्र से आवृत करने की आज्ञा दी गई है अ०१३ / प्र० ३ 1 "ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ॥ " (प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्तिगत गाथा / ३ / २४ / १० पृ.२७६) । "न --- गात्रं च संवृतं तासां संवृतिर्विहिता ततः ॥ " (योगसारप्राभृत ८/४७)। तात्पर्य यह है कि शीलरक्षणार्थ स्त्रीशरीर के कुछ अंग पुरुषों को दृष्टिगोचर नहीं होने चाहिए, किन्तु वे यथाजात अवस्था में दृष्टिगोचर होते हैं, अतः उन्हें वस्त्र से आच्छादित कर अदृष्टिगोचर बनाना आवश्यक है। श्राविका के सार्वजनिक स्थान में नग्न हो जाने पर इस आगमवचन का पालन नहीं हो सकता, अतः अमहर्द्धिक, अलज्जालु (जिसे केवल एकसाड़ी धारण करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता) अथवा सम्यग्दृष्टि - परिवार की श्राविका को सार्वजनिक स्थान में जिस उत्सर्गलिङ्ग के ग्रहण का उपदेश है, वह मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग नहीं हो सकता, आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही हो सकता है। इससे सिद्ध है कि अपराजित सूरि ने श्राविकाओं के लिए एकांत स्थान में भी आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही ग्राह्य बतलाया है । इस तथ्य से भी सिद्ध है कि पं० आशाधर जी की व्याख्या भगवती आराधना की उक्त गाथा के अभिप्राय के विरुद्ध है। ९. युक्तितः भी आगमविरुद्ध उपर्युक्त शब्दप्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती - आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के समय स्त्रियों के लिए एकांत या सार्वजनिक, किसी भी स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्रहण करने For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१३/प्र०३ भगवती-आराधना / १११ का उल्लेख नहीं है। उक्त शब्दप्रमाणों से वह आगमविरुद्ध सिद्ध होता है। युक्तितः भी वह आगम विरुद्ध ठहरता है, क्योंकि भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिका या श्राविका के वस्त्रत्याग से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। उससे न तो उनके गुणस्थान की वृद्धि होती है, न संवरनिर्जरा की। वह स्त्रियों को मोक्षमार्ग में किसी भी तरह आगे नहीं बढ़ाता। स्त्रीपर्याय में जीव का उत्थान पाँचवें गुणस्थान तक ही हो सकता है और वह साड़ीमात्रपरिग्रहरूप उत्सर्गलिङ्ग से ही संभव है, उसके अभाव में नहीं। इसके अतिरिक्त संस्तरारूढ़ स्त्री की नग्न अवस्था में मृत्यु होने पर यदि उसके शव को उसी अवस्था में दाहसंस्कार के लिए ले जाया जाता है, तो इससे लज्जास्पद और बीभत्स दृश्य उपस्थित होगा और यदि साड़ी में लपेटकर ले जाया जाता है, तो यह सिद्ध होगा कि वस्त्रत्याग निरर्थक है। १०. पं० सदासुख जी को अस्वीकार्य पं० सदासुख जी ने भी उक्त गाथा की स्वरचित टीका में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के विधान का उल्लेख नहीं किया। वे लिखते हैं-"बहुरि अल्पपरिग्रहकू धारती जे स्त्री तिनकै हू औत्सर्गिक लिंग व अपवादलिंग दोऊ प्रकार होय है। तहाँ जो सोलह हस्तप्रमाण एक सुफेद वस्त्र अल्पमोल का तातै पग की एडीसूं मस्तकपर्यन्त सर्व अंगकू आच्छादन करि अर मयूरपिच्छिका धारण करती स्त्री --- ताकै --- आर्यिका का व्रतरूप औत्सर्गिक लिङ्ग कहिए। --- बहुरि गृह में वासकरि, अणुव्रत धारण करि शील, संयम, संतोष, क्षमादिरूप रहना, यह स्त्रीनि के अपवादलिंग है। सो संस्तर में दोऊ ही होय हैं। (भगवती-आराधना / गाथा 'इत्थीवि य जं लिंग' ८३ / प्रकाशक-विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन दिल्ली)। इस वक्तव्य में पं० सदासुख जी ने भगवती-आराधना के अनुसार भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों के लिए उपर्युक्त दो ही लिंग बतलाए हैं, मुनिवत् नाग्न्यलिंग नहीं बतलाया। पंडित जी की यह व्याख्या मूल गाथा के अनुरूप है। मूल गाथा में भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांत और सार्वजनिक स्थान का भेद किए बिना सभी आर्यिकाओं के लिए उत्सर्गलिङ्ग और सभी श्राविकाओं के लिए अपवादलिङ्ग ग्राह्य बतलाया गया है। उसमें महर्द्धिका आदि श्राविकाओं के लिए एकांतस्थान में उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का कथन नहीं है। इसका कथन महर्द्धिक आदि श्रावकों के लिए बतलाई गई विशेष लिंगव्यवस्था का अनुकरण कर टीकाकार अपराजितसूरि ने किया है। यह अनुसंधान दर्शाता है कि भगवती-आराधना में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्त स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विधान होने की भ्रान्त धारणा पं० आशाधर जी की भ्रान्तिजनित व्याख्या से जनमी है और इसका प्रायः For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० ३ सभी उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने अनुसरण किया है। उदाहरणार्थ सन् १९३५ ई० में स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रंथमाला शोलापुर द्वारा प्रकाशित भगवती - आराधना के हिन्दी अर्थकर्त्ता पं० जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्री फडकुले ने तथा सन् १९७८ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं सन् १९९० में हीरालाल खुशालचन्द दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित भगवती - आराधना के अनुवादक सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री ने पं० आशाधर जी का अनुसरण करते हुए 'इत्थीवि य जं लिंगं दिट्ठे' गाथा के अर्थ में लिखा है कि भक्तप्रत्याख्यान करनेवाली आर्यिका एवं श्राविका को एकान्त स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण करना चाहिए। क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने भी जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश (भाग ३ / पृ.४१७) में ऐसा ही उल्लेख किया है। उपर्युक्त दस प्रमाणों से सिद्ध है कि इन सभी टीकाओं या अनुवादों में प्ररूपित उक्त धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । भगवती आराधना में वर्णित उक्त गाथा की समीचीन व्याख्या श्री अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में की है । उसमें उन्होंने गाथा का यह अर्थ बतलाया है कि भक्तप्रत्याख्यानकाल में आर्यिका को एकान्त और सार्वजनिक, दोनों स्थानों में वही साड़ीमात्र-परिग्रहरूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करना चाहिए, जो वे भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व धारण करती हैं तथा जो श्राविकाएँ अतिवैभवसम्पन्न, लज्जालु अथवा मिथ्यादृष्टि परिवार की हैं, वे सार्वजनिक स्थान में तो अपना पूर्वगृहीत अनेकवस्त्रात्मक अपवादलिंग ही ग्रहण करें, किन्तु एकान्तस्थान उपलब्ध हो, तो आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करें। अन्य श्राविकाओं को दोनों स्थानों में आर्यिकावत् उत्सर्गलिंग ही ग्रहण करना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य __ प्रथम प्रकरण अपराजितसूरि के दिगम्बर होने के प्रमाण पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजितसूरि को भी यापनीयसंघी माना है। श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उनका अनुसरण किया है, साथ ही अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए कुछ नये हेतु भी जोड़े हैं। डॉ० सागरमल जी ने इन दोनों के पदचिह्नों पर चलते हुए हेतुओं में कुछ और वृद्धि की है। उन सब का संग्रह उन्होंने अपने ग्रंथ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में किया है। उनमें प्रमुख हेतु यह है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर मुनि के लिए विशेष परिस्थितियों में अपवादरूप से सचेललिंग का समर्थन किया है, अतः वे यापनीय-परम्परा के हैं। किन्तु इनमें से अनेक हेतु तो असत्य हैं और अनेक हेत्वाभास हैं, अत एव अपराजितसूरि को यापनीय सिद्ध करनेवाला कोई भी हेतु उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत किये गये हेतुओं की असत्यता और हेत्वाभासता का प्रदर्शन आगे किया जायेगा। सर्वप्रथम भगवती-आराधना की विजयोदयाटीका में अपराजितसूरि द्वारा प्रतिपादित उन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का वर्णन किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि टीकाकार यापनीय-परम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा के हैं। विजयोदया टीका में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त सवस्त्रमुक्ति का निषेध तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र उपाय अपराजितसूरि के निम्नलिखित वचनों से सवस्त्रमुक्ति का निषेध होता है १. "जिनानां प्रतिबिम्बं चेदमचेललिङ्गम्। ते हि मुमुक्षवो मुक्त्युपायज्ञा यद् गृहीतवन्तो लिङ्गं तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः। यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ तदनुपायमादत्ते, यथा घटार्थी तुरिवेमादीन्। मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्। यच्चात्मनोऽभिप्रेतस्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं, तथा यतिरपि अचेलताम्। तदुपायता च अचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव।" (वि.टी./गा. 'जिणपडिरूवं' ८४/ पृ.१२०)। अनुवाद-"अचेललिंग जिनदेवों का प्रतिबिम्ब है। जिनेन्द्रदेव मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे। अतः उन्होंने जिस लिंग को धारण किया था, वही सभी मोक्षार्थियों के योग्य है। क्योंकि जो विवेकवान् होता है, वह जिस चीज को चाहता है, उसे प्राप्त न करानेवाले उपाय को नहीं अपनाता। जैसे घट चाहनेवाला मनुष्य तुरी, वेमा आदि को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे घटनिर्माण के साधन नहीं हैं (अपितु पटनिर्माण के साधन हैं), वैसे ही मुक्ति चाहनेवाला मुनि वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है। किन्तु जो स्वाभिलषित वस्तु. का उपाय होता है, उसे विवेकवान् मनुष्य नियम से ग्रहण करता है, जैसे घट चाहनेवाला चक्र, दण्ड आदि को। वैसे ही मोक्षार्थी मुनि भी अचेलता को नियम से अपनाता है। और अचेलता सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के समान मुक्ति का उपाय है, यह जिनेन्द्रदेव के ही आचरण से सिद्ध है।" इस कथन में अपराजितसूरि ने 'वस्त्र मोक्ष का उपाय नहीं है, अपितु निर्वस्त्रता मोक्ष का उपाय है' इस तथ्य को जिनेन्द्रदेव के आचरण से प्रमाणित किया है। दूसरे शब्दों में, जिनेन्द्रदेव के आचरण से यह प्रमाणित किया है कि सचेल अपवादलिंग मोक्ष का उपाय नहीं है, क्योंकि मोक्षार्थी जिनेन्द्रों ने सचेललिंग ग्रहण नहीं किया। यदि वह मोक्ष का उपाय होता, तो वे उसे अवश्य ग्रहण करते, क्योंकि विवेकवान् पुरुष उसी उपाय को ग्रहण करता है, जिससे उसके अभिलषित कार्य की सिद्धि होती है। इस तरह अपराजित सूरि ने मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का निषेध किया है। उपर्युक्त युक्ति से अपराजितसूरि ने इस श्वेताम्बर-मान्यता का निरसन किया है कि "तीर्थंकरों द्वारा धारण किया गया अचेललिंग साधारण पुरुषों के द्वारा अनुकरणीय नहीं है। उनके लिए तीर्थंकरों ने सचेललिंग का ही उपदेश दिया है।" १. अरहंता जमचेला तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते। तो तव्वयणाउ च्चिय रितिसओ होहि माऽचेलो॥ २५८५ ॥ विशेषावश्यकभाष्य। "परमगुरूपदेशश्चैवं वर्तते-निरुपमधृतिसंहननाद्यतिशयरहितेनाचेलकेन नैव भवितव्यम्।" हेम. वृत्ति/ विशे.भा. २५८५ / पृ. ५१७। "न रथ्यापुरुष-कल्पानां भवादृशां जिनकल्पस्तीर्थकरैरनुज्ञात इति।" हेम. वृत्ति / विशे. भा./ गा. २५९२ / पृ.५१८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / ११७ इस मान्यता का खण्डन उन्होंने 'तीर्थकराचरितत्वं च गुणः' इत्यादि कथन द्वारा 'आचेलक्कुद्देसिय' (४२३) गाथा की टीका में भी किया है। उनका पूर्ण कथन आगे 'सचेलत्व तीर्थंकर-मार्गानुसरण में बाधक' (१.१.१६) अनुच्छेद में द्रष्टव्य है। २. "सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषह-भीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा।" (वि. टी./ गा. 'अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२)। अनुवाद-"सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि-परिग्रह ग्रहण किया, ऐसा सोचते हुए मन में सन्ताप करना निन्दा कहलाती है। यहाँ टीकाकार ने 'सकलपरिग्रह का त्याग मोक्षमार्ग है' यह कहकर स्पष्ट कर दिया है कि सचेललिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है। इससे उन्होंने सचेलमुनियों की अवधारणा को अस्वीकार किया है। ३. "चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ?" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२३)। अनुवाद-"जो शरीर को वस्त्र से आच्छादित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके कथनानुसार क्या अन्यमतावलम्बी साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध नहीं होते? अर्थात् उसके कथनानुसार तो सभी सम्प्रदायों के साधु निर्ग्रन्थ कहलाने लगेंगे, क्योंकि उनके सग्रन्थ कहलाने का कोई कारण नहीं रहता।" इससे स्पष्ट होता है कि अपराजितसूरि वस्त्रधारी मुनि को निर्ग्रन्थ (साधु) ही नहीं मानते। यह सचेलमुक्ति के निषेध का बहुत बड़ा प्रमाण है। ४. "नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./गा. 'ण य होदि संजदो' १११८/ पृ.५७४)। अनुवाद-"जो वस्त्र का त्याग करता है और शेष परिग्रह रखता है, उसे संयतगुणस्थान प्राप्त नहीं होता।" 'संयत' शब्द साधु का वाचक है। अतः इस वाक्य में अपराजितसूरि ने वस्त्रादि समस्त परिग्रह के त्यागी को ही साधु कहा है। इससे सिद्ध है कि वे वस्त्रादि-परिग्रहधारी को साधु नहीं मानते। ५. "न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति।" (वि.टी./गा. 'सिद्धे जयप्प' १)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०१ अनुवाद-"असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत (श्रावक) के विषयराग की निवृत्ति नहीं होती, न ही समस्त परिग्रह का परित्याग होता है।" इसका भी तात्पर्य यह है कि जो वस्त्रादि सकल परिग्रह का त्याग नहीं करता, उसे संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती। अर्थात् वह अपराजितसूरि के अनुसार मुनि नहीं कहला सकता। ६. "एतदुक्तं भवति कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य।" (वि.टी. / गा. 'सम्मादिट्ठिस्स' ७ पृ.२२)। अनुवाद-"असंयत जीव सम्यग्दृष्टि भी हो, तो भी उसका तप कर्मों का निर्मूलन करने में समर्थ नहीं है।" ___ इन वचनों से स्पष्ट होता है कि अपराजितसूरि के मत में वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त पुरुष संयतगुणस्थान प्राप्त नहीं कर सकता। और संयतगुणस्थान प्राप्त न करनेवाला जीव कर्मों का उन्मूलन करने में समर्थ नहीं होता अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। ७. "सकलसङ्गपरिहारो मार्गों मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिङ्गमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितम्। न चेत्सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिङ्ग किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयत इति।" (वि.टी./गा. 'जत्तासाधण' ८१/पृ.११७)। __ अनुवाद-"अचेललिंग 'समस्त परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है' इस जिनवचन में श्रद्धा उत्पन्न करता है। इसलिए उसे ग्रन्थकार ने जगत्प्रत्यय कहा है। यदि सकलपरिग्रहत्याग मुक्ति का लिंग न होता तो उसे नियोगतः (नियम से, अनिवार्यतः) धारण क्यों किया जाता?" ८. "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२०)। अनुवाद-"मात्र वस्त्रत्याग को परिग्रह का त्याग नहीं समझ लेना चाहिए। वस्त्रग्रहण तो परिग्रह का उपलक्षण है। अतः वस्त्र के साथ समस्त बाह्य पदार्थों का त्याग परिग्रह का त्याग कहलाता है। उसी को 'आचेलक्य' शब्द से अभिहित किया गया है।" ___ यहाँ केवल चेल के त्याग को आचेलक्य न कहकर चेलसहित समस्त बाह्य पदार्थों के त्याग को आचेलक्य कहने से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि मुनि के आचेलक्यस्थितिकल्प-धारी होने के लिए वस्त्रत्याग को सर्वप्रथम आवश्यक मानते हैं। जो वस्त्रत्यागी नहीं है, वह आचेलक्य-स्थितिकल्प से रहित होने के कारण उनके अनुसार मुनि नहीं है। अपराजितसूरि के ये अनेकों वचन सवस्त्रमुक्ति का उच्च स्वर में निषेध करते हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० १ १.१. सचेलत्व की मुक्ति - विरोधिता के अनेक हेतु अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमत में मान्य सचेल मुनिलिंग को मोक्षविरोधी बतलाया है। उन्होंने अचेलत्व के गुणों का वर्णन करते हुए श्वेताम्बर साधुओं के सचेललिंगगत दोषों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इस प्रसंग में उन्होंने श्वेताम्बर साधुओं द्वारा गृहीत चौदह प्रकार की उपधि (परिग्रह) का उल्लेख किया है और तन्निमित्तक दोषों पर प्रकाश डाला है। श्वेताम्बर - आगमों के वचन उद्धृत कर उन दोषों की पुष्टि भी की है। अपराजित सूरि ने अचेलता के मोक्षसाधक गुणों और सचेलत्व के मोक्षबाधक दोषों का जितना सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विस्तार से किया है, उतना किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन दिगम्बराचार्य ने नहीं किया। उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जा रहा है। अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / ११९ १.१.१. दशधर्मपालन में बाधक - अचेलत्व दशधर्मों की प्रवृत्ति का साधक है और सचेलत्व बाधक, इसका निरूपण करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं- "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । दशविधे धर्मे त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसङ्गविरतिरचेलतापि सैव । तेनाचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्मे प्रवृत्तो भवति । अकिञ्चनाख्येऽपि धर्मे समुद्यतो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था ह्यारम्भप्रवृत्तिर्निष्परिग्रहस्यासत्यारम्भे कुतोऽसंयमः । तथा सत्येऽपि धर्मे समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलीकं वदति। असति बाह्ये क्षेत्रादिके अभ्यन्तरे च रागादिके परिग्रहे न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । ततो ब्रुवन्नेवमचेलः सत्यमेव ब्रवीति । लाघवं चाचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि सम्पूर्णा भवति । परिग्रहाभिलाषे सति अदत्तादाने प्रवर्तते नान्यथेति । अपि च रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति । सङ्गनिमित्तो हि क्रोधस्तदभावे चोत्तमा क्षमा व्यवतिष्ठते । सुरूपोऽहमाढ्य इत्यादिको दर्पस्त्यक्तो भवति अचेलेनेति मार्दवमपि तत्र सन्निहितम्। 'अजिह्मभावस्य स्फुटमात्मीयं भावमादर्शयतोऽचेलस्यार्जवता च भवति मायाया मूलस्य परिग्रहस्य त्यागात् । चेलादिपरिग्रह- परित्यागपरो यस्मात् विरागभावमुपगतः शब्दादिविषयेष्वसक्तो भवति । ततो विमुक्तेश्च शीतोष्णदंशमशकादिपरिश्रमाणामुरोदानात् निश्चेलता-मभ्युपगच्छता तपोऽपि घोरमनुष्ठितं भवति । एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण ।" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२० - ३२१)। अनुवाद "चेल (वस्त्र) का ग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए समस्त परिग्रह के त्याग को आचेलक्य कहते हैं। दस प्रकार के धर्मों में एक त्यागधर्म है। त्याग का अर्थ है समस्त परिग्रह से विरति । अचेलता भी वही है। अतः अचेल यति त्याग For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ नामक धर्म में प्रवृत्त होता है । जो निष्परिग्रह है, वह आकिंचन्यधर्म में भी समुद्यत होता है। परिग्रह के लिए ही 'आरंभ' में प्रवृत्ति होती है । परिग्रहहीन व्यक्ति 'आरंभ' नहीं करता, अतः उसके असंयम कैसे हो सकता है? वह सत्यधर्म में भी सम्यग्रूप से अवस्थित होता है, क्योंकि लोग परिग्रह के लिए ही झूठ बोलते हैं । किन्तु जब क्षेत्रादिक बाह्यपरिग्रह और रागादि अभ्यन्तरपरिग्रह नहीं होता, तब झूठ बोलने का कारण ही नहीं रहता । अतः अचेल मुनि जब भी बोलता है, सत्य ही बोलता है। अचेल में लाघव (निराकुलता ) भी होता है । अदत्तादान से विरति भी पूर्णतः होती है, क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही अदत्तादान में प्रवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं । इसके अतिरिक्त रागादि का त्याग हो जाने पर भावविशुद्धिमय ब्रह्मचर्य विशुद्धतम हो जाता है। क्रोध भी परिग्रह के ही निमित्त से होता है, अतः परिग्रह का अभाव हो जाने से उत्तमक्षमा स्थित हो जाती है। अचेल पुरुष 'मैं सुन्दर हूँ, सम्पन्न हूँ' इस प्रकार का दर्प भी त्याग देता है, अतः उसमें मादर्व भी सन्निहित होता है । परिग्रह माया का मूल है, अतः अचेल व्यक्ति माया ( कुटिलता ) से मुक्त हो जाने के कारण मन के भाव को यथावत् प्रकट करता है, इसलिए उसमें आर्जव भी होता है । चेलादि - परिग्रह का त्याग कर देनेवाला विरागभाव को प्राप्त हो जाता है, अतः वह विषयों में भी आसक्त नहीं होता । वस्त्रपरिग्रह छूट जाने पर शीतादिपरीषहजय भी संभव होता है, तथा घोर तप का अभ्यास भी होता है। इस प्रकार अचेलत्व के उपदेश से दश धर्मों का उपदेश संक्षेप में दिया गया है । " इस विवेचना से स्पष्ट किया गया है कि सचेलत्व दश धर्मों के पालन में बाधक है। - १.१.२. संयमशुद्धि में बाधक – अचेल मुनि संयम की शुद्धि में समर्थ होता है, सचेल मुनि असमर्थ इसका सयुक्तिक प्रतिपादन अपराजितसूरि ने निम्नलिखित शब्दों में किया है 44 ' अथवान्यथा प्रक्रम्यतेऽचेलतागुणप्रशंसा । संयमशुद्धिरेको गुणः । स्वेद-रजोमलावलिप्ते चेले तद्योनिकास्तदाश्रयाश्च त्रसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यन्ते, ते बाध्यन्ते चेलग्राहिणा। संसक्तं वस्त्रं तावत्स्थापयतीति चेत्तर्हि हिंसा स्यात् । विवेचने च ते म्रियन्ते । तत्र संसक्तचेलवतः स्थाने, शयने, निषद्यायां, पाटने, छेदने, बन्धने, वेष्टने, प्रक्षालने, संघट्टने, आतपप्रक्षेपणे च जीवानां बाधेति महानसंयमः । अचेलस्यैवंविधासंयमाभावात् संयमविशुद्धिः ।" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१)। अनुवाद - " संयम में शुद्धि अचेलता का दूसरा गुण है। पसीने, धूल और मैल से लिप्त वस्त्र में उसी योनिवाले तथा उसके आश्रय से रहनेवाले सूक्ष्म और स्थूल For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० १ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२१ त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । वस्त्रधारण करने से उनको बाधा होती है और शरीर से वस्त्र को अलग कर देने से वे जीव मर जाते हैं, इसलिए हिंसा होती हैं । जीवसंसक्त वस्त्र को धारण करनेवाला जब उठता है, बैठता है, सोता है, वस्त्र को फाड़ता है, काटता है, बाँधता है, लपेटता है, धोता है, कूटता है और धूप में सुखाता है, तब जीवों को पीड़ा होती है, जिससे महान् असंयम होता है। जो अचेल होता है, वह ऐसे असंयम से बच जाता है, अतः उसके संयम की शुद्धि होती है । " १.१.३. इन्द्रियविजय में बाधक - इन्द्रियविजय में अचेलत्व की साधकता और सचेलत्व की बाधकता के मनोवैज्ञानिक हेतु का उद्घाटन करते हुए सूरि जी कहते हैं " इन्द्रियविजयो द्वितीयः । सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि प्रयतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । " (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । अनुवाद- " अचेलत्व इन्द्रियजय के लिए सचेष्ट करता है। जैसे सर्पों से भरे जंगल में विद्या-मन्त्रादि से रहित पुरुष बड़ी सावधानी से चलता है, वैसे ही अचेल मुनि इन्द्रियों को नियन्त्रित करने का दृढ़ता से प्रयत्न करता है । अन्यथा शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने पर लज्जित होने की नौबत आ सकती है। " अपराजितसूरि ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर प्रकाश डाला है कि वस्त्रधारण करने से मुनि को अपने कामविकार को छिपाने का मौका मिल जाता है, इसलिए उसे जीतने के अभ्यास में प्रवृत्त नहीं होता, बल्कि वह शरीर में कामविकार की अभिव्यक्ति से निर्भय हो जाता है और स्वच्छन्दतापूर्वक मानसिक कामभोग करता है, जो द्रव्य -ब्रह्मचर्य के लिये भी घातक बन जाता है। इस तरह सचेलत्व इन्द्रियजय में बाधक है। १.१.४. कषायविजय में बाधक - - अचेलता साधु को कषायविजय के योग्य बनाती है, सचेलता अयोग्य इस सत्य का प्रकाशन निम्नलिखित वक्तव्य में किया गया है— " कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः । स्तेनभयाद् गोमयादिरसेन लेपं कुर्वन्निगूहयित्वा कथञ्चिन्मायां करोति । उन्मार्गेण वा स्तेनवञ्चनां कर्त्तुं यायात् । गुल्मवल्ल्या - द्यन्तर्हितो वा स्यात् । चेलादिर्ममास्तीति मानं चोद्वहते। बलादपहरणात्तेन सह कलहं कुर्यात् । लाभाद्वा लोभः प्रवर्तत इति चेलग्राहिणाममी दोषाः । अचेलतायां पुनरित्थम्भूतदोषानुत्पत्तिः।” (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ अनुवाद" अचेलता कषाय को जीतने में सहायक है । वस्त्रधारी को चोरों से भय रहता है, जिससे वह वस्त्र को गोबर आदि से लिप्त कर छिपाने का मायाचार करता है । अथवा चोरों को धोखा देने के लिये मार्ग बदलकर जाने का प्रयत्न करता है या झाड़ी आदि में छिप जाता है। इस तरह वस्त्र माया कषाय की उत्पत्ति का कारण बनता है । 'मेरे पास वस्त्र है' इस प्रकार का मान भी वस्त्र होने पर उत्पन्न होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीनता है, तो उसके साथ कलह करनी पड़ती है । वस्त्र प्राप्त होने पर लोभ होता है । वस्त्रग्रहण में इतने दोष हैं । अचेल रहने पर ये दोष उत्पन्न नहीं होते।" १.१.५. ध्यानस्वाध्याय में बाधक - अधोलिखित वचन ध्यान - स्वाध्याय में अचेलत्व की साधकता और सचेलत्व की बाधकता का निरूपण करते हैं 'ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च । सूचीसूत्रकर्पटादिपरिमार्गणसीवनादिव्याक्षेपेण तयोर्विघ्नो भवति । निःसङ्गस्य तथाभूतव्याक्षेपाभावात् । सूत्रार्थपौरुषीषु निर्विघ्नता, स्वाध्यायस्य ध्यानस्य च भावना । " (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । 44 अनुवाद- -" अचेल रहने से ध्यान और स्वाध्याय निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं । सुई, धागा, वस्त्र आदि को खोजने तथा सीलने आदि के काम में लगने से ध्यान और स्वाध्याय में विघ्न होता है । किन्तु जो अचेल होता है, वह इन चित्तविक्षेपकारी कार्यों से मुक्त रहता है, जिससे सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी में निर्विघ्नता रहती है तथा स्वाध्याय और ध्यान की भावना होती है । " १.१.६. आभ्यन्तरपरिग्रह - त्याग में बाधक - अचेल मुनि आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग में समर्थ होता है, सचेल मुनि असमर्थ, इस तथ्य को प्रकट करते हुए अपराजितसूरि कहते हैं "" ' ग्रन्थत्यागश्च गुणः । बाह्यचेलादिग्रन्थत्यागोऽभ्यन्तरपरिग्रहत्यागमूलः यथा तुषनिराकरणमभ्यन्तरमलनिरासोपायः ।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१-३२२) । अनुवाद- -" आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग का साधन होना भी अचेलता का एक गुण है। जैसे धान के छिलके को दूर करना उसके आभ्यन्तर मैल को दूर करने का उपाय है, वैसे ही वस्त्रादि - बाह्यपरिग्रह का त्याग आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग का मूल है।" इसका तात्पर्य यह है कि वस्त्रादि- बाह्यपरिग्रह का त्याग न होने पर आभ्यन्तरपरिग्रह का त्याग असंभव है । इस तरह सचेलत्व आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग में बाधक है । For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२३ १.१.७. रागद्वेष से मुक्त होने में बाधक-अचेललिंग से रागद्वेष का परित्याग संभव होता है, सचेललिंग से असंभव, इस सत्य का प्रकाशन इन वचनों में किया गया है "वीतरागद्वेषता च गुणः। सचेलो हि मनोज्ञे वस्त्रे रक्तो भवति, दुष्यत्यमनोज्ञे। बाह्यद्रव्यालम्बनौ हि रागद्वेषौ। तावसति परिग्रहे न भवतः।"(वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता रागद्वेष से मुक्त होने का भी साधन है। वस्त्रधारण करनेवाला मनुष्य सुन्दर वस्त्रों में अनुरक्त हो जाता है और असुन्दर वस्त्रों से द्वेष करता है, क्योंकि रागद्वेष सदा बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होते हैं। परिग्रह न रहने पर रागद्वेष नहीं होते।" १.१.८. शरीर के प्रति अनादरभाव में बाधक-अपराजितसूरि कहते हैं कि अचेलमुनि ही शरीर से विरक्त हो सकता है, सचेल नहीं "किं च शरीरे अनादरो गुणः, शरीरगतादरवशेनैव हि जनोऽसंयमे परिग्रहे च वर्तते। अचेलेन तु तदादरस्त्यक्तः, वातातपादिबाधासहनात्।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता से शरीर में भी अनादर उत्पन्न होता है। शरीर में आदर होने से ही मनुष्य असंयम और परिग्रह में प्रवृत्त होता है। अचेल रहने से हवा, धूप आदि की बाधाओं को सहने का अभ्यास हो जाता है, जिससे शरीर के प्रति आदरभाव छूट जाता है।" १.१.९. स्वाधीनता में बाधक-अचेलता मुनि को स्वाधीन बनाती है और सचेलता पराधीन। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन अपराजितसूरि ने निम्नलिखित वचनों में किया है "स्ववशता च गुण: देशान्तरगमनादौ सहायाप्रतीक्षणात्। पिच्छमात्रं गृहीत्वा हि त्यक्त-सकलपरिग्रहः पक्षीव यातीति। सचेलस्तु सहायपरवशः चौरभयात् भवति। परवशमानसश्च कथं संयमं पालयेत्?" (वि.टी./ गा.' आचेलक्कु'४२३/ पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता से मनुष्य स्वाधीन हो जाता है, क्योंकि एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए साथी की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सकलपरिग्रह का त्यागी मुनि पिच्छीमात्र ग्रहण करके पक्षी के समान निःशंक होकर चला जाता है। सचेल व्यक्ति तो चोरों के भय से साथी के अधीन हो जाता है। जिसका मन दूसरों के अधीन है, वह संयम का पालन कैसे कर सकता है?" Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ . १.१.१०. चित्तविशुद्धि के प्रकट होने में बाधक-सूरि जी का कथन है कि अचेलता से मुनि की निर्विकारता ज्ञापित होती है, सचेलता से उसका ज्ञापन असंभव है "चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायां कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते। निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता से चित्त की शुद्धता प्रकट होती है। शरीर को लँगोटी आदि से ढंक लेने पर भावशुद्धि का पता नहीं चलता। नग्नपुरुष के देह की निर्विकारता देखकर विरागता का स्पष्टतः बोध होता है।" तात्पर्य यह कि वस्त्रधारण कामविकार से मुक्त होने में बाधक है, क्योंकि वस्त्रधारी पुरुष मन में उत्पन्न कामविकार की शारीरिक अभिव्यक्ति को वस्त्रों से छिपा सकता है और निर्भय होकर मानसिक कामसेवन का अवसर पा सकता है। १.१.११. निर्भयता में बाधक-अचेलत्व की अभयोत्पादकता और सचेलत्व की भयोत्पादकता को प्रकाशित करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं "निर्भयता च गुणः। ममेदं किमपहरन्ति चौरादयः? किं ताडयन्ति बध्नन्तीति वा? भयमुपैति सचेलो, नाचेलो। भयातुरो वा किं न कुर्यात्?" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता साधु को निर्भय बना देती है। चोर आदि मेरा क्या हरण कर लेंगे, मुझे किसलिए मारेंगे या बाँधेगे? ऐसा निःशंकभाव उसके मन में आ जाता है। किन्तु सचेल व्यक्ति को भय सताता है और भयातुर क्या नहीं कर सकता?" १.१.१२. विश्रब्धता में बाधक-अचेलता साधु को निःशंक बनाती है और सचेलता सशंक, इस तथ्य की प्रतीति निम्नलिखित शब्दों से करायी गयी है "सर्वत्र विश्रब्धता च गुणः। निष्परिग्रहो न किञ्चनापि शङ्कते। सचेलस्तु प्रतिमार्गयायिनमन्यं वा दृष्ट्वा न तत्र विश्वासं करोति। को वेत्ययं, किं करोति इति।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु'४२३/पृ.३२२)। ___ अनुवाद-"अचेलता साधु को सबके प्रति विश्रब्ध बना देती है। किसी के भी प्रति कोई सन्देह नहीं होने देती। किन्तु जो सचेल होता है, वह हर राहगीर को या अन्य किसी भी मनुष्य को शंका की दृष्टि से देखता है। यह कौन है? क्या करता है? ऐसी शंकाएँ उसके मन में उठती हैं।" For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२५ १.१.१३. अप्रतिलेखना में बाधक-आगे कहा गया है कि अचेलत्व अप्रतिलेखन का हेतु है और सचेलत्व बहुप्रतिलेखन का "अप्रतिलेखनता च गुणः। चतुर्दशविधमुपधिं गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता, न तथाचेलस्य। --- तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितं-पडिलेखे पात्रकंबलं तु ध्रुवमिति।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२-३२३)। __ अनुवाद-"अचेलता प्रतिलेखन (साफ-सफाई या शुद्धीकरण)२ से मुक्त रहने में भी सहायक है। चौदह प्रकार की उपधि रखनेवालों को बहुत प्रतिलेखना करनी पड़ती है। अचेल को वैसी प्रतिलेखना नहीं करनी पड़ती। आचारप्रणिधि में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना अवश्य करनी चाहिए।" यहाँ श्वेताम्बर स्थविरकल्पी साधुओं के द्वारा धारण की जानेवाली चौदह प्रकार की उपधि (परिग्रह) का उल्लेख किया गया है। वह इस प्रकार है-चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका, रजोहरण, तीन सूती-ऊनी ओढ़ने के वस्त्र, मात्रक (पात्रविशेष) तथा सात प्रकार का पात्रनिर्योग (भिक्षापात्र तथा उससे सम्बन्धित वस्तुएँ)। (देखिए, अध्याय २/ प्रकरण ३ / शीर्षक ३.३.१)। 'आचारप्रणिधि' श्वेताम्बरीय दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन का नाम है। (प्रेमी : जै.सा.इ. /द्वि.सं./पृ.६१)। सचेललिंगी श्वेताम्बर साधु को इन चौदह उपकरणों की प्रतिलेखना करनी पड़ती है, जिससे अत्यधिक जीवहिंसा होती है। यहाँ चौदह प्रकार की उपधि रखने से बहुत प्रतिलेखना की आवश्यकता होने के कथन तथा श्वेताम्बर-आगम 'आचारप्रणिधि' के उल्लेख से सिद्ध है कि भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर साधुओं के सचेललिंगगत दोषों का प्ररूपण किया है। १.१.१४. परिकर्म से मुक्त होने में बाधक-अचेलत्व साधु को परिकर्म से मुक्त करता है, सचेलत्व उसमें फँसाता है। इस पर प्रकाश डालते हुए टीकाकार कहते हैं "परिकर्मवर्जनं च गुणः। उद्वेष्टनं, मोचनं, सीवनं, बन्धनं, रञ्जनमित्यादिकमने परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्छा च।" (वि.टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२२-३२३)। अनुवाद-"अचेल व्यक्ति परिकर्म से भी मुक्त रहता है। सचेल को बहुत से परिकर्म करने पड़ते हैं, जैसे वस्त्र को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, रँगना आदि। २. प्रतिलेखना =The regular cleaning of all implements or objects for daily use. (Sir M. Monier Williams : Sanskrit-English Dictionary) For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ अपने पहनने-ओढ़ने आदि के वस्त्रों को स्वयं धोने, सीने आदि के कुत्सित कर्म तथा शरीर को सजाने आदि के ममत्वपूर्ण परिकर्म में वस्त्रधारी फंसा रहता है।" __ यहाँ अपराजितसूरि ने सचेलत्व के वे ही दोष बतलाये हैं, जो श्वेताम्बरीय आचारांग (१/६/३/१८२) में बतलाये गये हैं। (देखिए, अध्याय ३/ प्रकरण १। शीर्षक ७)। १.१.१५. लाघव में बाधक-सूरि जी का कथन है कि अचेलत्व साधु को भारमुक्त करता है और सचेलत्व भारग्रस्त "लाघवं च गुणः। अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासन-गमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु'४२३/ पृ.३२३)। अनुवाद-"अचेल पुरुष भारमुक्त हो जाता है। उसके पास अल्प उपधि होती है, अतः वह ठहरने, बैठने, चलने आदि की क्रियाओं में वायु के समान उन्मुक्त एवं भारहीन हो जाता है। सचेल पुरुष इस प्रकार उन्मुक्त और भारमुक्त नहीं हो पाता।" १.१.१६. सचेलत्व तीर्थंकर-मार्गानुसरण में बाधक-अचेलत्व से तीर्थंकरमार्गानुसरण संभव होता है, सचेलत्व से असंभव। इस तथ्य को अपराजितसूरि ने निम्नलिखित वक्तव्य में रेखांकित किया है ___ "तीर्थकराचरितत्वं च गुणः। संहननबलसमग्रा मुक्तिमार्गप्रख्यापनपरा जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यन्तश्च। यथा मेर्वादिपर्वतगताः प्रतिमास्तीर्थकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वम्। चेलपरिवेष्टिताङ्गो न जिनसदृशः। व्युत्सृष्टप्रलम्बभुजो निश्चेलो जिनप्रतिरूपतां धत्ते।" (वि.टी./ गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३)। अनुवाद-"तीर्थंकरों के मार्ग का अनुसरण अचेलता से ही संभव है। संहनन और बल से परिपूर्ण तथा मोक्षमार्ग का उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिनप्रतिमाएँ अचेल हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। इस प्रकार अचेलता ही मोक्ष का मार्ग सिद्ध होती है। जिसका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित है, वह तीर्थंकर सदृश नहीं होता। जो दोनों भुजाओं को लटकाकर खड़ा होता है और निश्चेल होता है वह 'जिन'सदृश रूप का धारी होता है।" यहाँ अपराजितसूरि ने इस श्वेताम्बरीय मान्यता को अस्वीकार किया है कि तीर्थंकर के शिष्य तीर्थंकरगृहीत अचेललिंग के अधिकारी नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२७ १.१.१७. बलवीर्य के प्रकटन में बाधक-अपराजितसूरि आगे कहते हैं कि अचेलत्व से बलवीर्य प्रकट होता है, सचेलत्व उसे अवरुद्ध करता है____ "अनिगूढबीलवीर्यता च गुणः। परीषहसहने शक्तोऽपि सचेलो न परीषहान् सहते इति। एवमेतद्गुणावेक्षणादचेलता जिनोपदिष्टा।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु'४२३/पृ.३२३)। अनुवाद-"अचेलता बलवीर्य की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। जो वस्त्रधारण करता है, वह परीषह सहने में समर्थ होते हुए भी उससे वंचित हो जाता है। इन गुणों को देखकर जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष के लिए अचेलता का उपदेश दिया है।" १.१.१८. अचेल ही निर्ग्रन्थ है-अचेलत्व ही निर्ग्रन्थता का लक्षण है, सचेलत्व नहीं, इस सत्य का प्रकाशन सूरि जी ने निम्नलिखित शब्दों में किया है "चेलपरिवेष्टिताङ आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः? वयमेव, न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मानं नाद्रियते मध्यस्थैः।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२३)। अनुवाद-"जिनेन्द्रदेव द्वारा मोक्ष के लिए अचेलता का उपदेश दिये जाने से सिद्ध है कि जो अचेल होता है, वही निर्ग्रन्थ है। जो पुरुष शरीर को वस्त्र से परिवेष्टित कर अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके अनुसार अन्यमतानुयायी साधु निर्ग्रन्थ कैसे नहीं कहलायेंगे? 'हम ही निर्ग्रन्थ हैं, वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं, यह तो कथनमात्र है। कोई भी मध्यस्थ पुरुष इस पर विश्वास नहीं करेगा।" तात्पर्य यह कि यदि कोई जैनधर्मानुयायी साधु सवस्त्र होते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, तो अन्य मतानुयायी सवस्त्र साधु भी निर्ग्रन्थ कहलायेंगे। अतः निर्वस्त्र रहना ही निर्ग्रन्थता का लक्षण है। श्वेताम्बर साधु सचेल होते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हैं। अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरों की इस मान्यता पर प्रहार किया है। सचेलता के दोषों का उपसंहार करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं "इत्थं चेले दोषा अचेलतायां वा अपरिमिता गुणा इति अचेलता स्थितिकल्पत्वेनोक्ता।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२३)। अनुवाद-"इस तरह वस्त्रधारण करने में अनेक दोष हैं और अचेलता में अपरिमित गुण हैं, इसलिए अचेलता को स्थितिकल्प कहा गया है।" १.२. किसी भी सचेल का निर्दोष रहना असंभव ___ अपराजितसूरि ने सचेल मुनिलिंग में इन मोक्षविरोधी अठारह दोषों का निरूपण कर यह स्पष्ट किया है कि किसी भी वस्त्रधारी पुरुष का वस्त्रपरिग्रहजन्य दोषों से Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०१ मुक्त रहना संभव नहीं है। वस्त्रधारण करने पर मनुष्य इन अठारह दोषों में से किसी न किसी दोष से ग्रस्त होकर ही रहेगा। और एक दोष में सभी दोष समाये हुए हैं, अतः एक दोष से ग्रस्त होने पर सभी दोषों से ग्रस्त होना अनिवार्य है। अभिप्राय यह है कि भले ही कोई अपवादलिंग के नाम पर सचेललिंग का औचित्य प्रतिपादित करे, किन्तु अपराजित सूरि के अनुसार सचेललिंगजन्य उक्त मोक्षविरोधी दोषों से किसी भी सचेल मुनि का बचना संभव नहीं है। अतः उक्त अठारह दोषों का वर्णन कर अपराजितसूरि ने मुनि के लिए सचेललिंग का स्पष्टतः निषेध किया है। __ अपराजितसूरि ने इन दोषों का वर्णन करते हुए ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम नहीं बतलाया है कि जिस पुरुष की जननेन्द्रिय अशोभनीय हो अथवा जिसे नग्न रहने में लज्जा आती हो अथवा जो शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ हो, वह यदि वस्त्रधारण करे, तो उसमें ये मोक्षविरोधी दोष उत्पन्न नहीं होंगे अथवा यदि स्त्री वस्त्रधारण करे, तो वह इन दोषों से ग्रस्त नहीं होगी, शेष मनुष्य ही वस्त्रधारण करने पर उपर्युक्त दोषों से दूषित होंगे। यदि ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम होता, तो अशोभनीय जननेन्द्रियवाला होना अथवा परीषह सहने में असमर्थ-संहननवाला होना अथवा लजाकषाय से ग्रस्त होना अथवा स्त्री होना मोक्ष का सबसे सुखद मार्ग होता। तब सभी जीव अशोभनीय पुरुष-जननेन्द्रिय पाने के लिए अशुभनामकर्म का उपार्जन तथा स्त्रीपर्याय पाने के लिए मायाचार में प्रवृत्ति करना उचित मानते। तब पाप करना मोक्ष पाने के लिए आवश्यक हो जाता। अतः ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम हो ही नहीं सकता। इसीलिए अपराजित सूरि ने यह नहीं कहा कि उपर्युक्त कारणों से वस्त्र धारण करनेवाले मुनि या आर्यिका में ऊपर वर्णित अठारह दोष उत्पन्न नहीं होते। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने सचेललिंग को सर्वथा मोक्षविरोधी प्रतिपादित किया है, जिससे स्त्रीमुक्ति का भी निषेध होता है। गृहस्थमुक्तिनिषेध सवस्त्रमुक्ति के निषेध से गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का भी निषेध हो जाता है, क्योंकि ये (गृहस्थादि) भी वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त होते हैं। तथापि इनकी मुक्ति का निषेध करनेवाले अन्य कथन भी विजयोदयाटीका में विद्यमान हैं। अतः उनका पृथक्-पृथक् वर्णन किया जा रहा है। __ अपराजितसूरि का यह मत तो पहले ही बतला दिया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत (श्रावक) न तो विषयराग से निवृत्त होता है, न ही सकलपरिग्रह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२९ का त्यागी होता है, अतः वह मोक्ष का पात्र नहीं है। आगे वे कहते हैं कि गृहस्थ एकदेश-प्रवृत्तिरत होता है, अतः वह पूर्ण संयम का पालक नहीं होता"देशप्रवृत्तिर्गृहिणामकृत्स्नात्' (वि.टी./ गा. 'अणुकंपा' १८२८ / पृ.८१५)। क्षेत्र, वास्तु, सुवर्ण, धान्य, वस्त्र, भाण्ड, द्विपद (दास-दासी), चतुष्पद (हाथी, घोडा आदि), यान तथा शयन-आसन, ये दस बाह्यपरिग्रह हैं। (वि.टी./गा.'बाहिरसंगा'१११३ )। इनका त्याग किये बिना ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य और अव्याबाधत्व नामक आत्मगुणों को आच्छादित करनेवाला कर्ममल दूर नहीं किया जा सकता। जैसे चावल का तुष दूर किये बिना उसके अन्तर्मल का शोधन सम्भव नहीं है, वैसे ही जो बाह्यपरिग्रहरूपी कर्ममल से सम्बद्ध है, उसके आभ्यन्तर कर्ममल का शोधन असंभव है। लोभादिरूप परिणामों के कारण जीव बाह्य द्रव्य को ग्रहण करता है। अतः जो बाह्यपरिग्रह ग्रहण करता है, वह नियम से लोभ आदि रूप अशुभपरिणामवाला होने से कर्मबन्ध करता है। अतः दशविध परिग्रह त्याज्य है।६ चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग भावनैर्ग्रन्थ्य है, वही मुक्ति का उपाय है। और भावनैर्ग्रन्थ्य का उपाय है दशविध बाह्यग्रन्थ का त्याग।"७ __सूरि जी ने आगे लिखा है-"वस्त्रधारण करने से गृहस्थ परीषहजय में असमर्थ होता है और परीषहजय के बिना संयम का पालन नहीं होता।"८ ___ गृहवास के दोषों पर प्रकाश डालते हुए अपराजितसूरि कहते हैं-"गृहस्थाश्रम 'यह मेरा है' इस भाव का अधिष्ठान है, निरन्तर माया और लोभ को उत्पन्न करने में दक्ष जीवन के उपायों में लगानेवाला है, कषायों की खान है, दूसरों को पीड़ा ३. "बाह्यमलमनिराकृत्याभ्यन्तरकर्ममलं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रवीर्याव्याबाधत्वानामात्मगुणानां छादने __ व्यापृतं न निराकर्तुं शक्यते।" वि.टी. / पातनिका/गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ४. "तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषेऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं तथा बाह्यपरिग्रहमल__संसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलमशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः।" वि.टी./गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ५. लोभादिपरिणामहेतुकं बाह्यद्रव्यग्रहणम्।" वि.टी. / गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ६. "एते यदोदिताः परिणामास्तदा ग्रन्थान् बाह्यान् ग्रहीतुं मनः करोति नान्यथा। तस्माद्यो बाह्यं गृह्णाति परिग्रहं स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवेति कर्मणां बन्धको भवति। ततस्त्याज्याः परिग्रहाः।" वि.टी. / गा.'रागो लोभो' १११५। ७. "वस्त्रमात्रपरित्यागेनैव निर्ग्रन्थताभिमानोद्वहनमप्यसत्यं, सत्येवं तिर्यञ्चोऽपि निर्ग्रन्थाः स्युः। चतुर्दशप्रकारस्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य त्यागाद् भावनैर्ग्रन्थ्यं समवतिष्ठते। तदेव हि मुक्तेरुपायः। भावनैर्ग्रन्थ्यस्य उपाय इति दशविधबाह्यग्रन्थत्याग उपयोगी मुमुक्षोः।" वि. टी./ गा. 'तो उप्पीले' ४७९ / पृ.३६७।। ८. "परीषहै: पराजितो न संयम परिपालयतीति मन्यते।" वि.टी./गा.'पियधम्मा' ६४६ / पृ.४३७ । For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ देने और अनुग्रह करने में तत्पर रहता है, उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिसम्बन्धी व्यापार सदा चला करता है, मन, वचन और काय के द्वारा सचित्त, अचित्त, छोटे और बड़े पदार्थों के ग्रहण और संवर्धन का प्रयास होता रहता है। गृहस्थाश्रम में स्थित मनुष्य असार में सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचि में शुचिता, दुःख में सुख, अहित में हित, अनाश्रय में आश्रय और शत्रु में मित्र मानता हुआ दौड़ता फिरता है। भय और शंका से ग्रस्त रहते हुए भी आश्रय में स्थित रहता है। गृहस्थाश्रम में स्थित मनुष्य काल के घने अन्धकारपटल से वैसे ही घिर जाता है, जैसे लोहे के पिंजड़े में बन्द सिंह, जाल में फँसा मृगकुल, कीचड़ में फँसा बूढ़ा हाथी, पाश में बद्ध पक्षी, कारागार में कैद चोर, व्याघ्रों के बीच में बैठा दुर्बल हिरण तथा जाल में फँसा मगरमच्छ । रागरूपी महानाग गृहस्थ को सताते हैं । चिन्तारूपी डाकिनी उसका भक्षण करती है। शोकरूपी भेड़िये उसका पीछा करते हैं। कोपरूपी अग्नि उसे जलाकर राख कर देती है। दुराशारूपी लताओं से वह ऐसा बँध जाता है कि हाथ-पैर भी नहीं हिला पाता । प्रियावियोगरूपी वज्रपात उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। इच्छित वस्तु की अप्राप्तिरूप बाणों का वह तरकश बन जाता है । मायारूपी बुढ़िया उसका प्रगाढ़ आलिंगन करती है। तिरस्काररूपी कठोर कुठार उसे काटते रहते हैं। अपयशरूपी मल से वह लिप्त हो जाता है। मोहमहावनरूपी हाथी उसे मार डालता है । पापरूपी हत्यारों के द्वारा वह ज्ञानशून्य कर दिया जाता है। भयरूपी लौह शलाकाओं से कोंचा जाता है। प्रतिदिन श्रमरूपी कौओं के द्वारा खाया जाता है। ईर्ष्यारूपी स्याही से काला किया जाता है । परिग्रहरूपी मगरमच्छों के द्वारा पकड़ा जाता है। गृहस्थाश्रम में स्थित होने पर असंयम की ओर जाता है। असूयारूपी पत्नी का प्रिय बन जाता है । अपने को मानरूपी दानव का स्वामी मानने लगता है। गृहस्थाश्रम में वह विशाल धवलचरित्ररूपी तीन छत्रों की छाया के सुख से वंचित रहता है । वह अपने को संसाररूपी जेल से मुक्त नहीं कर पाता । कर्मों का जड़ - मूल से विनाश करने में असमर्थ रहता है । मृत्युरूपी विषवृक्ष को जला पाना संभव नहीं होता। मोहरूपी दृढ़ श्रृंखला को तोड़ नहीं पाता । विचित्र योनियों में जाने से अपने को रोक नहीं सकता।" (वि.टी./ गा.' एवं केई गिहवास' १३१९/पृ.६४९-६५०)। अपराजितसूरि ने गृहस्थजीवन का जो यह भयंकर चित्रण किया है, उससे गृहस्थमुक्ति की तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि टीकाकार गृहस्थमुक्ति को सर्वथा असंभव मानते हैं, जब कि यापनीयमत में गृहस्थमुक्ति स्वीकार की गई है। इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि किसी भी तरह यापनीय नहीं हैं, वे पूर्णत: दिगम्बर हैं। For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३१ परतीर्थिकमुक्ति-निषेध परतीर्थिक या अन्यलिंगी वह कहलाता है, जो जिनधर्म का अनुयायी नहीं है, अपितु अन्यधर्म को मानता है। ऐसा मनुष्य जिनदेव, जिनशास्त्र और जिनगुरु में श्रद्धा न रखने के कारण मिथ्यादृष्टि होता है और उसका बाह्यलिंग भी दिगम्बरलिंग नहीं होता, अपितु सवस्त्र अथवा अन्य परिग्रह से युक्त नाग्न्यलिंग होता है। अपराजितसूरि ने उसे मोक्ष के अयोग्य बतलाया है। वे कहते हैं "एतदुक्तं भवति कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य, पुनरितरस्य असति संवरे प्रतिसमयमुपचीयमानकर्मसंहतेः का मुक्तिः?" (वि.टी. / गा.' सम्मादिट्ठिस्स' ७)। अनुवाद-"असंयमी सम्यग्दृष्टि का भी तप कर्मों को जड़ से उखाड़ने में असमर्थ है, तब जो सम्यग्दृष्टि नहीं है, उसकी तो बात ही क्या? उसके कर्मों का संवर नहीं होता, प्रतिसमय कर्म बँधते रहते हैं। उसकी मुक्ति कैसे संभव है?" अपराजितसूरि उपदेश देते हैं-"ततो दुःखजलवाहिनीं मिथ्यादृष्टिकुल्ल्यामुल्लङ्घय, प्रतिपद्यस्व जैनी दृष्टिमिति तत्र स्थिरताकरणम्।" (वि. टी. / गा. उवगृहणठिदि' ४४ / पृ.८२)। अनुवाद-"मिथ्यादृष्टिरूपी नदी में दुःखरूपी जल बहता है, अतः उसे पार करके जैनी दृष्टि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त करो।" यही बात वे इन शब्दों में दुहराते हैं-"स्वल्पापि मिथ्यात्वविषकणिका कुत्सितासु योनिषु उत्पादयति किमस्ति वाच्यं सर्वस्य जिनदृष्टस्याश्रद्धाने?" (वि.टी. / गा. 'जस्स पुण' ६० / पृ.१०२)। अनुवाद-"मिथ्यात्वरूपी विष की छोटी सी भी बूंद कुत्सित योनियों में उत्पन्न कराती है, तब जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट समस्त तत्त्वों का श्रद्धान न होने पर तो कहना ही क्या है? __ वे आगे कहते हैं-"द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी शत्रुओं को जो जीत लेते हैं, उन्हें 'जिन' कहते हैं। उनके वचन जीवादिपदार्थों के यथार्थस्वरूप के प्रकाशन में दक्ष हैं। वे (जिनवचन) प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अविरुद्ध हैं। उन वचनों के अर्थ को न जानने से जो अतत्त्वश्रद्धान होता है, उससे तथा उन वचनों में निरूपित मार्ग के अनुसार आचरण न करने से जीव संसाररूपी महाअटवी में प्रवेश करता है।" (वि.टी./गा. 'मिच्छत्तमोहिद' १७६३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ "जिन्होंने जिनदेव द्वारा उपदिष्ट सर्वदुःख-विनाशक जिनधर्म को दृढ़धैर्य तथा निर्मल-मन से निर्व्याकुल होकर धारण किया है, वे पुण्यशाली हैं।" (वि.टी./गा.' ते धण्णा ' १८५४)। यह बात तो टीकाकार पहले कह ही चुके हैं कि "अचेललिंग ही जिनलिंग है। 'जिन' मोक्ष चाहते थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे। अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही लिंग अन्य मोक्षार्थियों के लिए भी योग्य है।" (वि.टी./ गा. 'जिणपडिरूवं'८४)। टीकाकार ने यह भी जोर देकर कहा है कि भावनिर्ग्रन्थता ही मोक्ष का उपाय है और भावनिर्ग्रन्थता का उपाय है वस्त्रादिबाह्यग्रन्थ का त्याग। (वि.टी. / गा. तो उप्पीले' ४७९)। टीकाकार के ये शब्द पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं। अपराजितसूरि की इन मान्यताओं से स्पष्ट है कि वे परतीर्थिक को मुक्ति का पात्र नहीं मानते। यह मान्यता यापनीयमत के विरुद्ध है। अतः वे यापनीयमतावलम्बी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमत के अनुयायी हैं। स्त्रीमुक्तिनिषेध विजयोदयाटीका में स्त्रीमुक्तिनिषेध के भी प्रमाण स्पष्ट हैं। उन्हें यहाँ संकलित किया जा रहा है १. अपराजितसूरि का कथन है कि केवल वस्त्र त्यागने से और शेष परिग्रह रखने से संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती-"नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./गा. 'ण य होदि संजदो' १११८)। ___ इसका तात्पर्य यह है कि वस्त्र के साथ शेष परिग्रह का त्याग करने पर ही संयत-गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती है और स्त्रियों के लिए वस्त्रपरित्याग संभव नहीं है, अतः उनके लिए संयतगुणस्थान की प्राप्ति भी असंभव है, इसलिए उनकी मुक्ति भी असंभव है। २. यही बात वे इन शब्दों में कहते हैं-"न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति।" (वि.टी. / गा. सिद्धे जयप्प' १)। . अनुवाद-"असंयतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत गुणस्थानों में न तो विषयराग से निवृत्ति होती है, न सकल परिग्रह का त्याग होता है।" Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० १ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३३ इस कथन का अभिप्राय यह है कि जब विषयराग से निवृत्ति होती है और सकल परिग्रह का त्याग होता है, तब संयतगुणस्थान की प्राप्ति होती है। सकलपरिग्रह के त्याग का अर्थ है आचेलक्य अर्थात् वस्त्रसहित समस्त बाह्य वस्तुओं का त्याग, जैसा कि अपराजित सूरि ने कहा है- "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्कमित्युच्यते।” (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३) । और चूँकि स्त्री वस्त्रत्याग नहीं कर सकती, इसलिए उसके निश्चयनय से अपरिग्रह महाव्रत भी नहीं होता और वह विषयराग से भी निवृत्त नहीं होती, इसलिए उसे संयतगुणस्थान भी प्राप्ति नहीं होता । अतः उसकी मुक्ति भी असंभव है। ३. अपराजितसूरि ने अचेल को ही निर्ग्रन्थ कहा है। इससे स्पष्ट है कि स्त्री अचेल न हो सकने के कारण निर्ग्रन्थ (सकलपरिग्रहत्यागी) नहीं हो सकती, जबकि निर्ग्रन्थता ही मुक्ति का मार्ग है। ४. अपराजितसूरि ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि अचेललिंग से ही मोक्ष हो सकता है। वे लिखते हैं- " अचेललिंग जिनलिंग है। जिन ( तीर्थंकर) मोक्ष चाहते थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे । अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही लिंग अन्य मोक्षार्थियों के लिए भी योग्य है। जो जिस वस्तु को चाहता है और विवेकवान् होता है वह उसके अनुपाय को नहीं अपनाता, जैसे घटनिर्माण की इच्छा रखनेवाला तुरी, वेमा आदि को । इसी प्रकार मोक्ष का अभिलाषी वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का उपाय नहीं है। किन्तु जो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का उपाय है, उसे मनुष्य नियम से अपनाता है, जैसे घटनिर्माण की इच्छावाला चक्र आदि को । इसी प्रकार मुनि भी मोक्ष का उपाय होने से अचेलता को स्वीकार करते हैं। और अचेलता ज्ञान दर्शन की तरह मुक्ति का उपाय है, यह जिनदेव के आचारण से सिद्ध है। " १० इन शब्दों से अपराजितसूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि जिनलिंग को अपनाये बिना मोक्ष नहीं हो सकता और उसे स्त्रियाँ अपना नहीं सकतीं, अतः वे मोक्ष की पात्र नहीं हैं। ५. इसी बात की पुनरावृत्ति वे निम्नलिखित शब्दों में करते हैं- " वस्त्रमात्र के परित्याग से कोई निर्ग्रन्थ नहीं होता । यदि ऐसा हो, तो तिर्यंच भी निर्ग्रन्थ कहलाने लगेंगे। वस्तुतः चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से जो भावनैर्ग्रन्थ्य प्रादुर्भूत ९. “चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ? वयमेव, न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मात्रं नाद्रियते मध्यस्थैः । " वि.टी./गा 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३ । १०. देखिए, पूर्व शीर्षक १ । For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ I होता है, वही मोक्ष का उपाय है और भावनैर्ग्रन्थ्य का उपाय है दशविंध बाह्य ग्रन्थ (परिग्रह) का त्याग । ११ दशविध बाह्यपरिग्रह में वस्त्र भी सम्मिलित है, यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है।१२ इस कथन में पुनः वस्त्रत्याग को अनिवार्य बतलाकर अपराजितसूरि ने स्त्रियों के लिए मोक्ष का निषेध कर दिया है। ६. आगे तो वे एकदम स्पष्ट शब्दों में पुरुष शरीर को पूर्ण संयम का साधन निरूपित कर स्त्रीशरीर को संयम के अयोग्य घोषित कर देते हैं, जिसका तात्पर्य है स्त्रियों को मोक्ष के अयोग्य घोषित करना । अपराजितसूरि के निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य हैं "परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मान्तरे पुरुषतादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानम् । " (वि.टी. / गा. 'मरणाणि सत्तरस' २५ / पृ.५६) । अनुवाद - " परिपूर्ण संयम की आराधना करने की इच्छा से परभव पुरुषत्व आदि पाने की इच्छा करना प्रशस्तनिदान है ।" "संयमनिमित्तं पुरुषत्वमुत्साहः, बलं शरीरगतं दार्व्यं वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजः परिणामः। अस्थिबन्धविषयः वज्रर्षभनाराचसंहननादिः । एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानम् ।" (वि.टी./गा. 'संजमहेदुं पुरिसत्त' १२१०) । अनुवाद – “पुरुषत्व, उत्साह, बल (शरीरिक दृढ़ता ), वीर्य (वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न परिणाम) और अस्थिबन्धविषयक वज्रवृषभनाराचसंहनन आदि संयम के साधन हैं। ये पुरुषत्व आदि संयम के साधन मुझे प्राप्त हों, चित्त में ऐसा विचार करना प्रशस्तनिदान कहलाता है । " "पुरुषत्वादिनिदानमपि मोक्षाभिलाषिणो मुनयो न वाञ्छन्ति । यस्मात् पुरुषत्वादिरूपो भवपर्यायः । भवात्मकश्च संसारः भवपर्यायपरिवर्तस्वरूपत्वात् । " (वि.टी./गा. 'पुरिसत्तादिणिदाणं' १२१८ /पृ.६१६) । अनुवाद - मोक्ष के अभिलाषी मुनि 'मैं मरकर पुरुष होऊँ या मुझे वज्रवृषभनाराचसंहनन आदि प्राप्त हों' ऐसा भी निदान नहीं करते। क्योंकि पुरुष आदि पर्याय भवरूप है और भवपर्याय परिवर्तनस्वरूप होने से संसार भवमय है । " "पुरुषत्वादिकं संयमलाभश्च भविष्यति परजन्मनि । कस्य? कृतरत्नत्रयाराधनस्य निश्चयेन। तदर्थमकृतेऽपिनिदाने ।" (वि.टी./गा. 'पुरिसत्तादीणि' १२२०)। ११. देखिए, पादटिप्पणी ७ । १२.“कुप्यं वस्त्रं---।" वि. टी. / गा. 'बाहिरसंगा' १११३ / पृ.५७१ । For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० १ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३५ अनुवाद - " जो रत्नत्रय की आराधना करता है, उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्म में पुरुषत्व तथा संयम का लाभ निश्चितरूप से होता है । " "यदि तावत् उच्चैर्गोत्रता, पुरुषत्वं, स्थिरशरीरता, अदरिद्रकुलप्रसूतिर्बन्धुतेत्येवमादिकं मुक्तेः परम्परया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि संसारवृद्धिं करोति, कथं न करिष्यति दीर्घसंसारं परवधे चित्तप्रणिधानम्?" (वि.टी. / गा.' जइदा उच्चत्तादि' १२३३) । अनुवाद - " उच्च गोत्र, पुरुषपर्याय, शरीर की स्थिरता, अदरिद्रकुल में जन्म तथा बन्धुबान्धव आदि परम्परया मुक्ति के कारण हैं, तो भी चित्त में इनकी प्राप्ति का विचार करने से संसार की वृद्धि होती है, तब परवध का चित्त में विचार करना दीर्घसंसार का कारण कैसे नहीं होगा ?" इन समस्त वक्तव्यों में अपराजितसूरि ने पुरुषशरीर और वज्रवृषभनाराच संहनन को परिपूर्ण संयम का साधन तथा मुक्ति का परम्परया कारण कहा है, स्त्रीशरीर का कहीं नाम भी नहीं लिया। इससे स्पष्ट है कि टीकाकार पुरुषशरीर को ही मोक्ष की साधना के योग्य मानते हैं, स्त्रीशरीर को नहीं । यह उनके स्त्रीमुक्ति-निषेधक होने का ज्वलन्त प्रमाण है। ७. अपराजितसूरि ने आर्यिकाओं के लिए संयती शब्द का प्रयोग नहीं किया है, यह भी ध्यान देने योग्य है । यथा " " सव्वगणं - संयतानां, आर्यिकाणां श्रावकाणाम् इतरासां च समितिम् ।" (वि.टी. / गा. 'इत्तिरियं सव्वगणं' १७९ ) । अनुवाद - " सर्वगण का अर्थ है संयत (मुनि), आर्यिका श्रावक-श्राविका तथा अन्य जनों का समूह।" “चैत्यसंयतानार्थिकाः श्रावकांश्च बालमध्यमवृद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशलः ।" (वि.टी./गा. 'गच्छेज्ज एगरादिय' ४०५ ) । , अनुवाद - " जिनालय में स्थित संयतों (मुनियों), आर्यिकाओं और श्रावकों से तथा बाल, प्रौढ़ और वृद्धों से भिक्षास्थान ज्ञात करके गमन करना प्रश्नकुशलता है ।" इन वाक्यों में टीकाकार ने मुनियों के लिए तो 'संयत' शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु आर्यिकाओं के लिए 'संयती' शब्द प्रयुक्त नहीं किया। इससे उन्होंने यही ध्वनित किया है कि स्त्रियाँ संयतगुणस्थान के योग्य नहीं होतीं अर्थात् स्त्रीपर्याय से मुक्ति संभव नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ ८. दिगम्बर और श्वेताम्बर १३ दोनों परम्पराओं के आगमों के अनुसार स्त्रियों को चौदह पूर्वों का ज्ञान नहीं हो सकता। और तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि आदि के दो शुक्लध्यान पूर्वविदों को होते हैं- 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (९ / ३७) । इस तरह स्त्रियों को शुक्लध्यान भी नहीं हो सकते, जिसका अर्थ है निर्जरा का न होना और निर्जरा के न होने का अर्थ है मोक्ष का न होना । यह अपराजितसूरि को मान्य है । वे कहते हैं- " न ह्यकृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुक्लध्याने भवितुमर्हतः । अपायोपायभवविपाक लोकविचयादयो धर्मध्यानभेदाः । अपायादिस्वरूपज्ञानं जिनवचनबलादेव 'शुक्लेचाद्ये पूर्वविदः' इत्यभिहितत्वाच्च ।" (वि.टी. / गा. 'सज्झायं कुव्वंतो' १०३ / पृ.१३७)। इससे भी स्पष्ट है कि अपराजित सूरि को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। अपराजितसूरि की यह स्त्रीमुक्तिविरोधी मान्यता यापनीयमत के विरुद्ध है । यापनीयमत स्त्रीमुक्ति का प्रबल समर्थक है। इससे सिद्ध है कि विजयोदयाटीका के कर्त्ता यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमतानुयायी हैं । ५ अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध अपराजितसूरि ने मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चतुर्विध कषाय ये चौदह आभ्यन्तर परिग्रह के भेद तथा क्षेत्र, वास्तु, धन (सुवर्णादि), धान्य (ब्रीहि आदि), कुप्य (वस्त्र), भाण्ड (वर्तन), द्विपद (दासदासी), चतुष्पद (हाथीघोड़े आदि), यान (पालकी आदि) तथा शयन और आसन ये दस बाह्यपरिग्रह के भेद बतलाये हैं। इन दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्याग को अपरिग्रहमहाव्रत कहा है । १४ और दोनों में कारण-कार्य सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि जैसे तुषसहित चावल का तुष दूर किये बिना उसके भीतर का मल नहीं हटाया जा सकता, वैसे ही बाह्यपरिग्रह का त्याग किये बिना आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग संभव नहीं है । १५ उन्होंने यह भी कहा है कि चतुर्दश प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थ के त्याग से भावनैर्ग्रन्थ्य प्रकट होता है। वही मोक्ष का उपाय है। भावनैर्ग्रन्थ्य की प्राप्ति का उपाय होने से दस प्रकार के बाह्यग्रन्थ का त्याग मुमुक्षु के लिए उपयोगी है । (वि.टी./ गा. 'तो उप्पीले' ४७९ /पृ.३६६)। १३. अरहन्त-चक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा । गणहर-पुलाय - आहारगं च न हु भविय महिलाणं ॥ १५०६ ॥ प्रवचनसारोद्धार | १४. विजयोदयाटीका / गा. 'मिच्छत्तवेदरागा' १११२, 'बाहिरसंगा' १११३ । १५. देखिए, पादटिप्पणी ४ में मूल उद्धरण । For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३७ अपरिग्रह महाव्रत की यह परिभाषा यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि इससे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगी-मुक्ति, सबका निषेध हो जाता है, जो यापनीयमत की मौलिक मान्यताएँ हैं। इससे भी सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बर-मतानुगामी हैं। केवलिभुक्तिनिषेध अपराजितसूरि ने केवल प्रमत्तसंयतगुणस्थान में ही मुनि को क्षुधापरीषह और भोजन की आकांक्षा बतलाई है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं। सम्यग्दर्शन के अतीचार से सम्बन्धित शंका का समाधान करते हुए वे कहते हैं "कांक्षा, गाय॑म् आसक्तिः। सा च दर्शनस्य मलम्। यद्येवं आहारे कांक्षा, स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेर्विरताविरतस्य वा भवति। तथा प्रमत्तसंयतस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा सम्भवतीति सातिचारदर्शनता स्यात्। तथा भव्यानां मुक्ति-सुखाकांक्षा अस्त्येव। इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किन्तु दर्शनाद् व्रताद्दानादेवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं, रूपं, वित्तं, स्त्रीपुत्रादिकं, शत्रुमर्दनं, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता, एषा अतिचारो-दर्शनस्य।" (वि.टी./ गा. 'सम्मत्तादीचारा' ४३)। अनुवाद-"गृद्धि या आसक्ति को कांक्षा कहते हैं। वह सम्यग्दर्शन का मल है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा विरताविरत (श्रावक) को आहार की या स्त्री, वस्त्र, माला, अलंकार आदि की कांक्षा होती है। तथा परीषह से आकुल प्रमत्तसंयत मुनि को भोजन-पान आदि की कांक्षा होती है। वह भी सम्यग्दर्शन का अतिचार कहलायेगी? और भव्यों को मुक्तिसुख की आकांक्षा होती ही है। वह भी सम्यग्दर्शन का अतिचार कहलायेगी? समाधान-कांक्षामात्र अतिचार नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, व्रतधारण, देवपूजा और तप से उत्पन्न हुए पुण्य से मुझे अमुक कुल, रूप, धन, स्त्रीपुत्रादि, शत्रुविनाश अथवा सातिशय स्त्रीत्व या पुरुषत्व प्राप्त हो, इस प्रकार की कांक्षा यहाँ इष्ट है। वही सम्यग्दर्शन का अतिचार है। __इस वक्तव्य में अपराजितसूरि ने यह स्पष्ट किया है कि मुनियों को क्षुधापरीषह और भोजन-पान की आकांक्षा केवल प्रमत्तसंयत (छठे ) गुणस्थान में होती है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं। इस तरह उन्होंने 'केवली कवलाहार करते हैं', इस श्वेताम्बरीय और यापनीय-मान्यता का निषेध किया है। यह भी उनके यापनीय-मतानुयायी न होने का एक प्रमाण है। For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०१ यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी अन्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया है। उनका यहाँ संक्षेप में निर्देश किया जा रहा है। १. विजयोदयाटीका में गुणस्थानों के अनुसार जीव में विभिन्न भावों की योग्यता बतलायी गयी है। जैसे "असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत-गुणस्थानवाले जीव विषयराग से मुक्त तथा सकलपरिग्रह के त्यागी नहीं होते।" (वि.टी: / गा.' सिद्धे जयप्प' १)। "असंयतसम्यग्दृष्टि तथा विरताविरत को आहार, स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माल्य, अलंकार आदि की इच्छा होती है, और प्रमत्तसंयत को क्षुधापरीषह होता है तथा भोजन-पान की कांक्षा होती है।" (वि.टी. / गा.' सम्मत्तादीचारा'४३)। यह गुणस्थानानुसार जीवभाव-स्वामित्व-प्रदर्शन यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि इस सिद्धान्त से सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगीमुक्ति आदि यापनीयमतों का निषेध होता है, जैसा कि उद्धरणों से स्पष्ट है। २. विजयोदयाटीका में दिगम्बरमतानुसार साधु के मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख है,१६ जिनमें आचेलक्य, केशलोच, स्थितिभक्त, पाणिपात्रभोजित्व आदि परिगणित हैं। ये यापनीयमत के अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि उसके अनुसार आचेलक्य के बिना भी आपवादिक सचेललिंग से मुक्ति मानी गई है। ३. विजयोदयाटीका में वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं१८ जो द्रव्यस्त्रीमुक्ति के विरोधी होने से यापनीय मत में मान्य नहीं है। १६. वि.टी./गा. 'जदि मूलगुणे' ५८६ । १७. वि.टी./गा. 'सिद्धे जयप्प' १, 'अच्चेलक्कं लोचो' ७९, 'उत्तरगुण उज्जमणे' ११८, 'जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य' ५८६, 'को तस्स दिज्जइ' ५८७, 'सेवेज्ज वा' ६७७, 'गच्छंहि केइ' १९४४, 'सव्वेसु मूलुत्तरगुणेसु' १९५०। १८. "स्त्रीपुंन्नपुंसकवेदे---" (वि.टी. /गा. 'मरणाणि सत्तरस' २५/ पृ.५९) “त्रिविधवेदोदयजनितः प्राणिनां लिङ्गत्रयवर्तिनां परस्पराभिलाषः।" (वि.टी. / गा. 'सोक्खं अणवेक्खित्ता' १२४४), "ततो नपुंसकं वेदं स्त्रीवेदं हास्यादिषट्कं पुंवेदं सज्वलनक्रोधमानमायाः क्षपयति, पश्चाल्लोभसज्वलनम्।" ( वि.टी./गा. 'तत्तो णपुंसगित्थीवेदं' २०९१ )। For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३९ ४. अपराजितसूरि ने साधु के लिए केशलोच अनिवार्य बतलाया है और कहा है कि लोच करने से धर्म में उसकी महान् श्रद्धा का प्रदर्शन होता है, और दूसरों के मन में भी धर्म के प्रति श्रद्धा की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। लोच से कायक्लेश नामक उग्र तप होता है और अन्य दुःखों को सहन करने की सामर्थ्य आती है। लोच का दुःख धैर्यपूर्वक सहने से अशुभकर्मों की निर्जरा होती है।९ किन्तु यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगम कल्पसूत्र में लोच को अनिवार्य नहीं बतलाया गया है। भिक्षुभिक्षुणियाँ कैंची और छुरे से भी मुण्डन करा सकती हैं।२० अतः केशलोच की अनिवार्यता का प्रतिपादन भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ५. विजयोदयाटीका में साधु के लिए मांस, मधु और मद्य के सेवन का कठोरतापूर्वक निषेध किया गया है। किन्तु यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगम कल्पसूत्र में इनको केवल बार-बार खाने-पीने का निषेध है, सर्वथा निषेध नहीं।२२ अतः विजयोदयाटीका का यह सिद्धान्त भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ६. अपराजितसूरि को कालद्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य है।२३ किन्तु श्वेताम्बरआगमों में कालद्रव्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानी गयी है। यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे। अतः उन्हें भी काल-द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं हो सकता। अपराजितसूरि की यह मान्यता भी यापनीयमत-विरोधी है। ७. विजयोदयाटीका में चार अनुयोगों के जो नाम दिये गये हैं, वे बिलकुल वही हैं, जो दिगम्बराचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में उपलब्ध होते हैं, जैसे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।" किन्तु श्वेताम्बरसाहित्य में उनके नाम इस प्रकार हैं-चरणकरणानुयोग, धर्माकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनके अतिरिक्त अपृथक्त्वानुयोग और पृथक्त्वानुयोग ये दो नाम भी मिलते हैं।२५ यापनीय १९. वि.टी. / गा. 'अच्चेलक्कं लोचो' ७९, 'अप्पा दमिदो' ९०, 'आणक्खिदा' ९१ । २०. कल्पसूत्र / सूत्र २८३ / प्राकृतभारती जयपुर। २१. वि.टी. / गा. 'चत्तारि महावियडीओ २१५' 'एसणणिक्खेवा' १२००। २२. कल्पसूत्र / सूत्र २३७/ प्राकृतभारती जयपुर। २३. वि.टी. / गा. 'धम्माधम्मा' ३५, 'पंचेव अत्थिकाया' १७०६ । २४. "विचित्रं श्रुतं प्रथमानुयोगः करणानुयोगश्चरणानुयोगो द्रव्यानुयोग इत्यनेन विकल्पेन।" वि.टी./ गा.'वत्ता कत्ता' ५०२। २५. क- श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृष्ठ १६ । ख-प्रभावकचरित्र : आर्यरक्षित /श्लोक ८२-८४। ग- आवश्यकनियुक्ति / गा. ३६३-३६७। घ-विशेषावश्यकभाष्य / गा. २२८४-२२९५ । For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, अतः उनके अनुसार भी अनुयोगों के यही नाम हो सकते हैं। अपराजितसूरि द्वारा दिगम्बरमत का अनुसरण सिद्ध करता है कि वे यापनीयमत के अनुयायी नहीं हैं। विजयोदयाटीका में प्रतिपादित ये सभी सिद्धान्त यापनीयमत के विरुद्ध हैं । इनसे सिद्ध होता है कि अपराजितसूरि यापनीयसंघ के नहीं, अपितु दिगम्बरसंघ के आचार्य हैं। For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता यतः विजयोदयाटीका में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से अपराजितसूरि का यापनीय होना असिद्ध हो जाता है, अतः सिद्ध होता है कि यापनीयपक्षधर विद्वानों ने उन्हें यापनीय सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे या तो असत्य हैं या उनमें हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, अतः वे हेत्वाभास हैं। इसका प्रतिपादन आगे किया जा रहा है। मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग अमान्य यापनीयपक्ष __ अपराजितसूरि ने आचारांगादि श्वेताम्बर आगमों से उद्धरण देकर स्पष्ट किया है कि उनमें भी अचेलता को ही मुनि का लिंग बतलाया है, मात्र विशेष परिस्थितियों में वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गयी है। इस पर टिप्पणी करते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है-"इससे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार यापनीय हैं और वे उन सब आगमों को मानते हैं, जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलता के प्रकरण में दिये हैं। उनका अभिप्राय यह है कि साधुओं को. नग्न रहना चाहिए, नग्न रहने की ही आगमों की प्रधान आज्ञा है और कहीं-कहीं जो वस्त्रादि का उल्लेख मिलता है, सो उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य जरूरत आ पड़े, शीतादि की तकलीफ बरदाश्त न हो, या शरीर बेडौल, घिनौना हो, तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरह से अपवादरूप है।---विजयोदयाटीका का यह एक ही प्रसंग उसे यापनीय सिद्ध करने के लिए काफी है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.६५-६६)। श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया का कथन है-"अपराजितसूरि ने 'यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः' कहकर यति के परिग्रहधारण को ही अपवाद कहा है। अपवाद उत्सर्गसापेक्ष होता है। परिग्रहत्याग मुनि का उत्सर्गलिंग है, अतः परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिंग होगा। गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है। अपवादलिंगी मुनि के साथ भक्तप्रत्याख्यान के लिए उत्सुक गृहस्थ के लिंग को भी अपवादलिंग कहा गया है।" (यापनीय और उनका साहित्य / पृ.१२८)। For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"भगवती-आराधना मूल गाथा ७६ से ८६ तक में और उसकी अपराजित की विजयोदयाटीका में मुनि के उत्सर्ग और अपवादलिंग की विस्तृत चर्चा है। इसमें वस्त्रधारण को अपवादलिंग माना गया है। हमारे दिगम्बर आचार्य वस्त्रधारी को श्रावक की कोटि में वर्गीकृत करते हैं, उसे किसी भी स्थिति में मुनि नहीं मानते हैं, जब कि अपराजित उन्हें मुनि की कोटि में ही वर्गीकृत करते हैं, कहीं भी उन्हें उत्कृष्ट श्रावक नहीं कहते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अपवादलिंग की यह चर्चा मुनि के सन्दर्भ में ही है, गृहस्थ के सन्दर्भ में नहीं है। गृहस्थ तो सदैव ही वस्त्रयुक्त होता है। जो वस्त्रधारी ही है, उसके लिए वस्त्रधारण अपवाद कैसे हो सकता है? किन्तु हमारे कुछ मूर्धन्य दिगम्बर विद्वान् शब्दों को तोड़-मरोड़ कर अपवादलिंग को गृहस्थलिंग बताने का प्रयास करते हैं। पं० कैलाश चन्द्र जी भगवतीआराधना की भूमिका में लिखते हैं कि "इस टीका में अपराजितसूरि ने औत्सर्गिक का अर्थ सकलपरिग्रह के त्याग से उत्पन्न हुआ किया है तथा आपवादिक लिंग का अर्थ परिग्रहसहित किया है, क्योंकि यतियों के अपवाद का कारण होने से परिग्रह को अपवाद कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि आपवादिक लिंग का धारी गृहस्थ ही होता है, मुनि तो औत्सर्गिक लिंग का ही धारी होता है।" किन्तु अपवाद की उनकी यह व्याख्या भ्रान्त है। मूलग्रन्थ और टीका में अपवादलिंग का तात्पर्य लिंग, अण्डकोष आदि में दोष होने पर या सम्भ्रान्त कुल का एवं लजालु होने पर वस्त्रयुक्त रहकर भी मुनिचर्या करना है। अपवादलिंगी मुनि ही होता है, गृहस्थ नहीं। इस सम्बन्ध में डॉ० कुसुम पटोरिया का दृष्टिकोण यथार्थ है। वे लिखती हैं कि "अपवाद उत्सर्गसापेक्ष होता है। परिग्रहत्याग मुनि का उत्सर्गलिंग है, अतः परिग्रह-धारण भी यति का ही अपवादलिंग होता होगा। गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है। अतः अपवादलिंग मुनि का ही होता है।" यह बात इसी तथ्य को प्रमाणित करती है कि अपराजित की विजयोदया टीका यापनीयकृति है।" (जै.ध.या.स./पृ.१५७-१५८)। दिगम्बरपक्ष १.१. सवस्त्रमुक्ति के घोर विरोधी-प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में अपराजितसूरि के अनेक वचनों को उद्धृत कर सिद्ध किया गया है कि वे सवस्त्रमुक्ति के घोर विरोधी हैं। उन्होंने तेजस्वी शब्दों में सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया है। उन्होंने श्वेताम्बर साधुओं के सचेललिंग में ऐसे अठारह दोष बतलाये हैं, जो मोक्ष में बाधक हैं और एकमात्र अचेललिंग को ही मोक्ष का निर्दोष मार्ग प्ररूपित किया है। अतः उन्हें मोक्ष के लिए सचेल अपवादमार्ग का समर्थक बतलाना महान् असत्य कथन है। अपराजितसूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४३ क-"मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्" = मुक्ति का इच्छुक मुनि वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है। (वि.टी. /गा. "जिणपडिरूवं' ८४ / पृ.१२२)। ख-"सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा" = सकलपरिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि-परिग्रह ग्रहण किया है, इस प्रकार मन में पश्चात्ताप करने को निन्दा कहते हैं। (वि.टी./गा. अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२)। ग-"नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः" = मात्र वस्त्रत्याग करने से मनुष्य संयत (मुनि) नहीं होता, शेष परिग्रह का भी त्याग आवश्यक है। (वि. टी. / गा. 'ण य होदि संजदो' १११८ / पृ. ५७४)। ___घ-"चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते"= वस्त्रग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए वस्त्र के साथ सकलपरिग्रह का त्याग ही 'आचेलक्य' कहलाता है। (वि. टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२०)। ___ङ –"न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति" = जो असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत होता है, वह न तो विषयराग से निवृत्त होता है, न ही सकलपरिग्रह का त्यागी है। (वि.टी. / गा. 'सिद्धे जयप्प' १) । सचेलमुक्तिनिषेध के इनसे अधिक स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकते हैं? आश्चर्य तो यह है कि विजयोदयाटीका में मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का इतने स्पष्ट शब्दों में निषेध होते हुए भी प्रेमी जी और उनके अनुगामियों ने यह घोषित कैसे कर दिया कि अपराजितसूरि ने उसका समर्थन किया है? और कोई कारण दिखाई नहीं देता, अतः यही सिद्ध होता है कि प्रेमी जी जैसे विद्वान् ने भी टीका का आद्योपान्त अनुशीलन किये बिना ही ऐसा तथ्यविरुद्ध निर्णय दे दिया। १.२. सचेललिंगधारी के मुनि होने का निषेध-भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में गृहस्थों या श्रावकों के लिंग को अपवादलिंग कहा गया है, मुनि के सचेललिंग को नहीं, इसकी सप्रमाण सिद्धि भगवती-आराधना के अध्याय में की जा चुकी है। उसके दो-तीन प्रमाणों को यहाँ दुहरा देना उचित होगा क-अपराजितसूरि ने सचेललिंगधारी के मुनि (संयत) होने का निषेध किया है, (वि. टी. / गा.१११८), अतः उनके द्वारा सचेल अपवादलिंग को मुनि का लिंग कहा ही नहीं जा सकता। For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० ख- अपराजितसूरि ने मुनि के द्वारा धारण किये जाने पर उसके लिए निन्द का कारण बननेवाले सपरिग्रह लिंग को अपवादलिंग कहा है । २६ इससे सिद्ध हो है कि उनके मत से मुनि का लिंग अपवादलिंग नहीं है, अपितु श्रावक का लिं अपवादलिंग है। ग- अपराजितसूरि ने कहा है कि जब अपवादलिंगधारी अपने द्वारा अपवादलिं धारण किये जाने की निन्दा-गर्दा करते हुए समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है। तब वह भी शुद्ध (मुक्त) हो जाता है। २७ इससे भी सिद्ध होता है कि वे अपवादलिं को मुनि का लिंग नहीं मानते, अपितु श्रावक का लिंग मानते हैं। यदि वे उसे मु का लिंग मानते, तो अपवादलिंग ( समस्त परिग्रह) का त्याग किये बिना ही मुनि शुद्ध (मुक्त) होने का कथन करते । घ - अपराजितसूरि का कथन है कि अचेललिंग धारण करने पर ही मुनि गृहस् से भिन्न दिखता है- " अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिङ्गं - - - गृहित्वात् पृथग्भावो दर्शित भवति ।" (वि.टी./गा.' जत्तासाधण' ८१ / पृ.११६ - ११७) । यह वचन भी सिद्ध करता कि अपराजितसूरि के मतानुसार सचेल अपवादलिंग गृहस्थों का ही लिंग है। १.३. परिग्रहधारी यति ( संयत ) नहीं— श्रीमती पटोरिया लिखती हैं " परिग्रहत्याग मुनि का उत्सर्गलिंग हैं, अतः परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिं होगा ।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १२८) । यह अटकल प्रत्यक्षप्रमाण के विरुद्ध है। शिवा और अपराजित सूरि के ये वचन पूर्व में अनेकत्र उद्धृत किये जा चुके हैं कि वस्त्रादि समस्त-परिग्रह के त्याग के बिना कोई भी पुरुष मुनि ( संयत ) नहीं होता । अतः उन अनुसार परिग्रह-धारण मुनि का अपवादलिंग हो ही नहीं सकता । इसीलिए उन्होंने का भी परिग्रहधारण को मुनि का अपवादलिंग नहीं बतलाया । श्रीमती पटोरिया आगे कहती हैं- " परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिंग होग गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है । " ( वही / पृ. १२८ ) इस कथन से उन्होंने यति औ गृहस्थ के बीच का भेद ही समाप्त कर दिया है। जब दोनों परिग्रही हैं, तब दोन या तो यति हैं या दोनों गृहस्थ हैं, इसलिए दोनों के लिंग अपवादलिंग हैं। यह भेदविल २६.‘यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः । अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं परिग्रहसहि लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गं भवति ।" विजयोदयाटीका / गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६ । २७.‘“ अपवादलिङ्गस्थोऽपि --- कर्ममलापायेन शुद्धयति --- परिग्रहं परित्यजन् योगत्रयेण । -- सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गे मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृही इत्यन्तः सन्तापो निन्दा, गर्हा परेषामेवं कथनं, ताभ्यां युक्तः निन्दागर्हाक्रियापरिणत इति यावत् । विजयोदयाटीका / गा.' अववादियलिंगकदो' ८६ / पृ.१२२ । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४५ दर्शा देता है कि श्रीमती पटोरिया का परिग्रह-धारण को यति का अपवादलिंग मानना कितना अतर्क-संगत है! यह अतर्कसंगतता सिद्ध करती है कि लेखिका की मान्यता शिवार्य और अपराजितसूरि के मत के विरुद्ध है। १.४. वस्त्रधारी गृहस्थ ही वस्त्रधारी श्वेताम्बर साधु बनता है-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "गृहस्थ तो सदैव वस्त्रयुक्त होता है। जो वस्त्रधारी ही है, उसके लिए वस्त्रधारण अपवाद कैसे हो सकता है?" (जै. ध. या. स. / पृ. १५८)। इसका उत्तर बड़ा युक्तिसंगत है। वह यह है कि श्वेताम्बर और यापनीय स्थविरकल्पी साधु भी सदैव वस्त्रयुक्त होते हैं। वे दीक्षा के पूर्व भी वस्त्रधारी होते हैं, दीक्षा के समय भी और दीक्षा के बाद भी। ऐसा नहीं है कि वे जन्म से लेकर दीक्षा के पूर्व तक नग्न रहते हों और दीक्षा के समय वस्त्र धारण कर लेते हों। इस प्रकार वे सदैव वस्त्रधारी होते हैं। अतः जैसे सदैव वस्त्रधारी होते हुए भी श्वेताम्बरयापनीय-स्थविरकल्पी-साधुओं के लिए वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है, वैसे ही सदैव वस्त्र धारण करनेवाले गृहस्थों के लिए भी वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है। दूसरी बात यह है कि अपराजितसूरि ने सदा वस्त्रधारण करने वाले गृहस्थों के ही लिंग को अपवादलिंग कहा है। यथा "उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रन्थपरित्यागे भवं लिङ्गमौत्सर्गिकम्।---यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः। अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिङ्गमस्येत्यपवादिकं लिङ्गं भवति।" (वि.टी./ भ. आ. / गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६)। अनुवाद-"उत्कृष्टरूप से सर्जन अर्थात् सकलपरिग्रह का त्याग उत्सर्ग कहलाता है। उत्सर्ग अर्थात् सकलपरिग्रह के त्याग से होनेवाले लिंग को औत्सर्गिक लिंग कहते हैं। मुनियों के अपवाद (निन्दा) का कारण होने से परिग्रह की अपवाद संज्ञा है। जिसके परिग्रह हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रहसहित लिंगवाला अपवादिकलिंगी होता है।" इस कथन में अपराजितसूरि ने परिग्रहसहित लिंग को ही अपवादलिंग कहा है। परिग्रहसहितलिंग गृहस्थों का ही होता है। इसका प्रबल प्रमाण यह है कि अपराजितसूरि ने वस्त्रादिपरिग्रहधारी पुरुष के मुनि (संयत) होने का निषेध किया है-"नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी. /गा. 'ण य होदि संजदो' १११८)। अतः अपराजितसूरि ने सदा वस्त्रधारण करनेवाले गृहस्थ के वस्त्रधारण को ही अपवाद कहा है। इस आर्षवचन से भी सिद्ध है कि जो सदा वस्त्रधारण करता है, उसके लिए वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है। बल्कि उसके लिए ही वस्त्रधारण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ अपवाद होता है, क्योंकि जिसमें वस्त्रादि सकलपरिग्रह का त्याग कर नग्न होने की क्षमता है, उसके लिए नग्न होने के बाद मुनि रहते हुए कभी भी वस्त्रधारण रूप अपवादलिंग की आवश्यकता नहीं होती। यदि आवश्यकता होती है, तो वह मुनिपद से च्युत होकर गृहस्थ बन जाता है। .. अपराजितसूरि द्वारा प्ररूपित अपवादलिंग का यह लक्षण डॉक्टर सा० की मान्यता के विपरीत है। यह उन्हें खुले हृदय से स्वीकार करना चाहिए, किन्तु अपराजितसरि की मान्यता को अपनी मान्यता के अनुरूप प्ररूपित करना न्यायसंगत नहीं है। १.५. मुनिधर्म उत्सर्ग, श्रावकधर्म अपवाद-यह ध्यान देने योग्य है कि दिगम्बरमत में अचेल उत्सर्गलिंग और सचेल अपवादलिंग का विधान मुनि के लिए नहीं है, अपितु मुमुक्षु के लिए है। जो मोक्ष का अभिलाषी गृहस्थ है, उसे मुख्यतः मुनिधर्म का ही उपदेश दिया जाना चाहिए, ऐसा आप्तवचन है, क्योंकि वही वास्तविक मोक्षमार्ग है। चूंकि मुनिधर्म अचेललिंगवाला है, इसलिए अचेललिंग को उत्सर्गलिंग कहा गया है। किन्तु जब मुमुक्षु मुनिधर्म का उपदेश सुनकर भी उसे ग्रहण करने में असमर्थ होने से ग्रहण नहीं करता, तब उसे देशव्रतरूप सचेल श्रावकधर्म का उपदेश देने के लिए कहा गया है। श्रावकधर्म का पालन उसे मुनिधर्मपालन के योग्य बनाता है, अतः मोक्ष की दृष्टि से उपयोगी है। और यह श्रावकधर्म मुनिधर्म ग्रहण करने में असमर्थ पुरुषों को तब तक के लिए ग्रहण कराया जाता है, जब तक वे मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो जाते। मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ हो जाने पर यह त्याज्य होता है, अतः अपवादरूप है। इस पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहते हैं बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ १७॥ यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्॥ १८॥ अनुवाद-"जो जीव महाव्रतों का बार-बार उपदेश दिये जाने पर भी उन्हें ग्रहण नहीं करता, उसे अणुव्रतों का उपदेश देना चाहिए , क्योंकि अणुव्रत महाव्रतों के साधक हैं। जो अल्पमति उपदेष्टा मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थधर्म का उपदेश देता है, उसे आगम में दण्डनीय बतलाया गया है।" .. पण्डितप्रवर आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत में कहा है अथ नत्वाऽर्हतोऽक्षण-चरणान् श्रमणानपि। तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते॥ १/१॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४७ त्याज्यान्जस्त्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते॥ २/१॥ अनुवाद-"अरहन्तों तथा सकलचारित्रधारी मुनियों को नमस्कार करके मुनिधर्मानुरागी गृहस्थों के धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है।" (१/१)। "जो पुरुष जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश को सुनकर विषयों को निरन्तर त्याज्य समझता हुआ भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उन्हें त्यागने में समर्थ नहीं होता, उसके लिए गृहस्थधर्म-पालन की अनुमति दी जाती है।" (२/१)। ___इन वचनों से ज्ञात होता है कि दिगम्बरपरम्परा में गृहस्थधर्म का उपदेश उसे दिया जाता है, जो मुनिधर्म में अनुराग रखते हुए भी उसे पालन करने में असमर्थ होता है। किन्तु यह मोक्ष का मार्ग नहीं है, अपितु मुनिधर्म का साधक है। इसलिए इसे तब तक के लिए ग्रहण कराया जाता है, जब तक मुमुक्षु मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो जाता। मुनिधर्म ग्रहण करने का सामर्थ्य आ जाने पर यह त्याज्य होता है। इस कारण गृहस्थधर्म या गृहस्थलिंग अपवादलिंग है। १.६. विकल्प और अपवाद में अन्तर-लगता है कि यापनीयपक्षी विद्वानों ने विकल्प और अपवाद को समानार्थी समझ लिया है। किन्तु दोनों में महान् अंतर है। वैकल्पिक मार्ग वह है, जो समान फलदायी दो मार्गों में से रुचि के अनुसार स्थायीरूप से चुना जाय। अपवादमार्ग वह कहलाता है जो उत्सर्गमार्ग का ग्रहण संभव न होने पर तब तक के लिए ग्रहण किया जाय, जब तक उत्सर्गमार्ग को ग्रहण करने की क्षमता नहीं आ जाती। अर्थात् जो असामान्य परिस्थिति में ग्राह्य होता है और सामान्य परिस्थिति में त्याज्य, उसे अपवादमार्ग कहते हैं, जैसे सदा के लिए त्याज्य गृहस्थधर्म तब तक के लिए ग्राह्य होता है, जब तक उसे त्यागने की शक्ति नहीं आ जाती। वैकल्पिक मार्ग त्याज्य नहीं होता, क्योंकि उससे भी वही परिणाम प्राप्त हो सकता है, जो उसके प्रतिपक्षीमार्ग से। किन्तु अपवादमार्ग त्याज्य होता है, क्योंकि उससे वह परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता, जो उत्सर्गमार्ग से संभव है। यदि अपवादमार्ग से भी वही परिणाम संभव हो, तो वह अपवादमार्ग नहीं कहलायेगा, उत्सर्ग हो जायेगा। फिर दो उत्सर्ग मार्ग मिलकर दो वैकल्पिक मार्ग बन जायेंगे। तब उनमें यह भेद भी नहीं किया जा सकेगा कि यह उत्सर्ग है और यह अपवाद। इस स्थिति में उत्सर्ग और अपवाद शब्दों का प्रयोग ही निरर्थक हो जायेगा। यापनीय-परम्परा में अचेल और सचेल लिंग वैकल्पिक मार्गों के रूप में मान्य हैं, उत्सर्ग और अपवाद मार्गों के रूप में नहीं, क्योंकि दोनों से मोक्षरूप समान परिणाम की प्राप्ति, मानी गयी है। इसलिए श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में उत्सर्ग और For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ अपवाद नामों का प्रयोग औपचारिकता मात्र है। दिगम्बर-परम्परा में उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग शब्दों का प्रयोग सार्थक है, क्योंकि उसमें यह माना गया है कि उत्सर्गलिंग से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, अपवादलिंग से नहीं। अतः उत्सर्गमार्ग को ग्राह्य और अपवादमार्ग को त्याज्य बतलाया गया है। यह भगवती-आराधना के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है अववादियलिंगकदो व विसयासत्तिं अगूहमाणो य। जिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो॥ ८६॥ अनुवाद-"अपवादलिंगधारी पुरुष भी यदि अपनी शक्ति को न छिपाते हुए और अपनी निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग कर देता है, तो शुद्ध हो जाता है।" तात्पर्य यह कि परिग्रहरूप अपवादलिंग को त्यागने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस कथन से स्पष्ट है कि अपवादलिंग निन्दनीय, गर्हणीय और त्याज्य होता है, क्योंकि उससे वह मोक्षरूप फल प्राप्त नहीं होता, जो उत्सर्गमार्ग से प्राप्त होता है। __ अपवादलिंग का यह लक्षण स्पष्ट कर देता है कि यापनीय-परम्परा द्वारा मान्य सचेल मुनिलिंग अपवादलिंग नहीं है, अपितु वैकल्पिक लिंग है, क्योंकि उससे भी मोक्षरूप फल की प्राप्ति उसी प्रकार मानी गयी है, जैसे अचेल मुनिलिंग से। इसी कारण उसे त्याज्य नहीं माना गया है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सचेल गृहस्थलिंग ही अपवादलिंग है। १.७. परिग्रहसहितलिंग अपवादलिंग-'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने भी श्रीमती पटोरिया के वचन का अनुसरण करते हुए कहा है कि "भगवती-आराधना और उसकी टीका में जिस अपवादलिंग की चर्चा है, वह मुनि का अपवादलिंग है, गृहस्थ का नहीं माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी ने शब्दों को तोड़मरोड़कर उसे गृहस्थलिंग बताने का प्रयास किया है।" (देखिए , पूर्वोद्धृत वक्तव्य-जै. ध. या. स./पृ.१५७-१५८। यहाँ उक्त वक्तव्य का सार दिया गया है)। पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपराजितसूरि के अनुसार उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग की जो परिभाषा बतलाई है, उसे भी ग्रन्थलेखक ने पंडितजीकृत परिभाषा मानकर भ्रान्तिपूर्ण घोषित कर दिया है, जबकि वह अपराजितसूरि कृत ही है। अपराजितसूरिकृत वह परिभाषा पूर्व में उद्धृत की जा चुकी है। इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि ने ही परिग्रहसहितलिंग को अपवादलिंग कहा है, न कि पं० कैलाशचन्द्र जी ने। अतः ग्रन्थलेखक का आरोप मिथ्या है। वस्तुतः Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४९ ग्रन्थलेखक ने अपराजितसूरि के उपुर्यक्त वचनों का अनुशीलन नहीं किया, इसीलिए उन्हें यह भ्रान्ति हुई है कि अपवादलिंग की उक्त परिभाषा पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपने मन से गढ़ी है। "जो लिंग मुनियों के लिए अपवाद अर्थात् निन्दा का कारण होता है, वह अपवादलिंग है" (वि.टी./ भ. आ./ गा.७६) इस परिभाषा से ही अपराजितसूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि अपवादलिंग मुनियों का लिंग नहीं है, क्योंकि यदि उस परिग्रहसहित लिंग को मुनि ने अपना लिया, तो लोग उसकी निन्दा करेंगे कि यह है तो गृहस्थ, लेकिन अपने को मुनि कहता फिरता है। परिग्रह पाप का कारण है, मूर्छा का हेतु है, रागद्वेष का निमित्त है, अतः संसार का कारण होने से हेय है। उस हेय वस्तु को ग्रहण करनेवाला मोक्षमार्गी कैसे हो सकता है? और मुनि कैसे कहला सकता है? इस तरह अपवादलिंग पद में अपवाद (निन्दा) शब्द से ही टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह मुनिलिंग नहीं है, अपितु मुनियों के लिए जो अपवाद का कारण है, ऐसा श्रावक लिंग है। यतः अपराजितसूरि ने ही परिग्रहसहित लिंग को अपवादलिंग कहा है, अतः सिद्ध है कि उनके अनुसार वह श्रावकों का ही लिंग है, मुनियों का नहीं। १.८. प्रशस्तलिंगादिवालों का भी सचेललिंग अपवादलिंग-पूर्वोक्त ग्रन्थलेखक ने, न केवल अपवादलिंग की सही परिभाषा को भ्रान्तिपूर्ण बतलाया है, अपितु स्वाभीष्ट असंगत परिभाषा को ग्रन्थकारकृत परिभाषा के रूप में प्ररूपित भी किया है। पूर्वोद्धत वक्तव्य में उन्होंने कहा है-"मूल ग्रन्थ और टीका में अपवादलिंग का तात्पर्य लिंग, अण्डकोष आदि में दोष होने पर या सम्भ्रान्तकुल का एवं लज्जालु होने पर वस्त्रयुक्त रहकर भी मुनिचर्या करना है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१५८)। यह भी सर्वथा असत्य कथन है। शिवार्य और अपराजितसूरि, दोनों ने कहीं भी लिंगदोषादि होने पर मुनि के वस्त्रधारण को अपवादलिंग नहीं कहा है। उन्होंने तो प्रशस्त (दोषरहित ) और अप्रशस्त (दोषयुक्त), दोनों प्रकार के लिंगवाले (पुरुषचिह्नवाले) पुरुषों के वस्त्रधारण को अपवादलिंग बतलाया है। देखिए ___ "औत्सर्गिकलिङ्गस्थितस्य भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषवतः तदेव प्राग्गृहीतं लिङ्गमौत्सर्गिकम्। 'अववादियलिंगस्स वि'---(अपवादिकलिङ्गस्यापि औत्सर्गिकंलिङ्गं भवति) यदि प्रशस्तं शोभनं लिङ्गं मेहनं भवेत्। चर्मरहितत्वमतिदीर्घत्वं स्थूलत्वमसकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत्। पुंस्त्वलिङ्गतेह गृहीतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहणम्। अतिलम्बमानादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गृहीता।". (वि.टी./ गा. 'उस्सग्गिय' ७६)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ __ अनुवाद-"जो औत्सर्गिकलिंग में स्थित है, उसे भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना) के समय पूर्वगृहीत औत्सर्गिकलिंग ही धारण करना चाहिए। अपवादिकलिंगधारी को भी भक्तप्रत्याख्यान के समय औत्सर्गिक लिंग ही ग्रहण करना चाहिए, यदि उसका लिंग (पुरुषचिह्न) प्रशस्त हो अर्थात् चर्मरहितता, अतिदीर्घता, स्थूलता, बार-बार उत्थानशीलता आदि दोषों से रहित हो। यहाँ 'लिंग' शब्द से पुरुषचिह्न ग्रहण किया गया है। उससे दोनों अण्डकोषों का भी ग्रहण होता है। अर्थात् वे भी प्रशस्त हों, अतिलम्बमानता आदि दोषों से रहित हों। यहाँ प्रशस्तलिंगवाले को भी अपवादलिंगधारी बतलाया गया है। अपराजितसूरि आगे कहते हैं-"अपवादलिङ्गस्थानां प्रशस्तलिङ्गानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिकलिङ्गतेत्यस्यामारेकायामाह 'आवसधे वा' निवासस्थाने अप्रायोग्ये अविविक्ते महर्द्धिकः ह्रीमान् लज्जावान् तस्यापि भवेत् आपवादिकं लिङ्गं (मिथ्यादृष्टौ स्वजनो वा) (अथवा यदि) स्वजनो बन्धुवर्गो (मिथ्यादृष्टिः) भवेत्। आपवादिकलिङ्ग सचेललिङ्गम्।" (वि.टी. / गा. आवसधे वा' ७८)। अनुवाद-"क्या प्रशस्तलिंगवाले सभी अपवादलिंगधारियों को भक्तप्रत्याख्यान के समय औत्सर्गिकलिंग ग्रहण करना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जो अपवादलिंगधारी महासम्पत्तिशाली हो, लज्जालु हो अथवा जिसके परिवारजन मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हों, उसे सार्वजनिकस्थान में संस्तरारूढ़ होने पर अपवादलिंग में ही रहना चाहिए। सचेललिंग को अपवादलिंग कहते हैं। इस कथन में भी प्रशस्तलिंगवालों को अपवादलिंगधारी बतलाया गया है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले सवस्त्र पुरुषों को अपवादलिंगधारी कहा गया है। अतः पूर्वोक्त यापनीय-पक्षधर ग्रन्थलेखक का यह कथन सत्य नहीं है कि मूलग्रन्थ और टीका में अप्रशस्तलिंगादिवाले मुनियों के सचेललिंग को अपवादलिंग कहा गया है। यतः प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले (पुरुषचिह्नवाले) सवस्त्र पुरुष अपवादलिंगधारी कहे गये हैं. अतः सभी सवस्त्र परुषों का अपवादलिंगधारी कहा जाना सिद्ध होता है। सभी सवस्त्र पुरुषों का अर्थ है सभी गृहस्थ। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होता है कि भगवती-आराधना में प्रशस्त तथा अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले अपवादलिंगधारियों में मुनि का उल्लेख कहीं भी नहीं है तथा उसकी 'ण य होदि संजदो' (१११८) इस गाथा एवं इसकी टीका में वस्त्रादिपरिग्रहधारी के मुनि (संयत) होने का निषेध किया गया है। ये इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना और उसकी टीका में श्रावक के ही लिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी गयी है। For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५१ १.९. परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण-श्रीमती पटोरिया का यह कथन सत्य है कि 'अपवाद उत्सर्गसापेक्ष होता है। २८ किन्तु उत्सर्ग और अपवाद में परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण होती है। भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में श्रावक के सचेल अपवादलिंग को अचेल उत्सर्गलिंग का साधक बतलाया गया है।९ इसलिए उनमें साध्यसाधकभाव की अपेक्षा परस्परसापेक्षता है। प्रवचनसार (३/३०) की तत्त्वदीपिका एवं तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में भी मुनि की आहारविहार-स्वाध्याय आदि से रहित शुद्धोपयोगरूप अवस्था को उत्सर्ग तथा स्वाध्यायआहारग्रहणादिरूप शुभोपयोग-अवस्था को शुद्धोपयाग-साधक होने से अपवाद कहा गया है और साध्यसाधकभाव के कारण उन्हें परस्परसापेक्ष बतलाया गया है। किन्तु यापनीयमत में मुनि का सचेललिंग नग्नत्वरूप उत्सर्गलिंग का साधक स्वीकार नहीं किया गया है, अपितु स्वतन्त्ररूप से मोक्ष का हेतु माना गया है। अतः उनमें साध्यसाधकभाव न होने से परस्परसापेक्षता नहीं है। वह सचेललिंग अचेल-उत्सर्गलिंग का समकक्ष होने से वैकल्पिक सचेल-उत्सर्गलिंग ही है, अपवादलिंग नहीं। इस तरह यापनीयमत में कोई अपवादलिंग है ही नहीं। अपवादलिंग न होने से उत्सर्गलिंग भी नहीं है। फलस्वरूप उसमें उत्सर्ग-अपवाद संज्ञाएँ घटित ही नहीं होती। अतः जब यापनीयमत का सचेल मुनिलिंग अपवादलिंग ही नहीं है, तब उत्सर्गलिंग के साथ उसका सापेक्षभाव कैसे हो सकता है? सर्वथा नहीं। भगवती-आराधना और उसकी टीका में निर्दिष्ट श्रावक का सचेललिंग ही अचेल-उत्सर्गलिंग का साधक है, अतः वही अपवादलिंग है। इसलिए उसके साथ ही उत्सर्गलिंग का सापेक्षभाव घटित होता है। इस प्रकार सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में वर्णित सचेललिंग श्रावक का ही अपवादलिंग है। १.१०. मुनि के अपवादलिंग में वस्त्रग्रहण का विधान नहीं-दिगम्बरजैनसिद्धान्त में उत्सर्ग-अपवाद के दो भेद हैं-१. गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य और २. मुनि द्वारा ग्राह्य। अचेल मुनिलिंग समर्थ गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य उत्सर्गलिंग है और सचेलश्रावकलिंग असमर्थ गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य अपवादलिंग, जो उत्सर्गलिंग के ग्रहण का सामर्थ्य आ जाने पर त्याज्य होता है। तथा शुद्धोपयोग समर्थ दिगम्बरमुनि का उत्सर्गलिंग है और शुभोपयोग असमर्थ दिगम्बरमुनि का अपवादलिंग। यह भी शुद्धोपयोगरूप औत्सर्गिक मुनिलिंग का साधक है, जो उसके उपलब्ध हो जाने पर छूट जाता है। गृहस्थ द्वारा ग्राह्य उक्त द्विविध लिंगों का प्रतिपादन भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका २८. यापनीय और उनका साहित्य / पृ.१२८ । २९. विजयोदयाटीका / गा. 'अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ में हुआ है तथा मुनिग्राह्य उत्सर्ग-अपवादलिंगों का विवेचन प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका और तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में किया गया है। आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में इनका खुलासा इस प्रकार किया है 44 'अथ निश्चयव्यवहारसंज्ञयोरुत्सर्गापवादयोः कथञ्चित् परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्रस्य रक्षां दर्शयति । उत्सर्गापवादलक्षणं कथ्यते तावत् । स शुद्धात्मनः सकाशादन्यद् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गों निश्चयनयः, सर्वपरित्यागः, परमोपेक्षासंयमो, वीतरागचारित्रं, शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो व्यवहारनय, एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः, सरागचारित्रं, शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्र शुद्धात्मभावनानिमित्तं सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गे दुर्धरानुष्ठाने प्रवर्तमानस्तपोधनः शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य, संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिकं गृह्णातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गों भण्यते । यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः ? यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युत्सर्गसापेक्षोऽपवाद इत्यभिप्राय: ।" (ता.वृ./प्र.सा./३/३० /पृ. २८७-२८८)। ➖➖➖ अनुवाद- - " अब यह दर्शाते हैं कि निश्चय - व्यवहारसंज्ञक उत्सर्ग और अपवाद में परस्परसापेक्षभाव की स्थापना करते हुए चारित्र की रक्षा की जानी चाहिए। उत्स और अपवाद के लक्षण इस प्रकार हैं- शुद्धात्मा से भिन्न जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह है, उस सबका त्याग उत्सर्ग, निश्चयनय ( निश्चय - मुनिधर्म), सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र अथवा शुद्धोपयोग कहलाता है। ये सब एकार्थक हैं। इसमें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावना में सहायक (साधक) कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञान के उपकरण (शास्त्र) आदि ग्रहण करता है, उसे अपवाद, व्यवहारनय ( व्यवहारमुनिधर्म), एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र और शुभोपयोग कहते हैं। जब मुनि शुद्धात्मभावना के प्रयोजन से सर्वपरित्यागात्मक दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्गमार्ग में प्रवृत्त होता है, तब शुद्धात्मतत्त्व के साधक मूलभूत संयम का अथवा संयम के साधक मूलभूत शरीर का विनाश न हो जाय, इस दृष्टि से कुछ प्रासुक आहारादि ग्रहण करता है, वह अपवादसापेक्ष उत्सर्ग कहलाता है । और जब अपवादरूप अपहृतसंयम में प्रवृत्त होता है, तब भी शुद्धात्मतत्त्व के साधक मूलभूत संयम को अथवा संयम के साधक मूलभूत शरीर को अयुक्त आहार-विहार द्वारा हानि न पहुँचे, इस अपेक्षा से युक्ताहारविहारपूर्वक आचरण करता है, इसे उत्सर्गसापेक्ष अपवाद कहते । अर्थात् जिस तरह से संयम की विराधना न हो, उस तरह से आचरण करना उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५३ इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन आगे कहते हैं-"चारित्र की रक्षा के लिए अपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग तथा उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद त्याज्य है।---क्योंकि यदि मुनि दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्गमार्ग में ही प्रवर्तन करे और 'प्रासुक आहार आदि ग्रहण करने से अल्प कर्मबन्ध होगा', यह सोचकर आहारादि ग्रहण न करे तो आर्तध्यानपूर्वक मरण होगा, और पूर्वकृत पुण्य के फल से देवलोक में जन्म लेगा। वहाँ संयम की साधना असंभव होने से महान् कर्मबन्ध होगा। इस कारण अपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग त्याज्य है और शुद्धात्मभावना- साधक होने से अल्पबन्धात्मक, किन्तु बहुलाभात्मक अपवादसापेक्ष उत्सर्ग ग्राह्य है। इसी प्रकार यदि मुनि अपवादमार्ग में प्रवर्तन करते समय व्याधिव्यथा आदि के प्रतीकार के बहाने इन्द्रियसुख की लालसा से स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है, तो उससे संयम की विराधना होगी, जिसके फलस्वरूप महान् कर्मबन्ध होगा। इसलिए उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद भी त्याज्य है और अल्पबन्धात्मक किन्तु बहुगुणात्मक उत्सर्गसापेक्ष अपवाद ग्राह्य है। (ता.वृ./प्र.सा.३/३१)। __ आचार्य अमृतचन्द्र ने भी तत्त्वदीपिका (प्र.सा./३/३१) में मुनि के लिए विहित उत्सर्ग-अपवादमार्ग का ऐसा ही प्ररूपण किया है। इन दोनों टीकाओं में मुनि के लिए अपवादमार्ग का जो स्वरूप बतलाया गया है, उसमें क्षुधा और व्याधि का प्रतीकार करने के लिए आहार और औषधि के ग्रहण का विधान तो है, किन्तु शीतोष्णदंशमशक अथवा लज्जा परीषहों का प्रतीकार करने के लिए वस्त्रग्रहण का विधान नहीं है। अतः मुनि के अपवादलिंग को सचेल मानना युक्तिसंगत नहीं है। श्वेताम्बर-यापनीय मतों में मुनि के जिस स्थविरकल्पी सचेललिंग को अपवादलिंग माना गया है, वह वस्तुतः अपवादलिंग नहीं है, अपितु जिनकल्प का वैकल्पिक लिंग है, क्योंकि उससे भी उसी प्रकार मोक्ष संभव माना गया है, जिस प्रकार जिनकल्प से। अपवादलिंग उत्सर्गलिंग के समकक्ष नहीं होता, अपितु उसका साधक होता है। अतः सचेल अपवादलिंग गृहस्थ का ही लिंग हो सकता है, मुनि का नहीं। शिवार्य और अपराजितसूरि दोनों ने कहा है कि "जो अपवादलिंगधारी महर्द्धिक (अतिवैभवशाली) हैं अथवा लजालु हैं या जिनके स्वजन (परिवार के लोग) मिथ्यादृष्टि (अन्यधर्मावलम्बी) हैं, उन्हें सार्वजनिक स्थान में (जहाँ लोग आते-जाते हैं) अपवादलिंग में ही रहना चाहिए, औत्सर्गिक लिंग ग्रहण नहीं करना चाहिए।"३० ___ ये 'महर्द्धिक' आदि धर्म गृहस्थों में ही होते हैं, मुनियों में नहीं। मुनि तो समस्त परिग्रह का त्याग एवं स्वजनों से ममत्व का विसर्जन कर जिनप्रतिरूप धारण कर ३०. आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महडिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं॥ ७८ ॥ भगवती-आराधना। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ चुके होते हैं।३१ अतः उनके साथ 'अतिवैभवशाली', 'मिथ्यादृष्टि-स्वजनोंवाले' आदि विशेषण प्रयुक्त नहीं हो सकते। यह भी गृहस्थों के ही अपवादलिंगी कहे जाने का एक प्रमाण है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि भगवती-आराधना में आर्यिकाओं के लिए अल्पपरिग्रहरूप उत्सर्गलिंग३२ तथा श्राविकाओं के लिए बहुपरिग्रहरूप अपवादलिंग बतलाया गया है, जिसे टीकाकार ने "औत्सर्गिकं तपस्विनीनां इदरं वा श्राविकाणाम्" (गा.८० / पृ.११५) कहकर स्पष्ट किया है। ___ इन अनेकप्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी टीका में श्रावकों के सचेललिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, श्वेताम्बर-यापनीय मुनियों के सचेललिंग को नहीं। अतः अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु कि उन्होंने मुनियों के लिए सचेल अपवादलिंग का समर्थन किया है, सर्वथा असत्य है। हेतु के असत्य होने सिद्ध है कि. अपराजितसूरि यापनीय आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। २ श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य अस्वीकार्य यापनीयपक्ष प्रेमी जी का कथन है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर अचेलता का समर्थन किया है और विशेष परिस्थितियों में (पुरुषचिह्न के बीभत्स होने पर या शीतादिपरीषह-सहन की शक्ति न होने पर) मुनि के लिए वस्त्र-ग्रहण का औचित्य प्रतिपादित किया है। इससे सूचित होता है कि वे श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे। अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय थे। (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.६१६६)। दिगम्बरपक्ष २.१. सचेलमुक्ति का निषेध-अपराजितसूरि के पूर्वोद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि उन्होंने कथित परिस्थितियों में सचेल-अपवादलिंग का औचित्य श्रावकों के लिए ३१. जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होंति ॥ ८४॥ भगवती-आराधना। ३२.क- इत्थीवि य जं लिगं दिटुं उस्सग्गियं व इदरं वा। तं तत्थ होदि ह लिंगं परित्तमवधिं करेंतीए॥ ८०॥ भगवती-आराधना। ख- "उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवत्यल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।" वि.टी./गा. ८०/ पृ.११५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५५ प्रतिपादित किया है, मुनियों के लिए नहीं । " मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् "= मोक्ष का इच्छुक यति वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का उपाय नहीं हैं। (वि.टी./ भ.आ./गा. ८४), उनका यह एक ही वाक्य यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि उन्होंने मुनियों के लिए सचेललिंग का समर्थन नहीं किया। यह श्वेताम्बर - आगमों को प्रमाण न मानने का प्रबल प्रमाण है। अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण दिये हैं, पर यह देखना चाहिए कि उन्होंने इससे क्या सिद्ध करने का प्रयत्न किया है? उन्होंने श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण देकर यह सिद्ध किया है कि उनमें भी मोक्ष के लिए अचेलत्व को आवश्यक बतलाया गया है और भिक्षुओं को वस्त्रग्रहण की अनुमति वस्त्रत्याग की अयोग्यता या असमर्थता होने पर ही दी गयी है, किन्तु वस्त्रग्रहण को निर्दोष नहीं माना है, मोक्ष में बाधक ही बतलाया है । इसीलिए उन्होंने कहा है कि ग्रहण किये गये वस्त्रादि का त्याग भी आवश्यक है। इस आपवादिक वस्त्रग्रहण के विषय में अपराजितसूरि की दृष्टि उनके इन कथनों से स्पष्ट हो जाती है कि "मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् " (गा. ८४ ) तथा " नैव संयतो भवति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः "= केवल वस्त्र का त्याग करने और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत ( मुनि) नहीं होता । (वि.टी./ भ.आ./गा.१११८) । इस प्रकार अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों से जो उद्धरण दिये हैं, वे सचेलत्व को मुक्तिविरोधी एवं एकमात्र अचेलत्व को मुक्तिसाधक सिद्ध करने के लिए दिये हैं। इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वे श्वेताम्बर - आगमों (उनमें प्रतिपादित सचेलमुक्ति की मान्यता) को प्रमाण मानते हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि उन्हें उनका प्रामाण्य अस्वीकार्य है। 4 अपराजितसूरि श्वेताम्बर- आगमों को प्रमाण मानते हैं, यह तो तब कहा जा सकता था, जब वे अचेलत्व और सचेलत्व दोनों को या केवल सचेलत्व को मोक्ष का उपाय बतलाते, किन्तु उन्होंने तो 'मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् ' यह कहकर सचेलत्व के मोक्षमार्ग होने का दो टूक शब्दों में निषेध कर दिया है। अतः वे श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते हैं, यह कथन एकदम असत्य सिद्ध होता है। २.२. श्वेताम्बरागमों में वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष, निर्दोषतापेक्ष नहीं – अपराजितसूरि 'आचेलक्कुद्देसिय' (४२३) गाथा की टीका में सचेलता में अनेक दोष और अचेलता में अपरिमित गुण बतलाने के बाद यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत होते हैं कि श्वेताम्बर - आगमों में भी मोक्ष के लिए अचेलत्व आवश्यक माना गया है । किन्तु उक्त आगमों में भिक्षु भिक्षुणियों को वस्त्रधारण करने की अनुमति दी गयी For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ 1 है, इससे अपराजितसूरि को अपनी बात सिद्ध करने में बाधा आती है । अतः वे पहले इसी का निराकरण करते हैं। वे कहते हैं कि श्वेताम्बर आगमों में भिक्षु - भिक्षुणियों को जो वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है, वह कारणापेक्ष है, निर्दोषतापेक्ष नहीं । अर्थात् स्त्रियों का शरीर तो प्रकृत्या ही वस्त्रत्याग के योग्य नहीं होता। कई पुरुषों का पुरुषचिह्न अशोभनीय होता है, इसलिए वे वस्त्रत्यागने के अयोग्य होते हैं। कुछ शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ होते हैं, इसलिए वस्त्रपरित्याग नहीं कर सकते। कुछ पुरुषों को नग्न होने में लज्जा आती है, इस कारण उनके लिए वस्त्रत्याग असंभव होता है । इन कारणों से उन्हें वस्त्रधारण करने की अनुमति दी गई है। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनके वस्त्रधारण में वे दोष नहीं होते, जो अपराजितसूरि ने 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा की टीका में बतलाये हैं। जो भी मनुष्य वस्त्रधारण करेगा, उसमें नियम से वे दोष उत्पन्न होंगे और वह मोक्षप्राप्ति में असमर्थ होगा । इसलिए जो वस्त्रधारण करता है, उसे उनका त्याग करना आवश्यक है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए अपराजितसूरि सचेलता के दोषों और अचेलता गुणों का वर्णन करने बाद श्वेताम्बरपक्ष की और से प्रश्न उठाते हैं " अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषुवस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितं - -पडिलेखे पात्रकम्बलं तु ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ?' आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं- 'पडिलेहणं, पादपुंछणं, उग्गहं, कडासणं अण्णदरं उपधिं पावेज्ज इति । तथा वत्थेसणा वुत्तं 'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं, तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ (तीणि) वत्थाणि धारेज्ज पडिलीहणं चउत्थं ।' तथा पादेसणाए कथितं 'हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए इति ।' पुनश्चोक्तं तत्रैव - 'अलाबुपत्तं वा, दारुगपत्तं वा, मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं, अप्पबीजं अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्सामीति ।' वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते? भावनायां चोक्तं- 'बरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे' इति । तथा सूत्रकृतस्य पुण्डरीके अध्याये कथितं 'ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति ।' निसेवेप्युक्तं- 'कसिणाइं वत्थकंबलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहुगं' इति एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथमिति ?" (वि.टी./ भ.आ./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३-३२४) । अनुवाद - " यदि आप ऐसा मानते हैं कि सचेलता में अनेक दोष हैं ओर अचेलता में अपरिमित गुण हैं, इसलिए अचेलता को स्थितिकल्प कहा गया है, तो यह भी देखिए कि पूर्वागमों में वस्त्रपात्रादिग्रहण का उपेदश दिया गया है। जैसे आचारप्रणिधि For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५७ (दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन)३३ में कहा गया है कि "पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना अवश्य करनी चाहिए।" यदि पात्रादि नहीं होते, तो उनकी प्रतिलेखना आवश्यक कैसे की जाती? आचारांग का भी लोकविचय नाम का दूसरा अध्याय है। उसके पाँचवें उद्देश में कहा गया है कि 'भिक्षु प्रतिलेखना, पादप्रौंच्छन, उग्गह (एक उपकरण) और कटासन (चटाई), इनमें से कोई एक उपधि रखे। ___ "तथा वस्त्रैषणा में कहा गया है-"जो साधु लज्जाशील हो, वह एक वस्त्र तो धारण करे, दूसरा प्रतिलेखना के लिए रखे। जिसका लिंग बेडौल होने से जुगुप्साकर हो, वह दो वस्त्र धारण करे और तीसरा प्रतिलेखना के लिए रखे। और जिसे शीतादि परीषह सहन न हों, वह तीन वस्त्र धारण करे और चौथा प्रतिलेखना के लिए रखे। इसी प्रकार पात्रैषणा में कहा गया है-"जो लज्जाशील एवं पादचारी है, उसके लिए वस्त्र आदि ग्रहण करना योग्य है।" पुनः उसी में यह कहा गया है कि यदि मुझे तूंबी, लकड़ी या मिट्टी का अल्पप्रमाण, अल्पबीज, अल्पप्रसार और अल्पाकार पात्र मिलेगा, तो उसे ग्रहण करूँगा। "यदि वस्त्रपात्र ग्राह्य न होते, तो ये सूत्र क्यों रचे जाते? तथा भावना (आचारांग के २४वें अध्ययन) में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक देवदूष्य वस्त्र धारण किया, उसके बाद वे अचेलक हो गये। सूत्रकृतांग के पुण्डरीक-अध्ययन में कहा है कि वस्त्रपात्रादि की प्राप्ति के लिए धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्र के दूसरे उद्देश में भी कहा है कि जो भिक्षु वस्त्र-कम्बल एक साथ ग्रहण करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त करना पड़ता है।" "इस प्रकार जब सूत्र में वस्त्रग्रहण का निर्देश है, तब अचेलता युक्तिसंगत कैसे हो सकती है?" इसका उत्तर अपराजितसूरि निम्नलिखित शब्दों में देते हैं-"अत्रोच्यतेआर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.४२३/ पृ.३२४)। अनुवाद-"इसका उत्तर यह है कि आगम में स्त्रियों को कारण की अपेक्षा (वस्त्रत्याग की शारीरिक अयोग्यता के कारण) वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गयी है। भिक्षुओं में जो लज्जालु (ह्रीमान्) हो अथवा जिसका पुरुषावयव अप्रशस्त हो (अयोग्यशरीरावयवः) अर्थात् लिंग के मुख पर चर्म न हो या अण्डकोश लम्बे हों अथवा जो परीषह सहने में असमर्थ हो, वह वस्त्रग्रहण करता है।" ३३. पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास/ द्वितीय संस्करण/पृ.६१ । For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ इसकी पुष्टि के लिए अपराजितसूरि आचारांग और कल्पसूत्र से उद्धरण भी देते हैं और अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहते हैं 'तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम् । यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद् वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । " (वि.टी./ भ.आ./गा. ४२३)। 44 अनुवाद - " इसलिए वस्त्रपात्र का ग्रहण कारण की अपेक्षा कहा गया है। और जो उपकरण कारण की अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं, उनका जिस तरह ग्रहण का विधान है, उसी तरह उनका परिहरण (त्याग) भी अवश्य कहना चाहिए अर्थात् उसी प्रकार उनके परित्याग का भी विधान है। इसलिए अनेक ( श्वेताम्बरीय) सूत्रों में जो अर्थाधिकार की अपेक्षा वस्त्रपात्र का कथन किया गया है, वह कारणविशेष की अपेक्षा किया गया है, ऐसा मानना चाहिए ।" इन वचनों से सिद्ध है कि अपराजितसूरि ने आचारांग और कल्पसूत्र के उद्धरणों से यह अभिप्राय ग्रहण किया है कि आर्यिकाओं तथा कतिपय भिक्षुओं को वस्त्र ग्रहण की अनुमति इसलिए दी गई है कि उनके शरीर और मन वस्त्रत्याग के योग्य नहीं है । किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उक्त शारीरिक और मानसिक अयोग्यताओं के कारण वे वस्त्रग्रहण के उन अठारह दोषों से बच जाते हैं, जिनका प्ररूपण अपराजितसूरि ने 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा की टीका में किया है। अपराजितसूरि का मत है कि वस्त्रग्रहण करनेवाला कोई भी स्त्री या पुरुष उन दोषों से नहीं बच सकता। वे मोक्ष में बाधक हैं, अतः गृहीत वस्त्रों का त्याग करने पर ही मोक्षयोग्य मनःशुद्धि संभव होती है। इसीलिए अपराजितसूरि ने कहा है कि कारण की अपेक्षा जो वस्त्रपात्रादि उपकरण ग्रहण किये जाते हैं, उनका परित्याग भी आवश्यक होता है - " गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम्।" (गा.४२३ / पृ.३२५) । और उन्होंने भगवती - आराधना की विजयोदया टीका में यह बात अनेक बार अलग-अलग शब्दों में दुहराई है कि वस्त्रादिपरिग्रहधारी की मुक्ति संभव नहीं है । यथा १. " मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्।" (गा.८४/पृ.१२०)। २. " नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रात्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।''(गा.१११८) । ३. " सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गों, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रदिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तः सन्तापो निन्दा ।" (गा. ८६ / पृ. ११२) । ये वचन प्रमाणित करते हैं कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों के अनुसार भिक्षु भिक्षुणियों को वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष मानते हुए भी निर्दोषतापेक्ष नहीं मानी । मुक्ति की दृष्टि से वस्त्रग्रहण को सदोष अर्थात् मुक्तिविरोधी ही माना है । For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५९ दिगम्बरपरम्परा में भी आर्यिका, क्षुल्लक और एलक को वस्त्रग्रहण की अनुज्ञा कारणापेक्ष ही दी गई है। वस्त्रग्रहण परम्परया मोक्ष का साधक है, साक्षात् नहीं। श्वेताम्बरसचेल-साधुओं को अपराजितसूरि दिगम्बर-परम्परा के इन उत्कृष्ट श्रावकों के ही समकक्ष मानते हैं। २.३. श्वेताम्बरागम-वचनों का स्वीकरण और निरसन-अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से जो उद्धरण दिये हैं, उनमें से कुछ उनकी दिगम्बरीय मान्यताओं के अनुकूल हैं और कुछ प्रतिकूल। उन्होंने अनुकूल मान्यताओंवाले उद्धरणों को स्वीकृति देकर और प्रतिकूल मान्यताओंवाले उद्धरणों का निरसन कर अपनी एकान्त-अचेलमुक्तिवादी मान्यता की पुष्टि की है। ऊपर भिक्षु-भिक्षुणियों को वस्त्रधारण की अनुमति. देनेवाले श्वेताम्बर-आगमों के जो वचन उद्धृत किये गये हैं, उन्हें अपराजितसूरि ने स्वीकृति प्रदान की है, क्योंकि उनमें वस्त्रग्रहण कारणापेक्ष बतलाया गया है, निर्दोषतापेक्ष नहीं, जिससे वस्त्रग्रहण की मोक्षसाधकता का निषेध हो जाता है। इसके विपरीत आचेलक्कुद्देसिय गाथा (४२३) की टीका में दिये गये आचारांग के एक उद्धरण के आधार पर श्वेताम्बरों की ओर से शंका उठायी है कि सूत्र (आगम) में पात्र की प्रतिष्ठापना बतलायी गयी है, अतः संयम के लिए पात्र का ग्रहण किया जाना सिद्ध होता है। अपराजितसूरि ने इसका निरसन किया है। वे कहते हैं-"नहीं, अचेलता का अर्थ है परिग्रह का त्याग और पात्र परिग्रह है, अतः उसका भी त्याग सिद्ध ही है"__ "पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यतीति मन्यसे, नैव। अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एव।" (वि. टी./भ.आ./गा.४२३/पृ.३२५)। इसी प्रकार अपराजितसूरि ने भावना (आचारांगसूत्र के २४ वें अध्ययन) का एक उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है कि भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक देवदूष्य वस्त्र धारण किया, उसके बाद अचेलक हो गये। उद्धरण देकर इस मत का भी निरसन किया है। वे कहते हैं __ "यच्च भावनायामुक्तं वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणोत्ति तदयुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्।" (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/पृ.३२५)। __ अनुवाद-"भावना में जो कहा गया है कि भगवान् महावीर एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे, उसके बाद अचेलक हो गये, वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस विषय में अनेक मतभेद हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ इसके बाद वे उन मतभेदों पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-"कुछ लोगों का कहना है कि वह वस्त्र उसी दिन उस व्यक्ति ने ले लिया, जिसने उसे वीर जिन के शरीर पर डाला था। कुछ लोग कहते हैं कि वह काटों और शाखाओं में उलझतेउलझते छह माह में फट गया। कुछ लोग बतलाते हैं कि एक वर्ष से अधिक बीत जाने पर उसे खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया, जब कि दूसरे लोगों का कथन है कि वह हवा से उड़ गया और भगवान् ने उस पर ध्यान नहीं दिया। यह भी कहा जाता है कि हवा से उड़ जाने पर उस व्यक्ति ने पुनः भगवान् के कन्धे पर रख दिया, जिसने पहले रखा था। इस तरह बहुत मतभेद होने के कारण इस बात में कोई तथ्य दिखाई नहीं देता (कि भगवान् एक वर्ष तक चीवरधारी रहे)। यदि भगवान् ने यह उपदेश देने के लिए वस्त्र ग्रहण किया था कि सचेललिंग मोक्ष का मार्ग है, तो उन्हें उसका विनाश स्वीकार क्यों हुआ? उसे तो सदा धारण किये रहना चाहिए था। और यदि उन्हें यह ज्ञात था कि वह नष्ट हो जायेगा, तो उसे धारण करना निरर्थक था। और यदि यह ज्ञात नहीं था. तो वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं। तथा यदि उन्हें सचेलमार्ग का उपदेश देना अभीष्ट था, तो 'प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म अचेल था' (आचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं-बृहत्कल्पभाष्य / गा.६३६९) यह वचन मिथ्या ठहरता है। तथा नवस्थान में जो यह कहा है कि 'जैसे मैं अचेल हुआ, वैसे ही अन्तिम तीर्थंकर भी अचेल होंगे' इस कथन से भी विरोध आता है। इसके अतिरिक्त यदि अन्य तीर्थंकरों ने भी वस्त्र ग्रहण किया था, तो वीर भगवान् के समान उनके भी वस्त्र त्यागने का काल क्यों नहीं बतलाया गया? इसलिए यही कहना युक्त है कि वीर भगवान् जब सम्पूर्ण वस्त्रादिपरिग्रह का त्याग कर ध्यान में लीन हुए, तब किसी ने उनके कन्धे पर वस्त्र डाल दिया। यह तो एक तरह का उपसर्ग था (वस्त्रधारण करना नहीं था)-"एवं तु युक्तं वक्तुं सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचित् वस्त्रं निक्षिप्तम्। उपसर्गः स इति।" (वि.टी/गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२५-३२६)। दूसरी ओर श्वेताम्बर-आगमों के जो वचन अचेलत्व के प्रतिपादक हैं, उन्हें उद्धृत कर अपराजितसूरि ने अपनी एकान्त-अचेलमुक्ति की दिगम्बरीय मान्यता को बल दिया है। उत्तराध्ययन के ऐसे वचनों को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं ___ "इदं चाचेलता प्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते। इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति परिणत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए। अचेलपवरे भिक्खू जिणरूवधरे सदा॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी चावि अचेलगो। अहं तो सेचलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चिंतए॥ For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६१ अलग सलूहस्स (स्स लहुअस्स) सीदं भवदि एगदा । णातपं से विचिंतेज्जो अधिसिज्ज अलाइसो ॥ ण मे णिवारणं अस्थि अहं तावग्गि सेवामि छाइयं ता ण विज्जदि । इति भिक्खूण चिंतए ॥ संजदस्स अचेल गाण लूहस्स तणेसु असमाणस्स णं ते होदि तवस्सिणो । विराधिदो ॥ संवुडंगतिणंसित । एगेण ताव कप्पेण दंसावाए जो संपसिद्धं किमंगं पुण दीहकप्पेहिं ॥ ३४ 44 अनुवाद - " परीषहसूत्रों (उत्तराध्ययन) में जो शीत, डाँस-मच्छर, तृणस्पर्श आदि परीषहों के सहने का कथन है, वह सिद्ध करता है कि मुनि को अचेल रहने का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि सचेल को शीतादि की बाधाएँ नहीं होतीं । ये सूत्र भी अचेलता का ही समर्थन करते हैं " वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता । भिक्षु अचेल होकर सदा जिनरूप धारण करता है। भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता कि 'सवस्त्र सुखी रहता है और निर्वस्त्र दुःखी, इसलिए मैं वस्त्र धारण करूँगा ।' निर्वस्त्र साधु को कभी ठंड की पीड़ा होती है, तो वह धूप की इच्छा नहीं करता, बल्कि आलस त्याग कर सहन करता है । 'मेरे पास शीतनिवारण का कोई साधन नहीं है, न कोई छप्पर है, अतः मैं आग का सेवन करूँ,' भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता। जो तपस्वी अचेल होने से भारमुक्त है, वह संयम की विराधना नहीं करता।" इसके बाद अपराजितसूरि अचेलता के समर्थन में उत्तराध्ययन की निम्नलिखित गाथाएँ उद्धृत करते हैं “एतान्युत्तराध्ययने– आचेलक्को य जो धम्मो जो वायं सणरुत्तरो । देसिदो वड्ढमाणेण पासेण य महप्पणा ॥ एगधम्मे पवत्ताणं उभएसं दुविधा पविद्वाणमहं इति वचनाच्चरमतीर्थस्यापि अचेलता सिद्ध्यति ।" (वि.टी./ भ.आ./गा. ४२३ / पृ.३२७)। ३४. विजयोदयाटीका / भगवती - आराधना / गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ.३२६-३२७ । लिंगकप्पणा । संसयमागदा ॥ For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ अनुवाद-"ये गाथाएँ उत्तराध्ययन में कही गयी हैं। केशी गौतम से प्रश्न करते हैं-"वर्धमान भगवान् ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया है और भगवान् पार्श्वनाथ ने सान्तरोत्तर (सचेल) धर्म की देशना की थी। एक ही धर्म के अनुयायियों में दो प्रकार के लिंग की कल्पना क्यों की गयी, मेरा मन इस संशय में पड़ा हुआ है।" "इस कथन से सिद्ध होता है कि अन्तिम तीर्थंकर ने भी अचेलधर्म ही प्रवर्तित किया था।" अपराजितसूरि आगे दशवैकालिकसूत्र की निम्नलिखित गाथा को उद्धृत कर मुनि के लिए अचेलधर्म के ही विधान की पुष्टि करते हैं णग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोमणखस्स य। । मेहुणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि॥ "इति दशवकालिकायामुक्तं। एवमाचेलक्यं स्थितिकल्पः।" (वि.टी./भ. आ./ गा.४२३/ पृ.३२७)। अनुवाद-"नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख-रोमवाले तथा मैथुन से विरक्त साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है?" "यह दशवैकालिका में कहा गया है। इस प्रकार आचेलक्य स्थितिकल्प की प्ररूपणा सम्पन्न हुई।" ये वचन उद्धृत कर अपराजितसूरि ने इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में ऐसे अनेक वचन हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि अचेलत्व ही मोक्ष का मार्ग है। अतः कारणापेक्ष वस्त्रधारण मोक्षसाधक नहीं है, यह स्वतः सिद्ध २.४. श्वेताम्बर-आगमों में अचेलता के उपदेश का हेतु : वस्त्रग्रहण की सदोषता-जब हम विचार करते हैं कि श्वेताम्बरागमों में भिक्षु-भिक्षुणियों को कारणापेक्ष वस्त्रधारण की अनुमति देते हुए भी अचेलता आवश्यक क्यों मानी गयी है, तब यही सिद्ध होता है कि सचेलता अठारह प्रकार के दोषों का हेतु होने से मुक्ति का मार्ग नहीं है। यदि सचेलता मुक्ति का मार्ग होती, तो 'उत्तराध्ययन' आदि आगमों के पूर्वोक्त उद्धरणों में अचेलता को युक्तिपूर्वक आवश्यक न बतलाया जाता। उनमें अचेलता को इस युक्ति से आवश्यक सिद्ध किया गया है कि सचेल को शीतादिपरीषहों की पीड़ा नहीं होती, जिसे सहना संवर और निर्जरा के लिए अनिवार्य है। परीषहों से बचने के लिए वस्त्रधारण करनेवाला संवर और निर्जरा से वंचित हो जाता है, जो मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। अतः वह मोक्ष से भी वंचित हो जाता है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६३ २.५. श्वेताम्बरमान्य सचेलमुक्ति पर तीव्र प्रहार – भगवती - आराधना की 'आचेल - क्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अचेलत्व को ही एकमात्र जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमान्य सचेलत्व पर जबरदस्त प्रहार किया है । उसमें ऐसे अठारह दोष बतलाये हैं, जो मोक्षविरोधी हैं । ३५ श्वेताम्बरग्रन्थों में सचेलत्व को मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए जो जो तर्क दिये गये हैं, ३६ उनमें से एक-एक को लेकर अपराजितसूरि ने मोक्षविरोधी सिद्ध किया है। विशेषावश्यकभाष्य में सचेललिंग को मोक्ष का मार्ग कहा गया है, अपराजितसूरि ने उसे मोक्ष का अनुपाय सिद्ध किया है । विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्र - पात्रादिपरिग्रह को संयमोपकारी बतलाया गया है, अपराजितसूरि ने उसे संयम की शुद्धि में बाधक सिद्ध किया है । विशेषावश्यकभाष्य में उसके मूर्च्छाहेतुत्व का निषेध किया गया है, अपराजितसूरि ने उसे मूर्च्छा का हेतु प्रतिपादित किया है। विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्र - पात्रादि के कषायहेतुत्व को स्वीकार करते हुए भी उन्हें अग्रन्थ कहा है, अपराजितसूरि कहते हैं कि शरीर को वस्त्र से परिवेष्टित रखनेवाला यदि अपने को निर्ग्रन्थ कहे, तो अन्यमतावलम्बी भी निर्ग्रन्थ सिद्ध होंगे। विशेषावश्यकभाष्यकार कहते हैं कि नग्न रहने पर स्त्रियों के दर्शन से यदि लिंगोत्थान हो जाता है, तो वह लोगों की दृष्टि में आ जाने से लज्जा का कारण बन जाता है। अपराजितसूरि का कथन है कि वस्त्रधारण करने से मुनि को अपने कामविकार को छिपाने का अवसर मिल जाता है, जिससे वह निर्भय होकर मानसिक कामसेवन करता है। इसके विपरीत नग्न मुनि को इन्द्रियनिग्रह में उसी प्रकार अत्यन्त सावधान रहना पड़ता है, जैसे सर्पों से भरे वन में यात्रा करते हुए विद्यामन्त्रादि से रहित मनुष्य को । विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि तीर्थंकरों का अचेललिंग शिष्यों के लिए अनुकरणीय नहीं है, क्योंकि वे उसके योग्य नहीं होते । अपराजितसूरि कहते हैं कि तीर्थंकर मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे, इसलिए उन्होंने जिस लिंग को धारण किया था, वही समस्त मोक्षार्थियों के लिए धारण करने योग्य है । ३७ जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिन प्रतिमाएँ अचेल होती हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं । ३८ विशेषावश्यकभाष्य, प्रवचनपरीक्षा आदि में बतलाया गया है कि जिनकल्पी साधु अधिक से अधिक बारह उपकरण (उपधि) और स्थविरकल्पी कम से कम चौदह ३५. देखिये, प्रकरण १, शीर्षक १.१.१ से १.१.१८ । ३६. देखिये, तृतीय अध्याय के द्वितीय एवं तृतीय प्रकरण । ३७. देखिये, इसी अध्याय का प्रकरण १ / शीर्षक १ । ३८. देखिये, इसी अध्याय का प्रकरण १/ शीर्षक १.१.१६ । For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ उपकरण रखता है । ३९ अपराजितसूरि कहते हैं कि चौदह प्रकार की उपधि रखने पर प्रतिलेखना अधिक करनी पड़ती है, जो हिंसा का हेतु है । अचेल मुनि उससे मुक्त रहता है। तथा कमण्डलु और पिच्छी को छोड़कर शेष वस्तुएँ संयम का साधन नहीं हैं। ४१ जहाँ श्वेताम्बर शास्त्रों में उपधि को संयम का उपकरण कहा गया है, वहाँ अपराजितसूरि ने उपधि को कर्मबन्ध का हेतु बतलाया है । ४२ श्वेताम्बरग्रन्थ कहते हैं कि जिनकल्पिक साधु वस्त्रग्रहण इसलिए नहीं करते थे कि उनके पास वस्त्र के अभाव में भी नग्न न दिखने की लब्धि (ऋद्धि) होती थी, अतः वे अनावश्यक थे, ४३ जब कि अपराजितसूरि का कथन है कि मुनि के वस्त्रग्रहण न करने का कारण यह है कि वे मोक्ष के उपाय नहीं हैं, अपितु मोक्ष में बाधक हैं। दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि के समान यापनीय भी ( जो श्वेताम्बरों से ही उत्पन्न हुए थे) इस लब्धिविषयक श्वेताम्बरमत से सहमत नहीं थे, क्योंकि जहाँ श्वेताम्बर यह मानते हैं कि लब्धि का अभाव हो जाने पर जिनकल्पिकों का अस्तित्व जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद समाप्त हो गया, वहाँ यापनीयसम्प्रदाय में १५वीं शती ई० तक जिनकल्पी साधु होते रहे, जिसका तात्पर्य यह है कि जिनकल्पी (नग्न) साधु होने के लिए लब्धि आवश्यक नहीं थी । अपराजितसूरि की ये मान्यताएँ श्वेताम्बरमत की सभी मौलिक मान्यताओं को मोक्षविरोधी घोषित करती हैं । वस्त्रपात्रादिपरिग्रह को मोक्ष का अनुपाय, संयम में बाधक और मूर्च्छाहेतु मानने से अचेलता को ही निर्ग्रन्थता स्वीकार करने से तथा एकमात्र तीर्थंकरलिंग को ही मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करने से सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के सारे सिद्धान्त जिन पर श्वेताम्बरमत एवं यापनीयमत अवलम्बित हैं, अपराजितसूरि को अमान्य हो जाते हैं। ३९. “एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पिआणं तु । - - - सम्प्रत्येकः स्थविरकल्प एव तद्वान् पुनर्जघन्यतोऽपि चतुर्दशोपकरणवानेव । " प्रवचनपरीक्षा १/२/३१/ पृ.९४-९५ । ४०. " चतुर्दशविधमुपधिं गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता, न तथाचेलस्य ।" विजयोदयाटीका / भगवती आराधना / 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२२ । ४१. “संयमः साध्यते येनोपकरणेन तावन्मात्रं कमण्डलुपिच्छमात्रम् । --- अवशिष्ट उपधिर्नाम पिच्छान्तरं कमण्डल्वन्तरं वा तदानीं - - - संयमसाधनं न भवति । येन साम्प्रतं संयमः साध्यते तदेव संयमसाधनमथवा ज्ञानोपकरणमवशिष्टोपधिरुच्यते ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा. 'संजम - साधणमेत्तं' १६४/पृ.२१० । ४२. " मृषा कथं परिग्रहः इति चेद् उपधीयते अनेनेत्युपधिरति शब्दव्युत्पत्तौ उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा. 'आलोयणाए' १६८ । ४३. देखिये, द्वितीय अध्याय / तृतीय प्रकरण / शीर्षक ३.३.१ 'जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न । ' For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६५ २.६. श्रुतसागर सूरि की भूल-तत्त्वार्थवृत्तिकार श्रुतसागरसूरि (१५वीं शती ई०) ने भी अपराजित सूरि के अभिप्राय को समझने में भूल की है। यह उनके निम्नलिखित वक्तव्य से ज्ञात होता है। अपवादलिंग का वर्णन करते हुऐ वे लिखते हैं "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न सीव्यन्ति, प्रयत्नादिकं न कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति। केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लजितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम्।" (तत्त्वार्थवृत्ति / ९/४७ / पृ.३१६)। अनुवाद-"कोई असमर्थ मुनि शीतकाल आदि में कम्बल शब्द से वाच्य कौशेय वस्त्र आदि ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु वे उसे धोते नहीं हैं, न सीते हैं, न उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। शीतकाल बीत जाने पर उसे त्याग देते हैं। कुछ मुनि शरीर में कामविकार उत्पन्न होने पर लज्जावश वस्त्रधारण कर लेते हैं। यह व्याख्या भगवतीआराधना में कहे हुए अभिप्राय के अनुसार अपवादरूप से जाननी चाहिए।" यहाँ स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने भगवती-आराधना की टीका में जो यह उल्लेख किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में साधु के लिए तीन परिस्थितियों में अपवादरूप से वस्त्रग्रहण की अनुमति है, उसे श्रुतसागरसूरि ने अपराजितसूरि का स्वकीय मत मान लिया है, बल्कि भगवती-आराधना का मत समझ लिया है। वे देशव्रती ब्रह्मचारी थे, साथ ही भट्टारक भी। इसलिए तथ्यों की गहराई में गये बिना उनके द्वारा ऐसा मान लिया जाना उसी प्रकार संभव है, जैसे पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया के द्वारा संभव है। तत्त्वार्थसूत्र के "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" (५/४१) सूत्र में निर्गुणाः विशेषण की व्याख्या भी उन्होंने सिद्धान्त के विरुद्ध की है। उनके और भी अनेक कथन सिद्धान्तविरुद्ध हैं।७५ पूर्वोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने एकमात्र अचेललिंग को मुनिलिंग कहा है और सचेललिंग को गृहिलिंग तथा उसे मुनि के लिए निन्दनीय बतलाया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अपराजितसूरि ने आचेलक्य को ही मोक्ष का सार्वभौमिक, सार्वकालिक और एकमात्र मार्ग सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसी प्रसंग में यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि श्वेताम्बरआगमों में भी आचेलक्य को ही एकमात्र मोक्षमार्ग बतलाया गया है। उनमें जो वस्त्रधारण करने के उल्लेख हैं, वे विशेष परिस्थितियों से सम्बद्ध हैं और मोक्ष के लिए त्याज्य हैं। वे दिगम्बरमत में क्षुल्लक और एलक की व्यवस्था के अनुरूप हैं। इस प्रकार उन उल्लेखों को उद्धृत कर अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमत का ही प्रदर्शन किया है, अपने मत का नहीं। ४४. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड ३/ पृ. ३९१ । ४५. तत्त्वार्थवृत्ति/प्रस्तावना : पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य / पृष्ठ ९६-९७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ आगे चलकर श्रुतसागरसूरि को अपनी भूल का बोध हुआ है । इसलिए उन्होंने दंसणपाहुड की टीका में अपवादलिंग धारण करनेवाले को मिथ्यादृष्टि घोषित कर दिया । देखिए " अपवादवेषं धरन्नपि मिथ्यादृष्टिर्ज्ञातव्य इत्यर्थः । कोऽपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति । तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः। तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशुद्धिरहित उत्पन्नमेहनपुटदोषो लज्जावान् वा शीताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽयमप्यपवादलिङ्गः प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । 'सामान्योक्तौ विधिरुत्सर्गो विशेषोक्तौ विधिपरवाद' इति परिभाषणात्। " ( दंसणपाहुड / टीका / गा.२४ )। अनुवाद- -" अपवादवेष धारण करते हुए भी मुनि को मिथ्यादृष्टि ही जानना चाहिए। वह अपवादवेष क्या है? कलिकाल में म्लेच्छादि लोग नग्नरूप देखकर मुनियों पर उपसर्ग करते हैं । इसलिए मण्डपदुर्ग में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने संयमियों को यह उपदेश दिया कि चर्या आदि के समय चटाई आदि के द्वारा शरीर को ढँक लेना चाहिए और चर्या के बाद उसे छोड़ देना चाहिए। तथा राजा आदि विशिष्ट वर्ग में उत्पन्न पुरुष यदि उत्कृष्ट वैराग्य से युक्त होता है, परन्तु लिंगशुद्धिरहित होने अथवा लिंग के चर्मरहित होने से नग्न होने में लज्जा का अनुभव करता है, तो वह वस्त्रधारण कर सकता है अथवा जो शीतादि सहने में असमर्थ है, उसे वस्त्र धारण करने की छूट है। यह अपवादलिंग कहलाता है । उत्सर्गवेश तो नग्नत्व ही है । सामान्य स्थिति का नियम उत्सर्ग कहलाता है और विशेष स्थिति का नियम अपवाद । इस तरह पूर्व में जिस अपवादलिंग को भ्रम से भगवती आराधना या अपराजित सूरि का अभिप्राय मानकर श्रुतसागरसूरि ने मुनि के लिए उचित बतलाया था, उसे यहाँ अनुचित बतलाया । उसे धारण करनेवाले मुनि को यहाँ मिथ्यादृष्टि घोषित किया है। इसका तात्पर्य यह है कि श्रुतसागरसूरि की दृष्टि में अपवादलिंग मुनियों का लिंग नहीं है, अपितु क्षुल्लक, एलक आदि श्रावकों का लिंग है। यदि श्रावक उसे धारण करें, तो वे मिथ्यादृष्टि नहीं होंगे, किन्तु यदि मुनि धारण करेगा, तो वह मिथ्यादृष्टि होगा । निष्कर्ष यह कि अपराजितसूरि ने विशेष परिस्थितियों में मुनि के लिए वस्त्रधारण करने की अनुमति का उल्लेख करनेवाले श्वेताम्बर - आगमों के जो उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, उनका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना है कि श्वेताम्बरमत में भी वस्त्रधारण की अनुमति शारीरिक और मानसिक अयोग्यतावश वस्त्रत्याग संभव न होने के कारण For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६७ दी गई है, मोक्षमार्ग होने के कारण नहीं। जिन मुमुक्षुओं के लिए वस्त्रत्याग संभव नहीं हैं, उन्हें सवस्त्र अवस्था में ही स्व-योग्यतानुसार व्रतादि का अभ्यास करना चाहिए, ताकि इस भव या परभव में वस्त्रत्याग-योग्य अवस्था प्राप्त होने पर मोक्षमार्गभूत अचेलत्व को अंगीकार किया जा सके। श्वेताम्बर-आगमों से उद्धृत उक्त वचनों के विषय में श्रुतसागरसूरि को यह भ्रम हो गया था कि उनके द्वारा अपराजितसूरि ने मुनियों के लिए अपवादरूप से वस्त्रधारण का समर्थन किया है। यह भूल इसलिए हुई कि श्रुतसागरसूरि ने अपराजितसूरि द्वारा कहे गये उन वचनों पर ध्यान नहीं दिया, जिनमें उन्होंने सचेललिंग को केवल श्रावकों का अपवादलिंग बतलाया है और परिग्रहात्मक होने के कारण मुनियों के लिए निन्दा का हेतु कहा है। उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वस्त्रधारी को अपराजितसूरि ने मुनि ही नहीं माना और स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मुक्ति का अभिलाषी वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का मार्ग नहीं है। ___ जिन आधुनिक विद्वानों ने अपराजितसूरि को यापनीय माना है, उन सबने श्रुतसागर सूरि की भूल दुहरायी है। २.७. दिगम्बर आगमों का प्रामाण्य स्वीकार्य-अपराजितसूरि ने सर्वत्र दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों को ही प्रमाण माना है। उदाहराणार्थ, भगवती-आराधना की 'णाणस्स दंसणस्स य सारो' (११) इस गाथा में जो यह भाव व्यक्त किया गया है कि 'मोहनीयजनित कलंक से रहित यथाख्यातचारित्र ज्ञान और दर्शन का सातिशयरूप है' इसे उन्होंने प्रवचनसार की 'चारित्तं खलु धम्मो' (१/७) इस गाथा के द्वारा प्रमाणित किया है। इसी प्रकार 'जो वस्तु ज्ञान का विषय नहीं बनती, वह रागद्वेष का निमित्त नहीं होती' ('सज्झायं कुव्वंतो' गा.१०३) इस कथन की सत्यता पञ्चास्तिकाय की 'गदिमधिगदस्स देहो' (१२९) इस गाथा के अर्थ से सिद्ध की है। इसी प्रकार 'संजममाराहंतेण' (६) गाथा में आये संयम शब्द के पर्यायवाची चारित्र का लक्षण सर्वार्थसिद्धि (१/१) के निम्न वाक्य से पुष्ट किया है-"(यथा चाभ्यधायि-) कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रमिति।" भगवती-आराधना के ऐसे अनेक कथन समयसार, बारस-अणुवेक्खा, मूलाचार, सर्वार्थसिद्धि, पञ्चास्तिकाय आदि दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों से उद्धरण देकर प्रमाणित किये गये हैं। ये सात प्रमाण सिद्ध करते हैं कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के सचेलमुक्ति-प्रतिपादक वचनों का निरसन कर एकान्त-अचेलमुक्तिवाद की स्थापना की है तथा दिगम्बर-आगमोक्त वचनों से भगवती-आराधना के कथनों का समर्थन किया है। अतः उनके विषय में जो यह कहा गया है कि उन्हें श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ स्वीकार्य है, वह सर्वथा असत्य है। इसलिए यह कथन भी असत्य है कि वे यापनीय आचार्य हैं। ३ कवलाहार-विषयक अवर्णवाद का उदाहरण अनावश्यक यापनीयपक्ष श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया कहती हैं-"अर्हन्त-अवर्णवाद के अवसर पर दिगम्बरग्रन्थों में केवलि-कवलाहार का उदाहरण दिया जाता है, वह विजयोदया में नहीं है, इस अनुल्लेख से भी वे (अपराजितसूरि) यापनीय प्रतीत होते हैं।" (यापनीय और उनका साहित्य / पृ.१३४)। दिगम्बरपक्ष प्रथम प्रकरण में (केवलिभुक्तिनिषेध' शीर्षक ६ के अन्तर्गत) अपराजितसूरि के वे वचन उद्धृत किये गये हैं, जिनसे केवली के कवलाहारी होने का निषेध होता है। श्रीमती पटोरिया यदि उपर्युक्त वचन पढ़ लेतीं, तो अपराजितसूरि को यापनीय सिद्ध करने के लिए कथित तर्क न देतीं। भले ही अपराजितसूरि ने अर्हन्त-अवर्णवाद के अवसर पर केवली को कवलाहारी कहने का उदाहरण न दिया हो, किन्तु वे केवलिकवलाहार की मान्यता के विरोधी थे, यह उनके पूर्वोक्त वचनों से प्रमाणित है। इससे सिद्ध होता है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। ___ तथा उक्त विदुषी ने जहाँ केवलि-कवलाहार का उदाहरण न देने की बात कही है, वहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि टीकाकार जैनेतर दार्शनिकों द्वारा किये जानेवाले अवर्णवादों का उदाहरण दे रहे हैं। "अरहन्त भगवान् में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती, क्योंकि सभी प्राणी रागादि और अज्ञान से युक्त होते हैं," यह कथन जैमिनी आदि जैनेतर दार्शनिकों का है। अपराजितसूरि ने इसे अरहन्तों का अवर्णवाद (मिथ्या-दोषारोपण) कहा है।"४६ यह इस बात से स्पष्ट है कि इसका निराकरण टीकाकार ने उन्हीं दार्शनिकों को दृष्टान्त बनाकर किया है। यथा_ "एतेषामवर्णवादानामसम्भवप्रदर्शनम्। पुरुषत्वाद् रथ्यापुरुषवत् सर्वज्ञो वीतरागो वा न भवत्यर्हन् इति साधनमनुपपन्नम्। असर्वज्ञतामवीतरागतां चान्तरेण पुरुषता नोपपद्यते इत्यन्यथानुपपत्तेरभावात्। जैमिन्यादयो न सकलवेदार्थज्ञा पुरुषत्वादविपालवद् इति शक्यं वक्तुम्।" (वि.टी./ भत्तीपूया' गा. ४६ / पृ.९३)। ४६. "सर्वज्ञतावीतरागते नार्हति विद्येते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतरित्यादि रहतामवर्णवादः।" विजयोदयाटीका/ भगवती-आराधना/ गा. 'भत्ती पूया' ४६ / पृ.९१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६९ अनुवाद—“ये अवर्णवाद असम्भव हैं । ' अरहन्त सर्वज्ञ या वीतराग नहीं है, क्योंकि वे पुरुष हैं, जैसे राह चलते पुरुष' इस प्रयोग में 'पुरुष' हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि असर्वज्ञता और अवीतरागता के बिना कोई पुरुष नहीं होता, ऐसी अन्यथानुपपत्ति नहीं है। इस तरह से तो यह भी कहा जा सकता है कि 'जैमिनी आदि समस्त दार्शनिक वेदार्थ के ज्ञाता नहीं हैं, क्योंकि वे पुरुष हैं, जैसे भेड़ चरानेवाला पुरुष ।" इससे स्पष्ट है कि उक्त सन्दर्भ में अपराजितसूरि ने जैनेतर दार्शनिकों द्वारा किये जाने वाले अवर्णवादों का प्रसंग उठाया है और उसका प्रयोजन है उनके द्वारा किये गये दोषारोपणों का निराकरण करना, न कि श्वेताम्बरों द्वारा किये जाने वाले दोषापरोपणों का निराकरण । इसलिए केवली - कवलाहार का दृष्टान्त नहीं दिया गया। ४७ इतना स्पष्ट सन्दर्भ होने पर भी श्रीमती डॉ० पटोरिया ने उक्त उदाहरण से अपराजित सूरि के केवलिकवलाहार - समर्थक होने की कल्पना कर ली, यह छलवाद से अपना अभिप्राय सिद्ध करने का उदाहरण है । यह बिना दाल, चावल, आग और पानी के खिचड़ी पका लेने की अद्भुत दक्षता की मिसाल है। डॉ० सागरमल जी ने भी उक्त कथन के सन्दर्भ की स्वयं छानबीन किये बिना श्रीमती पटोरिया के कथन को अपराजितसूरि के कथन से भी अधिक प्रामाणिक मानकर स्वीकार कर लिया और एक दिगम्बराचार्य को बलात् दिगम्बर खेमे से खींचकर यापनीयों के खेमे में डाल दिया। खेद है कि इन दोनों यापनीयपक्षपोषक ग्रन्थ-लेखकों ने अपराजितसूरि के " प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही मुनि को क्षुधापरीषह और भक्त-पान की आकांक्षा होती है," इस वचन को पढ़े बिना ही या पढ़ने के बाद भी जान बूझकर उन पर यापनीय होने की छाप लगा दी और इतिहास को विकृत करने का अशुभकार्य कर डाला । यतः यह हेतु भी असत्य है, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। 1 यापनीयपक्ष ४ दिगम्बर- चन्द्रनन्दी यापनीय चन्द्रनन्दी से भिन्न अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में अपने को चन्द्रनन्दी महाप्रकृत्याचार्य का प्रशिष्य कहा है। गंगवंशी पृथ्वीकोङ्गणि महाराज के शक सं० ६९८ ( वि० सं० ८३३) के दानपत्र में श्रीमूलमूलगणाभिनन्दित नन्दिसंघ ( यापनीय - नन्दिसंघ) के चन्द्रनन्दी आचार्य का उल्लेख है । (जै. शि. सं. / मा.च. / भा. २/ले. क्र. १२१) अपराजितसूरि इन्हीं ४७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १५९ । For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ के प्रशिष्य रहे होंगे। अतः वे यापनीय थे। (प्रेमी जी/जै. सा.इ./ प्र.सं./ पृ.५२-५३, ५६)। दिगम्बरपक्ष अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, इससे सिद्ध है कि वे दिगम्बराचार्य थे। अतः जिन चन्द्रनन्दि के वे प्रशिष्य थे, उन्हें यापनीयसम्प्रदाय का चन्द्रनन्दि मानना प्रमाणबाधित है। इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है। दिगम्बर-दशवकालिक श्वेताम्बर-दशवकालिक से भिन्न यापनीयपक्ष "अपराजितसूरि के यापनीय होने का सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवैकालिकसूत्र पर स्वयं एक टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीका के समान 'श्रीविजयोदया' था। इसका जिक्र उन्होंने स्वयं ११९७ नम्बर की गाथा की टीका में किया है-"दशवैकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादि-दोषा इति नेह प्रतन्यते।" अर्थात् मैंने उद्गमादि-दोषों का वर्णन दशवैकालिक की टीका में किया है, इसलिए यहाँ नहीं किया जा रहा है। दिगम्बर-सम्प्रदाय का कोई आचार्य किसी अन्य सम्प्रदाय के आचारग्रन्थ की टीका लिखेगा, यह एक तरह से अद्भुत सी बात है, जबकि दिगम्बरसम्प्रदाय की दृष्टि में दशवैकालिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं। वे इस नाम के किसी ग्रन्थ का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं।" (प्रेमी जी/ जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.४५)। दिगम्बरपक्ष अपराजितसूरि ने दशवैकालिक पर जो टीका लिखी थी, वह न तो श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध है, न यापनीय-परम्परा में और न दिगम्बर-परम्परा में। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस दशवैकालिक पर उन्होंने टीका लिखी थी, वह ४८. भगवती-आराधना (मूलाराधना) की 'उग्गमउप्पायणएसणाहिं' इत्यादि गाथा का ११९७ क्रमांक ई. सन् १९३५ में स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित संस्करण में है। किन्तु ई. सन् १९७८, २००४ एवं २००६ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर तथा ई. सन् १९९० में हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित संस्करणों में इस गाथा का क्रमांक ११९१ है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७१ वही था, जो श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य है। पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने लिखा है कि "दशवैकालिक की दिगम्बरसम्प्रदाय में भी मान्यता रही है, किन्तु उसका प्राचीनरूप यही था या भिन्न, यह अन्वेषणीय है।" (जै.सा.इ./पू.पी./पृ.७०४)। सुप्रसिद्ध संस्कृत-महाकवि, दिगम्बराचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का भी यह मत था कि दिगम्बरों में दशवैकालिक का पठन-पाठन होता था, यह उनके सुविख्यात शिष्य आचार्य श्री विद्यासागर जी से ज्ञात हुआ है। तथा अपराजितसूरि ने जो यह कहा है कि "मैं उदगमादि दोषों का वर्णन दशवैकालिक की टीका में कर चका हैं. इसलिए भगवतीआराधना की टीका में नहीं किया जा रहा है", इस कथन से सिद्ध होता है कि वह दशवैकालिक उसी परम्परा का ग्रन्थ था, जिस परम्परा की भगवती-आराधना है। भगवती-आराधना के अध्येता दशवैकालिक का भी स्वाध्याय करते थे। अतः जिस विषय का वर्णन दशवैकालिक की टीका में किया जा चुका है, उसकी पुनरुक्ति भगवतीआराधना की टीका में आवश्यक नहीं थी, क्योंकि जिज्ञासु उसका ज्ञान दशवैकालिक टीका से कर सकते थे। ___ यदि वह दशवैकालिक किसी भिन्न परम्परा का ग्रन्थ होता, तो उसका अध्ययन भगवती-आराधना के अध्येताओं के लिए संभव नहीं था। तब भगवती-आराधना की टीका में उक्त उद्गमादिदोषों का वर्णन न किये जाने से उसके अध्येता उनके ज्ञान से वंचित रह जाते। इससे फलित होता है कि वह दशवैकालिक भगवती-आराधना की परम्परा का ही ग्रन्थ था। पं० नाथूराम जी प्रेमी का यह कथन युक्तिसंगत है कि "दिगम्बरसम्प्रदाय का कोई आचार्य किसी अन्य सम्प्रदाय के आचारग्रन्थ की टीका लिखेगा, यह एक तरह से अद्भुत सी. बात है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.४५)। इसीलिए सिद्ध होता है कि उक्त दशवैकालिक अपराजितसूरि के ही सम्प्रदाय का ग्रन्थ था। और चूँकि भगवतीआराधना की विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे। अतः उन्होंने दिगम्बरपरम्परा के ही दशवैकालिक पर टीका लिखी थी। और प्रेमी जी ने जो यह कहा है कि "दिगम्बरसम्प्रदाय की दृष्टि में दशवैकालिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं, वे इस नाम के किसी ग्रन्थ का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं," (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.४५), वह समीचीन नहीं है। दिगम्बरपरम्परा अंगप्रविष्टश्रुत के बारह अंगों का कथंचित् विच्छेद (लोप) मानती है, सर्वथा नहीं। ९ तथा अंगबाह्यश्रुत का विच्छेद तो कथंचित् ४९. "लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयारदिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद-पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा।" धवला/ष.खं/पु.९/४,१,४४ / पृ. १३३। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ भी नहीं मानती। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्यश्रुत के भेद हैं। उन्हें दिगम्बरश्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में 'अंग' या 'सूत्र' से भिन्न माना गया है, क्योंकि वे गणधर द्वारा रचित नहीं हैं, अपितु उनके शिष्य-प्रशिष्यों (आरातीय आचार्यों) के द्वारा रचे गये हैं।५° अतः दिगम्बर-परम्परा उनका विच्छेद नहीं मानती। फलस्वरूप दशवैकालिक का अस्तित्व दिगम्बरपरम्परा में भी था, जिसका उसमें पठन-पाठन होता था, इसीलिए उस पर दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि ने टीका लिखी थी। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, संभव है किसी शास्त्रभण्डार में उसकी कोई प्रति दबी पड़ी हो। अपराजितसरि को यापनीय सिद्ध करने के लिए उक्त दशवैकालिक को श्वेताम्बरग्रन्थ बतलाना भी असत्य है। अतः इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। काणूर् या क्राणू दिगम्बर-मूलसंघ का ही गण यापनीयपक्ष "विजयोदयाटीका में जटासिंहनन्दी के 'वरांगचरित' से कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं। जटासिंहनन्दी को कन्नड़ कवि जन्न ने क्राणूगण का बताया है और यह क्राणूगण यापनीय है।" (जै.ध.या.स./पृ.१५७)। अतः यापनीय जटासिंहनन्दी-कृत वरांगचरित से श्लोक उद्धृत करने के कारण सिद्ध होता है कि अपराजितसूरि यापनीय हैं। दिगम्बरपक्ष १. विजयोदयाटीका में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से, श्वेताम्बरीय-आगमों से, और भर्तृहरि के श्रृंगारशतक से भी गाथाएँ और श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इससे उपर्युक्त हेतु के आधार पर अपराजितसूरि एक साथ दिगम्बर, श्वेताम्बर और शैव भी सिद्ध होते हैं। अतः वह हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, हेतु नहीं है। ५०. क- "यद् गणधरशिष्यप्रशिष्यैरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम्।" तत्त्वार्थराजवर्तिक १/२०/१३/ पृ. ७८। ख- अंग, पूर्व, वस्तु और प्राभृत आदि सूत्र कहलाते हैं सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धिकहिदं च। सुदकेवलिणा कहिदं अभिण्णदसपुव्वकहिदं च॥ २७७॥ मूलाचार। "सूत्रं अङ्गपूर्ववस्तुप्राभृतादि गणधरदेवैः कथितं सर्वज्ञमुखकमलादर्थं गृहीत्वा ग्रन्थस्वरूपेणरचितं गौतमादिभिः। ---" आचारवृत्ति / मूलाचार / गा.२७७। For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७३ २. काणूर् या क्राणूर् गण दिगम्बर मूलसंघ में ही था, यापनीयसंघ में कण्डूरगण था, क्राणूर् नहीं। यह 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय के तृतीय प्रकरण में तथा 'कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त' नामक अष्टम अध्याय के भी तृतीय प्रकरण में सप्रमाण दर्शाया गया है । 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने कण्डूरगण और क्राणूगण को एक ही मान लिया है, यह उनकी भ्रान्ति है । यतः क्राणूर्गण दिगम्बर मूलसंघ का ही गण था, अतः जटासिंहनन्दी दिगम्बर ही थे । यह इस बात से भी सिद्ध है कि उन्होंने वरांगचरित में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । ५१ इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है । इसलिए दिगम्बर जटासिंहनन्दी के द्वारा वरांगचरित से श्लोक उद्धृत किये जाने के कारण अपराजितसूरि दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं, यापनीय नहीं । यापनीयपक्ष ७ रात्रिभोजनत्यागवत दिगम्बरमत में भी मान्य "दिगम्बरपरम्परा में पूज्यपाद, अकलंकदेव आदि रात्रिभोजनत्याग को आलोकितपानभोजन नामक अहिंसामहाव्रत की भावना में समाहित करते हैं, वहाँ श्वेताम्बरमान्य दशवैकालिक आदि आगम और यापनीय - परम्परा इसे छठे व्रत के रूप में मान्य करती है। विजयोदयाटीका में रात्रिभोजन त्याग को छठा व्रत कहा जाना यही प्रमाणित करता है कि वह यापनीय कृति है ।" (जै. ध. या.सं./पृ.१५८-५९) । दिगम्बरपक्ष विजयोदयाटीका में उपलब्ध यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों के बहुसंख्यक उदाहरणों से सिद्ध है कि उसके रचयिता अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य थे। अतः उनके द्वारा रात्रिभोजनत्याग को छठे व्रत के रूप में प्रतिपादित किया जाना दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है। सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति, आदिपुराण तथा षट्खण्डागम जैसे दिगम्बर- परम्परा के अन्य ग्रन्थों में भी रात्रिभोजनत्याग को छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। यथा १. " पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति ।" (स.सि./९/४७/९१४/पृ.३६४) । अनुवाद – “ दूसरों के दबाव में आकर पाँच मूलगुणों (महाव्रतों) और रात्रिभोजनत्याग में से किसी एक की प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है । " ५१. देखिये, 'वरांगचरित' नामक विंश अध्याय । For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ २. " पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति ।" (त. रा. वा. ९/४७/४/पृ.६३८)। ३. “महाव्रतलक्षणपञ्चमूलगुणविभावरीभोजनविवर्जनानां मध्येऽन्यतमं बलात् परोपरोधात् प्रतिसेवमानः पुलाको विराधको भवति । " ( तत्त्वार्थवृत्ति / ९ / ४७/पृ.३१६) । सावद्यविरतिं कृत्स्नामूरीकृत्य प्रबुद्धधीः । तद्भेदान् पालयामास व्रतसंज्ञाविशेषितान् ॥ २०/१५८ ॥ ४. दयाङ्गनापरिष्वङ्गः अस्तेयव्रततात्पर्यं ७. सत्ये नित्यानुरक्तता । ब्रह्मचर्यैकतानता ॥ २०/१५९॥ यहाँ आदिपुराण के कर्त्ता आचार्य जिनसेन ने पाँच महाव्रतों के वर्णन के बाद विकाल (रात्रि) में रात्रिभोजन के त्याग को व्रतों में परिगणित किया है। परिग्रहेष्वनासङ्गो विकालाशनवर्जनम् । व्रतान्यमूनि तत्सिद्ध्यै भावयामास भावनाः ॥ २०/१६० ॥ आदिपुराण । ५. “णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा पाणादिवादपच्चए । मुसावादपच्चए । अदत्तादाणपच्चए। मेहुणपच्चए । परिग्गहपच्चए । रादिभोयणपच्चए।" (ष.खं. /पु.१२ / ४,२, ८, २-७/पृ. २७५-२८२) । ६. विरदी | पंचविहो होदि णादव्वो ॥ २८८ ॥ पाणिवहमुसावाद - अदत्तमेहुणपरिग्गहा एस चरित्ताचारो तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती । अट्ठा य पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ ॥ २९५ ॥ साधेंति जं महत्थं आयरिदाई च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाइं मूला. । मूला. । सयं महव्वदाई हवे ताई ॥ ११७८ ॥ भ.आ. । रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती । तेसिं चेव वदाणं अट्ठप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ ॥ ११७९ ॥ भ.आ. । इन्हीं प्रमाणों के आधार पर अपराजितसूरि ने निम्न कथन किया है – “आद्यपाश्चात्यतीर्थयो रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि पञ्च महाव्रतानि । - - - तेषामेव पञ्चानां व्रतानां पालनार्थं रात्रिभोजनविरमणं षष्ठं व्रतम् ।" (वि.टी./ 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३३०-३१) । अनुवाद - " प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में रात्रिभोजनत्याग नामक छठे व्रत के साथ पाँच महाव्रत होते हैं । - - - उन्हीं पाँच व्रतों के पालन के लिए रात्रिभोजनत्यागरूप छठा व्रत है ।" For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७५ ___ इस प्रकार 'रात्रिभोजनत्यागवत' केवल यापनीयसम्प्रदाय से सम्बद्ध नहीं है, दिगम्बरसम्प्रदाय में भी मान्य है। अतः विजयोदयाटीका को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, हेतु नहीं। अतः सिद्ध है कि विजयोदयाटीका यापनीयकृति नहीं है। इसलिए अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। अथालन्दसंयमादि दिगम्बरमान्य यापनीयपक्ष "विजयोदयाटीका में जिनकल्प, परिहारसंयम, आलन्द, विजहना आदि के आचार की जिन विशिष्ट विधियों का वर्णन है, उनका वर्णन दिगम्बरसाहित्य में नहीं है, जब कि श्वेताम्बरमान्य साहित्य में मिलता है। इससे भी अपराजित के यापनीय होने की संभावना पुष्ट होती है।" (जै.ध.या.स./पृ.१५९)। दिगम्बरपक्ष १. विजयोदयाटीका में पूर्ववर्णित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से सिद्ध है कि वह दिगम्बरसाहित्य है, अतः उपर्युक्त विधियों का वर्णन दिगम्बरसाहित्य में प्रत्यक्षतः मिलता है। २. अथालन्दसंयम, परिहारसंयम तथा जिनकल्प का जो स्वरूप विजयोदया में वर्णित है, वह श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित स्वरूप के विरुद्ध है। दोनों के परस्परविरोधी स्वरूप की थोड़ी सी झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। · श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि का स्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि संयतों ५२ का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है५२. "अहालंद-अथ (यथा) लन्द। अथेत्यव्ययम्। लन्दशब्देन काल उच्यते। --- स पुनः कालस्त्रिधा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । तत्र उदकाः करो यावता कालेन इह सामान्येन लोकेषु शुष्यति तावान् कालविशेषो भवति जघन्यः। अस्य च जघन्यत्वं प्रत्याख्यान-नियमविशेषादिषु विशेषत उपयोगित्वात्। अन्यथाऽतिसूक्ष्मतरस्यापि समयादिलक्षणस्य सिद्धान्तोक्तस्य कालस्य सम्भवात्। --- उत्कृष्टः पूर्वकोटिप्रमाणः, अयमपि चारित्रकालमानमाश्रित्य उत्कृष्ट उक्तः। अन्यथा पल्योपमादिरूपस्यापि कालस्य सम्भवात्। मध्ये पुनर्भवन्त्यनेकानि स्थानानि वर्षादिभेदेन कालस्य। अत्र पुनर्यथालन्दकस्य प्रक्रमे पञ्चरात्रं यथेत्यागमानतिक्रमेण लन्दं काल उत्कृष्टं भवति, तेनैवात्रोपयोगात्।" अभिधानराजेन्द्रकोष/ भाग १/पृ.८६७ । For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ "यथालन्दिका द्विविधाः - गच्छप्रतिबद्धाः, इतरे च गच्छाप्रतिबद्धाः । ते पुनरेकैकशो द्विभेदा: - जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च । तत्र यथालन्दिककल्पपरिसमाप्त्यनन्तरं ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः । ये तु स्थविरकल्पमेवाश्रयिष्यन्ति ते स्थविरकल्पिकाः । " ( अभि. रा. को. / भा.१ / पृ. ८६८) । अनुवाद — " यथालन्दिक (अथालन्दिक) मुनि दो प्रकार के होते हैं : गच्छ से प्रतिबद्ध और गच्छ से अप्रतिबद्ध । इन दोनों के भी दो भेद हैं : जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक । इनमें जो यथालन्दिककल्प की समाप्ति के अनन्तर जिनकल्प ग्रहण करते हैं, वे जिनकल्पिक कहलाते हैं तथा जो स्थविरकल्प में ही स्थित रहते हैं, वे स्थविरकल्पी नाम से जाने जाते हैं । " “स्थविरकल्पिका यथालन्दिका अवश्यमेव एकैकपतद्ग्रहकाः प्रत्येकमेकैकपतद्ग्रहधारिणः तथा सप्रावरणाश्च भवन्ति । ये पुनरेषां यथालन्दिकानां जिनकल्पे भविष्यन्ति, जिनकल्पिकयथालन्दिका इत्यर्थः । भांवे तेषां वस्त्रपात्रे सप्रावरणाः प्रावरणपतद्ग्रहधारि-पाणिपात्रभेदभिन्न- भाविजिनकल्पापेक्षया केषाञ्चिद् वस्त्रपात्रलक्षणमुपकरणं भवति, केषाञ्चिद् नेत्यर्थः ।" (अभि.रा.को./ भा. १/ पृ. ८६९)। अनुवाद - " जो स्थविरकल्पी यथालन्दिक होते हैं, वे अवश्य ही एकपात्रधारी और सप्रावरण (चादरधारी) होते हैं। तथा जो इन यथालन्दिकों के जिनकल्प में होंगे, वे जिनकल्पिक-यथालन्दी हैं । उन भावी जिनकल्पिक - यथालन्दिकों में कुछ वस्त्रपात्रोपकरणधारी होते हैं और कुछ नहीं ।" "परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन पतद्ग्रहेण प्रतिग्रहणेन वा वसतेर्बहिरात्मनः स्वशरीरस्य वैयावृत्याय, भिक्षाऽनयनायेत्यर्थः गच्छेत् । स्थविराश्च तथा गच्छन्तं दृष्ट्वा वदेयुरस्मद्योग्यमपि स्वपात्रके गृह्णीया अहमपि भोक्ष्ये पास्यामि वा । एवमुक्ते तस्य कल्पते स्थविरयोग्यं प्रतिगृहीतुम्।" (अभि. रा. को. / भा. ५/पृ.६८४) । अनुवाद - " परिहारकल्प में स्थित भिक्षु जब अपने पात्र में अपने लिए भिक्षा लाने हेतु वसति के बाहर जाय, उस समय स्थविर भिक्षु उससे कहें कि हमारे योग्य भी भोजन - पान अपने पात्र में ले आना, तब उसे अपने पात्र में उनके योग्य भिक्षा लानी चाहिए। " विजयोदया टीका में अथालन्दकादि का स्वरूप अब भगवती - आराधना (गा. 'किण्णु अधालंद' १५७) की विजयोदयाटीका में प्रतिपादित उक्त मुनियों के स्वरूप पर दृष्टिपात करें For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७७ " आचारो निरूप्यते - अथालन्दसंयतानां लिङ्गमौत्सर्गिकं, देहस्योपकारार्थमाहारं वसतिं च गृह्णन्ति, शेषं सकलं त्यजन्ति । तृणपीठ-कट-फलकादिकमुपधिं च न गृह्णन्ति । प्राणिसंयम - परिपालनार्थं जिनप्रतिरूपतासम्पादनार्थं च गृहीतप्रतिलेखना ग्रामान्तरगमने, विहारभूमिगमने, भिक्षाचर्यायां, निषद्यायां चाप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्टशरीरसंस्काराः परीषहान् सहन्ते नो वा धृतिबलहीनाः । यस्मात् पाणिपात्रभोजी ---। क्षेत्रतः सप्ततिशतधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति । कालतः सर्वदा । ---वेदतः पुमांसो नपुंसकाश्च ।" (वि.टी. /भ.आ./गा. १५७/ पृ.१९८, २०० ) । 44 अनुवाद- 'अब अथालन्दकों के आचार का निरूपण करते हैं । अथालन्दक संयतों का लिंग औत्सर्गिक (नग्नत्व) होता है । देहोपकार के लिए आहार और वसति स्वीकार करते हैं, शेष सब छोड़ देते हैं। तृण, पीठ, चटाई, लकड़ी का तख्त आदि ग्रहण नहीं करते । प्राणिसंयम का पालन करने के लिए और जिनदेव का प्रतिरूप रखने के लिए पीछी रखते हैं । अन्य ग्राम को जाते समय, विहारभूमि में जाते समय, भिक्षाचर्या के समय और बैठते समय प्रतिलेखना नहीं करते। शरीर का संस्कार नहीं करते, परीषहों को सहते हैं और धैर्यबल से हीन नहीं होते। --- वे पाणिरूप पात्र में भोजन करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा एक सौ सत्तर कर्मभूमिरूप धर्मक्षेत्रों में उनका अस्तित्व होता है । काल की अपेक्षा सदा विद्यमान होते हैं । वेद (भाववेद) से पुरुष और नपुंसक होते हैं।" " परिहार उच्यते – जिनकल्पस्यासमर्थाः परिहारसंयमभरं वोढुं समर्थाः आत्मनो बलं वीर्यमायुः प्रत्यवायांश्च ज्ञात्वा ततो जिनसकाशमुपगत्य कृतविनयाः प्राञ्जलयः पृच्छन्ति - " परिहारसंयमं प्रतिपत्तुमिच्छामो युष्माकमाज्ञया । " लिङ्गादिकस्तेषामाचारो निरूप्यते - एकोपधिकमवसानं लिङ्गं परिहारसंयतानाम् । वसतिमाहारं च मुक्त्वा नान्यद् गृह्णन्ति तृणफलकपीठकटकादिम् । संयमार्थं प्रतिलेखनं गृह्णन्ति । --- क्षेत्रतः भरतैरावतयोः, प्रथमपाश्चात्ययोः तीर्थे, उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः कालतः --- । श्रुतेन च दशपूर्विणः, वेदेन पुरुषवेदाः ।" (वि.टी. /भ.आ./गा. १५७ / पृ.२०१, २०३,२०५) । ➖➖➖ ५३. अनुवाद - " परिहारसंयम का कथन करते हैं। जो जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ और परिहारसंयम के भार को वहन करने में समर्थ होते हैं, वे अपना बल, वीर्य, आयु और (संभावित) विघ्नों को जानकर जिन भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पूछते हैं- "हम आपकी आज्ञा से परिहारसंयम धारण करना चाहते हैं । " - - - परिहारसंयतों का लिंगादि आचार बतलाते हैं- उनका एक उपधिवाला (प्रतिलेखना = पिच्छीयुक्त) वस्त्ररहित (अवसान ) ५३ लिंग (वेश) होता है। वे वसति अवसानम् ➖➖➖ = not dressed / सर एम. मोनियर विलियम्स : संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी । For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ और आहार के सिवाय तृण का आसन, लकड़ी का तख्त, पीठ, चटाई आदि ग्रहण नहीं करते। संयम के लिए पीछी ग्रहण करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा भरत और ऐरावत में, तीर्थ की अपेक्षा प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में तथा काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विद्यमान होते हैं। ---श्रुत से दशपूर्व के पाठी होते हैं और वेद से पुरुषवेदी।" "जिनकल्पो निरूप्यते-जितरागद्वेषमोहा उपसर्गपरिषहारिवेगसहाः जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानाम्। इतरो लिङ्गादिराचारः प्रायेण व्यावर्णितरूप एव। --- सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति जिनकल्पिकाः। काल: सर्वदा।" (वि.टी./भ.आ/गा.१५७/ पृ.२०५)। अनुवाद-"जिनकल्प का निरूपण किया जा रहा है। जिन्होंने रागद्वेषमोह को जीत लिया है, जो उपसर्गपरीषहरूपी शत्रुओं के वेग को सहते हैं और जिन के समान अकेले ही विहार करते हैं, वे जिनकल्पिक कहलाते हैं। जिनकल्पियों में उपर्युक्त संयतों से यह एक ही विशेषता है। शेष लिंगादि-आचार प्रायः पूर्वोक्तरूप ही है। जिनकल्पिक मुनि समस्त कर्मभूमियों में सर्वदा होते हैं।" दोनों में विरोध अथालन्दिकादि मुनियों के इन द्विविध स्वरूपों की तुलना करने पर उनमें निम्नलिखित विरोध दृष्टिगोचर होते हैं १. श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित अथालन्दिक, जिनकल्पिक और परिहारकल्पिक, तीनों प्रकार के मुनि वस्त्रपात्रधारी होते हैं, कुछ ही (वस्त्रपात्रलब्धियुक्त) जिनकल्पी मुनि वस्त्रपात्ररहित बतलाये गये हैं, किन्तु उनके पास भी कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो चेलमय उपकरण तो होते ही हैं, जबकि विजयोदयाटीका में उक्त तीनों प्रकार के मुनियों को उत्सर्गलिंगधारी (सर्वथा अचेल) कहा गया है। उनके पास उपकरण के रूप में केवल प्रतिलेखना (मयूरपिच्छी) होती है। २. श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दिकों के दो भेद वर्णित हैं : स्थविरकल्पिक (सर्वथा सचेल) और जिनकल्पिक (कथंचित् सचेल)। यापनीयमत में भी स्थविरकल्पी मुनियों का अस्तित्व माना गया है। किन्तु विजयोदयाटीका में स्थविरकल्पिकों का नाम भी नहीं है। उसमें तो अथालन्दिकों को एकमात्र उत्सर्गलिंगधारी (सर्वथा अचेल) ही बतलाया गया है। For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७९ ३. श्वेताम्बर जिनकल्पिकों का लिंग (वेश) तीर्थंकरों के समान नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकर मुखवस्त्रिका और रजोहरण धारण नहीं करते, जब कि वस्त्रपात्रलब्धियुक्त श्वेताम्बर जिनकल्पी भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ग्रहण करते हैं।४ अन्य जिनकल्पियों के पास तो उक्त उपधियों के अतिरिक्त तीन कल्प (ओढ़ने के वस्त्र) और सात पात्रादि, इस प्रकार बारह तक उपधियाँ रहती हैं।१५ दिगम्बरपरम्परा में भी स्थविरकल्प और जिनकल्प माने गये हैं, किन्तु इन दोनों में मुनियों का लिंग तीर्थंकरवत् सर्वथा अचेल होता है। अन्तर केवल यह है कि जिनकल्पी एकादशांगश्रुत को एक अक्षर के समान जानते हैं, पैरों में काँटा लगने अथवा नेत्रों में धूलि जाने पर स्वयं हटाते नहीं है, प्रथमसंहननधारी होते हैं, वर्षा ऋतु में प्राणियों से मार्ग व्याप्त हो जाने पर छह मास तक कायोत्सर्ग करते हुए निराहार रहते हैं तथा 'जिन' के समान एकाकी विहार करते हैं।५६ विजयोदया के उपर्युक्त वचनों में जिनकल्पियों को तीर्थंकरवत् सर्वथा अचेललिंगधारी और उनके समान ही एकल विहार करनेवाला कहा गया है,५७ जो श्वेताम्बर जिनकल्पियों के विरुद्ध है। ४. श्वेताम्बर यथालन्दिक मुनियों में स्थविरकल्पी तो भिक्षापात्रधारी होते ही हैं, जिनकल्पिकों में भी केवल पात्रलब्धियुक्त५८ मुनियों को छोड़कर सभी पात्रधारी होते हैं। श्वेताम्बर परिहारकल्पी साधु तो अपने पात्र में न केवल स्वयं के लिए भिक्षा लाते हैं, अपितु स्थविरों (वृद्धसाधुओं) के अनुरोध करने पर उनके लिए भी लाते हैं। किन्तु विजयोदयाटीका में यथालन्दिक, परिहारसंयत एवं जिनकल्पिक तीनों प्रकार के मुनियों को केवल पाणिपात्रभोजी ही बतलाया गया है। ५४. क- "अर्हतः संयमयोगेषूपकारी वस्त्रपात्रादिर्न भवति, इतरेषां सुधर्मादिसाधूनां भवति, तेन तीर्थकृता सह साम्यं न साधोरिति गाथार्थः।" (प्रव.परी/वृत्ति १/२/१०/पृ.७८) "येन कारणेन तीर्थकृतां वस्त्राद्यनुपयोगः तेन कारणेनार्हन् स्वलिङ्ग-परलिङ्ग-गृहस्थलिङ्गैः रहितः स्यात्। तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणादि परलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं पिच्छिकादिकं, ___ गृहस्थलिङ्गं तु प्रतीतमेव। एभिर्विप्रमुक्तस्तीर्थकृद् भवति।" वही १/२/११ / पृ.७८ । ख- "जिनकल्पिकादयस्तु सदैव सचेलका इति दर्शयन्नाह–'जिणकप्पियादओ पुण सोवहओ सव्वकालमेगंतो।" हेमचन्द्रसूरि-वृत्ति/ विशेषावश्यकभाष्य/२५८४/ पृ.५१७। ५५. "एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पिआणं तु।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति १/२/३१/ पृ.९४ । ५६. वामदेवकृत 'भावसंग्रह'/ श्लोक २६४-२७०। ५७. "जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यन्तश्च।---तीर्थकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्य चेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वम्।" वि.टी./भ.आ./ 'आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२३ । ५८. जिन्हें ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो जाती है कि वे पाणितल में ही भोजन ग्रहण कर सकते हैं, भिक्षा के लिए पात्र की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें पात्रलब्धियुक्त कहा गया है। (देखिये, द्वितीय अध्याय / तृतीय प्रकरण/शीर्षक ३.३.१ "जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न')। For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ ५. विजयोदयावर्णित अथालन्दसंयत एवं जिनकल्पी मुनि एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में सदा विद्यमान रहते हैं, परिहारसंयत साधु भी भरत और ऐरावत क्षेत्रों में, प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में तथा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों में पाये जाते हैं। किन्तु, श्वेताम्बर जिनकल्पी एवं परिहारकल्पी साधुओं का अस्तित्व अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गया। ५९ ६. विजयोदया में अथालन्दिक, परिहारक तथा जिनकल्पिक, तीनों मुनियों को औत्सर्गिक (नग्न) लिंगधारी कहा गया है, जिससे सूचित होता है कि वे द्रव्यवेद की अपेक्षा पुरुष होते हैं। तथापि अथालन्दिक को पुनः वेद की अपेक्षा पुरुष और नपुंसक तथा परिहारक और जिनकल्पिक को केवल पुरुष कहा गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि अपराजितसूरि द्रव्यवेद के साथ भाववेद एवं वेदवैषम्य का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। किन्तु यापनीयमत में वेदवैषम्य मान्य नहीं था। इससे सिद्ध होता है कि उक्त तीनों प्रकार के मुनियों का विजयोदया-वर्णित स्वरूप यापनीयमत के विरुद्ध है। किन्तु वह दिगम्बर जैनमत के प्रतिकूल नहीं, अपितु सर्वथा अनुकूल है। माननीय पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री भी लिखते हैं-"गाथा १५७ की टीका में आलन्दविधि, परिहारसंयम आदि का जो वर्णन किया है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आया। उसमें हमें सिद्धान्तविरुद्ध कथन कोई प्रतीत नहीं हुआ। प्रत्युत, उससे परिहारविशुद्धि की महत्ता और दुरूहता का ही बोध हुआ। श्वेताम्बर-आगम के अनुसार तो जम्बूस्वामी के मुक्तिगमन के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद हो गया। किन्तु टीकाकार ने लिखा है कि जिनकल्पी सर्व धर्मक्षेत्रों (कर्मभूमियों) में सर्वदा होते हैं।"(भ.आ./शो.पु./ प्रस्ता ./पृ.३९)। इस प्रकार विजयोदयाटीका में अथालन्दिकादि मुनियों का जो स्वरूप वर्णित किया गया है, वह श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित स्वरूप से सर्वथा विपरीत है और दिगम्बर मुनियों के अनुरूप है। अतः वह श्वेताम्बर-अथालन्दिकादि मुनियों का वर्णन नहीं है, अपितु दिगम्बर-अथालन्दिकादि मुनियों का है। इसलिए सत्य यह है कि उन मुनियों की जिन विशिष्ट विधियों का वर्णन विजयोदयाटीका में किया गया है, वे श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर अथालन्दिकादि मुनियों की विधियाँ उनसे भिन्न हैं, यह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है तथा उनका विस्तृत स्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों एवं अभिधानराजेन्द्रकोष से ज्ञात किया जा सकता है। यापनीयपक्षधर विदुषी एवं विद्वान् ५९. मण-परमोहि-पुलाए-आहारग-खवग-उवसमे-कप्पे। संजमतिय-केवलि-सिज्झणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥ २५९३ ॥ विशेषावश्यकभाष्य/ पृ.५१८ । For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८१ के द्वारा मात्र नामसाम्य के कारण वे श्वेताम्बर - यथालन्दिक आदि की विधियाँ मान ली गयी हैं, उन्होंने उनके स्वरूपभेद पर दृष्टिपात नहीं किया । अतः उन्होंने अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किया है, वह असत्य है । हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि वे यापनीय आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। विजहनाविधि भी दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं थी। इसका स्पष्टीकरण भगवतीआराधना नामक १३वें अध्याय में किया जा चुका है। यापनीयपक्ष भिक्षुप्रतिमाएँ दिगम्बरमतानुकूल "विजयोदयाटीका में भिक्षु की ग्यारह प्रतिमाओं का विवरण उपलब्ध होता है । यह विवरण श्वेताम्बर - आगम - साहित्य में तो उपलब्ध होता है, किन्तु दिगम्बरपरम्परा में कहीं भी भिक्षुप्रतिमाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इससे यही सिद्ध होता है कि अपराजित श्वेताम्बर - आगमों का ही अनुसरण कर रहे हैं। अतः यह भी उनके यापनीय होने का ही एक प्रमाण है ।" (जै. ध. या.स./ पृ. १५९) । दिगम्बरपक्ष भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा में हुआ हैसदि आउगे सदिबले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ । ताओ वि ण बाधते जहाबलं सल्लिहंतस्स ॥ २५१ ॥ "" अनुवाद- ' आयु और बल के होते हुए अपनी शक्ति के अनुसार शरीर को कृश करनेवाले यति की जो विविध भिक्षुप्रतिमाएँ होती हैं, वे भी उसे ज्यादा कष्ट नहीं देतीं। जो शक्ति के बिना शरीर को कृश करता है, उसे प्रारंभ में ही महान् क्लेश होता है, जिससे उसके योग का भंग हो जाता है। " पं० आशाधर जी ने मूलाराधनादर्पण में एक गाथा के द्वारा भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए उनका अर्थ इस प्रकार किया है ६०. मायिय दुय तिय चउ पंच मास छम्मास सत्त मासी य । तिण्णेव सत्तराई इंदिय राइपडिमाओ ॥ भगवती-आराधना (फलटण एवं जै. सं. सं. सं. शोलापुर) गा. २५१ की पादटिप्पणी में उद्धृत । For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०२ "आत्मा की सल्लेखना करनेवाला, धैर्यवान्, महासत्त्वसम्पन्न, परीषहजेता, उत्तमसंहननविशिष्ट मुनि क्रम से धर्मध्यान और शुक्लध्यान को पूर्ण करता हुआ जिस देश में रहता है, उस देश में मुश्किल से प्राप्त होनेवाले आहार को ग्रहण करने का व्रत लेता है, जैसे एक मास में 'ऐसा' आहार मिला, तो भोजन करूँगा, अन्यथा नहीं। उस मास के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण करता है। यह एक भिक्षुप्रतिमा है। इस प्रकार पूर्वोक्त आहार से सौगुने उत्कृष्ट अन्य-अन्य भोजनसम्बन्धी नियम लेता है। ये नियम क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास का अन्तर लेकर ग्रहण किये जाते हैं, जैसे दो मास या तीन मास में 'ऐसा' आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। सर्वत्र नियम के अन्तिम दिन प्रतिमायोग ग्रहण करता है। ये सात भिक्षप्रतिमाएँ हैं। पुनः पूर्व आहार से सौगुना उत्कृष्ट दुर्लभ अन्य-अन्य आहार का नियम सातसात दिन का अन्तर लेकर तीन बार ग्रहण करता है। अर्थात् सात दिन में 'ऐसा' आहार मिला तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। ये तीन भिक्षुप्रतिमाएँ हैं। फिर रातदिन प्रतिमायोग में स्थित रहकर बाद में रात्रि-प्रतिमायोग धारण करता है। ये दो भिक्षुप्रतिमाएँ हैं। इनको धारण करने पर पहले अवधि-मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त करता है, बाद में सूर्योदय होने पर केवलज्ञान प्राप्त करता है। इस तरह बारह भिक्षु-प्रतिमायोगों में स्थित होने के बाद रात्रिप्रतिमायोग धारण करता है।" ६१ ये सल्लेखनाधारी मुनि के द्वारा आहारप्राप्ति को दुर्लभ बनाते हुए प्रतिमायोग धारण करने की विधियाँ हैं, जो दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल हैं। किन्तु इनका वर्णन तो अपराजित सूरि ने अपनी टीका में किया ही नहीं है। उन्होंने तो मूलग्रन्थ की गाथा का अनुवाद मात्र किया है। अतः यह कैसे मान लिया गया कि अपराजितसूरि ने उनका वर्णन किया है? यह तो सर्वथा असत्य है। आश्चर्य है कि 'यापनीय और उनका साहित्य' की लेखिका तथा 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' के लेखक ने एक मनगढंत हेतु के आधार पर अपराजितसूरि को यापनीय सम्प्रदाय का आचार्य घोषित कर दिया। उनका यह कथन भी असत्य है कि उक्त प्रतिमाओं का उल्लेख किसी दिगम्बरग्रन्थ में नहीं मिलता। भगवती-आराधना में तो मिलता है। वह दिगम्बरग्रन्थ ही है, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। भगवती-आराधना प्रथमशती ई० का ग्रन्थ है। अतः हो सकता है कि ये बारह भिक्षुप्रतिमाएँ इसी ग्रन्थ से श्वेताम्बरसाहित्य में पहुँची हों, जैसे 'आचेलक्कुद्देसिय' आदि गाथाएँ पहुँची हैं। उक्त प्रतिमाओं का कथन दिगम्बरग्रन्थ ६१. भगवती आराधना (फलटन एवं जै.सं.सं.सं. शोलापुर)/ सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री : विशेषार्थ / गा. 'सदि आउगे' २५१/ पृ. २५८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८३ प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में भी उपलब्ध होता है। इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय - परम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बर- परम्परा के हैं। १० सात घरों से भिक्षा दिगम्बरमतानुकूल यापनीयपक्ष "मूलाचार, भगवती - आराधना और विजयोदयाटीका में वृत्तिपरिसंख्यान तप के विवेचन-प्रसंग में सातघरों से भिक्षा लेने का उल्लेख पाया जाता है, वह दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यापनीयों में श्वेताम्बरों के अनुरूप पात्र में आहार लाकर आपवादिक स्थिति में उपाश्रय में आहार ग्रहण करने की परम्परा रही होगी । यह परम्परा यापनीयों की ही हो सकती है, दिगम्बरों की नहीं, क्योंकि यापनीय अपवादमार्ग में पात्र में भिक्षा ग्रहण करना मान्य करते थे ।" (जै.ध.या.स./पृ.१५९-१६०)। दिगम्बरपक्ष यह कथन मूलाचार में नहीं है, न ही भगवती - आराधना में है। भगवती आराधना की उस गाथा में भी नहीं है, जिसकी टीका में अपराजितसूरि ने उपर्युक्त बात कही है । वह गाथा इस प्रकार है दंसणणाणादिचारे वदादिचारे तवादिचारे य । देसच्चाए विविधे सव्वच्चाए य आवण्णो ॥ ४८९ ॥ भ.आ. । अतः यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक का यह कथन भी असत्य है कि सातघरों से भिक्षा लेने का उल्लेख मूलाचार और भगवती - आराधना में भी है। वह वरांगचरित और विजयोदयाटीका में उपलब्ध है। विजयोदया में वह इस प्रकार है " "वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः गृहसप्तकमेव प्रविशामि एकमेव पाटं, दरिद्रगृहमेव । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं ग्रहीष्यामीति वा कृतसङ्कल्पः गृहसप्तकादिकादधिक-प्रवेशः, पाटान्तरप्रवेशश्च परं भोजयामीत्यादिकः । " (भ.आ./ गा. 'दंसणणाणादिचारे' ४८९ ) । अनुवाद—“वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार इस प्रकार हैं- भिक्षा के लिए सात ही घरों में प्रवेश करूँगा या एक ही मुहल्ले में जाऊँगा अथवा दरिद्र के ही घर जाऊँगा या इस प्रकार के दाता या दात्री के ही द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करूँगा, ऐसा संकल्प करने के बाद 'दूसरे (साधु) को भोजन करा आऊँ' इस विचार For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ से सात से अधिक घरों में प्रवेश करना अथवा एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाना वृत्तिपरिसंख्यान के अतिचार हैं।" ___ यहाँ सात घरों में प्रवेश का अर्थ यह है कि यदि एक घर में जाने पर भिक्षा प्राप्त न हो, तो दूसरे घर में जाना और दूसरे में प्राप्त न हो, तो तीसरे घर में जाना, इस प्रकार अधिक से अधिक सात घरों में जाना, सातवें घर में भी न मिले, तो आठवें में न जाना, वापिस लौट आना। भिक्षा न मिलने पर अथवा मिल जाय तो 'दूसरे साधुओं ने भोजन किया है या नहीं, उन्हें जाकर देख आऊँ' ऐसा सोचकर आठवें घर में जाना अथवा दूसरे मुहल्ले में जाना वृत्तिपरिसंख्यान का अतिचार है। दूसरे साधु को भोजन कराने की दृष्टि से आठवें घर में जाने का अभिप्राय वहाँ से पात्र में भोजन ले जाकर उपाश्रय में किसी रुग्ण साधु को भोजन कराना नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा करना होता, तो एक घर या दो घर में ही जाकर ऐसा किया जा सकता था। आठवें घर का निषेध न किया गया होता। __तथा भोजन की याचना का तो स्वयं के लिए भी निषेध किया गया है, तब दूसरे के लिए याचना का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपराजितसूरि कहते हैं ___ "याच्यामव्यक्तस्वनं वा स्वागमननिवेदनार्थं न कुर्यात्। विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत्।---गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्।" (वि.टी./भ.आ./गा. 'एसणणिक्खे' १२००)। अनुवाद- "भिक्षा के लिए अपने आने की सूचना देने हेतु याचना या अव्यक्त शब्द नहीं करना चाहिए, बिजली की तरह अपना शरीरमात्र दिखला देना चाहिए। ---गृहस्वामियों के प्रार्थना करने पर ही ठहरना चाहिए।" हाँ, क्षपक (सल्लेखनारूढ़) यदि स्वयं भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ हो, तब आचार्य के संकेत करने पर गृहस्थ स्वयं भोजन लाकर उसे देता है। क्षपक के वृत्तिपरिसंख्यान का वर्णन करते हुए अपराजितसूरि कहते हैं "आनीतायामपि भिक्षायां इयत एव ग्रासान् गृह्णामि इति वा परिमाणम्।" (वि.टी./भ.आ./ गा.' पाडयणियंसण' २२१)। अनुवाद-"अथवा दाता के द्वारा लाई गई भिक्षा में से भी इतने ही ग्रास ग्रहण करूँगा, ऐसा परिमाण करना वृत्तिपरिसंख्यान है।" इस तरह अपराजितसूरि के ही वचन प्रमाणित करते हैं कि सात घरों से भिक्षा लेने का जो अभिप्राय यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखकों ने ग्रहण किया है, वह अपराजितसूरि के अभिप्राय के अनुरूप नहीं है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८५ भिक्षा के लिए सात घरों से अधिक में न जाने के अभिग्रह का उल्लेख दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित में भी इस प्रकार मिलता है एकान्तभिक्षां प्रविलभ्य याता भिक्षात्रयेण प्रतिमानिवृत्ताः । गृहेषु सप्तस्ववगुह्य केचिद् ग्रासार्धतोऽर्धोदरिणः प्रयाताः ॥ ३० / ५४ ॥ अनुवाद - " कुछ मुनि केवल एक अन्न का आहार ग्रहण कर लौट आते थे। कुछ केवल तीन वस्तुओं का आहार लेकर चले आते थे। कुछ अधिक से अधिक सात घरों में ही जाने का नियम ले लेते थे । अर्थात् लगातार सात घरों में भिक्षा के अनुकूल विधि न मिलने पर आठवें घर में नहीं जाऊँगा, ऐसा अभिग्रह (प्रतिज्ञा ) कर लेते थे । तथा कुछ मुनि जितने ग्रासों से पेट भरता है, उनसे आधे ग्रास लेने का नियम लेकर जाते थे और आधा पेट भोजन करके ही लौट आते थे। यहाँ 'आधा पेट भोजन करके ही लौट आते थे इस कथन से स्पष्ट है कि मुनि भोजन श्रावक के ही घर में करते थे, पात्र में लेकर उपाश्रय में नहीं आते थे, जैसा कि यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने कल्पना की है। वरांगचरित के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण वरांगचरित के अध्याय (२०) में दिये गये हैं । अतः भिक्षा के लिए अधिक से अधिक सात घरों में जाने के अभिग्रह का जो उल्लेख अपराजितसूरि ने किया है, वह दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है । तथा क्षपक के स्वयं भिक्षार्थ जाने में असमर्थ होने पर दाता के द्वारा लाये गये आहार को 'स्थितभक्त' मूलगुण का पालन करते हुए ६२ ग्रहण करना भी दिगम्बर जैनमत के विरुद्ध नहीं है । यह कुन्दकुन्द वचनों से भगवती - आराधना के अध्याय में प्रमाणित किया जा चुका है। अतः भिक्षा के लिए सात घरों में जाने का जो अभिप्राय अपराजितसूरि का है, उससे भिन्न अभिप्राय कल्पित कर उन्हें यापनीय सिद्ध करने की चेष्टा की गई है । यतः कल्पित अभिप्राय असत्य है, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय नहीं हैं, अपितु दिगम्बर हैं। पुरुषवेदादि का पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य यापनीयपक्ष ११ हास्य, "विजयोदयाटीका में सद्वेद्य, सम्यक्त्व, ,पुरुषवेद, शुभनाम, शुभगोत्र, एवं शुभ आयु को पुण्यप्रकृति कहा गया है । यह कथन दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यों में उपलब्ध ६२. निर्यापक के समीप में न रहने पर क्षपक अयोग्य पदार्थ का सेवन कर सकता है अथवा बिना खड़े हुए भोजन कर सकता है, जो दोषपूर्ण है - " अयोग्यसेवां कुर्याद् अस्थितभोजनादिकं पार्श्ववर्तिन्यसति कुर्याद्वा ।" वि.टी./ भ.आ./गा.' सेवेज्ज वा अकप्पं' ६७७। For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ नहीं है, केवल तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उपलब्ध है, जिसकी आलोचना सिद्धसेन गणी ने की है। इससे यही फलित होता है कि अपराजित यापनीय रहे होंगे। (जै.ध.या.स./पृ.१६०)। दिगम्बरपक्ष इस विषय में पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य ने भी लिखा है-"(विजयोदयाटीका में) तत्त्वार्थसूत्र से अनेक सूत्र उद्धृत हैं। विद्वान् जानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं, एक दिगम्बरसम्मत है, दूसरा श्वेताम्बरसम्मत। जितने सूत्र उद्धृत हैं, वे दिगम्बरसम्मत हैं। किन्तु (भगवती-आराधना की) १८२८ वी गाथा की टीका में सातावेदनीय, सम्यत्वप्रकृति, रति, हास्य और पुंवेद को पुण्यप्रकृति कहा है।६३ श्वेताम्बरसम्मत सूत्रपाठ में आठवें अध्याय के अन्त में इसी प्रकार का सूत्र है। किन्तु दिगम्बरपरम्परा में घतिकर्मों की प्रकृतियों को पापप्रकृतियों में ही गिनाया गया है। यहाँ टीकाकार ने सूत्र को तो प्रमाणरूप से उद्धृत नहीं किया है, किन्तु कथन तदनुसार किया है। पं० आशाधर जी ने भी अपनी टीका में विजयोदया के अनुसार ही इन्हें पुण्यप्रकृति लिखा है, यह आश्चर्य ही है। तत्त्वार्थसूत्र की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' टीकाकार के सामने थी, यह निर्विवाद है।" (भ.आ./शो.पु./ प्रस्ता./पृ.४०)। किन्तु सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने 'सर्वार्थसिद्धि' के आठवें अध्याय के २५वें सूत्र का विशेषार्थ बतलाते हुए लिखा है कि "वीरसेन स्वामी ने जयधवलाटीका में भी इन्हें (सम्यक्त्वप्रकृति, हास्य, रति और पुरुषवेद को) पुण्यप्रकृतियाँ सिद्ध किया है।" वीरसेन स्वामी ने धवला में भी पुरुषवेद को प्रशस्तवेद कहा है, क्योंकि उसके उदय में प्रमत्तविरत मुनि में आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मों का उदय हो सकता है तथा मनःपर्ययज्ञान एवं परिहारविशुद्धि संयम की प्राप्ति भी संभव है। तीर्थंकरप्रकृति का उदय भी उसी मुनि में संभव है, जो भाव से भी पुरुषवेदी होता है। भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद के उदय में ये शुभकार्य संभव नहीं हैं। वीरसेन स्वामी लिखते हैं ___ 'आहारकायजोगाणं भण्णमाणे---अस्थि पुरिसवेदो, इत्थि-णंउसयवेदा णत्थि। किं कारणं? अप्पसत्थवेदेहि सह आहाररिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति' (धवला / ष.खं./ पु.२/१,१/पृ.६६८)। अनुवाद-"आहारकाययोगी जीवों के पुरुषवेद होता है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं होते, क्योंकि अप्रशस्तवेदों के साथ आहारकऋद्धि उत्पन्न नहीं होती।" ६३. "सद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुंवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं एतेभ्योऽन्यानि पापानि।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना/ गा. 'अणुकंपासुद्धवओगो' १८२८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८७ __ इसी आधार पर श्री केशववर्णी ने भी लिखा है- "द्रव्यपुरुष-भावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारकतदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेननास्ति। तु-शब्दाद् अशुभवेदोदये मनःपर्ययपरिहार-विशुद्धी अपि न" (जी.त.प्र./ गो.जी./ गा.७१५)। ___अनुवाद-"द्रव्यपुरुष और भावस्त्रीरूप प्रमत्तविरत में आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग का उदय नियम से नहीं होता। गाथा में 'तु' (दु) शब्द के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि अशुभवेद (भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद) के उदय में मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धसंयम भी नहीं होते।" षट्खंडागम में कहा गया है कि मनुष्यिनियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं (पु.५ / १, ८, ७५ / पृ. २७८)। इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि अप्रशस्तवेद के उदय के साथ दर्शनमोहनीय का क्षपण करनेवाले जीव बहुत नहीं पाये जाते"अप्पसत्थवेदोदएण दंसणमोहणीयं खवेंतजीवाणं बहूणमणुवलंभा" (धवला / ष.खं/ पु.५ / १, ८, ७५ / पृ.२७८)। इस प्रकार दिगम्बरग्रन्थों में भी भावपुरुषवेद को प्रशस्तवेद एवं भावस्त्रीवेद और भाव-नपुंसकवेद को अप्रशस्तवेद कहा गया है। किन्तु भावपुरुषवेद के उदय में उपर्युक्त शुभकार्य तभी घटित होते हैं, जब भावपुरुषवेद द्रव्यपुरुषवेद के साथ होता है। द्रव्यस्त्रीवेद और द्रव्यनपुंसकवेद के साथ भावपुरुषवेद के होने पर आहारकऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान, परिहार-विशुद्धिसंयम आदि की प्राप्ति नहीं होती। इससे सिद्ध होता है द्रव्यपुरुषवेद भावपुरुषवेद से भी अधिक प्रशस्त है। इसकी अधिक प्रशस्तता का दूसरा प्रमाण यह है कि मनुष्यगति में द्रव्यपुरुषवेद के होने पर ही मोक्ष होता है। यदि भावपुरुषवेद का उदय हो, किन्तु उसके साथ द्रव्यपुरुषवेद न हो, अपितु द्रव्यस्त्रीवेद या द्रव्यनपुंसकवेद हो तो मोक्ष संभव नहीं है। भगवती-आराधना में संयम का साधन होने से आगामी भव में द्रव्यपुरुषवेद की आकांक्षा करने को प्रशस्तनिदान कहा गया है संजमहेदुं पुरिसत्त-सत्त-बलविरिय-संघडण-बुद्धी। सावअ-बंधु-कुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥ १२१०॥ इससे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है कि द्रव्यपुरुषवेद भावपुरुषवेद से भी अधिक प्रशस्त है। इसके विपरीत द्रव्यस्त्रीवेद और द्रव्यनपुंसकवेद अप्रशस्तवेद हैं, क्योंकि वे मोक्षमार्ग के प्रतिकूल हैं। इनमें भी द्रव्यनपुंसकवेद द्रव्यस्त्रीवेद से अप्रशस्ततर है, क्योंकि द्रव्यमानुषी तो उपचार-महाव्रतों के योग्य होती है, किन्तु द्रव्यनपुंसक मनुष्य नहीं होता। , वह अणुव्रतों का ही पात्र होता है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ तात्पर्य यह कि दिगम्बरग्रन्थों में भी पुरुषवेदादि को प्रशस्तप्रकृति कहा गया है। अतः जैसे उक्त प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति मानने पर भी वीरसेन स्वामी, केशववर्णी तथा पं० आशाधर जी यापनीय सिद्ध नहीं होते, वैसे ही अपराजितसूरि भी यापनीय सिद्ध नहीं होते। तथा जैसे तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-कार उमास्वाति उन्हें पुण्यप्रकृति कहने से यापनीय नहीं कहला सकते, वैसे ही अपराजितसूरि भी नहीं कहला सकते। इसके अतिरिक्त विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है, जो अपराजितसूरि के यापनीय न होकर दिगम्बर होने के अखण्ड्य प्रमाण हैं। इस प्रकार पुरुषवेदादि को पुण्यप्रकृति कहने का धर्म यापनीय-ग्रन्थकार होने का लक्षण या हेतु नहीं है। अतः अपराजितसूरि का दिगम्बराचार्य होना निर्विवाद है। प्रथम शुक्लध्यान दिगम्बरमतानुकूल यापनीयपक्ष "(विजयोदयाटीका में) शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क-सवीचार ध्यान का अधिकारी उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती को माना गया है। सर्वार्थसिद्धिसम्मत-पाठवाले तत्त्वार्थसूत्र में आठवें गुणस्थान से ही पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान को माना गया है।" (या. औ. उ. सा./ पृ.१३५) । अर्थात् उपशान्तमोहगुणस्थानवाले को ही प्रथम शुक्लध्यान का अधिकारी मानना यापनीयमतावलम्बी होने का लक्षण है। दिगम्बरपक्ष प्रथम तो यापनीयमत में गुणस्थान-सिद्धान्त मान्य ही नहीं है। दूसरे, उपशान्तमोहगुणस्थानवाले को उक्त शुक्लध्यान का स्वामी मानना यापनीय होने का लक्षण है, यह निर्णय किस प्रमाण के आधार पर किया गया, यह बुद्धिगम्य नहीं है। जो यापनीय अन्यलिंगियों और गृहस्थों की भी मुक्ति मानते हैं, उनके मत में तो मिथ्यादृष्टिगुणस्थान और संयतासंयत-गुणस्थान में भी चारों शुक्लध्यान हो जाते हैं। उनकी बात का क्या प्रमाण? अस्तु! षट्खंडागम के यशस्वी टीकाकार महान् दिगम्बराचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने भी चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें (सूक्ष्मसाम्पराय) गुणस्थान पर्यन्त धर्मध्यान की प्रवृत्ति मानी है और उपशान्तकषायगुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क-वीचार एवं क्षीणकषायगुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान बतलाये हैं। यथा For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८९ "असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजदपमत्तसंजद- अप्पमत्तसंजद - अपुव्वसंजद - अणियट्ठिसंजद- सुहुमसांपराइय-खवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स पवृत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो ।" (धवला / ष.खं./पु.१३/५,४,२६/पृ.७४) । अ० १४ / प्र० २ “एवमंतोमुहुत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्सिओ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणं छद्दव्व-णवपयत्थ-विसयमंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ ।" ( धवला / ष.खं. / पु.१३ / ५, ४, २६ / पृ.७८)। 1 इन वचनों से स्पष्ट है कि ग्यारहवें गुणस्थान में भी पृथक्त्ववितर्क - सवीचार ध्यान होने की मान्यता दिगम्बरमत में स्वीकृत है । अतः उसे दिगम्बरमत के प्रतिकूल मानना असत्य है। इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। इन विविध प्रमाणों से इस तथ्य का उद्घाटन हो जाता है कि यापनीयपक्षधर विद्वानों और विदुषी ने दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि को यापनीय - आचार्य सिद्ध करने के लिए जो बारह हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनमें से एक तो हेत्वाभास है, शेष सब असत्य हैं। अर्थात् उनका अस्तित्व ही नहीं है । तथा पूर्व में ऐसे सात प्रमाण और उनके पोषक अनेक उपप्रमाण उपस्थित किये गये हैं, जो साबित करते हैं कि अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य ही हैं, अतः इस बात में सन्देह के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं रहता कि भगवती - आराधना की विजयोदयाटीका के कर्त्ता अपराजितसूरि का यापनीय - परम्परा से दूर का भी सम्बन्ध नहीं था, वे पक्के दिगम्बर थे । उपसंहार दिगम्बरचार्य होने के प्रमाण सूत्ररूप में अब उन प्रमाणों का संक्षेप में संकलन किया जा रहा है, जो सिद्ध करते हैं कि अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य हैं तथा उनके द्वारा रचित विजयोदयाटीका दिगम्बराचार्य की कृति है । वे इस प्रकार हैं १. विजयोदयाटीका में ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जिनसे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति, इन यापनीयमान्यताओं का निषेध होता है । २. इसमें कहा गया है कि सचेल अपवादलिंग मोक्ष का उपाय नहीं है। वह परिग्रहधारी गृहस्थों का लिंग है, अतः उसका अंगीकार मुनियों को निन्दा का पात्र बनाता है। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ ३. इसमें प्रतिपादित अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीय-मान्यताओं का विरोधी है। ४. इसमें विधान किया गया है कि अचेल को ही महाव्रत प्रदान किये जाने चाहिए। ५. इसमें अचेल को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है। ६. तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग तथा सभी मोक्षार्थियों के लिए नियम से ग्राह्य बतलाया गया है। यह यापनीयमत की सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है। ७. पुरुषशरीर को ही संयम का साधन कहा गया है, जो यापनीयों की स्त्रीमुक्ति की मान्यता का विरोधी है। ८. वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त मनुष्य को संयतगुणस्थान की प्राप्ति के अयोग्य निरूपित किया गया है। यह भी सवस्त्रमुक्ति आदि यापनीय मान्यताओं के प्रतिकूल है। . ९. क्षुधापरीषह और भोजन की आकांक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही बतलायी गई है। इससे यापनीयों की केवलिभुक्ति की मान्यता का निषेध होता है। १०. बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थान- केन्द्रित दर्शायी गई है, जो यापनीयों की मोक्षव्यवस्था के विरुद्ध है । ११. साधुओं के मूलगुणों और उत्तरगुणों का वर्णन दिगम्बरपरम्परा के अनुरूप १२. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयों को अस्वीकार्य है। हैं। १३. साधु के लिए केशलुंच अनिवार्य बतलाया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर कल्पसूत्र में छुरे - कैंची से भी मुण्डन कराने की छूट है। १४. साधु के लिए आहार में मांस, मधु और मद्य के निषेध है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों में उन्हें अपवादरूप से गई है। १५. विजयोदया में कालद्रव्य का अस्तित्व माना गया है। यह मान्यता यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों के विपरीत है। ग्रहण का कठोरतापूर्वक ग्रहण करने की अनुमति १६. विजयोदया में वर्णित चार अनुयोगों के नाम दिगम्बरपरम्परा के अनुरूप एवं श्वेताम्बरपरम्परा के विरुद्ध हैं । For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय मूलाचार प्रथम प्रकरण मूलाचार के दिगम्बर ग्रन्थ होने के प्रमाण क मूलाचार का महत्त्व मूलाचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए प्रसिद्ध जैन इतिहासकार डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली) के प्रधान-सम्पादकीय में लिखते हैं-"द्वादश अधिकारों में विभक्त, प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध, 'मूलाचार' नामक ग्रन्थराज दिगम्बर आम्नाय में मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्रायः सर्वाधिक प्राचीन तथा सर्वोपरि प्रमाणमान्य किया जाता है। अपने समय में उपलब्ध प्रायः सम्पूर्ण जैनसाहित्य का गंभीर आलोडन करनेवाले आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम सिद्धान्त की अपनी सुप्रसिद्ध 'धवला' टीका (७८० ई०) में उक्त मूलाचार के उद्धरण 'आचारांग' नाम से देकर उसका आगमिक महत्त्व प्रदर्शित किया है। शिवार्य (प्रथम शती ई०) कृत 'भगवती-आराधना' की अपराजितसूरि-विरचित विजयोदयाटीका (लगभग ७००. ई०) में मूलाचार के कतिपय उद्धरण प्राप्त हैं और यतिवृषभाचार्य (२री शती ई०) कृत 'तिलोयपण्णत्ति' में भी मूलाचार का नामोल्लेख हुआ है। मूलाचार के सर्वप्रथम ज्ञात टीकाकार आचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिक (लगभग ११०० ई०) ने अपनी 'आचारवृत्ति' नाम्नी संस्कृत टीका की उत्थानिका में घोषित किया है कि ग्रन्थकार श्री वट्टकेराचार्य ने गणधरदेवरचित श्रुत के आचारांग नामक प्रथम अंग का अल्पक्षमतावाले शिष्यों के हितार्थ बारह अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया है। इन अधिकारों के प्रतिपाद्य विषय हैं क्रमश: "मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेप प्रत्याख्यान, समयाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुणस्तार और पर्याप्ति। वस्तुतः प्रथम अधिकार में निर्देशित मुनिपद के अट्ठाईस मूलगुणों का विस्तार ही शेष अधिकारों में किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ "ग्रन्थकर्ता आचार्य वट्टकेर के व्यक्तित्व, कृतित्व, स्थान, समयादि के विषय में स्वयं मूलाचार में, वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति में, अथवा अन्यत्र भी कहीं कोई ज्ञातव्य प्राप्त नहीं होते। पं० जुगलकिशोर मुख्तार के अनुसार, मूलाचार की कितनी ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं, जिनमें ग्रन्थकर्ता का नाम 'कुन्दकुन्दाचार्य' दिया हुआ है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये को भी कर्नाटक आदि दक्षिण भारत में ऐसी कई प्रतियाँ देखने में आयी थीं, जो कि उन्हें सर्वथा असली (नकली या जाली नहीं) प्रतीत हुईं। माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई से मूलाचार की जो सटीक प्रति दो भागों में प्रकाशित हुई थी, उसकी अन्त्य पुष्पिका-"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत-मूलाचाराख्यविवृतिः। कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य" में भी मूलाचार को कुन्दकुन्द-प्रणीत घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त भाषा-शैली, भाव आदि की दृष्टि से भी कुन्दकुन्द-साहित्य के साथ मूलाचार का अद्भुत साम्य लक्ष्य करके मुख्तार साहब की धारणा हुई कि वट्टकेराचार्य या वट्टेरकाचार्य संस्कृत शब्द 'प्रवर्तकाचार्य' का प्राकृत रूप हो सकता है। तथा वह आचार्य कुन्दकुन्द की एक उपयुक्त उपाधि या विरुद रहा हो सकता है, फलतः मूलाचार कुन्दकुन्द की ही कृति है। हमारी भी ऐसी ही धारणा रही। किन्तु पं० नाथूराम प्रेमी मुख्तार सा० के मत से सहमत नहीं हुए और उन्होंने स्थानविशेष के नाम से प्रसिद्ध 'वट्टकेर' नामक किसी अज्ञात कन्नडिग दिगम्बराचार्य को इस ग्रन्थ का कर्ता अनमानित किया। इस प्रकार मूलाचार का कृतित्व विवाद का विषय बन गया। विद्वानों का एक वर्ग उसे कुन्दकुन्द-प्रणीत कहता है, तो एक दूसरा वर्ग उसे वट्टकेर नामक एक स्वतन्त्र आचार्य की कृति मान्य करता है, और ऐसे भी अनेक विद्वान् हैं, जो जब तक कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो जाय, इस विषय को अनिर्णीत मानते हैं तथा प्रायः तटस्थ हैं। कुछ-एक विद्वानों का कहना है कि मूलाचार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मात्र एक संग्रहग्रन्थ हैं। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इस अनुमान का सन्तोषजनकरूप में निरसन करते हए कहा है कि मलाचार का ग्रन्थन एक निश्चित रूपरेखा के आधार पर हआ है, अतः इसके सभी प्रकरण आपस में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो उसके प्रकरणों में आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ता का निर्वाह सम्भव नहीं था। "सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रभृति सभी प्रौढ़शास्त्रज्ञ विद्वानों को मूलाचार की सर्वोपरि प्रामाणिकता एवं प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं है, और उनका कहना है कि उसे यदि स्वयं कुन्दकुन्दप्रणीत नहीं भी माना जाय, तो भी वह कुन्दकन्दकालीन (८ ई० पू०-४४ ई०) अर्थात् ईसवी सन् के प्रारम्भकाल की रचना तो प्रतीत होती ही है। शिवार्यकृत 'भगवती-आराधना' का भी वे प्रायः वही रचनाकाल अनुमान करते Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०१ मूलाचार / १९५ हैं। उनके अनुसार यद्यपि भगवती-आराधना एवं मूलाचार की अनेक गाथाओं में साम्य है, तथापि उससे यह मानना उचित प्रतीत नहीं होता है कि एक-दूसरे का परवर्ती है, अपितु यह मानना अधिक सम्भव होगा कि अनेक प्राचीन गाथाएँ परम्परा से अनुस्यूत चली आती थीं और उनका संकलन या उपयोग कुन्दकुन्द, वट्टकेर, शिवार्य आदि प्राचीन प्रारम्भिक ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ढंग से किया। इस प्रसंग में यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ज्येष्ठ समकालीन लोहाचार्य (१४ ई० पू०३० ई०) श्रुतधराचार्यों की परम्परा में अन्तिम आचारांगधारी थे। संभव है कि उन्हीं से आचारांग का ज्ञान प्राप्त करके उनके वट्टकेर नामक किसी शिष्य ने, अथवा मूलसंघाग्रणी आचार्य कुन्दकुन्द ने मूलसंघाम्नाय के मुनियों के हितार्थ द्वादशांगी के उक्त प्रथम अंग का बारह अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया हो।" १ आदरणीय सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री एवं डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने मूलाचार के विषय में अपना मन्तव्य इन शब्दों में व्यक्त किया है-"मूलसंघ के साधुओं का जैसा आचरण होना चाहिए, उसका वर्णन मूलाचार में वट्टकेर आचार्य ने किया है। मूल नाम प्रधान का है, साधुओं का प्रमुख आचार कैसा होना चाहिए , इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मूलाचार में किया है। अथवा (मूल का अर्थ) मूलसंघ भी होता है। मूलसंघ में दीक्षित साधु का आचार कैसा होना चाहिए , इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मूलाचार में किया है। मूलाचार जैन साधुओं के आचारविषय का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक ग्रन्थ है। यह वर्तमान में दिगम्बर साधुओं का आचारांगसूत्र समझा जाता है। इसकी कितनी ही गाथाएँ उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उद्धृत ही नहीं की हैं, अपितु उन्हें अपनेअपने ग्रन्थों का प्रकरणानुरूप अंग बना लिया है। दिगम्बर जैन वाङ्मय में मुनियों के आचार का 'सांगोपांग वर्णन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। इसके बाद मूलाराधना, आचारसार, चारित्रसार, मूलाचारप्रदीप तथा अनगारधर्मामृत आदि जो ग्रन्थ रचे गये हैं, उन सबका मूलाधार मूलाचार ही है। यह न केवल चारित्रविषयक ग्रन्थ है, अपितु ज्ञान-ध्यान तथा तप में अनुरक्त रहनेवाले साधुओं की ज्ञानवृद्धि में सहायक अनेक विषय इसमें प्रतिपादित किये गये हैं। इसका पर्याप्ति-अधिकार करणानुयोग-सम्बन्धी । अनेक विषयों से परिपूर्ण है।"२ १. मूलाचार / पूर्वार्ध । भारतीय ज्ञानपीठ / प्रधानसम्पादकीय / पृ. ५-६। २. वही/सम्पादकीय/ पृ.९। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार संग्रहग्रन्थ नहीं पं० परमानन्द जी शास्त्री ३ एवं डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने मूलाचार को एक संग्रहग्रन्थ माना है। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने इससे असहमति व्यक्त की है। वे लिखते हैं "डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना (पृ.२५) में मूलाचार को दक्षिण भारत की पाण्डुलिपियों के आधार पर कुन्दकुन्दकृत लिखा है। पर प्राच्य विद्या सम्मेलन, अलीगढ़ (उ.प्र.) में पठित एक निबन्ध में मूलाचार को संग्रहग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।" (ती.म.आ.प./ खं.२/ पृ.११८) "वट्टकेर के सम्बन्ध में अभी तक पट्टावलि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियों में सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है। अतः निश्चित रूप से उनके समय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मूलाचार की विषयवस्तु के अध्ययन से इतना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर-प्राचीनसूत्रग्रन्थ दशवैकालिक में भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरण में आदि में मंगलस्तवन के अंकित रहने से इसके संग्रहग्रन्थ होने का अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मति में यह संग्रहग्रन्थ न होकर स्वतन्त्रग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरण के आदि अथवा ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलस्तवन लिखने की प्रथा प्राचीन समय में स्वतन्त्र रूप से लिखित ग्रन्थों में वर्तमान थी। तिलोयपण्णत्ति में इस प्रथा को देखा जा सकता है। गोम्मटसार के आदि, मध्य और अन्त में भी मंगलस्तवन निबद्ध है।" (वही / पृ.११९)। "मूलाचार का ग्रथन एक निश्चित रूपरेखा के आधार पर हुआ है। अतः उसके सभी प्रकरण आपस में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणों में आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढता का निर्वाह सम्भव नहीं था। अत एव आचार्य वट्टकेर का समय कुन्दकुन्द के समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।" (वही / पृ.१२०)। कर्मसाहित्य के गहन अध्येता पं० बालचन्द्र जी शास्त्री के निम्नलिखित निरूपण से भी इसी बात का समर्थन होता है कि मूलाचार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है-"वट्टकेराचार्य (सम्भवतः ई० द्वितीय शताब्दी)-विरचित 'मूलाचार' एक साध्वाचार-विषयक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें मुनियों के आचार की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। वह ३. 'अनेकान्त' ( मासिक )/१ मार्च, १९३९ । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र० १ मूलाचार / १९७ इन बारह अधिकारों में विभक्त है--- । इसकी यह विशेषता रही है कि उन बारह अधिकारों में से विवक्षित अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है, उसकी सूचना उस अधिकार के प्रारंभ में करके तदनुसार ही क्रम से उनकी प्ररूपणा वहाँ की गई है। उक्त बारह अधिकारों में अन्तिम पर्याप्ति अधिकार है। प्रारंभ में यहाँ कर्मचक्र से निर्मुक्त सिद्धों को नमस्कार करके आनुपूर्वी के अनुसार पर्याप्तिसंग्रहणियों के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् इस अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है, उनका निर्देश इस प्रकार दिया गया है— पर्याप्ति, देह, काय व इन्द्रियों का संस्थान, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, उद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश - रूप चार प्रकार का बन्ध । इन सब सैद्धान्तिक विषयों की प्ररूपणा यहाँ व्यवस्थितरूप में जिस क्रम व पद्धति से की गई है, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता को उन विषयों का ज्ञान अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा से प्राप्त था ।" ( षट्खण्डागम - परिशीलन / पृ. १५०-१५१) । ग यापनीयग्रन्थ होने की नई उद्भावना : समर्थक हेतु इस प्राचीन दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार के विषय में पण्डित नाथूराम जी प्रेमी ने एक नई उद्भावना की है । वह यह कि यह दिगम्बर - आचार्य की कृति नहीं है, अपितु यापनीय - आचार्य द्वारा रचित है। वे लिखते हैं- "यह उस परम्परा का जान पड़ता है, जिसमें शिवार्य और अपराजित हुए हैं। "" श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने भी इस मत का अनुसरण किया है। डॉ० सागरमल जी ने एकदो - नये हेतु भी प्रस्तुत किये हैं, पर उन्होंने मुख्यतः प्रेमी जी के ही हेतुओं को बढ़ाचढ़ा कर मूलाचार के यापनीयग्रन्थ होने की जोरदार वकालत की है। प्रेमी जी ने जो हेतु बतलाये हैं, उनका सार इस प्रकार है १. मूलाचार में भी भगवती - आराधना की तरह श्वेताम्बर - ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ संगृहीत हैं। डॉ० सागरमल जी ने इसे अपनी भाषा में इस प्रकार रखा है - " वस्तुतः मूलाचार श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामग्री से निर्मित है। --- और चूँकि यह शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध है, अर्धमागधी में नहीं, इससे सिद्ध होता है कि यह यापनीयग्रन्थ है । "५ ४. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं. / पृ. ५५०-५५२ । ५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १३१ । For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ २. मूलाचार में श्वेताम्बरपरम्परा के अनेक ग्रन्थों का उल्लेख है, और उनके पढ़ने का उपदेश दिया गया है। इससे भी सिद्ध होता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। ३. कुछ गाथाओं में अभिव्यक्त किये गये विचार दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल नहीं हैं, जो इसके यापनीय होने का संकेत देते हैं। ४. कुछ गाथाएँ स्त्रीमुक्ति की समर्थक प्रतीत होती हैं। यह भी ग्रन्थ के यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण है। सभी हेतु असत्य इनमें से कोई भी हेतु सत्य नहीं हैं। अतः यह नयी उद्भावना असत्य है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ है। हेतुओं की असत्यता का उद्घाटन आगे किया जायेगा। पहले उन प्रमाणों पर दृष्टिपात कर लिया जाय, जिनसे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार दिगम्बरग्रन्थ है। वे द्विविध हैं : अन्तरंग और बहिरंग। सर्वप्रथम अन्तरंग प्रमाणों का प्रदर्शन किया जा रहा है। दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण यापनीयमत विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन मूलाचार में ऐसे अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं और दिगम्बरमत के सूचक हैं। उनसे प्रमाणित होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं सवस्त्रमुक्ति अमान्य १.१. आचेलक्य मुनि का मूलगुण मूलाचार (पू.) में मुनिपद का निर्धारण करनेवाले अट्ठाईस गुण बतलाये गये हैं, जो 'मुनि' नाम से अभिहित होने के लिए आधारभूत हैं, अत एव मूलगुण कहलाते ६. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./ पृ.५५०-५५२ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ /प्र०१ मूलाचार / १९९ हैं। वे निम्नलिखित गाथाओं में वर्णित हैं पंच य महव्वयाइं समदीओ पंच जिणवरुट्ठिा। पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ॥ २॥ आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव। ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुण अट्ठवीसा दु॥ ३॥ अनुवाद-"जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के ये अट्ठाईस मूलगुण निर्दिष्ट किये हैं : पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँचों इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त।" इनमें आचेलक्य (नग्नता) को मुनि का मूलगुण अर्थात् आधारभूत गुण बतलाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके बिना कोई भी पुरुष 'मुनि' नहीं कहला सकता। मूलगुणों के बिना उत्तरगुणों का भी विकास नहीं हो सकता, जो इस प्रकार हैं: तीन गुप्तियाँ, दस धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषहों पर विजय, पाँच चारित्र और बारह तप, जिनमें धर्मध्यान और शुक्लध्यान शामिल हैं। अतः अचेलत्व के अभाव में इन उत्तरगुणों का विकास भी असंभव है। इसलिए कोई भी वस्त्रधारी पुरुष, भले ही वह अप्रशस्तलिंगादि के कारण अपवाद रूप से वस्त्रधारण करे, मूलाचार के अनुसार 'मुनि' संज्ञा का अधिकारी नहीं है। ये अट्ठाईस मूलगुण बिलकुल वे ही हैं, जिनका प्ररूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में किया है। यथा वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च॥ ३/८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि॥ ३/९॥ इससे एक बात स्पष्ट होती है कि मूलाचार के कर्ता वट्टकेर श्रमणाचार के विषय में पूर्णतः कुन्दकुन्द के अनुगामी हैं। ७. "मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि" ( उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठानों को मूलगुण कहते हैं )/आचारवृत्ति / मूलाचार / पूर्वार्ध / गा.१ । ८. ते मूलुत्तरसण्णा मूलगुणा महव्वदादि अडवीसा। तवपरिसहादिभेदा - चोत्तीसा उत्तरगुणक्खा ॥ ३॥ ( मूलाचार की फलटण से प्रकाशित प्रति में अतिरिक्त गाथा क्र.२ ) For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ १.२. आचेलक्य के बिना संयतगुणस्थान असंभव मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा। इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि॥ १॥ मूला./पू.। अनुवाद-"जो मूलगुणों से विशुद्ध हैं, उन समस्त संयतों को मस्तक झुकाकर प्रमाण करते हुए इस लोक और परलोक, दोनों के लिए हितकर मूलगुणों का वर्णन करूँगा।" इस मंगलाचरण में मूलाचार के कर्ता ने स्पष्ट किया है कि जो २८ मूलगुणों से विशुद्ध होता है, वही संयतगुणस्थान प्राप्त कर सकता है। संयतगुणस्थान का अर्थ है मुनिपद। आचेलक्य भी २८ मूलगुणों में से एक है। अतः सिद्ध है कि आचेलक्य के बिना संयतगुणस्थान अर्थात् मुनिपद की प्राप्ति संभव नहीं है। इस प्रकार आचार्य वट्टकेर की दृष्टि में सचेलपुरुष संयत (मुनि) ही नहीं होता, तब उसके द्वारा धारण किये गये वस्त्रों को अपवादलिंग संज्ञा दे देने पर भी उसके कर्मों की निर्जरा कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती। अतः अचेलपुरुष को ही संयत कहे जाने से सिद्ध है कि आचार्य वट्टकेर को सचेल-अपवाद-लिंगधारी पुरुष की मुक्ति मान्य नहीं है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि उन्हें गृहिलिंगियों, परलिंगियों और आर्यिकाओं की भी मुक्ति अमान्य है। १.३. सर्वांग-निर्वस्त्रता ही अचेलता और निर्ग्रन्थता मूलाचार के कर्ता ने कहा है कि शरीर को किसी भी वस्तु से आवृत न करना, सर्वथा खुला रखना आचेलक्य है, इसी का नाम निर्ग्रन्थता है वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं। णिब्भूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पुज्जं॥ ३०॥ अनुवाद-"वस्त्र, चर्म और वल्कल अथवा पत्तों आदि से शरीर को आवृत न करना तथा आभूषणों और अन्य ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित होना आचेलक्य है। यहाँ आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि समस्त आभूषणों और बाह्य पदार्थों का इस सीमा तक त्याग करना कि शरीर का कोई भी अंग वस्त्रादि से आच्छादित न रहे, आचेलक्य या निर्ग्रन्थता है। १.४. आचेलक्य का अर्थ अल्पचेलत्व नहीं श्वेताम्बरों और यापनीयों का मत है कि अपवादलिंगधारी स्थविरकल्पी साधु गृहस्थों की अपेक्षा अल्पवस्त्र धारण करते हैं, अतः 'आचेलक्य' का अर्थ ईषत्-चेलत्व अर्थात् अल्पचेलत्व है। फलस्वरूप सचेल अपवादलिंगधारी पुरुष में 'आचेलक्य' मूलगुण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २०१ या स्थितिकल्प घटित हो जाता है। इस मान्यता का निरसन मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथा से हो जाता है ते सव्वगंथमुक्का अममा अपरिग्गहा जहाजादा। वोसट्टचत्तदेहा जिणवरधम्मं समं णेति॥ ७८३॥ अनुवाद-"वे सकलपरिग्रहमुक्त, ममत्वरहित, अपरिग्रही, यथाजातरूपधारी एवं शरीर-संस्कारत्यागी मुनि जिनवर के धर्म को साथ ले जाते हैं।" यहाँ यथाजात (जहाजादा) शब्द से स्पष्ट कर दिया गया है कि जन्म के समय बालक का जैसा नग्नरूप होता है, वैसा ही नग्नरूपधारी (सर्वांगनिर्वस्त्र) होना अचेलक या निर्ग्रन्थ होने का अभिप्राय है। अतः 'आचेलक्य' शब्द से अल्पचेलत्व अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। जहाजादा शब्द से भी सूचित होता है कि मूलाचार के कर्ता पर आचार्य कुन्दकुन्द के जधजादरूवधरो (प्र.सा.३/४) तथा जधजादरूवजादं (प्र.सा. ३/५) के प्रयोग का प्रभाव है। मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथा में साधुओं के लिए प्रयुक्त निरम्बर शब्द भी 'अचेलक' शब्द से 'अल्पचेल' अर्थ ग्रहण करने की संभावना को निरस्त कर देता है उवधिभरविप्पमुक्का वोसटुंगा णिरंबरा धीरा। णिक्किंचण परिसुद्धा साधू सिद्धिं विमग्गंति॥ ७९८॥ अनुवाद-"उपधि के भार से मुक्त, शरीरसंस्कार से रहित, निर्वस्त्र, धीर, अकिंचन और परिशुद्ध साधु सिद्धि की खोज करते हैं।" यहाँ 'निरम्बर' शब्द में प्रयुक्त 'निर्' अव्यय 'अचेलक' शब्द में प्रयुक्त 'अ' (नञ्) अव्यय के समान ईषत् (अल्प) अर्थ का वाचक नहीं है, अपितु 'सर्वथा अलग हो जाने' का वाचक है। यथा-"निर्गतम् अम्बरं यस्मात् सः।" अतः निरम्बर शब्द से अल्पाम्बर (अल्पचेल) अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु सर्वथा अम्बररहित अर्थ ही ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार 'निरम्बर' शब्द सिद्ध कर देता है कि 'आचेलक्य' मूलगुण या स्थितिकल्प श्वेताम्बर-यापनीय-परम्पराओं के सचेल अपवादलिंगधारी साधु पर घटित नहीं होता अतः 'मूलाचार' की दृष्टि में अपवादलिंगधारी की मुक्ति असम्भव है। १.५. आचेलक्य चारित्र का साधन मूलाचार (उत्त.) में आचार्य वट्टकेर का कथन है कि आचेलक्य (नग्नत्व), केशलोच, शरीर का संस्कार न करना और पिच्छिकाग्रहण यह चार प्रकार का लिंग Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ चारित्र का साधन है अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णायव्वो॥ ९१०॥ वट्टकेर ने अचेलत्व को चारित्र के विकास का साधन कहकर स्पष्ट कर दिया है कि सचेलत्व चारित्र के विकास में बाधक है, अतः वह मोक्ष का हेतु नहीं है। १.६. निर्ग्रन्थ को ही निर्वाण की प्राप्ति मूलाचार के कर्ता यह भी कहते हैं कि निर्ग्रन्थ को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है सम्मइंसणणाणेहिं भाविदा सयलसंजमगुणेहिं। णि?वियसव्वकम्मा णिग्गंथा णिव्बुदिं जंति॥ ११८७॥ अनुवाद-"सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से आत्मा को भावित कर तथा सम्पूर्ण संयम आदि गुणों के द्वारा समस्त कर्मों का विनाश कर निर्ग्रन्थ मुनि निर्वाण प्राप्त करते हैं।" आचार्य वट्टकेर ने निर्ग्रन्थ उसे कहा है, जो शरीर को वस्त्र, चर्म, वल्कल या पत्तों से आच्छादित नहीं करता तथा सभी प्रकार के परिग्रह से मुक्त रहता है। अतः स्पष्ट है कि उनके मतानुसार सचेल पुरुष या स्त्री निर्ग्रन्थ नहीं है, इसलिए उसका निर्वाण असंभव है। उन्होंने पूर्वोद्धृत 'उवधिभरविप्पमुक्का' गाथा (७९८) में भी यही बात कही है। मूलाचार के प्रणेता आचार्य वट्टकेर की इन विविध उक्तियों से सिद्ध है कि उन्हें सवस्त्रमुक्ति मान्य नहीं है। इससे यापनीय-परम्परा में जो सचेल-अपवादलिंगधारी साधुओं को मुक्ति का पात्र माना गया है, उसका निषेध हो जाता है। यह इस बात का प्रबल प्रमाण है कि मूलाचार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान पूर्व में मूलाचार की दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं, जिनमें मुनिपद के लिए आधारभूत माने गये २८ मूलगुणों का विधान है। यापनीयमत में उन्हें मूलगुण नहीं ९. "येन लिङ्गेन तच्चारित्रमनुष्ठीयते तस्य लिङ्गस्य भेदं स्वरूपं च निरूपयन्नाह-'अच्चेलक्कं लोचो।" आचारवृत्ति / पातनिका / मूलाचार / उत्त. / गा.९१० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २०३ माना गया है, क्योंकि यापनीयों के अनुसार इन मूलगुणों से रहित स्थविरकल्पियों (सवस्त्र साधुओं), गृहस्थों, परलिंगियों तथा स्त्रियों की भी मुक्ति हो सकती है। किसी भी उपलब्ध यापनीयग्रन्थ में मुनियों के लिए उक्त २८ मूलगुणों का विधान नहीं है। यद्यपि यापनीयपरम्परा में जिनकल्पी साधु नग्न रहते थे, पर यह मोक्ष के लिए आवश्यक मूलगुण के रूप में मान्य नहीं था, क्योंकि उनके मत में नग्नत्व के बिना भी मोक्ष संभव है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्वयं स्त्रीनिर्वाणप्रकरण की निम्न-लिखित दस कारिकाओं में नग्नत्व को मूलगुण मानने से इनकार किया है अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवद् यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । न विरुध्यति हि रत्नत्रयसम्पद् निर्वृतेर्हेतुः॥ २॥ अनुवाद-"स्त्री की मुक्ति होती है, क्योंकि उसमें मोक्ष के सभी हेतु विद्यमान होते हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रय है और स्त्री में उसके होने में कोई विरोध नहीं है।" वस्त्राद् न मुक्तिविरहो भवतीत्युक्तं, समग्रमन्यच्च। रत्नत्रयाद् न वाऽन्यद् युक्त्यङ्गं शिष्यते सद्भिः॥ २१॥ अनुवाद-"वस्त्रधारण करने से मुक्ति का अभाव नहीं होता, यह आगम में बहुशः कहा गया है। इसके अतिरिक्त आचार्यों का कथन है कि रत्नत्रय के सिवाय मोक्ष का और कोई हेतु (मूलगुण) शेष नहीं रहता।" (यहाँ 'युक्त्यङ्ग' के स्थान में मुक्त्यङ्गं होना चाहिए।) - यदि वस्त्रादविमुक्तिः , त्यजेत तद्, अथ न कल्पते हातुम्। उत्सङ्गप्रतिलेखनवद् अन्यथा देशको दूष्येत॥१०॥ अनुवाद-"यदि वस्त्रधारण करने से मोक्ष नहीं होता, तो उनका त्याग आवश्यक होता, किन्तु जिनेन्द्र ने स्त्री को उनके त्यागने का निषेध किया है-'जिणकप्पिया इत्थी न होइ' (बृहत्कल्पसूत्र ५ / २६)। इससे सिद्ध है कि स्त्री के लिए प्रतिलेखन (रजोहरण) के समान वस्त्र संयम के साधन हैं। यदि संयम के साधन न होते, तो उनके अत्याग का उपदेश देनेवाले जिनेन्द्र दोष के पात्र होते। किन्तु वे दोष के पात्र नहीं हो सकते, इससे सिद्ध है कि वस्त्र संयम के उपकरण हैं।" त्यागे सर्वत्यागो ग्रहणेऽल्पो दोष इत्युपादेशि। वस्त्रं गुरुणाऽऽर्याणां परिग्रहोऽपीति चुत्यादौ॥ ११॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १५ / प्र० १ अनुवाद - " यद्यपि वस्त्र परिग्रह है, तो भी जिनेन्द्र ने आर्यिकाओं को उनके ग्रहण का उपदेश इसलिए दिया है कि वस्त्रत्याग से सम्पूर्ण संयम का त्याग हो जायेगा, किन्तु वस्त्रग्रहण से थोड़ा ही दोष लगेगा । " यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहाऽर्हन् ॥ १२ ॥ अनुवाद - " जो वस्तु संयम की साधक होती है, उसे अरहन्त ने संयम का उपकरण कहा है, क्योंकि वह धर्म का साधन है। उससे भिन्न पदार्थों को भगवान् ने परिग्रह की संज्ञा दी है । " वस्त्रं विना न चरणं स्त्रीणामित्यर्हतौच्यत, विनाऽपि । पुंसामिति न्यवार्यत (नाऽवार्यत), तत्र स्थविरादिवद् ( मुक्तिम् ) मुक्तिः ॥ १६॥ अनुवाद — "स्त्रियाँ वस्त्रग्रहण के बिना संयम की सांधना नहीं कर सकतीं, इसलिए अरहन्त ने उनके लिए वस्त्रग्रहण का उपदेश दिया है । किन्तु पुरुष वस्त्रग्रहण के बिना भी संयम के पालन में समर्थ होते हैं, अतः उनके लिए वस्त्रधारण का निषेध किया है। (तथापि सभी पुरुषों के लिए निषेध नहीं किया । जो पुरुष वस्त्रत्याग में असमर्थ होते हैं, उनके लिए अरहन्त ने स्थविरकल्प अर्थात् सवस्त्रमोक्षमार्ग निर्धारित किया है।) अतः जैसे वस्त्रधारण करनेवाले स्थविरकल्पी मुनियों को मोक्ष होता है, वैसे ही वस्त्रधारी स्त्रियों को भी संभव है । " यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि यापनीयमत में शीतादिपरीषह सहने करने में समर्थ पुरुषों को वस्त्रग्रहण का निषेध केवल इसलिए किया गया है कि, वे वस्त्रग्रहण के बिना भी संयमपालन करने में समर्थ हैं। श्री पद्मनाभ एस. जैनी ने भी उपर्युक्त श्लोक का ऐसा ही अनुवाद किया है— "The Arhat has prescribed that, for woman, conduct (that is conduc tive to moksa) is impossible (to maintain ) unless she wears clothes. But, for men, even without (wearing clothes, such conduct is possible), therefore, he prohibited (them from wearing clothes ) . " ( Gender and Salvation, p. 61-62). श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा में भी तीर्थंकरों द्वारा वस्त्रधारण न किये जाने का कारण यही बतलाया गया है कि उनका गुह्यप्रदेश शुभप्रभामण्डल से आच्छादित रहता है, इसलिए उन्हें वस्त्रग्रहण की आवश्यकता नहीं होती। तात्पर्य यह कि श्वेताम्बर और यापनीय मतों में तीर्थंकरों और जिनकल्पी मुनियों के द्वारा वस्त्र त्याग इसलिए १०. “जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति।” (प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / २ / ३१ / पृ.९२ ) । For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २०५ नहीं किया जाता कि वह अपरिग्रहमहाव्रत के लिए आवश्यक है, अपितु इसलिए किया जाता है कि उनके लिए वस्त्रों की आवश्यकता नहीं रहती। स्त्रीनिर्वाणप्रकरण में आगे कहा गया हैं अर्शो-भगन्दरादिषु गृहीतचीरो यतिन मुच्येत। उपसर्गे वा चीरे ग्दादिः संन्यस्यते चात्ते॥ १७॥ अनुवाद-“(यदि वस्त्रत्याग मोक्ष के लिए अनिवार्य माना जाय तो) अर्श और भगन्दर जैसे रोगों में (जिनकल्पी) मुनि को भी व्रण ढंकने के लिए वस्त्रग्रहण करना पड़ता है, तब उसका भी मोक्ष असंभव हो जायेगा। इसी प्रकार यदि कोई विद्वेषी पुरुष जिनकल्पी मुनि पर उपसर्ग करने के लिए वस्त्र डाल दे, तब भी उसका मोक्ष संभव न होगा। (किन्तु आगम में इनका मोक्ष बतलाया गया है, अतः मोक्ष के लिए वस्त्रत्याग अनिवार्य नहीं है)।" पाल्यकीर्ति शाकटायन ने निम्नलिखित कारिका में दिगम्बरपक्ष प्रस्तुत किया उत्सङ्गमचेलत्वं नोच्येत तदन्यथा नरस्यापि। आचेलक्या (क्यं) योग्यायोग्या सिद्धरदीक्ष्य इव ॥१८॥ __ अनुवाद-"यदि मोक्ष के लिए अचेलत्व अनिवार्य न होता, तो पुरुष के लिए भी अनिवार्य न बतलाया जाता। यतः स्त्री अचेलत्व के योग्य नहीं होती, इसलिए मोक्ष के भी योग्य नहीं होती, जैसे कोई भी अदीक्षायोग्य मनुष्य मोक्ष के योग्य नहीं होता।" पाल्यकीर्ति ने इसका खण्डन उक्त ग्रन्थ की निम्नलिखित कारिका में किया है इति जिनकल्पादीनां युक्त्यानामयोग्य इति सिद्धेः। स्यादष्ट-वर्ष-जातादिरयोग्योऽदीक्षणीय इव॥ १९॥ (यहाँ भी 'युक्त्यङ्गानाम्' के स्थान पर मुक्त्यङ्गानाम् होना चाहिए।) अनुवाद-"यदि यह माना जाय कि जो मनुष्य जिनकल्प (अचेलत्व) आदि (जिनकल्प, यथालन्दविधि एवं परिहारविशुद्धि इन) मुक्ति की साधनभूत दीक्षाओं के अयोग्य होता है, वह मोक्ष के योग्य नहीं होता, तो आठ वर्ष की आयु से लेकर तीस वर्ष से कम आयु तक का पुरुष अदीक्षा-योग्य मनुष्य के समान मोक्ष के योग्य सिद्ध नहीं होगा",११ क्योंकि आगम में उसी पुरुष को उपर्युक्त जिनकल्पादि दीक्षाओं 11.A- “ This argument that one is unfit (for moksa) because one can not receive the jinakalpa initiation (that requires nudity) can have undesirable conse Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ के योग्य बतलाया गया है, जो तीस वर्ष की आयु का हो अथवा जिसकी मुनिदीक्षा हुए उन्नीस वर्ष हो गये हों। किन्तु सभी जैनसम्प्रदाय यह मानते हैं कि मुक्ति के लिए तीस वर्ष की आयु होना आवश्यक नहीं है। ("गब्भादो णिक्खंतपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि"= "गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर संयमग्रहण के योग्य होता है।" धवलाटीका / ष. खं. / पु.१० / ४, २, ४,५९ / पृ.२७८)। इससे सिद्ध है कि आठ वर्ष से लेकर तीसवर्ष से कम आयु तक के पुरुष स्थविरकल्प (वस्त्रपात्रादियुक्त लिंग) से मोक्ष प्राप्त करते स्थविरकल्प (सवस्त्रमुक्तिमार्ग) का समर्थन करते हुए पाल्यकीर्ति आगे कहते संवर-निर्झररूपो बहुप्रकारस्तपोविधि : शास्त्रे। . योगचिकित्साविधिरिव कस्यापि कथञ्चिदुपकारी॥ २०॥ अनुवाद-"आगम में कर्मों के संवर और निर्जरा के लिए तप की अनेक विधियाँ बतलायी गयी हैं। जिस प्रकार योग और चिकित्सा की अनेक विधियाँ होती हैं और अलग-अलग रोगी के लिए अलग-अलग चिकित्साविधि उपकारी होती है, कोई एक ही चिकित्साविधि या औषधि सभी रोगियों के अनुकूल नहीं होती, इसी प्रकार कोई मुमुक्षु जिनकल्प की साधना के योग्य होता है और कोई स्थविरकल्प की। सभी के लिए कोई एक कल्प अनुकूल नहीं होता। इसलिए वस्त्रत्याग के बिना भी कोई स्त्री या पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन के इन योगचिकित्साविधि-न्याय का प्रतिपादन करनेवाले वचनों से सिद्ध है कि यापनीयमत में मोक्ष के लिए अचेलत्व quences (for the opponent) : according to this rule, an eitht-year-old boy and so forth (who is considered by tradition to be capable of attaining maksa) would be barred from attaining it merely because the mendicant rule prevents adoption of nudity (at that age).” Translation of the verse 19 by Padmanabh S. Jaini : Gender & Salvation, p. 64. B-" The three modes, namely the jinakalpa, the time-bound course (yathālandavidhi), and the purificatory course (parihāravisuddhi), are con sidered as leading to mokșa” Ibid. p. 64 - 65. C-" Only a man who is thirty years of age, or who has adopted mendicancy for at least nineteen years previously, deserves to undertake (such) total renunciation (i.e., one of the three modes described obove. (?)” Ibid. p. 65. For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २०७ अनिवार्य नहीं है अर्थात् वह मुनियों के मूलगुण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए 'मूलाचार' यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है, क्योंकि उसमें प्रत्येक मुनि के लिए अट्ठाईस मूलगुणों का पालन अनिवार्य बतलाया गया है, जिनमें अचेलत्व (नग्नता) पहला मूलगुण है। २.१. योगचिकित्साविधि-न्याय कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल ___और मोक्षमार्ग के प्रसंग में यह योगचिकित्साविधि-न्याय जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल है। क्योंकि यदि मोक्ष के लिए इस न्याय का अनुसरण किया जाय, तो पहला प्रश्न तो यही उठता है कि भले ही कुछ पुरुषों में जिनकल्प के आचरण की शक्ति हो और उनके लिए वस्त्रधारण अनावश्यक हो, पर जब मृदुमार्ग से मोक्ष संभव है, तब कठिन मार्ग को अपनाने का क्या औचित्य है? यह तो विवेकसंगत नहीं है। लोकोक्ति भी है अर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्। इष्टस्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेत्॥ अर्थात् यदि मार्गस्थ आक-वृक्ष में ही मधु मिल जाय, तो कोई पर्वत पर क्यों जायेगा? यदि इच्छित वस्तु अनायास ही मिल जाय तो कौन समझदार आदमी उसके लिए कष्ट उठायेगा? न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते' जब फल को हाथ से तोड़ना सम्भव होता है, तब वृक्ष पर कोई नहीं चढ़ता। यदि यह कहा जाय कि "स्थविरकल्पियों का वस्त्रग्रहण मोक्षसाधक है और जिनकल्पियों का वस्त्रग्रहण मोक्ष में बाधक, क्योंकि स्थविरकल्पियों के वस्त्रग्रहण से हिंसा-मूर्छा कम होती है और जिनकल्पियों के वस्त्रग्रहण से ज्यादा, इस कारण जिनकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण का निषेध है," तो यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि इस भेद का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। कारण-कार्य-सादृश्य-न्याय से तो यही युक्तियुक्त प्रतीत होता है कि जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों के वस्त्रग्रहण से हिंसामूर्छारूप परिणाम सदृश ही होंगे। तथा जिस प्रकार स्थविरकल्पियों के वस्त्रधारण से उन्हें अल्पकर्मबन्ध और मोक्षरूपी अधिक लाभ माना गया है, उसी प्रकार जिनकल्पियों के वस्त्रधारण से भी इसी परिणाम की प्राप्ति मानने में कोई बाधा नहीं है। अतः "स्थविरकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण मोक्षसाधक है ओर जिनकल्पियों के लिए मोक्षबाधक, इसलिए जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण का निषेध किया है," यह तर्क न तो युक्तियुक्त है, न यह आगमवचन है। For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र०१ __ दूसरी बात यह है कि शरीर के रोग तो अनेक होते हैं तथा एक ही रोग किसी को मन्दरूप में होता है, किसी को तीव्ररूप में, किसी का दुःसाध्य होता है, किसी का सुसाध्य। अतः इनके लिए अलग-अलग चिकित्साविधि का होना युक्तिसंगत है। किन्तु आत्मा का संसाररूपी रोग तो सभी आत्माओं में एक ही प्रकार का है और उसकी गहनता भी सभी में एक जैसी है, और आत्माओं की शक्ति भी समान है, तब किसी का संसाररोग मृदु चिकित्साविधि से और किसी का कठोर चिकित्साविधि से ठीक हो, इसका कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि स्थविरकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्म मृदु प्रजाति के हों और जिनकल्पियों के कठोर प्रजाति के, इसलिए स्थविरकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय शिथिल आचरणवाले स्थविरकल्प से हो जाता हो और जिनकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्मों का विनाश कठोर आचारवाले जिनकल्प से संभव होता हो। यदि ऐसा माना जाय, तो यह जिनोपदिष्ट कर्म-सिद्धान्त के प्रतिकूल होगा। मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्साविधि-न्याय को मान्य करने से यह अर्थ फलित होगा कि जैसे दुःसाध्य रोगी को नीरोग होने के लिए तीक्ष्ण औषध की आवश्यकता होती है और सुसाध्य रोगी के लिए मृदु औषध की, इसी प्रकार जिनकी मुक्ति दुःसाध्य होती है, उन्हें मुक्त होने के लिए नग्न शरीर पर तीक्ष्ण परीषह सहन करानेवाले जिनकल्प जैसे कठोर आचार की जरूरत होती है तथा जिनकी मुक्ति सुसाध्य होती है, उनके लिए परीषहमुक्त मृदु आचार ही आवश्यक होता है। तब इससे यह अभिप्राय प्रकट होगा कि तीर्थंकरों की मुक्ति दुःसाध्य होती है, इसलिए वे जिनकल्प अंगीकार करते हैं और सामान्य स्त्री-पुरुषों की मुक्ति सुसाध्य होती है, इस कारण वे स्थविरकल्प अपनाते हैं। तब इसका यह फलितार्थ होगा कि दर्शनविशुद्धि आदि बीस (श्वेताम्बरयापनीय-मतानुसार) भावनाओं के अनुष्ठान से तीर्थंकरप्रकृति के साथ मुक्ति को दुःसाध्य बनानेवाले घोर पापकर्मों का बन्ध होता है और अनुष्ठान न करने से उनका संवर होता है। इस प्रकार मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्साविधि-न्याय को मान्यता देने से सम्पूर्ण जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त उलट-पुलट हो जाता है, जिनशासन की धज्जियाँ उड़ जाती है, तथा जिनकल्पयोग्य उत्तमसंहननयुक्त पुरुषपर्याय की अपेक्षा स्थविरकल्पयोग्य हीनसंहननयुक्त पुरुष एवं स्त्री पर्यायें उत्कृष्ट सिद्ध होती हैं। अतः मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्सा-विधि-न्याय जिनशासन के प्रतिकूल है। २.२. यापनीय-परम्परा में अन्य प्रकार के २७ मूलगुण न केवल नग्नत्व (अचेलत्व), बल्कि मूलाचार में वर्णित मुनि के २८ मूलगुणों में से अन्य अनेक मूलगुण भी यापनीय-परम्परा में मान्य नहीं थे। क्योंकि, यापनीय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २०९ मतावलम्बी श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे, जिनमें मुनियों के लिए मूलाचार-वर्णित २८ मूलगुण स्वीकृत नहीं हैं। समवायांगसूत्र में श्रमणों के अधोलिखित २७ मूलगुणों का वर्णन है, जो मूलाचारवर्णित मूलगुणों से काफी भिन्न हैं "सत्तावीस अणगारगुणा पन्नत्ता, तं जहा-१. पाणाइवायाओ वेरमणं (प्राणातिपातविरमण), २. मुसावायाओ वेरमणं (मृषावादविरमण), ३. अदिन्नादाणाओ वेरमणं (अदत्तादानविरमण), ४. मेहुणाओ वेरमणं (मैथुनविरमण), ५. परिग्गहाओ वेरमणं (परिग्रहविरमण),६.सोइंदियनिग्गहे, (श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह) ७. चक्खिंदियनिग्गहे (चक्षुरिन्द्रियनिग्रह), ८. घाणिंदियनिग्गहे (घ्राणेन्द्रियनिग्रह), ९. जिब्भिंदियनिग्गहे (जिह्वेन्द्रियनिग्रह), १०. फासिंदियनिग्गहे (स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह), ११. कोहविवेगे (क्रोधविवेक), १२. माणविवेगे (मानविवेक), १३. मायाविवेगे (मायाविवेक), १४. लोभविवेगे (लोभविवेक), १५. भावसच्चे (भावसत्य), १६. करणसच्चे (करणसत्य), १७. जोगसच्चे (योगसत्य), १८. खमा (क्षमा), १९.विरागया (विरागता), २०.मण-समाहरणया (मनः-समाधारणता), २१. वयसमाहरणया (वचन-समाधारणता), २२. कायसमाहरणया (काय-समाधारणता) २३. णाणसंपण्णया (ज्ञानसम्पन्नता), २४.दसणसंपण्णया (दर्शनसम्पन्नता), २५. चरित्तसंपण्णया (चारित्रसम्पन्नता), २६. वेयण-अहिया-सणया (वेदनातिसहनता), २७. मारणंतियअहियासणया (मारणान्ति-कातिसहनता)।" १२ यद्यपि इन्हें मूलगुण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनके बिना भी गृहस्थों और परलिंगियों की मुक्ति मानी गई हैं, तथापि यदि इन्हें मूलगुण मान भी लिया जाय, तो भी इनमें पाँच समितियाँ, छह आवश्यक, आचेलक्य, केशलोच, अस्नान, अदन्तधावन, क्षितिशयन, स्थितिभोजन और एकभुक्त ये अठारह मूलगुण शामिल नहीं हैं, जो मूलाचार में स्वीकृत हैं। वैसे केशलोच, अस्नान और अदन्तधावन का पालन श्वेताम्बर मुनि भी करते हैं, फिर भी ये उनमें मूलगुणरूप में मान्य नहीं हैं।१३ यापनीय भी श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते थे, अतः उन्हें भी ये समवायांगसूत्र-वर्णित २७ मूलगुण ही मान्य थे। मूलाचार में वर्णित मुनि के २८ मूलगुणों से श्वेताम्बर-यापनीय मतों में मान्य इन २७ मूलगुणों का तनिक भी मेल नहीं है। अतः मूलाचार के यापनीयग्रन्थ न होने १२. क- समवायांगसूत्र २७/१७८ (मुनि कल्याणविजय जी : मानव भोज्य-मीमांसा/पृ. २५२ तथा डॉ. सुरेश सिसोदिया : जैनधर्म के सम्प्रदाय/ पृ. १५९-१६० से उद्धृत)। ख-उपर्युक्त उद्धरण में कोष्ठकगत हिन्दी-रूपान्तरण प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक द्वारा किया गया है। १३. डॉ. सुरेश सिसोदिया : जैनधर्म के सम्प्रदाय/ पृ. १७५ । For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ और दिगम्बरग्रन्थ होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए? मूलाचार का 'मूलगुणाधिकार' नामक प्रथम अधिकार ही इस दावे को नकार देता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। २.३. उत्तरगुण भी यापनीय मत में अमान्य मूलाचार में मूलगुणों के साथ उत्तरगुण भी मुनि के लिए निर्धारित किये गये हैं।४ त्रिगुप्ति, दशधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, बाईसपरीषहजय, पंचविधचारित्र, बारहतप और ध्यान, इनको उत्तरगुण नाम दिया गया है, क्योंकि इनका विकास मूलगुणों की आधारभूमि पर होता है। श्वेताम्बर-आगमों में इन्हें न तो मूलगुणों के रूप में स्वीकार किया गया है, न ही उत्तरगुणों के रूप में। उनमें पिण्डविशुद्धि आदि सत्तर गुणों को उत्तरगुण कहा गया है (अभिधान राजेन्द्र कोष २/७९१)। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत में भी त्रिगुप्ति आदि की मूलगुणों या उत्तरगुणों के रूप में मान्यता नहीं है। उनके किसी उपलब्ध ग्रन्थ में भी इनका संकेत नहीं है। यह भी मूलाचार के यापनीयग्रन्थ न होने का एक प्रमाण है। स्त्रीमुक्ति अमान्य आचेलक्यादि २८ मूलगुणों और तप, परीषहविजय आदि उत्तरगुणों के अनिवार्य विधान से स्पष्ट है कि मूलाचार के अनुसार मोक्षसाधना के योग्य बनने तथा तप, परीषहजय आदि उत्तरगुणों के विकास के लिए 'आचेलक्य' मूलगुण का होना अनिवार्य है। अचेलकता मोक्षमार्गरूपी महल की बुनियाद है और संयतगुणस्थान की आधारशिला। वह स्त्रियों के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए सिद्ध है कि मूलाचार स्त्रीमुक्ति-विरोधी परम्परा का ग्रन्थ है। मूलाचार में स्त्रीमुक्ति-विरोध का दूसरा प्रमाण यह है कि इसमें स्त्री का ऊर्ध्वगमन केवल सोलहवें स्वर्ग तक बतलाया गया है। उससे ऊपर निर्ग्रन्थलिंगधारियों के ही गमन का उल्लेख है। मूलाचार के कर्ता कहते हैं कि असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यात्वभाव के कारण ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं और तापसों की उत्पत्ति उत्कृष्ट आयुवाले ज्योतिष्कों में होती है। (गा.११७४)। परिव्राजकों का जन्म अधिक से अधिक ब्रह्मस्वर्ग तक और आजीविकों का सहस्रार पर्यन्त होता है। इसके ऊपर नियम से अन्यलिंगियों की उत्पत्ति नहीं होती, केवल निर्ग्रन्थ (दिगम्बरजैन मुनि) और श्रावक अच्युत स्वर्ग तक जन्म लेते हैं। देखें, मूलाचार की यह गाथा १४. मूलगुणउत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण। तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगममिस्साणं ॥ ५० ॥ मूलाचार/पू.। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र० १ मूलाचार / २११ तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं । णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चदं जाव ॥ ११७६ ॥ यहाँ ‘सावगाणं' (श्रावकाणाम् ) पद में निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन मुनि) को छोड़कर शेष सभी सवस्त्र जिनधर्मावलम्बियों का समावेश कर दिया गया है। आर्यिकाओं का भी कथन 'श्रावक' शब्द से हो गया है, क्योंकि निश्चयनय से वे पंचमगुणस्थानवर्ती ही होती हैं । १५ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यहाँ 'णिग्गंथ' शब्द आर्यिकाओं का भी वाचक है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मूलाचार में 'आचेलक्य' मूलगुण से युक्त दिगम्बर मुनि को ही 'निर्ग्रन्थ' शब्द से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर - आगमों में आर्यिकाओं को 'निर्ग्रन्थी' कहा गया है, किन्तु मूलाचार में कहीं भी उनके लिए 'निर्ग्रन्थी' संज्ञा का प्रयोग नहीं किया गया । गाथा के द्वितीय चरण में 'णिग्गंथ' पद के बाद छन्दानुरोध से सात मात्राओंवाले पद का ही प्रयोग हो सकता था । सावगाणं (श्रावकाणां) और अज्जिगाणं (आर्यिकाणां ) ये दोनों सात मात्राओं वाले पद हैं। इनमें से यदि 'अज्जिगाणं' पद का प्रयोग किया जाता, तो उससे केवल 'आर्यिका' अर्थ ही प्रतिपादित होता, जबकि 'सावगाणं' पद के प्रयोग से श्रावक, श्राविका तथा आर्यिका तीनों अर्थ प्रतिपादित हो जाते हैं । इसीलिए 'सावगाणं' पद का प्रयोग किया गया है। आचार्य वट्टकेर मूलाचार (उत्त.) में आगे कहते हैं : जा उवरिमगेवेज्जं उववादो उक्कट्ठे तवेण दु तत्तो परं तु णियमा तवदंसण - णाण चरणजुत्ताणं । गिंथाणुववादो जावदु सव्वसिद्धि त्ति ॥ ११७८ ॥ अभवियाण उक्कस्सो । णियमा णिग्गंथलिंगेण ॥ ११७७ ॥ अनुवाद –" अभव्य पुरुष निर्ग्रन्थलिंग (दिगम्बरलिंग) से उत्कृष्ट तप करके अधिक से अधिक उपरिम (नौवें ) ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं । किन्तु उससे आगे सर्वार्थसिद्धि विमान तक नियम से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से युक्त निर्ग्रन्थों का ही उपपाद (जन्म) होता है।" आचार्य वट्टकेर के ये वचन इस बात के प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ अपने सर्वोच्च धर्माचरण के द्वारा केवल सोलहवें स्वर्ग तक ही पहुँच सकती हैं, उसके आगे नहीं, अतः उनकी स्त्रीशरीर से मुक्ति सम्भव नहीं है। १५. ‘“निर्ग्रन्थाणां श्रावकाणां श्राविकाणाम् आर्यिकाणां च शुभपरिणामेनोत्कृष्टाचरणेनोपपादः सौधर्ममादिं कृत्वा यावदच्युतकल्पः ।" आचारवृत्ति / मूलाचार / उत्तरार्ध / गा.११७६ । For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ किन्तु यापनीय मानते हैं कि स्त्री के नीचे की ओर जाने की सीमा का तो नियम है, जैसे वह छठे नरक से नीचे नहीं जा सकती, किन्तु ऊपर की ओर जाने की सीमा का नियम नहीं है। वह अनुत्तर स्वर्गों को भी पार करती हुई सिद्धशिला तक पहुँच सकती है।६ इसका स्पष्टीकरण डॉ० सागरमल जी ने इस प्रकार किया है "ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो जितना निम्न गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते हैं, किन्तु उच्च गति में समानरूप से जाते हैं। जैसे सम्मूच्छिम जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, चतुष्पद चौथे नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पाँचवे नरक से आगे नहीं जा सकते। इस प्रकार निम्नगति में जाने में इन सब में भिन्नता है, किन्तु उच्च गति में ये सभी सहस्रार स्वर्ग तक बिना किसी भेदभाव के जा सकते हैं। इसलिए यह कहना कि जो जितनी निम्नगति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी ही उच्चगति तक जाने में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है। अधोगति में जाने की अयोग्यता से उच्चगति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती।" (जै. ध. या. स./ पृ. ४०३)। (ज्ञातव्य-यहाँ 'सम्मूछिम' के स्थान में 'असंज्ञी' शब्द होना चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीव ही प्रथम नरक से आगे नहीं जाते। -प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखक)। यह श्वेताम्बर-आगमों को माननेवाले यापनीयों का भी सिद्धान्त है। इस दृष्टान्त के द्वारा यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने यह सिद्ध किया है कि स्त्री में भले ही छठवें नरक से नीचे जाने की क्षमता न हो, पर ऊपर वह लोकाग्र (सिद्धशिला) तक जाने में सक्षम है अर्थात् निर्वाण प्राप्त करने में समर्थ है। मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर का उपर्युक्त कथन इस यापनीय-सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। यापनीय मानते हैं कि स्त्री सोलहवें स्वर्ग से भी ऊपर सिद्धशिला तक जा सकती है। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि वह सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकती। इस तरह यापनीयसिद्धान्तों के सर्वथा विरुद्ध प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ क्या यापनीय आचार्य की कृति हो सकता है? सर्वथा नहीं। १६. सप्तमपृथिवीगमनाद्यभावमव्याप्तमेव मन्यन्ते। निर्वाणाभावेनाऽपश्चिमतनवो न तां यान्ति॥ ५॥ विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम्। गच्छन्ति च तिर्यञ्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः॥ ६॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २१३ अन्यलिंग से मुक्ति का निषेध मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथाएँ अन्यलिंग अर्थात् जैनेतरलिंग से मुक्ति की निषेधक हैं संखादीदाऊणं मणुय-तिरिक्खाण मिच्छभावेण। उववादो जोदिसिए उक्कस्सं तावसाणं दु॥ ११७४॥ परिवायगाण णियमा उक्कस्सं होदि बंभलोगम्हि। उक्कस्सं सहस्सार त्ति होदि य आजीवगाण तहा॥ ११७५॥ तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं। णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव॥ ११७६ ॥ अनुवाद-"असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यात्वभाव के कारण ज्योतिष्कदेवों में जन्म लेते हैं और तापसों की उत्पत्ति उत्कृष्ट आयुवाले ज्योतिषी देवों में होती है। परिव्राजकों का जन्म अधिक से अधिक ब्रह्मस्वर्ग में और आजीविकों का अधिक से अधिक सहस्रार स्वर्ग में होता है। इससे ऊपर के स्वर्गों में अन्यलिंगियों की उत्पत्ति नियम से नहीं होती। निर्ग्रन्थ और श्रावकों का जन्म अच्युत स्वर्ग पर्यन्त होता है।" तापस, परिव्राजक और आजीविक, ये जैनेतरलिंगधारी साधुओं के सम्प्रदाय हैं। आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि इन साधुओं में आजीवक साधु सर्वोत्कृष्ट तपस्वी होता है। लेकिन वह भी अपने तप के बल से अधिक से अधिक सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग में जन्म ले पाता है। उससे ऊपर के स्वर्ग में कोई भी अन्यलिंगधारी साधु नहीं पहुंच पाता। ___ इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि जब मनुष्य अन्यलिंग से बारहवें स्वर्ग से भी ऊपर नहीं जा सकता, तब उससे ऊपर सिद्धशिला पर कैसे पहुँच सकता है? इस प्रकार मूलाचार में अन्यलिंग से मुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। मूलाचार का यह मत यापनीय-मान्यता के अत्यन्त विरुद्ध है, क्योंकि यापनीय अन्यलिंग को भी मुक्ति का साधन मानते थे, यह यापनीयसंघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय में दर्शाया जा चुका है। मूलाचार (पू.) में अन्यलिंगी की वन्दना का भी निषेध किया गया हैं,१७ जिससे १७. णो वंदिज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिंद अण्णतित्थं वा। देसविरद . देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा ॥ ५९४॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ ध्वनित होता है कि वह मुक्ति का अपात्र है। आचार्य वट्टकेर ने जैनशासन के अतिरिक्त अन्य शासनों को कुपथ कहा है।८ मूलाचार (पू.) की निम्नलिखित दो गाथाओं से भी अन्यतीर्थिक की मुक्ति का निषेध फलित होता है रत्तवडचरग-तावस-परिहत्तादीय अण्णपासंढा। संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूढो सो॥ २५९॥ अनुवाद-"रक्तवस्त्रधारी (बौद्धभिक्षु), चरक, तापस, परिव्राजक तथा और भी अन्यलिंगी साधु संसारतारक हैं, ऐसा जो मानता है, वह समयमूढ़ (तीर्थमूढ़) है। जं खलु जिणोवदिटुं तमेव तस्थित्ति भावदो गहणं। सम्मइंसणभावो तव्विवरीदं च मिच्छत्तं ॥ २६५॥ अनुवाद-"जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है, वही वास्तविक है, ऐसा मानना सम्यग्दर्शन है। इससे विपरीत मिथ्यात्व है।" इन गाथाओं में स्पष्ट किया गया है कि अन्यलिंग मोक्ष का साधक नहीं है तथा जिनेन्द्रदेव द्वारा बतलाये गये मार्ग से भिन्नमार्ग को मोक्ष का हेतु मानना मिथ्यात्व है। यहाँ स्पष्टतः अन्यलिंग से मोक्ष का निषेध किया गया है। . गृहिलिंग से मुक्ति का निषेध "णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव" (मूला./ उत्त. /गा.११७६) इस गाथांश में आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि अपने उत्कृष्ट धर्माचरण से भी श्रावक-श्राविकाओं एवं आर्यिकाओं की उत्पत्ति अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं होती। इससे उनकी मुक्ति का निषेध हो जाता है। मूलाचार (पू.) की एक अन्य गाथा में आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि सावद्ययोग (पापास्रव) से बचने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक का उपदेश दिया है। गृहस्थधर्म जघन्य है, क्योंकि उसमें आरम्भ-परिग्रह की प्रधानता होती है, ऐसा जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्महित करे, अर्थात् उत्तम श्रमणधर्म अंगीकार कर सामायिक में अधिकाधिक संलग्न रहे सावजजोगपरिवजणटुं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं। गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णिच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं ॥ ५३२॥ १८. लद्धेसु वि एदेसु य बोधी जिणसासणम्हि ण हु सुलहा। कुपहाणमाकुलत्ता जं बलिया रागदोसा य ॥ ७५९॥ मूलाचार / उत्तरार्ध। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २१५ श्रावक मुनि के द्वारा अवन्दनीय बतलाया गया है,१९ जिससे विदित होता है कि श्रमण और श्रावक के स्तर में बहुत अन्तर है। श्रावक का धर्म जघन्य है और श्रमण का धर्म उत्तम। इससे सिद्ध है कि मूलाचार में श्रावक या गृहस्थ को मोक्ष का पात्र नहीं माना गया है। किन्तु यापनीयमत गृहिलिंग से भी मुक्ति मानता है। यह इस बात का एक अन्य प्रमाण है कि मूलाचार की मान्यताएँ यापनीय-मान्यताओं के सर्वथा विपरीत हैं। अतः यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। अपरिग्रह का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार (पू.) में अपरिग्रह का लक्षण इस प्रकार बतलाया जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव। तेसिं सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो॥ ९॥ अनुवाद-"परिग्रह तीन प्रकार का है : जीव से सम्बद्ध (मिथ्यात्व-कषाय), जीव से असम्बद्ध (क्षेत्र, वास्तु , वस्त्र, धन, धान्यादि), तथा जीवोद्भूत (जीवों से उत्पन्न मोती, शंख, शुक्ति, कम्बल आदि)। इन तीनों का जिस सीमा तक त्याग किया जा सकता है, उस सीमा तक त्याग करना और जितने का त्याग नहीं किया जा सकता है उतने (शरीर और संयम के उपकरणों) में ममत्व न करना अपरिग्रह महाव्रत कहलाता अपरिग्रह के इस लक्षण में पूर्ण नग्नत्व गर्भित है, क्योंकि नग्न रहने की सीमा तक बाह्य परिग्रह का त्याग किया जा सकता है। इसीलिए आचेलक्य मुमुक्षु का मूलगुण बतलाया गया है और वस्त्र, चर्म, वल्कल अथवा पत्तों से शरीर को आवृत न करना आचेलक्य का लक्षण कहा गया है। (मूलाचार / गा. ३०)।। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपरिग्रह की परिभाषा में आचार्य वट्टकेर ने कुन्दकुन्द का अनुसरण किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इच्छा के अभाव को अपरिग्रह कहा है-'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स.सा. / गा. २१०-२१३)। वट्टकेर ने भी 'अपरिग्गहा अणिच्छा' (मूला./ उत्त./ गा. ७८५) कहकर अनिच्छा और अपरिग्रह को समानार्थी बतलाया है। और कसायपाहुड में इच्छा और मूर्छा को एकार्थक निरूपित किया गया १९. देखिए , पादटिप्पणी १७। For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १५ / प्र० १ है । २० आचार्य वसुनन्दी ने सब ओर से परद्रव्य ग्रहण करने के परिणाम को मूर्च्छा और उस मूर्च्छा को परिग्रह कहा है । २१ तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने इच्छा को परिग्रह बतलाया है— 'इच्छा परिग्रहः' (आ. ख्या. / स. सा. / गा. २१३)। तात्पर्य यह कि श्वेताम्बर - आगमों में वस्त्र - पात्र रखने को परिग्रह न कहकर उनमें ममत्वरूप मूर्च्छा होने को परिग्रह कहा गया है। इसीलिए वहाँ साधु-साध्वी को वस्त्र - पात्रादि रखते हुए भी अपरिग्रही माना गया है। यापनीयमत में भी वस्त्रपात्रादि रखनेवाले स्थविर-कल्पियों, आर्यिकाओं, गृहस्थों और अन्यलिंगियों को मुक्ति का पात्र माना गया है, इसलिए वहाँ भी वस्त्र - पात्रादि रखने को परिग्रह न कहकर उनमें ममत्वरूप मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है। किन्तु मूलाचार में वस्त्रपात्रादि परद्रव्य की इच्छामात्र को परिग्रह बतलाया गया है, परद्रव्य को पाकर उसमें ममत्व न करने की तो बात ही दूर । वस्त्रपात्रादि को अपने पास रखना, उनको सँभालना - सँवारना बिना इच्छा के नहीं हो सकता। अतः मूलाचार में अपरिग्रह की जो परिभाषा की गई है, वह वस्त्रपात्रादि रखने की सर्वथा निषेधक है । यह परिभाषा यापनीय मत के सर्वथा विरुद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि मूलाचार यापनीय - परम्परा का ग्रन्थ कतई नहीं है । ७ गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास की मान्यता मूलाचार ( उत्त) की निम्नलिखित गाथाओं में चौदह गुणस्थानों का यथाक्रम वर्णन है— मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव । देसविरो पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ॥ ११९७ ॥ एत्तो अपुव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य । उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य॥ ११९८ ॥ चारों गतियों के जीवों में गुणस्थानों के विकास की सीमा भी मूलाचार (उत्त. ) की अधोनिर्दिष्ट गाथा में बतलाई गयी है सुरणारयेसु चत्तारि होंति मणुसगदी वि तहा तिरियेसु जाण पंचेव । चोइसगुणणामधेयाणि ॥ १२०२ ॥ २०. “ णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥ ८९ ॥ कसायपाहुड / भाग १२ / पृ. १८९ । २१. “परिग्रहाः समन्तत आदानरूपा मूर्च्छा।" आचारवृत्ति / मूलाचार / पूर्वार्ध/गा. ९ । For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २१७ अनुवाद-"देव और नारकियों में अधिक से अधिक चार गुणस्थान हो सकते हैं, तिर्यंचों में पाँच और मनुष्यों में चौदह गुणस्थान संभव हैं।" मूलाचार में जीव के इन चौदह गुणस्थानों का वर्णन ग्रन्थकार की इस मान्यता को सूचित करता है कि मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय का विकास गुणस्थानपरिपाटी से होता है और उसकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। इस पूर्ण अवस्था को प्राप्त रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है, उससे नीचे के गुणस्थानों का अपूर्ण रत्नत्रय नहीं। यह गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास का सिद्धान्त यापनीय-मान्यताओं के अत्यन्त विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत के अनुसार अन्यलिंगी साधु भी मुक्त हो सकता है, जब कि वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही रहता है। स्त्री और गृहस्थ भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, जिनका अधिक से अधिक पाँचवाँ ही गुणस्थान होता है। गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास का सिद्धान्त इन सबकी मुक्ति को अमान्य कर देता है। अतः रत्नत्रयविकास के मानदण्डरूप इस गुणस्थानसिद्धान्त को मान्यता देने के कारण सिद्ध होता है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है। सोलह कल्पों की मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में कल्प-नामक स्वर्गों की संख्या बारह बतलायी गयी है, जब कि मूलाचार (उत्त.) में सोलह कल्पों का निरूपण है। यथा आईसाणा कप्पा देवा खलु होंति कायपडिचारा। फासप्पडिचारा पुण सणक्कुमारे य माहिंदे॥ ११४१॥ बंभे कप्पे बंभुत्तरे य तह लंतवे य कापिढे। एदेसु य जे देवा बोधव्वा रूवपडिचारा॥ ११४२॥ सुक्कमहासुक्केसु य सदारकप्पे तहा सहस्सारे। कप्पे एदेसु सुरा बोधव्वा सद्दपडिचारा॥ ११४३॥ आणद-पाणदकप्पे आरणकप्पे अच्चुदे य तहा। मणपडिचारा णियमा एदेसु य होति जे देवा॥ ११४४॥ आईसाणा का अर्थ है आ ईशानात् अर्थात् भवनवासियों से लेकर ईशान स्वर्ग तक। इस कथन से सौधर्म स्वर्ग का भी ग्रहण हो जाता है। मूलाचार में यह सोलह स्वर्गों की मान्यता यापनीयों की केवल बारह स्वर्गों की मान्यता के विरुद्ध होने से भी सिद्ध होता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ नौ अनुदिश-स्वर्गों की मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में अनुदिश नामक नौ स्वर्ग भी नहीं माने गये हैं, पर मूलाचार मानता है। देखिए उसके उत्तरार्ध यह गाथा णिव्वुदिगमणे रामत्तणे य तित्थयरचक्कवट्टित्ते। अणुदिसणुत्तरवासी तदो चुदा होति भयणिजा॥ ११८३॥ अनुवाद-"अनुदिश और अनुत्तरवासी देवों का वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाना अथवा बलदेव, तीर्थंकर या चक्रवर्ती का पद पाना भी संभव है।" अनुदिश स्वर्गों के अस्तित्व की यह यापनीय-विरुद्ध मान्यता भी सिद्ध करती है कि मूलाचार दिगम्बरग्रन्थ ही है। १० वेदत्रय की स्वीकृति मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथाओं में बतलाया गया है कि प्रत्येक संसारी जीव में चारित्रमोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियों की सत्ता होती है कोहो माणो माया लोहोणंताणुबंधिसण्णा य। अप्पच्चक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो॥ १२३४॥ इत्थीपुरिसणउंसयवेदा हास रदि अरदि सोगो य। भयमेतो य दुगंछा णवविह तह णोकसायभेयं तु॥ १२३५॥ इनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद भी शामिल हैं। इससे स्पष्ट है कि मूलाचार कर्मभूमि के प्रत्येक गर्भज मनुष्य और गर्भज संज्ञी तिर्यंच में वेदत्रय का अस्तित्व स्वीकार करता है। वेदत्रय की स्वीकृति यापनीयमत के विरुद्ध है। इसका विवेचन षट्खण्डागम के अध्याय में किया जा चुका है। मूलाचार में वेदत्रय की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। दिगम्बरमत के ये दस सिद्धान्त, जो मूलाचार में प्रतिपादित हुए हैं, यापनीयमत के विरुद्ध हैं। इन पर दृष्टि डालने से इस निर्णय में सन्देह के लिए स्थान ही नहीं रहता कि यह दिगम्बराचार्य की ही कृति है, यापनीय-आचार्य की नहीं। प्रेमी जी और उनके अनुसर्ताओं ने इसे यापनीयग्रन्थ माना लिया, यह महान् आश्चर्य की बात For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २१९ दिगम्बरकृतित्व-विषयक बहिरंग प्रमाण कुछ बहिरंग प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि मूलाचार दिगम्बराचार्य की ही कृति है। वे इस प्रकार है दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत मूलाचार को गृध्रपिच्छाचार्य (उमास्वाति, उमास्वामी), पूज्यपाद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसे दिगम्बराचार्यों ने प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। गृध्रपिच्छाचार्य ने मूलाचार के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों की रचना की है। पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धिटीका में अपने कथन की पुष्टि के लिए मूलाचार की दो गाथाएँ उद्धृत की हैं।२२ यतिवृषभ ने मूलाचार के अनुसार तिलोयपण्णत्ति में कल्पवासी इन्द्र-देवियों की आयु का वर्णन किया है।२३ तथा वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में मूलाचार की अनेक गाथाएँ उद्धृत कर अपने कथन का समर्थन किया है।४ यदि मूलाचार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होता, तो ये मूर्धन्य दिगम्बराचार्य उसकी गाथाओं को प्रमाणरूप में स्वीकार न करते, क्योंकि वे यापनीयों को जैनाभास और उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को भी अपूज्य मानते थे।२५ यतः यापनीयों के युग में और उनके साथ रहते हुए भी उक्त महान् दिगम्बराचार्यों द्वारा मूलाचार को प्रमाण माना गया है, इससे स्पष्ट है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। २२. देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण १/ शीर्षक ३.३। २३. पलिदोवमाणि पंचय-सत्तारस-पंचवीस-पणतीसं। चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ॥ ८/५३४ ॥ आरण-दुग-परियंतं, वटुंते पंच पंच पल्लाई। मूलायाराइरिया एवं णिउणं णिरूवेंति॥ ८/५३५ ॥ तिलोयपण्णत्ती। २४. दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण। असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च॥ १७१॥ ( धवला / ष.खं./पु. ९/४, १, ५४/गाथा ११५)। २५. "या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया, न चार्चनीया च।" श्रुतसागरटीका / बोधपाहुड / गा. १०/ पृ. १५४। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र०१ समस्त टीकाएँ दिगम्बर आचार्यों और पण्डितों द्वारा लिखित मूलाचार के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक प्रमाण यह भी है कि उस पर किसी भी श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ने टीका नहीं लिखी। सभी उपलब्ध टीकाएँ दिगम्बर आचार्यों एवं पण्डितों द्वारा ही लिखी गई हैं। उनके नाम२६ इस प्रकार हैं १. आचार्य वसुनन्दी (११०० ई०) द्वारा रचित आचारवृत्ति नामक संस्कृत टीका। २. आचार्य मेघचन्द्रकृत मूलाचारसद्वृत्ति नामक कन्नड़ टीका। ३. मुनिजनचिन्तामणि नामक एक अन्य कन्नड़ टीका। ४. मेधावी कवि द्वारा लिखित मूलाचारटीका। इनके अतिरिक्त पं० नन्दलाल जी छाबड़ा आदि विद्वानों ने अनेक भाषा-वचनिकाएँ भी रची हैं। टीकाओं के अतिरिक्त मूलाचार के आधार पर दिगम्बर आचार्यों और पण्डितों ने अनेक संस्कृतग्रन्थों का प्रणयन भी किया है। १५वीं शती ई० के भट्टारक सकलकीर्ति ने मूलाचारप्रदीप नामक ग्रन्थ की रचना की है। वीरनन्दी ने आचारसार ग्रन्थ लिखा है। अनगारधर्मामृत और चारित्रसार नामक ग्रन्थों की रचना भी मूलाचार के आधार पर की गई है। ये आचार्य उस समय विद्यमान थे, जब यापनीय-सम्प्रदाय फल-फूल रहा था। ये एक-दूसरे के साहित्य और सिद्धान्तों से सुपरिचित नहीं रहे होंगे, ऐसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आचार्य वसुनन्दी यापनीय-सम्प्रदाय के समकालीन थे। वे यापनीयसाहित्य से अच्छी तरह परिचित रहे होंगे। यदि मूलाचार सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादक यापनीयग्रन्थ होता, तो वे उस पर टीका लिखकर अपना दिगम्बरत्व, आचार्यत्व एवं सम्यक्त्व दूषित न करते। यतः दिगम्बर होते हुए भी उपर्युक्त आचार्यों और पण्डितों ने मूलाचार पर टीकाएँ लिखी हैं, इससे भी सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ दिगम्बर-परम्परा का ही है। २६. डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी और डॉ० श्रीमती मुन्नी जैन : सम्पादकीय / मूलाचार / पृष्ठ ९-१३। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २२१ मूलाचार की रचना यापनीयसंघोत्पत्ति-पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि मूलाचार की रचना ईसा की प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई है और यापनीयसंघ का उदय पञ्चम शताब्दी ई० के आरंभ में हुआ था। डॉ० सागरमल जी ने भी यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की पाँचवी शताब्दी में बतलाई है। (देखिये, यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय / प्रकरण १/शीर्षक १०)। इस प्रकार मूलाचार की रचना के समय यापनीय-सम्प्रदाय का उदय ही नहीं हुआ था, अतः वह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं हो सकता। इन बहुविध अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों से यह तथ्य भलीभाँति दृष्टिगोचर हो जाता है कि मूलाचार दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है और उसके कर्ता वट्टकेर दिगम्बराचार्य ही हैं। अतः उसे यापनीयमत का ग्रन्थ कहना एक महान् असत्योक्ति है। . २७. देखिए, दशम अध्याय / प्रथम प्रकरण / मूलाचार का रचनाकाल'। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता का उद्घाटन यतः पूर्वोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि मूलाचार दिगम्बरमत का ग्रन्थ है, अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये हेतु या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं। इस का निर्णय नीचे किया जा रहा है। "विरती' शब्द का प्रयोग उपचार से यापनीयपक्ष प्रेमी जी कहते हैं-"मूलाचार में मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए 'विरती' शब्द का उपयोग किया गया है।२८--- इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं।" ( जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.५५२)। अर्थात् मुनियों के समान आर्यिकाओं को भी तद्भव (जो शरीर पाया है उससे) मोक्ष का पात्र मानते हैं। दिगम्बरपक्ष आचार्य कुन्दकुन्द ने भी मुनियों को 'श्रमण' और आर्यिकाओं को 'श्रमणी' शब्द से अभिहित किया है। आर्यिकाओं के लिए 'श्रमणी' शब्द का प्रयोग प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथाओं में द्रष्टव्य है जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता। घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा॥ ३/२४/१३॥ तम्हा तं पडिरूवं लिंग तासिं जिणेहिं णिहिटुं। कुलरूववओजुत्ता समणीओ तस्समाचारा॥ ३/२४/१४॥२९ अनुवाद-"भले ही स्त्री सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, सूत्र का अध्ययन करती हो और घोर तप एवं चारित्र का पालन करती हो, किन्तु उसके तद्भवमोक्ष के योग्य २८. णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयम्हि चिट्ठदु । तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्झायाहारभिक्खवोसरणं ॥ १८० ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध। २९. प्रवचनसार / आ.जयसेन द्वारा निर्दिष्ट गाथाएँ। तृतीय अधिकार / पृ. २७७-२७८ । For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २२३ सकल कर्मों की निर्जरा नहीं होती। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने श्रमणियों के लिए उनके अनुरूप वस्त्रावरण-सहित द्रव्य-लिंग निर्दिष्ट किया है। श्रमणियाँ कुल, रूप और वय से युक्त होती हैं और उनके लिए समाचार (आचार) भी शास्त्रों में स्त्रियों के ही योग्य विहित किया गया है।" मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने भी मुनि के लिए 'संयत' और आर्यिका के लिए 'संयती' विशेषणों का प्रयोग किया है-'आर्याणां संयतीनाम्' (गा. १७७)। ये 'श्रमणी' और 'संयती' दोनों विशेषण 'विरती' के पर्यायवाची हैं। मुनि और आर्यिका के लिए समान विशेषणों का प्रयोग करते हुए भी इन दिगम्बराचार्यों ने उन्हें एक ही श्रेणी में नहीं रखा, क्योंकि वे मुनि को तो तद्भवमोक्ष के योग्य मानते हैं, किन्तु आर्यिका को नहीं। आचार्य वट्टकेर ने भी स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, इसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। इससे सिद्ध है कि आर्यिकाओं को 'विरती' शब्द से अभिहित करते हुए भी वे उन्हें मुनियों की श्रेणी में नहीं रखते। अतः यह निष्कर्ष सर्वथा असत्य है कि वे मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं। इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है। दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है, क्योंकि उन्हें महाव्रतों की औपचारिक दीक्षा दी जाती है। औपचारिक दीक्षा का अर्थ है वस्त्रत्याग में असमर्थ रहते हुए तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होते हुए भी स्त्री को आंशिक महाव्रत और तदनुसार एक साड़ीवाला अल्पपरिग्रहात्मक लिंग (वेश) प्रदान करना। इसका प्रयोजन है वास्तव में महाव्रती न होते हुए भी महाव्रती सदृश होने की प्रतीति कराना और इससे यह द्योतित करना कि यह औपचारिक दीक्षा परम्परया मोक्ष की साधक है। आर्यिका के उपचार-महाव्रत यद्यपि बाह्य महाव्रत हैं, तथापि उनकी साधना बहुत कठिन है। एक साड़ी धारण करने के कारण यद्यपि मुनिवत् शीतोष्ण-दंशमशकादि परीषहों के सहन का कठोर तप आर्यिका को नहीं करना पड़ता तथा स्त्रीशरीर एवं सवस्त्रता के कारण अहिंसा एवं अपरिग्रह महाव्रतों का भी पालन मुनिवत् नहीं होता, तथापि सत्य, अस्तेय एवं ब्रह्मचर्य महाव्रतों का पालन मुनितुल्य ही होता है। अतः आंशिक द्रव्यसंयम की अपेक्षा आर्यिका की विरती, संयती और श्रमणी संज्ञाएँ उपचार से युक्तिसंगत हैं। यद्यपि यह द्रव्यसंयम (उपचार-महाव्रत) मोक्ष का साक्षात् मार्ग नहीं है और न स्त्रीशरीर से मोक्ष की साक्षात् साधना के योग्य संयतगुणस्थान प्राप्त किया जा सकता For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र० २ है, तथापि स्त्री को बाह्य महाव्रतों की दीक्षा देने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है। वह प्रयोजन है उसे स्त्रीशक्ति के अनुसार उच्चतम त्याग और तप की प्रेरणा देना और यह ज्ञापित करना कि स्त्री भी तप और त्याग की बहुत ऊँचाई तक पहुँच सकती है और यह उच्च तप-त्याग निरर्थक नहीं है । यद्यपि इससे कर्मों का संवर और निर्जरा मुनि के बराबर नहीं होती, तथापि सम्यग्दर्शन- सहित होने से इससे ऐसे उत्कृष्ट पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, जिससे वह सोलहवें स्वर्ग तक का देव या इन्द्र बन जाती है, साथ ही अगले भव में मुनिव्रत धारण करने योग्य पुरुष - शरीर एवं उत्तमसंहननादि सामग्री उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार उपचार - महाव्रत परम्परया मोक्षसाधक होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आचार्य जयसेन ने इस औपचारिक महाव्रत - दीक्षा का प्रयोजन कुलव्यवस्था बतलाया है। श्वेताम्बरों की ओर से प्रश्न उठाकर उसका समाधान करते हुए वे कहते हैं 'अथ मतं - यदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम्? परिहारमाह—तदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम् । न चोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादिवत् । तथा चोक्तम् — मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते ।" (ता.वृ./ प्र.सा./ आ. जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'जदि दंसणेण सुद्धा' ३ / २४ / १३ / पृ. २७७-२७८)। अनुवाद- - " मान लिया कि आपके मत में स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता, तब उन पर महाव्रतों का आरोपण क्यों किया जाता है? समाधान – वह संघव्यवस्था ( श्राविकाओं और ब्रह्मचारिणियों को अनुशासित करने तथा वैयावृत्यादि की व्यवस्था ) के लिए उपचार से किया जाता है । उपचार यथार्थ नहीं होता, जैसे 'यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर है' ऐसा उपचार से कथन करने पर यह सिद्ध नहीं होता कि देवदत्त सचमुच में अग्नि है । वस्तु- विशेष पर किसी धर्म का उपचार तभी किया जाता है, जब वह उसमें स्वभावतः विद्यामान नहीं होता और उपचार करने के लिए कोई निमित्त तथा प्रयोजन होता है । " श्रुतसागर सूरि के अनुसार सज्जातित्व ज्ञापित करने केलिए स्त्रियों पर महाव्रतों का उपचार किया जाता है । ३० आर्यिका श्री सुपार्श्वमती जी लिखती हैं- "वीरसेन ३०. “तासां स्त्रीणां कथं भवति प्रव्रज्या दीक्षा अपितु न भवति । यदा प्रव्रज्या न भवति तर्हि कथं पञ्च महाव्रतानि दीयन्ते ? सत्यमेतत्, सज्जातिज्ञापनार्थं महाव्रतानि उपचर्यन्ते स्थापना न्यासः क्रियत इत्यर्थः ।" श्रुतसागरटीका / सुत्तपाहुड / गा. २४ । For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २२५ आचार्य ने आचारसार में लिखा है कि महाव्रत धारण करने में देश, कुल, जाति की शुद्धि अवश्य होनी चाहिए। यह स्त्री उत्तम कुल और उत्तम जाति की है, इस विशेषता को बताने के लिए उपचार से महाव्रत दिये जाते हैं।"३१ इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है, अतः उनके लिए 'विरती', 'संयती' और 'श्रमणी' विशेषणों का प्रयोग भी उपचार से ही किया गया है। इस कारण उन्हें मुनिवत् परमार्थतः महाव्रती, विरती, संयती या श्रमणी मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग नहीं एक बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि मूलाचार में आर्यिका के लिए उपचार से 'विरती' शब्द का प्रयोग तो किया गया है, किन्तु 'निर्ग्रन्थी' शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि दिगम्बरजैन-परम्परा में निर्ग्रन्थलिंग या जिनलिंग मुख्यतः शरीर के नग्नत्व का वाचक है और आर्यिका नग्न नहीं रहती। अतः उसके लिए उपचार से भी 'निर्ग्रन्थी' शब्द का व्यवहार सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका न तो कोई निमित्त है, न कोई प्रयोजन।३२ यह इस बात का प्रमाण है कि 'मूलाचार' में आर्यिका को मुनितुल्य नहीं माना गया है। श्वेताम्बरपरम्परा में 'निर्ग्रन्थ' शब्द नग्नत्व का सूचक नहीं है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति मानी गयी है। अतः वहाँ मुनि और आर्यिका दोनों के लिए 'निर्ग्रन्थ' और 'निर्ग्रन्थी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। यापनीय श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते थे तथा उन्हें सवस्त्रमुक्ति भी मान्य थी। अतः उनके शास्त्रों में भी आर्यिका के लिए 'निर्ग्रन्थी' संज्ञा का प्रयोग होना युक्तियुक्त है। किन्तु मूलाचार में आर्यिका के लिए कहीं भी 'निर्ग्रन्थी' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। यह इस बात का प्रमाण है कि वह यापनीय-परम्परा से विपरीत मत रखनेवाली दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है। ३१. सुत्तपाहुड / गा.२४-२५/ पृ. १२० (षट्पाहुड/ प्रकाशिका-शान्तिदेवी बड़जात्या, गौहाटी, सन् १९८९ ई.)। ३२. "निश्चयतः स्त्रीणां नरकादिगतिविलक्षणानन्तसुखादिगुणस्वभावा तेनैव जन्मना सिद्धिर्न दिष्टा न कथिता। तस्मात्कारणात् प्रतियोग्यं सावरणरूपं निर्ग्रन्थलिङ्गात् पृथक्त्वेन विकल्पितं कथितं लिङ्गं प्रावरणसहितं चिह्नम्। कासाम्? स्त्रीणामिति।" ता. वृ./ प्र.सा. / आ. जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'णिच्छयदो इत्थीणं' ३ / २४ / ७ / पृ. २७५-२७६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ आर्यिकाओं के लिए मुनियोग्य सामाचार का विधान नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"चौथे सामाचार अधिकार (गाथा १८७)३३ में कहा है कि अभी तक कहा हुआ यह यथाख्यातपूर्व सामाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं।" (जै. सा. इ./द्वि. सं. / पृ. ५५२)। दिगम्बरपक्ष 'मूलचार' में सामाचार के दो भेद बतलाये गये हैं : औधिक और पदविभागी। औधिक सामाचार के दश भेद हैं-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमन्त्रणा और उपसम्पत्। पदविभागी सामाचार के अनेक भेद हैं। (गा. १२४-१२५)। यद्यपि मुनियों के लिए विहित यह सामाचार आर्यिकाओं के लिए भी विहित किया गया है, तथापि गाथा में यथायोग्य शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार सामाचार के पालन में मुनि और आर्यिका की योग्यता को समान नहीं मानते। आर्यिका को मुनि की अपेक्षा कम योग्य मानते हैं। इसके अतिरिक्त मूलगुणों के पालन में भी उन्होंने समानता का अभाव दिखलाया है। जहाँ अट्ठाईस मूलगुणों में मुनियों के लिए आचेलक्य (नग्नत्व), स्थितिभक्त (खड़े होकर भोजन करना) तथा कायक्लेश तप के वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग, इन कठोर प्रकारों का विधान है, वहाँ आर्यिकाओं के लिए इनका निषेध है। उन्हें वस्त्रधारण अनिवार्य बतलाया गया है, जब कि वह मोक्ष के आधारभूत नैर्ग्रन्थ्य (आचेलक्य) मूलगुण का विरोधी है। मूलाचार में निर्ग्रन्थों को ही मोक्ष का पात्र कहा गया है और निर्ग्रन्थता का लक्षण बतलाया है- वस्त्र, चर्म, वल्कल या पत्र से शरीर को आच्छादित न करना।३५ निर्ग्रन्थता के अभाव में आर्यिकाओं को अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने के अयोग्य बतलाया है। वन्दना और दीक्षा की दृष्टि से भी उनमें असमानता प्रदर्शित की गई है। आर्यिका ३३. एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहक्खिओ पुव्वं । सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ॥ १८७॥ मूलाचार/पूर्वार्ध । ३४. अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ। धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूवविसुद्धचरियाओ॥ १९०॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । ३५. देखिए , इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण में शीर्षक १.३ एवं १.६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २२७ को मुनि की वन्दना करने के लिए कहा गया है, मुनि को आर्यिका की वन्दना के लिए नहीं। (मूला./पू./गा. १९५) इसी प्रकार मुनि को आर्यिकाओं का आचार्य (दीक्षागुरु) बनने का अधिकारी बतलाया गया है, आर्यिका को मुनियों का आचार्य बनने का नहीं। (मूला./पू./ गा. १८३-१८४)। इससे सिद्ध है कि ग्रन्थकार मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में नहीं रखते, अर्थात् मुनियों के समान आर्यिकाओं को तद्भवमोक्ष के योग्य नहीं मानते। अतः उन्हें ग्रन्थकार के द्वारा एक ही श्रेणी में रखे जाने की धारणा असत्य है। इस प्रकार प्रस्तुत हेतु भी असत्य है। इससे सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। ३ आर्यिकाओं की परम्परया मुक्ति का कथन यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"१९६वीं गाथा में कहा है कि इस प्रकार की चर्या जो मुनि और आर्यिकायें करती हैं, वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध' होती हैं।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं. / पृ.५५२)। तात्पर्य यह कि उस प्रकार की चर्या से आर्यिकाएँ भी स्त्रीशरीर द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पू०) की वह गाथा इस प्रकार है एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुजं कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति॥ १९६॥ अनुवाद-"जो साधु और आर्यिकाएँ इस प्रकार की चर्या का आचरण करती हैं, वे लोक में सम्मान, कीर्ति और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाती हैं।" । इस प्रकार की चर्या से तात्पर्य है १९६वीं गाथा के पूर्व तक मुनियों और आर्यिकाओं के लिए बतलाया गया आचार, जिसमें अट्ठाईस मूलगुणों, उत्तरगुणों एवं सामाचार आदि का समावेश है। इस गाथा में लखूण क्रिया का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है प्राप्त करके या प्राप्त करने के बाद। इससे सूचित होता है कि बतलाये गये आचार के पालन से जो पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, उसके उदय से मुनि और आर्यिका पहले सौधर्मादि स्वर्गों में देव होकर वहाँ के सुख भोगते हैं, फिर वहाँ से च्युत होने पर चक्रवर्त्यादि के. पद प्राप्त कर जगत् में सम्मान और कीर्ति अर्जित करते हैं, पश्चात् Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ मुनिदीक्षा ग्रहण कर मुक्त होते हैं। इस प्रकार इस गाथा में मुनि और आर्यिका दोनों के परम्परया (आर्यिका के पुरुषपर्याय प्राप्त करने के बाद) सिद्ध होने का कथन किया गया है, साक्षात् (तद्भव से) सिद्ध होने का नहीं। इस प्रकार के भाव को व्यक्त करनेवाला एक पद्य रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी आया है देवेन्द्र-चक्र-महिमानममेय-मानम् राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयम्। धर्मेन्द्र-चक्रमधरीकृत-सर्वलोकम् लब्ब्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः॥ १/४१॥ अनुवाद-"जो सम्यग्दृष्टि पुरुष जिनेन्द्र का भक्त (जिने भक्तिर्यस्य सः) होता है, वह अपरिमित सम्मान या ज्ञान से सहित इन्द्रों की महिमा को, मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तकों से पूजनीय, चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्तलोक के ऊपर विराजमान तीर्थंकर के धर्मचक्र को उपलब्ध कर मोक्ष प्राप्त करता है।" यहाँ भी लब्ध्वा (उपलब्धकर) इस पूर्वकालिक क्रिया के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है कि जिनभक्त सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रादि की लौकिक विभूतियों को प्राप्त करने के बाद मुक्त होता है। इन्द्रादि की विभूति और मोक्ष दोनों एक ही भव में प्राप्त नहीं किये जा सकते। अतः स्पष्ट है कि इन दोनों का क्रमशः अलग-अलग भवों में प्राप्त करने की बात कही गई है। इसी प्रकार मूलाचार की पूर्वोक्त गाथा में भी साधु और आर्यिका दोनों को अलग-अलग भवों (आर्यिका को देवगति और मानवपुरुषपर्याय) में ही स्वर्गिक सुख, लोकपूज्यपद और मोक्ष इन पृथक्-पृथक् वस्तुओं के प्राप्त होने की बात कही गई है। ___ इस अभिप्राय की पुष्टि इस प्रमाण से होती है कि मूलाचार के कर्ता ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि स्त्रियाँ अपने उत्कृष्ट धर्माचरण के द्वारा भी अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकतीं। (गा. ११७६)। उससे ऊपर केवल निर्ग्रन्थलिंगी ही जा सकते हैं। (गा. ११७७-७८)। तथा रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ मुनि ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। (गा. ११८७)। इसके प्रमाण पूर्व में दिये जा चुके हैं। मूलाचार में जो सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, वह स्त्रीमुक्ति निषेध का प्रबल प्रमाण है। इस प्रकार मूलाचार में आर्यिकाओं के लिए मुनिवत् चर्या का विधान स्त्रीपर्याय में किया गया है, यह मान्यता भी असत्य है। अर्थात् प्रस्तुत हेतु भी असत्य है, इसलिए सिद्ध है कि मूलाचार यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र० २ ४ आर्यिका का मुनिसंघ में समावेश मुनितुल्य होने का प्रमाण नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी - " १८४वीं गाथा में कहा गया है कि आर्यिकाओं का गणधर गम्भीर, दुर्धर्ष, अल्पकौतूहल, चिरप्रव्रजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान पड़ता है कि आर्यिकाएँ मुनिसंघ के ही अन्तर्गत हैं और उनका गणधर मुनि ही होता है । 'गणधरो मर्यादोपदेशकः प्रतिक्रमणाद्याचार्यः ' - टीका।" (जै. सा. इ. / द्वि. सं. / पृ. ५५२) । दिगम्बरपक्ष मूलाचार / २२९ यदि कोई मुनि आर्यिकाओं का गणधर होता है या आर्यिकाएँ मुनिसंघ के अन्तर्गत होती हैं, तो इससे स्त्री का तद्भवमोक्ष होना सिद्ध नहीं होता । मुनिसंघ अर्थात् श्रमणसंघ के दो अर्थ हैं। पहला है : ऋषि (ऋद्धिप्राप्त मुनि), मुनि ( अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान के धारी मुनि), यति ( उपशम - क्षपक श्रेणी - आरूढ़मुनि) और अनगार (सामान्य साधु), इन चार वर्णों (श्रेणियों) के मुनियों का संघ, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है—“चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स" (प्र.सा./गा. ३ / ४९ ) । इसका अर्थ तात्पर्यवृत्तिकार आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है : है " - - - चातुर्वर्णस्य श्रमणसङ्घस्य । अत्र श्रमणशब्देन श्रमण - शब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः ।" अर्थात् चातुर्वर्णश्रमणसंघ में 'श्रमण' शब्द ऋषि, मुनि, ि और अनगार, इन चार प्रकार के मुनियों का वाचक है। श्रमणसंघ का दूसरा अर्थ श्रमणधर्म के अनुकूल चलनेवाले श्रावक, श्राविका, मुनि और आर्यिका इन चार का संघ । यह अर्थ आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथा (३/४९ / पृ. ३१३) की तात्पर्यवृत्ति में इन शब्दों में प्रतिपादित किया है - " अथवा श्रमणधर्मानुकूलश्रावकादि-चातुर्वर्णसङ्घः ।" इस प्रकार जहाँ चातुर्वर्ण- श्रमणसंघ में आर्यिकाओं का भी समावेश माना जाता है, वहाँ श्रावक-श्राविकाओं का भी समावेश मान्य है । अतः जैसे मुनिसंघ के अन्तर्गत होने से श्रावक-श्राविकाएँ मुनितुल्य नहीं होतीं, वैसे ही आर्यिकाएँ भी मुनितुल्य नहीं होतीं। मूलाचार में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, इसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। इससे सिद्ध है कि श्रमणसंघ में आर्यिकाओं का समावेश करते हुए भी मूलाचार में आर्यिका को मुनितुल्य अर्थात् तद्भवमोक्षगामी स्वीकार नहीं किया गया है । अतः मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ स्त्री की औपचारिक दीक्षा मान्य . यापनीयपक्ष डॉ० सागरमल जी का कथन है कि मूलाचार में स्त्रीदीक्षा का विधान है, जब कि कुन्दकुन्द ने स्त्रीप्रव्रज्या का निषेध किया है। अतः यह कुन्दकुन्द की परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है। (जै.ध.या.स. / पृ. १३२,१३४)। दिगम्बरपक्ष . मूलाचार में आचेलक्य को मुमुक्षु का मूलगुण बतलाया गया है, जो स्त्री के लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि स्त्रीसुलभ लज्जा, मासिकस्रावजन्य जुगुप्सोत्पादकता, पुरुषों के चित्त में काम-विकार की उत्पत्ति तथा शीलभंग का भय, इत्यादि प्रतिकूल हेतु स्त्री के नग्नत्व में बाधक हैं। इसके अतिरिक्त स्त्रियों में प्रमाद, मोह, प्रद्वेष, भय, जुगुप्सा और मायाचार की बहुलता होती है, जो परमात्मतत्त्व के ध्यान में विघ्न उत्पन्न करते हैं। प्रतिमास होनेवाला रक्तस्राव चित्तशुद्धि का विनाशक है। उनके चित्त में वह दृढ़ता नहीं होती, जिससे तद्भवमुक्ति-योग्य परिणाम उत्पन्न हो सकें। स्त्रियों के गुह्य अंगों में निरन्तर मनुष्यादि-सम्मूर्छन जीवों का जन्म और मरण बहुलता से होता रहता है, जिससे वे संयम धारण करने में असमर्थ हैं। उनमें प्रथम संहनन का अभाव होता है, जो मुक्तियोग्य विशेषसंयम के लिए आवश्यक है। इसलिए वे तद्भवकर्मक्षय योग्य सकलनिर्जरा नहीं कर पातीं।३६ इन कारणों से स्त्रीमुक्ति संभव नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मूलाचार के कर्ता ने स्त्री के लिए पुरुषवत् निर्वस्त्र पारमार्थिक दीक्षा का विधान नहीं किया, अपितु स्त्री के योग्य सवस्त्र औपचारिक दीक्षा उचित मानी है। औपचारिक दीक्षा का अर्थ है प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम न होते हुए भी तथा वस्त्रत्याग में असमर्थ रहते हुए भी स्त्री को आंशिक महाव्रत और एक साड़ीवाला अल्पपरिग्रहात्मक लिंग प्रदान करना। इसका प्रयोजन है स्त्रियों को यथाशक्ति उच्च धर्म के अभ्यास की प्रेरणा देना और उच्च पद देकर नारीजगत् (श्राविकासंघ) में धर्मानुशासन स्थापित करना।३७ औपचारिक महाव्रतों से यद्यपि संयतगुणस्थान के अनुरूप निर्जरा नहीं होती, तथापि पापों का संवर और उत्कृष्ट पुण्य का आस्रव होता ३६. तात्पर्यवृत्ति/ प्रवचनसार । आचार्य जयसेननिर्दिष्ट गाथाएँ ३/२४/८-१३ / पृ. २७६-२७७। ३७. “अथ मतं-यदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम्? परिहारमाह-तदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम्। न चोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादिवत्।" (तात्पर्यवृत्ति/प्रवचनसार/ आचार्य जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'जदि दंसणेण सुद्धा' ३ / २४ / १३/ पृ. २७७-२७८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २३१ है। इस औपचारिक दीक्षा का उल्लेख मूलाचार (पू.) में निम्न गाथा में किया गया है अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ। धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूवविसुद्धचरियाओ॥ १९०॥ अनुवाद-"आर्यिकाओं का वस्त्र और वेश निर्विकार होता है अर्थात् वे रंगीन वस्त्र धारण न कर श्वेत रंग की एक साड़ी से सम्पूर्ण शरीर ढंकती हैं। उनकी चालढाल, मुखमुद्रा, दृष्टि आदि पवित्र होती है। वे शरीर का संस्कार नहीं करती, फलस्वरूप देह धूल और मैल से संसक्त रहती हैं। वे धर्म, कुल (माता एवं पिता के कुल) अपने यश और दीक्षा (व्रतों) के अनुरूप निर्दोष आचरण करती हैं।" इस गाथा से स्पष्ट है कि मूलाचार में स्त्रियों के लिए सवस्त्र औपचारिक दीक्षा का ही विधान है। - आचार्य कुन्दकुन्द ने भी स्त्रियों की मुक्ति संभव न होने के कारण उनकी पारमार्थिक दैगम्बरी दीक्षा का ही निषेध किया है, औपचारिक सवस्त्र दीक्षा का नहीं। सर्वप्रथम वे स्त्रियों की आर्यिकारूप एकवस्त्रात्मक औपचारिक दीक्षा का ही प्रतिपादन करते हैं, पश्चात् उनकी मुक्ति को असंभव बतलाते हुए मोक्षकारणभूत पारमार्थिक दैगम्बरी दीक्षा का निषेध करते हैं। वे कहते हैं-पहला निर्ग्रन्थलिंग मुनि का है, दूसरा वस्त्र-पात्रयुक्त लिंग उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा एकवस्त्रात्मक लिंग आर्यिका का। (सुत्तपाहुड/ गा. २०-२२)। आर्यिका के लिंग का वर्णन करते हुए वे सुत्तपाहुड में कहते हैं लिंग इत्थीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि। अजिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ॥ २२॥ अनुवाद-"(तीसरा) लिंग स्त्रियों का है। उसे धारण करनेवाली स्त्री आर्यिका कहलाती है। वह एकवस्त्रधारी होती है तथा वस्त्रधारण किये हुए ही दिन में एक बार भोजन करती है।" किन्तु सुत्तपाहुड में ही उन्होंने इस लिंग से मोक्षप्राप्ति का निषेध निम्नलिखित गाथा में किया है ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥२३॥ __ अनुवाद-"जैनशासन के अनुसार वस्त्रधारी मनुष्य यदि तीर्थंकर भी हो, तो भी सिद्ध नहीं हो सकता। नग्नत्व ही मोक्ष का मार्ग है, शेष सभी मार्ग उन्मार्ग (संसारमार्ग) हैं।" For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ ___ इस कथन से यह विचार स्वभावतः उत्पन्न होता है कि तब स्त्रियों को मोक्ष के लिए नग्नत्व की ही दीक्षा दी जानी चाहिए। इसका खण्डन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहि-कक्खदेसेसु। भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होइ पव्वजा॥ २४॥ जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पावया भणिया ॥ २५॥ चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण। विजदि मासा तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाणं॥ २६॥ अनुवाद-"स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि और काँख में सूक्ष्म (मनुष्यादि सम्मूर्च्छन) जीवों की उत्पत्ति होती है, तब उनकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है?" (२४)। "यदि वे सम्यग्दर्शन से शुद्ध होती है, और उपचार-महाव्रतों का नियम से पालन करती हैं, तो वे भी मोक्षमार्ग से संयुक्त कही जाती हैं, फिर भी वे प्रव्रज्या के योग्य नहीं बतलायी गयी हैं।" (२५)। "स्त्रियों का चित्त निर्मल नहीं होता, उनके परिणाम स्वभाव से ही शिथिल होते हैं, प्रतिमास उनके रक्तस्राव होता है, जिससे वे निःशङ्क होकर ध्यान नहीं कर पातीं। तब उन्हें प्रव्रज्या कैसे दी जा सकती है?" (२६)। इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्त्रियों के लिए नग्नत्वरूप निश्चयप्रव्रज्या का निषेध किया है, एकवस्त्रात्मक उपचार-प्रव्रज्या का नहीं। टीकाकार श्रुतसागर सूरि की निम्नलिखित व्याख्या से भी इस बात की पुष्टि होती है-"तेन कारणेन स्त्रीषु न प्रव्रज्या निर्वाणयोग्या दीक्षा भणिता।" (सुत्त.पा. / गा.२५)। अर्थात् उपर्युक्त कारणों से स्त्री के लिए निर्वाणयोग्य दीक्षा ('णग्गो विमोक्खमग्गो'-सुत्त. पा./गा. २३ के अनुसार नग्नत्वरूप दीक्षा) का निषेध किया गया है। आर्यिका श्री सुपार्श्वमति जी ने भी उक्त गाथाओं की व्याख्या में लिखा है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्त्री की निर्वाणयोग्य नाग्न्यदीक्षा का ही निषेध किया है, अच्युतस्वर्गप्राप्ति-योग्य सवस्त्रदीक्षा का नहीं। (सु. पा. / गा. २४-२५ षट्पाहुड में संगृहीत)। निष्कर्ष यह कि मूलाचार और सुत्तपाहुड दोनों में स्त्रियों के लिए औपचारिक दीक्षा का विधान है, पारमार्थिक दीक्षा का नहीं। पारमार्थिक प्रव्रज्या का निषेध दोनों Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २३३ ग्रन्थों में किया गया है। अतः मूलाचार सर्वथा कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ है, यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है। इस प्रकार उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। समान गाथाएँ दिगम्बरग्रन्थों से गृहीत यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"मूलाचार और भगवती-आराधना की पचासों गाथाएँ एक-सी और समान अभिप्राय प्रकट करनेवाली हैं। मूलाचार की आचेलक्कुद्देसिय आदि ९०९वीं गाथा भगवती-आराधना की ४२१वीं गाथा है। इसमें दस स्थितिकल्पों के नाम हैं। जीतकल्पभाष्य की १९७२वीं गाथा भी यही है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के अन्य टीकाग्रन्थों और नियुक्तियों में भी यह है। प्रमेयकमलमार्तण्ड के 'स्त्रीमुक्तिविचार' में प्रभाचन्द ने इसका उल्लेख श्वेताम्बरसिद्धान्त के रूप में किया है।" (जै. सा. इ/द्वि. सं./पृ. ५५०)। यह साम्य तभी संभव है, जब श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाला ग्रन्थकार इसकी रचना करे। अतः सिद्ध है कि इस ग्रन्थ का कर्ता यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध है। दिगम्बरपक्ष 'भगवती-आराधना' नामक १३वें अध्याय में यह सिद्ध किया जा चुका है कि जो गाथाएँ भगवती-आराधना, आवश्यकनियुक्ति तथा प्रकीर्णक ग्रन्थों में मिलती हैं, वे भगवती-आराधना से ही उन ग्रन्थों में पहुंची हैं, क्योंकि भगवती-आराधना की रचना उन ग्रन्थों की रचना से बहुत पहले हुई थी तथा उनमें से अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरमान्यताओं के विरुद्ध हैं। मूलाचार भी प्रथम शताब्दी ई० का ग्रन्थ है, अतः आवश्यकनियुक्ति (वि०सं० ५६२) तथा आतुरप्रत्याख्यान आदि (११वीं शती ई०) की जो गाथाएँ मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं, वे मूलाचार और भगवती-आराधना से ही उनमें गई हैं। डॉ० सागरमल जी ने एक प्रसंग में यह संभावना प्रकट की है कि उपर्युक्त समान गाथाएँ दोनों परम्पराओं ३८ को अपनी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई होंगी। ३८. डॉ० सागरमल जी मूलाचार को यापनीयग्रन्थ मानते हैं। इसलिए दोनों परम्पराओं से उनका अभिप्राय श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से है। उन्होंने भगवान् महावीर के अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से भी श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की ही उत्पत्ति मानी है, जब कि संघभेद के इतिहास से सिद्ध है कि निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) संघ के विभाजन से श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ था। (देखिए, षष्ठ अध्याय)। अतः उक्त समान गाथाएँ दिगम्बर (निर्ग्रन्थ) और श्वेताम्बर संघों को ही अपने समान पूर्वाचार्यों से प्राप्त मानी जा सकती हैं। For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ वह प्रसंग इस प्रकार है-पं० हीरालाल जी शास्त्री ने दिगम्बरग्रन्थ कसायपाहुड की चूर्णि और श्वेताम्बरीय कम्मपयडी, सतक और सित्तरी की चूर्णियों में विषयवस्तु और शैली की समानता देखकर इन चारों चूर्णियों को एक यतिवृषभ द्वारा रचित बतलाया है। डॉक्टर सा० ने इससे असहमति व्यक्त की है और कहा है कि उक्त चूर्णियों में विषयवस्तु आदि की समानता रहने से यह सिद्ध नहीं होता कि वे सभी यतिवृषभ की कृतियाँ हैं। अपने मत का समर्थन करने के लिए वे प्रश्न करते हैं "क्या मूलाचार, आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि की शताधिक गाथाओं के समान होने के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि मूलाचार, आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि का रचयिता एक ही है? वस्तुतः ऐसा कहना दुस्साहपूर्ण होगा। हम मात्र यही कह सकते हैं कि इन्होंने परस्पर एक-दूसरे से या अपनी ही पूर्वपरम्परा से ये गाथाएँ ली हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०९-११०)। डॉक्टर सा० के इस कथन से भी इस बात का समर्थन होता है कि मूलाचार की जो गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति आदि श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु दिगम्बरों को अपनी ही मूल परम्परा से प्राप्त हुई हैं। अतः उनके आधार पर 'मूलाचार' श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। अन्य विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है। डॉ० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-"वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परा में ऐसी अनेक गाथाएँ विद्यमान थीं, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओं के ग्रन्थों का स्रोत हैं। एक ही स्थान से अथवा गुरुपरम्परा के प्रचलन से गाथाओं को ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओं के आचार्यों ने समान रूप से उनका उपयोग किया है। मुनि-आचार-सम्बन्धी या कर्मप्राभृत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों-सम्बन्धी गाथाओं को एक ही स्रोत से ग्रहण किया गया है। तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियों के मध्य प्रचलित थीं और ऐसे कई आरातीय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायों में समानरूप से प्रतिष्ठित थे। अतः वर्तमान में मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवकालिक प्रभृति ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओं का जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदाय के ग्रन्थों में दूसरे, सम्प्रदाय से ग्रहण की गई हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओं का मूल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपरम्परा में विद्यमान था।" (ती. म. आ. प. / खं.२ / पृ. १२०)। आदरणीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री एवं पण्डित डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। मूलाचार Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५/प्र०२ मूलाचार / २३५ के सम्पादकीय में ये तीनों विद्वान् संयुक्त रूप से लिखते हैं-"मूलाचार की अनेक गाथाएँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थों में पायी जाती हैं, इससे स्पष्ट होता है कि कुछ गाथाएँ परम्परा से चली आ रही हैं और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उन्हें अपने ग्रन्थों में यथास्थान संगृहीत कर अपने ग्रन्थ का गौरव बढ़ाया है।" (मूलाचार / सम्पादकीय । पृ. १०)। माननीय पं० नाथूराम जी प्रेमी भी पूर्व में ऐसे ही विचार व्यक्त कर चुके हैं और पं० सुखलाल जी संघवी ने भी यही मत प्रकट किया है। इसका निरूपण भगवतीआराधना के अध्याय में किया जा चुका है। इस तरह इन विद्वानों और स्वयं डॉ० सागरमल जी के उक्त वचनों से सिद्ध है कि मूलाचार की जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों से नहीं ली गई हैं, अतः उनके आधार पर मूलाचार यापनीय-ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। किन्तु इन विद्वानों ने जो यह माना है कि उक्त समान गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को अपनी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं, उस विषय में मेरा मत भिन्न है। मेरा मत यह है कि जब पाँचवी शती ई० (४५४-४६६ ई०) में श्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा श्रुतिपरम्परागत समस्त अंगों और उपांगों को पुस्तकारूढ़ कर दिया गया और उनमें से किसी भी अंग या उपांग में उक्त समान गाथाएँ उपलब्ध नहीं हैं, जो कि 'आवश्यकनियुक्ति' आदि पाँचवी शती ई० के बाद के ग्रन्थों में हैं, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त समान गाथाएँ, श्वेताम्बरपरम्परा को अपनी पूर्व परम्परा. से उपलब्ध हुई हैं? वे गाथाएँ भगवती-आराधना और मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं, अतः सिद्ध है कि वे इन्हीं ग्रन्थों से उक्त श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हैं। इस प्रकार यह निश्चित है कि मूलाचार में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अतः वह यापनीयमत का ग्रन्थ नहीं है। इससे सिद्ध है कि यह हेतु भी असत्य है। कथित गाथाएँ दिगम्बरत्व-विरोधी नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"मूलाचार की 'सेज्जोगासणिसेजा' आदि ३९१वीं गाथा और 'आराधना' की ३०५वीं गाथा एक ही हैं। इसमें कहा है कि वैयावृत्ति करनेवाला मुनि रुग्ण मुनि Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १५ / प्र० २ का आहार, औषधि आदि से उपकार करे।" (जै.सा. इ. / द्वि.सं. / पृ. ५५० -५५१) । यह दिगम्बर - परम्परा के विरुद्ध है, अतः दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं हो सकता । दिगम्बरपक्ष मूलाचार में मुनि के लिए स्वयं भोजन पकाने और पकवाने का निषेध किया गया है । ३९ अतः स्वयं भोजन पकाकर या पकवाकर रुग्ण मुनि को देने का अभिप्राय तो यहाँ हो नहीं सकता । पात्रग्रहण की अनुमति भी नहीं है, अतः समीप में पात्र न होने से श्रावक के यहाँ से स्वयं लाकर रुग्ण मुनि को देने की संभावना भी नहीं की जा सकती। एक ही संभावना बचती है कि मुनि श्रावक को संकेत कर रुग्णमुनि के लिए आहार और औषधि की व्यवस्था करावे । और यह दिगम्बर- मर्यादा के विरुद्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसका समर्थन किया है। (प्र. सा. ३ / ५४) । उक्त गाथा भगवती - आराधना में ( गाथा ३०७ ) भी है। इसका विस्तार से स्पष्टीकरण भगवतीआराधना के अध्याय में किया गया है। इस प्रकार दिगम्बरमत-विरोधी न होते हुए भी उक्त गाथा को दिगम्बरमत-विरोधी माना गया है, अतः यह हेतु असत्य है । हेतु के असत्य होने से स्पष्ट है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है । यापनीयपक्ष प्रेमी जी - " मूलाचार की 'बावीसं तित्थयरा' और 'सपडिक्कमणो धम्मो इन दो गाथाओं में जो कुछ कहा गया है, वह कुन्दकुन्द की परम्परा में अन्यत्र कहीं नहीं कहा गया है। ये ही दो गाथाएँ भद्रबाहुकृत आवश्यकनिर्युक्ति में हैं और वह श्वेताम्बरग्रन्थ है।" (जै. सा. इ. / द्वि.सं./ पृ. ५५१)। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पू.) की उक्त दो गाथाएँ इस प्रकार हैं बावीसं तित्थयरा सामायियसंजमं उवदिसंति । छेदुवठावणियं पुण भवयं उसहो य वीरो य ॥ ५३५ ॥ अनुवाद - " बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है, किन्तु भगवान् वृषभदेव और महावीर ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है । " ३९. पयणं व पायणं वा ण करेंति अ णेव ते करावेंति । पयणारंभणियत्ता तुट्ठा भिक्खमेत्तेण ॥ ८२१ ॥ मूलाचार / उत्तरार्ध । ४०. देखिए, षट्खंडागम - परिशीलन / प्रस्तावना / पृ. ३० । For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २३७ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं॥६२८॥ अनुवाद-"प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म प्रतिक्रमण-सहित है। अर्थात् अपराध हो या न हो, शिष्यों को प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। किन्तु शेष बाईस तीर्थंकरों ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है।" पूर्ववर्णित प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि मूलाचार के कर्ता सवस्त्र-पुरुषमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के विरोधी होने से दिगम्बरपरम्परा के आचार्य हैं। उन्होंने ये गाथाएँ लिखी हैं तथा दिगम्बर-टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने गाथाओं में व्यक्त विचारों के औचित्य का प्रतिपादन किया है। इससे सिद्ध होता है कि इन गाथाओं में कही गई बातें दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल हैं। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती जी ने उपर्युक्त गाथाओं की युक्तिसंगतता इन शब्दों में प्रतिपादित की है "आदिनाथ के तीर्थ के समय भोगभूमि समाप्त होकर ही कर्मभूमि प्रारंभ हुई थी, अतः उस समय के शिष्य बहुत ही सरल, किन्तु जड़ (अज्ञान) स्वभाववाले थे। तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय पंचमकाल का प्रारंभ होनेवाला था, अतः उस समय के शिष्य बहुत ही कुटिल-परिणामी और जड़स्वभावी थे, इसीलिए इन दोनों तीर्थंकरों ने छेद अर्थात् भेद के उपस्थापन अर्थात् कथनरूप पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है। शेष बाईस तीर्थंकरों के समय के शिष्य विशेष बुद्धिमान् थे, इसीलिए उन तीर्थंकरों ने मात्र 'सर्वसावद्ययोग' के त्यागरूप एक सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है, क्योंकि उनके लिए उतना ही पर्याप्त था। आज भगवान् महावीर का ही शासन चल रहा है, अतः आजकल के सभी साधुओं को भेदरूप चारित्र के पालन का ही उपदेश है।" (भावार्थ / मूला./पू./गा. ५३५-५३७)। 'सपडिक्कमणो धम्मो' गाथा के अर्थ का औचित्य स्वयं मूलाचार-कर्ता के (मूलाचार-पूर्वार्धगत) शब्दों में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता वि सुझंति॥ ६३१॥ पुरिमचरिमादु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिटुंतो॥ ६३२॥ अनुवाद-"मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धि, एकाग्रमन और अमूढ़ (सोचविचार कर काम करनेवाले) होते थे, अतः जो दोष उनसे होता था, उसके कारण आत्मा की गर्दा करके ही वे शुद्ध हो जाते थे।" (६३१)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र०२ "किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचलचित्त और मूढ़ होते हैं, अतः उनके लिए सर्व प्रतिक्रमण आवश्यक हैं, क्योंकि अन्धलक-घोटकन्याय से एकएक प्रतिक्रमण करते जाने पर किसी न किसी से चित्त स्थिर होकर दोष दूर हो सकता है।" (६३२)। इस प्रकार उपर्युक्त गाथाओं का अभिप्राय कुन्दकुन्द की परम्परा अर्थात् दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल ही है, अतः उनके कारण भी मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इससे सिद्ध है कि मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। 'आचार', 'जीतकल्प' ग्रन्थों के नाम नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"भगवती-आराधना की ४१४वीं गाथा के समान इसकी (मूलाचार की) भी ३८७ वीं गाथा आचार-जीत-कल्प ग्रन्थों का उल्लेख है, जो यापनीय और श्वेताम्बर-परम्परा के हैं और उपलब्ध भी हैं।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./पृ.५५१)। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पू.) की उपर्युक्त गाथा इस प्रकार है आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्जंजा। अज्जव-मद्दव-लाहव-भत्ती-पल्हाद-करणं च॥ ३८७॥ अनुवाद-"विनय से आचार, जीत और कल्प गुणों का दीपन (प्रकाशन) होता है तथा आत्मशुद्धि, निर्द्वन्द्वता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और आह्लाद गुण प्रकट होते हैं।" 'भगवती-आराधना' के अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि उसमें आचार और जीतकल्प शब्दों से श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अपितु क्षपक के चरण (आचरण) और करण (आवश्यक क्रियाओं) का उल्लेख है। मूलाचार में भी वे श्वेताम्बरग्रन्थों के नाम नहीं हैं, बल्कि मुनि के आचरण तथा 'जीत' नामक प्रायश्चित्त एवं 'कल्प' नामक प्रायश्चित्त के नाम हैं। यह इस तथ्य से सिद्ध है कि मूलाचार की उपर्युक्त गाथा विनयतप के प्रसंग में लिखी गई है और उसमें विनय से उत्पन्न होनेवाले मुनि के गुणविशेषों का ही वर्णन है। टीकाकार आचार्य वसुनन्दी के निम्नलिखित वचनों से यह स्पष्ट है For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २३९ "आचारस्य गुणा जीदप्रायश्चित्तस्य कल्पप्रायश्चित्तस्य गुणास्तद्गतानुष्ठानानि तेषां दीपनं प्रकटनं---विनयकर्तुरिति।" (आचारवृत्ति / मूलाचार/पूर्वार्ध / गा. ३८७)। अनुवाद-"विनय करने से मुनि के आचारगुणों एवं जीतप्रायश्चित्त तथा कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का दीपन अर्थात् प्रकटन होता है।" यदि ये ग्रन्थों के नाम होते, तो गाथा का अर्थ यह होता कि विनय करने से 'आचार' और 'जीतकल्प' नामक ग्रन्थों के गुण प्रकट होते हैं। किन्तु मुनि के विनय-तप से मुनि के ही गुण प्रकट हो सकते हैं, किसी शास्त्र के गुण नहीं। अतः उक्त गाथार्थ संगत न होने से सिद्ध है कि मूलाचार की उपर्युक्त गाथा में 'आचार' और 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम न होकर मुनि के ही गुणविशेषों के नाम हैं। इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। अतः सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है। ___ 'आराधनानियुक्ति' आदि दिगम्बरग्रन्थों के नाम यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"गाथा २७७-७८-७९ में कहा है कि संयमी मुनि और आर्यिकाओं को चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना न पढ़ना चाहिए। इनसे अन्य आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहस्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा आदि पढ़ना चाहिए। ये सब ग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष थे, परन्तु कुन्दकुन्द की परम्परा के साहित्य में इन नामों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./ पृ.५५१)। प्रेमी जी और उनके अनुयायी यापनीयपक्षधर विद्वानों का आशय यह है कि ये श्वेताम्बरग्रन्थ हैं, अतः इनको पढ़ने की बात कोई श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ही कह सकता है। और चूँकि मूलाचार शौरसेनी प्राकृत में हैं, इसलिए यह श्वेताम्बराचार्य की कृति तो हो नहीं सकती, अतः यापनीयकृति है। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पूर्वार्ध) की जिस गाथा में उपर्युक्त ग्रन्थों के पठन का कथन है, वह इस प्रकार है आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावासय-धम्मकहाओ य एरिसयो॥ २७९॥ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १५ / प्र० २ अनुवाद- मुनियों और आर्यिकाओं को अस्वाध्यायकाल में सूत्रग्रन्थ नहीं पढ़ने चाहिए, ४१ (अपितु ) आराधनानिर्युक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह, स्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा अथवा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। " 44 ये सभी दिगम्बरग्रन्थ हैं, कोई भी श्वेताम्बरीय नहीं है । यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता है १. यदि मूलाचार श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ होता, तो यह कहना उचित था कि उसमें निर्दिष्ट उपर्युक्त ग्रन्थ श्वेताम्बर - परम्परा के हैं, कुन्दकुन्द की परम्परा (दिगम्बरपरम्परा) के नहीं । किन्तु पूर्व में सप्रमाण दर्शाया जा चुका है कि मूलाचार में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति आदि मान्यताओं को अमान्य किया गया है, जो श्वेताम्बर और यापनीय मतों की आधारभूत हैं, अतः वह न श्वेताम्बर - परम्परा का ग्रन्थ है, न यापनीय - परम्परा का, अपितु शुद्ध कुन्दकुन्द की परम्परा का है । इसलिए उपर्युक्त गाथा में जिन आराधनानिर्युक्ति आदि ग्रन्थों का वर्णन है, वे किसी भी तरह श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं हो सकते, अतः सर्वथा दिगम्बरग्रन्थ हैं। २. मूलाचार में आवश्यकनिर्युक्ति नामक ग्रन्थ का एक अध्याय के रूप में वर्णन किया गया है, ४२ जिसमें सामायिकनिर्युक्ति, ४३ चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्ति, वन्दनानिर्युक्ति, प्रतिक्रमणनिर्युक्ति, प्रत्याख्याननिर्युक्ति और कायोत्सर्गनिर्युक्ति, ४ ये निर्युक्तियाँ वर्णित हैं। सम्पूर्ण आवश्यकनिर्युक्ति में श्वेताम्बरत्व को सूचित करनेवाला एक भी लक्षण नहीं है। इसके विपरीत ऐसे लक्षण हैं, जिनसे दिगम्बरत्व सूचित होता है, जैसे सामायिकनिर्युक्ति में पिच्छी के लिए श्वेताम्बरीय शब्द रजोहरण ४५ का प्रयोग न कर दिगम्बरीय शब्द प्रतिलेखन ४६ का प्रयोग किया गया है तथा प्रत्याख्याननियुक्ति में अनशनतप ४१. तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स । एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए ॥ २७८ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । ४२. आवासयणिज्जत्ती वोच्छामि जहाकमं समासेण । आयरियपरंपराए जहागदा ४३. सामाइयणिज्जत्ती वोच्छामि जहाकमं आयरियपरंपराए जहागदं ४४. मूलाचार / पूर्वार्ध / गा. ५३९, ५७६, ६१३, ६४९ । ४५. आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीअण-तु अट्ठसंकोए । पुव्विं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥ आणुपुव्वी ॥ ५०३ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । समासेण । ४६. क—- ठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे आणुपुव्वीए ॥ ५१७॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । पंचवस्तुक / द्वार ३ / अभिधानराजेन्द्रकोष ६ / ४७५/ सयणआसणपयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे ॥ ९९६ ॥ मूलाचार / उत्तरार्ध । For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र० २ मूलाचार / २४१ को दिगम्बरमान्य उत्तरगुणों का अंग बतलाया गया है। श्वेताम्बरपरम्परा में यह उत्तरगुणों में परिगणित नहीं है। मूलाचार के कर्त्ता ने अस्वाध्यायकाल में इसी (मूलाचारवर्णित ) आवश्यकनिर्युक्ति को पढ़ने की सलाह दी है, न कि श्वेताम्बरीय आवश्यक निर्युक्ति को पढ़ने की । प्रत्याख्याननियुक्ति के नाम से प्रत्याख्यानग्रन्थ का वर्णन भी मूलाचार में किया गया है तथा भगवती आराधना के रूप में 'आराधनानिर्युक्ति' दिगम्बरसाहित्य में उपलब्ध है। सत्रह प्रकार के मरणों का निरूपण भी भगवती - आराधना में है। यही मरणविभक्ति नामक ग्रन्थ है । पञ्चसंग्रह आदि संग्रहग्रन्थ हैं । देवागम स्तोत्र, पञ्चपरमेष्ठी-स्तोत्र आदि का नाम स्तुतिग्रन्थ है तथा त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित तथा द्वादशानुप्रेक्षा आदि को धर्मकथा - ग्रन्थ कहते हैं। मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने यह स्पष्टीकरण निम्नलिखित शब्दों में किया है— 'आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामुद्योतनोद्यवन-निर्वाहणसाधनादीनि तस्या निर्युक्तिराराधना- निर्युक्तिः । मरणविभक्तिः सप्तदश-मरण- प्रतिपादक-ग्रन्थरचना । संग्रहः पञ्चसङ्ग्रहादयः । स्तुतयः देवागम - परमेष्ठ्यादयः । प्रत्याख्यानं त्रिविधचतुर्विधाहारादि-परित्याग - प्रतिपादनो ग्रन्थः । सावद्य - द्रव्यक्षेत्रादि- परिहार - प्रतिपादनो वा । आवश्यकाः सामायिक- चतुर्विंशतिस्तववन्दनादि-स्वरूप - प्रतिपादको ग्रन्थः । धर्मकथास्त्रिषष्टि- शलाकापुरुषचरितानि द्वादशानुप्रेक्षादयश्च । ईदृग्भूतोऽन्योऽपि ग्रन्थः पठितुमस्वाध्यायेऽपि च युक्तः । " ( आचारवृत्ति / मूला./गा. २७९)। 44 ये सभी ग्रन्थ दिगम्बर - परम्परा में उपलब्ध हैं, अतः इन्हें श्वेताम्बर - ग्रन्थ मानने का कोई कारण नहीं हैं । ३. श्वेताम्बरीय निर्युक्ति-ग्रन्थ मूलग्रन्थ नहीं हैं, अपितु मूलग्रन्थ पर लिखे हुए पद्यबद्ध टीकाग्रन्थ हैं।४८ जैसे आवश्यकनिर्युक्ति 'आवश्यकसूत्र' पर लिखी गयी टीका है। ४९ किन्तु मूलाचार की उपर्युक्त २७९वीं गाथा में वर्णित ग्रन्थ मूलग्रन्थ हैं, टीकाग्रन्थ नहीं। श्वेताम्बर-साहित्य और दिगम्बर - साहित्य में निर्युक्ति शब्द के बिलकुल भिन्न - भिन्न अर्थ हैं। श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्वेताम्बर - साहित्यगत निर्युक्ति की परिभाषा पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं पडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो । अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू ॥ ५३८ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । ख–“प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिकं करोतीति ।" आचारवृत्ति / मूला./गा. ५३८ । ४७. मूलाचार / पूर्वार्ध / गा. ६३७-६३८ । ४८. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३५ । ४९. वही / पृ. ४३८ । For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ "जैन आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृतभाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गईं, वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूलग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्यरूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है। नियुक्तियों की व्याख्याशैली निक्षेपपद्धति है। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेधकर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है। यह पद्धति जैन न्यायशास्त्र में बहुत ही प्रिय रही है। भद्रबाहु ने प्रस्तुत पद्धति नियुक्ति के लिए उपयुक्त मानी है। वे लिखते हैं-"एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, किन्तु कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त है, श्रमण भगवान् महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति सभी बातों को दृष्टि में रखते हुए, सही दृष्टि से अर्थ निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है। (आवश्यकनियुक्ति/ गाथा ८८)। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बतलानेवाली व्याख्या को नियुक्ति कहते हैं- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः" (आवश्यकनियुक्ति / गाथा ८३)। अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं- "निश्चयेन अर्थप्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्तिः।" (आचारांगनियुक्ति १/२/१)। श्री देवेन्द्र मुनि जी आगे लिखते हैं-"जिस प्रकार यास्क महर्षि ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए निघण्टु भाष्यरूप निरुक्त लिखा है, उसी प्रकार जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियाँ लिखी हैं।"५१ इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या को नियुक्ति कहते हैं। किन्तु मूलाचार में सम्पूर्ण उपाय, विधि या शास्त्र को नियुक्ति कहा गया है। यथा ण वसो अवसो अवसस्स-कम्ममावस्सयं ति बोधव्वा। जुत्ति त्ति उवायत्ति णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती॥ ५१५॥ अनुवाद-"जो पापादि के वश में नहीं है, उस मुनि को अवश कहते हैं। उस अवश मुनि की क्रिया आवश्यक कहलाती है। युक्ति का अर्थ उपाय है और निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण (अखण्डित) युक्ति या उपाय का नाम नियुक्ति है।" ५०. वही / पृ. ४३५-४३६ । ५१. वही / पृ. ४३७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २४३ इसका स्पष्टीकरण टीकाकार वसुनन्दी ने इस प्रकार किया है-"युक्तिरिति उपाय इति चैकार्थः। निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति नियुक्तिः। आवश्यकानां नियुक्तिरावश्यक-नियुक्तिरावश्यकसम्पूर्णोपायः। अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्यावबोधकं पृथक्-पृथक् स्तुतिस्वरूपेण 'जयति भगवानित्यादि' प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यक-नियुक्तिरित्युच्यते।" (आचारवृत्ति / मूला./ गा.५१५)। ___ अनुवाद-"युक्ति और उपाय एकार्थक हैं और निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण या अखण्डित युक्ति नियुक्ति है। आवश्यकों की नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति है, जिसका अर्थ है आवश्यकों का सम्पूर्ण उपाय। अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण होता है, उसे बतानेवाला, पृथक्-पृथक् 'जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भिता' (चैत्यभक्ति १) इत्यादि स्तुतिरूप से प्रतिपादक पूर्वापर अविरुद्ध जो शास्त्र अर्थात् न्याय है, उसे आवश्यकनियुक्ति कहते हैं। इस प्रकार मूलाचार के अनुसार 'नियुक्ति' का अर्थ है 'सम्पूर्ण उपाय' या 'शास्त्र', जैसे "आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि" (मूला. / पू./ गा.५०३), इसका अर्थ है "षडावश्यकों के प्रतिपादक शास्त्र का वर्णन करूँगा।" तथा "सामाइयणिज्जुत्ती वोच्छामि" (मूला. / पू. / गा.५१७) का अर्थ है-“सामायिक नाम के मोक्षोपाय का वर्णन करूँगा।" - इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि श्वेताम्बरसाहित्य में 'नियुक्ति' शब्द 'पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या' का वाचक है, जबकि मूलाचार में 'उपाय' या 'शास्त्र' का। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि मूलाचार में किसी ग्रन्थ की नियुक्ति करने की प्रतिज्ञा नहीं की गयी है, अपितु आवश्यक, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि विषयों की नियुक्ति का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसके बाद इन विषयों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि मूलाचार में वर्णित नियुक्तियाँ किन्हीं ग्रन्थों की टीकाएँ नहीं हैं, बल्कि विभिन्न विषयों का मूलरूप से वर्णन हैं। इसलिए मूलाचार-वर्णित आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थ श्वेताम्बरग्रन्थों से भिन्न आराधनानियुक्ति यह एक ही शास्त्र का नाम है। डॉ० सागरमल जी ने आराधना और नियुक्ति इस तरह विग्रह कर दो शास्त्रों का उल्लेख मान लिया है, जो असंगत है। यह निम्नलिखित व्याख्या से स्पष्ट है-"आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामुद्योतनोद्यवननिर्वाहणसाधनादीनि तस्या नियुक्तिराराधनानियुक्तिः।" (आचारवृत्ति/मूला. / पू./गा. २७९)। अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वाहण, साधन आदि का नाम आराधना है। उसका प्ररूपक शास्त्र आराधनानियुक्ति है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र० २ ४. श्वेताम्बरपरम्परा में जो 'आवश्यकनिर्युक्ति' नामक ग्रन्थ है, उसके रचयिता भद्रबाहु - द्वितीय का काल विक्रम सं. ५६२ ( ई० सन् ५०५) है, ५२ जबकि मूलाचार का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० है ।५३ इसलिए न तो भद्रबाहु - द्वितीयकृत 'आवश्यकनिर्युक्ति' का नाम मूलाचार में आना संभव है, न ही उसकी गाथाओं का । ये चार हेतु इस बात के प्रमाण हैं कि 'मूलाचार' की आराहणणिज्जत्ती (२७९) गाथा में श्वेताम्बर ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थों का ही निर्देश किया गया है। अतः उसमें श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख होने की धारणा असत्य है । इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि उसमें 'आराधनानिर्युक्ति' आदि श्वेताम्बर - ग्रन्थों का उल्लेख है, वह असत्य है । अतः सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। १० 'मूलाचार' की रचना का आधार 'आवश्यकनिर्युक्ति' नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी- " आवश्यकनिर्युक्ति की लगभग ८० गाथायें मूलाचार में मिलती हैं और मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय वट्टकेरि का यह कहना कि मैं प्रस्तुत आवश्यक पर समास से - संक्षेप से -निर्युक्ति कहूँगा, अवश्य ही अर्थसूचक है । क्योंकि सम्पूर्ण मूलाचार में षडावश्यक अधिकार को छोड़कर अन्य प्रकरणों में 'निर्युक्ति' शब्द शायद ही कहीं आया हो। षडावश्यक के अन्त में भी इस अध्याय को 'निर्युक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट किया गया है।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./ पृ.५५१-५५२)। प्रेमी जी यह कहना चाहते हैं कि आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार की रचना श्वेताम्बरग्रन्थ आवश्यकनिर्युक्ति के आधार पर की है। दिगम्बरपक्ष यह कथन भी उपर्युक्त चार प्रमाणों से असत्य सिद्ध हो जाता है। मूलाचार की रचना भद्रबाहु - द्वितीय-कृत आवश्यकनिर्युक्ति के आधार पर होना असम्भव है । इसे सिद्ध करने के लिए उक्त चार प्रमाणों में से केवल इस प्रमाण का पुनरुल्लेख पर्याप्त है कि मूलाचार की रचना भद्रबाहु - द्वितीय के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हो ५२. जैन आगम सहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३८ । ५३. देखिए, दशम अध्याय / प्रथम प्रकरण / 'भगवती - आराधना का रचनाकाल ।' For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०२ मूलाचार / २४५ चुकी थी, अतः मूलाचार को आवश्यकनियुक्ति पर आधारित बतलानेवाला यह हेतु भी असत्य है, इससे सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है। कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"यह ग्रन्थ (मूलाचार) कुन्दकुन्द का तो नहीं ही है, उनकी विचारपरम्परा का भी नहीं है।" (जै. सा. इ. / द्वि. सं./पृ.५५०)। दिगम्बरपक्ष 'प्रेमी' जी का यह कथन प्रमाणों की उपेक्षा का परिणाम है। यद्यपि यह कुन्दकुन्द का तो नहीं है, तथापि कुन्दकुन्द की परम्परा का अवश्य है। इसे मैं पुनः इन शब्दों में दुहराना चाहूँगा कि यह कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ है। इस गन्थ पर कुन्दकुन्द की इतनी गहरी छाप है कि विद्वानों ने इसे उनके ही द्वारा रचित समझ लिया था। निम्नलिखित प्रमाण इसे कुन्दकुन्द की ही परम्परा का सिद्ध करते हैं . १. कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में सवस्त्रपुरुषमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यतीर्थिकमुक्ति का घोर विरोध किया है। इन चारों की मुक्ति का विरोध मूलाचार में भी किया गया है। २. कुन्दकुन्द ने मुनि के जिन २८ मूलगुणों का उल्लेख किया है, उनका मूलाचार में भी ज्यों का त्यों वर्णन मिलता है। ३. कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ मूलाचार में मिलती हैं, यथाबारसअणुवेक्खा की ८, नियमसार की १६, पञ्चास्तिकाय की २, समयसार की ३, बोधपाहुड की २, लिंगपाहुड की १, चारित्तपाहुड की १, और दंसणपाहुड की १५४ यह इस बात का प्रमाण है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्द के अनुगामी थे। ४. कुन्दकुन्द की निरूपणशैली का प्रभाव भी मूलाचार के कर्ता पर दृष्टिगोचर होता है। यथा ५४. मूलाचार / पूर्वार्ध । भारतीय ज्ञानपीठ / आर्यिका श्री ज्ञानमती जीः आद्य उपोद्घात / पृ. ३०-३२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ क प्रवचनसार जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ॥ १/८० ॥ समयसार मूलाचार जो जाणइ समवायं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च ॥ मूलाचार मूलाचार - समयसार समयसार जीवणिबद्धा एए जीवणिबद्धाऽबद्धा मूलाचार मूलाचार - - - - प्रवचनसार जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि - ख अपरिग्गहो अणिच्छो अपरिग्गहा अणिच्छा - ग घ — अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि ङ अ० १५ / प्र० २ जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि च सो सुत्तपाहुड पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो ५२२ ॥ ॥ २१० ॥ For Personal & 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अनुगामी होना इस बात का प्रमाण है कि मूलाचार के कर्त्ता आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्द की ही परम्परा के थे। अतः प्रेमी जी का प्रस्तुत हेतु भी असत्य है। १२ 'मूलाचार' में श्वेताम्बरीय गाथाओं का अभाव 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के कर्त्ता दिगम्बर विद्वानों पर आक्षेप करते हुए कहते हैं - " आश्चर्य तो यह लगता है कि हमारी दिगम्बर - परम्परा के विद्वान् मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से मात्र २१ गाथाएँ समानरूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रन्थों से इसकी आधी से अधिक गाथाएँ समानरूप से मिलती हैं, उसके साथ इसकी निकटता को भी दृष्टि से ओझल कर देते हैं ।" (पृ. १३६ ) । दिगम्बरपरम्परा के विद्वान् इस आक्षेप के पात्र नहीं हैं। यद्यपि मूलाचार कुन्दकुन्द की कृति नहीं है ( देखिए, अध्याय १० / प्रकरण १ शीर्षक ३.७) तथापि वह कुन्दकुन्द की परम्परा का ग्रन्थ तो है ही, यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका है । और जिन गाथाओं को उक्त ग्रन्थकर्त्ता कुन्दकुन्द से भिन्न परम्परा का मानते हैं, वे भिन्न परम्परा की नहीं हैं, वे दिगम्बरपरम्परा की ही हैं और दिगम्बरग्रंथों से ही श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हैं, यह भी पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। अतः किसी अन्य परम्परा से मूलाचार की निकटता होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए उसे ओझल कर देने का आरोप भी निराधार है। For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र० २ इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमी जी और उनके अनुगामी विद्वानों ने दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार को यापनीय ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जितने भी हेतु प्रस्तुत किये हैं वे सब असत्य हैं। अतः सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। उपसंहार दिगम्बरकृति होने के प्रमाण सूत्ररूप में अब उन समस्त प्रमाणों को सूत्ररूप में उपसंहृत किया जा रहा है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार न तो यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, न श्वेताम्बरपरम्परा का, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं— १. जिस समय मूलाचार की रचना हुई थी, उस समय यापनीय - सम्प्रदाय का जन्म ही नहीं हुआ था । २. मूलाचार में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगी - मुक्ति का निषेध किया गया है, जब कि ये यापनीयपरम्परा के आधारभूत सिद्धान्त हैं। ३. मूलाचार में मुनि के २८ मूलगुणों और अनेक उत्तरगुणों का विधान है। यापनीयमत में ये दोनों प्रकार के गुण मान्य नहीं हैं। ४. मूलाचार में समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को 'परिग्रह' कहा गया है। यापनीयमत स्थविरकल्पियों (सवस्त्रमुनियों), स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों की मुक्ति मानने से न बाह्यपरिग्रह को परिग्रह मानता है, न आभ्यन्तर परिग्रह को । ५. मूलाचार में माना गया है कि मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय का विकास गुणस्थानक्रम से होता है और पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है । यापनीयपरम्परा ऐसा नहीं मानती, क्योंकि उसमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में स्थित अन्यलिंगी साधु भी मुक्ति का पात्र माना गया है । ६. मूलाचार में कल्प नामक स्वर्गों की संख्या १६ बतलायी गयी है, और नौ अनुदिश नामक स्वर्ग भी माने गये हैं, जब कि यापनीयमत के अनुसार कल्प बारह हैं और अनुदिश नामक स्वर्गों का अस्तित्व नहीं है। ७. मूलाचार में वेदत्रय को स्वीकार किया गया है, जो यापनीयों को स्वीकार्य नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१५ / प्र०२ मूलाचार / २४९ ८. मूलाचार की जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं, वे मूलाचार या भगवती-आराधना से उन ग्रन्थों में पहुँची हैं। ९. 'बाबीसं तित्थयरा' आदि गाथाएँ दिगम्बर मान्यताओं के प्रतिकूल नहीं हैं। १०. मूलाचार में अस्वाध्यायकाल में जिन शास्त्रों को पढ़ने का उपदेश दिया गया है, वे दिगम्बरपरम्परा में उपलब्ध हैं। ११. मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की गई हैं, मुनि के २८ मूलगुणों का भी प्रवचनसार से अनुकरण किया गया है, सवस्त्रमुक्ति एवं स्त्रीमुक्ति के निषेध तथा स्त्री की औपचारिक दीक्षा के विषय में भी मूलाचार के कर्ता ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से दिशानिर्देश प्राप्त किया है तथा उनकी निरूपणशैली भी अपनायी है। १२. मूलाचार को पूज्यपाद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसे दिगम्बराचार्यों ने प्रमाण माना है, जब कि वे यापनीयों को जैनाभास और उनके द्वारा प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाओं को भी अपूज्य मानते थे। १३. मूलाचार पर दिगम्बराचार्यों और दिगम्बर-पण्डितों ने ही टीकाएँ एवं भाषावचनिका लिखी हैं, किसी श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ने नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडश अध्याय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडश अध्याय तत्त्वार्थसूत्र प्रथम प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ न होने के प्रमाण दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र को पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है तथा पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है। किन्तु डॉ० सागरमल जी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को, न तो दिगम्बर मानते हैं, न श्वेताम्बर , न यापनीय। वे उन्हें उस स्वबुद्धिकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का मानते हैं, जिससे उनके अनुसार, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का जन्म हुआ था। यहाँ हम उन हेतुओं पर दृष्टिपात करते हैं, जिनके आधार पर पं० सुखलाल जी ने दावा किया है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। क श्वेताम्बरग्रन्थ होने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु पं० सुखलाल जी संघवी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (विवेचन-सहित) की प्रस्तावना (पृ. १५-१८) में तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. तत्त्वार्थसूत्र और उस पर लिखे गये तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, दोनों के कर्ता उमास्वाति हैं। चूँकि भाष्य में मुनियों के लिए वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन बतलाया गया है, इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार उमास्वाति श्वेताम्बराचार्य थे। २. सूत्र और भाष्य दोनों में कहा गया है कि केवली को क्षुधा, तृषा आदि ग्यारह परीषह होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवली कवलाहार ग्रहण करते हैं। यह श्वेताम्बरमान्यता है और दिगम्बरमत के विरुद्ध है। १. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २३९-२४०। २. प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी/ सन् १९९३ ई.। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ ३. भाष्य में स्त्री के सिद्ध होने एवं तीर्थंकरी होने का उल्लेख भी श्वेताम्बरमान्यता का प्रतिपादन है। ४. 'कालश्चेत्येके' (काल किन्हीं के मत से वास्तविक द्रव्य है) सूत्र और उसका भाष्य भी दिगम्बरमान्यता के प्रतिकूल और श्वेताम्बरमान्यता के अनुकूल है। ५. तत्त्वार्थसूत्र में बारह कल्पों की मान्यता ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने की समर्थक ६. भाष्य (१/३१) में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने, न मानने का जो मन्तव्यभेद है वह दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं दिखाई देता, जिससे ग्रन्थकार श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं। ७. मुनियों के पुलाक, बकुश आदि भेद दिगम्बरमत के अनुकूल. नहीं हैं। ८. भाष्य की प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर-पट्टावली में मिलती ९. किसी भी श्वेताम्बर-आचार्य ने भाष्य को उमास्वाति की कृति के रूप में अमान्य नहीं किया। १०. प्रशमरतिप्रकरण ग्रन्थ भी उमास्वाति की निर्विवाद कृति है। उसमें मुनि के लिए वस्त्रपात्र की व्यवस्था का निरूपण है। इससे भी उमास्वाति श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं। ११. उमास्वाति के वाचकवंश का उल्लेख और उसी वंश में होनेवाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बर-पट्टावलियों, पन्नवणा और नन्दी की स्थविरावली में मिलता है। ख हेतुओं की असत्यता और हेत्वाभासता इनमें से अनेक हेतुओं का तो अस्तित्व ही नहीं है और अनेक हेत्वाभास हैं। अतः ऐसा एक भी हेतु विद्यमान नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु श्वेताम्बरग्रन्थ है। इससे तय है कि वह श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ ही है। उपर्युक्त हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता का सप्रमाण प्रदर्शन आगे किया जा रहा है। इनमें प्रमुख हेतु है तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य) को एक ही व्यक्ति आचार्य उमास्वाति के द्वारा रचित मानना। For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २५५ यतः भाष्य में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का प्रतिपादन है, अतः उसे स्वोपज्ञ अर्थात् सूत्रकार द्वारा ही रचित मान लेने पर तत्त्वार्थसूत्र भी श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध हो जाता है। इसलिए श्वेताम्बर आचार्यों एवं विद्वानों ने सूत्रकार और भाष्यकार को एक ही व्यक्ति सिद्ध करने का प्रयास किया है। किन्तु वे एक ही व्यक्ति नहीं हैं, अपितु अलग-अलग व्यक्ति हैं, यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध होता है। सर्वप्रथम उन्हीं प्रमाणों को प्रस्तुत किया जा रहा है। सूत्र और भाष्य के भिन्नकर्तृत्व-साधक प्रमाण सूत्र और भाष्य में सम्प्रदायभेद भाष्य (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य) में अन्न-पान और रजोहरण के साथ पात्र और चीवर (वस्त्र) को भी धर्म का साधन (उपकरण) बतलाया गया है। अतः भाष्यकार के सम्प्रदाय के अनुसार नग्न मुनि के लिए नाग्न्य-परीषहजय संवर और निर्जरा का कारण नहीं हो सकता, अपितु नग्न मुनि वस्त्रपात्रादि संयमसाधनों के अभाव में संयमपालन में समर्थ न होने से असंयमी होकर आस्रव-बन्ध का पात्र होता है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषहजय को संवर और निर्जरा का साधन बतलाया गया है, जो भाष्यकार के मत से बिलकुल उलटा है। इस तरह सूत्र और भाष्य में महान् साम्प्रदायिक भेद है। यह भेद प्रमाणित करता है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता दिगम्बर थे, और भाष्यकार सर्वथा सचेलमार्गी श्वेताम्बर।। दूसरी बात यह है कि भाष्यकार ने स्वलिङ्ग, अन्यलिङ्ग और गृहिलिङ्ग इन तीनों से मोक्ष की प्राप्ति सम्भव बतलाई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में ऐसे सूत्रों की भरमार है जिनसे अन्यलिंग, गृहिलिंग, सवस्त्रलिंग एवं स्त्रीशरीर से मुक्ति का निषेध होता है। यथा ३. "पादे पुंछति जेण तं पाउपुंछणं---रओहरणमित्यर्थः" = सन या ऊन से बनी हुई पैर पौंछने की बृहदाकार कूची पादप्रोञ्छन या रजोहरण कहलाती है। (अभि.रा.को. / भा.६ /पृ. ४७०)। ४. "अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्गमोत्पादनैषणादोषवर्जनमेषणा समितिः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/५। ५. तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बर) ९/९। ६. "द्रव्यलिङ्गं त्रिविधं-स्वलिङ्गमन्यलिङ्गं गृहिलिङ्गमिति। तत्प्रति भाज्यम्। सर्वस्तु भावलिङ्गं प्राप्तः सिध्यति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /१०/७/ पृ. ४४८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ १.१. सूत्र में अन्यलिंगि-मुक्ति-निषेध अन्यलिंग को परतीर्थ भी कहते हैं। परतीर्थ का अर्थ है अन्यमत में प्रतिपादित मोक्षमार्ग। अर्थात् अन्यमतानुसारी आचार-विचार, कर्मकाण्ड, बाह्यवेश और बाह्य उपकरणों का अवलम्बन अन्यलिंग या परतीर्थ कहलाता है। भाष्यकार उमास्वाति ने इससे भी मोक्ष की प्राप्ति मानी है। सिर्फ एक शर्त लगाई है कि अन्यलिंगी के पास भावलिंग होना चाहिए। भावलिंग का अर्थ है समभाव, वीतरागभाव या कषायमुक्ति। अथवा श्रुतज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र को भावलिंग कहते हैं। इसकी पुष्टि श्वेताम्बराचार्यों की निम्नलिखित उक्तियों से भी होती है सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा। समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो॥ अनुवाद-"मनुष्य चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी सम्प्रदाय का, यदि समभाव से युक्त है, तो मोक्ष अवश्य प्राप्त करेगा। इसमें सन्देह नहीं है।" नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव॥ अनुवाद-"मुक्ति न तो दिगम्बर रहने से होती है, न सफेद वस्त्र पहनने से। तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी सिद्धान्तविशेष में आस्था रखने से या व्यक्तिविशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषाय से मुक्त होने पर ही संभव है।" इस पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सागरमलजी लिखते हैं-"यह स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन-सूत्र जैसे प्राचीन जैन आगमों में स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिकों (अन्यलिंगियों) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया गया है। उनकी मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा में भी दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ ही हो, यदि वह समभाव की साधना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, रागद्वेष से ऊपर उठकर वीतरागदशा को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्यतैर्थिक या गृहस्थ के वेश में भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की तथा वेश की अपेक्षा से स्वलिंग (निर्ग्रन्थ मुनिवेश), अन्यलिंग (तापस आदि ७. "भावलिङ्गं श्रुतज्ञानक्षायिकसम्यक्त्वचरणानि।" सिद्धसेनगणी : तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १०/७/ पृ. ३०८ । ८. आचार्य रत्नशेखरसूरि : 'सम्बोधसत्तरी-२ (डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/पृ. ३६२)। ९. हरिभद्रसूरि : 'उपदेशतरंगिणी' (डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/ पृष्ठ. ३६२)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २५७ अन्यतैर्थिक के वेश) एवं गृहीलिंग (गृहस्थवेश) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है। ऋषिभाषित में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमणपरम्परा के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कह कर सम्मानित किया गया है।" (डॉ.सा. म.जै.अभि.ग्र./पृ. ४०४-४०५)। इस प्रकार अन्यमत-प्रतिपादित आचार-विचार, कर्मकाण्ड, बाह्य वेश और बाह्य उपकरणों के अवलम्बन को अन्यलिंग या परतीर्थ कहते हैं। भाष्यकार (उमास्वाति) का मत है कि उसे धारण करते हुए भी यदि समभाव, वीतरागभाव या कषायाभावरूप भावलिंग की प्राप्ति हो जाती है, तो मनुष्य मुक्त हो सकता है। श्वेताम्बर-आगमों में अन्यलिंग को कुलिंग कहा गया है और बतलाया गया है कि वह केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है, इसलिए अपूज्य है। फिर भी कुलिंगी को भावलिंग की प्राप्ति और उससे केवलज्ञान की उत्पत्ति स्वीकार की गई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में कुलिंगी (अन्यलिंगी) को भावलिंग की प्राप्ति का निषेध किया गया है। उसमें "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (१/१) सूत्र द्वारा स्पष्ट किया गया है कि सम्यग्दृष्टि को ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। और सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो जिनोपदिष्ट तत्त्वार्थों का श्रद्धान करे अर्थात् जिनेन्द्र ने जिन तत्त्वों को बन्ध और मोक्ष का हेतु बतलाया है, उन्हें ही बन्ध और मोक्ष का हेतु माने। और जिस जीव में जिनोपदिष्ट-तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन होगा, वह जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग का ही . अवलम्बन करेगा, यह स्वतः सिद्ध है। जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग का ही वर्णन सूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उसमें नाग्न्य परीषह१ तथा नाग्न्यलिंग पर आश्रित शीतोष्णदंशमशक आदि परीषहों को समभाव से सहने की साधना को संवर और निर्जरा का हेतु बतलाया है।२ इससे स्पष्ट है १०. "ननु केवलं केवलज्ञानं कुलिङ्गेऽपि वर्तमानानामन्यतीर्थिकानां भवतीत्यागमे श्रूयते। तत् किमिति स्थानबुद्ध्या तत् पूज्यं नेष्यते? गुरुराह-तत् केवलज्ञानं भावलिङ्गतो भवति, न पुनस्ततः कुलिङ्गात्, तस्य केवलज्ञानानङ्गत्वात्। मुनिलिङ्गं पुनर्यस्मादङ्गभावं केवलज्ञानस्य कारणतां याति, तेन तस्मात् तत्पूज्यमिति।" हेम.वृत्ति/विशे.भा./गा. ३२९३। ११. नग्नता के कारण होने वाले लोकापवाद से विचलित न होना और नग्नत्व को दूषित करनेवाले कामविकार को जीतना नाग्न्यपरीषहजय है। (तत्त्वार्थराजवार्तिक /९/९/१०)। १२. "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" तत्त्वार्थसूत्र /श्वे/९/८। __ "क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री---" तत्त्वार्थसूत्र / श्वे./९/९।" For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नग्नत्वरूप निर्ग्रन्थलिंग को सुलिंग (प्रशस्त द्रव्यलिंग) माना है। और इस सुलिंगधारी को ही महाव्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप और ध्यान की साधना के योग्य स्वीकार किया है। क्योंकि नग्नत्व के बिना देहसुखेच्छात्मक-मूर्छा-परित्यागरूप अपरिग्रह-महाव्रत सम्भव नहीं है। और अपरिग्रहमहाव्रत के बिना अहिंसादि महाव्रत असंभव हैं। उनके बिना गुप्ति, समिति आदि संवर और निर्जरा के उपायों का प्रयोग नहीं हो सकता। इस प्रकार संवर और निर्जरा की बुनियाद नाग्न्य-लिंग है। इस नाग्न्यलिंग के आश्रय से ही महाव्रतादि की सम्यक् साधना होती है, जिससे संवर और निर्जरा द्वारा मोहनीयकर्म का क्षय होकर यथाख्यातचारित्ररूप परमभावलिंग प्राप्त होता है और उसके प्राप्त होने पर एकत्ववितर्कावीचार शुक्लध्यान द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीन घाती कर्मों का एक साथ क्षय होकर केवलज्ञान प्रकट होता है। (त.सू./१०/१-२)। • तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवलज्ञानोत्पत्ति की उपुर्यक्त व्यवस्था दी है। और सम्पूर्ण ग्रन्थ में उक्त व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं दिया है। अतः उनके अनुसार नाग्न्यलिंग से ही केवल-ज्ञानोत्पादक भावलिंग की सिद्धि हो सकती है, अन्यलिंगरूप कुलिंग से नहीं। उनकी इस व्यवस्था के अनुसार जो व्यक्ति नग्नत्वरूप सुलिंग से भिन्न केवलज्ञान के अनुत्पादक अन्यलिंग (कुलिंग) को अपनाता है, वह जिनोपदिष्ट तत्त्वों में श्रद्धा न करने के कारण मिथ्यादृष्टि है। जो लिंग केवलज्ञान का साधक नहीं है, अत एव अपूज्य है, उसे अपनाना निपट अविवेकपूर्ण कार्य है। ऐसा कार्य करना घोर मिथ्यात्व का लक्षण है। और मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी आदि सभी प्रकार की कषायों का सदा उदय रहता है, फलस्वरूप उसमें निष्कषायभाव, समभाव या वीतरागभावरूप भावलिंग की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। इस तथ्य का निरूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' प्रथमाध्याय के इस प्रथम सूत्र में ही सम्यग्रूपेण कर दिया है। विचारणीय बात यह है कि कुलिंगी ऐसे लिंग को क्यों अपनाता है, जो केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है? अन्यथानुपपत्ति से यही सिद्ध होता है कि वह ख्याति, लाभ, पूजा, तन्त्रमन्त्रसिद्धि, स्वर्गादि की प्राप्ति आदि लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए ऐसा करता है। लौकिक प्रयोजनों की आकांक्षा, मूर्छारूप परिग्रह के सद्भाव का प्रमाण है, क्योंकि इच्छा, आकांक्षा, काम, अभिलाष, गृद्धि आदि का ही नाम मूर्छा है, भाष्यकार ने यह स्वयं स्वीकार किया है।१३ अतः जहाँ निदानपरिणामभूत१४ इच्छा १३. "चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः। इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काडक्षा गायें मछेत्यनर्थान्तरम।" तत्त्वार्थधिगमभाष्य ७/१२। १४. "निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा।" सर्वार्थसिद्धि ७/१८। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २५९ या मूर्च्छा का अस्तित्व है, वहाँ मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धी आदि सभी कषायों का सदा उदय रहने से वीतरागभावरूप भावलिङ्ग का अभाव सिद्ध है। इस सत्य का प्ररूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'मूर्च्छा परिग्रहः' (त.सू. / श्वे. / ७/१२) और 'निःशल्यो व्रती' (त.सू./ श्वे. / ७ /१३) सूत्रों में किया है। कापालिक (सरजस्क) आदि कुलिंगियों के पास वस्त्रशस्त्र, अस्थिकपाल, " रुद्राक्ष, गंडा - ताबीज, झोली, सोना-चाँदी आदि बाह्यपरिग्रह भी होता है। वे मन्त्र-तन्त्र की सिद्धि के लिए श्मसान में मानवशवों के साथ बीभत्स प्रयोग करते हैं। मद्यमांससेवन, रात्रिभोजन, अगालित जलपान आदि हिंसात्मक प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हैं । अनेक अन्यलिंगी पंचाग्नितप करते हैं, अग्नि प्रज्वलित कर शीत निवारण करते हैं । इन सब क्रियाओं से प्राणातिपात होता है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'अशुभः पापस्य' (त.सू./ श्वे./६/४), ‘दुःखशोकतापाक्रन्दन-वधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य' (त.सू./ श्वे./६ /१२), तथा ‘बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' (त.सू./ श्वे. /६/१६) इन सूत्रों के द्वारा उपर्युक्त हिंसादिपाप करनेवालों को नारकायु तथा असातावेदनीय आदि पापकर्मों के बन्ध का कर्त्ता कहा है। इससे यह स्वयमेव फलित होता है कि जिनके भीतर नारकायु एवं असातावेदनीय के बन्धयोग्य परिणामों की धारा प्रवाहित होती है, उन्हें वीतरागभावरूप भावलिंग के प्राप्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय को संवर - निर्जरा का कारण बतलाया है, जिसका तात्पर्य यह है कि नाग्न्य - परीषह सहनेवाले नग्नमुनि में समभावरूप भावलिंग का अस्तित्व होता है । इस कथन से कुलिंगी में भावलिंग की उत्पत्ति का निषेध हो जाता है, क्योंकि कुलंगी वस्त्र होता है । वह तीन कारणों से वस्त्र त्यागने का साहस नहीं कर पाता । वे तीन कारण हैं - १. शीतोष्णदंशमशकादिजन्य देहपीड़ा का भय, २ . निर्लज्जता ( कामुकता को प्रकट करने) के दोषारोपण का भय और ३. कामविकार के प्रकट हो जाने का भय । पहला कारण देहसुख में राग के अस्तित्व का सूचक है, दूसरा लोकप्रतिष्ठा में राग के अस्तित्व का और तीसरा विषयसुख में राग के अस्तित्व का । जब तक वस्त्रत्याग की सामर्थ्य का अभाव है, तब तक इन तीनों प्रकार के राग का सद्भाव है, यह अनुमानगम्य है, क्योंकि इनमें कारणकार्य - सम्बन्ध है । अतः कुलिंगी में इन तीन प्रकार के रागों का सद्भाव होने से वीतरागतारूप भावलिंग की उत्पत्ति असंभव है, यह सिद्ध होता है। १५. “सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहात् । " शीलांकाचार्यवृत्ति / आचारांग १/५/२/१५० / पृ. १८७ । For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः१६ सूत्र द्वारा भी कुलिंगी या अन्यलिंगी में भावलिंग की उत्पत्ति का निषेध किया है। इस सूत्र में कहा गया है कि जिसे जिनोपदिष्ट श्रुत के ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो का ज्ञान होता है, उसी को आदि के दो शुक्लध्यान हो सकते हैं, जो कर्मों के संवर और निर्जरा के महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य हेतु हैं। कुलिंगी मिथ्यादृष्टि होता है। उसे जिनोपदिष्ट श्रुत में श्रद्धा नहीं होती, अतः वह उसके अभ्यास में भी प्रवृत्त नहीं होता। फलस्वरूप उसमें उक्त दो शुक्लध्यानों की योग्यता नहीं आ सकती, जो केवलज्ञानोत्पत्ति के हेतुभूत भावलिंग हैं। श्वेताम्बराचार्यों की मान्यता है कि स्वलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है, कुलिंग से नहीं। किन्तु कुलिंगी को भावलिंग से केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। और भाष्यकार का कथन है कि स्वलिंगी, अन्यलिंगी (कुलिंगी) और गृहिलिंगी तीनों भावलिंग के प्राप्त होने पर ही सिद्ध होते हैं। १८ अब यहाँ बहुत बड़ा अन्तर्विरोध दर्शनीय है। स्वलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है और भावलिंग की प्राप्ति के बिना केवलज्ञान होता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि स्वलिंग से भावलिंग होता है और भावलिंग से केवलज्ञान। और कुलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती नहीं है तथा कुलिंगी स्वलिंग ग्रहण करता नहीं है। फिर भी उसे भावलिंग प्राप्त हो जाता है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि कुलिंगी को या तो कुलिंग से ही भावलिंग की प्राप्ति होती है या स्वलिंग के बिना ही भावलिंग प्रकट हो जाता है। प्रथम पक्ष को मान्यता दी जाय तो यह कथन असत्य हो जाता है कि कुलिंग केवलज्ञान का हेतु नहीं है, क्योंकि कुलिंग से भावलिंग होता है और भावलिंग से केवलज्ञान, इस प्रकार कुलिंग केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण सिद्ध हो जाता है, ठीक स्वलिंग के समान। यदि दूसरे पक्ष को मानें तो कारण के बिना ही कार्य की सिद्धि का प्रसंग आता है। इस पक्ष में तो कलिंगी स्वलिंगी से श्रेष्ठ हो जाता है, क्योंकि वह मिथ्यादष्टि और अमहाव्रती रहते हुए भी भावलिंग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। और इससे तत्त्वार्थसूत्रकार का यह उपदेश असत्य सिद्ध हो जाता है कि 'मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्ध के हेतु हैं' (त.सू.८/१) 'प्राणातिपात आदि अशुभ योग से पापकर्म का बन्ध होता है' (त.सू./श्वे./६/४), 'बहु-आरंभ और बहु-परिग्रह नरकायु के बन्ध के कारण हैं' (त.सू./श्वे./६/१६), 'स्वयं का या दूसरे का वध करना असातावेदनीय के आस्रव का हेतु है, (त.सू./श्वे./६/१२), तथा 'गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप एवं ध्यान, ये संवर और निर्जरा के उपाय हैं।' (त.सू./९ १६. तत्त्वार्थसूत्र / दि. ९ / ३७, श्वे. ९/३९ । १७. देखिए, पादटिप्पणी १०।। १८. देखिए , पादटिप्पणी ६। । For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६१ ।२, ३)। भाष्यकार के मत में कुलिंगी के समस्त शुभाशुभकर्मों का संवर और निर्जरा तो कुलिंग से ही हो जाती है। अब जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग और कुलिंगरूप मोक्षमार्ग में अन्तर क्या रहा? दोनों एक ही स्तर के सिद्ध होते हैं। ऐसा होने पर या तो कुलिंग स्वलिंग के समान पूज्य हो जाता है अथवा स्वलिंग भी कुलिंग के समान अपूज्य बन जाता है। इस तरह भाष्यकार सर्वज्ञ-वीतराग-तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग को कुलिंगियों द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग के बराबर का दर्जा देकर केवली और श्रुत का अवर्णवाद कर देते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को ही मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया है, किन्तु भाष्यकार मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र (कुलिंग) को भी मोक्षमार्ग प्रतिपादित करते हैं। सूत्रकार की दृष्टि से स्वलिंग (नाग्न्यलिंग) ही मोक्ष का साधन है, भाष्यकार की दृष्टि से कुलिंग से भी मोक्ष होता है। सूत्रकार के अनुसार सुलिंग (नाग्न्यलिंग) से ही भावलिंग की प्राप्ति होती है, भाष्यकार के अनुसार सुलिंग-कुलिंग के बिना भी भावलिंग प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार, तत्त्वार्थसूत्रकार व्यवस्थावादी हैं, जब कि भाष्यकार अव्यवस्थावादी। सूत्रकार का कारणकार्यसम्बन्ध अव्यभिचरित है, भाष्यकार का कारणकार्यसम्बन्ध व्यभिचरित है। इस तरह दोनों में आकाशपातालवत् सम्प्रदायभेद है। १.२. सूत्र में गृहिलिंगि-मुक्तिनिषेध भाष्यकार ने गृहिलिंगी (गृहस्थ) को भी भावलिंग की प्राप्ति द्वारा मोक्ष का अधिकारी बतलाया है।९ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में गृहिलिंग से वीतरागता या कषायमुक्तिरूप भावलिंग की प्राप्ति का निषेध किया गया है। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि कर्मों की संवर-निर्जरा सम्यग्दर्शन-पूर्वक गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के प्रयोग से होती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन उपायों के द्वारा ही वीतरागभावरूप भावलिंग की प्राप्ति होती है। इन उपायों का आधारभूत उपाय है नाग्न्यलिंग। तत्त्वार्थसूत्रकार ने परीषहसूत्रों में निरूपित किया है कि सम्यग्दर्शनादिरूप मोक्षमार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए नाग्न्यपरीषह तथा नाग्न्य पर आश्रित शीतोष्णदंशमशकादि परीषह एवं अन्य परीषह समभावपूर्वक सहना चाहिए। (त. /सू.९/८-९) नाग्न्यपरीषह का अर्थ है चारित्रमोहनीय कर्म की पुंवेदनामक प्रकृति के तीव्रोदय से पुरुषेन्द्रिय में विकारोत्पत्ति द्वारा नग्नता को दूषित करनेवाले और लोगों के बीच लज्जास्पद स्थिति पैदा करनेवाले कामभाव का उद्दीप्त होना। तथा वैराग्यभावना द्वारा उसे उद्दीप्त न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है। (त.रा.वा./९/९/१०) तथा नग्नता को देखकर मिथ्यादृष्टि जो अपवाद करते हैं, १९. देखिए, पादटिप्पणी ६। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ उससे विचलित न होना भी नाग्न्यपरीषहजय है। इस नाग्न्यपरीषह तथा शीतोष्णदंशमशकादिपरीषहों की उत्पत्ति सदा नग्न रहने पर ही हो सकती है। शरीर को वस्त्रावृत कर लेने से या केवल जननेद्रिय को आच्छादित कर लेने से नाग्न्य आदि परीषहों की संभावना निरस्त हो जाती है। मनुष्य के वस्त्रधारण का उद्देश्य परीषहों से बचना ही होता है। अतः जो सदा नग्न नहीं रहता, शरीर को वस्त्र से आच्छादित करके रखता है, उसमें परीषहों से बचने की आकांक्षा रहती है। ऐसे व्यक्ति को परीषहजय का अवसर न मिलने से कर्मनिर्जरा की साधना संभव नहीं होती। वह परीषहपीड़ा से बचने की आकांक्षा से अर्थात् देहसुख की आकांक्षा से वस्त्र धारण करता है और देह को सुखमय स्थिति में रखते हुए ध्यान, अध्ययन आदि करता है। ऐसा साधक शरीर के लिए अनुकूल स्थितियों में राग और प्रतिकूल स्थितियों में द्वेष रखने से समभाव को प्राप्त नहीं होता। अतः भावलिंग की प्राप्ति न होने से उसके कर्मों की निर्जरा नहीं होती। ___इसलिए नग्नत्व शारीरिक सुख में राग के अभाव तथा शारीरिक दुःख में द्वेष के अभाव का सूचक है, साथ ही तद्विषयक रागद्वेष से निवृत्ति के अभ्यास का साधक भी है। इसलिए जो नग्नत्व धारण कर शारीरिक सुख-दुःख में समभाव की साधना करता है, उसके ही महाव्रतादि सफल होते हैं और उसे निर्जरा के कारणभूत भावलिंग की प्राप्ति होती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यादिपरीषहजय को संवरनिर्जरा के लिए आवश्यक बतलाकर इसी मनौवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत किया है। __सार यह है कि चूँकि गृहिलिंगी नग्नमुद्रा धारण कर महाव्रतादि की साधना नहीं करता, इसलिए उसको संवर-निर्जरा के हेतुभूत वीतरागभावरूप भावलिंग की प्राप्ति नहीं होती, फलस्वरूप उसे केवलज्ञान या मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, यह बात तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त सूत्रों से सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि के कर्मों की जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा श्रावक के कर्मों की होती है, उससे भी असंख्यातगुणी निर्जरा महाव्रती के कर्मों की होती है, उससे भी असंख्यातगुणी निर्जरा अनन्तानुबन्धी-वियोजक के कर्मों की होती है। इस क्रम से बढ़ते हुए दर्शनमोहक्षपक, उपशमक (चारित्रमोह का उपशमक), उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन, इनके कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यात-गुणी निर्जरा होती है।२° यहाँ हम देखते हैं कि कर्मनिर्जरा की दृष्टि से श्रावक का स्थान बहुत नीचे है, अर्थात् उसके कर्मों की निर्जरा बहुत २०."सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोह जिनाः क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जराः।" तत्त्वार्थसूत्र /दि. ९/४५, श्वे.९/४७ । For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ /प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६३ कम होती है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार की दृष्टि से गृहिलिंगी की मुक्ति सम्भव नहीं है। यह भी सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायभेद का एक बहुत बड़ा प्रमाण है। १.३. सूत्र में सवस्त्रमुक्तिनिषेध भाष्यकार ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (९/५,७,२४) में मुनि को पात्र-चीवर-धारीरूप में वर्णित किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि वे सवस्त्रमुक्ति मानते हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य आदि परीषहों के सहन को संवर-निर्जरा का हेतु कहा जाना सवस्त्रमुक्ति-निषेध का प्रबल प्रमाण है, क्योंकि वस्त्रधारण करने पर इन परीषहों का होना सम्भव नहीं है, इसलिए सवस्त्र अवस्था में शीतादिपरीषहजय-निमित्तक संवर-निर्जरा भी संभव नहीं है। नग्न को ही शीतादिपरीषह संभव होते हैं, वस्त्रधारी को नहीं, इसका सप्रमाण प्रतिपादन विभिन्न शीर्षकों से नीचे किया जा रहा है १.३.१. नग्न रहने पर ही शीतादिपरीषह संभव-डॉ० सागरमल जी ने शीतोष्णदंशमशकनाग्न्यादि-परीषह-सहन की श्वेताम्बरमत से संगति बैठाने के लिए कहा है कि सचेल को भी शीतादिपरीषह होते हैं। वे माननीय डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया के तर्क पर आक्षेप करते हुए कहते हैं-"क्या दंशमशकपरीषह दिगम्बरमुनि को ही होता था और मात्र लोकलज्जा के लिए अल्पवस्त्र रखनेवाले प्राचीनकाल के श्वेताम्बर मुनियों को नहीं होता था? क्या स्वयं पण्डित जी को या किसी गृहस्थ को यह कष्ट नहीं होता है? कम या अधिक का प्रश्न हो सकता है, किन्तु यह परीषह तो सभी को होता है?" (जै.ध.या.स. / पृ. ३४८)। इस विषय में मेरा निवेदन है कि तत्त्वार्थसूत्र के परीषहसूचक सूत्र (९/९) में उल्लिखित नाग्न्य शब्द स्पष्ट कर देता है कि वहाँ नग्न रहने पर चरम तीक्ष्णता से होने वाले शीतोष्ण आदि परीषहों से अभिप्राय है, सवस्त्र अवस्था में होनेवाले किञ्चिन्मात्र परीषहों से नहीं। मात्र कोपीनधारण कर लेने से भी परीषहों की व्यापकता और तीक्ष्णता में नग्न शरीर की अपेक्षा कमी तो हो ही जाती है, जो सूत्रकार को स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए उन्होंने नाग्न्य परीषह के साथ शीतोष्णादि-परीषहों का वर्णन किया है। स्वयं प्राचीन श्वेताम्बर-आगम आचारांग में कहा गया है कि अचेल रहने पर ही परीषह संभव हैं “अदुवा तत्थ पराक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया।" (आचा.१/७/७/२२१/ पृ. २६०)। For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ अनुवाद-"अथवा वस्त्ररहित होकर विचरण करनेवाले साधु को तृणस्पर्शपरीषह पीड़ित करता है, शीतपरीषह त्रास देता है, उष्णपरीषह सन्तप्त करता है, डाँस-मच्छर पीड़ा पहुँचाते हैं और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आते हैं, उन्हें वह भलीभाँति सहन करता है। वह अचेल साधक उपकरणों और कर्मों के भार से हल्का हो जाता है। ऐसा जानकर समभाव रखे।" १.३.२. श्वेताम्बरागमों में परीषहत्राणार्थ ही वस्त्रधारण की अनुमति-आचारांग के वस्त्रैषणा अध्ययन में कहा गया है कि जो लज्जाशील हो वह एकवस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे। देश-विशेष में दो वस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे तथा जो परीषह सहने में असमर्थ हो वह तीन वस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे "एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज पडिलेहणगं विदियं। तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज पडिलेहणगं तदियं। तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ वत्थाणि धारेज पडिलेहणं चउत्थं।" २१.. वस्तुतः श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के संस्थापक मुनियों में वस्त्रधारण की शुरुआत ही शीतोष्णदंश-मशकनाग्न्य आदि परीषहों से बचने के लिए हुई थी। स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि तीन प्रयोजनों से वस्त्र धारण किये जा सकते हैं-१.शारीरिक कामविकार छिपाने के लिए, २.जननेन्द्रिय की बीभत्सता छिपाने के लिए और ३.परीषहों से बचने के लिए। यथा-"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेजा। तं जहा-हिरिपत्तियं, दुगुंछापत्तियं, परीसहपत्तियं।" (स्था. सू. ३/३/३४७/१५०)। आचारांगचूर्णिकार वस्त्रैषणा अधिकार की उत्थानिका में कहते हैं-"भाववत्थसंरक्षणार्थं दव्ववत्थेसणाहिकारो,सीतदंसमसगादीणं च परित्राणार्थम्।" (आचारांगसूत्र । श्रुतस्कन्ध २/अध्याय ५/उद्देशक १/ सम्पा.-पं. बसन्तीलाल नलवाया / प्रका.-धर्मदास जैन मित्रमण्डल, रतलाम / १९८२ ई. / पृ.३४३ से उद्धृत)। अनुवाद-"भाववस्त्र (अठारह हजार शीलांगरूप संयम) की रक्षा के लिए तथा शीत, दंशमशक आदि से परित्राण के लिए यह द्रव्यवस्त्र का अधिकार (प्रकरण) जिनभद्रगणी ने तो विशेषावश्यकभाष्य में बहुत मुखर होकर कहा है कि तुम यह जानना चाहते हो कि वस्त्र संयम का कौन-सा उपकार करते हैं? तो सुनो, वे शीत आदि की पीड़ा से बचाते हैं और नग्न रहने पर अग्नि जलाकर ठंड से बचने गाथा (४२३) की विजयोदयाटीका प्र.३२४ २१. भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' से उद्धृत। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६५ के प्रयत्न में जो जीवघात होता है, उसको रोकते हैं। देखिये, निम्मलिखित गाथा किं संजमोवयारं करेइ वत्थाई जइ मई सुणसु। सीयत्ताणं ताणं जलण-तणगयाण सत्ताणं॥ २५७५ ॥ वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि इसका खुलासा करते हुए लिखते हैं"सौत्रिकौर्णिककल्पैस्तावत् शीतार्तानां त्राणं साधूनामार्तध्यानापहरणं क्रियते।--- कल्पाः प्रावृताः सन्तो निर्विजं स्वाध्यायध्यानसाधनं कुर्वन्ति, शीतार्त्यपहरणादिति।" (हेम. वृत्ति / विशे.भा./गा.२५७५)। अनुवाद-"सूती-ऊनी कल्पों (शरीरप्रमाण चादरों) को ओढ़ लेने से शीत से पीड़ित साधुओं की रक्षा होती है, उनके आर्तध्यान का अपहरण होता है।---चूँकि कल्प ओढ़ लेने पर शीत की पीड़ा दूर हो जाती है, इसलिए साधु विनिघ्न होकर स्वाध्याय और ध्यान की साधना करते हैं।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि सूती-ऊनी चादर ओढ़ लेने पर शीत की पीड़ा रंचमात्र भी नहीं होती और इतना आराम महसूस होता है कि स्वाध्याय और ध्यान चैन से निवृत्त हो जाते हैं। भगवती-आराधना की टीका में अपराजितसूरि ने उत्तराध्ययनसूत्र का हवाला देते हुए कहा है "इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहनवचनं परीषहसूत्रेषु। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते।" (वि.टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२६)। __अनुवाद-"शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह नग्न पुरुष पर ही घटित होते हैं। जो शरीर को वस्त्र से आच्छादित कर लेता है, उसे शीतादि की पीड़ा ही नहीं होती, तब उसे परीषहजय का अवसर कैसे मिल सकता है?" इन श्वेताम्बर-आगमवचनों और दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि के वचनों से ही सिद्ध होता है कि वस्त्रधारी को शीतादि परीषह नहीं होते, नग्न मुनि को ही होते हैं। शीतादि परीषहों से बचने के लिए आचारांगादि में भिक्षु को तीन-तीन तक चादर रखने की अनुमति दी गई है, कम्बल का प्रावधान किया गया है। अतः डॉ० सागरमल जी का यह कथन श्वेताम्बर आगमों से ही बाधित हो जाता है कि सचेल को भी शीतादिपरीषह होते हैं। १.३.३. चोलपट्टधारी को नाग्न्यपरीषह संभव नहीं-हाँ, जिसके पास सम्पूर्ण शरीर को ढंकने के लिए सूती या ऊनी वस्त्र नहीं हैं, जो केवल नग्नता को छिपाने के लिए कटिबन्ध या चोलपट्ट धारण करता है, उसे शीतोष्णदंशमशकादि परीषह होते हैं, तथापि नाग्न्यपरीषह नहीं होता, जो शीतादिपरीषहों से कई गुना दुस्सह है। नाग्न्य For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ /प्र०१ परीषह का क्या अर्थ है यह समझ लेना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि परीषहसूत्र में 'नाग्न्यपरीषह' शब्द का प्रयोग किया गया है, क्षुधापरीषह, तृषापरीषह आदि के समान 'कामपरीषह' शब्द का नहीं। इससे यह निश्चित हो जाता है कि सूत्रकार का जोर शरीर के नग्नरूप पर है। तथा "नाग्न्यपरीषह चारित्रमोहनीय के उदय से होता है।"२२ इस कथन से यह निश्चित होता है कि यहाँ नग्न शरीर पर शीत, उष्ण आदि वेदनीय-कर्मोदयजनित परीषह विवक्षित नहीं हैं, अपितु कषायजनितपरीषह विवक्षित है। और नग्नत्व से सम्बन्धित परीषह उत्पन्न करनेवाली कषायें दो हैं-जुगुप्सा२३ और पुंवेद।२४ जुगुप्सा-नोकषाय के उदय से अपने नग्न शरीर की बीभत्सता देखकर स्वयं को लज्जा का अनुभव हो सकता है तथा पुंवेदनोकषाय के उदय से नग्नता (लिंग) में विकृति उत्पन्न हो सकती है, जिसके लोकदृष्टिगोचर होने से लोकापवाद की स्थिति आना संभव है। ज्ञानवैराग्य के बल से इन दोनों स्थितियों को उत्पन्न न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है। वस्त्रधारी या चोलपट्टधारी को ये दोनों प्रकार के नाग्न्यपरीषह नहीं हो सकते। नग्नता दिखायी न देने से लज्जानुभव का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कभी कामोद्रेक के फलस्वरूप लिंग में विकार उत्पन्न होता है, तो वह वस्त्रावरण के कारण प्रकट नहीं हो पाता।२५ अतः नाग्न्यपरीषह संभव न होने से वस्त्रधारी के लिए नाग्न्यपरीषहजय का उपदेश उपपन्न नहीं होता। भट्ट अकलंकदेव नाग्न्यपरीषहजय का अभिप्राय प्रकट करते हुए लिखते हैं- . "जातरूपधरणं नाग्न्यम्। १०। ---नाग्न्यमभ्युपगतस्य स्त्रीरूपाणि नित्याशुचिबीभत्सकुणपभावेन पश्यतो वैराग्यभावनावरुद्धमनोविक्रियस्याऽसम्भावितमनुष्यत्वस्य नाग्न्यदोषा-संस्पर्शनात् परीषहजयसिद्धिरिति जातरूपधारणमुत्तमं श्रेयःप्राप्तिकारणमित्युच्यते। इतरे पुनर्मनोविक्रियां निरोद्भुमसमर्थास्तत्पूर्विकाङ्गविकृतिं निगृहितकामाः कौपीनफलक-चीवराद्यावरणमातिष्ठन्ते अङ्गसंवरणार्थमेव तन्न कर्मसंवरकारणम्।" (त.रा.वा./९/९/१०/पृ. ६०९)। अनुवाद-"जन्म के समय का रूप धारण करना नाग्न्य कहलाता है। जिसने नग्न रूप धारण कर लिया है, वह साधु स्त्रीरूप को अपवित्र, बीभत्स और शवकंकाल के समान समझता हुआ वैराग्यभावना से मनोविकार का निरोध करता है, जिससे जननांग २२. "चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।" तत्त्वार्थसूत्र /९/१५ । २३. "नाग्न्यं जुगुप्सोदयात्।" हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र /९/१५/पृ. ४६७। २४. "पुंवेदोदयादिनिमित्तत्वान्नाग्न्यादिपरीषहाणां मोहोदयनिमित्तत्वं प्रतिपद्यामहे ।" सर्वार्थसिद्धि । ९/१५। २५. "स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टो मत इति।" हेम.वृत्ति/विशे.भा./ गा.२५७५ २५७९। For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६७ में विकृति न आने से नग्नता दूषित नहीं होती। इसी को नाग्न्यपरीषहजय कहते हैं। इस कारण जातरूप (नग्नरूप) धारण करना मोक्षप्राप्ति का उत्तम उपाय है। जो साधु मनोविकार को रोकने में असमर्थ होते हैं, वे तजनित अंगविकार को छिपाने के लिए कौपीन (लँगोटी), फलक, चीवर आदि आवरणों का उपयोग करते हैं। इससे अंग का ही संवरण होता है (अंगविकार ही छिपता है), कर्मों का नहीं।" __भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजितसूरि के निम्नलिखित वचन से भी यही अभिप्राय प्रकट होता है कि दृढ़प्रयत्नपूर्वक इन्द्रियनियमन करते हुए नग्नशरीर में कामविकार प्रकट न होने देना, नाग्न्यपरीषहजय है "सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि प्रयतते। अन्यथा शरीरविकारो लजनीयो भवेदिति।---चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायाम्। कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते। निश्चेलस्य तु निर्विकार-देहतया स्फुटा विरागता।"(वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२१-३२२)। अनुवाद-"जैसे सर्यों से भरे वन में विद्या, मन्त्र आदि से रहित पुरुष अत्यन्त सावधानी से चलता है, वैसे ही वस्त्ररहित (नग्न) साधु भी कामविजय में अत्यन्त यत्नशील रहता है, अन्यथा शरीर में कामविकार प्रकट होने पर लज्जनीय स्थिति उत्पन्न हो सकती है।---चित्त की विशुद्धि को प्रकट करना नग्नत्व का एक बहुत बड़ा गुण है। कौपीन आदि से नग्नत्व को ढंक लेने पर चित्त की शुद्धता का पता नहीं चलता, किन्तु जो नग्न रहता है उसके शरीर की निर्विकारता से मन की विरागता का स्पष्टतः बोध हो जाता है।" आचार्यद्वय के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र धारणकर कामविकारजन्य अंगविकृति को छिपाना नाग्न्यपरीषहजय नहीं है, अपितु नाग्न्यपरीषह-पराजय का प्रच्छादन है। अभिप्राय यह कि चोलपट्टधारी को नाग्न्यपरीषह संभव नहीं है। यह श्वेताम्बरीय आचारांग से भी प्रमाणित है। आचारांग में कटिवस्त्र धारण करने की अनुमति उसी भिक्खु को दी गई है, जो शीतादिपरीषह तो सहन कर सकता है, किन्तु नग्नरूप के बीभत्स दिखायी देने, लिंग के विकृत होने या लिंगोत्थान की आशंका के कारण नग्न होने में लज्जा का अनुभव करता है। देखिए "जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंसमसगफासंअहियासित्तए एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चाऽहं नो संचाएमि अहि-यासित्तए , एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए।" २६ २६. आचारांग/१/८/७/पृ. ५५८/ जैन साहित्य समिति, नयापुरा, उज्जैन, वि.सं. २००७ । For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ अनुवाद - " जो भिक्खु वस्त्ररहित होकर संयम के मार्ग में स्थित है, उसके मन में विचार आता है कि मैं तृणस्पर्शजनित वेदना को सह सकता हूँ, शीत की वेदना को सह सकता हूँ, उष्णता की पीड़ा सहन कर सकता हूँ, डाँस-मच्छर के काटने की पीड़ा बर्दाश्त कर सकता हूँ तथा और भी अनेक दुःख सह सकता हूँ किन्तु लज्जा के कारण गुह्यप्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में असमर्थ हूँ, उसे कटिवस्त्र (चोलपट्टक) धारण करना चाहिए।" इसकी समीक्षा करते हुए मुनि श्रीसौभाग्यमल जी लिखते हैं- " इन सब (शीतादि परीषहों) से अधिक महत्त्वपूर्ण बात लज्जापरीषह को जीतने की है। लज्जा को जीत लेना बहुत कठिन है। शारीरिक कष्टों और वेदनाओं को सहन करने में जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, उससे लज्जा - परीषह को जीतने में कहीं अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है । जो साधक लज्जालु स्वभाववाला है, अतः वह गुह्यप्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में समर्थ नहीं है, तो उसे कटिबन्ध धारण करना कल्पता है । --- टीकाकार (शीलांक) कटिबन्ध का परिमाण बतलाते हैं कि वह एक हाथ, चार अंगुल विस्तारवाला और दीर्घता में कमर के प्रमाण का होना चाहिए । ' " २७ इस प्रकार कटिबन्ध धारण कर लेने से भिक्खु इतने कठिन नाग्न्यपरीषंह से बच जाता है। अर्थात् सवस्त्र को नाग्न्यपरीषह नहीं होता । अतः तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषहजय को निर्जरा का कारण कहा जाना इस बात का सूचक है कि तत्त्वार्थसूत्रकार नग्नमुद्राधारक को ही साधु मानते हैं, जबकि भाष्यकार ने वस्त्रपात्र को साधु के लिए धर्मसाधन कहकर सवस्त्रमुक्ति का प्रतिपादन किया है। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हैं । १.३.४. अर्धफालकधारी को नाग्न्यशीतादि - परीषह संभव नहीं— मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में प्राप्त द्वितीय शताब्दी ई० के एक शिलापट्ट पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों के नीचे एक नग्न साधु की मूर्ति उत्कीर्ण है। उसके दाहिने हाथ में कम्बल और बाएँ हाथ में प्रतिलेखन है। इसके आधार पर डॉ० सागरमल जी लिखते हैं- " ई० सन् की दूसरी शती तक श्वेताम्बरों के पूर्वाचार्य वस्त्र या कम्बल रखते हुए भी प्रायः नग्न ही रहते थे, जो उनके मथुरा के अंकनों से सिद्ध है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३४५-४६)। इस तरह डॉक्टर सा० ने नाग्न्यपरीषह को श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने का प्रयत्न किया है। यह तथ्यसंगत नहीं है, क्योंकि शिलापट्ट पर उत्कीर्ण साधु दायें हाथ में सामने लटकाये हुए कम्बल से अपने गुह्यप्रदेश को छिपाये हुए है। यह लज्जा - परीषह या २७. वही / पृ. ५६० । For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६९ नाग्न्यपरीषह से बचने का एक उपाय था। इस उपाय को अपनानेवाले साधु अर्धफालक कहे जाते थे। २८ इसके अतिरिक्त कम्बल हाथ में होने से ही स्पष्ट है कि उसका उपयोग शीत, दंशमशक आदि परीषहों से बचने के लिए किया जाता था। अतः अर्धफालक साधुओं को न तो नाग्न्यपरीषह होता था, न ही शीत, दंशमशक आदि परीषह। १.३.५. श्वेताम्बरमत में नाग्न्य हेय है-और डॉक्टर साहब ने जो यह कहा है कि ईसवी द्वितीय शताब्दी तक श्वेताम्बर साधु वस्त्र रखते हुए भी प्रायः नग्न रहते थे, वह आचारांगादि के पूर्व उद्धरणों से ही खण्डित हो जाता है, जिनमें कहा गया है कि शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्यादि परीषहों से बचने के लिए साधु तीन वस्त्र (चादर-कम्बल) भी ग्रहण कर सकता है और यदि शीतादिपरीषह सहने की शक्ति हो, किन्तु नाग्न्यपरीषह सहने में असमर्थ हो, तो उसे केवल कटिबन्ध ही धारण करना चाहिए। अर्थात् नग्नता को छिपाये बिना कोई श्वेताम्बर साधु न तो पहले रह सकता था, न आज रह सकता है, क्योंकि जब से वस्त्रधारण को संयम का साधन मान लिया गया, तब से मुनि का नग्न रहना निर्लज्जता एवं बीभत्सता का प्रदर्शन माना जाने लगा,२९ स्त्रियों के मन में कामविकार का उत्प्रेरक३० तथा स्त्रीदर्शन से स्वयं के शरीर में प्रकट हुए कामविकार को छिपाने में बाधक होने से अश्लीलता का जनक माना जाने लगा, नग्न रहने को निर्लज्जता मानकर ब्रह्मचर्य का विनाशक भी कहा जाने लगा।३१ इस तरह परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों ने नग्नत्व को संयम का घातक करार दिया। यद्यपि जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद से ही सभी श्वेताम्बर साधु वस्त्रधारी हो गये थे, तथापि आचारांग और स्थानांग में नग्नत्व की निन्दा नहीं की गई, उसे सचेलत्व से श्रेष्ठ ही माना गया है। किन्तु जब दशवैकालिकसूत्र में वस्त्रधारण को २८. देखिये, अध्याय ६/प्रकरण १/शीर्षक ६। २९. क- "अयं पापात्मा कुलवधूनामप्यवाच्यं दर्शयन् न लज्जत इत्यादि तथाविधाऽऽर्यजनोक्ति स्तव कर्णपथमवतीर्णा तवैव क्रोधोत्पत्तिहेतुर्जायते, तन्निदानं च नग्नरूपतया बीभत्सं त्वदीयं शरीरमेव।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति /१/२/६/पृ. ७३ । ख- "वस्त्रपरित्यागे लज्जादिमनुष्यधर्मरहितो लोके देवत्तायत्तोऽयमनालाप्यो द्रष्टमप्यकल्प्य इत्याधुपेक्ष्यैव परिह्रियते।" वही/ पृष्ठ ७१। ग- "वस्त्राभावे च रासभादिवदविशेषेण लज्जाराहित्यं स्यात्।" वही/१/२/३० / पृष्ठ ९१ । ३०. क- "प्रागुक्तगुणहेतवे वस्त्राणि बिभ्रति। अन्यथा प्रवचनखिंसादयः स्त्रीजनस्यात्मनश्च मोहोदयादयो बहवो दोषाः स्युः।" वही/पृ. ९५।। ख- "स्त्रीणां दुर्गतयस्तु त्वल्लिङ्गदर्शनेन वेदोदयाद् दुर्ध्यानाद्।" वही/१/२/४१ / पृ. १०३ । ३१. "वस्त्रावृतस्य लज्जया ब्रह्मचर्यं स्याद् अन्यथा वडवादर्शनाद् वाडवस्येव स्त्रीदर्शनाल्लिङ्गा दिविकृत्या प्रवचनोड्डाहाब्रह्मसेवादयो बहवो दोषाः सर्वजनविदिता भवेयुः।" वही/१/२/३०/ पृष्ठ ९१। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ संयम और लज्जा का साधक घोषित किया गया, तब नग्नत्व संयम और लज्जा का घातक स्वयमेव सिद्ध हो गया। अतः तब से किसी भी श्वेताम्बर साधु का नग्न रहना संभव ही नहीं था। सभी साधुओं के लिए वस्त्र धारण करना अनिवार्य कर दिया गया था।३२ इस तरह चूँकि श्वेताम्बरमत में नाग्न्य हेय है, अतः नाग्न्यपरीषह एवं तदाश्रित शीतोष्णदंशमशकादि परीषह श्वेताम्बर साधुओं पर घटित नहीं होते। १.३.६. श्वेताम्बरमत में शीतादिपरीषह निवारणीय हैं, सहनीय नहींश्वेताम्बरमत में वस्त्रधारण को संयम का उपकारी इसीलिए माना गया है कि उससे शीतादिपरीषहों का निवारण होता है। शीतादिनिवारण से आर्तध्यान नहीं होता। आर्तध्यान न होने से ध्यान-अध्ययन की क्रियाएँ निर्विघ्न सम्पन्न होती हैं। वस्त्रधारण करने से शीतनिवारण हेतु अग्नि जलाने की आवश्यकता नहीं रहती, जिससे जीवरक्षारूप संयम का पालन होता है।३ श्वेताम्बर-मतानुसार वस्त्रधारण करने से लज्जारूप लोकधर्म की भी रक्षा होती है३४ और स्त्रीदर्शन से यदि कामवासना के उद्बुद्ध होने पर लिंग में विकार उत्पन्न होता है, तो वह भी प्रकट नहीं हो पाता,३५ जिससे अपने और दूसरे (स्त्रियों) के संयम की रक्षा होती है। इस प्रकार श्वेताम्बरशास्त्रों में शीतादिपरीषहों के निवारण का उपदेश है, सहने का नहीं। सहने को आर्तध्यान की उत्पत्ति का कारण माना गया है और इस तरह यह निष्कर्ष निकाला गया है कि साधु शीतादिपरीषहों को सहन तो कर ही नहीं सकता। यदि शीतादि की पीड़ा से बचने के लिए वह वस्त्रधारण नहीं करता, तो अग्नि जलाकर शीतादि का निवारण करेगा, पर सह नहीं सकेगा। इसलिए परीषह-सहन असंभव होने के कारण अग्नि से शीतपीड़ा-निवारण करने की अपेक्षा वस्त्रधारण करके निवारण करना श्रेयस्कर माना गया है, क्योंकि इस तरह जीवरक्षारूप संयम का पालन होता है। अतः सिद्ध है कि श्वेताम्बरशास्त्रों में परीषहों के निवारण का उपदेश है, सहने का नहीं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भी वस्त्रपात्रादि को धर्म का साधन माना है, इसलिए उनके अनुसार भी यही सिद्ध होता है कि परीषहसहन असम्भव है, अतः वस्त्रधारण कर उनका निवारण करना चाहिए। ३२. "जिनकल्पायोग्यानां साधूनां ह्री-कुत्सा-परीषहलक्षणं वस्त्रधरणकारणं पूर्वाभिहितस्वरूपम वश्यमेव सम्भवति ततो धरणीयमेव वस्त्रम्।" हेम.वृत्ति/विशेषावश्यकभाष्य/गा. २६०२-३। ३३. देखिए, तृतीय अध्याय/द्वितीय प्रकरण/शीर्षक ४ एवं ५। ३४. "वस्त्रधरणे लोकानुवृत्तिधर्म:---लज्जा, व्रीडा, संयमो वा अर्थात् सा रक्षिता भवेद् ।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति / १/२/३०/ पृ. ९१ । ३५. देखिए, अध्याय ३/पादटिप्पणी १८-क। For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २७१ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र (९/८) में स्पष्ट कहा गया है कि "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" अर्थात् मोक्षमार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए परीषहों को सहन करना चाहिए। इस सूत्र में 'परिषोढव्याः' (सहन करना चाहिए) शब्द का प्रयोग स्पष्ट कर देता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार निर्जरा के लिए परीषहसहन अनिवार्य मानते हैं। यह सूत्र 'तत्त्वार्थसूत्र' के श्वेताम्बरमान्य पाठ में भी है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार में गम्भीर मतभेद है। १.३.७. तत्त्वार्थसूत्र में उपचारनाग्न्य मान्य नहीं-वस्त्रधारण से नाग्न्यपरीषह और शीतादिपरीषहों का निवारण हो जाने पर सहने के लिए नाग्न्याश्रित परीषह कोई बचता ही नहीं है। फलस्वरूप परीषहसूत्र में शीत, ऊष्ण, दंशमशक और नाग्न्य परीषहों का समावेश सवस्त्रमुक्ति की दृष्टि से निरर्थक सिद्ध होता है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार जैसे यशस्वी आचार्य निरर्थक कथन नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि वे नग्नमुद्रा को ही मुक्ति का साधन मानते हैं। किन्तु , तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए श्वेताम्बराचार्यों ने नाग्न्यपरीषहजय की नयी परिभाषा कल्पित कर यह साबित करने की कोशिश की है कि सवस्त्रमुक्ति की दृष्टि से भी नाग्न्यपरीषहजय का उल्लेख सार्थक है। उनका कहना है कि आगम में सचेलसाधु को भी अचेल या नग्न कहा गया है, लोक में भी सवस्त्र स्त्री-पुरुष के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग रूढ़ है। अथवा अचेलत्व या नाग्न्य दो प्रकार का होता है : मुख्य और उपचरित। निर्वस्त्र होना मुख्य नाग्न्य है और जीर्णशीर्ण वस्त्र पहनना उपचरित नाग्न्य है। तीर्थंकर निर्वस्त्र होते हैं, अतः मुख्यतः नग्न कहलाते हैं और सामान्य साधु जीर्ण वस्त्रधारण करते हैं, इसलिए उपचार से नग्न कहे जाते हैं।३६ श्वेताम्बराचार्यों का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषह के ३६. क- देखिए, अध्याय ३/प्रकरण २/शीर्षक ३.२.४ । ख- तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के वृत्तिकार श्री सिद्धसेनगणी (७ वीं शती ई०) एवं श्री हरिभद्रसूरि (८वीं शती ई०) ने भी विशेषावश्यकभाष्यकार श्री जिनभद्रगणी (६वीं-७वीं शती ई०) का अनुसरण कर कटिवस्त्र को सिर पर लपेटकर नदी पार करते हुए पुरुष एवं जुलाहे से शीघ्र नई साड़ी बुनकर देने का आग्रह करनेवाली छिद्रयुक्तसाड़ीधारी स्त्री के दृष्टान्तों द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने लोकरूढ़ि या उपचार से सचेल साधु के लिए नग्न शब्द का प्रयोग किया है। अतः नाग्न्यपरीषह का अर्थ है सचेलसाधु के लिए संभव अनेषणीयचेलग्रहण-परीषह। इसलिए अनेषणीय चेल ग्रहण न कर एषणीय चेल ग्रहण करना नाग्न्यपरीषहजय है। (देखिये , सिद्धसेनगणीकृत तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति ९/९/ पृ.२२६ एवं हरिभद्रसूरिकृत तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति /९/९)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ अन्तर्गत 'नग्न' शब्द उपचारनग्न (जीर्णवस्त्रधारी साधु) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः वस्त्र का सर्वथा परित्याग कर यथार्थतः नग्न रहनेवाले साधु का शरीर में कामविकार उत्पन्न न होने देना नाग्न्यपरीषहजय नहीं है, अपितु उपचारनग्न (संवस्त्र) रहते हुए एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय है, जैसे आहार का सर्वथा त्याग करना क्षुधापरीषहजय नहीं है, अपितु अनेषणीय आहार ग्रहण न कर एषणीय आहार ग्रहण करना क्षुधापरीषहजय है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उपचारनाग्न्य मान्य नहीं है। यह निम्नलिखित युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध होता है १. पूर्व (अध्याय ३/प्र.२ / शी.३,४ एवं ५) में युक्तिप्रमाणपूर्वक सिद्ध किया गया है कि न तो आगम में सचेलमुनि को अचेल कहा गया है, न ही लोक में सवस्त्र स्त्री-पुरुष के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग रूढ़ है, न ही सचेल. साधु को उपचार से नग्न कहा जा सकता है। क्योंकि सचेलसाधु को उपचार से नग्न कहने पर नग्न शब्द का अर्थ बदल जाता है। सचेल के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग उपयुक्त न होने से उसका निर्वस्त्र-पुरुष-रूप अर्थ असत्य हो जाता है तथा वह सवस्त्र-पुरुषरूप अर्थ का वाचक नहीं है, अतः उससे यह अर्थ भी नहीं निकल सकता। इसलिए उससे लक्षणाशक्ति द्वारा निर्लज्ज, असभ्य, चरित्रभ्रष्ट या दरिद्र पुरुष आदि अर्थ निकलते हैं, जो मुनि के लिए उचित नहीं हैं।८ इससे सिद्ध है कि सचेल मुनि को उपचार से भी नग्न नहीं कहा जा सकता। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि 'नाग्न्य' शब्द का प्रयोग उपचारनाग्न्य के अर्थ में किया गया है। यदि उन्हें उपचारनाग्न्य अभीष्ट होता, तो वे अगले सूत्र में यह स्पष्ट अवश्य करते, जैसा उन्होंने "तद्भावाव्ययं नित्यम्" (त.सू./५/३१) सूत्र से वस्तु के नित्य और अनित्य दोनों रूपों का प्रतिपादन होने पर आगे "अर्पितानर्पितसिद्धेः" (त.सू./५/३२) सूत्र द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों का अस्तित्व मुख्यगौणभाव से सिद्ध होता है। यतः उन्होंने नाग्न्य के विषय में ऐसा स्पष्टीकरण नहीं किया, इससे सिद्ध है कि उन्हें नाग्न्य के मुख्य और गौण (उपचरित) भेद स्वीकार्य ३७. क- "ननु तदप्येषणीयं रागादिदोषरहितः परिभुजानो जिताचेलपरीषहो मुनिः स्यादेवेति। ---तस्मादनेषणीयादिदोषदुष्टवस्त्रपरिभोगेणैवाजिताचेलपरीषहत्वं भवति।" हेमचन्द्रसूरि वृत्ति/विशेषाश्यकभाष्य /गा. २५९४-९७/ पृ.५१९ । ख- "तत्र क्षुत्परीषहः क्षुद्वेनादिनाऽऽगमावहितेन चेतसा समयतोऽनेषणीयं परिहरतः क्षुत्परीषहजयो भवति। अनेषणीयग्रहणे तु न विजितः स्यात् क्षुत्परीषहः।" हारिभद्रीय वृत्ति/तत्त्वार्थसूत्र /९/९/ पृ. ४६०। ३८. देखिए, अध्याय ३/ प्रकरण २/शीर्षक ५। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २७३ नहीं हैं। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने भी 'नाग्न्य' के मुख्य और उपचरित भेदों की चर्चा नहीं की है। जाय, २. यदि तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नाग्न्यपरीषह को उपचार- नाग्न्यपरीषह माना तो उसे जीतने से होनेवाले संवरादि को भी उपचारसंवर, उपचारनिर्जरा और उपचारमोक्ष मानना होगा। इससे तत्त्वार्थसूत्र मुख्य ( यथार्थ) मोक्षमार्ग का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध न होकर मोक्षमार्ग के नाम पर किसी अन्य मार्ग का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध होगा । ऐसा ग्रन्थ रचने की आशा हम गृध्रपिच्छाचार्य या उमास्वाति जैसे सम्यग्दृष्टि एवं महाव्रती आचार्य से नहीं कर सकते। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नग्न शब्द का प्रयोग सचेलमुनि के लिये नहीं, अपितु सर्वांग निर्वस्त्र मुनि के लिये ही किया है। ३. नाग्न्यपरीषह का जो लक्षण टीकाकारों ने किया है, उसके अनुसार वह वास्तविक नग्न को ही हो सकता है, उपचरित - नग्न को नहीं । श्वेताम्बराचार्य श्री सिद्धसेन गणी एवं श्री हरिभद्रसूरि ने चारित्रमोह की जुगुप्सा नामक प्रकृति के उदय से होनेवाली जुगुप्सा को नाग्न्यपरीषह कहा है – “ नाग्न्यं जुगुप्सोदयात्" (सिद्धसेनीयवृत्ति एवं हारिभद्रीयवृत्ति / त.सू.९/१५ ) । स्थानांगसूत्र में तीन कारणों से वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है - लज्जानुभव, जुगुप्साभय तथा परीषह सहने में असमर्थता । ३९ विशेषावश्यकभाष्यवृत्तिकार हेमचन्द्रसूरि ने जुगुप्सा का अर्थ लोकविहितनिन्दा बतलाया है"दुगंछावत्तियं --- जुगुप्सा लोकविहिता निन्दा सा प्रत्ययो यस्य " (विशे.भा./गा.२५५७) । नग्न रहने पर पुरुषांग के दिखाई देने तथा कदाचित् लिंगोत्थान हो जाने पर अत्यन्त अश्लील अवस्था प्राप्त हो जाने से लोकनिन्दा होती है। इसे नाग्न्यपरीषह कहते हैं । यह वस्त्रधारी मुनियों के लिए संभव नहीं है। इससे वचने के लिए ही तो वे वस्त्रधारण करते हैं। इससे साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय का विधान परमार्थतः नग्न (दिगम्बर) मुनि के लिये ही किया है, उपचरितनग्न ( सवस्त्र) मुनि के लिए नहीं । ३९. “तिहिं ठाणेहिं वत्थंधारेज्जा । तं जहा - हिरिपत्तियं दुगंछापत्तियं परीसहपत्तियं ।" स्थानांगसूत्र / ३/३/३४७ / १५० । ४०. क — “लौकैरपि वस्त्रपरिधानं मुख्यवृत्या असभ्यावयवगोपननिमित्तमेव क्रियते ।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / २ / ३१ /पृ. ९३ । ख– “स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टोमत इति ।" हेमचन्द्रसूरिवृत्ति / विशेषा .वश्यकभाष्य / गा. २५७५- ७९ । For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ १.३.८. परीषहजय की कल्पित परिभाषा युक्तिसंगत नहीं-और जो यह कहा गया है कि अनेषणीय वस्त्र धारण न कर एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय है, वह भी असंगत है। क्योंकि एषणीय वस्त्र धारण करने से साधु नग्न रहता ही नहीं है, तब न तो नाग्न्य (नग्नताजन्य) परीषह होने का अवसर रहता है, न नाग्न्यपरीषहजय का। अतः सवस्त्र साधु पर नाग्न्यपरीषह घटित न होने से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने दिगम्बर साधु को दृष्टि में रखकर ही सम्पूर्ण मोक्षमार्ग का वर्णन किया है, फलस्वरूप उन्हें सवस्त्रमुक्ति स्वीकार्य नहीं है। और अनेषणीय आहार ग्रहण न कर एषणीय आहार से क्षुधातृप्ति करना क्षुधापरीषहजय है, यह परिभाषा भी युक्तिसंगत नहीं है। एषणीय आहार से क्षुधातृप्ति कर लेने पर क्षुधापीड़ा के अभाव में क्षुधापरीषहजय का अवसर ही नहीं रहता। अतः एषणीय आहार न मिलने पर जब अनेषणीय आहार ग्रहण न करते हुए.क्षुधा की पीड़ा समभाव से सहन की जाती है, तब क्षुधापरीषहजय होता है। किन्तु नाग्न्यपरीषह की तुलना क्षुधापरीषह से नहीं की जा सकती, क्योंकि क्षुधापीड़ा का एषणीय आहार से निवारण न करने पर शरीर स्थित नहीं रह सकता, जब कि नाग्न्यजन्य पीड़ा का वस्त्रधारण करके निवारण न किया जाय, तो भी शरीर की स्थिति बनी रह सकती है। और नाग्न्यजन्य शीतादिपरीषहों को समभाव से सहते हुए ध्यान-अध्ययन आदि की क्रियाएँ भी निर्विघ्न सम्पन्न होती हैं। समयसार आदि जैसे महान् ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द-सदृश भूतकालीन दिगम्बर मुनिगण और आचार्य विद्यासागर जैसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी और तपोनिष्ठ वर्तमानकालीन अनेक दिगम्बरमुनि इसके साक्षात् उदाहरण हैं। निष्कर्ष यह कि एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय का विरोधी है। यह नाग्न्यपरीषहजय नहीं, नाग्न्यपरीषह-निवारण है। इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित नाग्न्यपरीषहजय एवं शीतादिपरीषहजय सवस्त्र साधुओं पर चरितार्थ नहीं होते, नग्न साधुओं पर ही होते हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्रकार सवस्त्रमुक्ति-विरोधी हैं, जबकि भाष्यकार सवस्त्रमुक्ति के पोषक हैं। इस तरह दोनों के सम्प्रदाय सर्वथा भिन्न हैं। १.३.९. याचनापरीषहजय भी सवस्त्रमुक्तिविरोधी-तत्त्वार्थसूत्र में याचनापरीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन उसके सवस्त्रमुक्तिनिषेधक होने का एक और प्रबल प्रमाण है। याचना का अर्थ है किसी से कुछ माँगना। किसी से कुछ माँगने की इच्छा चारित्रमोहनीय कर्म की लोभ नामक प्रकृति के उदय से उत्पन्न होती है। यह परीषह है। इसे जीतना अर्थात् किसी से कुछ न माँगना याचनापरीषहजय ४१. देखिये, पादटिप्पणी २२। For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २७५ है। नग्न मुद्राधारी निर्ग्रन्थ मुनि को वस्त्रपात्रादि पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती। उन्हें सिर्फ आहार औषधि, वसतिका, शास्त्र तथा पिच्छी-कमण्डलु की जरूरत होती है। इनके लिए वे दीनताभरे शब्द बोलकर, मुख की विवर्णता दिखलाकर या संकेत आदि के द्वारा याचना नहीं करते। आहार के समय वे श्रावकों की बस्ती में जाकर केवल अपना शरीर दिखला देते हैं। इतने मात्र से यदि कोई श्रावक नवधाभक्तिपूर्वक शुद्ध आहार प्रदान करता है, तो ग्रहण कर लेते हैं, अन्यथा प्राण जाने की नौबत आ जाने पर भी वे किसी से याचना नहीं करते।४२ १.३.१०. दिन को रात बना देने का अद्भुत साहस-किन्तु याचनापरीषहजय श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में मान्य नहीं है, वहाँ अयाचनापरीषह-जय को याचनापरीषहजय का नाम दे दिया गया है। जैसा छलप्रपञ्च वहाँ नाग्न्य शब्द के विषय में किया गया है, वैसा ही याचना शब्द के विषय में भी किया गया है। 'नाग्न्य' शब्द को अनाग्न्य (वस्त्रसहित होने) का वाचक सिद्ध करने की कोशिश की है, तो याचना को अयाचना का। यह दिन को रात बना देने के अद्भुत साहस का उदाहरण है। श्वेताम्बर साधु-साध्वियों को केवल आहार, ओषधि और वसतिका की ही आवश्यकता नहीं होती, अपितु उन्हें वस्त्र, पात्र, दण्ड, कम्बल, पादपुंछन, शय्या, आसन, दन्तशोधनी, नखशोधनी, सुई-धागा, साबुन-पानी आदि अनेक वस्तुओं की भी जरूरत होती है। इन सबकी उन्हें गृहस्थों से याचना करनी पड़ती है। याचनीय वस्तुओं और याचनाविधि का विवरण आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पिण्डैषणा (आहार की याचना), शय्यैषणा (उपाश्रय की याचना), वस्त्रैषणा (वस्त्रों की याचना), पात्रैषणा (पात्रों की याचना), अवग्रहैषणा (ध्यान आदि के योग्य स्थान की याचना) आदि अध्ययनों में दिया गया है। चूंकि श्वेताम्बर भिक्खु-भिक्खुणियों को ये सब वस्तुएँ गृहस्थों से याचना करके ही प्राप्त करनी पड़ती हैं, इसलिए श्वेताम्बरमत में याचनापरीषहजय अर्थात् याचना का त्याग सम्भव नहीं है। इससे जाहिर है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित याचनापरीषह श्वेताम्बर साधुओं पर घटित नहीं होता, दिगम्बरों पर ही चरितार्थ होता है। किन्तु श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बराचार्यकृत सिद्ध करने के लिए याचनापरीषह को उसका अर्थ उलट-पुलट कर श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने नाम तो याचनापरीषह ही रहने दिया है, लेकिन याचनापरीषह के ४२. "प्राणात्यये सत्यप्याहारवसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवैवाङ्गसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्युदुद्योतवद् दुरुपलक्ष्यमूर्तेर्याचनापरीषहसहनमवसीयते।" स.सि./९/९/ ८२८। For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ नाम से अयाचना के भाव की उत्पत्ति को परीषह बतलाया है। अर्थात् उन्होंने यह प्ररूपण किया है कि याचना का भाव उत्पन्न होना परीषह नहीं है, अपितु याचना को हेय समझने का भाव उत्पन्न होना परीषह है, इसलिए आहार, वस्त्र, पात्रादि की याचना को हेय समझने का भाव त्यागकर याचना करना अयाचना-परीषहजय है। इस तरह उन्होंने अयाचनापरीषहजय को निर्जरा का कारण बतलाया है, किन्तु नाम याचनापरीषहजय ही रखा है, ताकि तत्त्वार्थसूत्र के याचनापरीषहजय से साम्य प्रतीत हो। देखिए तत्त्वार्थसूत्र के वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि के निम्नलिखित वचन "याचनं मार्गणं भिक्षोर्वस्त्रपात्रान्नपानप्रतिश्रयादेः परतो लब्धव्यं सर्वमेव साधुना अतो याचनमवश्यमेव कार्यमित्येवं याच्यापरीषहजयः।" ४३ अनुवाद-“साधु को वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, प्रतिश्रय आदि सभी वस्तुएँ दूसरों से प्राप्त करनी पड़ती हैं, इसलिए साधु को याचना अवश्य करनी चाहिए, यही याचनापरीषहजय है।" यहाँ हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि याचना करना ही याचनापरीषहजय है। इससे स्पष्ट होता है कि हरिभद्रसूरि की दृष्टि से याचना को हेय समझने की बुद्धि उत्पन्न होना याच्यापरीषह है, जो मानकषाय के उदय का परिणाम है। इस प्रकार याचनापरीषहजय के अर्थ को उलट-पुलट कर हरिभद्रसूरि ने उसे श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने की कोशिश की है। इस उलट-पुलट को युक्तिसंगत बनाने के लिए उन्होंने एक और उलट-पुलट की है।५ यह आगम में प्रसिद्ध है और मनोवैज्ञानिक सत्य भी है कि किसी भी वस्तु की याचना का भाव लोभकषाय के उदय से उत्पन्न होता है।५ लोभकषाय के उदय से ही मनुष्य आत्मगौरव या लज्जा का परित्याग कर याचना के लिए मजबूर होता है। और याचना का भाव उत्पन्न न होना लोभकषाय के उदयाभाव का लक्षण है तथा वह आत्मा का स्वाभाविक भाव है। किन्तु श्री हरिभद्रसूरि ने आगम और मनोविज्ञान के विरुद्ध जाते हुए याचना का भाव उत्पन्न न होने को या उसे हेय समझने को मानकषाय के उदय का परिणाम कहा है। और याचना का भाव उत्पन्न होने को अथवा उसे उपादेय मानने को मानकषाय के उदयाभाव का लक्षण एवं आत्मा का शुद्ध भाव बतलाया है, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। अर्थात् भोजन, वस्त्र, पात्र, शय्या, ओषधि आदि पदार्थों को माँगने की इच्छा ४३. हारिभद्रीयवृत्ति/ तत्त्वार्थसूत्र ९/९/ पृ. ४६३। . ४४. "मानोदयाद् याच्यापरीषहः।" हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र /९/१५/ पृ. ४६७। ४५. "मानकषाये क्रोधे चाक्रोशः, लोभे याचना, माने सत्कारपुरकाराभिनिवेश इति।" तत्त्वार्थराज वार्तिक (भारतीय ज्ञानपीठ) ९/१५/ पादटिप्पणी १/पृ. ६१५ । For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २७७ वीतरागभाव है तथा इन्हें माँगने की इच्छा का अभाव रागभाव है। तत्त्वार्थसूत्रप्रतिपादित याचनापरीषहजय को श्वेताम्बरीय चौखटे में बैठाने के लिए श्री हरिभद्रसूरि इतना उलटा प्रतिपादन करने पर भी आमादा हो गये, यह हृदय को स्तब्ध कर देने वाली बात है। याचना का हेतु है इच्छा, इच्छा का हेतु है लोभ, लोभ या इच्छा मूर्च्छा है तथा मूर्च्छा परिग्रह है । ४६ अतः 'याचना' परिग्रह का पर्यायवाची होने से हेय है। तब याचना करना परीषहजय कैसे हो सकता है? तथा याचना करना मानकषाय के अभाव का लक्षण नहीं है, आत्मगौरव या लज्जा के अभाव का लक्षण है । जो आत्मगौरवरहित अथवा लज्जाहीन होता है वही याचना के दीनवचन बोलता है। इसीलिए भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में चातक को सावधान करते हुए कहा है रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयतामम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ ५१ ॥ अनुवाद - " हे मित्र चातक ! जरा मन को एकाग्र करके सुनो। आकाश में मेघ तो बहुत होते हैं, किन्तु सब एक जैसे नहीं होते । कोई-कोई ही धरती को वर्षा से आर्द्र करते हैं, बाकी सब व्यर्थ ही गरजते हैं। अत: तुम सब के सामने दीन वचन मत बोला करो अर्थात् सबसे जल की याचना मत किया करो। " भर्तृहरि ने यहाँ याचना करने को दीनवचन बोलना कहा है। दीनवचन वही बोल सकता है, जिसे अपनी दीनता प्रदर्शित करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता । याचकता अदीन को दीन बना देती है, इस सत्य पर कवि रहीम ने भी प्रकाश डाला है रहिमन याचकता गहे बड़े छोटे है जात । नारायण हूँ को भयो बावन अंगुल गात ॥ अभिप्राय यह कि याचना लोभ, इच्छा या मूर्च्छा का परिणाम है तथा मनुष्य को लज्जाहीन बना देती है, अतः हेय है। यह आगमवचन एवं मनीषियों के अनुभव का निचोड़ है । इसलिए श्री हरिभद्रसूरि का याचना को मानोदय के अभाव का परिणाम ४६. " लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तिन्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदी रागे ।" समवायांग / समवाय ५२ । For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ बतलाना न तो आगम-सम्मत है, न लोकसम्मत। यतः याचना लोभकषायजन्य भाव है तथा वह साधु को दीन एवं लज्जाहीन बना देती है, अतः किसी भी वस्तु की याचना का भाव मन में न आने देना ही याचनापरीषहजय है। तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा के लिए इस प्रकार के याचनापरीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन सवस्त्रमुक्ति के सर्वथा विरुद्ध है, अतः वह दिगम्बरचार्य की कृति है। इसके विपरीत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता सवस्त्रमुक्ति के प्रतिपादक हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों के सम्प्रदाय भिन्नभिन्न हैं। १.४. सूत्र में स्त्रीमुक्तिनिषेध ___भाष्यकार ने भाष्य में स्त्रीमुक्ति तथा स्त्री के तीर्थंकरी होने का प्रतिपादन किया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के सवस्त्रमुक्तिनिषेधक प्रमाणों से स्त्रीमुक्ति का भी निषेध होता है, क्योंकि स्त्री शारीरिक संरचनाविशेष के कारण वस्त्रत्याग नहीं कर सकती। इसके अतिरिक्त भी तत्त्वार्थसूत्र में स्त्रीमुक्तिविरोधी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। यथा १.पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि 'बादरसाम्पराये सर्वे' (त.सू./९/१२) सूत्र से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ नहीं लेना चाहिए , अपितु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान से नीचे के बादर-(स्थूल)-कषायवाले छठे से नौवें तक चारों गुणस्थान ग्राह्य हैं। किन्तु इन चारों में समानरूप से सभी परीषह नहीं होते। दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्वप्रकृति का उदय छठे और सातवें गुणस्थानों में केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में ही होता है, अतः दर्शनमोहनीय के उदय से होनेवाला अदर्शनपरीषह प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में ही संभव है। अतः इन दो गुणस्थानों में सभी परीषहों का कथन युक्तिसंगत है। किन्तु आठवें गुणस्थान से उपशम और क्षपक श्रेणियाँ आरंभ होती हैं। उनमें से उपशमश्रेणी पर तो द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि एवं क्षायिकसम्यग्दृष्टि दोनों आरूढ़ होते हैं किन्तु क्षपकश्रेणी पर केवल क्षायिसम्यग्दृष्टि आरोहण करता है। अतः आठवें और नौवें गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय का उदय न होने से अदर्शनपरीषह संभव नहीं है। इसलिए उनमें केवल इक्कीस परीषहों का उल्लेख युक्तिसंगत है। तथापि अदर्शनपरीषह को गौण कर बादरकषाय ४७. क- "स्त्रीलिङ्गसिद्धाः संख्येयगुणाः।--- तीर्थकरतीर्थसिद्धाः स्त्रियः संख्येयगुणाः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१०/७ / पृ.४५५ । ख– “एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि।" वही/पृ. ४४९ । ४८. "नेदं गुणस्थानविशेषग्रहणम्। किं तर्हि? अर्थनिर्देशः। तेन प्रमत्तादीनां संयतानां ग्रहणम्।" ____सर्वार्थसिद्धि ९/१२/८४३/ पृ. ३३९ । ४९. पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री : विशेषार्थ / सर्वार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ) ९/१२/पृ. ३३९ । For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २७९ की समानता के कारण चारों गुणस्थानों को समान मानकर चारों में सभी परीषहों का कथन कर दिया गया है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में 'बादरसम्पराय' शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ ही ग्रहण किया गया है। भाष्यकार उमास्वाति ने लिखा है-"बादरसम्परायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति" (त.भाष्य ९/१२) और सिद्धसेनगणी ने बादरसम्परायसंयत को उपशमक और क्षपक कहकर५° स्पष्ट कर दिया है कि भाष्यकार का अभिप्राय नौवें गुणस्थान से ही है। पं० सुखलाल संघवी ने भी बादरसम्पराय शब्द के अर्थ के विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता भेद पर प्रकाश डालते हुए कहा है-"दिगम्बर-व्याख्याग्रन्थ यहाँ 'बादरसम्पराय' शब्द को संज्ञा न मानकर विशेषण मानते हैं, जिस पर से वे छठे आदि चार गुणस्थान का अर्थ घटित करते हैं (त.सू./वि. स./९/८-१७/पा.टि.२/ पृ. २१६)। किन्तु 'बादरसाम्पराय' शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ लेना उचित नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानों में संभाव्य परीषहों का कथन भी 'बादरसाम्पराये सर्वे' सूत्र में गर्भित किया है। अतः उनके अनुसार 'बादरसाम्पराय' शब्द इन चारों गुणस्थानों का सूचक है। और उन्होंने इन गुणस्थानों में सभी परीषहों का अर्थात् नाग्न्यपरीषह का भी कथन किया हैं, इससे फलित होता है किं स्त्री छठे से लेकर नौवें तक किसी भी गुणस्थान में नहीं पहुँच सकती, क्योंकि उसके लिए वस्त्रत्याग असंभव होने से नाग्न्यपरीषह नहीं हो सकता। यह इस बात का सूचक है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। २. तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (त.सू./९/३७) सूत्र द्वारा भी स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, क्योंकि सूत्र में कहा गया है कि चार प्रकार के शुक्लध्यानों में से आदि के दो ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्कावीचार पूर्वविद् (चतुर्दशपूर्वो के ज्ञाता अर्थात् श्रुतकेवली) को होते हैं। ५१ और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के अनुसार स्त्री को ग्यारह अंगों का ही ज्ञान हो सकता है, चतुर्दश पूर्वो का नहीं, भले ही वह आर्यिका हो।५२ फलस्वरूप उसे आदि के दो शुक्लध्यान नहीं हो सकते। इससे केवलज्ञान होना असम्भव है। ५०. "बादरः स्थूलः सम्परायः कषायस्तदुदयो यस्यासौ बादरसम्परायः सम्मतः। स च मोहप्रकृती: कश्चिदुपशमयतीत्यपशमकः। कश्चित् क्षपयतीति क्षपकः। तत्र सर्वेषां द्वाविंशतेरपि क्षुधादीनां परीषहाणामदर्शनान्तानां सम्भवः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति /९/१२/ पृ. २३० । ५१. "आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/३९ । ५२. अरहंतचक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा। गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं॥ १५०६॥ प्रवचनसारोद्धार। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ किन्तु श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरसम्प्रदाय के ढाँचे में बैठाने के लिए स्त्री को अध्ययन के बिना ही पूर्वो का ज्ञान हो जाने की कल्पना की है। श्री हरिभद्रसूरि ललितविस्तरा में कहते हैं-"(स्त्रीवेदादिमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से) क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होने पर श्रुतज्ञानावरण का विशिष्ट क्षयोपशम होता है, जिससे द्वादशांग के अर्थ का बोधात्मक उपयोग प्रकट हो जाता है, तब अर्थोपयोग रूप से द्वादशांग की सत्ता आ जाती है।" ५३ ___ इसके पञ्जिका-टीकाकार मुनि चन्द्रसूरीश्वर जी लिखते हैं-"बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' में विद्यमान 'पूर्व' नाम के श्रुत का ज्ञान न हो, तो आदि के दो शुक्ल ध्यान नहीं हो सकते और शास्त्र यह भी कहता है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध है। किन्तु स्त्रियों को केवलज्ञान तो होता ही है, अतः उसका साधनभूत शुक्लध्यान भी होता है। इसलिए यह मानना दुर्वार है कि शब्दरूप से अध्ययन के अभाव में भी धर्मध्यान के आधार पर वे अपकश्रेणी के विशिष्ट परिणाम तक पहुँच जाती हैं और वहाँ श्रुतज्ञानावरणकर्म का ऐसा क्षयोपशम हो जाता है, जिससे शब्दतः न सही, पदार्थबोधरूप से द्वादशांगश्रुत की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है।" ५४ किन्तु ऐसा मानने में अनेक दोष हैं, उदाहरणार्थ क-यदि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम होने पर श्रुतज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से स्त्री को शाब्दिक ज्ञान हुए बिना द्वादशांग का अर्थबोध हो जाता है, तो पुरुष के लिए भी द्वादशांग के अध्ययन की अनिवार्यता असिद्ध हो जाती है, क्योंकि उसे भी इसी प्रकार अध्ययन के बिना ही द्वादशांग का अर्थावगम हो सकता है। इससे द्वादशांग का शब्दरूप में अस्तित्व और अध्ययन-अध्यापन निरर्थक होने का प्रसंग आता है। किन्तु वह निरर्थक नहीं माना जा सकता, अन्यथा भगवान् उसे दिव्यध्वनि द्वारा ५३. "(द्वादशाङ्गवत् कैवल्यस्य कथं न बाधः?) कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः? तथाविधविग्रहे ततो दोषात्। श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद् भावतो भावोऽविरुद्ध एव।" ललितविस्तरा/स्त्रीमुक्ति। गाथा ३/पृष्ठ ४०६। ५४. "श्रेणिपरिणतौ तु = क्षपकश्रेणिपरिणामे पुनः वेदमोहनीयक्षयोत्तरकालं, 'कालगर्भवत्' काले = प्रौढे ऋतुप्रवृत्त्युचिते उदरसत्त्व इव, 'भावतो'= द्वादशाङ्गार्थोपयोगरूपात् न तु शब्दतोऽपि, 'भावः'= सत्ता द्वादशाङ्गस्य, अविरुद्धो = न दोषवान्। इदमत्र हृदयम्-अस्ति हि स्त्रीणामपि प्रकृतयुक्त्या केवलप्राप्तिः, शुक्लध्यानसाध्यं च तत् , 'ध्यानान्तरिकायां शुक्लध्यानाद्यभेदद्वयावसान उत्तरभेदद्वयानारम्भरूपायां वर्तमानस्य केवलमुत्पद्यते' इति वचनप्रमाण्यात्। न च पूर्वगतमन्तरेण शुक्लध्यानाद्यभेदौ स्तः 'आद्ये पूर्वविदः' (तत्त्वार्थसूत्र/९/३९) इति वचनात् , 'दृष्टिवादश्च न स्त्रीणामितिवचनात्, अतस्तदर्थोपयोगरूपः क्षपकश्रेणिपरिणतौ स्त्रीणां द्वादशाङ्गभावः क्षयोपशमविशेषादुपदिष्ट इति। पञ्जिकाटीका/ललितविस्तरा/पृष्ठ ४०६। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २८१ प्रकट क्यों करते और गणधर उसका संकलन क्यों करते। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त कल्पना युक्तिमत् न होने से यथार्थ नहीं है । ख- दूसरी बात यह है कि चौदह पूर्वों के अध्ययन के बिना उनका अर्थबोध उन्हीं ऋषियों को होता है, जिन्हें प्रज्ञाश्रमणत्वरूप ऋद्धि (लब्धि ) प्राप्त हो जाती है । ५५ किन्तु दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आम्नायों के आगमों में स्त्रियों को सभी प्रकार की ऋद्धियों की प्राप्त का निषेध किया गया है । श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनसारोद्धार में कहा गया है कि भव्य स्त्रियाँ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, संभिन्न श्रोतृत्व, चारणऋद्धि, चौदह पूर्ववत्त्व गणधर, पुलाक तथा आहारकऋद्धि, ये दस अवस्थाएँ प्राप्त नहीं कर सकतीं ।५६ यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन कहते हैं कि यद्यपि स्त्रियों में वाद आदि लब्धियाँ नहीं होतीं, वे जिनकल्प और मन:पर्ययज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकतीं, तो भी उनके मोक्ष का अभाव नहीं है। यदि 'वाद' आदि लब्धियों के अभाव में स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति असंभव होती, तो आगम में जैसे जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जिनकल्प आदि के विच्छेद का उल्लेख किया गया है, वैसे ही स्त्रीमुक्ति के अभाव का भी उल्लेख किया जाता। ५७ यहाँ शाकटायन ने स्त्रियों में वाद आदि लब्धियों की योग्यता का अभाव स्पष्टतः स्वीकार किया है । वादऋद्धि या वादित्वऋद्धि उस ऋद्धि को कहते हैं, जिससे बहुवाद के द्वारा शक्रादि के पक्ष को भी निरुत्तर कर दिया जाता है। ५८ वादादि ऋद्धियों में प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि भी समाविष्ट है । अतः सिद्ध है कि स्त्रियों को प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि की प्राप्ति का निषेध श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय तीनों आम्नायों में किया गया ५५. पगदीए सुदणाणावरणाए वीरियंतराया ए । उक्कस्सखवोवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ॥ ४ / १०२६ ॥ पण्णसवर्णाद्धिजुदो चोद्दसपुव्वीसु विसयसुहुमत्तं । सव्वं हि सुदं जाणदि अकअज्झअणो वि णियमेणं ॥ ४ / १०२७ ॥ तिलोयपण्णत्ती / द्विखं./ पृ. ३०६ । ५६. देखिए, पादटिप्पणी ५२ । ५७. वादविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च । जिनकल्प-मन:पर्ययविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ ७ ॥ वादादिलब्ध्यभाववदभविष्यद्यदि च सिद्ध्यभावोऽपि । तासामवारयिष्यद्यथैव जम्बूयुगादारात् ॥ ८ ॥ स्त्रीनिर्वाण - प्रकरण | ५८. सक्कादिं पि विपक्खं बहुवादेहिं णिरुत्तरं कुणदि । परदव्वाइं गवेसइ वादित्तबुद्धी ॥ ४ / १०३२ ॥ तिलोयपण्णत्ती । For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ है। इसलिए श्री हरिभद्रसूरि का यह कथन आगमसम्मत नहीं है कि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होते ही स्त्रियों को चौदह पूर्वो के अर्थ का बोध हो जाता है। तात्पर्य यह कि स्त्रियों को चौदहपूर्वो का न तो शब्दबोध संभव है, न अर्थबोध, अतः शुक्लध्यान भी संभव नहीं है। फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेधक है। ग-और जो कहा गया है कि स्त्री को केवलज्ञान होता है और केवलज्ञान चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान के बिना संभव नहीं है तथा स्त्री को द्वादशांग-आगम के अध्ययन का निषेध है, अतः अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध होता है कि स्त्री को द्वादशांग-अध्ययन के बिना ही चतुर्दशपूर्वो का अर्थबोध हो जाता है, यह अन्यथानुपपत्तिजन्य निष्कर्ष श्वेताम्बर-आगमों में तो उपपन्न हो जाता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नहीं होता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री को केवलज्ञान होने का कहीं भी उल्लेख नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र में उसकी उपपत्ति के लिए स्त्री में चतुर्दशपूर्त के ज्ञान को येन केन प्रकारेण उपपादित करने की आवश्यकता नहीं है। श्री हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बराचार्यकृत मानकर उसमें स्त्री को केवलज्ञान-प्राप्ति की मान्यता अपने मन से आरोपित कर दी है और स्त्री में चतुर्दशपूर्वो का ज्ञान उपपादित करने के लिए उपर्युक्त अन्यथानुपपत्ति का आश्रय लिया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री को केवलज्ञानप्राप्ति के उल्लेख का अभाव सिद्ध करता है कि सूत्रकार को यह विचार मान्य नहीं है कि स्त्री को द्वादशांग-आगम का अध्ययन किये बिना ही चतुर्दशपूर्वो के अर्थ का अवबोध हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' सूत्र स्त्रीमुक्ति के निषेध का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। घ-तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित बाईस परीषहों में स्त्रीपरीषह का उल्लेख भी यह सिद्ध करता है कि सूत्रकार केवल पुरुषमुक्ति के पक्षधर हैं, उन्हें स्त्रीमुक्ति अमान्य है। यदि उन्हें स्त्रीमुक्ति मान्य होती, तो स्त्रीपरीषह के समकक्ष पुरुषपरीषह का भी उल्लेख करते। डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी तत्त्वार्थसूत्र के स्त्रीमुक्तिविरोधी होने के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया है, जिस पर आक्षेप करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं"यह भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य तथ्य है कि सारे उपदेश-ग्रन्थ एवं नियम-ग्रन्थ पुरुष को प्रधान करके ही लिखे गये हैं, किन्तु इससे स्त्री की उपेक्षा या अयोग्यता सिद्ध नहीं होती है। समन्तभद्र आदि दिगम्बर आचार्यों ने 'श्रावकाचार' लिखे हैं तथा चतुर्थ अणुव्रत को स्वदारसन्तोषव्रत कहा है एवं उस सम्बन्ध में सारे उपदेश एवं नियम पुरुष को लक्ष्य करके ही कहे, तो इससे क्या यह मान लिया जाये कि उन्हें स्त्री का व्रतधारी श्राविका होना भी स्वीकार्य नहीं?" (जै.ध.या.स./पृ.३४७-३४८)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २८३ इस विषय में मेरा निवेदन है कि यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकार ने श्रावकधर्म का निरूपण करते समय पुरुषोचित व्रतों का ही विधान किया है, किन्तु चूँकि जैनों के तीनों सम्प्रदायों (दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय) को पुरुष के समान स्त्री का भी श्राविका होना स्वीकार्य है, इसलिए श्रावकधर्म के पुरुषोचित व्रतों के तुल्य स्त्रीजनोचित व्रतों का युक्तिबल से अनुमान कर लिया जाता है। किन्तु स्त्रियों का मुक्त होना जैनों के सभी सम्प्रदायों को मान्य नहीं है, केवल श्वेताम्बरों और यापनीयों को मान्य है, दिगम्बरों को नहीं, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में मुनिधर्म के अन्तर्गत जिन पुरुषोचित व्रतनियमों का विधान किया गया है, उनसे तत्समकक्ष स्त्रीजनोचित व्रतनियमों का युक्तिबल से स्वतः अनुमान लगाना युक्तिसंगत एवं न्यायोचित नहीं है। वहाँ स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया है, यह तभी सिद्ध हो सकता है जब मुनिव्रतों के समकक्ष स्त्रीव्रतों का भी शब्दतः या युक्तितः प्रतिपादन उपलब्ध हो। यद्यपि मूलाचार स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक नहीं है, तो भी उसमें मुनियों और आर्यिकाओं के लिए विशिष्ट नियमों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है। उदाहरणार्थ, मुनियों के लिए जिस समाचार या सामाचार का निर्देश किया गया है, आर्यिकाओं को उसे ज्यों का त्यों ग्रहण न कर अपनी स्त्रीपर्याय के योग्य ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है। (गा. १८७)। मुनि को यथाजातरूपधारी कहा गया है और आर्यिकाओं को अविकारवत्थवेसा (विकाररहितवस्त्र और वेशधारी-गा. १९०)। आहारादि के लिए आर्यिकाओं को तीन, पाँच या सात के समूह में जाने का आदेश किया गया है, (गा. १९४ / पृ. १५८) जब कि मुनि अकेला भी जा सकता है। जहाँ मुनियों को गिरिकन्दरा, श्मशान, शून्यागार और वृक्षमूल में ठहरने का विधान मिलता है, वहाँ आर्यिकाओं को उपाश्रय में ही रहने का आदेश है। (गा.९५२, ९५४/ पृ. १३८-१३९)। स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक श्वेताम्बरीय-आगम आचारांगादि में भी भिक्खु एवं भिक्खुणियों अथवा निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थियों के लिए विशिष्ट नियम अलग-अलग निर्दिष्ट किये गये हैं। जैसे आचारांग में कहा गया है कि जो निर्ग्रन्थ (साधु) तरुण हो, युवक हो, बलवान् हो, नीरोग हो, दृढ़संहननवाला हो, उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं। किन्तु निर्ग्रन्थियों को चार संघाटिकाएँ रखनी चाहिए : एक दो हाथ विस्तारवाली, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण। ५९ बृहत्कल्पसूत्र में निर्देश किया गया है कि "सामान्यरूप से जिस उपाश्रय का मार्ग गृहस्थ के घर में से होकर जाता हो, वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का ठहरना उचित नहीं है, परन्तु विशेष ५९. "जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा, णो बिइयं । जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा एगं दुहत्थ-वित्थारं, दो तिहत्थवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं।" आचारांग २/५/१/१४१ । For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ परिस्थिति में निर्ग्रन्थी को ऐसे उपाश्रय में ठहरने की अनुज्ञा है।" ६० जहाँ भिक्खु और भिक्खुणियों के लिए नियम एक जैसे हैं, वहाँ दोनों को सम्बोधित करके निर्देश किया गया है।६१ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा नहीं है। उसमें अनगारधर्म के अन्तर्गत केवल पुरुषोचित व्रतनियमों का ही विधान किया गया है, स्त्रीजनोचित व्रत-नियमों का भूल से भी नाम नहीं लिया गया है। उदाहरणार्थ, नाग्न्यपरीषह पुरुष पर ही चरितार्थ होता है, स्त्री पर नहीं। स्त्री पर घटित होनेवाला इसके समकक्ष कोई परीषह वर्णित नहीं किया गया है। स्त्रीपरीषह भी ऐसा ही है। इसके साथ स्त्री पर घटित होने वाले पुरुषपरीषह का उल्लेख नहीं किया गया। शीत, उष्ण, दंशमशक परीषह भी सवस्त्र स्त्री के अनुरूप नहीं हैं। जहाँ आचारांगानुसार भिक्खुणियों के लिए सान्तरोत्तर प्रावरणीय की व्यवस्था हो, चार संघाटिकाओं को रखने की अनुमति हो, तीन-तीन सूती-ऊनी कल्पों के प्रयोग की सुविधा दी गई हो, वहाँ स्त्रियों पर शीत, उष्ण, दंशमशक परीषह स्वप्न में भी घटित नहीं हो सकते। ब्रह्मचर्यमहाव्रत की भावनाओं में पुरुषों के अनुरूप स्त्रीरागकथाश्रवण और तन्मनोहराङ्ग-निरीक्षण के त्याग का ही वर्णन है, स्त्रियों के अनुरूप पुरुषरागकथाश्रवण तथा पुरुषमनोहरांग-निरीक्षण के त्याग का कथन नहीं है। अचौर्यमहाव्रत की शून्यागारवास और विमोचितवास भावनाएँ भी स्त्री के विरुद्ध हैं। दिगम्बर-आगम मूलाचार और श्वेताम्बर-आगम आचारांग में आर्यिकाओं के लिए उपाश्रय में ही रहने का विधान किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित वैयावृत्यतप के दशभेद आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ की सेवा स्त्रीमहाव्रतियों के अनुकूल नहीं हैं। पुलाक, वकुश आदि पाँच भेद मुनियों में ही बतलाए गये हैं, श्रमणियों में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार एकमात्र नग्न पुरुषशरीर को ही मोक्षसाधक लिंग मानते हैं, इसीलिए उन्होंने नग्नपुरुष-विषयक परीषहों का ही उल्लेख किया है, अचौर्य एवं ब्रह्मचर्य महाव्रतों की भावनाएँ भी साधु के ही अनुरूप बतलायी हैं, साधुओं के ही पुलाक आदि पाँच भेदों का वर्णन किया है और साधुओं की सेवा को ही वैयावृत्यतप कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका, इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जब कि भाष्य में श्रमणी (१०/७/पृ. ४४६), निर्ग्रन्थी - ६०. "नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झं मझेणं गंतुं वत्थए। कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झं मज्झेणं गंतुं वत्थुए ॥" बृहत्कल्पसूत्र / १/३३-३४ । ६१. "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा---।" आचारांग/२/१/१/१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २८५ और प्रवर्तिनी (९/२४ / पृ. ४१९) शब्द प्रयुक्त हुए हैं। तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं का निर्देश करनेवाले सूत्र में तीर्थंकर शब्द का ही प्रयोग है तीर्थकरी का नहीं, जब कि भाष्यकार क्षेत्रकालगति इत्यादि (१०/७/ पृ.४४९) सूत्र के भाष्य में 'तीर्थकरी' शब्द प्रयुक्त करते हैं, यथा-'एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि।' इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में अनगारधर्म के अन्तर्गत केवल पुरुष पर चरितार्थ होनेवाले व्रतनियमों का वर्णन किया जाना, स्त्री पर चरितार्थ होने वाले एक भी व्रतनियम का निर्देश न मिलना, यहाँ तक कि भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका शब्द का भी ग्रन्थ में कहीं दिखाई न देना, इस बात के सबूत हैं कि ग्रन्थ स्त्रीमुक्तिविरोधी ग्रन्थकार की कृति है। इसके विपरीत भाष्य स्त्रीमुक्तिसमर्थक लेखनी से उद्भूत हुआ है। यह सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायभेद का अन्यतम प्रमाण है। १.५. अपरिग्रह की परिभाषा वस्त्रपात्रादिग्रहण-विरोधी ___'मूर्छा परिग्रहः' सूत्रगत मूर्छा शब्द किसी एक अर्थ का वाचक नहीं है। यह लोभकषाय के बहुमुखी परिणमनों की अर्थपरम्परा को अपने गर्भ में समाये हुए है। दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में इसे अनेक अर्थों का वाचक बतलाया गया है। कसायपाहुड में इसके निम्नलिखित बीस अर्थ वर्णित हैं : काम, राग, निदान, छन्द, सुत या स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता (शाश्वत), प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा। (क.पा./ भाग १२/गा. ८९-९०/ पृ. १८९)। श्वेताम्बर-आगम समवायांग के अनुसार 'मूर्छा' शब्द लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा गृद्धि, तृष्णा, भिद्या, अभिद्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दी और रागी का वाचक है। (समवाय ५२)। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भी कहा है कि इच्छा, प्रार्थना, काम, अभिलाष, कांक्षा, गाय॑ और मूर्छा ये एक ही अर्थ के सूचक हैं। ६२ आचार्य कुन्दकुन्द ने 'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स.सा./गा. २१०) कहकर इच्छा को मूर्छा का लक्षण बतलाया है। - पूज्यपाद स्वामी 'मूर्छा' शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-"गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य पदार्थों के तथा रागादिभावरूप अभ्यन्तर उपधियों के संरक्षण, अर्जन, संस्कार आदि कार्यों का नाम मूर्छा है।" (स.सि./७/१७)। वे ६२. "इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध्यं मूर्छत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ७/१२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ ममत्व को भी मूर्छा बतलाते हैं। (स.सि./७/१७/६९५/२७४) आचार्य 'अमृतचन्द्र ने भी ममत्वपरिणाम को मूर्छा कहा है-"ममत्वपरिणामलक्षणाया मूर्छायाः।" (त.दी./ प्र.सा. ३/२१)। मूर्छा के इन विभिन्न अर्थों के आधार पर हम संक्षेप में यह कह सकते हैं कि परद्रव्य को पाने की इच्छा, उसके संरक्षण की चिन्ता, उसे सजाने-सँवारने की लालसा उसे संचित करने और बढ़ाने की तृष्णा तथा उसके साथ अपनेपन का भाव (ममत्व) रखना मूर्छा कहलाता है। ____ अभिप्राय यह कि परद्रव्य के प्रति केवल ममत्व होने का नाम मूर्छा नहीं है, अपितु उपर्युक्त सभी भाव मूर्छा की परिभाषा में गर्भित हैं। इसलिए तत्त्वार्थसूत्रकार को भी 'मूर्छा परिग्रहः' सूत्र में मूर्छा शब्द का उपर्युक्त सभी भावों से समन्वित अर्थ अभिप्रेत है। मुख्यतः परद्रव्य की इच्छा का नाम मूर्छा है। अतः ‘मुनि की दृष्टि से किन पदार्थों को पाने की इच्छा मूर्छा की परिभाषा में गर्भित है, इसे तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय, शीतोष्णदंशमशकादि-परीषहजय तथा क्षुधातृषा-रोगपरीषहजय इन मुनिगुणों के उल्लेख द्वारा स्पष्ट कर दिया है। अर्थात् जो वस्तु इन परीषहों को जीतने की बजाय इनसे बचने में सहायक हो, उसे पाने की इच्छा मुनि की अपेक्षा मूर्छा की परिभाषा में आती है। इससे स्पष्ट होता है कि वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपुञ्छन आहार, जल, औषधि आदि पदार्थों का उपयोग तथा उनकी याचना उपर्युक्त विविध परीषहों से बचने में सहायक है, अतः मुनि के मन में इन पदार्थों की इच्छा होना मूर्छा है। इतना भेद है कि उचित समय पर, उचित विधि से, उचित आहारजल औषधि प्राप्त न होने पर जो क्षुधादि की पीड़ा होती है, उसे क्षुधादिपरीषह कहते हैं। उसे समभाव से सहना क्षुधातृषारोग-परीषहजय है। उसे सहन न कर आहारादि की इच्छा करना मूर्छा का लक्षण है। किन्तु ज्ञान-संयम-ध्यान की सिद्धि के लिए जिस काल में आहारादि ग्रहण करने की शास्त्राज्ञा है, उस काल में होनेवाली क्षुधादि की पीड़ा परीषह नहीं कहलाती। इसीलिए उसे जीतने का उपदेश नहीं है, अपितु निवारण का उपदेश है। अतः उसके निवारण हेतु जो आहारादि की इच्छा होती है, वह मूर्छा की श्रेणी में नहीं आती। इसी प्रकार संयम के साधन होने से पिच्छीकमण्डलु ग्रहण करने की भी शास्त्राज्ञा है, अतः उनकी इच्छा भी मूर्छा नहीं है। किन्तु नाग्न्यपरीषह और शीतोष्णदंशमशकादि-परीषहों को जीतने का उपदेश है। इससे सिद्ध है कि मुनि को वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने की शास्त्राज्ञा नहीं है, अतः उनके ग्रहण की इच्छा मूर्छा है। इस प्रकार जिस मूर्छा में वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि को धारण करने तथा उन्हें माँगने की इच्छा समाविष्ट है, उसे परिग्रह का लक्षण तथा उसके पूर्ण परित्याग को Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २८७ अपरिग्रह का लक्षण प्रतिपादित कर तत्त्वार्थसूत्रकार ने सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति, चारों का निषेध कर दिया है। इसके विपरीत भाष्यकार ने इन चारों की मुक्ति तथा स्त्री के तीर्थंकरी होने का कथन किया है। यह भी दोनों में गम्भीर सम्प्रदायभेद होने का प्रमाण है । डॉ० सागरमल जी का यह कथन समीचीन नहीं है कि 'मूर्च्छा परिग्रहः ' सूत्र में केवल भावपरिग्रह को परिग्रह माना गया है, द्रव्यपरिग्रह को नहीं। (जै.ध.या.स./ पृ. ३१५)। यतः परद्रव्य की इच्छा का नाम मूर्च्छा है और परद्रव्य की इच्छा होने पर ही बाह्य वस्तु ग्रहण की जाती है, अतः बाह्य वस्तु का ग्रहण मूर्च्छा के सद्भाव का लक्षण है । इस प्रकार भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह में कारणकार्य-सम्बन्ध होने से 'मूर्च्छा' शब्द भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों का सूचक है। इसकी पुष्टि इस बात होती है कि सूत्रकार ने परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतीचारों में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास और कुप्य (वस्त्र एवं पात्र) इन बाह्य वस्तुओं के परिमाण का उल्लंघन करने को परिग्रह - परिमाण - अणुव्रत का अतीचार कहा है । (त. सू./ श्वे./७/२४)। भाष्यकार ने इसे ही इच्छापरिमाणव्रत का अतीचार बतलाया है। ६३ इससे स्पष्ट होता है कि इच्छा का परिमाण करने पर क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य परिग्रह का परिमाण होता है और इच्छापरिमाण का अतिक्रम करने पर क्षेत्रादि बाह्यपरिग्रह के परिमाण का अतिक्रम होता है। इस तरह सूत्रकार ने क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य वस्तुओं के परिमाण को अपरिग्रह अणुव्रत कहकर उनके सर्वथा परित्याग को अपरिग्रहमहाव्रत कहा है। इससे सिद्ध है कि सूत्रकार ने शब्दतः भी द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह बतलाया है। तथा श्रावकों के लिए उपभोगपरिभोग- परिमाणव्रतरूप शिक्षाव्रत ६४ का विधान करके भी सूत्रकार ने द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह निरूपित किया है। इसके अतिरिक्त नाग्न्यपरीषहजय, शीतोष्णदंशमशक परीषहजय तथा याचनापरीषहजय को संवर - निर्जरा का हेतु बतलाकर भी द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह शब्द से द्योतित किया है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों को परिग्रह संज्ञा दी है। इतना ही नहीं नाग्न्यपरीषहजय को संवर और निर्जरा का हेतु कहकर अपरिग्रह महाव्रत के द्रव्यपक्ष की चरमसीमा भी स्पष्ट कर दी है। अतः 'मूर्च्छा परिग्रहः ' सूत्र दिगम्बरमत के ही अनुकूल है, श्वेताम्बरमत के नहीं । श्वेताम्बरमत के तो वह सर्वथा प्रतिकूल है। केवल वही नहीं, 'क्षेत्रवास्तुहिरण्य---' (त.सू. / श्वे. / ७ /२४) तथा ६३. " क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः --- इत्येते पञ्चेच्छापरिमाणव्रतस्यातिचारा भवन्ति ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / ७ / २४ | " ६४. “ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ।" तत्त्वार्थसूत्र / श्वेताम्बर / ७ / १६ । For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ उपभोगपरिभोगव्रत को शिक्षाव्रत निरूपित करनेवाला 'दिग्देशानर्थदण्डविरति --- (त.सू./ श्वे. /७/१६) सूत्र भी श्वेताम्बरमत के विरुद्ध है। १.६. तीर्थंकरप्रकृति-बन्धक हेतुओं की सोलह संख्या श्वेताम्बरमत- विरुद्ध तत्त्वार्थसूत्र (६/२४) में तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं की संख्या सोलह बतलायी गई है। दिगम्बरग्रंथ षट्खण्डागम में भी सोलह कारणों का ही निरूपण है । ६५ किन्तु श्वेताम्बर - आगम ज्ञातृधर्मकथांग में बीस कारण बतलाये गये हैं । ६५ तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं के विषय में तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम का अनुसरण किये जाने से सिद्ध होता है कि वे दिगम्बरपरम्परा के अनुयायी हैं, जब कि भाष्यकार सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति के समर्थक होने से श्वेताम्बरमतावलम्बी हैं। यह उन दोनों के सम्प्रदायभेद का एक अन्य प्रमाण है । सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायों की भिन्नता का इतना स्पष्ट प्रमाण देखकर डॉक्टर सागरमल जी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । उन्हें इस प्रमाण को झूठा सिद्ध करनेवाला कोई प्रतिपक्षी प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ । इसलिए उन्होंने अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उनका ब्रह्मास्त्र है किसी भी अंश को प्रक्षिप्त घोषित कर देना। डॉक्टर साहब ने अपने मन से कल्पित कर लिया कि श्वेताम्बर - आगमों में भी पहले सोलह कारण ही मान्य रहे होंगे, किन्तु निर्युक्तिकाल में बीस कारण निर्धारित कर दिये गये। फिर उन बीस कारणों का उल्लेख करनेवाली निर्युक्ति की गाथाएँ किसी ने ज्ञातृधर्मकथा में प्रक्षिप्त कर दीं। (जै. ध. या.स./ पृ. ३३१) । इस तरह सोलह कारणों को मूल तथा बीस कारणों को बाद में विकसित और प्रक्षिप्त घोषित कर डॉक्टर सा० ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि तीर्थंकरप्रकृति के सोलह बन्धहेतुओं का उल्लेख करनेवाले सूत्र की उपलब्धि से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का सिद्ध नहीं होता, अपितु सोलह हेतुओं के उल्लेख से भी श्वेताम्बरपरम्परा का ही सिद्ध होता है । किन्तु जिस विमलसूरिकृत पउमचरिय को डॉक्टर साहब वीरनिर्वाण सं० ५३० ( विक्रम की दूसरी शताब्दी) की रचना मानते हैं६६ उसमें भी बीस कारणों का उल्लेख मिलता है। उन गाथाओं को उन्होंने प्रक्षिप्त नहीं माना है, अपितु मौलिक मानकर उनके आधार पर 'पउमचरिय' को श्वेताम्बर ग्रन्थ सिद्ध किया है । वे लिखते हैं-" पउमचरियं (२ / ८२) में तीर्थंकरनामकर्म - प्रकृति के बन्ध के बीस कारण माने हैं। यह मान्यता आवश्यक नियुक्ति और ज्ञातृधर्मकथा के समान ही है। दिगम्बर एवं यापनीय दोनों ६५. देखिये, अध्याय ११ / प्रकरण ४ / शीर्षक ५ । ६६. देखिये, जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २२० । For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २८९ ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते रहे हैं, अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में एक साक्ष्य कहा जा सकता हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ. २१५)। इस कथन से दो बातें सिद्ध होती हैं। एक तो यह कि डॉक्टर साहब अपनी सुविधानुसार उसी बात को कहीं प्रक्षिप्त मान लेते हैं और कहीं मौलिक। दूसरी बात यह कि वे यहाँ स्वीकार करते हैं कि तीर्थंकरप्रकृति के बन्धक सोलह कारण दिगम्बरों में ही मान्य हैं, श्वेताम्बरों में नहीं। अतः तीर्थंकरप्रकृति के सोलह बन्धकारणों का कथन करनेवाले सूत्र के उल्लेख से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा से ही सम्बद्ध सिद्ध होता है, श्वेताम्बरपरम्परा से नहीं, यह डॉक्टर साहब की उपर्युक्त स्वीकृति से स्वतः सिद्ध हो जाता है। डाक्टर साहब लिखते हैं-"यह भी संभव है कि उमास्वाति की उच्च नागर शाखा प्रारम्भ में १६ कारण ही मानती हो।" (जै.ध.या.स./पृ. ३३१)। यहाँ 'यह भी संभव है' इन शब्दों से स्पष्ट है कि यह डॉक्टर साहब के अपने मन की कल्पना है, किसी प्रमाण से सिद्ध तथ्य नहीं है। अतः १६ कारणों को काल्पनिक आधार पर श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य मानकर तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ मानना प्रामाणिक नहीं है। निष्कर्षतः यही सिद्ध होता है कि तीर्थंकरप्रकृति के बन्धक सोलह कारण दिगम्बरपरम्परा में ही मान्य हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्र में सोलह कारणों का उल्लेख होना सिद्ध करता है कि वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र का सोलहकारण-प्रतिपादक-सूत्र सूत्रकार और भाष्यकार में सम्प्रदायभेद का उद्घाटन करता है। १.७. सूत्र में केवलिभुक्ति-निषेध तत्त्वार्थसूत्र के 'एकादश जिने' (९/११) सूत्र में कहा गया है कि केवली भगवान् को वेदनीयकर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह होते हैं। इसके आधार पर श्वेताम्बर आचार्य और विद्वान् यह दावा करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में केवली का कवलाहार ग्रहण करना स्वीकार किया गया है, अतः वह श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार यह कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में केवली को क्षुधादिपरीषह होने का वर्णन तो है, किन्तु वे कवलाहार ग्रहण करते हैं, यह कहीं नहीं कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार तो केवली को क्षुधादि की पीड़ा होती ही नहीं है, क्योंकि उसमें आर्त्तभाव की उत्पत्ति प्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक ही बतलायी गयी है।६७ तथा तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार क्षयोपशमजन्य ६७. "तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।" त.सू./९/३४, "तदेतदातध्यानमविरतदेशविरतप्रम त्तसंयतानामेव भवति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/३५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ भावेन्द्रियों का अभाव हो जाने से केवली को द्रव्येन्द्रियजन्य पीड़ा हो भी नहीं सकती। इसके अतिरिक्त घातिचतुष्टय का क्षय हो जाने से केवली अनन्तसुख की अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, जिससे उन्हें क्षुधादि की पीड़ाएँ संभव नहीं हैं। क्षुधादिपीड़ा का संभव न होना इस बात से भी सिद्ध है कि केवली को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा नहीं होती। अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा न होने का प्रमाण यह है कि केवली में इच्छा (लोभ, राग)६८ के जनक मोहनीयकर्म का अस्तित्व ही नहीं होता। उसका क्षय होने पर ही केवली-अवस्था प्राप्त होती है। इस तथ्य का निरूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्" (१०/१) सूत्र में किया है। कवलाहार ग्रहण न करने से केवली का अकालमरण भी नहीं हो सकता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने चरमदेहधारियों की अकालमृत्यु का निषेध किया हैं"औपपादिकचरमोत्तमदेहासङ्ख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः" (२/५३)।६९ ___ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मोहनीय के तीव्रोदय के बिना केवल असातावेदनीय के उदय से क्षुधादिपीड़ाएँ उत्पन्न नहीं होतीं, जैसे तीव्रमोहोदय के अभाव में केवल वेदकर्म के उदय से कामपीड़ा का प्रादुर्भाव नहीं होता। इसका प्रतिपादन तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने ‘परेऽप्रवीचाराः' (४/९) सूत्र द्वारा किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों में वेदकर्म का उदय होता है, तो भी उनमें मैथुनेच्छा उत्पन्न नहीं होती। इसका कारण यही है कि वहाँ मोहनीय का मन्दोदय होता है। इसी प्रकार उन्होंने नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त वेदकर्म का उदय बतलाया, तथापि छठे गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक के मुनियों को प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि शब्दों से अभिहित करते हुए ब्रह्मचर्य-महाव्रतधारी कहा है। इसका भी कारण यही है कि उक्त गुणस्थानों में मोहोदय की मन्दता के कारण वेदकषाय का उद्रेक नहीं होता। "शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः"-त.सू./९/३७ (श्रुतकेवली को धर्मध्यान और आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं) इस सूत्र के अनुसार पूज्यपादस्वामी ने श्रुतकेवलियों के श्रेण्यारोहण के पूर्व अर्थात् प्रमत्तसंयत एव अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में धर्मध्यान तथा ६८. "लोभो रागो गायमिच्छा मूर्छा स्नेहः काङ्क्षाभिष्वङ्ग इत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगम भाष्य।८/१०/ पृ. ३६३। ६९. इससे श्वेताम्बरपक्ष की यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि कवलाहार के अभाव में केवली का शरीर नष्ट हो जायेगा-"एवं केवलिनोऽपि च शरीरिणो भुक्तिविरहिता 'देहे' शरीरे स्थितिभावं स्थैर्यं नैव लभन्ते, शरीरात्पृथग् भवन्तीत्यर्थः।" प्रवचनपरीक्षा १/२/ ४८-४९/ पृ.१०६। For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९१ उपशमक और क्षपक श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान बतलाये हैं। (स.सि./९/ ३७)। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरीय पाठ (९/३७-३९) में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान पर्यन्त धर्मध्यान तथा उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय गुणस्थानों में धर्मध्यान के अतिरिक्त आदि के दो शुक्लध्यान भी क्रमशः बतलाये हैं। अप्रमत्तसंयत (७वाँ), अपूर्वकरण (८ वाँ) अनिवृत्तिकरण (९ वाँ) और सूक्ष्मसाम्पराय (१०वाँ), इन गुणस्थानों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है७° और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का भी उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है। तात्पर्य यह कि इन गुणस्थानों की सम्पूर्ण अवधि में एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान ही होता है। अतः वहाँ यथासंभव असातावेदनीय का उदय रहते हुए भी क्षुधातृषा की पीड़ा उत्पन्न नहीं होती, अन्यथा एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान असंभव है। इस तरह तत्त्वार्थसूत्रकार ने मन्दमोहोदय की अवस्था में असातावेदनीय का उदय रहते हुए भी क्षुधातृषा की पीड़ा का अभाव बतलाया है। अतः जब मोहनीय के मन्दोदय में भी असातावेदनीय और वेदकर्म क्षुधापीड़ा एवं कामपीड़ा उत्पन्न करने में असमर्थ हैं, तब मोहनीय का क्षय हो जाने पर तो इन पीड़ाओं की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। तत्त्वार्थसूत्रकार ने कवलाहार के अभाव में केवली के शरीर की स्थिति और वृद्धि के हेतु पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने केवली को क्षुधापीड़ा तथा आहारेच्छा से रहित बतलाते हुए भी "एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः" (त.सू./२/३०)७१ सूत्र के द्वारा आहारक कहा है। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों की उत्पत्ति एवं स्थिति के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं। इसे जो ग्रहण करता है वह आहारक कहलाता है और ग्रहण न करनेवाला अनाहारक। २ यतः केवली भगवान् क्षुधापीड़ा एवं आहारेच्छा के अभाव में भी आहारक कहे गये हैं, इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार उनका आहार कवलाहार से भिन्न होता है। आगम में आहार पाँच प्रकार के बतलाये गये है-नोकर्माहार, कर्माहार, ७०. षट्खण्डागम/ पु. ४/१,५,१९-२९ / पृ.३५०-३५५ । ७१. विग्रहगति (भवान्तरगमन) के समय एक मोड़वाली गति में जीव एक समय तक, दो मोड़वाली गति में दो समय तक और तीन मोड़वाली गति में तीन समय तक अनाहारक रहता है, शेष समय में आहारक। यहाँ सूत्रकार ने अयोगकेवली को छोड़ कर सभी सशरीर जीवों को आहार ग्रहण करनेवाला कहा है, जिनमें सयोगकेवली भी आ जाते हैं। सयोगकेवली केवल समुद्धात के समय अनाहारक होते हैं, जैसा कि निम्न गाथा में कहा गया है -विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा॥ ६६६ ॥ गोम्मटसार-जीवकाण्ड। ७२. "त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः। तदभावादनाहारकः।" स.सि./ २/३०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ कवलाहार, लेप्याहार, ओज-आहार और मानसिक आहार। ७३ तीर्थंकर या केवली के शरीर को शरीरस्थितिकारक नोकर्माहार प्राप्त होता है। नारकी जीवों का आहार पुद्गलकर्म है, क्योंकि नारकायु का उदय ही उनकी देह की स्थिति का कारण है। देव मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। मनुष्य और पशु कवलाहारी होते हैं। पक्षियों के अण्डे ओज-आहार से और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव जलादिरूप लेप-आहार से जीवित रहते हैं।७४ पूज्यपाद स्वामी ने क्षायिकलाभ का उदाहरण देते हुए केवली के नोकर्माहार का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है "लाभान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्माः अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सम्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभः।" (स.सि./ २ / ४)। अनुवाद-"समस्त लाभान्तरायकर्म का क्षय होने पर कवलाहाररहित केवलियों के साथ जिस योग्यता के कारण शरीर में शक्ति का संचार करनेवाले तथा सामान्य मनुष्यों के लिए दुर्लभ परमशुभ और सूक्ष्म अनन्त पुद्गल प्रतिसमय सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, वह क्षायिकलाभ है।" इस नोकर्माहार से केवलियों का शरीर आयुपर्यन्त स्थित रहता है तथा कुछ अधिक आठ वर्ष के केवली भगवान् का शरीर भी वृद्धि को प्राप्त होता है। अतः श्वेताम्बरपक्ष की ओर से कवलाहार के समर्थन में प्रस्तुत किया गया यह हेतु निरस्त हो जाता है कि भोजन के अभाव में केवली का शरीर नष्ट हो जायेगा और कुछ अधिक आठ वर्ष के केवली भगवान् सदा शैशवावस्था में ही रहे आयेंगे, क्योंकि उनके शरीर की वृद्धि नहीं हो पायेगी। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार ने विभिन्न सूत्रों के द्वारा केवलिभुक्ति का निषेध किया है। ७३. णोकम्म-कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहोणेयो॥ ११०॥ णोकम्मं तित्थयरे कम्मं णारेय माणसो अमरे। णरपसुकवलाहारो पंखी उज्जो णगे लेओ॥ १११॥ भावसंग्रह / देवसेनाचार्य। ७४. "न खलु कवलाहारेणैवाहारित्वं जीवानाम् , एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशानामभुजानतिर्यग्मनुष्याणां चानाहारित्वप्रसङ्गात्।" प्रमेयकमलमार्तण्ड/द्वि.भा./६ कवलाहार विचार/पृ. १८०। ७५. "एवं केवलिनोऽपि च शरीरिणो भुक्तिविरहिता 'देहे' शरीरे स्थितिभावं स्थैर्यं नैव लभन्ते, शरीरात्पृथग् भवन्तीत्यर्थः, तथा वृद्धिं साधिकवर्षाष्टकः कश्चित् सञ्जातकेवलः तदवस्थ एव भवेत् , शैशवावस्थमेव स्यात्, 'पुद्गलैरेव पुद्गलोपचय' इति वचनात्, आहाराभावे (सचेतनस्य) तनोः शरीरस्य वृद्धरसम्भवादिति।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति १/२/४८-४९ / पृ. १०६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २९३ आचार्य जयसेन ने तत्त्वार्थसूत्र के ही आधार पर केवली का कवलाहारी होना असम्भव बतलाया है। प्रवचनसार (गा. १ /२० पृ. २५ - २६) की तात्पर्यवृत्ति में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के माध्यम से वे अपनी बात इस प्रकार रखते हैं पूर्वपक्ष - " केवली कवलाहार करते हैं, क्योंकि वे हमारे समान ही औदारिक शरीरधारी होते हैं अथवा उनके भी असातावेदनीय कर्म का उदय होता है। उत्तरपक्ष—“केवली भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता, अपितु परमौदारिक होता है, जैसा कि कहा गया है शुद्धस्फटिकसङ्काशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ॥ “तथा असातावेदनीय का उदय रहता है, तो भी जैसे धान आदि के बीज जल आदि सहकारी कारणों के सहयोग से ही अंकुरोत्पत्ति में समर्थ होते हैं, वैसे ही असातावेदनीय कर्म भी मोहनीयकर्मरूप सहकारी कारण के सहयोग से ही क्षुधादिकार्य उत्पन्न करने में समर्थ होता है, क्योंकि 'मोहस्स बलेण घाददे जीवं' (मोह के बल से ही जीव का घात होता है - गो. क . / गा. १०) यह आगमवचन है। "यदि वेदनीयकर्म मोहनीय के उदयाभाव में भी क्षुधादिपरीषह उत्पन्न करने में समर्थ हो, तो वह केवली में वध, रोग आदि परीषह भी उत्पन्न कर सकता है, किन्तु नहीं करता, जब कि वध, रोग आदि परीषह भी वेदनीय-कर्मोदय-जन्य ही बतलाये गये हैं। इससे सिद्ध है कि जैसे मोहनीयकर्म के उदयाभाव में वेदनीयकर्म का उदय केवली में वध, रोग आदि परीषह उत्पन्न नहीं कर सकता, वैसे ही क्षुधातृषा परीषह भी उत्पन्न नहीं कर सकता । 'भुक्त्युपसर्गाभावात्' (केवली के भोजन व उपसर्ग नहीं होते - नन्दीश्वरभक्ति / ४० ) यह शास्त्रवचन भी इसमें प्रमाण है । "केवली को कवलाहारी मानने में अन्य अनेक दोष भी हैं। उदाहरणार्थ यदि यह माना जाय कि उन्हें क्षुधा की बाधा होती है, तो क्षुधा से उनकी शक्ति का क्षीण होना भी मानना पड़ेगा। इससे उनमें अनंतवीर्य न होने का दोष आता है। इसी प्रकार यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि वे क्षुधा से दुःखी होते हैं, इससे उनमें अनन्तसुख के अभाव का दोष आता है। इसके अतिरिक्त जिह्वेन्द्रिय के द्वारा कवलाहार ग्रहण करने से मतिज्ञानी होने का प्रसंग उपस्थित होता है, जिससे उनमें केवलज्ञान के अभाव की दोषापत्ति होती है । 44 ' तथा केवली में क्षुधा के अभाव को सिद्ध करनेवाले अन्य कारण भी हैं। जैसे, असातावेदनीय के उदय की अपेक्षा सातावेदनीय का उदय अनन्तगुणात्मक होता For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० १ है, इसलिए जैसे शक्कर के ढेर में नीम के कण का पता नहीं चलता, वैसे ही अनन्तगुणित सातावेदनीय के उदय में असातावदेनीय के उदय का अनुभव नहीं होता । और जैसे प्रमत्तसंयतादि मुनि वेदोदय के होने पर भी मोह के मन्दोदय के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी ही रहते हैं, उन्हें स्त्रीपरीषह की बाधा नहीं होती तथा जैसे नवग्रैवेयक आदि के अहमिन्द्र वेदोदय के सद्भाव में भी मन्दमोहोदय के कारण स्त्रीबाधा से रहित होते हैं, वैसे ही केवली भगवन् असातावदेनीय के उदय में भी सम्पूर्ण मोहनीय का अभाव हो जाने से क्षुधाबाधा से मुक्त होते हैं। पूर्वपक्ष - " आगम में आहारकमार्गणा के प्रकरण में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों के जीव आहारक होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवली आहार ग्रहण करते हैं। 44 उत्तरपक्ष ' यह कथन भी उचित नहीं है । आगम में छह प्रकार के आहार बतलाये गये हैं णोकम्म- कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणो विय कमसो आहारो छव्विहो णेयो ॥ " इनमें से नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक कहा गया है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं। जिन परमाणुओं के ग्रहण से शरीर की स्थिति बनी रहती है, उनके ग्रहण को आहार कहते हैं। ऐसी आहारवर्गणा के परमाणुओं का शरीर में प्रवेश होना नोकर्म - आहार कहलाता है । केवली भगवान् के शरीर में प्रतिसमय सूक्ष्म, सुरस, सुगन्ध, अन्य मनुष्यों के लिए अलभ्य, तथा कवलाहार के बिना भी कुछ कम पूर्वकोटि पर्यन्त शरीर की स्थिति बनाये रखनेवाले, सप्तधातुरहित परमौदारिकशरीर के नोकर्माहारयोग्य पुद्गल लाभान्तरायकर्म के पूर्णक्षय के फलस्वरूप आस्रवित होते रहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि नोकर्माहार की अपेक्षा ही केवली आहारक होते हैं। पूर्वपक्ष - " चलिए मान लिया कि आपकी कल्पना के अनुसार केवली का आहारकत्व और अनाहारकत्व नोकर्माहार की अपेक्षा से है, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं । किन्तु नोकर्माहार की अपेक्षा जीव को आहारक कहे जाने का प्रमाण क्या है? ७६ उत्तरपक्ष—“इसका प्रमाण है तत्त्वार्थसूत्र का " एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः " सूत्र । ( " एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः इति 'तत्त्वार्थे' कथितमास्ते । " - ता.वृ./प्र.सा. १ /२०/पृ. २५)। इस सूत्र में जीव को केवल विग्रहगति ( भवान्तरगमनकाल) में एक, दो या तीन समय ७६. “एकं द्वौ वाऽनाहारकः " तत्त्वार्थसूत्र / श्वेताम्बर / २ / ३१ । For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९५ तक अनाहारक (आहारक वर्गणाएँ ग्रहण न करनेवाला) बतलाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि शेष समय में वह आहारक होता है। कर्माहार (ज्ञानावरणदि कर्मपुद्गलों का ग्रहण) तो विग्रहगति में भी होता है, अतः विग्रहगति में नोकर्माहार ग्रहण न करने की अपेक्षा से ही जीव को अनाहारक कहा गया है। पूर्वभव को छोड़कर उत्तरभव में जाते समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होता है, अतः जीव नवीन शरीर धारण करने के लिए जो औदारिक, वैक्रियिक एवं आहारक, इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों की रचना के योग्य पुद्गल पिण्ड ग्रहण करता है, वह 'नोकर्माहार' कहलाता है। वह नोकर्माहार-ग्रहण विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक नहीं होता, शेष समय में होता है। यदि केवल कवलाहार की अपेक्षा जीव को आहारक माना जाय, तो भोजनकाल को छोड़कर सदैव अनाहारक रहने का प्रसंग आता है, केवल तीन समय तक अनाहारक रहने का नियम घटित नहीं होता। पूर्वपक्ष-"अनुमानप्रमाण से केवली कवलाहारी सिद्ध होते हैं। अनुमान इस प्रकार है-जैसे वर्तमान मनुष्य, मनुष्य होने के कारण कवलाहारी होते हैं, वैसे ही केवली भी मनुष्य हैं, अतः वे भी कवलाहारी होते हैं। उत्तरपक्ष-"यह अनुमान निर्दोष नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वकालीन पुरुषों में सर्वज्ञत्व और विशेषसामर्थ्य का अभाव सिद्ध होता है। अनुमान का उदाहरण देखिए-जैसे वर्तमान पुरुष मनुष्य होने के कारण सर्वज्ञ नहीं हैं, वैसे ही पूर्वपुरुष भी मनुष्य थे, अतः सर्वज्ञ नहीं थे। अथवा जैसे वर्तमान मनुष्यों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि वे मनुष्य हैं, वैसे ही राम-रावणादि में विशेषसामर्थ्य नहीं था, क्योंकि वे मनुष्य थे। मनुष्यत्व-हेतु पर आश्रित यह अनुमान आगमप्रमाण से बाधित है, क्योंकि पूर्वकालीन तीर्थंकरादि पुरुषों का सर्वज्ञ होना तथा राम-रावणादि पुरुषों का विशेषसामर्थ्यवान् होना आगमसिद्ध है। जिस प्रकार मनुष्यत्व के हेतु पर आधारित यह अनुमान निर्दोष नहीं है, उसी प्रकार मनुष्यत्व-हेतु के आधार पर केवली को कवलाहारी मानने का अनुमान भी निर्दोष नहीं है। "इसके अतिरिक्त यद्यपि आहारसंज्ञा छठे गुणस्थान तक कही गई है-'छट्ठो त्ति पढमसण्णा' (गो.जी./गा. ७०२/पृ. ९१९), तथापि सप्तधातुविहीन परमौदारिक शरीर से रहित प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती छद्मस्थ मुनि भी ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि देहममत्व के कारण। तब केवली भगवान् में तो ज्ञान, संयम, ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही विद्यमान रहते हैं, आहार बल से नहीं आते, अतः उन्हें आहार की आवश्यकता ही नहीं होती। यदि यह माना जाय कि केवली भगवान् देहममत्व के कारण कवलाहार ग्रहण करते हैं, तब तो वे For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ छद्मस्थों से भी हीन सिद्ध होंगे। अतः स्पष्ट है कि वे देहममत्व के कारण आहार ग्रहण नहीं करते। निष्कर्ष यह कि केवली भगवान् को न तो कवलाहार की आवश्यकता होती है, न ही वे उसे ग्रहण करते हैं। पूर्वपक्ष-"केवलज्ञान के अतिशय के कारण भगवान् का भोजन करना दिखाई नहीं देता, अदृश्य रहता है। उत्तरपक्ष-"तब तो परमौदारिक शरीर के कारण उन्हें भोजन के ही अनावश्यक होने का अतिशय क्यों नहीं हो सकता? प्रच्छन्नरूप से भोजन करने में तो मायाचार, दैन्यवृत्ति तथा पिण्डशुद्धि में वर्णित अन्य बहुत से दोष होते हैं।" इस तरह आचार्य जयसेन ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों के ही आधार पर केवली का कवलाहारी होना अयुक्तिमत् सिद्ध किया है। १.७.१. नाग्न्यपरीषह के उल्लेख से केवली का कवलाहारी होना निषिद्धइसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में संवरनिर्जरा के लिए नाग्न्यपरीषहजय की आवश्यकता बतलाये जाने से स्पष्ट है कि उसमें सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है। और श्वेताम्बराचार्यों ने यह स्वयं सिद्ध किया है कि सवस्त्रमुक्ति का निषेध होने पर केवलिभुक्ति का निषेध स्वयमेव हो जाता है। श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा के कर्ता उपाध्याय धर्मसागर जी शिवभूति को दिगम्बरमत का प्रवर्तक मानकर उस पर आक्षेप करते हुए लिखते हैं "अथोत्पन्नदिव्यज्ञाना अर्हन्तो न भिक्षार्थं व्रजन्ति, साध्वानीतान्नादिभुक्तौ च सप्तविधः पात्रनिर्योगोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः स्यात्। तथा च नाग्न्यव्रतं स्त्रीमुक्तिनिषेधश्चेत्युभयमपि दत्ताञ्जल्येव स्यादिति विचिन्त्य शिवभूतिना केवलिनो भुक्तिनिषिद्धा।" (प्रव.परी./ पातनिका/१/२/४३/पृ. १०४)। अनुवाद-"केवलज्ञान होने पर अरहन्त भिक्षा के लिए नहीं जाते और साधुओं द्वारा लाये गये अन्नादि का भोजन करने पर सात प्रकार के पात्रादि को स्वीकार करना आवश्यक है। ऐसा करने पर नाग्न्यव्रत और स्त्रीमुक्तिनिषेध दोनों को तिलांजलि देनी होगी। यह सोचकर शिवभूति ने केवली के कवलाहार का निषेध कर दिया।" यह कथन अत्यन्त युक्तिसंगत है। दिगम्बर साधु के पास भोजन लाने के लिए पात्र तथा पात्र को बाँधने के लिए वस्त्र आदि का होना संभव नहीं है, इसलिए उनके द्वारा भोजन लाकर केवली को दिया जाना असंभव है। इस तरह नाग्न्यव्रत को मोक्ष के लिए आवश्यक मानने वालों के मत में केवलिभुक्ति मान्य नहीं हो सकती। तत्त्वार्थसूत्र ७७. 'सप्तविधपात्रनिर्योग'-देखिये, अध्याय २/ प्रकरण ३/ शीर्षक ३.३.१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९७ में नाग्न्यपरीषहजय को संवर और निर्जरा का आवश्यक अंग माने जाने से सिद्ध है कि उसमें सवस्त्रमुक्ति का निषेध है और सवस्त्रमुक्ति के निषेध से केवलिभुक्ति का भी उपर्युक्त युक्ति से निषेध हो जाता है। १.७.२. अनन्तसुख की अवस्था में कोई भी परीषह संभव नहीं-सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि घातिकर्मचतुष्टय का क्षय हो जाने से केवली भगवान् में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य, ये चार अनन्तगुण प्रकट हो जाते हैं। अतः अनन्तसुख की अवस्था में स्थित केवली भगवान् को कोई भी परीषह संभव नहीं है। केवली में अनन्तसुख का सद्भाव श्वेताम्बराचार्यों ने भी माना है। प्रवचनपरीक्षाकार का कथन है "---केवलज्ञानस्यानन्तानन्दहेतुत्वाद्। आस्तां केवली वीतरागः, छद्मस्थवीतरागोऽप्यनन्त-सुखभाग् भवति। यदुक्तम् जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वं महासुहं। वीअरायसुहस्सेयं णंतभागं पि नग्घइ॥" (प्रव.परी.१/२/५१/पृ.१०७) अनुवाद-"केवलज्ञान अनन्त आनन्द का हेतु है। अथवा केवली वीतराग की बात जाने दीजिए, छद्मस्थवीतराग (बारहवें गुणस्थान में स्थित आत्मा) भी अनन्तसुख का अनुभव करता है,जैसा कि कहा गया है-"लोक में जो इन्द्रियसुख है तथा स्वर्ग में जो महासुख है, वह वीतराग के सुख के अनन्तवें भाग के बराबर भी नहीं है।" इसी आधार पर श्वेताम्बराचार्यों ने सिद्ध किया है कि केवली भगवान् नारकी आदि जीवों के छेदन-भेदनादिजन्य दुःखों को प्रत्यक्ष देखते हुए भी अनुकम्पाभाव से ग्रस्त होकर दुःखी नहीं होते, क्योंकि वे अनन्तसुख की अवस्था को प्राप्त हो गये होते हैं।७८ इस कथन से सिद्ध है कि असातावेदनीय का उदय रहते हुए भी केवली को क्षुधादि के दुःख नहीं होते। यदि हों, तो उनका अनन्तसुख अनन्त नहीं रहेगा। जितने ७८. "अनन्तदुःखविह्वलान् जीवान् प्रत्यक्षं पश्यन् केवली कथं भुङ्क्ते इति यदुक्तं तन्नो युक्तम्। ---केवली वीतरागः दुःखार्तं जीवं पश्यन् तदनुकम्पया स्वयमपि दुःखातः स्यात् तत्र निदानं किं रागो वा भयं वा? नाद्यो, वीतरागत्वस्यैव हानेः। नापि भयं, मोहनीयस्य समूलमुन्मूलितत्वात् तत्प्रकृतिभूतस्य भयस्याभावात्। तस्मान्नग्नाटरटितमकिञ्चितकरमिति गाथार्थः।--- तस्मात् कारणात् मोहविमुक्त:--- केवलज्ञानी --- प्रतिप्राणि स्वकृतं कर्म --- फलमपि ---पश्यन्---स्वयं ततः पृथग्भूतः---अनन्तसुखः।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति/१/२/५१-५२/ पृ.१०७-१०८। For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ समय तक क्षुधादि का दुःख होगा, उतने समय के लिए सुख का अन्त हो जायेगा। फिर कवलाहार कर लेने पर पुनः सुख का अनुभव होने लगेगा। इससे यह भी सिद्ध होगा कि केवली का सुख केवलज्ञानजन्य नहीं है, अपितु कवलाहारजन्य है। इस प्रकार केवली का केवलज्ञान अनन्त आनन्द का हेतु सिद्ध नहीं होगा। किन्तु उनका आनन्द अनन्त ही होता है, यह श्वेताम्बरों और दिगम्बरों दोनों को मान्य है, अतः सिद्ध है कि केवली को असातावेदनीय का उदय रहने पर भी क्षुधा, तृषा, दंशमशक, शीत, उष्ण आदि ग्यारह परीषहों में से कोई भी परीषह संभव नहीं है। १.७.३. केवली में चर्यादि परीषहों का अभाव अन्य कारणों से भी-अनन्तसुख के स्वामी केवली भगवान् को असातावेदनीयजनित कोई भी परीषह नहीं होता। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से भी उनमें चर्यादि परीषह संभव नहीं हैं। यथा, भगवान् धरती से कुछ ऊपर आकाश में विहार करते हैं। वहाँ भी देव उनके चरणतल के नीचे स्वर्णकमलों की रचना करते जाते हैं। ९ अतः उनके चरणों में कंटक, तृण आदि चुभने का अवसर नहीं होता तथा अनन्तवीर्य प्रकट हो जाने से थकावट भी नहीं होती, इसलिए चर्या एवं तृणस्पर्श परीषह संभव नहीं हैं। दर्शनावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से निद्राप्रकृति का उदय नहीं रहता, जिससे भगवान् सोते नहीं हैं, फलस्वरूप उन्हें शय्यापरीषह असंभव है। केवलज्ञान हो जाने पर कोई उन पर उपसर्ग नहीं कर सकता तथा चरमदेहधारी होने के कारण उनकी अकालमृत्यु नहीं होती, अतः वे वधपरीषह के भी पात्र नहीं हैं। केवली का शरीर परमौदारिक होता है, अतः जैसे उसमें सप्त धातुओं, मल-मूत्र और स्वेद आदि का अभाव होता है, वैसे ही उसमें मल का संचय भी नहीं होता, इसलिए वे मलपरीषह से. भी रहित होते हैं। इस तरह केवली भगवान् में असातावेदनीय-निमित्तक परीषह संभव ही नहीं हैं। १.७.४. याचनापरीषह-निषेध से केवलिभुक्ति का निषेध-तत्त्वार्थसूत्रकार ने सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में और छद्मस्थवीतराग नामक ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थानों में क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह ही परीषह बतलाये हैं, याचना परीषह नहीं बतलाया।° क्षुधा की पीड़ा होने पर भोजन की याचना का भाव उत्पन्न होना ७९. देवागम-नभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ १॥ आप्तमीमांसा। ८०. क-"सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।" त.सू. /९/१०। ख-"सूक्ष्मसम्परायसंयते छद्मस्थवीतरागसंयते च चतुर्दश परीषहा भवन्ति-क्षुत्पिपासाशी तोष्णदंशमशकचर्याप्रज्ञाज्ञानालाभशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलानि।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/१०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९९ याचनापरीषह कहलाता है। उसे उत्पन्न न होने देना याचनापरीषहजय है। किन्तु उपर्युक्त गुणस्थानों में मोहनीय का अत्यन्त मन्दोदय एवं उदयाभाव हो जाने से.१ याचना का भाव उत्पन्न ही नहीं हो सकता, इसलिए वहाँ याचनापरीषह का अभाव बतलाया गया है। याचनाभाव की उत्पत्ति संभव न होने से सिद्ध है कि उपर्युक्त गुणस्थानों में मोह के मन्दोदय एवं उदयाभाव से क्षुधा की पीड़ा उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त गुणस्थानों में याचनापरीषह का निषेध करके यह प्रतिपादित किया है कि वहाँ असातावेदनीय के उदय में भी मोह के मन्दोदय अथवा उदयाभाव के कारण क्षुधातृषा की पीड़ा का प्रादुर्भाव नहीं होता। इससे केवली में क्षुधा-तृषा की पीड़ा का अभाव स्वतः प्रतिपादित हो जाता है। उक्त गुणस्थानों में याचनापरीषह के निषेध से तत्त्वार्थसूत्र का दिगम्बरग्रन्थ होना अनायास सिद्ध हो जाता है। कारण यह है कि श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्रकार के अभिप्राय के विपरीत भोजन की याचना करने को ही याचनापरीषहजय कहा है और आदेश दिया गया है कि भोजन की याचना अवश्य करनी चाहिए. ८२ अतः उपर्युक्त गुणस्थानों में क्षुधा-परीषह के उल्लेख से तत्रस्थ मुनियों के द्वारा आहारग्रहण किया जाना तभी सिद्ध होगा, जब वहाँ याचनापरीषह का अस्तित्व भी स्वीकार किया जाय। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपर्युक्त गुणस्थानों में केवल चौदह परीषह बतलाकर याचनापरीषह का स्पष्टतः निषेध किया है। इससे सिद्ध है कि उन्होंने वहाँ क्षुधापरीषह का उल्लेख करते हुए भी आहार-ग्रहण का अभाव बतलाया है। इससे केवली के कवलाहार का अभाव स्वतः सिद्ध होता है और यह साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। १.७.५. इच्छा, याचना तीव्रमोहोदय का कार्य-तत्त्वार्थसूत्रकार ने "चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः" (९ /१५) सूत्र में बतलाया है कि याचनापरीषह चारित्रमोह के उदय में होता है और "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश" (९ / १०) सूत्र में कहा है कि चारित्रमोह के मन्दोदय एवं उदयाभाव में याचनापरीषह की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् याचना का भाव (इच्छा) ही उत्पन्न नहीं होता। ‘याचना' (किसी वस्तु को दूसरे से माँगना) 'प्रार्थना' का पर्यायवाची है ८१. "आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरीषहाभावाच्चतुर्दश नियमवचनम्। सूक्ष्मसाम्पराये तु मोहोदयसद्भावात् 'चतुर्दश' इति नियमो नोपपद्यत इति? तदयुक्तम्, सन्मात्रत्वात्। तत्र हि केवलो लोभसवलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः। ततो वीतरागछद्मस्थ-कल्पत्वात् 'चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते।" स. सि./९/१०। ८२. देखिए , पूर्व में शीर्षक १.३.१० 'दिन को रात बना देने का अद्भुत साहस।' For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ और प्रार्थना, इच्छा, काम, अभिलाष, काङ्क्षा, गाय तथा मूर्छा समानार्थी हैं। ३ तथा भोजन-याचना की क्रिया याचना की इच्छा के बिना नहीं हो सकती और भोजनयाचना की इच्छा भोजनेच्छा के बिना संभव नहीं है तथा भोजनेच्छा क्षुधा-पीड़ा के अभाव में असंभव है। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र के मतानुसार असातावेदनीय का उदय तीव्रमोहोदय के सद्भाव में ही क्षुधापीड़ा उत्पन्न करने में समर्थ होता है तथा भोजनेच्छा एवं याचनेच्छा तीव्रमोहोदय के कार्य हैं। किन्तु श्वेताम्बराचार्य मानते हैं कि क्षुधा की पीड़ा मोहोदय के अभाव में केवल असातावेदनीय के उदय से होती है, इसीलिए केवली को भी क्षुधापरीषह होता है। उनकी यह मान्यता तत्त्वार्थसूत्रकार के मत के विरुद्ध है। यह भी तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरग्रन्थ होने का एक प्रमाण है। १.७.६. परीषह न होने पर भी होने का कथन क्यों?–यहाँ प्रश्न उठता है कि अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक जो यथायोग्य क्षुधादिपरीषह होते ही नहीं हैं, उनके होने का कथन क्यों किया गया है? इस प्रश्न का समाधान पूज्यपादस्वामी ने "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश" (९ /१०) सूत्र की टीका में इस प्रकार किया है "ननु मोहोदयसहायाभावान्मन्दोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरीषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति। तन्न? किं कारणम्? शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात् सर्वार्थसिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत्।" अनुवाद-"प्रश्न-मोहोदय की सहायता के अभाव में तथा मोह के मन्दोदय में क्षुधादिवेदना उत्पन्न नहीं होती, अतः उसे सहन करने के अर्थवाले ‘परीषह' शब्द का प्रयोग उपर्युक्त गुणस्थानों में युक्तियुक्त नहीं है। समाधान-यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि वहाँ 'सहन करते हैं' इस अर्थवाले 'परीषह' शब्द का प्रयोग केवल असातावेदनीय आदि कर्मों के उदय की शक्ति बतलाने के लिए किया गया है, जैसे सर्वार्थसिद्धि के देव यद्यपि सप्तम पृथिवी तक जाते नहीं हैं, तथापि वहाँ तक जाने की उनमें सामर्थ्य होती है, केवल यह दर्शाने के लिए वे 'सप्तम पृथ्वी तक गमन करते हैं' ऐसा कहा जाता है।" ___ यही समाधान पूज्यपाद स्वामी ने 'एकादश जिने' (त.सू.९ / ११) सूत्र की टीका के प्रसंग में किया है। यथा "ननु च मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुधादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्तः? सत्यमेवेतत्वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचारः क्रियते, निरवशेषनिरस्तज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फकर्मनिर्हरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत्।" ८३. "इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध्यं मूर्छत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ७/१२ । For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०१ अनुवाद-"प्रश्न-मोहनीय के उदय की सहायता के अभाव में क्षुधादिवेदना न होने से यहाँ 'परीषह' शब्द का प्रयोग उचित नहीं है? समाधान-यह सत्य है, किन्तु यहाँ वेदना के अभाव में भी केवल द्रव्यकर्म (असातावेदनीय) का सद्भाव होने की अपेक्षा 'परीषह' शब्द का उपचार किया गया है, जैसे ज्ञानावरणकर्म के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होने पर सयोग-अयोग केवली गुणस्थानों में एकाग्रचिन्तानिरोध का अभाव हो जाता है, तो भी उसका निर्जरारूप फल वहाँ उपलब्ध होने से ध्यान शब्द का उपचार होता है।" पूज्यपाद स्वामी के इन वचनों से उपर्युक्त प्रश्न का समाधान अच्छी तरह से हो जाता है। माननीय सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ने इस विषय का विस्तार से विवेचन भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है। उसे यहाँ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है "परीषहों का विचार छठे गुणस्थान से किया जाता है, क्योंकि श्रामण्यपद का प्रारम्भ यहीं से होता है, अतः इस गुणस्थान में सब परीषह होते हैं, यह तो ठीक ही है, क्योंकि इस गुणस्थान में प्रमाद का सद्भाव रहता है और प्रमाद के सद्भाव में क्षुधादिजन्य विकल्प और उसके परिहार के लिए चित्रवृत्ति को उस ओर से हटाकर धर्म्यध्यान में लगाने के लिए प्रयत्नशील होना ये दोनों कार्य बन जाते हैं। तथा सातवें गुणस्थान की स्थिति प्रमादरहित होकर भी इससे भिन्न नहीं है, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में प्रमाद और अप्रमादजन्य ही भेद है। यद्यपि विकल्प और तदनुकूल प्रवृत्ति का नाम छठा गुणस्थान है और उसके निरोध का नाम सातवाँ गुणस्थान है, तथापि इन दोनों गुणस्थानों की धारा इतनी अधिक चढ़ा-उतार की है, जिससे उनमें परीषह और उनके जय आदि कार्यों का ठीक तरह से विभाजन न होकर, ये कार्य मिलकर दोनों के मानने पड़ते हैं। छठे गुणस्थान तक वेदनीय की उदीरणा होती है आगे नहीं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वेदनीय के निमित्त से जो क्षुधादिजन्य वेदनकार्य छठे गुणस्थान में होता है वह आगे कथमपि सम्भव नहीं। विचारकर देखने पर बात तो ऐसी ही प्रतीत होती है और है भी वह वैसी ही, क्योंकि अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में जब जीव की न तो बाह्यप्रवृत्ति होती है और न बाह्यप्रवृत्ति के अनुकूल परिणाम ही होते हैं, साथ ही कषायों का उदय अव्यक्तरूप से अबुद्धिपूर्वक होता है, तब वहाँ क्षुधादि परीषहों का सद्भाव मानना कहाँ तक उचित है, यह विचारणीय हो जाता है। इसलिए यहाँ यह देखना है कि आगे के गुणस्थानों में इन परीषहों का सद्भाव किस दृष्टि से माना गया है। "किसी भी पदार्थ का विचार दो दृष्टियों से किया जाता है, एक तो कार्य की दृष्टि से और दूसरे कारणकी दृष्टि से। परीषहों का कार्य क्या है और उनके कारण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ क्या हैं, इस विषय का साङ्गोपाङ्ग ऊहापोह शास्त्रों में किया है। परीषह तथा उनके जय का अर्थ है 'बाधा के कारण उपस्थित होने पर उनमें जाते हुए अपने चित्त को रोकना तथा स्वाध्याय, ध्यान आदि आवश्यक कार्यों में लगे रहना ।' परीषह और उनके जय के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही ऐसा है, जिसमें बाधा के कारण उपस्थित होने पर उनमें चित्त जाता है और उनसे चित्तवृत्ति को रोकने के लिए यह जीव उद्यमशील होता है । किन्तु आगे के गुणस्थानों की स्थिति इससे भिन्न है । वहाँ बाह्य कारणों के रहने पर भी उनमें चित्तवृत्ति का रंचमात्र भी प्रवेश नहीं होता। इतना ही नहीं, कुछ आगे चलकर तो यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि वहाँ न तो बाह्य कारण ही उपस्थित होते हैं और न चित्तवृत्ति ही शेष रहती है। इसलिए इन गुणस्थानों में केवल अन्तरंग कारणों को ध्यान में रखकर ही परीषहों का निर्देश किया गया है। कारण भी दो प्रकार के होते हैं: एक बाह्य कारण और दूसरे अन्तरङ्ग कारण । बाह्य कारणों के उपस्थित होने का तो कोई नियम नहीं है । किन्हीं को उनकी प्राप्ति सम्भव भी है और किन्हीं को नहीं भी । परन्तु अन्तरङ्ग कारण सबके पाये जाते हैं। यही कारण है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में परीषहों के कारणों का विचार करते समय मुख्यरूप से अन्तरङ्ग कारणों का ही निर्देश किया है। इसी से तत्त्वार्थसूत्र में वे अन्तरंग कारण ज्ञानावरण, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तराय के उदयरूप कहे हैं, अन्यरूप नहीं । " कुल परीषह बाईस हैं। इनमें से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरण के उदय में होते हैं। ज्ञानावरण का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए इनका सद्भाव क्षीणमोह गुणस्थान तक कहा है। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि प्रज्ञा और अज्ञान के निमित्त से जो विकल्प प्रमत्तसंयत जीव के हो सकता है, वह अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में भी होता है। आगे के गुणस्थानों में इस प्रकार के विकल्प के न होने पर भी वहाँ केवल ज्ञानावरण का उदय पाया जाता है, इसलिए वहाँ इन परीषहों का सद्भाव कहा है। " अदर्शन परीषह दर्शनमोहनीय के उदय में और अलाभ परीषह अन्तराय के उदय में होते हैं। यह बात किसी भी कर्मशास्त्र के अभ्यासी से छिपी हुई नहीं है कि दर्शनमोहनीय का उदय अधिक से अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषह का सद्भाव अधिक से अधिक इसी गुणस्थान तक कहा जा सकता है और अन्तराय का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए अलाभ परीषह का सद्भाव वहाँ तक कहा है । किन्तु कार्यरूप में ये दोनों परीषह भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही जानने चाहिए । आगे इनका सद्भाव दर्शनमोहनीय के उदय और अन्तराय के उदय की अपेक्षा ही कहा है। For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०३ "प्रसङ्ग से यहाँ इस बात का विचार कर लेना भी इष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ बादरसाम्पराय जीव के सब परीषहों का सद्भाव बतलाते हैं। उन्हें बादरसाम्पराय शब्द का अर्थ क्या अभिप्रेत रहा होगा? हम यह तो लिख ही चुके हैं कि दर्शनमोहनीय का उदय अप्रमत्तसंयतगुण स्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषह का सद्भाव अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे कथमपि नहीं माना जा सकता। ऐसी अवस्था में बादरसाम्पराय का अर्थ स्थूलकषाययुक्त जीव ही हो सकता है। यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि में इस पद की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि "यह गुणस्थानविशेष का ग्रहण नहीं है। तो क्या है? सार्थक निर्देश है। इससे प्रमत्त आदि संयतों का ग्रहण होता है।" ८४ ___ "किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में 'बादरसम्पराये सर्वे' (९/१२) इस सूत्र की व्याख्या इन शब्दों में की है-'बादरसम्परायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति।' अर्थात् बादरसाम्पराय-संयत के सब अर्थात् बाईस परीषह ही सम्भव हैं। तत्त्वार्थभाष्य के मुख्य व्याख्याकार सिद्धसेनगणी हैं। वे तत्त्वार्थभाष्य के उक्त शब्दों की व्याख्या इन शब्दों में करते हैं "बादरः स्थूलः सम्परायः कषायस्तदुदयो यस्सासौ बादरसम्परायः संयतः। स च मोह-प्रकृती: कश्चिदुपशमयतीत्युपशमकः। कश्चित् क्षपयतीति क्षपकः। तत्र सर्वेषां द्वाविंशतेरपि क्षुधादीनां परीषहाणामदर्शनान्तानां सम्भव:---।" (त.भाष्यवृत्ति/९/१२)। ___ "जिसके कषाय स्थूल होता है, वह बादरसम्परायसंयत कहलाता है। उनमें से कोई मोहनीय का उपशम करता है, इसलिए उपशमक कहलाता है और कोई क्षय करता है, इसलिए क्षपक कहलाता है। इसके सभी बाईस क्षुधा आदि परीषहों का सद्भाव सम्भव है। "इस व्याख्यान से स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी के अभिप्राय से तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वाति को यहाँ बादरसम्पराय पद से नौवाँ गुणस्थान ही इष्ट है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी ने तत्त्वार्थसूत्र (९/१२) की व्याख्या में यही अर्थ स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-"जिसमें सम्पराय (कषाय) की बादरता अर्थात् विशेषरूप में सम्भावना हो, उस बादरसम्पराय नामक नौवें गुणस्थान में बाईस परीषह होते हैं, क्योंकि परीषहों के कारणभूत सभी कर्म वहाँ होते हैं।" "बादरसाम्पराय' पद की ये दो व्याख्याएँ हैं, जो क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य में उपलब्ध होती हैं। सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या के अनुसार बादरसाम्पराय ८४. "नेदं गुणस्थानविशेषग्रहणम्। किं तर्हि ? अर्थनिर्देशः। तेन प्रमत्तादीनां संयतादीनां __ ग्रहणम्।" सर्वार्थसिद्धि । ९/१२। For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ पद गुणस्थान-विशेष का सूचक न होकर अर्थपरक निर्देश होने से दर्शनमोहनीय के उदय में अदर्शनपरीषह होता है, इस अर्थ की सङ्गति बैठ जाती है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य की व्याख्या को स्वीकार करने पर एक नयी अड़चन उठ खड़ी होती है। दर्शनमोहनीय का सत्त्व उपशान्तमोह-गुणस्थान तक रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा बादरसाम्पराय नामक नौवें गुणस्थान तक अदर्शनपरीषह कहा होगा। किन्तु इस मत को स्वीकार करने पर दो नयी आपत्तियाँ और सामने आती हैं। प्रथम तो यह कि यदि उन्होंने दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा अदर्शनपरीषह का सद्भाव स्वीकार किया है, तो उसका सद्भाव ग्यारहवें गुणस्थान तक कहना चाहिए। दूसरी यह कि 'क्षुत्पिपासा शीतोष्ण---' इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि 'पञ्चानामेव कर्मप्रकृतीनामुदयादेते परीषहाः प्रादुर्भवन्ति।' अर्थात् पाँच कर्मप्रकृतियों के उदय से ये परीषह उत्पन्न होते हैं। सो पूर्वोक्त अर्थ के स्वीकार करने पर इस कथन की सङ्गति नहीं बैठती दिखलाई देती। क्योंकि एक ओर तो दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा अदर्शनपरीषह को नौवें गुणस्थान तक स्वीकार करना और दूसरी ओर सब परीषहों को पाँच कर्मों के उदय का कार्य कहना, ये परस्पर विरोधी दोनों कथन कहाँ तक युक्तियुक्त हैं, यह विचारणीय हो जाता है। स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी की टीका के अनुसार तत्त्वार्थभाष्य का कथन न केवल स्खलित है, अपितु वह मूल सूत्रकार के अभिप्राय के प्रतिकूल भी है, क्योंकि मूलसूत्रकार ने इन परीषहों का सद्भाव कर्मों के उदय की मुख्यता से ही स्वीकार किया है। अन्यथा वे अदर्शनपरीषह का सद्भाव और चारित्रमोह के निमित्त से होने वाले नाग्न्य आदि परीषहों का सद्भाव उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक अवश्य कहते। "नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार, ये सात परीषह चारित्रमोहनीय के उदय में होते हैं। सामान्यतः चारित्रमोहनीय का उदय यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायिक नामक दसवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए इन सात परीषहों का सद्भाव दसवें गुणस्थान तक कहना चाहिए था, ऐसी शंका की जा सकती है, परन्तु इनका दसवें गुणस्थान तक सद्भाव न बतलाने के दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि चारित्रमोहनीय के अवान्तरभेद क्रोध, मान और माया का तथा नौ नोकषायों का उदय नौवें गुणस्थान के अमुक भाग तक ही होता है, इसलिए इन परीषहों का सद्भाव नौवें गुणस्थान तक कहा है। दूसरा यह कि दसवें गुणस्थान में यद्यपि चारित्रमोहनीय का उदय होता है अवश्य, पर एक लोभ कषाय का ही उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म, इसलिए इनका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक न कहकर मात्र नौवें गुणस्थान तक कहा है। For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०५ "तथा क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल, ये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय में होते हैं। वेदनीय कर्म का उदय 'जिन' के भी होता है, इसलिए इनका सद्भाव वहाँ तक कहा है। "इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकार ने जो परीषहों का सद्भाव कहा है, उसमें उनकी दृष्टि कारण को ध्यान में रखकर विवेचन करने की रही है।" (स.सि./ भा.जा./प्रस्ता./पृ. ३०-३३)। १.७.७. साम्प्रदायिकता का आरोप और उसका निराकरण-श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल संघवी ने सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी पर साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त होने का आरोप लगाते हुए लिखा है-"जिन बातों में रूढ़ श्वेताम्बरसम्प्रदाय के साथ दिगम्बरसम्प्रदाय का विरोध है, उन सभी बातों को सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता ने सूत्रों में संशोधन करके या उनके अर्थ में खींचतान करके अथवा असंगत अध्याहार आदि करके दिगम्बरसम्प्रदाय की अनुकूलता की दृष्टि से चाहे जिस रीति से, सूत्रों में से उत्पन्न करके निकालने का साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है। वैसा प्रयत्न भाष्य में कहीं दिखाई नहीं देता। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धि साम्प्रदायिक विरोध का वातावरण जम जाने के बाद आगे चलकर लिखी गई है और भाष्य इस विरोध के वातावरण से मुक्त है।" (त.सू./वि.स. / प्रस्ता./पृ. ६४)। .. इसका उत्तर देते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकार ने जो परीषहों का सद्भाव कहा है, उसमें उनकी दृष्टि कारण को ध्यान में रखकर विवेचन करने की ही रही है और इसीलिए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने पहले सूत्रकार की दृष्टि से 'एकादश जिने' इस सूत्र का व्याख्यान किया है। अनन्तर जब उन्होंने देखा कि कुछ अन्य विद्वान् अन्य साधारण मनुष्यों के समान केवली के कारणपरक परीषहों के उल्लेख का विपर्यास करके भूख-प्यास आदि बाधाओं का ही प्रतिपादन करने लगे हैं, तो उन्होंने यह बतलाने के लिए कि केवली के कार्यरूप में ग्यारह परीषह नहीं होते, 'न सन्ति' पद का अध्याहार कर उस सूत्र से दूसरा अर्थ फलित किया है। इसमें न तो उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि रही है और न ही उन्होंने तोड़-मरोड़कर उसका अर्थ किया है। साम्प्रदायिक दृष्टि तो उनकी है, जो उसे इस दृष्टिकोण से देखते हैं। आचार्यों में मतभेद हुए हैं, और हैं, पर सब मतभेदों को साम्प्रदायिक दृष्टि का सेहरा बाँधना कहाँ तक उचित है, यह समझने और अनुभव करने की बात है। आचार्य पूज्यपाद यदि साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के होते, तो वे ऐसा प्रयत्न न कर सूत्र का ही कायाकल्प कर सकते थे। किन्तु उन्होंने अपनी स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट रखा है। तत्त्वतः देखा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ जाय, तो एक मात्र यही उदाहरण उनकी साहित्यिक प्रामाणिकता की कसौटी बन सकता है।" (स.सि./ भा.ज्ञा./ प्रस्ता. / पृ. ३३)। इस प्रकार 'एकादश जिने' सूत्र का दिगम्बर-परम्परानुसार औचित्य सिद्ध हो जाता है। अतः वह दिगम्बरमत के विरुद्ध नहीं है। दूसरे शब्दों में, उसके अनुसार केवलिभुक्ति सिद्ध नहीं होती। इसके विपरीत भाष्यकार साधु के लिए वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन मानते हैं, जिससे स्पष्ट है कि वे सवस्त्रमुक्ति के समर्थक हैं और सवस्त्रमुक्ति की व्यवस्था में सात प्रकार का पात्रनिर्योग संभव होने से केवलिभुक्ति मानने में कोई बाधा नहीं आती। अर्थात् भाष्यकार केवलिभुक्ति के प्रतिपादक हैं। यह भी सूत्रकार और भाष्यकार में सम्प्रदायभेद होने का एक प्रबल प्रमाण है। संक्षेप में, तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित निम्नलिखित सिद्धान्त भाष्यकार की मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध हैं १. अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध २. गृहिलिंगिमुक्ति-निषेध ३. सवस्त्रमुक्ति-निषेध ४. स्त्रीमुक्ति-निषेध ५. केवलिभुक्ति-निषेध ६. अपरिग्रह की वस्त्रपात्रादिग्रहण-विरोधी परिभाषा ७. तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध हेतुओं की सोलह संख्या भाष्यकार की मान्यताएँ सूत्रकार की इन मान्यताओं के सर्वथा विपरीत हैं। इससे सिद्ध है कि दोनों भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सूत्र और भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, एक ही व्यक्ति नहीं। सूत्र और भाष्य में विसंगतियाँ सूत्र और भाष्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं, एक ही व्यक्ति की नहीं, इसका दूसरा प्रमाण यह है कि दोनों में अनेक विसंगतियाँ हैं। सूत्र और भाष्य के एककर्तृत्व का निषेध करते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं-"सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही आचार्य की कृति हों, तब उनमें परस्पर असंगति, अर्थभेद, मतभेद अथवा किसी प्रकार का विरोध न होना चाहिए। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / ३०७ और यदि उनमें कहीं पर ऐसी असंगति, भेद अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही आचार्य की कृति नहीं हैं, उनका कर्त्ता भिन्न-भिन्न है और इसलिए सूत्र का वह भाष्य 'स्वोपज्ञ' नहीं कहला सकता। श्वेताम्बरों के तत्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्य में ऐसी असंगति, भेद अथवा विरोध पाया जाता है ।" ८५ इसके उन्होंने चार उदाहरण पेश किये हैं, ८६ जिनका सार नीचे दिया जा रहा है। २.१. 'यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' प्रथम अध्याय में अवधिज्ञान के दो भेद बतलाने के लिए 'द्विविधोऽवधिः' (त. सू./ श्वे./१/२१) सूत्र कहा गया है। उसके भाष्य में स्पष्ट किया गया है कि वे दो भेद हैं: भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त। ८७ इनमें प्रथम देव और नारकियों को होता है और दूसरा शेष जीवों को, यह बतलाने के लिए अगला सूत्र कहा गया है - ' भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' (त.सू./ श्वे. / १/२२), इसके अनुसार दूसरा सूत्र होना चाहिए था 'क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' । किन्तु इसकी जगह ' यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' (त.सू./ श्वे./१/२३) पाठ है । क्षयोपशमनिमित्त: के स्थान में यथोक्तनिमित्तः पाठ सर्वथा असंगत है, क्योंकि यथोक्तनिमित्त नाम का कोई अवधिज्ञान नहीं होता, न ही द्विविधोऽवधिः के भाष्य में भवप्रत्यय के साथ यथोक्तनिमित्तः पाठ है । अवधिज्ञान के प्रसंग में 'यथोक्तनिमित्त' का अर्थ है- वह अवधिज्ञान जिसकी उत्पत्ति के निमित्तभूत क्षयोपशम का पूर्व में वर्णन किया गया है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( श्वेताम्बर - तत्त्वार्थसूत्र ) के प्रथम - अध्यायगत किसी भी पूर्व सूत्र में उसकी उत्पत्ति के निमित्त का कथन नहीं है । अतः यथोक्तनिमित्तः शब्द का प्रयोग सर्वथा असंगत है। यदि सूत्र और भाष्य दोनों का कर्त्ता एक ही होता तो वह 'भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' के बाद 'क्षयोपशनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' यही सूत्र निबद्ध करता, जिससे भाष्य में यह लिखने की जरूरत न रहती कि यथोक्तनिमित्तः से तात्पर्य क्षयोपशमनिमित्त:" से है । किन्तु ऐसा नहीं हुआ है। इससे सुस्पष्ट है कि सूत्रकार कोई और है तथा भाष्यकार कोई और। भाष्यकार ने सूत्रकार के सूत्र में कोई परिवर्तन किये बिना भाष्य लिख दिया है। इसीलिए यथोक्तनिमित्तः के प्रयोग से उत्पन्न विसंगति को दूर करने के लिए उन्हें यह लिखना पड़ा है कि यहाँ यथोक्तनिमित्तः का अर्थ क्षयोपशमनिमित्त: है । ८५. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / पृ. १२६ । ८६. वही / पृ. १२६-१३२ । 44 ८७. 'भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १ / २१ । ८८. “ यथोक्तनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / १ /२३ । For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ २.२. आक्षेप का निराकरण - डॉ० सागरमल जी ने मुख्तार जी के इस विसंगति-प्रदर्शन पर आक्षेप किया है और यथोक्तनिमित्तः के प्रयोग का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसकी जो व्याख्या की है, वह पाणिनि और पतंजलि को भी चक्कर में डाल देने वाली है। वे लिखते हैं-"यथोक्तनिमित्त का पूरा स्पष्टीकरण है-क्षयोपशम के निमित्त आगमों में जैसी तपसाधना बतायी गयी है, वैसी तपसाधना से प्राप्त होनेवाला अर्थात् साधनाजन्य अवधिज्ञान। यहाँ मुख्तार जी कहते हैं कि यदि मूलसूत्र में 'यथोक्त' कहा, तो उसके पहले तत्त्वार्थ के किसी पूर्व सूत्र में उसका उल्लेख होना चाहिए था। किन्तु हमें ध्यान रखना है कि उमास्वाति तो आगमिक परम्परा के हैं, अतः उनकी दृष्टि में यथोक्त का अर्थ है-आगमोक्त। वस्तुतः जो परम्परा आगम को ही नहीं मानती हो, उसको सूत्र में प्रयुक्त यथोक्त शब्द का वास्तविक तात्पर्य कैसे समझ में आयेगा?" (जै.ध.या.स./ पृ. २८४)। ऐसा लगता है जैसे डॉक्टर साहब उमास्वाति के हृदय में निवास करके आये हों और आँखों देखा हाल कह रहे हों। अन्यथा उन्होंने यह कैसे जान लिया कि उमास्वाति की दृष्टि में यथोक्त का अर्थ आगमोक्त है? उनके तो किसी भी उल्लेख से ऐसा सिद्ध नहीं होता। स्वबुद्धि-कल्पित अर्थ को उमास्वाति के नाम पर चढ़ा देना न्यायविरुद्ध है। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि उमास्वाति आगमिक परम्परा के हैं और सूत्रकार हैं, तो आगमिक परम्परा का होने का अर्थ यह तो नहीं है कि आगम के विषय को स्पष्ट शब्दों में न कहकर ऐसे कूट शब्दों में कहा जाय जो विवक्षित अर्थ का बोध ही न करावें, भ्रम पैदा करें, भूलभुलैयाँ में डाल दें? यदि उमास्वाति को यथोक्तनिमित्तः पद से आगमोक्तनिमित्तः अर्थ अभीष्ट था, तो वे इसी पद का प्रयोग कर सकते थे और आगमोक्तनिमित्तः शब्द से तपोनिमित्तः अर्थ अभिप्रेत था, तो वे इस शब्द का भी प्रयोग कर सकते थे। अन्यत्र तो उन्होंने ऐसे कूट शब्द का प्रयोग नहीं किया, स्पष्ट शब्द में ही प्रतिपादन किया है, जैसे 'यथोक्तमार्गो मोक्षमार्गः' न कह कर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' कहा है। इसी प्रकार उपर्युक्त सूत्र में यथोक्तनिमित्तः न कहकर आगमोक्तनिमित्तः, तपोनिमित्त: या गुणप्रत्ययः कह सकते थे, किन्तु नहीं कहा। इससे सिद्ध है कि उमास्वाति को यथोक्तनिमित्तः से 'आगमोक्तनिमित्तः' या 'तपोनिमित्तः' अर्थ अपेक्षित नहीं था। सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि ने भी उसे इन अर्थों का प्रतिपादक नहीं बतलाया है। इन सबने उसे क्षयोपशमनिमित्तः अर्थ का सूचक कहा है। अतः 'यथोक्तनिमित्तः' पद को 'आगमोक्तनिमित्तः' या 'तपोनिमित्तः' अर्थ का सूचक कहना प्रामाणिक नहीं है। ८९. सिद्धसेनगणी : तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/२३/ पृ. ९७, हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र / १/२३ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०९ और डॉ० साहब के द्वारा जो यह कहा गया है कि "जो परम्परा आगम को ही न मानती हो, उसको सूत्र में प्रयुक्त यथोक्त शब्द का वास्तविक तात्पर्य कैसे समझ में आयेगा?" इस विषय में मेरा निवेदन है कि सूत्रप्रयुक्त यथोक्त के अर्थ को समझने के लिए आगम को मानने की जरूरत नहीं है, सूत्रग्रन्थ के रचना-नियमों को जानने और मानने की आवश्यकता है। सूत्रग्रन्थ का नियम है कि उसमें प्रयुक्त यथा, तथा, तद्, सः आदि शब्दों से उसी ग्रन्थ के पूर्वनिर्दिष्ट विषय सूचित किये जाते हैं, अन्य ग्रन्थ के नहीं। जैसे 'स यथानाम' (त.सू./ श्वे./८/२३) इस सूत्र में स (सः) शब्द 'विपाकोऽनुभावः' (त.सू. /श्वे.८/२२) इस पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट अनुभाव अर्थ का सूचक है और यथा शब्द इसी अष्टम अध्याय के पूर्वसूत्रों में वर्णित ज्ञानावरणादि सभी कर्म प्रकृतियों के नाम के सादृश्य का सूचक है। इस तरह पूरे सूत्र का अर्थ है : ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मप्रकृतियों का अनुभाव (फल) उन प्रकृतियों का जैसा नाम है, वैसा (नाम के अनुसार) ही हुआ करता है। जैसे ज्ञानावरण ज्ञान को आवृत करता है और दर्शनावरण दर्शन को, दर्शनमोहनीय दृष्टि को मोहित करता है और चारित्रमोहनीय चारित्र को। ___ इसी प्रकार यथोक्तनिमित्त: में भी यथा शब्द तत्त्वार्थ के ही पूर्वसूत्र में वर्णित अवधिज्ञान की उत्पत्ति के निमित्त का सूचक है। किन्तु ऐसा कोई निमित्त, ग्रन्थ के किसी पूर्व सूत्र में वर्णित नहीं है, इसलिए 'यथोक्तनिमित्तः' प्रयोग असंगत है। यथोक्तनिमित्तः से किसी दूसरे ग्रन्थ में वर्णित अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्त सूचित नहीं हो सकता, क्योंकि उसे सूचित करनेवाला कोई शब्द सूत्र में प्रयुक्त नहीं है। यदि यथागमोक्तनिमित्तः ऐसा प्रयोग होता, तभी आगमोक्त तपरूप निमित्त अर्थ सूचित हो सकता था। किन्तु ऐसा प्रयोग न होने से यह अर्थ सूचित नहीं होता। अतः सिद्ध है कि यथोक्तनिमित्तः पद ग्रन्थ के ही पूर्वसूत्र में वर्णित निमित्त की सूचना देता है। किन्तु पूर्वसूत्र में ऐसे किसी निमित्त का वर्णन नहीं है, इससे साबित होता है कि उसका प्रयोग असंगत है, अवैज्ञानिक है। उक्त प्रतिपक्षी विद्वान् लिखते हैं-"अवधिज्ञान के दो भेद हैं-भवप्रत्यय और निमित्तजन्य और यहाँ निमित्त शब्द का अर्थ प्रयत्न या तपसाधना है। इसलिए यथोक्तनिमित्तः इस सूत्र का तात्पर्य है क्षयोपशम हेतु की गई आगमोक्ततपसाधनाजन्य" (जै. ध. या. स. / पृ. २८४)। अवधिज्ञान के भेद का निमित्तजन्य यह नामकरण अयुक्तिसंगत है, क्योंकि भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी निमित्तजन्य है। प्रत्यय का अर्थ ही है निमित्त। भाष्यकार स्वयं कहते हैं-"भवप्रत्ययं भवहेतुकं भवनिमित्तिमित्यर्थः" (त.सू. / श्वे./ १ / २२ / For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ पृ. ४५)। इस प्रकार 'निमित्तजन्य अवधिज्ञान' शब्द में भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (तपोनिमित्त) दोनों अवधिज्ञान गर्भित हो जाते हैं। अतः उपर्युक्त नामकरण युक्तिसंगत नहीं है। तथा निमित्त शब्द से 'क्षयोपशम के लिए की गई तपसाधना' यह अर्थ ग्रहण करना भी प्रामाणिक नहीं है। न भाष्यकार ने यह अर्थ किया है, न सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि, इन टीकाकारों ने। इन सबने तो निमित्त शब्द से क्षयोपशमरूप निमित्त अर्थ ही प्रतिपादित किया है। अतः 'तपसाधनारूप निमित्त' अर्थ ग्रहण करना अप्रामाणिक है। २.३. 'क्षयोपशमनिमित्तः' रखने का प्रयोजन यद्यपि यह सत्य है कि भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त इन नामों की अपेक्षा भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय नाम दोनों के पारस्परिक भेद को अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं, तथापि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में तथा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यं में क्षयोपशमनिमित्त नाम का प्रयोग विशेष प्रयोजन से किया गया है। वह प्रयोजन है भवप्रत्यय में भव के निमित्त की प्रधानता द्योतित करना तथा क्षयोपशमनिमित्त में भव के निमित्त का अभाव दर्शाना। हरिभद्रसूरि इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं "यथोक्तनिमित्तमिति-यथोक्तं निमित्तं यस्य स तथा, भवोऽप्युक्तमेव निमित्तमिति, तद्व्यावृत्यर्थमाह-क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः।" (हारि.वृत्ति/त.सू. / १/२३/पृ.७८-७९)। ___ अनुवाद-"यथोक्तनिमित्त का अर्थ है 'जैसा निमित्त बतलाया गया है, वैसे निमित्तवाला।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भवनिमित्तवाला अवधिज्ञान भी इस दूसरे भेद में गर्भित हो जाता है, क्योंकि भव को भी अवधिज्ञान का निमित्त कहा गया है। अतः उसे अलग करने के लिए 'क्षयोपशमनिमित्तवाला' यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है।" पूज्यपाद स्वामी ने भी यही प्रयोजन बतलाया है। वे कहते हैं-"सर्वस्य क्षयोपशमनिमित्तत्वे क्षयोपशमग्रहणं नियमार्थं क्षयोपशम एव निमित्तं न भव इति।" (स. सि./ १/२२)। अर्थात् अवधिज्ञानमात्र क्षयोपशम के निमित्त से होता है, तो भी सूत्र में 'क्षयोपशम' पद का ग्रहण यह नियम करने के लिए किया गया है कि देव-नारकों को छोड़कर शेष जीवों के मात्र क्षयोपशम के निमित्त से होता है, भव के निमित्त से नहीं। इन प्रमाणों से भी सिद्ध है कि 'यथोक्तनिमित्तः' वचन से 'क्षयोपशमनिमित्तः' अर्थ ही अभिप्रेत है, 'आगमोक्त तपरूप निमित्त' अर्थ नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ २.४. 'यथोक्तनिमित्तः' को हटाने का आरोप मिथ्या डॉ॰ सागरमल जी ने आरोप लगाया है कि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य के आधार पर सूत्र में यथोक्तनिमित्त: के स्थान पर क्षयोपशमनिमित्तः पाठ कर दिया है । (जै.ध. या.स./ पृ. २८५)। किन्तु यह आरोप युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि यदि उन्हें संशोधन करना होता, तो वे दिगम्बरपरम्परा के प्राचीन ग्रन्थ षट्खण्डागम के आधार पर अधिक स्पष्टार्थबोधक गुणप्रत्यय नाम ही उसके स्थान में रखते । ९° सर्वार्थसिद्धि टीका में उन्होंने षट्खण्डागम का प्रचुर उपयोग किया भी है। स्वयं डॉ० सागरमल जी गुणप्रत्यय नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं । ९१ पूज्यपाद स्वामी ने विरासत में प्राप्त इस नाम का प्रयोग नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने मूल सूत्र में कोई परिवर्तन नहीं किया। उन्हें ' क्षयोपशमनिमित्तः षड्वि कल्पः शेषाणाम्' यही पाठ प्राप्त हुआ था । भाष्यकार को जो 'यथोक्तनिमित: ' - वाला पाठ मिला था, उसने अवश्य उनके सामने विसंगतिजन्य समस्या खड़ी कर दी थी। इसलिए उन्होंने ही सर्वार्थसिद्धि के आधार पर ‘यथोक्त-निमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः ' (त. भाष्य / १/२३), ऐसी व्याख्या कर संगति बिठाने की चेष्टा की है। और इस चेष्टा तथा हरिभद्रसूरि के उपर्युक्त वचनों से स्पष्ट है कि यथोक्तनिमित्तः पाठ अत्यन्त अस्पष्ट और असंगत है। अतः उक्त सूत्र के कर्त्ता भाष्यकार नहीं हो सकते। यदि वे होते, तो सूत्र में यथोक्तनिमित्तः विशेषण का प्रयोग कर उपर्युक्त विसंगति उत्पन्न न करते । वे उसके स्थान में 'क्षयोपशमनिमित्तः ' विशेषण प्रयुक्त करते, जिससे भाष्य में उसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता न रहती । डॉ॰ सागरमल जी ने भी यथोक्तनिमित्तः की अपेक्षा क्षयोपशमनिमित्तः पाठ को अधिक स्पष्ट माना है। वे लिखते हैं- "पुनः सर्वार्थसिद्धि में सुधरा हुआ अधिक स्पष्ट पाठ होना यही सूचित करता है कि वह भाष्य से परवर्ती है ।" (जै. ध. या.स./ ./ पृ. २८५) । किन्तु उक्त पाठ को सुधरा हुआ मानने का उनके पास कोई प्रमाण नहीं है, यह उनकी स्वबुद्धिप्रसूत कल्पना है । पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि उक्त पाठ न तो सुधरा हुआ है, न ही सर्वार्थसिद्धि भाष्य से परवर्ती है। २.५. 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः , तत्त्वार्थसूत्र / ३११ मुख्तार जी ने सूत्र और भाष्य में दूसरी विसंगति 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' में इस प्रकार बतलायी है - "इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः " (त. सू. / ६ / ५) इस सूत्र के दिगम्बरमान्य और ९०. “तं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं चेव गुणपच्चइयं चेव । " ष. खं./पु.१३/५,५,५३/ पृ. २८० । ९१. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २८५ । For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ श्वेताम्बरमान्य पाठों में तथा सिद्धसेनगणी और हरिभद्र की टीकाओं में उद्धृत पाठों में 'इन्द्रिय' शब्द पहले और 'अव्रत' शब्द तीसरे स्थान पर है। किन्तु भाष्य में पहले 'अव्रत' की व्याख्या की गई है, उसके बाद 'कषाय' की, फिर 'इन्द्रिय' की। यह सूत्रक्रमोल्लंघन नाम की असंगति है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। यदि भाष्य स्वोपज्ञ होता तो इस क्रमोल्लंघन की असंगति का प्रसंग न आता। सिद्धसेनगणी ने इस असंगति का औचित्य सिद्ध करते हुए कहा है-"यहाँ इन्द्रिय और कषाय का उल्लंघन करके भाष्यकार ने अव्रतों की व्याख्या की है। इसका प्रयोजन यह बतलाना है कि हिंसादि अव्रत समस्त आस्रवसमूह के मूल हैं। उनमें प्रवृत्त होने पर ही आस्रवों में प्रवृत्ति होती है और उनसे निवृत्त होने पर ही समस्त आस्रवों से निवृत्ति होती है। सूत्र में 'इन्द्रिय' शब्द का आदि में सन्निवेश सूत्रबन्ध में शोभा लाने के लिए किया गया है।"९२ गणी जी की ये दोनों युक्तियाँ अयुक्त हैं तथा "सूत्रबन्ध (सूत्ररचना) में शोभा लाने के लिए 'अव्रत' शब्द के स्थान में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास किया गया है।" यह युक्ति तो हास्यास्पद है। इसे स्वीकार करने में निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं १. हिंसादि अव्रत समस्त आस्रवों के मूल नहीं हैं, क्योंकि महाव्रत धारण कर लेने पर भी संज्वलनकषाय के उदय से सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थान तक कर्मों का साम्परायिक आस्रव होता है। अतः समस्त आस्रवों का मूल बतलाने के लिए सूत्र के आदि में 'अव्रत' शब्द के सन्निवेश का औचित्य नहीं था। इससे साबित होता है कि सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का सन्निवेश सूत्ररचना की शोभा के लिए नहीं, अपितु आस्रवभेदों में प्रथमतः निर्देश्य होने के कारण ही हुआ है। २. इस नियम का प्रतिपादन किसी भी शास्त्र में नहीं किया गया है कि सूत्रबन्ध का प्रमुख प्रयोजन सूत्र की शब्दरचना में शोभा उत्पन्न करना है और सूत्र के प्रतिपाद्य अर्थ का बोध कराना गौण प्रयोजन है। व्याकरणशास्त्र में प्रतिपाद्य अर्थ का बोध कराना ही सूत्रबन्ध का एकमात्र प्रयोजन बतलाया गया है। अतः सूत्रबन्ध में शोभा लाने के लिए उसके उचित शब्दक्रम को बदलकर उसके क्रमिक अर्थावगम में बाधा उत्पन्न ९२. "तत्रेन्द्रियकषायानुल्लघ्याव्रतान्येव व्याचष्टे भाष्यकारः। किं पुनरत्र प्रयोजनमिति? उच्यते अयमभिप्रायो भाष्यकारस्य-हिंसादीन्यव्रतानि सकलास्रवजालमूलानि तत्प्रवृत्तावास्रवेष्वेव प्रवृत्तिस्तन्निवृत्तौ च सर्वास्रवेभ्यो निवृत्तिरित्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं सूत्रोक्तक्रममतिक्रम्याव्रतानि व्याचष्टे भाष्यकारः। सूत्रबन्धशोभाहेतोरिन्द्रियादिसन्निवेशः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ६/६/पृ. १० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३१३ करना सूत्रबन्ध के नियम के विरुद्ध है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास सूत्रबन्ध की शोभा के प्रयोजन से नहीं किया, बल्कि आस्रवभेदों में प्रथमतः उल्लेख्य होने के कारण ही किया है। ३. सूत्र या वाक्य में शब्दप्रयोगजन्य शोभा की उत्पत्ति अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि शब्दालंकारों के प्रयोग से होती है। किन्तु उपर्युक्त सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द के विन्यास से किसी भी शब्दालंकार की उत्पत्ति नहीं हुई, अतः शब्दिक शोभा का रंचमात्र भी आविर्भाव नहीं हुआ है। यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सूत्र के आदि में इन्द्रिय शब्द का सन्निवेश सूत्र रचना में शोभा उत्पन्न करने के लिए नहीं, अपितु आस्रवभेदों में प्रथम स्थान रखने के कारण हुआ है। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री गणी जी के समाधान को हास्यास्पद बतलाते हुए लिखते हैं-"---सूत्ररचना की शोभा के लिए 'इन्द्रिय' का आदि में सन्निवेश किया है, कैसा अच्छा समाधान है! सूत्रों की रचना सुन्दरता की दृष्टि से की जाती है, यह एक नयी खोज है। 'इन्द्रिय' की जगह 'अव्रत' रखने से सूत्र कैसे असुन्दर हो जाता, यह तो गणी जी ही बतला सकते हैं।" (जै.सा.इ. /द्वि.भा. / पृ. २४२)। उक्त सूत्र में इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया, इन शब्दों के क्रमशः विन्यास का क्या प्रयोजन है, इसका संकेत तत्त्वार्थराजवार्तिक में उठाये गये एक प्रश्न से मिलता है। वह यह कि इन्द्रियों से ही ज्ञान करके विचार-विमर्श के बाद जीव कषाय, अव्रत और क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं,९३ अतः अव्रत की प्रवृत्ति में इन्द्रियादि निमित्त हैं, इसलिए उनका विन्यास उपर्युक्त क्रम से किया गया है। इस प्रकार श्री सिद्धसेनगणी भाष्यकार द्वारा किये गये सूत्रक्रमोल्लंघन का औचित्य सिद्ध करने में सफल नहीं होते। सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का ही सन्निवेश उचित है, इसीलिए सूत्रकार ने ऐसा ही किया है। अतः भाष्य में भी उसकी ही व्याख्या पहले होनी चाहिए थी। यदि सूत्रकार ही भाष्यकार होते, तो वे अनिवार्यतः ऐसा ही करते, क्योंकि जिस औचित्य के कारण उन्होंने सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास किया है, उस औचित्य का निर्वाह वे भाष्य में किये बिना नहीं रहते। अतः सिद्ध होता है कि भाष्यकार कोई अन्य व्यक्ति हैं, जिन्होंने सूत्रगत शब्दक्रम की परवाह न करते हुए अपनी जुदी चिन्तन प्रणाली के वशीभूत हो शब्दक्रम का उल्लंघन कर 'अव्रत' शब्द की व्याख्या पहले की है। ९३. "इन्द्रियैर्हि उपलभ्य विचार्य च कषायाव्रतक्रियासु प्रवर्तन्ते प्रजाः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक /६/ ५/१६/पृ.५११। ९४. "अव्रतस्येन्द्रियादिपरिणामाः प्रवृत्तिनिमित्तानि भवन्ति।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/५/१८/पृ. ५११ । For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ डॉ० सागरमल जी का कथन है कि भाष्य लिखते समय सूत्रकार की भूल से यह क्रमोल्लंघन हो गया है अथवा लिपिकार की भूल इसका कारण है। अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है। (जै.ध.या.स. / पृ. २८७)। किन्तु इस प्रकार की भूल हुई होती, तो सिद्धसेनगणी उक्त क्रमोल्लंघन के औचित्य को अन्य प्रकार से सिद्ध करने की कोशिश न करते। वे भी इसे भाष्यकार या लिपिकार की भूल कहकर आसानी से सत्य पर परदा डाल सकते थे। __ अपने कथन के समर्थन में डॉक्टर साहब ने एक यह तर्क दिया है कि कुन्दकुन्द ने आस्रव के हेतु चार बतलाये हैं : मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, जब कि उन्हीं की परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि में प्रमाद को शामिल कर पाँच कारण माने गये हैं। लेकिन इस संख्याभेद से ये लेखक भिन्न-भिन्न परम्परा के सिद्ध नहीं होते। इसी प्रकार सूत्र और भाष्य में क्रमोल्लंघन होने से कतभेद सिद्ध नहीं होता। (जै.ध.या.स./ पृ. २८७)। किन्तु डॉक्टर साहब का यह तर्क उनकी ही मान्यता के विरुद्ध जाता है, क्योंकि उपर्युक्त भेद में कर्त्ताभेद तो सिद्ध है ही, अतः उक्त तर्क से सूत्र और भाष्य में कर्ताभेद की ही पुष्टि होती है। उक्त क्रमोल्लंघनरूप असंगति भाष्य के स्वोपज्ञ होने की इतनी अधिक विरोधी है कि उसका परिहार करने के लिए आगे चलकर श्वेताम्बराचार्यों ने सूत्र के शब्दक्रम में भाष्य के अनुसार परिवर्तन कर दिया, अर्थात् 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः' के स्थान में 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः' पाठ कर दिया, जो अवैध है। (देखिए, 'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' ६/६ राजचन्द्र आश्रम, अगास / १९९२ ई०)। २.६. 'इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंश---' ___ 'सूत्र' और 'भाष्य' में तीसरी विसंगति का संकेत करते हुए मुख्तार जी अपने ग्रन्थ 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' (पृ. १२८-१२९) में कहते हैं"इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषद्यात्मरक्ष-लोकपालानीक-प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः" (त.सू. /श्वे.४/४) इस सूत्र में प्रत्येक देवनिकाय में देवों के दश भेद बतलाये गये हैं। भाष्यकार भी पहले यही निरूपित करते हैं-'एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति।' (त.भाष्य ४/४)। किन्तु जब वे भेदों का वर्णन करते हैं तब निम्नलिखित ग्यारह भेद बतलाते हैं "तद्यथा इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षा: लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्विषिकाश्चेति।" (तत्त्वा. भाष्य ४/४) For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र / ३१५ अ० १६ / प्र० १ इसमें अनीकाधिपतयः भेद अधिक है जो सूत्रसम्मत नहीं है । इसीलिए सिद्धसेन गणी लिखते हैं- " सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सूरिणा नानीकाधिपतयः भाष्ये पुनरुपन्यस्ताः।” (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ४/४/पृ. २७६) । अर्थात् सूत्र में तो आचार्य ने अनीकों का ही ग्रहण किया है, अनीकाधिपतियों का नहीं, किन्तु भाष्य में किया है। इस पर टिप्पणी करते हुए मुख्तार जी कहते हैं- “ इससे सूत्र और भाष्य में जो विरोध आता है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। सिद्धसेनगणी ने इस विरोध का कुछ परिमार्जन करने के लिए जो यह कल्पना की है कि ' भाष्यकार ने अनीकों और अनीकाधिपतियों के एकत्व का विचार करके ऐसा भाष्य कर दिया जाना पड़ता है' (त./भाष्यवृत्ति ४/४), वह ठीक मालूम नहीं होती, क्योंकि अनीकों और अनीकाधिपतियों की एकता का वैसा विचार यदि भाष्यकार के ध्यान में होता, तो वह अनीकों और अनीकाधिपतियों के लिए अलग-अलग पदों का प्रयोग करके संख्याभेद उत्पन्न न करता । भाष्य में तो दोनों का स्वरूप भी फिर अलग-अलग दिया गया है, जो दोनों की भिन्नता का द्योतन करता है । यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों, तो फिर 'इन्द्र' का अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है, परन्तु दश भेदों में इन्द्र की अलग गणना की गई है, इससे उक्त कल्पना ठीक मालूम नहीं होती । सिद्धसेन भी अपनी इस कल्पना पर दृढ़ मालूम नहीं होते, इसी से उन्होंने आगे चलकर लिख दिया है - ' अन्यथा वा दशसंख्या भिद्येत' (पृ. २७६) = अथवा यदि ऐसा नहीं है, तो दश की संख्या का विरोध आता है । " (जै. सा. इ. वि.प्र. / पृ. १२८-१२९)। सूत्र और भाष्य में इस विरोध से सिद्ध होता है कि उनकी रचना एक ही व्यक्ति के द्वारा नहीं की गई है। २.७. आक्षेप का निराकरण डॉ॰ सागरमल जी यहाँ कोई विरोध या असंगति नहीं मानते। वे लिखते हैं"कोई भी व्याख्याकार व्याख्या में किसी भेद के उपभेद की चर्चा तो कर ही सकता है । पुनः क्या इस प्रकार भेद और उपभेदों की चर्चा दिगम्बर व्याख्याकारों ने नहीं की है? जब वे निक्षेप की चर्चा करते हैं, तो क्या स्थापना के साकार - स्थापना और निराकार - स्थापना ऐसे दो भेद नहीं करते हैं ? और कोई आग्रहपूर्वक यह कहे कि साकार और अनाकार ऐसी दो स्थापना होने से व्याख्या में निक्षेप के पाँच भेद किये गये हैं, अतः व्याख्या और मूल में असंगति है? ऐसे तो एक-दो नहीं, सैकड़ों असंगतियाँ किसी भी मूलग्रन्थ और उसके भाष्य या टीका में दिखाई जा सकती हैं । " (जै.ध.या.स./ पृ. २८९)। For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ डॉक्टर साहब का यह कथन बिलकुल सत्य है कि कोई भी व्याख्याकार व्याख्या में किसी उपभेद की चर्चा कर ही सकता है, किन्तु उपभेद की चर्चा तभी करता है, जब भेद की चर्चा कर लेता है और उपभेद की चर्चा के लिए प्रस्तुत होता है । कोई भी व्याख्याकार भेद के स्थान में उपभेद का वर्णन नहीं करता, क्योंकि इससे उपभेद को भेद समझ लेने का भ्रम हो सकता है। उक्त सूत्र के भाष्य में भाष्यकार भेदकथन के लिए ही प्रस्तुत होते हैं, उपभेदकथन के लिए नहीं । यह उनके निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट हो जाता है "एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति । तद्यथा इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्विषिकाश्चेति ।" (तत्त्वा.भाष्य ४ /४) । अनुवाद — " पूर्वोक्त देवनिकायों में से प्रत्येक देवनिकाय में देवों के दश भेद होते हैं, जैसे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, अनीकाधिपति, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक । यहाँ 'देवा दशविधा भवन्ति' कहने के बाद तद्यथा ( जैसे ) कहने से स्पष्ट है कि भाष्यकार आगे दशभेदों के ही नाम बतला रहे हैं, किसी उपभेद का नाम नहीं। अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि यहाँ उन्होंने किसी उपभेद का वर्णन किया है। उन्होंने भेदों का ही वर्णन किया है, किन्तु देवों के दश नाम बतलाने की जगह ग्यारह नाम बतला दिये हैं, यह न केवल सूत्र और भाष्य में विरोध का उदाहरण है, अपितु इससे भाष्य के भीतर ही गंभीर अन्तर्विरोध सूचित होता है । भाष्यकार प्रतिज्ञा दश भेद बतलाने की कर रहे हैं और बतलाते हैं ग्यारह भेद । यह अन्तर्विरोध इस बात का सूचक है कि इस विषय में सूत्रकार और भाष्यकार में मतभेद हैं। किन्तु भाष्यकार सूत्रकार के मत का स्पष्ट शब्दों में खण्डन करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, इसलिए उन्होंने सूत्र का अनुसरण करते हुए कहा तो यही है कि दस भेद होते हैं, किन्तु नामों का वर्णन करते समय ग्यारह नाम बतलाकर अपना मत भी स्पष्ट कर दिया है। दिगम्बर व्याख्याकारों ने स्थापनानिक्षेप के साकार स्थापना और निराकार - स्थापना ऐसे दो उपभेद अवश्य बतलाये हैं, किन्तु निक्षेप के भेद बतलाते समय नहीं, अपितु स्थापना- निक्षेप के उपभेद बतलाते समय ऐसा किया है। जैसे 'सद्भावेतरभेदेन द्विधा' ( तत्त्वार्थश्लोक - वार्तिक २/१/५, श्लोक ५४) अर्थात् वह स्थापना सद्भावस्थापना और असद्भाव-स्थापना के भेद से दो प्रकार की है। इसी प्रकार यदि भाष्य में देवों के दशभेद बतलाते समय दशभेद ही बतलाये जाते और उसके बाद अनीक के उपभेदों For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / ३१७ के वर्णन का प्रस्ताव करके उसके अनीक और अनीकाधिपति ये दो उपभेद बतलाये जाते, तब कोई विरोध या असंगति नहीं होती । किन्तु ऐसा नहीं किया गया है। भेदों के अन्तर्गत ही अनीकाधिपति की गणना की गयी है, इससे सिद्ध है कि भाष्यकार को देवों के ग्यारह भेद ही मान्य हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि भाष्यकार का सूत्रकार के साथ मतभेद है। २.८. 'सारस्वत्यादित्य मुख्तार जी द्वारा जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश के पृष्ठक्रमांक १२९ - १३० पर 'सूत्र' और 'भाष्य' में बतलायी गयी चौथी विसंगति इस प्रकार है— श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के " सारस्वत्यादित्यवह्न्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतोऽरिष्टाच९५ इस सूत्र (४ / २६) में लौकान्तिक देवों के सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट, ये नौ भेद बतलाये गये हैं, किन्तु भाष्यकार ने 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' (४/२५ / पृ. २३२ ) इस पूर्वसूत्र के तथा इस सूत्र के भाष्य में लोकान्तिक देवों की संख्या आठ ही बतलायी है ।' ९६ ___ इस विसंगति पर टिप्पणी करते हुए मुख्तार जी लिखते हैं- " इस विषय में सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पा गये हैं कि लोकान्त में रहनेवालों के ये आठ भेद, जो भाष्यकार सूरि ने अंगीकार किये हैं, वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहनेवालों की अपेक्षा नौ भेद रूप हो जाते हैं, आगम में भी नौ भेद कहे हैं, इससे कोई दोष नहीं, परन्तु मूल सूत्र में जब स्वयं सूत्रकार ने नौ भेदों का उल्लेख किया तब अपने ही भाष्य में उन्होंने नौ भेदों का उल्लेख न कर आठ भेदों का ही उल्लेख क्यों किया, इसकी वे कोई माकूल (युक्तियुक्त) वजह नहीं बतला सके। इसी से शायद पं० सुखलाल जी को उस प्रकार से कहकर छुट्टी पा लेना उचित नही जँचा, और इसलिए उन्होंने भाष्य की स्वोपज्ञता में बाधा न पड़ने देने के ख्याल से यह कह दिया है कि " यहाँ मूल सूत्र में 'मरुतो' पाठ पीछे से प्रक्षिप्त हुआ है।" परन्तु इसके लिए वे कोई प्रमाण उपस्थित नहीं कर सके। जब प्राचीन से प्राचीन श्वेताम्बरीय टीका में मरुतो पाठ स्वीकृत किया गया है, तब उसे यों ही दिगम्बरपाठ की बात को लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता।" (जै. सा. इ. वि.प्र. / पृ. १३० ) । ९५. " सारस्वतादित्यवह्न्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ।" तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर) ४/२५ । ९६. “ब्रह्मलोकं परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ४ / २५ । " एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा --- ।" वही ४ / २६ ९७. "लोकान्तवर्तिनः एतेऽष्टभेदाः सूरिणोपात्ताः, रिष्ठविमानप्रस्तारवर्तिभिर्नवधा भवन्तीत्यदोषः । आगमे तु नवधैवाधीता इति । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ४ / २६ । For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ डॉ० सागरमल जी ने भी मरुतो पाठ को प्रक्षिप्त मानकर सूत्र और भाष्य में उक्त मतभेद अस्वीकार करने की चेष्टा की है,९८ किन्तु वे भी किसी प्रमाण से इसकी पुष्टि करने में असमर्थ रहे हैं। अतः सूत्र और भाष्य में लौकान्तिक देवों की संख्या के विषय में जो यह मतभेद है, उससे सिद्ध होता है कि दोनों के कर्ता भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में लौकान्तिक देव आठ ही माने गये हैं और भाष्यकार को भी आठ ही मान्य हैं। इससे साबित होता है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही मूलपाठ है। मुख्तार जी ने सूत्र और भाष्य में अन्तर्विरोध दर्शानेवाले उपर्युक्त चार उदाहरण दिये हैं। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावना में कुछ अन्य उदाहरण भी दिये हैं, जो नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं२.९. सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दर्शनी "तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनी से सम्यग्दृष्टि को भिन्न नहीं माना गया है। वहाँ ('शङ्काकांक्षाविचिकित्सा' ९९ इत्यादि सूत्र) में ऐसे सम्यग्दर्शनवाले को भी सम्यग्दृष्टि कहा गया है, जिसके शंका आदि दोष संभव होते हैं। किन्तु इसके विपरीत तत्त्वार्थभाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि इन दोनों पदों की स्वतन्त्र व्याख्या करके सम्यग्दर्शनी से सम्यग्दृष्टि को भिन्न बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिसके आभिनिबोधिक ज्ञान होता है वह सम्यग्दर्शनी कहलाता है और जिसके केवलज्ञान होता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।०० स्पष्ट है कि यहाँ पर तत्त्वार्थभाष्यकार तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण नहीं करते और सम्यग्दृष्टि पद की तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध अपनी दो व्याख्यायें प्रस्तुत करते हैं। एक स्थल (अध्याय १/ सूत्र ८) में वे जिस बात को स्वीकार करते हैं, दूसरे (अध्याय ७/सूत्र २३) में वे उसे छोड़ देते हैं।"(स.सि./प्रस्ता./पृ.६७)। २.१०. 'मतिः स्मृति:---' "तत्त्वार्थसूत्र में मति, स्मृति और संज्ञा आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं।१०१ किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें पर्यायवाची नाम न मानकर 'मतिः स्मृतिः' इत्यादि सूत्र ९८. जै.ध.या.स./ पृ. २९१-२९२। ९९. तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर) ७/२३, (श्वेताम्बर) ७/१८। १००."अत्राह-सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोः कः प्रतिविशेष इति? उच्यते। अपायसव्व्यतया सम्यग्दर्शनमयाय आभिनिबोधिकम्। तद्योगात्सम्यग्दर्शनम्। तत्केवलिनो नास्ति। तस्मान्न केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/८/ पृ. ३१ । १०१. "मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थसूत्र १/१३ । For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / ३१९ १०२ के आधार से मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदि को स्वतन्त्र ज्ञान मानते हैं । सिद्धसेनगणी ने भी तत्त्वार्थभाष्य के आधार से इनको स्वतन्त्र ज्ञान मानकर उनकी व्याख्या की है। यह कहना कि सामान्य - मतिज्ञान व्यापक है और विशेष मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदि उसके व्याप्य हैं, कुछ सयुक्तिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि मतिज्ञान वर्तमान अर्थ को विषय करता है। इस तथ्य को जब स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार स्वीकार करते हैं, तब मति, स्मृति आदि नाम मतिज्ञान के पर्यायवाची ही हो सकते हैं, भिन्न-भिन्न ज्ञान नहीं । तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में इन्हें मतिज्ञान का पर्यायवाची ही कहा है। स्पष्ट है कि यहाँ पर भी तत्त्वार्थभाष्यकार की व्याख्या मूल सूत्र का अनुसरण नहीं करती।" (स.सि./ प्रस्ता. / पृ. ६७-६८) । २.११. शब्दादि नय "तत्त्वार्थभाष्यकार ने दसवें अध्याय के 'क्षेत्रकालगति' इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ('शब्दादयश्च त्रयः '), इन तीन को मूलनय मान लिया है, जब कि वे ही प्रथम अध्याय में उस सूत्रपाठ को स्वीकार करते हैं, जिसमें मूलनयों में केवल एक शब्दनय स्वीकार किया गया है।" (स.सि./ प्रस्ता. / पृ.६८)। यह परस्परविरुद्ध है तथा सूत्रकार के मत से भी भिन्नता प्रदर्शित करता है। २. १२. चरमदेहोत्तम पुरुष "औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषो ऽनपवर्त्यायुषः " (त.सू. /२/५३) इस दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ में चरमोत्तमंदेह पद है। श्वेताम्बरमान्य सूत्रपाठ में इसके स्थान पर चरमदेहोत्तमपुरुष पाठ मिलता है। पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-" तत्त्वार्थभाष्यकार ने प्रारम्भ में इस पद को मानकर ही उसकी व्याख्या की है। किन्तु बाद में वे उत्तमपुरुष पद का त्याग कर देते हैं और मात्र चरमदेह पद को स्वीकार कर उसका उपसंहार करते हैं। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थभाष्यकार को इस सूत्र के कुछ हेरफेर के साथ दो पाठ मिले होंगे, जिनमें से एक पाठ को उन्होंने मुख्य मानकर उसका प्रथम व्याख्यान किया । किन्तु उसको स्वीकार करने पर जो आपत्ति आती है, उसे देखकर उपसंहार के समय उन्होंने दूसरे पाठ को स्वीकार कर लिया । स्पष्ट है कि इससे तत्त्वार्थभाष्यकार ही तत्त्वार्थसूत्रकार हैं, इस मान्यता को बड़ा धक्का लगता है । " ( स. सि. / प्रस्ता. / पृ. ६८ ) । १०२. " मतिज्ञानं स्मृतिज्ञानं संज्ञाज्ञानं चिन्ताज्ञानम् आभिनिबोधिकज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/ १ / १३ । For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० १ ये चार अन्तर्विरोध सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने निर्दिष्ट किये हैं । सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने सूत्र और भाष्य में निम्नलिखित विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है २.१३. प्राणापान “शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम्" (त. सू. ५ / १९) इस सूत्र के भाष्य में कहा गया है—'प्राणापानौ च नामकर्मणि व्याख्यातौ' अर्थात् नामकर्म के प्रकरण में प्राण और अपान का व्याख्यान किया जा चुका है। किन्तु नामकर्म का प्रकरण आठवें अध्याय में हैं। अतः व्याख्यातौ यह भूतकालीन क्रिया असंगत है। व्याख्यास्येते होना चाहिए था। सिद्धसेन गणी ने भी इस असंगति की चर्चा की है, किन्तु उन्होंने इसका यह समाधान किया है कि भविष्यत् काल के द्योतन के लिए भूतकालिक और वर्तमानकालिक प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है । किन्तु भाष्यकार ने इस तरह के प्रयोग अन्यत्र नहीं किये हैं, इसलिए सिद्धसेन गणी का समाधान समाधानकारक नहीं है । अतः यही सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने सूत्रों की रचना नहीं की है, इसीलिए सूत्र और भाष्य में यह असंगति है । ( कैलाशचन्द्र शास्त्री / जै. सा. इ. / भा. २ / २४१-४२) । २.१४. घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः १०३ "रत्नशर्कराबालुका" (त.सू. / श्वे. /३/१) इत्यादि सूत्र में आये घनाम्बुवांताकाशप्रतिष्ठाः पद का अर्थ करते हुए भाष्यकार ने लिखा है “अम्बुवाताका प्रतिष्ठा इि सिद्धे घनग्रहणं क्रियते तेनायमर्थः प्रतीयते- ।" ( स्वोपज्ञभाष्य / तत्त्वार्थाधिगमसूत्र / भाग १ / जी.च. साकरचंद जवेरी, मुंबई / अध्याय ३ / सूत्र १ / पृ. २३०) । 111 अर्थात् अम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः ऐसा सिद्ध होने पर जो घन शब्द का ग्रहण किया गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है--- ।' यहाँ प्रतीयते शब्द निश्चयात्मक नहीं है, सन्देहात्मक है। --- यदि भाष्यकार ही सूत्रकार होते, तो अपने ही द्वारा प्रयुक्त 'घन' शब्द के अर्थ के विषय में उनके मन में अनिश्चयात्मकता न रहती । इसलिए वे प्रतीयते क्रिया का प्रयोग न कर ज्ञाप्यते जैसी क्रिया का प्रयोग करते । सिद्धसेनगणी ने अपनी टीका में 'प्रतीयते' क्रिया को उड़ा ही दिया है और भाष्य का अर्थ करते हुए ज्ञाप्यते क्रिया का प्रयोग किया है, जो निश्चयात्मक है । ( कैलाशचन्द्र शास्त्री / जै.सा.इ./भा.२/पृ.२४२-४३)। १०३.‘“प्राणापानपर्याप्तिरित्यत्र भाष्ये व्याख्यास्येते, कथं तर्हि व्याख्यातौ ? आशंसायामर्थे भूतवद् वर्तमानवच्च प्रत्यया भवन्ति, उपाध्यायश्चेद् आगमिष्यति तद्व्याकरणमधीतमेवमिहापि नामकर्माशंसितमित्यदोषः । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५ /१९ / पृ. ३४२ । For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२१ २.१५. 'औदारिकवैक्रिय---' द्वितीय अध्याय के "औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि" (त.सू. । श्वे./२/३७) इस सूत्र में औदारिक आदि पाँच शरीरों के नाम गिनाये गये हैं। इसके भाष्य में भी पाँच शरीरों के केवल नाम ही बतलाये गये हैं, उनकी व्याख्या नहीं की गई है। व्याख्या इसी अध्याय के "शुभं विशुद्धमव्याघति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव" (त.सू./श्वे./२/४९) इस सूत्र के भाष्य में की गई है, जो अप्रासंगिक है। "सिद्धसेनगणी ने भी इसे अप्रासंगिक मानते हुए शंका उठाई है-"यह भाष्य तो शरीरप्रकरणसम्बन्धी पूर्वसूत्र (२/३७) में युक्त होता। प्रकरण के अन्त में उसके कहने का किञ्चित् भी विशिष्ट प्रयोजन नहीं है।" इस शङ्का को उचित मानते हुए वे कहते हैं-"निश्चित ही प्रकरण के अन्त में इसके कहे जाने का कोई फल नहीं है, क्योंकि यह प्रस्तुत सूत्र का अर्थ नहीं है, अतः आचार्य की इस भूल को क्षमा करें।" १०४ (कैलाशचन्द्र शास्त्री/जै.सा.इ./भा.२ / २४४)। जो विषय जिस सूत्र से सम्बद्ध है, उसकी व्याख्या उसी सूत्र के भाष्य में न कर अन्य सूत्र के भाष्य में करना एक ऐसी महान् विसंगति है, जिसकी अपेक्षा उस भाष्यकार से नहीं की जा सकती, जिसने सूत्ररचना भी स्वयं की हो। अतः स्पष्ट है कि भाष्य किसी ऐसे अन्य व्यक्ति की कृति है, जो सूत्रकार के समान सिद्धहस्त, औचित्यदर्शी, स्मृतिशील और सावधान नहीं है। कुछ विसंगतियाँ प्रस्तुत ग्रन्थलेखक की दृष्टि में भी आयी हैं, जिनका निरूपण आगे किया जा रहा है२.१६. महाव्रत संवर के हेतु "कायवाङ्मनःकर्म योगः" (६/१) तथा "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" (७/१) 'तत्त्वार्थसूत्र' के इन सूत्रों में महाव्रतों को शुभास्रव का हेतु बतलाया गया है। भाष्य में भी इस बात की पुष्टि की गई है। १०५ तथा संवर हेतुओं का वर्णन करने वाले "स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः" (९/२) सूत्र में महाव्रतों को शामिल न करके भी यह द्योतित किया गया है कि महाव्रत शुभास्रव के हेतु हैं, १०४."ननु च शरीरप्रकरणप्रथमसूत्रे एतद् भाष्यं युक्तं स्यात्। इह तु प्रकरणान्ताभिधाने न किञ्चित् प्रयोजनं वैशेषिकमस्तीति। उच्चते-तदेवमयं मन्यते, तदेवेदमादिसूत्रमाप्रकरणपरिसमाप्तेः प्रपञ्च्यते, अथवा प्रकरणान्ताभिधाने सत्यमेव न किञ्चित् फलमस्त्यसूत्रार्थत्वाद् अतः क्षम्यतामिदमेकमाचार्यस्येति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २/४९ / पृ. २११ । १०५.क-"तत्राशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिकः, सावद्यानृतपरुषपिशुनादीनि वाचिकः, अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः। अतो विपरीतः शुभ इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ६/१। For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ /प्र०१ संवर के नहीं। किन्तु भाष्यकार ने "अनित्याशरणसंसारैकत्वा" इत्यादि सूत्र के भाष्य में महाव्रतों को संवर का हेतु बतलाया है।०६ इससे भी सूत्र और भाष्य में अन्तर्विरोध की पुष्टि होती है, जिससे इस मान्यता को बल मिलता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। यद्यपि दशधर्म-प्रतिपादक सूत्र में 'संयम' धर्म के अन्तर्गत महाव्रतों को संवर का हेतु स्वीकार किया गया है, तथापि महाव्रतों को गुप्ति, समिति आदि के साथ जोड़कर संवरहेतुओं में परिगणित नहीं किया गया है, जैसा कि भाष्यकार ने किया है। २.१७. 'कालश्चेत्येके' तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में सूत्रकार ने कहा है-"कालश्चेत्येके" (५/३८), अर्थात् कुछ आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं। इससे ध्वनित होता है कि सूत्रकार स्वयं काल को द्रव्य नहीं मानते। यदि उन्हें भी काल का द्रव्य होना स्वीकार होता, तो 'कालश्चेत्येके' न कहकर 'कालश्च' कहते। श्वेताम्बर-आगमों में जो जीव तथा अजीव की पर्याय को 'काल' कहा गया है, उसे भी सूत्रकार नहीं मानते,१०७ क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में उन्होंने कहीं भी उसे काल नहीं बतलाया। किन्तु भाष्यकार काल को द्रव्य मानते भी हैं और नहीं भी।"अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" (५/१) इस सूत्र के भाष्य में कहा है कि यहाँ काय शब्द का ग्रहण प्रदेशावयवों की बहुलता दर्शाने तथा अद्धासमय (काल) की कायात्मकता का निषेध करने के लिए किया गया है।०८ इस कथन से स्पष्ट होता है कि भाष्यकार को कालद्रव्य का केवल प्रदेशबहुत्व अमान्य है, अस्तित्व अमान्य नहीं है। उन्होंने "आद्य शब्दौ द्वित्रिभेदौ" (त.सू./श्वे/१/३५) सूत्र के भाष्य में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा है,१०९ किन्तु अन्यत्र लोक को पञ्चास्तिकायों का समुदाय बतलाया है ११० तथा "नित्यावस्थितान्यरूपाणि च" (त.सू. /श्वे. ५/३) सूत्र की टीका में वे कहते हैं कि ख- "अत्राह-उक्तं भवता सद्वेद्यस्यास्रवेषु भूतव्रत्यनुकम्पेति।' तत्र किं व्रतं को वा व्रतीति? अत्रोच्यते।" (वही/उत्थानिका ७/१) १०६."संवरांश्च महाव्रतादिगुप्त्यादिपरिपालनाद् गुणतश्चिन्तयेत्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/७/ पृ. ४०२। १०७."किमिदं भंते! कालोत्ति पवुच्चति? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव" इदं हि सूत्रमस्तिकाय पञ्चकाव्यतिरिक्त-कालप्रतिपादनाय तीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः काल इति सूत्रार्थ:---स च वर्तनादिरूपो द्रव्यस्यैव पर्यायः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/ पृ. ४३२। १०८."कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/१/ पृ.२४५ । १०९. "सर्वं षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधादिति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ / पृ. ६५। ११०. "पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः।" वही/३/६/ पृ.१५९ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२३ द्रव्य कभी भी पाँच की संख्या का उल्लंघन नहीं करते।१११ इन परस्पर-विरोधी वचनों से स्पष्ट है कि भाष्यकार काल को द्रव्य मानते भी हैं और नहीं भी। सूत्रकार और भाष्यकार के इस मतवैषम्य से सिद्ध है कि वे भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। इसके अतिरिक्त भाष्यकार ने 'काल' के लिए श्वेताम्बर-आगमों में प्रयुक्त अद्धासमय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु सूत्र में इसका प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार की भिन्नता सिद्ध होती है। २.१८. 'बादरसाम्पराये सर्वे' तत्त्वार्थसूत्रकार ने "सूक्ष्मसाम्परायवीतरागछद्मस्थयोश्चतुर्दश" (९/१०) सूत्र में दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों के परीषहों का वर्णन किया है, "एकादश जिने" (९/११) सूत्र में तेरहवें गुणस्थान के परीषह निर्दिष्ट किये गये हैं और "बादरसाम्पराये सर्वे" (९/१२) सूत्र का कथन कर छठे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थानों के परीषहों का ज्ञापन किया है। किन्तु भाष्यकार ने "बादरसम्पराये सर्वे" सूत्र को केवल नौवें गुणस्थान में होनेवाले परीषहों का प्रतिपादक माना है।१२ यदि ऐसा माना जाय तो छठे से लेकर आठवें गुणस्थान तक के परीषहों का वर्णन करनेवाला कोई सूत्र पृथक् से निर्दिष्ट न होने के कारण तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में अपूर्णता के दोष का प्रसंग आता है अथवा 'सूत्रकार उक्त गुणस्थानों में कोई भी परीषह नहीं मानते' इस आगमविरुद्ध मान्यता के दोषी सिद्ध होते हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार जैसे महान् आगमविद् में इन दोषों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इससे यही सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने ही बादरसाम्पराय शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ ग्रहण करने की त्रुटि की है। यह सूत्रकार और भाष्यकार के प्रतिपादनों में विसंगतियों एवं उनके भिन्न व्यक्ति होने का चौदहवाँ प्रमाण है। सूत्र और भाष्य में ये बहुमुखी विसंगतियाँ इस बात की गवाह हैं कि सूत्र और भाष्य की रचना एक ही व्यक्ति द्वारा नहीं की गई है, अपितु वे अलग-अलग व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। १११. "एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति।--- न हि कदाचित् पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति।" वही/५/३/ पृ. २४७। . ११२. देखिए, इसी प्रकरण का शीर्षक १.४. 'सूत्र में स्त्रीमुक्तिनिषेध।' Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ सूत्र-भाष्य-एककर्तृत्वविरोधी अन्य हेतु . ३.१. कर्मणो योग्यान् __ "सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" (त.सू./८/२) इस सूत्र में कर्मयोग्यान् इस अल्पाक्षरात्मक समस्त पद का प्रयोग न कर कर्मणो योग्यान् इस बह्वक्षरात्मक असमस्त पद का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका समाधान सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है। वह यह कि कर्मणः पद का प्रयोग करने से वह पञ्चमी और षष्ठी दोनों विभक्तिवाले पद के रूप में अलग-अलग दो वाक्यों में अन्वित हो सकता है। जैसे 'कर्मणः सकषायत्वाजीवः' अर्थात् कर्मोदय के निमित्त से सकषाय होकर जीव 'कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते' = कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। (स.सि./८/२)। यह समाधान भाष्यकार ने नहीं किया। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रों की रचना उन्होंने नहीं की। यदि सूत्र रचना उन्होंने की होती, तो कर्मणो योग्यान् प्रयोग का रहस्य उन्हें ज्ञात होता और उसका स्पष्टीकरण वे भाष्य में अवश्य करते। . ३.२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने लिखा है-"तत्त्वार्थसूत्र पर श्वेताम्बरों का एक पुराना टिप्पण है, जिसका परिचय 'अनेकान्त' के वीरशासनाङ्क (वर्ष ३/किरण १ / पृ. १२१-१२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पण के कर्ता रत्नसिंह सूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उनके सामने भाष्य ही नहीं, किन्तु सिद्धसेन की भाष्यानुसारिणी टीका भी थी, जिन दोनों का टिप्पण में उपयोग किया गया है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्य को स्वोपज्ञ नहीं बतलाया। टिप्पण के अन्त में दुर्वादापहार रूप से जो सात पद्य दिये हैं, उनमें से प्रथम पद्य और उसके टिप्पण में साम्प्रदायिक कट्टरता का कुछ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने भाष्यकार का जिन शब्दों में स्मरण किया है, वे निम्न प्रकार हैं प्रागेवैतददक्षिणभषणगणादास्यमानमिति मत्वा। त्रातं समूलचूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात्॥ टिप्पण-"दक्षिणे सरलोदाराविति हेमः।" अदक्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपात-मलिना इति यावत्त एव भषणाः कुर्कुरास्तेषां गणैरादास्यमानं ग्रहीष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमानमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्त्वार्थशास्त्रं प्रागेव पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः। सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२५ भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाज्जयं गम्यादित्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मलग्रन्थरक्षकाय प्राग्वचनचौरिकायामशक्यायेति।" इन शब्दों का भावार्थ यह है कि-"जिसने इस तत्त्वार्थशास्त्र को अपने ही वचन के पक्षपात से मलिन अनुदार कुत्तों के समूहों द्वारा ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर, यह देखकर कि ऐसी कुत्ता-प्रकृति के विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्पद्राय का बनाने वाले हैं-पहले ही इस शास्त्र की मूलचूल-सहित रक्षा की है-इसे ज्यों का त्यों श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के उमास्वाति की कृतिरूप में ही कायम रक्खा है, वह (अज्ञातनामा) भाष्यकार चिरंजीव होवे, चिरकाल तक जय को प्राप्त होवे, ऐसा हम टिप्पणकार जैसे लेखकों का उस निर्मल ग्रन्थ के रक्षक तथा प्राचीन वचनों की चोरी में असमर्थ के प्रति आशीर्वाद है।" ११२.१ "यहाँ (टिप्पणकार ने) भाष्यकार का नाम न देकर उसके लिए स कश्चित् (वह कोई) शब्दों का प्रयोग किया है, जबकि मूल सूत्रकार का नाम उमास्वाति कई स्थानों पर स्पष्टरूप से दिया है। इससे साफ ध्वनित होता है कि टिप्पणकार को भाष्यकार का नाम मालूम नहीं था और वह उसे मूल सूत्रकार से भिन्न समझता था। भाष्यकार का निर्मलग्रन्थरक्षकाय विशेषण के साथ प्राग्वचनचौरिकायामशक्याय विशेषण भी इसी बात को सूचित करता है। इसके प्राग्वचन का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है, जिसे प्रथम विशेषण में निर्मलग्रन्थ कहा गया है। भाष्यकार ने उसे चुराकर अपना नहीं बनाया, वह अपनी मनःपरिणति के कारण ऐसा करने के लिए असमर्थ था, यही आशय यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्वाति के लिए इस विशेषण की कोई जरूरत नहीं थी, यह उनके लिए किसी तरह भी ठीक नहीं बैठता, साथ ही 'अपने ही वचन के पक्षपात से मलिन अनुदार कुत्तों के समूह द्वारा ग्रहीष्यमानजैसा जानकर' ऐसा जो कहा गया है, उससे यह भी ध्वनित होता है कि भाष्य की रचना उस समय हुई है, जब कि तत्त्वार्थसूत्र पर 'सवार्थसिद्धि' आदि कुछ प्राचीन दिगम्बर-टीकाएँ बन चुकी थीं और उनके द्वारा दिगम्बर समाज में तत्त्वार्थसूत्र का अच्छा प्रचार प्रारम्भ हो गया था। इस प्रचार को देखकर ही किसी श्वेताम्बर विद्वान् को भाष्य के रचने की प्रेरणा मिली है और उसके द्वारा तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर बनाने ११२.१.मुख्तार जी कृत भावार्थ का सारांश इस प्रकार है-'जो कोई इस भाष्य का कर्ता है, उसने पहले से ही जान लिया था कि स्वभाव से कुटिल और पक्षपात से मलिन कुत्ते (दिगम्बर) इस तत्त्वार्थशास्त्र पर कब्जा कर लेंगे, इसलिए उसने भाष्य की रचना कर इसकी समूलचूल रक्षा की है। वह निर्मलग्रन्थ का रक्षक और प्राचीन वचनों की चोरी में असमर्थ भाष्यकार चिरजीवी हो, विजयी हो, यह हम लेखकों का उस के लिए आशीर्वाद Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ की चेष्टा की गयी है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसी हालत में भाष्य को स्वयं मूलसूत्रकार उमास्वाति की कृति बतलाना और भी असंगत जान पड़ता है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ पृ. १३१-१३२)। श्वेताम्बराचार्य रत्नसिंह सूरि के इन वचनों से भी संकेत मिलता है कि भाष्यकार सूत्रकार से भिन्न व्यक्ति थे। ३.३. सटिप्पण प्रति में कुछ अधिक सूत्र श्वेताम्बराचार्य रत्नसिंहसूरि-कृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति में तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की अपेक्षा कुछ अधिक सूत्र हैं, जो इस प्रकार हैं तैजसमपि ( २/५०), धर्मावंशाशैलाञ्जनारिष्टा माघव्या माघवीति च (३/२), उच्छ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः (४/२३) स द्विविधः (५/४२), सम्यक्त्वं च (६/२१), धर्मास्तिकायाभावात् (१०/७)११३ इनमें से 'तैजसमपि', 'सम्यक्त्वं च' तथा 'धर्मास्तिकायाभावात्' ये तीन सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरमान्य पाठ में मिलते हैं, श्वेताम्बरमान्य पाठ में नहीं। इसके अतिरिक्त दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में 'भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि' (३/ १०) पाठ है, किन्तु श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में इस सूत्र के आदि में तत्र शब्द का प्रयोग है। फिर भी रत्नसिंह सूरि ने इनमें से दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ ही स्वीकार किया है।१४ इससे ज्ञात होता है कि श्वेताम्बरपरम्परा में एक और सूत्रपाठ प्रचलित था, जिसमें दिगम्बरमान्य सूत्र संगृहीत थे। उसी से रत्नसिंह सूरि ने ये सूत्र उद्धृत किये हैं। यह इस बात का सबूत है कि श्वेताम्बर-परम्परा में भी उमास्वाति को सूत्रों का कर्ता निर्विवादरूप से नहीं माना गया है। यदि माना गया होता, तो भाष्यमान्य सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों को रत्नसिंह सूरि जैसे श्वेताम्बराचार्य मान्यता न देते। यह भी सिद्ध है कि उपर्युक्त अतिरिक्त सूत्रोंवाला सूत्रपाठ भाष्यमान्य सूत्रपाठ के पहले से ही अस्तित्व में रहा होगा, जो सिद्धसेनगणी आदि टीकाकारों की दृष्टि में नहीं आया। इसलिए उन्होंने उमास्वाति को ही सूत्रकार और भाष्यकार दोनों मान लिया। ३.४. भाष्य के पूर्व भी कुछ श्वेताम्बरटीकाएँ रचित तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उपलब्ध उल्लेखों से सिद्ध होता है कि उसके पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ लिखी गई थीं। "एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्थ्यः" ११३. देखिये, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकृत 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश'/ पृ. ११३ तथा सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी-कृत सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना/पृ. २६ । ११४. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना/पृ. २६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२७ (१/३१) के भाष्य में कहा गया है __ "अत्राह-अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैर्मतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति नेत्युच्यते केचिदाचार्या व्याचक्षते नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत्। यथा वा व्यभ्रे नभति आदित्य उदिते भूरितेजस्त्वादादित्येनाभिभूतान्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिञ्चित्कराणि भवन्ति तद्वदिति। केचिदप्याहुःअपायसद्रव्यतया मतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमनःपर्ययज्ञाने च रूपिद्रव्यविषये तस्मान्नैतानि केवलिनः सन्तीति।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३१ / पृ.५५-५६)। अनुवाद-"केवलज्ञान का पूर्ववर्ती मतिज्ञानादि के साथ सहभाव है या नहीं? इस विषय में कुछ आचार्य कहते हैं कि केवलज्ञान हो जाने पर भी मतिज्ञानादि का अभाव नहीं होता, अपितु ये केवलज्ञान से अभिभूत होकर अकिंचित्कर हो जाते हैं, जैसे केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर इन्द्रियाँ स्थित रहते हुए भी, कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं। अथवा जैसे निरभ्र आकाश में सूर्य का उदय होने पर उसके सातिशय तेज से अग्नि. रत्न. चन्द्रमा. नक्षत्र आदि अन्य पदार्थों का तेज दबकर प्रकाश करने में असमर्थ हो जाता है, वैसे ही केवलज्ञान के प्रकट होने पर अन्य ज्ञान स्वकार्य में असमर्थ हो जाते हैं। किन्तु कुछ अन्य आचार्यों का ऐसा कहना है कि मतिज्ञानादि केवली के नहीं हुआ करते, क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रियों से उपलब्ध तथा ईहित पदार्थ के निश्चय को अपाय (अवाय) कहते हैं और मतिज्ञान अपायस्वरूप है तथा वह सद्रव्यतया हुआ करता है अर्थात्, विद्यमान या विद्यमानवत् पदार्थ को ही ग्रहण करता है। किन्तु केवलज्ञान में ये दोनों बातें नहीं पायी जाती, अत एव वह केवलज्ञान के साथ नहीं रहता। और इसीलिए श्रुतज्ञान भी उसके साथ नहीं रह सकता, क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है, और अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान केवल रूपी द्रव्य को ही 'विषय करते हैं, अतएव वे भी उसके साथ नहीं रह सकते।" ____ यहाँ प्रस्तुत सूत्र के विषय में अन्य आचार्यों के मत उद्धृत किये गये हैं, जिससे ज्ञात होता है कि भाष्य के पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकार हो चुके हैं। इसी प्रकार "सर्वस्य" (२/४३) सूत्र का भाष्य करते हुए भाष्यकार कहते हैं ___ "सर्वस्य चैते तैजसकार्मणे शरीरे संसारिणो जीवस्य भवतः। एके त्वाचार्या नयवादापेक्षं व्याचक्षते। कार्मणमेवैकमनादिसम्बन्धम्। तेनैवैकेन जीवस्यानादिः सम्बन्धो भवतीति। तैजसं तु लब्ध्यपेक्षं भवति। सा च तैजसलब्धिर्न सर्वस्य, कस्यचिदेव भवति।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/२/४३/पृ. ११४)। अनुवाद-“तैजस और कार्मण ये दो शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। परन्तु कुछ आचार्य इस सूत्र की व्याख्या नयवाद की अपेक्षा से करते हैं। वे कहते Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ हैं कि केवल कार्मणशरीर का ही अनादि सम्बन्ध है। एक उसके साथ ही जीव अनादि से सम्बद्ध होता है। तैजसशरीर तो लब्धि से उत्पन्न होता है और लब्धि सबको प्राप्त नहीं होती, किसी-किसी को ही होती है।" ___यहाँ स्पष्ट शब्दों में "सर्वस्य" सूत्र की टीका में पूर्व व्याख्याकारों का उल्लेख किया गया है। तथा "संयमश्रुतप्रतिसेवना---" (९/४९) सूत्र में निर्दिष्ट प्रतिसेवना का विवेचन करते हुए भाष्य में कहा गया है "प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां पराभियोगाद् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति। मैथुनमित्येके।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/ ९/४९ / पृ. ४३३)। अनुवाद-"अहिंसादि पाँच मूलगुणों (महाव्रतों) तथा रात्रिभोजनत्याग, इन छह में से किसी एक को भी दूसरों के दबाव में आकर भंग करनेवाला मुनि पुलाक कहलाता है। कुछ आचार्यों का कथन है कि पुलाक मुनि दूसरों के द्वारा जबरदस्ती किये जाने पर मैथुन भी कर लेता है।" यहाँ भी पुलाक मुनि के विषय में पूर्वाचार्यों का मत वर्णित किया गया है। इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यकार से पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र के अनेक टीकाकार हो चुके थे। अतः तत्त्वार्थसूत्र की रचना भाष्य लिखे जाने के बहुत पहले हो चुकी थी। फलस्वरूप सूत्र और भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। एककर्तृत्व के पक्षधर हेतुओं की हेत्वाभासता के प्रमाण सूत्र और भाष्य में सम्प्रदायभेद सिद्ध करनेवाले उपर्युक्त हेतुओं से, भाष्य में दर्शायी गयी विसंगतियों से तथा सूत्र और भाष्य के एककर्तृत्वविरोधी उपरिवर्णित अन्य स्पष्ट हेतुओं से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, एक व्यक्ति नहीं। अतः उन्हें अभिन्न सिद्ध करनेवाले समस्त हेतु हेत्वाभास हैं। उनकी हेत्वाभासता के प्रमाण आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ४.१. स्वोपज्ञता सर्वमान्य नहीं है श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन गणी की है। उसमें तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की स्वोपज्ञता के सूचक निम्न For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ /प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२९ लिखित उल्लेख हैं ___ "प्रतिज्ञातं चानेन 'ज्ञानं वक्ष्यामः' इति। अतस्तदनुरोधेनैकवचनं चकार आचार्यः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति । १/९/ पृ.६९)। ___ "शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विधा आत्मानं विभज्य सूत्रकारभाष्यकाराकारेणैवमाह।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/११ / पृ.७२)। . "सूत्रकारादविभक्तोऽपि हि भाष्यकारो ---।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / २ / ४५ / पृ.२०५)। __ "इति श्रीमदर्हत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायाम्।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ७ / ३४ / पृ.१२०)।११५ संघवी जी का यह भी कथन है कि "भाष्यगत अन्तिम कारिकाओं में से आठवीं कारिका को याकिनीसूनु हरिभद्राचार्य ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में उमास्वातिकर्तृकरूप में उद्धृत किया है। भाष्य की प्रारंभिक अंगभूत कारिका के व्याख्यान में आचार्य देवगुप्त भी सूत्र और भाष्य को एककर्तृक सूचित करते हैं।" ११६ दिगम्बरपक्ष सिद्धसेन गणी के अन्तिम वचन में जो उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये पद है, उसका अर्थ 'उमास्वाति वाचक के द्वारा उपज्ञ ( रचित ) सूत्र और भाष्य' नहीं है, अपितु 'उमास्वाति वाचक द्वारा रचित सूत्रभाष्य' अर्थात् 'तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति वाचक द्वारा रचित भाष्य', यह अर्थ है। यह सूत्रभाष्ये पद में प्रयुक्त सप्तमी-एकवचन से सिद्ध है। यदि सूत्र और भाष्य दोनों अर्थ अभिप्रेत होते तो सूत्रभाष्ययोः ऐसा द्विवचनात्मक प्रयोग होता। इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी के प्रस्तुत उल्लेख से यह सिद्ध नहीं होता कि उमास्वाति सूत्र और भाष्य दोनों के कर्ता हैं। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री का भी मत है कि "यहाँ उमास्वातिवाचकोपज्ञ पद का सम्बन्ध सूत्र से न होकर उसके भाष्य से है।" (स.सि. / प्रस्ता. / पृ. ६५)। किन्तु उपर्युक्त अन्य वचनों से ऐसा आभास मिलता है कि सिद्धसेनगणी तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार, इन दोनों व्यक्तियों को एक मानते थे। किन्तु एक मानना एक होने का प्रमाण नहीं है। तथा उनके अन्य उल्लेखों से इस बात में सन्देह भी पैदा होता है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं कि "उन्होंने ११५. तत्त्वार्थसूत्र / विवेचनसहित / प्रस्तावना / पृ. १५ । ११६. वही/ पृ. १६। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ (सिद्धसेनगणी ने) अपनी टीका में कुछ ऐसा भी अभिप्राय व्यक्ति किया है कि जिसके आधार से विचार करने पर सूत्रकार से भाष्यकार भिन्न सिद्ध होते हैं। इसके लिए अध्याय आठ के "मत्यादीनाम्" सूत्र (८/७) की टीका देखनी चाहिए। यहाँ पर सिद्धसेनगणी के सामने यह प्रश्न है कि जब अन्य आचार्य "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम्" सूत्र मानते हैं, तब सूत्र का वास्तविक रूप "मत्यादीनाम्" माना जाय या अन्य आचार्य जिस प्रकार उसका पाठ पढ़ते हैं, वैसा माना जाय। इस शंका का समाधान करते हुए पहले तो उन्होंने हेतुओं का आश्रय लिया है, किन्तु इतने मात्र से स्वयं संतोष होता न देख वे कहते हैं कि 'यतः भाष्यकार ने भी इस सूत्र का इसी प्रकार अर्थ किया है, अतः "मत्यादीनाम्" ही सूत्र होना चाहिए।' उनका समस्त प्रसंग को प्रकट करनेवाला टीकावचन इस प्रकार है ___ "अपरे तु प्रतिपदं पञ्चापि पठन्ति-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानामिति। एवं चापार्थकः पाठो लक्ष्यते यतोऽनन्तरसूत्रे पञ्चादिभेदा ज्ञानावरणादय इत्यवधृतमेव। निर्ज्ञाताश्च स्वरूपतः प्रथमाध्याये व्याख्यातत्वात्। अत आदिशब्द एव च युक्तः। भाष्यकारोऽप्येवमेव सूत्रार्थमावेदयते।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ८/७/ पृ. १३३)। "यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य 'भाष्यकारो---' इत्यादि वचन है। इस वचन में भाष्यकार का सम्बन्ध सीधा "मत्यादीनाम्" सूत्र की रचना के साथ स्थापित न कर उसके अर्थ के साथ स्थापित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ पर सिद्धसेनगणी सूत्रकार को भाष्यकार से भिन्न मान रहे हैं, अन्यथा वे किसी अपेक्षा से सूत्रकार और भाष्यकार में अभिन्नता स्थापित कर अपनी भाषा द्वारा इस प्रकार समर्थन करते, जिससे भाष्यकार से अभिन्न सूत्रकार ने ही "मत्यादीनाम्" सूत्र रचा है, इस बात का दृढ़ता के साथ समर्थन होता। ___ "जहाँ तक हमारा मत है इन पूर्वोक्त उल्लेखों के आधार से हम एक मात्र इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार अभिन्न व्यक्ति हैं, इस विषय में सिद्धसेनगणी की स्थिति संशयापन्न रही है, क्योंकि कहीं वे तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार को एक व्यक्ति मान लेते हैं और कहीं दो। इस स्थिति को देखते हुए मालूम ऐसा देता है कि सिद्धसेनगणी के काल तक तत्त्वार्थभाष्यकार ही मूल-तत्त्वार्थसूत्रकार हैं, यह मान्यता दृढमूल नहीं हो पायी थी। यही कारण है कि सिद्धसेनगणी किसी एक मत का निश्चयपूर्वक प्रतिपादन करने में असमर्थ रहे।" (स. सि./भा.ज्ञा./प्रस्ता./ पृ.६६)। ___ इस प्रकार सिद्धसेनगणी के पूर्वोद्धृत वचनों से सूत्रकार और भाष्यकार का एकत्व निश्चितरूप से सिद्ध नहीं होता, अतः मान्य संघवी जी का उपर्युक्त हेतु, हेतु न होकर हेत्वाभास है। For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३३१ इसके अतिरिक्त विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के बाद हुए तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति के रचयिता श्री रत्नसिंहसूरि के वचन पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं, जिनमें उन्होंने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता के लिए ‘स कश्चिद् भाष्यकारो' (वह कोई भाष्यकार) इन शब्दों का प्रयोग कर उसके नाम से अनभिज्ञता प्रकट की है, जिससे स्पष्ट होता है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक रत्नसिंहसूरि जैसे कट्टर श्वेताम्बर मुनि भी तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का कर्ता नहीं मानते थे। इससे भी स्वोपज्ञता के विषय में गणी जी की संशयापन्न मनोदशा की पुष्टि होती है। किन्तु सूत्र और भाष्य में जो गम्भीर साम्प्रदायिक भेद एवं अन्तर्विरोध पूर्व में प्रदर्शित किये गये हैं, उनसे स्पष्टतः सिद्ध है कि सूत्र और भाष्य एककर्तृक नहीं है। ४.२. उत्तमपुरुष की क्रिया सूत्रकार-भाष्यकार के एकत्व का प्रमाण नहीं श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा प्रदर्शित दूसरा हेतु यह है कि "प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भाष्य में भी वक्ष्यामि, वक्ष्यामः आदि प्रथम (उत्तम) पुरुष का निर्देश है और इस निर्देश में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाद में सूत्र में कथन किया गया है।" (त.सू./वि.स. /प्रस्ता. /पृ. १६)। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं। दिगम्बरपक्ष यह तो व्याख्या की शैली है। व्याख्याकार कहीं उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर व्याख्या करता है, जिससे ऐसा लगता है जैसे मूलग्रन्थकार स्वयं अपने कथन की व्याख्या कर रहा हो११७ और कहीं मूलग्रन्थकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया जोड़कर व्याख्या करता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार मूलग्रन्थकार के शब्दों की व्याख्या कर रहा है। प्रथम प्रकार की व्याख्या शैली के उदाहरण अनेक टीकाकारों की टीकाओं में मिलते हैं। यथा १. "तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्यामः।" (सर्वार्थसिद्धि / अध्याय १/मंगलाचरण/ पृ. २)= उस मोक्ष का निर्दोष स्वरूप आगे (दसवें अध्याय के द्वितीय सूत्र में) कहेंगे। ११७. देखिए, पं. फूलचन्द्र शास्त्री : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना / पृ. ६८ तथा पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री: जैन साहित्य का इतिहास/ भाग २/ पृ. २४०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ २. "एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्देक्ष्यामः।" (सर्वार्थसिद्धि । १/१/ पृ. ४)= लक्षण और भेद के साथ इनका (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का) स्वरूप आगे विस्तार से कहेंगे। ३. “अवसरप्राप्तं बन्धं व्याचक्ष्महे।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक ८/१/ उत्थानिका । पृ.५६१)= अब हम अवसरप्राप्त बन्ध का वर्णन करते हैं। ४. "सम्प्रति प्रस्तावायातं बन्धं वक्ष्याम इति।" (हारिभद्रीयवृत्ति / उत्थानिका । तत्त्वार्थसूत्र ८/१/पृ. ३६५)= अब हम अवसर प्राप्त बन्ध का वर्णन करेंगे। ५."निर्दिष्टे संवरनिर्जरे--- । सम्प्रति तत्फलं मोक्षः तं वक्ष्यामः।" (सिद्धसेनगणी/ तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति /१०/१/ पृ. २९३ उत्थानिका)= संवर और निर्जरा का निर्देश किया जा चुका है। अब उनका जो मोक्षरूप फल होता है, उसका वर्णन करेंगे। ६. "यथाक्रममेतेषामनुष्ठानं स्वरूपं च वक्ष्यामः।" (व्यासभाष्य / पातञ्जलयोगदर्शन/ पाद २ / सूत्र २९) = इन यम, नियम आदि आठ योगांगों के अनुष्ठान और स्वरूप का क्रमशः निरूपण करेंगे। ___ यह शैली तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के भाष्यकार ने भी अपनायी है, जो निम्नलिखित उदाहरणों में द्रष्टव्य है १. "तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः।" (१/१)= सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग के लक्षण और भेदों का हम आगे विस्तार से निरूपण करेंगे। २. "अणवः स्कान्धाश्च सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्त इति वक्ष्यामः।" (१/५)= 'अणवः स्कन्धाश्च' और 'सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते' इन दो सूत्रों (५ / २५-२६) का हम आगे चलकर वर्णन करेंगे। ३. "परिणामो द्विविधः अनादिरादिमांश्च। तं परस्ताद् वक्ष्यामः।" (५/२२/ पृ. २६७) = परिणाम दो प्रकार का होता है : अनादिमान् और आदिमान्। उसका कथन हम आगे (सूत्र ५/४२ में) करेंगे। इन उदाहरणों से सिद्ध है कि व्याख्याकार का अपने साथ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर मूलग्रन्थकार के वचनों की व्याख्या करना व्याख्या की एक शैली है। अतः तत्त्वार्थधिगमभाष्य में भाष्यकार के साथ उत्तम (प्रथम) पुरुष की क्रिया का प्रयोग होने से यह सिद्ध नहीं होता कि भाष्यकार ही सूत्रकार हैं। यदि ऐसा माना जाय, तो सर्वार्थसिद्धि-टीकाकार पूज्यपाद स्वामी, तत्त्वार्थराजवार्तिककार भट्ट अकलंकदेव, तत्त्वार्थभाष्य-वृत्तिकार सिद्धसेनगणी तथा तत्त्वार्थसूत्र-वृत्तिकार हरिभद्रसूरि के भी सूत्रकार होने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि इन सब ने भी अपने साथ For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३३३ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर तत्त्वार्थ के सूत्रों की व्याख्या की है। यतः उत्तमपुरुष की क्रिया का अपने साथ प्रयोग केवल भाष्यकार ने ही नहीं किया है, अपितु उपर्युक्त टीकाकारों ने भी किया है, अतः वह साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, किसी भी टीकाकार के सूत्रकार से अभिन्न होने का हेतु नहीं है। __ मूलग्रन्थकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर उसके वचनों की व्याख्या करना भी व्याख्या की शैली है। इसके उदाहरण भी अनेक टीकाओं में मिलते हैं। जैसे १. "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम्। अथ किं तत्त्वमित्यत इदमाह-।" (सर्वार्थसिद्धि १/४/ उत्थानिका/पृ. १०)= तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन कहलाता है, यह कहा जा चुका है। अब तत्त्व कौन-कौन हैं? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सूत्रकार अगला सूत्र कहते हैं। २."वैविध्यविजृम्भितमोक्षकारणप्रदर्शनार्थमाह।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक १/१/ उत्थानिका/ पृ. ३) = त्रैविध्ययुक्त मोक्षहेतु बतलाने के लिए ग्रन्थकार उत्तर सूत्र का कथन करते इन उदाहरणों में टीकाकार ने मूलग्रन्थकार के साथ आह क्रिया का प्रयोग किया है, जो बू धातु से निष्पन्न अन्यपुरुष-एकवचन का वर्तमानकालीन रूप है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी इसके उदाहरण उपलब्ध होते हैं। यथा १. "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्" (१/२०) इस सूत्र के भाष्य में भाष्यकार कहते हैं-"अत्राह-मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति 'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' इति---।"= यहाँ शंकाकार कहता है कि सूत्रकार "मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्व-पर्यायेषु" (१/२७) इस सूत्र में बतलायेंगे कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय समान हैं--- | यहाँ भाष्य में सूत्रकार (मूलग्रन्थकर्ता) के साथ अन्यपुरुष की क्रिया वक्ष्यति का प्रयोग किया गया है। २. "आद्ये परोक्षम्" (१/११) इस सूत्र के भाष्य में कहा गया है-"आद्ये सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्रथमद्वितीये शास्ति।"= आये इस द्विवचनात्मकरूप के प्रयोग से ज्ञात होता है कि आचार्य (सूत्रकार) "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्" (१/९) इस सूत्र में प्रदर्शित क्रम के अनुसार यहाँ प्रथम और द्वितीय ज्ञान का निर्देश करते हैं (शास्ति)। यहाँ शास्ति 'शास्' धातु से निष्पन्न अन्यपुरुष-एकवचन की क्रिया है, जो सूत्रकार के साथ प्रयुक्त हुई है। सिद्धसेनगणी सूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न मानते हैं। अतः उन्हें लगा कि सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया का प्रयोग होने Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ से वे भाष्यकार से भिन्न सिद्ध होंगे। फलस्वरूप उन्होंने तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में स्पष्ट किया है कि यहाँ ग्रन्थकार ने अपने को सूत्रकार और भाष्यकार के रूप में विभाजित कर सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष-एकवचनात्मक शास्ति' क्रिया का प्रयोग किया है-"शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विधात्मानं विभज्य सूत्रकार-भाष्यकाराकारेणैवमाह शास्तीति, सूत्रकार इति शेषः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/११ / पृ. ७२)। - यह ठीक है कि जो ग्रन्थकार स्वयं ही अपने ग्रन्थ की टीका रचता है वह स्वयं को ग्रन्थकार और टीकाकार के रूप में विभक्त कर अपने ग्रन्थकाररूप के साथ अन्यपुरुष की क्रिया प्रयुक्त करता है। उदाहरणार्थ, पं० आशाधर जी ने स्वरचित अनगारधर्मामृत की दो टीकाएँ स्वयं लिखी हैं और अपने ग्रन्थकाररूप के साथ अन्यपुरुष की क्रिया का प्रयोग किया है। जैसे ग्रन्थ के आदि में अरहन्त, सिद्ध, गणधर आदि का स्तवन करने के पश्चात् वे कहते हैं-"अधुना जिनागमव्याख्यातॄनारातीयसूरीनभिष्टौति" (ज्ञानदीपिका टीका १/४/ पृ. १०)। अर्थात् "ग्रन्थकार अब जिनागम के व्याख्याता आरातीय आचार्यों की स्तुति करते हैं।" और इसके बाद वे 'ग्रन्थार्थतो गुरुपरम्परया' इत्यादि श्लोक (१/४/पृ. १०) प्रस्तुत करते हैं, जिसमें उक्त आचार्यों की स्तुति की गयी है। यहाँ पण्डित जी के ग्रन्थकाररूप के साथ प्रयुक्त अभिष्टौति क्रिया अन्यपुरुष-एकवचनात्मक है। इससे यह भ्रम हो सकता है कि ग्रन्थकार और टीकाकार भिन्न व्यक्ति हैं। तथापि उन्हें अभिन्न कह देने मात्र से वे अभिन्न सिद्ध नहीं होते, इसे प्रमाण से पुष्ट करना आवश्यक है। सिद्धसेनगणी ने प्रमाण से पुष्ट किये बिना ही तत्त्वार्थसूत्रकार और उसके भाष्यकार को अभिन्न कह दिया है, जो निरर्थक है। जिन ग्रन्थकार और टीकाकार का एकत्व विवादास्पद है, उनके एकत्व का निर्णय मूलग्रन्थ और उसकी टीका में व्यक्त सिद्धान्तों की एकता और दोनों की प्ररूपणशैली में पायी जानेवाली संगति से ही हो सकता है। ये एकता और संगति अनगारधर्मामृत और उसकी टीका में उपलब्ध हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके श्वेताम्बरीयभाष्य में उपलब्ध नहीं हैं, इसके विपरीत उनमें सैद्धान्तिक विरोध एवं प्ररूपणविसंगति की उपलब्धि होती है, जिनके प्रमाण पूर्व में दिये जा चुके हैं। उनसे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार अलग-अलग व्यक्ति हैं, एक नहीं। अस्तु, शास्ति क्रिया का प्रयोग इस बात का उदाहरण है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया प्रयुक्त हुई है। ३. इसी प्रकार "आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ" (त.सू./श्वे/१/३५) इस सूत्र के भाष्य (पृ.६१) में कहा गया है-"आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह।" अर्थात् "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः" (त.सू/श्वे/१/३४) इस सूत्र में नयों का जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सूत्रकार आद्य शब्द से नैगमनय का कथन करते Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३३५ हैं। इस उदाहरण में भाष्यकार ने सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की आह क्रिया का प्रयोग किया है। इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में एक ओर भाष्यकार के साथ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग हुआ है, तो दूसरी ओर सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया व्यवहत हुई है। अतः जहाँ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग दोनों को अभिन्न सिद्ध करता है, वहाँ अन्यपुरुष की क्रिया उन्हें भिन्न साबित करती है। इस विरोध के परिणामस्वरूप उत्तमपुरुष की क्रिया दोनों को अभिन्न सिद्ध करने में असमर्थ रहती है, इससे सिद्ध होता है कि वह हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। ४.३. सूत्र और भाष्य में विरोध एवं विसंगतियाँ श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी ने भाष्य को स्वोपज्ञ सिद्ध करने के लिए तीसरा हेतु यह बतलाया है कि भाष्य में किसी भी स्थल पर "सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचातानी नहीं हुई, कहीं सूत्र का अर्थ करने में सन्देह या विकल्प नहीं किया गया, न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है।" (त.सू./ वि.स./ प्रस्ता. / पृ. १६)। दिगम्बरपक्ष इस हेतु के विषय में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का कहना है कि "प्रथम तो सूत्रों का अर्थ करने में शब्दों की खींचातानी न होना, सन्देह या विकल्प न होना आदि बातें किसी व्याख्या के सूत्रकारकृत होने में नियामक नहीं हो सकती, क्योंकि पातञ्जलसूत्रों पर विरचित व्यास-भाष्य में भी उक्त बातें पायी जाती हैं, किन्तु वह सूत्रकारकृत नहीं है। दूसरे, तत्त्वार्थसूत्र का उक्त भाष्य उक्त बातों से एकदम अछूता भी नहीं है।" (जै.सा. इ./ भाग २ / पृ. २४१)। मेरा निवेदन है कि भाष्यकार ने भाष्य में कोई छोटी-मोटी खींचातानी नहीं की है, कोई मामूली सन्देह या विकल्प पैदा नहीं किये हैं, उन्होंने इतनी गम्भीर सैद्धान्तिक विपरीतताएँ और प्ररूपणशैली में इतनी ज्यादा विसंगतियाँ उत्पन्न की हैं कि उनके द्वारा वे अपने को सूत्रकार से बिलकुल विरुद्ध दिशा में खींचकर ले गये हैं और यह सिद्ध कर दिया है कि वे सूत्रकार से सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। इन सैद्धान्तिक विपरीतताओं और प्ररूपण-शैलीगत विसंगतियों का प्रदर्शन पूर्व (शीर्षक २) में किया Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ जा चुका है। उनसे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न साबित करने के लिए मान्य संघवी जी द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त हेतु असत्य हैं। एककर्तृत्वविरोधी बाह्य हेतु सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में एककर्तृत्व-विरोधी कुछ बाह्य हेतु भी प्रस्तुत किये हैं। उनमें पहला यह है कि तत्त्वार्थसूत्र के काल में जितने भी सूत्रग्रन्थ रचे गये, उनमें से किसी पर भी उसके रचयिता ने कोई भाष्य या वृत्ति नहीं रची। पातञ्जलसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, वेदान्तसूत्र आदि इसके उदाहरण हैं। (जै.सा.इ./ भा.२ / पृ. २४४)। इससे इस अनुमान को बल मिलता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी अपने ग्रन्थ पर कोई भाष्य नहीं रचा। . दूसरे हेतु पर प्रकाश डालते हुए पण्डित जी कहते हैं-"तत्त्वार्थभाष्य की प्रारंभिक कारिकाओं में एक कारिका इस प्रकार है महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम्॥ २३॥ "इसमें जिनवचनरूपी महोदधि की महत्ता बतलाते हुए उसे दुर्गमग्रन्थभाष्यपार बतलाया है। टीकाकार देवगुप्तसूरि ने इस पद का व्याख्यान इस प्रकार किया है "दुर्गमो ग्रन्थभाष्ययोः पारो निष्ठाऽस्येति दुर्गमग्रन्थभाष्यपारः। तत्रानुपूर्व्या पदवाक्यसन्निवेशो ग्रन्थः। तस्य महत्त्वादध्ययनमात्रेणापि दुर्गमः पारः। तस्यैवार्थविवरणं भाष्यं, तस्यापि नयवादानुगमत्वादलब्धपारः।" (सम्बन्धकारिका /२३/ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र । भाग १/जी. च.साकरचंद जवेरी, मुंबई / पृ. १६)। "अर्थात् उस जिनवचनरूपी महोदधि के ग्रन्थों और उन ग्रन्थों के अर्थ को बतलाने वाले जो उनके भाष्य हैं, उनका पार पाना कठिन है। "यहाँ तत्त्वार्थभाष्यकार ने आगमग्रन्थों के साथ उनके भाष्यों का भी उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थभाष्य की रचना भाष्यों के बाद में ही हुई। भाष्यों का रचनाकाल विक्रम की ७वीं शती है। अतः तत्त्वार्थभाष्य सातवीं शती के पहले की रचना नहीं हो सकता।" (त.सू. / प्रस्ता. / पृ. ३१)। इन दो बहिरंग हेतुओं से भी यह सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के द्वारा उसके भाष्य की रचना नहीं हुई। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / ३३७ इस प्रकार सूत्रकार और भाष्यकार सम्प्रदायगत भेद, सूत्र और भाष्य में उपलब्ध विसंगतियों तथा अन्य अन्तरंग - बहिरंग हेतुओं से सिद्ध है कि सूत्रकार और भाष्यकार अलग-अलग व्यक्ति हैं, एक नहीं। इसके अतिरिक्त अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद स्वामी द्वारा लिखी गई सर्वार्थसिद्धि टीका तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से पूर्ववर्ती है। इससे भी साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता तथा भाष्य के कर्त्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। इस तथ्य का उद्घाटन अगले प्रकरण में किया जा रहा है। ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में वाक्यगत साम्य श्वेताम्बर विद्वानों तथा दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने सर्वार्थसिद्धिटीका और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अनेक जगह वाक्यगत साम्य होने से यह निष्कर्ष निकाला है कि सर्वार्थसिद्धि में भाष्य का अनुकरण किया गया है, अतः भाष्य की रचना सर्वार्थसिद्धि के पूर्व हुई है। किन्तु यह निष्कर्ष किन्हीं प्रमाणों पर आश्रित नहीं है, अपितु स्वबुद्धिकल्पित है। उपलब्ध प्रमाण ठीक इसके विपरीत निष्कर्ष प्रदान कर हैं। उन प्रमाणों को हम बाद में प्रस्तुत करेंगे। पहले उन वाक्यों पर दृष्टि डाल ली जाय जो सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में प्रायः ज्यों के त्यों मिलते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं स० सि० भाष्य स० सि० भाष्य स० सि० भाष्य स० सि० द्वितीय प्रकरण सर्वार्थसिद्धि की भाष्यपूर्वता के प्रमाण — — १ " एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद् विस्तरेण निर्देक्ष्यामः ।" १ / १ / पृ. ४ । "तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः।” १/१। २ " एषां प्रपञ्च उत्तरत्र वक्ष्यते । " १ / १ / १८ /पृ. ११ । "तांल्लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद् विस्तरेणोपदेक्ष्यामः।” १/४ । ३ " चक्षुषा अनिन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । " १ / १९ । " चक्षुषा नोइन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । " १ / १९ । ४ "काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना । ' १/५। For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ भाष्य स० स० भाष्य स० सि० भाष्य स० स० भाष्य - - - तत्त्वार्थसूत्र / ३३९ "यः काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीव: ।" १/५ । ५ "जम्बूद्वीपादयो द्वीपाः । लवणोदादयः समुद्राः । यानि लोके शुभानि नामानि तन्नामानस्ते । इत्येवमसंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता वेदितव्याः । " ३ /७। "जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणादयश्च समुद्राः शुभनामान इति । यावन्ति लोके शुभानि नामानि तन्नामान इत्यर्थः । इत्येवमसंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता वेदितव्या इति । " ३/७ । ६ " एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वः परो वा विद्यते । एक एव जायेऽहम् । एक एव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति ।--- एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति । परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते । ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते । " ९/७/८०२/पृ. ३२५-३२६ । ➖➖➖ " एक एवाहं न मे कश्चित्स्वः परो वा विद्यते । एक एवाहं जाये । एक एंव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति --- । एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहानुराग- प्रतिबन्धो न भवति, परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः । ततो नि:सङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा ।"९/७ । ७ "ऐन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्तवच्छरीरमनाद्यनन्तोऽहम् । बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्य - - - । ९/७/८०३/पृ. ३२६ । "ऐन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहम् । अनित्यं शरीरं नित्योऽहं । अज्ञं शरीरं ज्ञोऽहम्। आद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् । बहूनि च मे शरीरशतसहत्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः । स एवायमहमन्यस्तेभ्य इत्यनुचिन्तयेत्।” ९/७। For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ स० सि० - "श्रुतं-पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः। कषायकुशीला निर्ग्रन्थाश्चतुर्दशपूर्वधराः। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु। वकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः। स्नातका अपगत-श्रुताः केवलिनः।"९/४७/९१३/ पृ. ३६४। भाष्य - "श्रुतं-पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टेनाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः। कषायकुशीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । बकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः। श्रुतापगतः केवली स्नातक इति।"९/४९/पृ. ४३३। स० सि० – "प्रतिसेवना–पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्ज़नस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति। बकुशो द्विविधःउपकरणबकुशः शरीरबकुशश्चेति। तत्रोपकरण-बकुशो बहुविशेषयुक्तोपकरणाकांक्षी। शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः। प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु काञ्चिद् विराधनां प्रतिसेवते। कषाय कुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति।" ९/४७/९१४ । - "प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां पराभि योगाद् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति। मैथुनमित्येके। बकुशो द्विविधः-उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्च। तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो---। प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु काञ्चिद् विराधनां प्रतिसेवते। कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति।"९/४९/पृ. ४३३।। भाष्य स० सि० – “लिङ्गं द्विविधं-द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्ग चेति। भावलिङ्ग प्रतीत्य सर्वे पञ्च निर्ग्रन्था लिङ्गिनो भवन्ति। द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः।"९/४७/ ९१६। भाष्य - “लिङ्ग द्विविधं-द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं च। भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे पञ्च निर्ग्रन्था भावलिङ्गे भवन्ति। द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः।"९/ ४९/पृ. ४३४। For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३४१ वाक्यों में इतना अधिक साम्य होना सिद्ध करता है कि सर्वार्थसिद्धिकार और भाष्यकार दोनों में से किसी ने दूसरे का अनुकरण किया है। किसने किया है, जब यह खोज करते हैं, तो पाते हैं कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया है। यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध होता है सर्वार्थसिद्धि में भाष्य का अनुकरण नहीं भाष्य के अंत में दिये हुए ३२ श्लोक तत्त्वार्थराजवार्तिक (१०/९/१४/पृ. ६४९६५०), जयधवलाटीका (भाग १६/पृ. १९०-१९५) तथा तत्त्वार्थसार (अधि.८/श्लोक २१-३६,४३-५४) में भी उलब्ध होते हैं। ११८ इससे पता चलता है कि ये श्लोक अत्यन्त लोकप्रिय हुए हैं। ऐसा होते हुए भी सर्वार्थसिद्धि में इन्हें उद्धृत नहीं किया गया। यदि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य के वाक्यों का अनुकरण किया होता, तो वे इन श्लोकों को भी अपनी टीका में अवश्य उद्धृत करते। किन्तु ऐसा नहीं किया। इससे सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि के रचना के समय भाष्य उपलब्ध नहीं था। इसी प्रकार "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" (त.सू./श्वे./ ५/२२) के भाष्य में भाष्यकार ने परत्वापरत्व के तीन भेद बतलाये हैं : प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत। इनमें से प्रशंसाकृत भेद का उल्लेख तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने भी किया है। यथा-"क्षेत्रप्रशंसाकालनिमित्ते परत्वापरत्वे।---प्रशंसाकृते अहिंसादिप्रशस्तगुणयोगात् परो धर्मः, तद्विपरीतोऽधर्मोऽपर इति।" (५ / २२ / २२/ पृ. ४८१)। किन्तु सर्वार्थसिद्धि में यह भेद उपलब्ध नहीं होता। उसमें केवल क्षेत्रकृत और कालकृत भेद ही मिलते हैं-"परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः।" (५/ २२ / पृ. २२३)। यह भी इस बात का प्रमाण है कि सर्वार्थसिद्धिकार के समक्ष भाष्य उपस्थित नहीं था। भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में कुछ ऐसे समान सिद्धान्त हैं, जो सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये जा सकते हैं, भाष्य से सर्वार्थसिद्धि में नहीं, क्योंकि वे दिगम्बरमान्य सिद्धान्त हैं, और श्वेताम्बरमत में अमान्य हैं। यथा ११८. पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास/द्वि.सं./ पृ. ५२६ । For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ क - - 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' (२/१७) के भाष्य में उपकरण के दो भेद किये गये हैं : बाह्य और अभ्यन्तर । ११९ ये श्वेताम्बर - आगमों में मान्य नहीं हैं । तत्त्वार्थभाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेनगणी कहते हैं कि " 'आगम में ये दो भेद नहीं मिलते। यह आचार्य का ही कोई सम्प्रदाय है । १२० उक्त भेद दिगम्बरमत में मान्य हैं, जिनका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि में किया गया है । १२१ इससे स्पष्ट होता है कि वे सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये गये हैं । ख - " नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया: " (३/३) इस सूत्र का भाष्य करते हुए रत्नप्रभाभूमि के नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल बतलाई गई है । १२२ सिद्धसेनगणी कहते हैं कि " भाष्यकार यह कथन अतिदेश से किया है। मैंने तो आगम में कहीं भी प्रतरादिभेद से नारकियों की अवगाहना नहीं देखी।" १२३ यह अवगाहना दिगम्बरागम में मान्य है । इसका भी वर्णन सर्वार्थसिद्धि में किया गया है । १२४ इससे भी सिद्ध है कि यह अवगाहना सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण की गई है। ग - " आर्याम्लेच्छाश्च" (३/१५) के भाष्य में अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ बतलाई है । यह श्वेताम्बर - आगम के विरुद्ध है । उसमें अन्तरद्वीप ५६ ही बतलाये गये हैं । अतः टीकाकार सिद्धसेनगणी रोष प्रकट करते हुए कहते हैं- "इस अन्तरद्वीपकभाष्य को किन्हीं दुर्विदग्धों ने नष्ट कर दिया है, जिससे भाष्यों में ९६ अन्तरद्वीप मिलते हैं । यह अनार्ष है, क्योंकि 'जीवाभिगम' आदि में ५६ अन्तरद्वीप बतलाये गये हैं । वाचकमुख्य सूत्र का उल्लंघन करके कथन नहीं कर सकते, क्योंकि यह असंभव है।"१२५ अर्थात् सिद्धसेन के अनुसार किसी अन्य ने ५६ की जगह ९६ संख्या कर दी है। ११९. "उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य २ / १७ । १२०. " आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २/१७ / पृ. १६६ । १२१. “ येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । " सर्वार्थसिद्धि २ / १७ । १२२. “सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडङ्गुलमिति शरीरोच्छ्रायो नारकाणां रत्नप्रभायाम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / ३ / ३ / पृ. १४५ । १२३. “उक्तमिदमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतन्न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणां शरीरावगाहनमिति ।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३ / ३ / पृ. २४० । १२४. “तेषामुत्सेधः प्रथमायां सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडङ्गुलयः ।" सर्वार्थसिद्धि ३/३। १२५. “एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपिका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्षं चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्। नापि वाचकमुख्याः सूत्रोल्लङ्घनेनाभिदधत्यसम्भाव्यमानत्वात् । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३/१५/पृ. २६७ / For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३४३ बाद के प्रतिलिपिकारों ने भाष्य में ९६ के स्थान में ५६ कर दिया है। इस विषय में पं० नाथूराम जी प्रेमी टिप्पणी करते हैं - " सर्वार्थसिद्धि और तिलोयपण्णत्त आदि दिगम्बरग्रन्थों में भी ९६ ही अन्तरद्वीप बतलाये हैं । भाष्य में भी ९६ का ही पाठ रहा होगा। परन्तु आश्चर्य है कि मुद्रित भाष्यपाठों में ५६ ही अन्तरद्वीप मुद्रित हैं और उक्त भाष्यांश के नीचे ही ९६ अन्तरद्वीपों की सूचना देने वाली सिद्धसेन की तथा हरिभद्र की टीका मौजूद है । प्रतिलिपिकारों अथवा मुद्रित करानेवालों का यह अपराध अक्षम्य है।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं./पा.टि./पृ.५३७) । यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि जब श्वेताम्बर - आगमों में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ ही है, तब भाष्यकार ने ९६ की संख्या कहाँ से ग्रहण की ? निश्चित ही सर्वार्थसिद्धि से ग्रहण की है। घ- भाष्य में आठ ही लौकान्तिक देव वर्णित हैं- " एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा---।'' (४/२६) किन्तु श्वेताम्बर - आगम भगवतीसूत्र, ज्ञातृधर्मकथा, स्थानांग आदि में नौ बतलाये गये हैं। (प्रेमी / जै. सा. इ / द्वि.सं./ पृ. ५३८ ) । सर्वार्थसिद्धि (४/२५) में भी आठ ही भेदों का कथन किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया है। ङ - " एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः " (१/३१) के भाष्य में प्रश्न उठाया गया है कि केवलज्ञान के साथ मतिज्ञानादि रहते हैं या नहीं? इसके उत्तर में भाष्यकार कहते हैं कि कुछ आचार्यों के अनुसार मतिज्ञानादि का अभाव नहीं होता, किन्तु केवलज्ञान से अभिभूत हो जाने से वे अकिंचित्कर हो जाते । तथा कुछ आचार्यों का मत है कि मतिज्ञानादि केवलज्ञान के साथ नहीं रह सकते, क्योंकि मतिज्ञानादिउपयोग क्रमशः होते हैं, जबकि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग युगपत् होते हैं। इसके अतिरिक्त मतिज्ञानादि चार ज्ञान क्षयोपशमजन्य हैं, किन्तु केवलज्ञान क्षयजन्य । इसलिए केवली के शेष ज्ञान नहीं होते । १२ यहाँ भाष्यकार ने अन्य कुछ आचार्यों के मत के अन्तर्गत केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग के युगपत् होने का जो मत बतलाया है, वह दिगम्बरमत है। वह १२६.‘“ अत्राह—अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैर्मतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति नेत्युच्यते। केचिदाचार्या व्याचक्षते, नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् । --- केचिदप्याहुः --- किं चान्यत् - मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत् । सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति । किं चान्यत् — क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि क्षयादेव केवलम्। तस्मान्न केवलिनः शेषाणि ज्ञानानि सन्तीति । " तत्त्वार्थधिगमभाष्य १ / ३१ / पृ. ५६ । For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ श्वेताम्बरमत के विरुद्ध है। श्वेताम्बर-आगमों में केवली के भी ज्ञानदर्शनोपयोग का क्रमशः होना माना गया है। इसीलिए सिद्धसेनगणी सन्मतिसूत्र के कर्ता के उपयोगअभेदवाद पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं-"अपने को पण्डित माननेवाले कुछ लोग सूत्रों का अर्थ कुछ का कुछ करते हैं। तर्कबल का आश्रय लेकर कहते हैं कि केवली का उपयोग वारंवार (क्रमशः) नहीं होता। किन्तु यह प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि आम्नाय में अनेक सूत्र प्रतिपादित करते हैं कि केवली का उपयोग वारंवार (क्रमशः) होता है।"१२७ उपर्युक्त दिगम्बरमत का प्रतिपादन सर्वार्थसिद्धि में किया गया है।१२८ अब यह तो युक्तिसंगत सिद्ध हो नहीं सकता कि इस दिगम्बरसिद्धान्त को स्वयं दिगम्बराचार्य पूज्यपाद स्वामी ने श्वेताम्बराचार्यकृत भाष्य से ग्रहण किया होगा। युक्तिसंगत यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर-भाष्यकार ने इसे दिगम्बरग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि से उद्धृत किया है। चूँकि उपर्युक्त पाँचों सिद्धान्त दिगम्बरमत के सिद्धान्त हैं, किन्तु दिगम्बरग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि और श्वेताम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दोनों में मिलते हैं, इससे यह स्वतः सिद्ध है कि वे सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये गये हैं। अतः सर्वार्थसिद्धि की रचना भाष्य से पूर्व हुई है। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का भाष्य में उल्लेख इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का भी उल्लेख भाष्य में किया गया है। "मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" यह सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ है (१/२६)। भाष्य में "मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" (१/२७) पाठ है। अर्थात् भाष्य में द्रव्य शब्द के साथ सर्व विशेषण का प्रयोग किया गया है। किन्तु "श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम्" (१/२०) के भाष्य में भाष्यकार "द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" यह सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही लिखते हैं, जैसे "अत्राह-मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति 'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' इति।" सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि ने अपनी टीकाओं में भी भाष्य के इस अंश को इसी रूप में स्वीकार किया है।१२९ इससे यह विश्वास करने १२७. "यद्यपि केचित्पण्डितम्मन्याः सूत्राण्यन्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धबुद्धयो वारंवारेणो पयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपाद यन्ति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/३१ / पृ. १११ । १२८. "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति। तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते, निरावरणेषु युगपत्।" सर्वार्थ सिद्धि/२/९/ पृ. ११८।। १२९. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना/ पृ. ४५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३४५ के लिए महत्त्वपूर्ण आधार मिल जाता है कि भाष्य लिखते समय भाष्यकार के समक्ष सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है। डॉ० सागरमल जी को यह स्वीकार्य नहीं है। उनका कथन है कि भाष्यकार ने स्वरचित सूत्र का ही सर्व विशेषणरहित अंश उद्धृत किया है । सर्व विशेषण को उन्होंने वहाँ क्यों छोड़ा, इसके समाधानार्थ डॉक्टर सा० ने हेतुओं के कई विकल्प प्रस्तुत किये हैं, जिनमें से प्रामाणिक हेतु कौनसा है, यह बतलाने में वे स्वयं असमर्थ रहे हैं। वे विकल्प इस प्रकार हैं १. आवश्यक नहीं है कि ग्रन्थकार पूरे (विशेषणादि - सहित ही ) सूत्र को उद्धृत करे । २. 'द्रव्येषु' पाठ स्वतः बहुवचनात्मक है, अतः सर्व विशेषण को वहाँ उद्धृत करना आवश्यक भी नहीं था। ३. हो सकता है भाष्यकार की विस्मृति से छूट गया हो । ४. हो सकता है लिपिकार की भूल से छूट गया हो । ५. हो सकता है कि भाष्यकार ने सर्व विशेषणरहित पाठ ही रखा हो और बाद में किसी ने सर्व विशेषण जोड़ दिया हो। (जै. ध. या.स./ पृ. २८०-८१)। इनमें अन्तिम विकल्प यथार्थ नहीं है, क्योंकि भाष्यमान्य सूत्र में सर्व विशेषण का प्रयोग भाष्यकार ने ही किया है, इसकी पुष्टि उक्त सूत्र के भाष्य से होती है। भाष्य में भी उन्होंने सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ही लिखा है और सर्वाणि द्रव्याणि इस प्रकार समासविग्रह भी किया है। देखिए - " मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्विषयनिबन्धो भवति सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु। ताभ्यां हि सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायैः।" (१/२७)। दूसरा विकल्प युक्तिसंगत प्रतीत होता है। यह बिलकुल सत्य है कि द्रव्येषु पाठ स्वतः बहुवचानत्मक है, अतः सर्व विशेषण को वहाँ उद्धृत करना आवश्यक नहीं था। इससे यह अर्थ बिना कहे ही ध्वनित होता है कि उक्त कारण से सूत्र में भी सर्व विशेषण अनावश्यक था, क्योंकि कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन सूत्ररचना का प्रयोजन होता है । सर्वार्थसिद्धि में उक्त सूत्र का पाठ 'सर्व' विशेषणरहित ही है। इससे सिद्ध है कि वही पाठ सूत्रनियम के अनुरूप होने से निर्दोष है। अब प्रश्न उठता है कि जब भाष्यकार यह जानते थे कि 'सर्व' विशेषणरहित पाठ ही निर्दोष है, तब उन्होंने उसे सूत्र में क्यों जोड़ा? इसका समाधान यह है कि 'द्रव्येषु' पद में प्रयुक्त बहुवचनात्मक विभक्ति से सर्वद्रव्य रूप अर्थ उतनी सरलता For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ और शीघ्रता से हृदयंगम नहीं हो पाता, जितनी सरलता और शीघ्रता से सर्व विशेषण जोड़ देने से हो जाता है । द्रव्येषु पद से कोई सर्वद्रव्य अर्थ ग्रहण न कर बहुद्रव्य अर्थ भी ग्रहण कर सकता है। इसीलिए पूज्यपाद स्वामी को टीका में यह स्पष्ट करना पड़ा है कि द्रव्येषु बहुवचन का निर्देश जीव, धर्म, अधर्म, काल, आकाश और पुद्गल इन सभी द्रव्यों की समष्टि का बोध कराने के लिए किया गया है - " द्रव्येषु' इति बहुवचननिर्देशः सर्वेषां जीवधर्माधर्मकालाकाशपुद्गलानां सङ्ग्रहार्थः ।" (स.सि./ १ / २६) । सर्व विशेषण जोड़ देने से इस स्पष्टीकरण के बिना भी सर्वसाधारण को सर्वद्रव्यरूप अर्थ का बोध हो जाता है। इस विशेषता के कारण उक्त भाष्यमान्य सूत्रपाठ में सर्व विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे 'सर्वद्रव्येषु असर्वपर्यायेषु' ऐसा शब्द - वैपरीत्य निष्पन्न हो जाने से 'सर्व द्रव्यों में, किन्तु सर्व पर्यायों में नहीं' ऐसा अर्थबोध भी सुगम हो जाता है। तथा "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" (१ / ३०) इस सूत्र के साथ भी सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ऐसा शब्दवैपरीत्य घटित हो जाता है। इसी प्रयोजन से भाष्यकार ने द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस सूत्रभाग में सर्व विशेषण जोड़कर उसे सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस रूप में परिवर्तित कर दिया है, जो इस बात का प्रमाण है कि भाष्यमान्य पाठ सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ का विकसितरूप है, अतः वह सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ से अर्वाचीन है। 44 तथा उपर्युक्त प्रयोजन से सर्व विशेषण जोड़ने के बाद भी भाष्यकार ने जो 'श्रुतं मूतिपूर्वं द्व्यनेकद्वादशभेदम्" (१ / २०) इस सूत्र के भाष्य में उसे सर्व विशेषणरहित द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस रूप में उद्धृत किया है, उसकी प्रेरणा अवश्य ही उन्हें सर्वार्थसिद्धिटीका से मिली है, क्योंकि उस पाठ को वे उचित और मौलिक मानते थे, अतः अपने भाष्य में भी उसी रूप में उद्धृत करने में उन्हें कोई हानि प्रतीत नहीं हुई । इससे सम्बन्धित सारा सन्देह तब दूर हो जाता है, जब हम देखते हैं कि भाष्यकार ने " द्रव्याणि जीवाश्च" (५ / २) इस सूत्र के भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का वही सूत्र 'उक्तं हि' कहकर आद्योपान्त ज्यों का त्यों उद्धृत किया है, यथा-" उक्तं हि 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु, सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इति ।" (तत्त्वा.भाष्य / ५/२)। अब डॉक्टर साहब के सामने इस तथ्य का अपलाप करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि यहाँ सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ही उद्धृत किया गया है। 'उक्तं हि ' वचन का प्रयोग इसका अकाट्य प्रमाण है। इस प्रकार सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना भाष्य के पूर्व हुई है । अत एव पूर्वोक्त समान वाक्य भी सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में पहुँचे हैं। इस तरह सर्वार्थसिद्धि के तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से पूर्वरचित सिद्ध For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३४७ हो जाने पर यह भी सिद्ध हो जाता है कि सूत्रकार सर्वार्थसिद्धिकार से पूर्व हुए हैं, अतः सर्वार्थसिद्धिकार से पूर्व हुए सूत्रकार सर्वार्थसिद्धिकार से पश्चात् हुए भाष्यकार से भिन्न व्यक्ति हैं। सर्वार्थसिद्धि में भाष्य की चर्चा नहीं तीसरी बात यह है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ और भाष्य में जो विसंगतियाँ हैं, न तो उनकी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में की गई है, न ही भाष्य में साधु के वस्त्र-पात्रादिउपभोग का जो समर्थन किया गया है, उसका कोई खंडन सर्वार्थसिद्धि में मिलता है, जबकि तत्त्वार्थराजवार्तिक में ये दोनों बातें उपलब्ध होती हैं। इससे सिद्ध होता है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना के समय तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था। प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुखभाई मालवणिया ने भी यह बात स्वीकार की है। वे लिखते हैं __ "ऐसा प्रतीत होता है कि जैन आगम के भाष्यादि टीका-ग्रन्थ पूज्यपाद के समक्ष नहीं आये, किन्तु अकलंक ने देखे हैं। यही कारण है कि उन्होंने अवर्णवाद की चर्चा में कुछ नई बातें भी जोड़ी हैं। तत्त्वार्थसूत्र (६/१३) की व्याख्या में आचार्य अकलंक कहते हैं-"पिण्डाभ्यवहारजीविनः कम्बलदशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः।" (त. रा. वा./६/ १३ /८/पृ.५२४)। सर्वार्थसिद्धि में तो कवलाहार का निर्देश कर 'आदि' पद दे दिया था, तब यहाँ वस्त्र, पात्र और ज्ञानदर्शन के क्रमिक उपयोग को देकर 'आदि' वचन दिया गया है। स्पष्ट है कि अब वस्त्र और पात्र को लेकर जो विवाद दिगम्बर-श्वेताम्बरों में हुआ है, वह भी निर्देश के योग्य माना गया और नियुक्ति और भाष्य में ज्ञानदर्शन के क्रमिक उपयोग की जो सिद्धसेन के विरोध में चर्चा है, वह भी उल्लेख के योग्य हो गई। अब दोनों सम्प्रदायों का मतभेद उभर आया है, ऐसा कहा जा सकता है। इसी प्रकार श्रुतावर्णवाद के प्रसंग में भी अन्य बातें निर्देशयोग्य हो गईं-"मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदनार्दित-मैथुनोपसेवा रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः।" (त.रा.वा.६/१३/९/पृ.५२४) स्पष्ट है कि ये आक्षेप भाष्य को लेकर ही किये गये हैं अर्थात् श्वेताम्बरों द्वारा मूल की जो व्याख्या की जाने लगी, उससे असम्मति बढ़ती गई।"१३० १३०. दलसुख मालवणिया : लेख–'तत्त्वार्थ की दिगम्बरटीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थता की चर्चा / सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ / पृ. १३७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ माननीय मालवणिया के उपर्युक्त कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि पूज्यपाद स्वामी के समक्ष तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था, इसलिए सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में जो समान वाक्य मिलते हैं, वे सर्वार्थसिद्धि से ही तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में ग्रहण किये गये हैं। अब भाष्यमान्य वे सूत्रपाठ प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें अकलंकदेव ने असंगत और अप्रामाणिक ठहराया है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने उनका विवरण सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना (पृ. ४१-४२) में दिया है। उसी के आधार पर उनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। "तत्त्वार्थभाष्यकार ने रत्लशर्करावालुका---पृथुतराः (३/१) इस सूत्र में पुथुतराः पाठ अधिक स्वीकार किया है। श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में इस अर्थ को व्यक्त करने के लिए छत्ताइछत्ता पाठ उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इस पद की व्याख्या करते हुए छत्रातिच्छत्रसंस्थिताः पद द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया है। यह पाठ सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में नहीं है। तत्त्वार्थराज-वार्तिककार भट्ट अकलंक-देव की न केवल इस पर दृष्टि पड़ती है, अपितु वे इसे आड़े हाथों लेते हैं और यह बतलाने का प्रयत्न करते हैं कि सूत्र में पृथुतराः पाठ असंगत है।" . चौथे अध्याय में "शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः" (त.सू./श्वे: ४/९) यह सूत्र आता है। यहाँ द्वयोर्द्वयोः पाठ अधिक है। भट्ट अकलंकदेव की सूक्ष्म दृष्टि इस पाठ पर जाती है और वे बतलाते हैं कि यह आर्षविरुद्ध है। इसी प्रकार "बन्धेऽधिको पारिणामिको च" (त.सू.५/३७) सूत्र तत्त्वार्थभाष्य-मान्य सूत्रपाठ में "बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" (५/३६) इस रूप में उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थराज-वार्तिककार इसे भी आगमविरुद्ध होने के कारण अप्रामाणिक घोषित कर देते हैं।३१ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पाँचवें अध्याय में निम्नलिखित तीन सूत्र अधिक हैं"अनादिरादिमांश्च" (४२), "रूपिष्वादिमान्" (४३), "योगोपयोगी जीवेषु" (४४)। भाष्यकार ने इन सूत्रों में परिणाम के अनादि और सादि ये दो भेद करके धर्म, अधर्म और आकाश के परिणाम को अनादि तथा पुद्गल एवं जीव के परिणाम को सादि कहा है। अकलंक देव इस पर आपत्ति करते हुए कहते हैं- "अनान्ये धर्माधर्म-कालाकाशेषु अनादिः परिणामः, आदिमान् जीवपुद्गलेषु इति वदन्ति, तदयुक्तम्। कुतः? सर्वद्रव्याणां द्वयात्मकत्वे सत्त्वम्। अन्यथा नित्याभावप्रसङ्गात्।" १३१. "बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" इत्यपरे सूत्रं पठन्ति,--- स पाठो नोपपद्यते। कुतः? आर्षविरोधात्।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/३६/३-४/ पृ. ५००। For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३४९ (तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/४२/३/पृ.५०३)। अर्थात् कुछ लोग धर्म, अधर्म, आकाश और काल में परिणाम को अनादि कहते हैं तथा जीव और पुद्गल में सादि, किन्तु उनका यह कथन अयुक्त है। इसी प्रकार "अवग्रहेहावायधारणाः" (स.सि./१/१५) इस सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ के अवाय के स्थान में भाष्यमान्य सूत्रपाठ में अपाय शब्द है। अकलंकदेव ने इन दोनों को उचित ठहराया है।३२ "भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्" (स.सि. । १/२१) में देव शब्द पहले है, नारक बाद में। किन्तु भाष्यमान्य सूत्रपाठ में नारक शब्द पहले है यथा-"भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्" (१/२२)। अकलंकदेव ने व्याकरण के नियमानुसार 'देव' शब्द को ही पूर्वप्रयोग के योग्य बतलाया है।१३३ "म्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः" (स.सि./२/२०) इस सूत्रपाठ के तदर्थाः के स्थान में भाष्यमान्य सूत्रपाठ में तेषामर्थाः पाठ है (२/२१)। अकलंकदेव ने तदर्थाः प्रयोग को निर्दोष सिद्ध किया है। (त.रा. वा. २/२०)। सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में "द्रव्याणि" (५/२) तथा "जीवाश्च" (५/३) ऐसे अलग-अलग सूत्र हैं। भाष्य में इन दोनों का एक ही सूत्र में संग्रह किया गया है-"द्रव्याणि जीवाश्च।" (५/२)। तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने इसे अयुक्तिमत् बतलाया है और पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा निर्देश ही उचित माना है, क्योंकि इससे ऐसा लगता है कि केवल जीव ही द्रव्य है, धर्माधर्म आदि नहीं। (त.रा.वा. ५/३/२-३/ पृ. ४४१-४४२) इसी प्रकार "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" (स.सि./ ६/१७) तथा "स्वभावमार्दवं च" (स.सि./६/१८) इन दो सूत्रों का भाष्य में एकयोग किया गया है, यथा-"अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य" (६/१८)। तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने इसे भी अयुक्त माना है, क्योंकि इस अवस्था में स्वभावमार्दव देवायु का आस्रव सिद्ध नहीं होगा। (त.रा.वा./६/१८) "मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम्" (स.सि./८/६) इस पाठ के स्थान में भाष्य में केवल "मत्यादीनाम्" (८/७) पाठ है। इसे अनुचित ठहराते हुए अकलंकदेव कहते हैं-"इससे अलगअलग ज्ञान के साथ अलग-अलग आवरण का बोध नहीं होता, सबका आवरण एक ही है, ऐसा बोध होता है।" (त.रा.वा.८/६/२/पृ.५७०)। तत्त्वार्थधिगमभाष्य (९/५/७/२४) में साधु के लिए जो वस्त्रपात्रादि को धर्म का साधन बतलाया गया है, तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने उसकी भी आलोचना की है। १३२."आह–किमयम् अपाय उत अवाय इति? उभयथा न दोषः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक १/१५/ १३/ पृ. ६१। १३३. "देवशब्दो हि अल्पाजभ्यर्हितश्चेति वृत्तौ पूर्वप्रयोगार्हः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक /१/२१/७/ पृ.८०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ कहा है कि नग्न रहकर मनोविकारजन्य अंगविकृति के द्वारा नाग्न्य को दूषित न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है, किन्तु अन्य साधु मनोविकार को रोकने में असमर्थ होने के कारण तजन्य अंगविकृति को छिपाने के लिए कौपीन, फलक, चीवर आदि से अंग को ढंक लेते हैं। उससे अंग का ही संवरण होता है, कर्म का नहीं। (त.रा.वा. / ९/९/१०/पृ.६०९)।१३४ तथा पात्र में आहार करने से परिग्रहदोष, पात्र के संरक्षणप्रक्षालन आदि से हिंसादि दोष, पात्र लेकर भिक्षा के लिए भ्रमण करने से दैन्यदोष और याचनादोष आदि अनेक दोष लगते हैं, जिनसे पाप का आस्रव होता है। (त. रा.वा.९/५/१०-११/पृ. ५९४-५९५)। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थराजवार्तिककार भट्ट अकलंकदेव ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का अध्ययन किया था। किन्तु सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी ने न तो अकलंकदेव की तरह भाष्यमान्य सूत्रपाठों की विसंगतियाँ दर्शायी हैं, न ही भाष्य में जो वस्त्रपात्र को धर्म का साधन बतलाकर नाग्न्यादि परीषहों को असंगत बना दिया है, उसकी आलोचना की है और न भाष्य के अन्त में दिये गये ३२ श्लोक सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत किये हैं। ये इस बात के पक्के सबूत हैं कि सर्वार्थसिद्धिकार को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के दर्शन नहीं हुए। यदि हुए होते, तो वे उपर्युक्त विसंगतियों और सूत्रविरुद्ध प्रतिपादनों के विरोध में टिप्पणी किये बिना न रहतें, जैसा कि उन्होंने श्वेताम्बरागमों के केवलिभुक्ति और मांसाशनादि-प्रतिपादक वचनों को केवली और श्रुत का अवर्णवाद बतलाकर तीक्ष्ण विरोध किया है।३५ स्त्रीमक्ति का भी अलग से निषेध किया है।३६ प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया भी लिखते हैं-"स्पष्ट है कि श्वेताम्बरों की आगमवाचना में केवली के कवलाहार का प्रतिपादन है। उसे पूज्यपाद ने केवली का अवर्णवाद बताया है और श्वेताम्बरों की आगमवाचना में मांसाशन की आपवादिक सम्मति दी गई, उसे भी श्रुतावर्णवाद आचार्य ने माना है।"१३७ इससे ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वलभीवाचना (सन् ४५४४६६ ई०) के बाद रचा गया है और उसी समय तत्त्वार्थ के मूलसूत्रों में परिवर्तन किया गया। १३४. देखिये, मूलपाठ-अध्याय २/प्रकरण ५/शीर्षक ३.८। १३५. "कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिन इत्येवमादिवचनं केवलिनामवर्णवादः। मांसभक्षणाद्यन वद्याभिधानं श्रुतावर्णवादः।" सर्वार्थसिद्धि ६/१३ । १३६. “लिङ्गेन केन सिद्धिः? अवेदत्वेन, त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः? द्रव्यतः पुल्लिङ्गेनैव।" सर्वार्थसिद्धि १०/९/ पृ. ३७४ । १३७. लेख 'तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थता की चर्चा'| सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ / पृ. १३६ । For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३५१ इन प्रमाणों से जब यह सिद्ध होता है कि सर्वार्थसिद्धिकार के समक्ष तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था, तब यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि उनमें जो समान वाक्य उपलब्ध होते हैं, वे सर्वार्थासिद्धि से ही भाष्य में लिए गये हैं । अतः सर्वार्थसिद्धि भाष्य के पूर्व की रचना है, फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्त्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं । ६ सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करनेवाले हेतु असत्य माननीय पं० सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को सर्वार्थसिद्धि से प्राचीन सिद्ध करने के लिए तीन हेतु प्रस्तुत किये हैं - १. भाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा प्राचीन है, २. सर्वार्थसिद्धि में भाष्य की अपेक्षा अर्थ का विस्तार हुआ है अर्थात् विषय-विवेचन अधिक है, ३. सर्वार्थसिद्धि में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के तत्त्व दिखाई देते हैं, जब कि भाष्य में उनका अभाव है । (त.सू. / वि. स. / प्रस्ता. / पृ. ६२-६४) । हेतु असत्य हैं। सत्यता इनके ठीक माननीय संघवी जी के द्वारा प्रस्तुत ये विपरीत है । प्रमाण नीचे दिये जा रहे हैं ६.१. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की शैली अर्वाचीन संघवी जी का कथन है कि सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि शब्दों का व्याकरणिक विश्लेषण भाष्य की अपेक्षा विस्तार से किया गया है तथा दार्शनिक विवेचन भी अधिक है। अतः सर्वार्थसिद्धि की निरूपणशैली भाष्य से अर्वाचीन है । (त.सू./वि.स./ प्रस्ता. / पृ. ६३ ) । किन्तु मेरे अध्ययन के अनुसार भाष्य में ऐसे अनेक तत्त्व उपलब्ध होते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि उसकी शैली में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा बहुत नवीनता है । यथा १. तत्त्वार्थसूत्र में जो 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलाचरण है, वह सूत्रकारकृत है। (देखिए, डॉ० दरबारीलाल कोठियाकृत जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्रपरिशीलन / पृ. ३१) । सर्वार्थसिद्धिटीका में मंगलाचरनण नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में 'कृत्वा त्रिकरणशुद्धं' इत्यादि दो श्लोकों ( २१-२२) का मंगलाचरण है। इतना ही नहीं, उसमें मंगलाचरण के पूर्व बीस श्लोंकों में अन्य विषयों का भी वर्णन किया गया है, जैसे उत्तम, मध्यम और अधम मनुष्यों की प्रवृत्तियों का निरूपण, अर्हन्तों की पूजनीयता और तीर्थंकरनामकर्म के फल का वर्णन, भगवान् महावीर की जाति, कुल तथा शारीरिक एवं बौद्धिक गुणों का कथन, उनके वैराग्य, दीक्षा, केवलज्ञान की प्राप्ति, तीर्थोपदेश For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ तथा उनके द्वारा उपदिष्ट श्रुत के भेदों की चर्चा की गई है । १३८ इसे मंगलाचरण की भूमिका समझना चाहिए। और मंगलाचरण के बाद भी सूत्र की व्याख्या आरंभ नहीं होती, अपितु पुनः अन्य विषय का वर्णन शुरू हो जाता है। आगे अनेक निदर्शनाओं के द्वारा जिनवचन को ग्रहण करना कितना कठिन है, इस बात का काव्यात्मक विवेचन किया गया है। १३९ तत्पश्चात् वक्ता के कर्त्तव्य और उसके सुफल पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद कहीं प्रथम सूत्र की प्रस्तावना का नम्बर आया है। सर्वार्थसिद्धि में सूत्रकारकृत मंगलाचरण के बाद ही प्रथमसूत्र की प्रस्तावना आरंभ हो जाती है, जो अतिसंक्षेप में गद्य में निबद्ध है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में यह इकतीस श्लोकों में निबद्ध विस्तृत पद्यात्मक प्रस्तावना परम्परा से एकदम अलग है, जो नवीन प्रयोग है। यह इस बात का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है कि भाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से अर्वाचीन है। २. संस्कृत के किसी भी सूत्रग्रन्थ एवं भाष्य के अंत में श्लोकबद्ध विस्तृत उपसंहार उपलब्ध नहीं होता । पातंजलयोगसूत्र और उसका व्यासभाष्य इसके उदाहरण हैं। सर्वार्थसिद्धि के अंत में तीन पद्यों में यह कहा गया है कि " तत्त्वार्थसूत्र की इस वृत्ति का सर्वार्थसिद्धि नाम रखा है। यह जिनेन्द्रदेव के शासनरूपी अमृत का सार हैं। जो इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते-सुनते हैं, उन्हें संसारसुख और मोक्षसुख दोनों की प्राप्ति होती है। अंत में वृत्तिकार ने तत्त्वार्थ का उपदेश देनेवाले वीरभगवान् को प्रणाम किया है। इसके विपरीत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में प्रस्तावना के समान ही बत्तीस श्लोकों में विस्तारपूर्ण उपसंहार निबद्ध किया गया है, जिसमें तत्त्वपरिज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति किस क्रम से होती है, मुक्तात्मा ऊर्ध्वगमन क्यों करता है, प्राग्भारावसुधा का स्वरूप कैसा है, सिद्ध उससे ऊपर क्यों नहीं जा सकते, वे पुनः संसार में क्यों नहीं आते, सुख शब्द का प्रयोग किस-किस पदार्थ के लिए होता है, मुक्त जीवों के सुख का स्वरूप क्या है, इत्यादि विषय का वर्णन है । १४० यह वर्णित विषय की संक्षिप्त पुनरावृत्ति एवं नवीन विषय का विस्तृत निरूपण भी परम्परा से हटकर नवीन प्रयोग है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य शैली की दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि से बहुत आगे है। ३. संस्कृत के किसी भी सूत्रग्रन्थ या भाष्यग्रन्थ के अंत में कर्त्ता ने अपना परिचय नहीं दिया, पातंजलयोगसूत्र और उसके भाष्य से यह स्पष्ट है । सर्वार्थसिद्धिकार ने भी अपना परिचय नहीं दिया । किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्त्ता ने भाष्य के अंत १३८. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / सम्बन्धकारिका १ -२० / पृ. १-९ । १३९. वही / २३ - ३१ / पृ. ११-१४ । १४०. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / उपसंहारकारिका १-३२ / पृ. ४६४ - ४६६ । For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३५३ में अपना विस्तारपूर्वक परिचय दिया है। किसके शिष्य थे, किसके प्रशिष्य थे, किस गोत्र में, किस पिता और माता से किस शाखा में किस जगह उत्पन्न हुए थे और गुरुपरम्परा से चले आते हुए अर्हद्वचन को अच्छी तरह धारण कर संसार के दुःखी प्राणियों पर दया करके किस प्रकार उन उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्र को स्पष्ट किया (अर्थ प्रकट किया ), इत्यादि विषय का पूर्ण विवरण दिया है।४१ यह विस्तृत आत्मपरिचय सूत्रग्रन्थ और भाष्यग्रन्थ में पिरोया गया सर्वथा नवीन विषय है, जिससे प्रमाणित होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से कई कदम आगे है। ४. किसी भी भाष्यग्रन्थ में अध्याय के अंत में श्लोकबद्ध उपसंहार नहीं मिलता। सर्वार्थसिद्धि में भी नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के प्रथम अध्याय में वर्णित विषय का उसी अध्याय के भाष्य के अन्त में श्लोकबद्ध उपसंहार किया गया है। सूत्र ६/९ की व्याख्या में संरभ आदि का लक्षण भी श्लोक में निबद्ध किया गया है। यह भी निरूपणशैली की विकासयात्रा में रखा गया एक नया कदम है। ५. सर्वार्थसिद्धि के पद्यों में आलंकारिक प्रयोग अल्प हुए हैं, जबकि भाष्य में इनकी बहुलता दृष्टिगोचर होती है। सर्वार्थसिद्धि में केवल दशम अध्याय के अन्त में पठित निम्न पद्य में अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुआ है तत्त्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या। हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम्॥ २॥ अनुवाद-"समस्त तत्वों को जानकर जो इस तत्त्वार्थवृत्ति को धर्मभक्ति से सुनते हैं और पढ़ते हैं, समझ लीजिए कि मोक्षसुखरूपी अमृत उनके हाथ में ही आ गया है, फिर चक्रवर्ती और देवेन्द्र के सुखों की तो बात ही क्या?" किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (पृ.११) की निम्न सम्बन्धकारिकाओं में तो निदर्शना अलंकारों की झड़ी लगा दी गई है महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम्॥ २३॥ शिरसा गिरि बिभत्सेदुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोाम्। प्रतितीर्षेच्च समुद्रं मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण॥ २४॥ १४१. वही/प्रशस्ति-श्लोक १-६/पृ. ४७१ । For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ 44 अनुवाद - " जिनवचनरूपी महासागर का विषय अतिमहान् है। उनका निरूपण करनेवाले ग्रन्थों और उनके भाष्यों का पार पाना कठिन है। अतः उनका संग्रह कौन कर सकता है ? जो उनका संग्रह करने की कोशिश करता है, वह मानो शिर से पर्वत को चूर-चूर करना चाहता है, भुजाओं से पृथ्वी को उठाकर फेंकना चाहता है, बाहुओं से समुद्र पार करना चाहता है, तिनके से समुद्र की थाह लगाना चाहता है, चन्द्रमा को छूना चाहता है, मेरु को हथेली से हिलाना चाहता है, दौड़कर वायु से आगे निकलना चाहता है, अन्तिम समुद्र ( स्वयम्भूरमण ) को पीना चाहता है और जुगनुओं के प्रकाश से सूर्य के प्रकाश को मन्द करना चाहता है । अ०१६ / प्र० २ व्योम्नीन्दुं चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ॥ मोक्षमार्ग के निरूपण में अलंकारों का यह मनोहारी प्रचुर प्रयोग शैली के अतिविकसित रूप की ओर संकेत करता है। इतना ही नहीं, भाष्य में जिस गद्य का विन्यास किया गया है, वह बाणभट्ट की 'कादम्बरी' के स्तर को छूनेवाला उच्चकोटि का साहित्यिक गद्य है, जिस का प्रणयन पूर्ण विकसित गद्यकाव्य का गहन अनुशीलन किये बिना संभव नहीं है । सर्वार्थसिद्धि में प्रयुक्त गद्य उसकी तुलना में बहुत पिछड़ा प्रतीत होता है। दोनों पर तुलनात्मक दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। यहाँ दोनों ग्रन्थों से आस्त्रवानुप्रेक्षा के निरूपण में निबद्ध गद्य के नमूने प्रस्तुत किये जा रहे हैं सर्वार्थसिद्धि के गद्य का स्वरूप 'आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादयः । तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगज - वायस - पन्नग - पतङ्ग - हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति तथा कषायादयोऽपीह वध - बन्धापयश : परिक्लेशादीन् जनयन्ति । अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमात्रवदोषानुचिन्तनमात्रवानुप्रेक्षा ।" (९/७/८०५/ पृ. ३२७) । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के गद्य का स्वरूप 44 खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिबुभूषेच्च भास्करं मोहात् । योऽतिमहाग्रन्थार्थं जिनवचनं संजिघृक्षेच्च ॥ २६॥ 'आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतानिन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा – स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्याबलसम्पन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गनिमित्तपारगो गार्ग्यः सात्यकिर्निधनमाजगाम । तथा प्रभूतयवसोदक For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र / ३५५ प्रमाथावगाहादिगुणसम्पन्नवनविचारिणश्च मदोत्कटा बलवन्तोऽपि हस्तिनो हस्तिबन्धकीषु स्पर्शनेन्द्रियसक्तचित्ता ग्रहणमुपगच्छन्ति । ततो बन्धवधदमनवाहनाङ्कुशपाष्णिप्रतोदाभिघातादिजनितानि तीव्राणि दुःखान्यनुभवन्ति । नित्येमेव स्वयूथस्य स्वच्छन्दप्रचारसुखस्य वनवासस्यानुस्मरन्ति। तथा मैथुनसुखप्रसङ्गादाहितगर्भाश्वतरी प्रसवकाले प्रसवितुमशक्नुवन्ती तीव्र दु:खाभिहताऽवशा मरणमभ्युपैति । एवं सर्वे एव स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्ता इहामुत्र च विनिपातमृच्छन्तीति । तथा जिह्वेन्द्रियप्रसक्ता मृतहस्तिशरीरस्थस्रोतोवेगोढवायसवत् हैमनघृतकुम्भप्रविष्टमूषिकवत् गोष्ठप्रसक्त- ह्रदवासिकूर्मवत् मांसपेशीलुब्धश्येनवत् वडिशामिषगृद्धमत्स्यवच्चेति। तथा घ्राणेन्द्रियप्रसक्ता ओषधिगन्धलुब्धपन्नगवत् पललगन्धानुसारिमूषिकवच्चेति । तथा चक्षुरिन्द्रियप्रसक्ताः स्त्रीदर्शन-प्रसङ्गादर्जुनकचोरवत् दीपालोकलोलपतङ्गवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । तथा श्रोत्रेन्द्रियप्रसक्तास्तित्तिर- कपोतकपिञ्जलवत् गीतसङ्गीतध्वनिलोलमृगवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । एवं चिन्तयन्नास्त्रवनिरोधाय घटत इति आस्रवानुप्रेक्षा । (९/७/पृ. ४००) अ० १६ / ०२ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि सर्वार्थसिद्धि में जो बात चार पंक्तियों में कही गई है उसका विस्तार भाष्यकार ने चौदह पंक्तियों में किया है । इन्द्रियादि के साथ अकुशलागम-कुशलनिर्गमद्वारभूत यह नया विशेषण जोड़ा है। स्पर्शनेन्द्रियासक्ति के दुष्परिणाम का दिग्दर्शन गार्ग्य, सात्यकि के पौराणिक दृष्टान्त द्वारा किया है। सर्वार्थसिद्धिकर ने जहाँ केवल इतना कहा है कि स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ, वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हिरण आदि को दुःख - समुद्र में डुबाती हैं, वहाँ भाष्यकार ने इन प्राणियों में से प्रत्येक के इन्द्रियासक्तिजन्य दुःख का वर्णन अत्यन्त हृदयस्पर्शी विशेषणों एवं उपमाओं का प्रयोग करते हुए बड़े ही प्रभावोत्पादक ढंग से किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाष्य में प्रयुक्त गद्य सर्वार्थसिद्धि के गद्य की अपेक्षा साहित्यिक दृष्टि से पर्याप्त विकसित है । ६. सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में पर्यायशब्दों का बहुशः वर्णन किया गया है। सर्वार्थसिद्धि में केवल निम्नलिखित वाक्य में अनिन्द्रिय, मन और अन्तःकरण को एकार्थक बतलाया गया है - " अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्थान्तरम्।" (१/१४/ १८६ / पृ. ७७) किन्तु भाष्य में इनके अनेक उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। यथानिसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोपदेश इत्यनर्थान्तरम् । (१/३)। क ख अधिगमः अभिगमः आगमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् । - — (१/३) । ग अवग्रहो ग्रहणमालोचनमवधारणमित्यनर्थान्तरम् । ( १ / १५ ) । घ - - ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम् । ( १ / १५ ) । For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ङ च अ० १६ / प्र० २ अपायोऽपगमः अपनोदः अपव्याधः अपेतमपगतमपविद्धमपनुत्तमित्यनर्थान्तरम् । ( १ / १५ )। धारणा प्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । (१ / १५) छ इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध मूर्च्छत्यनर्थान्तरम् । (७/१२)। पर्यायशब्दों के द्वारा अर्थ का स्पष्टीकरण भाष्यकार की विशिष्ट शैली का परिचायक है । यह शैलीगत नवीनता का लक्षण है । ७. सर्वार्थसिद्धि में कहीं भी नयवाद शब्द का प्रयोग नहीं है, न ही नयों के द्वारा (सूत्र १० / ९ को छोड़कर) कथनविशेष के औचित्य का प्रतिपादन किया गया है । किन्तु भाष्य में नयवाद शब्द का प्रयोग करते हुए उसके द्वारा कई जगह विभिन्न कथनों में समन्वय स्थापित किया गया है । १४२ यह शैली के विकास का द्योतक है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि भाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से प्राचीन है, वह असत्य है । ६.२. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अर्थविस्तार पं० सुखलाल संघवी जी का दूसरा तर्क यह है कि " अर्थ की दृष्टि से भी भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन प्रतीत होती है। जो एक बात भाष्य में होती है, उसको विस्तृत करके, उस पर अधिक चर्चा करके, सर्वार्थसिद्धि में निरूपण हुआ है। व्याकरणशास्त्र और जैनेतर दर्शनों की जितनी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में है, उतनी भाष्य में नहीं है। जैन परिभाषा का संक्षिप्त होते हुए भी, जो स्थिर विशदीकरण और वक्तव्य का जो विश्लेषण सर्वार्थसिद्धि में है, वह भाष्य में कम से कम है। भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की तार्किकता बढ़ जाती है और भाष्य में जो नहीं है, ऐसे विज्ञानवादी बौद्ध आदि के मन्तव्य उसमें जोड़े जाते हैं और इतर दर्शनों का खण्डन जोर पकड़ता है। ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की प्राचीनता को सिद्ध करती हैं।" (त.सू. / वि.स./ प्रस्ता. / पृ. ६३-६४) । इस विषय में मेरा निवेदन है कि भाष्य में अन्य प्रकार से सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अर्थ का विस्तार उपलब्ध होता है। उसमें विशेषणों, अलंकारों और उदाहरणों को जोड़कर, १४२. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १ / ६, १२, ३५, २/४३ । For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३५७ पर्याय शब्दों का समूह उपस्थित कर, नयवाद के द्वारा समन्वय स्थापित कर, दृष्टान्तों के द्वारा भाव को स्पष्ट कर, नय आदि के नये भेद वर्णित कर, अर्थ को विस्तार प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त ऐसे नये विषयों और अवधारणाओं को भाष्य में सम्मिलित किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध नहीं होते। उदाहरणार्थ. १. पूर्व में आस्रवानुप्रेक्षा के दो अंश उद्धृत किये गये हैं। उनमें हम पाते हैं कि "आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादयः" सर्वार्थसिद्धि (९/७/८०५/पृ. ३२७) के इस वाक्य में भाष्यकार ने 'अकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतान्' (९/७/पृ. ४००) यह विशेषण जोड़कर तथा विभक्तियाँ बदलकर "आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान् महानदी-स्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतान् इन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत्" इस रूप में वाक्य का विस्तार किया है। तथा "तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगज-वायस-पन्नग-पतङ्ग-हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति" सर्वार्थसिद्धि के इस वाक्य को उक्त प्राणियों की स्वाभाविक विशेषताओं और इन्द्रियसुख के लिए की जानेवाली क्रियाओं का तथा तज्जन्य दुःखों का सोदाहरण वर्णन कर ग्यारह वाक्यों में विस्तीर्ण कर दिया है। ' इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में संसारानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए सम्बन्धपरिवर्तन के निम्नलिखित. उदाहरण दिये गये हैं-"पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति।---स्वयमात्मनः पुत्रो भवति।---" (९/७/८०१/पृ. ३२५)। भाष्यकार ने इसमें निम्नलिखित उदाहरण और जोड़कर अर्थविस्तार कर दिया है-"शत्रुर्भूत्वा मित्रं भवति, मित्रं भूत्वा शत्रुर्भवति। पुमान् भूत्वा स्त्री भवति, नपुंसकं च। स्त्री भूत्वा पुमान्नपुंसकं च भवति। नपुंसकं भूत्वा स्त्री पुमांश्च भवति।' (९/७/ पृ. ३९४)। और इसके बाद निम्नलिखित निष्कर्ष भी जोड़ा है-'एवं चतुरशीतियोनिप्रमुख-शतसहस्त्रेषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिरनिवृत्त-विषयतृष्णैरन्योन्य-भक्षणाभिघात-वधबन्धाभियोगाक्रोशादिजनितानि तीव्राणि दुःखानि प्राप्यन्ते। अहो द्वन्द्वारामः कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत्।' (९/७/पृ. ३९४)। यह निष्कर्ष जोड़कर अर्थ को और विस्तार प्रदान कर दिया है। अंत में सर्वार्थसिद्धि (९/७/८०१/पृ.३२५) के ये वाक्य कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ ज्यों के त्यों उद्धृत कर दिये हैं-"एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा।' (तत्त्वा. भाष्य/९/७ /पृ. ३९४)। २. सर्वार्थसिद्धि में परत्व और अपरत्व के दो भेद बतलाये गये हैं-क्षेत्रकृत For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ और कालकृत।१४३ भाष्यकार ने इनमें प्रशंसाकृत भेद भी जोड़ दिया है,१४४ जो अर्थविकास का उदाहरण है। ___३. सर्वार्थसिद्धि में सम्यग्दर्शनी नाम का कोई भेद नहीं है। भाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि ये दो भेद मिलते हैं।१४५ यह अर्थविकास का स्पष्ट प्रमाण है। ___ ४. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अशुचित्वानुप्रेक्षा के अन्तर्गत शरीरविज्ञान का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है, वह सर्वार्थसिद्धि में ढूँढ़े नहीं मिलता, जबकि पूज्यपाद स्वामी ने चिकित्साशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखा था। कवलाहार से किस प्रकार रक्त, मांस, मेदस्, अस्थियाँ, मज्जा, शुक्र आदि निर्मित होते हैं, इसका भाष्यकार ने सूक्ष्म वर्णन किया है। गर्भाधान किस प्रकार होता है, और उसके होने पर किस-किस अवस्था को प्राप्त होकर शरीर विकसित होता है, इसका भी वैज्ञानिक निरूपण भाष्यकार की लेखनी से हुआ है। (९/७/पृ. ३९७-३९८)। भाष्य का यह अर्थविस्तार सर्वार्थसिद्धि को बहुत पीछे छोड़ देता है। ५. भाष्य में नैगमनय के दो भेद किये गये हैं-देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी। (१/३५/पृ.६१)। सत् के चार भेद बतलाये गये हैं-द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक। (५/३१ / पृ. २८२) पूर्वभावप्रज्ञापनीयनय के दो भेद वर्णित हैं-अनन्तरपश्चात्कृतिक और परम्परापश्चात्कृतिक। (१०/७/पृ. ४४९) इन भेदों का सर्वार्थसिद्धि में नामोनिशाँ भी नहीं है। इससे सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थ का विकास हुआ है। ६. भाष्य में अगारी और अनगारी की व्याख्या श्रावक और श्रमण शब्दों से की गई है (७/१४) जो सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। निर्ग्रन्थी, प्रवर्तिनी (तत्त्वा.भाष्य। ९/२४) और श्रमणी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है-"श्रमण्यपगतवेदः--- न संह्रियन्ते।" (तत्त्वा. भाष्य/१०/७/पृ. ४४६)। इनका भी सर्वार्थसिद्धि में अभाव है। अधिगम को 'सम्यग्व्यायाम' (१/७/पृ. २६) कहा गया है, जो बौद्धदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। यह भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं मिलता। अतः ये अर्थविकास के उदाहरण हैं। ७. सर्वार्थसिद्धि में निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा भी प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु भाष्य में किया गया है-"एवमेतद् व्यवहारतः तथा मनुष्यादिस्थितिद्रव्य १४३. "परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः।" सर्वार्थसिद्धि ५/२२/५६९ / पृ. २२३। १४४. “परत्वापरत्वे त्रिविधे-प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/२२ / पृ. २६७। १४५. "तस्मान्न केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु।" वही १/८/ पृ. ३१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३५९ मधिकृत्य दर्शितम् । निश्चयतस्तु प्रतिसमयमुत्पादादिमत् । ' ( ५ / २९ / पृ.२७८) । तथा समुदायव्यक्त्याकृतिसत्तासंज्ञादि निश्चयापेक्षम् । लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृतं विद्यात् ॥ ३ ॥ ( १ / ३५) इस निश्चय - व्यवहाराश्रित प्रतिपादन से भी भाष्य में अर्थविकास सूचित होता है। ८. भवनवासी देवों की कुमार संज्ञा क्यों है, इसका स्पष्टीकरण सर्वार्थसिद्धि में "वेषभूषायुधयानवाहनक्रीडनादिकुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः" (४/१०), इस संक्षिप्त वाक्य में किया गया है। किन्तु भाष्य में कुमारों की वेषभूषा, आभूषण, रूप, गति, आलाप, श्रृंगारिकता, क्रीडा आदि का मनोहारी चित्रण किया गया है। यथा - " कुमारवदेते कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्बणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते ।" (४/११ / पृ.१९८) । इतना ही नहीं, दस प्रकार के भवनवासियों में से प्रत्येक के विशिष्ट रूपरंग, आकृति, मुकुट और चिह्न आदि का भी वर्णन किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में अनुपलब्ध है । यह अर्थविस्तार का स्पष्ट प्रमाण है । ..इसी प्रकार " व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुष---" (४/११), इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में "तेषां व्यन्तराणामष्टौ विकल्पाः किन्नरादयो वेदितव्याः " केवल यह कहा गया है, उन आठ विकल्पों (भेदों) के नाम नहीं बतलाये गये हैं, जब कि भाष्य में उन आठों के नाम तो बतलाये ही गये हैं, आठों में से प्रत्येक के क्रमशः १०+१०+१०+१२+१३+७+९+१५ उपभेद भी वर्णित किये गये हैं और उनके अलगअलग नाम भी गिनाये गये हैं । अर्थात् व्यन्तरों के ८६ नामों का उल्लेख भाष्य में किया गया है। साथ ही उनकी मुखाकृति, रूप-रंग, आभूषण और ध्वजाओं का भी वर्णन है। यह सब सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। अतः यह भाष्य में हुए अर्थविस्तार का पुख्ता सबूत है। ९. " कृमिपिपीलिका ---" (२/२४) सूत्र के भाष्य में द्वीन्द्रियादि जीवों के नामों का वर्णन सर्वार्थसिद्धि को पीछे छोड़ देता है । "जराय्वण्डपोतजानां गर्भः " (२/३४) सूत्र के भाष्य में जरायुज आदि जीवों के नामों का जो वर्णन किया गया है, वह भी सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध नहीं है । १०. " तत्कृतः कालविभागः " ( ४ / १४ ) की सर्वार्थसिद्धिटीका में "कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च । व्यावहारिकः कालविभागस्तत्कृतः समयावलिकादिः " केवल यह कहा गया है, जबकि भाष्य में उसका अनेक प्रकार से विभाजन किया For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ गया है। जैसे-"अणुभागाश्चारा अंशाः कला लवा नालिका मुहूर्ता दिवसा रात्रयः पक्षा मासा ऋतवोऽयनानि संवत्सरा युगमिति लौकिकसमो विभागः। पुनरन्यो विकल्पः प्रत्युत्पन्नोऽतीतोऽनागत इति त्रिविधः। पुनस्त्रिविधः परिभाष्यते संख्येयोऽसंख्येयोऽनन्त इति।" (४/१५/पृ. २०९)। इससे तो ऐसा लगता है जैसे सर्वार्थसिद्धि का उपर्युक्त वाक्य सूत्र हो और भाष्यकार द्वारा दिया गया विवरण उसका भाष्य हो। . ११. "गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः" (४/२२) सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में केवल 'गति' आदि की दृष्टि से ही ऊपर के विमानवासियों को नीचे-नीचे के विमानवासियों से हीन बतलाया गया है, किन्तु भाष्य (पृ.२२५) में उच्छ्वास, आहार, वेदना, उपपात और अनुभाव की अपेक्षा भी हीन प्रतिपादित किया गया है। यह भी कहा गया है कि सभी इन्द्र और ग्रैवेयकादि के देव भगवान् के जन्म, अभिषेक, निष्क्रमण, ज्ञानोत्पत्ति, महासमवसरण और निर्वाण के समय वहाँ जाते हैं और भगवान् की विभिन्न प्रकार से पूजा करते हैं। यह वर्णन सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। यह भी भाष्य में हुए अर्थविस्तार का प्रमाण है। १२. "दर्शनचारित्रमोहनीय---" (८/९) सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के सम्यग्दर्शनादिघातक स्वरूप का वर्णन नहीं है, न ही क्रोधादिकषायों के तीव्र, मध्य, विमध्य एवं मन्द स्वरूप का द्योतन करनेवाली पर्वतराजि, भूराजि आदि उपमाओं का सोदाहरण विवेचन है, किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (८/१०/ पृ. ३५९-३६०) में है। क्रोध, मान, माया और लोभ के जो नामान्तर भाष्य में बतलाये गये हैं, वे भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। यह अर्थविस्तार का उदाहरण है। १३. "गतिजातिशरीर --" (८/१२) इत्यादि सूत्र के भाष्य (पृ. ३६७) में पर्याप्तियाँ क्रमशः किस प्रकार पूर्ण होती हैं, इसका सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा निरूपण किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में अनुपलब्ध है। इसमें (पृ. ३६६ पर) पृथिवी आदि के शुद्धपृथिवी, शर्करा, बालुका आदि भेदों का भी वर्णन है, जो सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। १४. "उच्चैर्नीचैश्च" (८/१३) के भाष्य में नीचगोत्रवाली जातियों के नाम बतलाये गये हैं, जैसे चाण्डाल, नट, व्याध, धीवर, दास्य आदि। सर्वार्थसिद्धि में इनका वर्णन नहीं है। १५. "उत्तमक्षमामार्दव---" (९/६) इत्यादि सूत्र के भाष्य (पृ. ३८४-३८५) में न केवल क्षमा आदि के पर्यायवाचियों का वर्णन है, अपितु क्षमा धारण करने के लिए क्या-क्या चिन्तन करना चाहिए इसका भी विस्तार से विवेचन किया गया है। सर्वार्थसिद्धि में इसका अभाव है। संयम के सत्रह भेद (पृ. ३९०), प्रकीर्णक तप के अनेक भेद (पृ. ३९१) और आचार्य के पाँच भेद (पृ. ३९१-३९२) भी भाष्य में बतलाये गये हैं। ये भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३६१ १६. "क्षेत्रकालगति---" (१०/७) इस सूत्र के भाष्य में "तत्र प्रमत्तसंयताः संयतासंयताश्च ---शेषा नया उभयभावं प्रज्ञापयन्तीति" (पृ.४४६) यह अंश सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक है। गतिसिद्ध की अपेक्षा पूर्वभावप्रज्ञापननय (पृ.४४८) के तीन भेद किये गये हैं। सर्वार्थसिद्धि में अल्पबहुत्व का वर्णन केवल क्षेत्र की अपेक्षा किया गया है और आगे कहा गया है ‘एवं कालादिविभागेऽपि यथागममल्पबहुत्वं वेदितव्यम्' (१०/९ / पृ. ३७५)। किन्तु भाष्य (१०/७) में काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर आदि की अपेक्षा विस्तार से वर्णन किया गया है। (पृ. ४४५-४५९) इसके अतिरिक्त आदि के दो शुक्लध्यानों से प्राप्त होनेवाली आमीषधि, सौषधि, शाप, अनुग्रह आदि ऋद्धियों का भी विस्तार से निरूपण है। (पृ. ४५९-४६२)। १७. सर्वार्थसिद्धि में वस्त्रपात्रादि देकर साधु का उपकार करने की आज्ञा नहीं दी गई है, जबकि भाष्य में दी गई है। (९/२४) सर्वार्थसिद्धि में तीर्थकरी की अवधारणा भी नहीं है, किन्तु भाष्य में है (१०/७/पृ. ४४९)। ये सब सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थविस्तार होने के उदाहरण हैं। १८. भाष्यकार ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाते हुए कहा है कि कुछ लोग नयवाद की अपेक्षा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम, ये चार प्रमाण भी मानते हैं।१४६ उन्होंने इन सब को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में गर्भित बतलाया है, क्योंकि इन सब में इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष निमित्त होता है। किन्तु मिथ्यादर्शन से संयुक्त होने के कारण उन्होंने इन्हें अप्रमाण भी माना है१४७ और आगे चलकर शब्दनय की अपेक्षा इन चारों को प्रमाण भी सिद्ध किया है। वे कहते हैं कि सब जीव ज्ञानस्वभाव हैं, अतः शब्दनय की दृष्टि में कोई भी जीव मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी नहीं है। इसलिए विपरीत ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध न होने से प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान १४६. "तत्र प्रमाणं द्विविधं परोक्षं प्रत्यक्षं च वक्ष्यते। चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण।" तत्त्वार्थाधि गमभाष्य/१/६। १४७.क-"अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि च प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेत दिति? अत्रोच्यते सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात्। किं चान्यत् अप्रमाणान्येव वा। कुतः? मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतोपदेशाच्च। मिथ्यादृष्टेर्हि मतिश्रुतावधयो नियतमज्ञानमेवेति वक्ष्यते। नयवादान्तरेण तु यथा मतिश्रुतविकल्पजानि भवन्ति तथा परस्ताद् वक्ष्यामः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/१२। ख-"यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनैः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते स्वविषयनियमात् न च ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादा इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५। For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ और आप्तवचन प्रमाण सिद्ध होते हैं।१४८ इस प्रकार जैनदर्शन में मान्य मतिज्ञानादि प्रमाणों के साथ जैनेतर दर्शनों में मान्य प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों का भाष्यकार ने नयवाद के द्वारा समन्वय करने का प्रयत्न किया है। यह सर्वथा नवीन प्रयास है, जो भाष्यकार के पहले किसी ने नहीं किया। पं० सुखलाल जी संघवी इसका श्रेय उमास्वाति को ही देते हैं। वे 'जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम' नामक लेख में लिखते हैं "आगम में मूल ज्ञान के मति, श्रुत आदि ऐसे पाँच विभाग हैं। उसी प्रकार प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो, और प्रत्यक्ष, अनुमान आदि ऐसे चार भी हैं। उनमें कोई विरोध है कि नहीं? और यदि नहीं, तो इसका समन्वय किस प्रकार? यह प्रश्न उठने लगा। इसका उत्तर देने का प्रथम प्रयास वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में हुआ जान पड़ता है।।१४९ यह प्रयास सर्वार्थसिद्धि में नहीं किया गया, भाष्य में किया गया है। यह सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थ-विकास होने का ऐसा प्रमाण है, जिसे पं० सुखलालजी ने स्वयं स्वीकार किया है और उसे जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम नामक उपर्युक्त लेख में प्रकाशित किया है। अतः उनके ही शब्दों से भाष्य की अर्वाचीनता और सर्वार्थसिद्धि की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। अतः सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए संघवी जी द्वारा बतलाया गया अर्थविस्तार का हेतु असत्य है। __डॉ० सागरमल जी ने पृष्ठसंख्या या पंक्तिसंख्या की न्यूनाधिकता के आधार पर अर्थ का विस्तार या अविस्तार माना है। वे लिखते हैं-"सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान और मार्गणास्थान का अत्यधिक विकसित और विस्तृत विवरण उपलब्ध है। सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय के ८वें सूत्र की व्याख्या में लगभग सत्तर पृष्ठों में गुणस्थान और मार्गणास्थान की चर्चा की गई है, जबकि तत्त्वार्थभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्णतः अभाव है। उसमें प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या केवल दो पृष्ठों में समाप्त हो गई है। मार्गणा के रूप में मात्र गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय आदि का नामोल्लेख १४८. "शब्दनयस्तु द्वे एव श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते। अत्राह कस्मान्नेतराणि श्रयते इति? अत्रो च्यते-मत्यवधिमन:पर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकत्वात्। चेतनाज्ञस्वाभाव्याच्च सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते, तस्मादपि विपर्ययान्न श्रयत इति। अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमनुज्ञायत इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/३५ / पृ.७१-७२। १४९. 'जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम'/अनेकान्त (मासिक)/वर्ष १/किरण ५/ चैत्र संवत् १९८६ / पृष्ठ २६४। For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३६३ है, उनके सम्बन्ध में कोई विस्तृत चर्चा नहीं की गई है। सत्तर पृष्ठों में चर्चा करनेवाला ग्रन्थ विकसित है या मात्र दो पृष्ठों में चर्चा करनेवाला विकसित है, पाठक स्वयं यह विचार कर लें।" (जै.ध.या.स./पृ.३०३ )। इस विषय में मेरा निवेदन है कि ऐसे अनेक सूत्र हैं, जिनकी व्याख्या भाष्य में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा दुगुनी, चौगुनी, पचगुनी और छहगुनी पंक्तियों में की गई है। देखिएअध्यायक्रमांक सूत्रक्रमांक पंक्तिसंख्या स. सि. भाष्य स. सि. भाष्य س س ४ ५ ४ ५ ५ ९ १९ २३ س س سه سه سه له ११ ३४ ११७ १३ سه ५ .. س » » » ११ १२ ४ ३१ » » १४ १५ ४ » ५ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अध्यायक्रमांक सूत्रक्रमांक स. सि. भाष्य २० २१ २२ अ०१६/प्र०२ - पंक्तिसंख्या सि... भाष्य ४ १४ ७ ७ ७० २४ २४६ ९ ७ २५ १४१ इसे देखते हुए डॉक्टर साहब के उपर्युक्त तर्क के अनुसार सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य विकसित सिद्ध होता है। ६.३. अव्याख्या व्याख्याग्रन्थ की अविकसितता का लक्षण नहीं डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की अविकसितता का उदाहरण देते हुए अपने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में कहा है कि उसमें प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या में "मार्गणा के रूप में मात्र गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय आदि का नामोल्लेख है, उनके सम्बन्ध में कोई विस्तृत चर्चा नहीं की गई है।" ( जै.ध.या.स./पृ. ३०३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३६५ इस प्रकार उन्होंने व्याख्या न किये जाने को व्याख्याग्रन्थ का अविस्तृत या अविकसित होना कहा है और उसे प्राचीनता का लक्षण माना है। डॉक्टर सा० के इस कथन से मैं सहमत हूँ कि मार्गणा की व्याख्या में भाष्यकार ने केवल गति, इन्द्रिय आदि का नामोल्लेख किया है। किन्तु केवल उपर्युक्त सूत्र की ही नहीं, अनेक सूत्रों की व्याख्या भाष्यकार ने इतने कम शब्दों में की है कि उसे व्याख्या ही नहीं कहा जा सकता। सूत्र के ही शब्दों में कोई पद या क्रिया जोड़कर भाष्यवाक्य लिख दिया गया है । शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट नहीं किया। उदाहरणार्थ १ सूत्र - औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणा - मिकौ च । (२/१) । भाष्य - औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक औदयिकः पारिणामिक इत्येते पञ्च भावा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । (२ / १) यहाँ भाष्य सूत्र के ही बराबर संक्षिप्त है, क्योंकि व्याख्या तो कोई की ही नहीं गई है। औपशमिक, क्षायिक आदि शब्द भाष्य में ज्यों के त्यों रख दिये गये हैं। उनका व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थ स्पष्ट किया जाता तब कहीं सूत्र की व्याख्या कहला सकती थी। सर्वार्थसिद्धिकार ने यह किया है, इसलिए उनकी व्याख्या की पंक्तियाँ बढ़ गई हैं। ऐसा नहीं माना जा सकता कि भाष्यकार को इन शब्दों की व्युत्पत्ति या अर्थ मालूम नहीं था अथवा उनके समय तक उसका विकास नहीं हुआ था और सर्वार्थसिद्धिकार ने ही उसे विकसित किया है। यदि ऐसा होता, तो पूर्ववर्ती सभी आचार्य, उनके अर्थबोध से रहित होते और उनके लिए तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन असंभव हो जाता। अतः संस्कृतज्ञ भाष्यकार को उक्त शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ तो मालूम था, लेकिन उसे बतलाने की उनकी रुचि नहीं हुई । यही भाष्य के संक्षिप्त होने का कारण है । अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं २ सूत्र - उपयोगो लक्षणम् । (२ / ८) । भाष्य - उपयोगो लक्षणं जीवस्य भवति । (२ / ८) | यहाँ भी उपयोग की व्याख्या नहीं की गई। ३ सूत्र - संसारिणो मुक्ताश्च । (२/१०)। For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ भाष्य-ते जीवाः समासतो द्विविधा भवन्ति-संसारिणो मुक्ताश्च। (२/१०)। यहाँ भी 'संसारी' और 'मुक्त' शब्दों को अव्याख्यात ही छोड़ दिया गया। सूत्र-समनस्कामनस्काः । (२/११)। भाष्य-समासतस्ते जीवा द्विविधा भवन्ति-समनस्काश्च अमनस्काश्च। (२/१०)। यहाँ पूर्वसूत्र (२/१०) के ही भाष्यवाक्य को दुहरा दिया गया है और समनस्क, अमनस्क शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने की परवाह नहीं की गई। सूत्र-संसारिणस्त्रसस्थावराः। (२/१२)। भाष्य-संसारिणो जीवा द्विविधा भवन्ति वसा: स्थावराश्च। (२/१२)। यहाँ त्रसनामकर्म और स्थावरनामकर्म के आधार पर त्रस और स्थावर शब्दों की व्याख्या की जाती, तो भाष्य नाम सार्थक होता। सूत्र-अनुश्रेणिगतिः। (२/२७)। भाष्य-सर्वा गतिर्जीवानां पुद्गलानां चाकाशप्रदेशानुश्रेणिर्भवति। विश्रेणिर्न भवतीति गतिनियम इति। (२/२७)। यहाँ 'श्रेणी' का अर्थ समझ न पाने के कारण पाठक सूत्र का अर्थ कैसे समझ पायेगा, इस ओर भाष्यकार का ध्यान नहीं गया। सूत्र-मूर्छा परिग्रहः। (७/१२)। भाष्य-चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्धय मूर्च्छत्यनान्तरम्। (७/१२)। यहाँ भी भाष्यकार ने 'मूर्छा' शब्द की व्याख्या में रुचि नहीं दर्शायी। यद्यपि मूर्छा के सभी पर्यायवाचियों का उल्लेख उन्होंने कर दिया है, तथापि श्वेताम्बरमतसम्मत वह व्याख्या नहीं की, जिसके अनुसार वस्त्र-पात्रादि रखते हुए भी श्रमण और श्रमणी अपरिग्रही या निर्ग्रन्थ कहला सकते हैं। मूर्छा शब्द का जो इच्छा-प्रार्थना-रूप अर्थ है, उससे तो वस्त्र-पात्रादि की इच्छा या याचना भी परिग्रह सिद्ध होती है, जिसके Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३६७ अनुसार दिगम्बर मुनि ही अपरिग्रही या निर्ग्रन्थ कहला सकता है। इसका निषेध करने के लिए भाष्यकार कम से कम दशवैकालिकसूत्र की निम्नलिखित गाथाओं को तो उद्धृत कर ही सकते थे जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलजट्ठा धारंति परिहरंति य॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइिणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ किन्तु उन्होंने न तो इन गाथाओं को उद्धृत किया, न ही इनका भावार्थ अपने शब्दों में प्रस्तुत किया। इससे सिद्ध है कि भाष्यकार को महत्त्वपूर्ण सूत्रों की भी व्याख्या करने में रुचि नहीं थी। यही भाष्य के संक्षिप्त होने का कारण है। इसी प्रकार परीषहसूत्र (९/९) में वर्णित बाईस परीषहों में से एक भी परीषह का लक्षण नहीं बतलाया। नाग्न्य तक की लोकरूढ़नाग्न्य अथवा मुख्यनाग्न्य और उपचरितनाग्न्य रूप से व्याख्या नहीं की। भाष्यकार ने 'तत्त्वार्थ' के सूत्रों में आये अन्य अनेक शब्दों की भी व्याख्या नहीं की है, जैसे औदारिक आदि शरीरों की, गर्भ, सम्मूर्च्छन आदि जन्मों की। लेश्या, प्रदोष, निह्नव, आसादन, दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, परिदेवन, अवर्णवाद, आरम्भ, माया, दर्शनविशुद्धि, प्रमत्त, इत्वर, पुद्गलक्षेप, आदि अनेक शब्द व्याख्या से वंचित रह गये हैं। वस्तुतः भाष्यकार अपने ग्रन्थ का कलेवर अतिसंक्षिप्त रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने जानबूझकर ऐसा किया है। डॉ० सागरमल जी ने भी यह बात स्वीकार की है। वे लिखते हैं-"यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तत्त्वार्थ मूल और उसके भाष्य दोनों की शैली सूत्रशैली है और सूत्रशैली में अनावश्यक विस्तार से बचना होता है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३४१)। वस्तुतः भाष्यकार अनावश्यक विस्तार से ही नहीं, आवश्यक विस्तार से भी बचे हैं। यही कारण है कि उन्होंने गुणस्थानानुसार कर्मों के आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा के विवेचन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य से भी परहेज किया है। डॉ० सागरमल जी का यह कथन समीचीन नहीं है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखे जाने तक गुणस्थानसिद्धान्त पूर्णरूप से विकसित नहीं हुआ था, इसलिए भाष्य में उसकी चर्चा नहीं हुई। (जै.ध.या.स./ पृ. २४८)। आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना के पूर्व गुणस्थान-सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित रूप में मौजूद था। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ में गुणस्थानों के अनुसार बाईस परीषहों और चतुर्विध ध्यानों का स्वामित्व निरूपित किया गया है। तदनुसार भाष्य में भी उसका उल्लेख हुआ है। फर्क सिर्फ यह है कि भाष्यकार ने गुणस्थानों के अनुसार कर्मों के आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा का विवेचन नहीं किया। इसके दो ही कारण हैं-विस्तारभय और रुचि का अभाव। इनमें रुचि का अभाव मुख्य कारण है। और उसका कारण यह है कि गुणस्थानसिद्धान्त श्वेताम्बर मान्यताओं के प्रतिकूल है। अतः सर्वार्थसिद्धि के उपस्थित रहते हुए भी भाष्यकार ने गुणस्थानानुसार विवेचन का अनुकरण नहीं किया। ग्रन्थकार की रुचि पूर्ववर्ती ग्रन्थ से किसी विषय के ग्रहण या अग्रहण का महत्त्वपूर्ण हेतु होती है। इसे डॉक्टर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है। सर्वार्थसिद्धि की रचना तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से पूर्व हुई थी, यह पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है। उसमें "वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य" (त.सू.५/२२) सूत्र की टीका (पृ.२२३) में पूज्यपाद स्वामी ने परत्वापरत्व के दो भेद माने हैं-क्षेत्रकृत और कालकृत। किन्तु भाष्य (पृ. २६७) में एक अतिरिक्त भेद भी माना गया है प्रशंसा-कृत। इससे स्पष्ट होता है कि भाष्य में अर्थविकास हुआ है, फलस्वरूप वह सर्वार्थ-सिद्धि के बाद रचित सिद्ध होता हैं। किन्तु डॉ० सागरमल जी सर्वार्थसिद्धि को भाष्य के बाद रचित सिद्ध करना चाहते हैं। अतः उन्होंने तर्क दिया है कि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य का अनुकरण किया है, किन्तु परत्वापरत्व का प्रशंसाकृत भेद स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह उनकी रुचि का प्रश्न था। वे लिखते हैं-"सर्वार्थसिद्धि भाष्य की अपेक्षा विचार और भाषा दोनों ही दृष्टि से अधिक विकसित है। परत्व और अपरत्व के भेदों की चर्चा में क्षेत्र और काल के अतिरिक्त प्रशंसा को उसका एक भेद मानना अथवा नहीं मानना यह पूज्यपाद की व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न भी हो सकता है। सम्भवतः पूज्यपाद ने भाष्य के सम्मुख होते हुए भी उसे स्वीकार न किया हो, किन्तु आगे अकलंक ने अपने वार्तिक में उसका अनुसरण किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३०३)। इस प्रकार डॉक्टर साहब किसी ग्रन्थ से कुछ लेने या न लेने को लेखक की रुचि का प्रश्न मानते हैं। मेरा भी यही कहना है कि सर्वार्थसिद्धि भाष्यकार के समक्ष मौजूद थी। उन्होंने उसमें से वह विषय तो ग्रहण कर लिया जो उनकी रुचि के अनुकूल था, किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि वह उनकी रुचि के अनुकूल नहीं था। इसीलिए प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या में उसकी चर्चा नहीं की गयी। निष्कर्ष यह कि भाष्यकार ने अनेक सूत्रों के नीचे जो एक-दो वाक्य लिखे हैं, वे व्याख्या की परिभाषा में नहीं आते, अतः व्याख्या के अभाव को व्याख्याग्रन्थ के अविकसित होने का उदाहरण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्याख्या के अभाव Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३६९ में तो उसे व्याख्याग्रन्थ संज्ञा ही प्राप्त नहीं हो सकती। भाष्य में जिन सूत्रों की व्याख्या की गयी है, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या के कारण वह व्याख्याग्रन्थ या भाष्यग्रन्थ कहला सकता है और उन सूत्रों की व्याख्या का विस्तार सर्वार्थसिद्धिगत व्याख्या के विस्तार से अधिक है। उनकी पंक्तिसंख्या पूर्व में बतलायी जा चुकी है। जहाँ विस्तार अधिक नहीं है, वहाँ वह समान है। इससे सिद्ध है कि भाष्य ही सर्वार्थसिद्धि से अधिक विकसित है। अतः सर्वाथसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए बतलाया गया विकसित होने का हेतु असत्य है। तथापि किसी ग्रन्थ का विस्तृत होना उसकी अर्वाचीनता का लक्षण नहीं हो सकता। ऐसा मानने पर आचारांगादि समस्त श्वेताम्बर-आगम तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे, क्योंकि वे उससे अधिक विस्तृत हैं। दूसरी ओर १०वीं शती ई० के बृहत्प्रभाचन्द्र द्वारा रचित १०५ सूत्रवाला लघु तत्त्वार्थसूत्र उमास्वातिकृत ३५७ सूत्रवाले तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती सिद्ध होगा। इसका विस्तृत विवेचन दशम अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में शीर्षक ३.४. में द्रष्टव्य है। सर्वार्थसिद्धि की भाष्यपूर्वता पूर्वोक्त शीर्षक क्र. १ से ५ तक प्रदर्शित प्रमाणों से सिद्ध होती है। ६.४. दोनों की रचना सम्प्रदायभेद के बाद तीसरा तर्क देते हुए पं० सुखलाल जी संघवी लिखते हैं-"उक्त दो बातों की अपेक्षा साम्प्रदायिकता की बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। कालतत्त्व, केवलि-कवलाहार, अचेलकत्व और स्त्रीमुक्ति जैसे विषयों के तीव्र मतभेद का रूप धारण करने के बाद और इन बातों पर साम्प्रदायिक आग्रह बँध जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गई, जब कि भाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का यह तत्त्व दिखाई नहीं देता।" (त.सू./ वि.स./प्रस्ता./ पृ. ६४)। ____ संघवी जी का यह तर्क भी तथ्यों के विपरीत हैं। तथ्य यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दोनों की रचना सम्प्रदायभेद के बाद ही हुई है और दोनों में साम्प्रदायिक मतभेद दिखाई देता है। जहाँ सर्वार्थसिद्धि में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का एकान्ततः निषेध है, वहाँ भाष्य में उनका एकान्ततः प्रतिपादन है। 'दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद का इतिहास' नामक षष्ठ अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि मूल निर्ग्रन्थसंघ का सर्वप्रथम विभाजन अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी (४६५ ई० पू०) के निर्वाण के बाद ही हो गया था। दूसरा विभाजन ईसापूर्व चौथी शती में सम्राट चन्द्रगुप्त के काल में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप हुआ था। दोनों बार विभाजन का कारण अचेलमुक्ति और सचेलमुक्ति को लेकर उत्पन्न हुआ मतभेद था। अचेलमुक्ति के सिद्धान्त में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के लिए स्थान नहीं है, यह पूर्व Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/ प्र०२ में स्पष्ट किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल संघवी जी स्वयं ईसा की तीसरीचौथी शताब्दी मानते हैं। अतः जब तत्त्वार्थसूत्र की ही रचना साम्प्रदायिक मतभेद के दृढमूल हो जाने के बाद हुई थी, तब उस पर किसी टीका या भाष्य की रचना उसके बाद ही हो सकती है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं का मतभेद स्पष्ट दिखाई देता है। इसका सप्रमाण निरूपण इसी अध्याय के आरंभ में किया जा चुका है। दूसरी बात यह है कि ई० सन् ४७५-४९० के कदम्बवंशीय राजा श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा एवं मृगेशवर्मा के अभिलेखों में श्वेतपटमहाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ, यापनीयों तथा कूर्चकों को दान दिये जाने का उल्लेख है।५० इनके सैद्धान्तिक मतभेद का पता इनके नामों से ही चल जाता है। यदि अन्य प्रमाणों को छोड़कर इस शिलालेख के ही आधार पर विचार करें, तो इन चारों सम्प्रदायों का अस्तित्व शिलालेख लिखे जाने के कम से कम पचास वर्ष पूर्व से तो मानना ही होगा जिसका तात्पर्य यह है कि ४२५ ई० में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति को अमान्य करने वाला दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय तथा इसके विरुद्ध मान्यताएँ रखनेवाले श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय मौजूद थे। सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी का समय ४५० ई० के लगभग माना गया है, क्योंकि उनके शिष्य वज्रनन्दी ने वि० स० ५२६ (ई० सन् ४६९) में द्रविडसंघ की स्थापना की थी।५१ अतः उनका स्थितिकाल इससे पूर्व ही हो सकता है। दूसरी ओर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तभी संभव है जब तत्त्वार्थसूत्र लिपिबद्ध हो चुका हो। यहाँ मैं डॉ० सागरमल जी के शब्द उद्धृत करना चाहूँगा। वे लिखते हैं-"तत्त्वार्थभाष्य के काल तक जैनपरम्परा में पुस्तक लेखन की प्रवृत्ति विकसित नहीं हुई थी। मुनि के लिए ग्रन्थलेखन और लिखित ग्रन्थों का संग्रह करना प्रायश्चित-योग्य अपराध माने जाते थे, क्योंकि ताड़पत्र पर ग्रन्थ लिखने और उनका संग्रह करने दोनों में जीवहिंसा अपरिहार्य थी, जब कि सर्वार्थसिद्धि जिस काल में लिखी गई, उस काल में लेखनपरम्परा प्रारंभ हो चुकी थी। श्वेताम्बरपरम्परा में सर्वप्रथम वी० नि० सं० ९८० अर्थात् विक्रम सं० ५१० या ई० सन् ४५३ में यह सुनिश्चित किया गया है कि यदि आगमसाहित्य की रक्षा करना हो, तो उन्हें ताड़पत्रों पर लिखवाना और संगृहीत करना होगा। इस प्रकार श्वेताम्बरपरम्परा में ग्रन्थलेखन की प्रवृत्ति तत्त्वार्थभाष्य की रचना के लगभग १५०. देखिए, अभिलेखों का सम्बन्धित मूलपाठ, अध्याय २/प्रकरण ६/शीर्षक २। १५१. डॉ० दरबारीलाल कोठिया : 'समन्तभद्र और दिग्नाग में पूर्ववर्ती कौन?'/'अनेकान्त' (मासिक), जनवरी १९४३। For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३७१ दो सौ वर्ष बाद प्रारंभ हुई। जो ग्रन्थ मुखाग्रपरम्परा से २०० वर्षों तक चला आ रहा हो, उसमें पाठभेद होना आश्चर्यजनक नहीं है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी मुनि तत्त्वार्थसूत्र को उसके भाष्य के साथ ही कंठस्थ तो नहीं करते थे, कुछ मात्र सूत्र को कण्ठस्थ करते रहे होंगे । अतः सूत्रगत पाठ और भाष्यगत पाठ में क्वचित् अंतर आ गया हो ।" (जै. ध. या.स./ पृ. २५८ ) । डॉक्टर साहब के इस कथन के अनुसार सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य ई० सन् ४५३ के बाद लिपिबद्ध किये गये । इसके पूर्व तक दोनों श्रुतिपरम्परा या मौखिक - परम्परा से चले आ रहे थे । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र का श्रुतिपरम्परा से चला आना तो युक्तिसंगत है, लेकिन भाष्य का श्रुतिपरम्परा से चला आना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि भाष्य जैसे विशाल गद्य को कण्ठस्थ करना और उसे स्मृति में सुरक्षित रखना असंभव है। दूसरी बात यह है कि किसी भी गद्य या पद्य को कण्ठस्थ करने के लिए बार-बार दुहराना पड़ता है। और दुहराने के लिए यह जरूरी है कि या तो वह लिखित रूप में सामने हो या कोई उसे मुँह से बोलकर तब तक बार-बार सुनाता रहे, जब तक दुहराते - दुहराते वह कण्ठस्थ न हो जाय। और मुँह से बोलकर दूसरे को सुनाने के लिए स्वयं को पहले से कण्ठस्थ होना चाहिए। और स्वयं को कण्ठस्थ होने के लिए दूसरे के मुख से सुनना आवश्यक है। इस तरह दूसरे को बोलकर सुनानेवाला प्रथम व्यक्ति स्वयं भाष्यकार ही हो सकता है । किन्तु यह भाष्यकार के लिए भी संभव नहीं है कि वह इतने विशाल गद्य को मुँह से घण्टों बोलता रहे, उसे तब तक बार-बार दुहराता रहे, जब तक सुननेवाले को कण्ठस्थ न हो जाय। यह भी संभव नहीं है कि भाष्यकार ने जो कुछ पहले सुनाया है, उसे वह ज्यों का त्यों दूसरी बार दुहरा सके। और दूसरी बार ज्यों का त्यों न दुहराने से जो बोला गया है, सुननेवाले के मन पर उसके संस्कार दृढ़ नहीं हो सकते। इस प्रकार किसी भी विशाल अलिखित गद्य को कण्ठस्थ करना संभव नहीं है। इसीलिए कण्ठस्थ करने के उद्देश्य से सूत्रशैली और पद्यशैली का प्रचलन हुआ था। यही कारण है कि भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रन्थ, जो श्रुतिपरम्परा से चले आये हैं, सूत्रबद्ध और पद्यबद्ध ही मिलते हैं। उन पर जो भी टीकाएँ या भाष्य लिखे गये, वे ग्रन्थलेखन - प्रथा के प्रचलित होने पर ही लिखे गये। क्योंकि विस्मृति से बचाने के लिए उनका तत्काल लिपिबद्धीकरण आवश्यक था । किन्तु श्वेताम्बरपरम्परा में धार्मिक ग्रन्थों के लेखन की प्रथा ई० सन् ४५३ तक प्रारंभ नहीं हुई थी । अतः उसके पश्चात् ही भाष्य की रचना संभव थी । इस स्थिति में यदि भाष्य का रचयिता सूत्रकार को ही माना जाय तो सूत्रकार का स्थितिकाल छठी शताब्दी ई० मानना होगा, जो उपलब्ध प्रमाणों के विरुद्ध है । उपलब्ध प्रमाण उन्हें द्वितीय शती ई० में ही विद्यमान For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ सिद्ध करते हैं। अतः अन्यथानुपपत्ति से यही सिद्ध होता है कि पाँचवीं शती ई० में वलभीवाचना के समय तत्त्वार्थसूत्र के लिपिबद्ध हो जाने के पश्चात् ही सूत्रकार से भिन्न उमास्वाति नाम के आचार्य ने उस पर भाष्य लिखा। दूसरी बात यह है कि मूलग्रन्थ के लिपिबद्धरूप में उपलब्ध होने पर ही कोई विद्वान् उस पर भाष्यादि रच सकता है। स्वयं मूलग्रन्थकार के लिए मूलग्रन्थ को लिपिबद्ध किये बिना उस पर भाष्य, टीका या वृत्ति रचना संभव नहीं है। और भाष्य, टीका, वृत्ति आदि तो लिपिबद्ध करते हुए ही रचे जा सकते हैं, क्योंकि लिपिबद्ध न करने पर पहले किस सूत्र का भाष्य किया जा चुका है, उसके भाष्य में क्या कहा गया है, किसी शब्द की क्या निरुक्ति या व्याख्या की गयी है, कौन से दृष्टान्त दिये गये हैं, कौन सी शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है, किस मत का खण्डन और किस की पुष्टि की गयी है, किन पूर्वाचार्यों के किन वचनों को प्रमाणरूप में उद्धृत किया गया है, इन बातों का विस्मृत होना अनिवार्य है। द्वादशांगश्रुत का अधिकांश ज्ञान पंचमकाल में स्मृतिक्षमता के क्रमिक ह्रास से ही लुप्त हुआ है। जैसे कोई दृष्टिहीन स्त्री गेंहूँ पीस रही हो और आटे को गाय खाती जा रही हो, तो उसकी रसोई कभी नहीं बन सकती, वैसे ही कोई पंचमकालीन भाष्यकार सूत्रों के भाष्य का मन में चिन्तन करता जा रहा हो और पूर्वचिन्तित भाष्य को भूलता जा रहा हो, तो उसके भाष्य की रचना कभी नहीं हो सकती। भाष्यरचना में न केवल सूत्रादि के सम्यक् अर्थ का चिन्तन, उसकी पुष्टि के लिए दृष्टान्त, प्रमाण आदि का अन्वेषण और यथास्थान संयोजन आवश्यक होता है, अपितु उपयुक्त शब्द, वाक्य, अलंकार और व्याकरण का प्रयोग भी आवश्यक होता है तथा किसी बात की पुनरुक्ति अथवा किसी तथ्य की च्युति न हो, इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। फिर जरूरत होती है, उन्हें ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने की। इसके लिए उन्हें लिपिबद्ध करना ही एकमात्र उपाय होता है। अतः किसी भी भाष्य, टीका या वृत्ति की रचना उसे लिपिबद्ध किये बिना संभव नहीं है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तत्त्वार्थसूत्र के लिपिबद्ध होने के पश्चात् लिपिबद्धरूप में ही ईसा की छठी शती के पूर्वार्ध में हुई थी। और दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदायभेद इसके बहुत पहले हो चुका था, जो राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के शिलालेख से भी प्रमाणित है, इसलिए भाष्य भी सम्प्रदायभेद के बाद ही रचा गया है। अतः सर्वार्थसिद्धि में श्वेताम्बरमत-विरोधी तथ्यों का उल्लेख होने पर भी वह भाष्य से पूर्ववर्ती ही सिद्ध होती है। फलस्वरूप सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए संघवी जी द्वारा प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी सर्वथा असत्य है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना सम्प्रदायभेद के बाद हुई है और तत्त्वार्थधिगमभाष्य का प्रणयन उसके पहले। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३७३ भाष्य का रचनाकाल छठी शती ई० का पूर्वार्ध ऊपर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के रचनाकाल का अन्वेषण करते हुए इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि उसकी रचना पाँचवीं शती ई० के उत्तरार्ध में तत्त्वार्थसूत्र के पुस्तकारूढ़ होने के पश्चात् हुई है। वह पश्चाद्वर्ती समय छठी शती ई० का पूर्वार्ध हो सकता है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित प्रमाणों से होती है। पं० नाथूराम जी प्रेमी 'जैन साहित्य और इतिहास' (द्वि.सं./पृ.५४५-५४६) में लिखते हैं "अध्याय ५, सूत्र २९ के तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने पातञ्जलयोगसूत्र के दो सूत्र उद्धृत किये हैं-"योगिज्ञानप्रमाणाभ्युपगमे त्वभ्रान्तस्तदवस्थाभेदः। एवं यमादिपालनानर्थक्यम्। एवं च सति 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः, 'शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' इति आगमवचनं वचनमात्रम्।" और जैसा कि पं० राहुल सांकृत्यायन ने कहा है, योगसूत्रकार का समय ईस्वी सन् २५० (वि० सं० ३०७) के लगभग है। अत एव उमास्वाति का समय विक्रम की चौथी शती के लगभग होगा। . "योगसूत्र और उसके भाष्य के साथ तत्त्वार्थसूत्रों और तत्त्वार्थभाष्य की शाब्दिक तथा आर्थिक समानता बहुत है। अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका था कि किस का किस पर असर है, परन्तु योगसूत्र के उपरिलिखित दो सूत्रों के तत्त्वार्थभाष्य में उद्धृत होने से यह निश्चय हो जाता है कि योगसूत्र भाष्य से पहले का है और उसी का भाष्य पर असर है। अब योगसूत्र के व्यासभाष्य को भी लीजिए। उसका प्रभाव भी तो तत्त्वार्थभाष्य पर दिखलाई देता है। "जैनागमों में यह चर्चा आती है कि पहले बाँधी हुई आयु टूट भी सकती है और नहीं भी टूटती। परन्तु यहाँ आयु के टूट सकने के पक्ष में भीगे कपड़े और सूखे घास के उदाहरण नहीं मिलते, जब कि तत्त्वार्थभाष्य में मिलते हैं और व्यासभाष्य में भी। दोनों भाष्यों के पाठ इस प्रकार हैं "---शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति।---अपवर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम्। ---संहतशुष्कतृणराशि-दहनवत्। यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति तस्यैव शिथिलप्रकीर्णापचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति तद्वत्।---यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्चिरेण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ शोषमुपयाति एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते - ।" ( तत्त्वार्थभाष्य / २/५२/पृ.१३२-१३४)। 'आयुर्विपाकं कर्म द्विविधं सोपक्रमं निरुपक्रमं च । तत्र यथार्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत्तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सम्पिण्डितं चिरेण संशुष्येदेवं निरुपक्रमम् । यथा वाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् । " ( योगभाष्य ३ / २२) । 44 'व्यासभाष्य का ठीक समय मालूम नहीं है, फिर भी वह योगसूत्र के बाद का तो है ही, इसलिए ईस्वी सन् ३०० से पहले का नहीं हो सकता और तब यदि तत्त्वार्थभाष्य के उदाहरण व्यासभाष्य से ही लिये गये हैं, तो उमास्वाति विक्रम की चौथी शताब्दी के लगभग ठहरेंगे।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं./ पृ. ५४५-५४६)। 44 प्रेमी जी तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न मानते हैं, इसलिए उन्होंने भाष्यकार के काल को तत्त्वार्थसूत्रकार का काल मान लिया है। वास्तव में दोनों भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं, अतः विक्रम की चौथी शताब्दी का अनुमान भाष्यकार के विषय में समझना चाहिए । किन्तु हम पूर्व में देख चुके हैं कि भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया गया है और सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य की दिगम्बरमत-विरुद्ध मान्यताओं का खण्डन भी नहीं किया है, जैसा कि अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में किया है, अतः भाष्यकार पाँचवी शती ई० के पूर्वार्ध में हुए पूज्यपाद स्वामी से उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। दूसरी तरफ नाग्न्यपरीषह को सचेल साधु पर घटाने के लिए जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण - कृत विशेषावश्यकभाष्य में जो लोकरूढनाग्न्य या उपचरितनाग्न्य की कल्पना की गयी है, वह तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में नहीं मिलती। विशेषावश्यकभाष्य की रचना वि० सं० ६६६ ( ई० सन् ६०९) में हुई थी ( साध्वी संघमित्रा : जैनधर्म के प्रभावक आचार्य/पृ. ३०८), अतः तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का उसके पूर्व लिखा जाना सुनिश्चित है । इस तरह यह निर्णीत होता है कि उसकी रचना छठी शती ई० के पूर्वार्ध में हुई थी। तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल ईसा की द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध है, यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय के प्रथम प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। प्रस्तुत अध्याय के षष्ठ प्रकरण में भी इस पर प्रकाश डाला जायेगा । For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० २ ८ तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता का नाम गृध्रपिच्छाचार्य श्वेताम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य), दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा रचित माने गये हैं । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्त्ता ने भाष्य की प्रशस्ति में अपना नाम उमास्वाति बतलाया है - " तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम्।" इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा उमास्वामी को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्त्ता मानती है । दिगम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्रकार के लिए तीन नामों का प्रयोग मिलता है— गृद्धपिच्छाचार्य, उमास्वाति और उमास्वामी । इनमें सबसे पुराना नाम गृद्धपिच्छाचार्य है। धवलाकार वीरसेन स्वामी (८वीं शती ई०) ने निम्नलिखित वाक्य में तत्त्वार्थसूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा रचित बतलाया है तत्त्वार्थसूत्र / ३७५ " तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिद - तच्चत्थसुत्ते वि 'वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो ।" (धवला / ष .खं / पु. ४/१,५,१/पृ. ३१६) । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि महान् ग्रन्थों के रचयिता श्री विद्यानन्दस्वामी (८वीं९वीं शती ई०) ने अधोलिखित वाक्य में सूचित किया है कि भगवान् महावीर के शासन में जो सूत्रकार हुए हैं, उनमें अन्तिम सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ थे " एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता ।" ( तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक/पृ. ६) । श्रीवादिराजसूरि (११वीं शती ई०) ने पार्श्वनाथचरित में तत्त्वार्थसूत्रकर्त्ता आचार्य गृद्धपिच्छ का इन शब्दों में उल्लेख किया है अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम् । पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पत्तिष्णवः ॥ अनुवाद — " उन महान् गुणों के आकर, गृद्धपिच्छ को मैं नमस्कार करता हूँ, जो उड़कर निर्वाण को पहुँचने के अभिलाषी भव्यों के लिए पंखों का काम करते हैं । " इन उल्लेखों से सिद्ध है कि ईसा की ११वीं शताब्दी तक दिगम्बर जैनपरम्परा में एकमात्र यही मान्यता प्रचलित थी कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं। श्रीविद्यानन्दस्वामी - कृत आप्तपरीक्षा की " प्रणेता मोक्षमार्गस्य" इत्यादि ११९वीं कारिका की स्वोपज्ञटीका में यह वाक्य आया है For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ "साक्षान्मोक्षमार्गस्य सकलबाधकप्रमाणरहितस्य य प्रणेता स एव विश्वतत्त्वज्ञताऽऽश्रयः प्रतिपाद्यते---।" १५२ अनुवाद-"जो समस्त बाधक प्रमाणों से रहित साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रणेता है, वही विश्वतत्त्वज्ञता का आश्रय है, अर्थात् सर्वज्ञ है, यह हम प्रतिपादित करते हैं ---" डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया ने उपर्युक्त वाक्य में पादटिप्पणी (क्रमांक २) देकर सूचित किया है कि 'आप्तपरीक्षा' की 'मु'-संज्ञक प्रतियों अर्थात् मुद्रित दो प्रतियों (जैनधर्म प्रचारिणी सभा, काशी/ई० सन् १९१३ एवं जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यालय बम्बई / ई० सन् १९३०) में 'विश्वतत्त्वज्ञताऽऽश्रयः' के पश्चात् 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' पाठ अधिक है, जिसे शामिल करने पर उपर्युक्त वाक्य का अर्थ इस प्रकार फलित होता है ___"जो समस्त बाधक प्रमाणों से रहित साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रणेता है, वही विश्वतत्त्वज्ञता का आश्रय है, अर्थात् सर्वज्ञ है, यह उमास्वामी आदि सूत्रकारों के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है (किया गया है)।" ___ उपर्युक्त अधिक पाठ प्रक्षिप्त है, इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं १. यह डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया को प्राप्त 'आप्तपरीक्षा' की 'द' 'प' एवं 'स' नामक लिखित प्रतियों में उपलब्ध नहीं है। इसीलिए डॉ० कोठिया ने इसे आप्तपरीक्षा के स्वसम्पादित संस्करण में नहीं रखा। (देखिए, आप्तपरीक्षा/सम्पादकीयडॉ० दरबारीलाल कोठिया / पृ.२)। २. उपर्युक्त दो मुद्रित प्रतियों में दूसरी प्रति पहली प्रति का ही प्रतिरूप है (देखिये, वही/पृ.२), अतः उक्त अधिक पाठ एक ही मुद्रित प्रति में उपलब्ध मानना चाहिए। ३. उक्त पाठ को सम्मिलित करने से वाक्य का अर्थ असंगत हो जाता है। उपर्युक्त वाक्य तत्त्वार्थसूत्र के 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलाचरण की व्याख्या के प्रसंग में उक्त है तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता एक ही आचार्य हैं, अतः मंगलाचरण भी एक ही आचार्य द्वारा निबद्ध है। किन्तु 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' शब्दों को शामिल करने से यह अर्थ निकलता है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी आदि अनेक आचार्य १५२. आप्तपरीक्षा / सम्पादक-अनुवादक : डॉ. दरबारीलाल कोठिया / भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् / ई.सन् १९९२ / कारिका ११९ / पृ. ३४५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३७७ हैं, अतः उक्त वाक्य में प्रतिपादित अर्थ इन अनेक आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। __प्रो० महेन्द्रकुमार जी जैन न्यायाचार्य ने भी इस विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वे लिखते हैं-"श्रुतसागर के पहिले विद्यानन्द आचार्य ने आप्तपरीक्षा (पृ.३) में भी इस श्लोक ('मोक्षमार्गस्यनेतारं' आदि) को सूत्रकार के नाम से उद्धृत किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्तपरीक्षा (पृ.५४) में लिखते हैं, जो उमास्वामी के साथ ही साथ 'प्रभृति' शब्द से सूचित होनेवाले आचार्यों को भी तत्त्वार्थसूत्रकार मानने का या 'सूत्र' शब्द की गौणार्थता का प्रसंग उपस्थित करते हैं।" (तत्त्वार्थवृत्ति/भारतीय ज्ञानपीठ काशी/ई.सन् १९४९/प्रस्तावना/ पृ.८५)। ___श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी ने भी उक्त विसंगति का प्रदर्शन किया है। उन्होंने लिखा है-"पहले कथन ('तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः') में 'तत्त्वार्थसूत्रकार' यह उमास्वामी बगैरह आचार्यों का विशेषण है, न कि मात्र उमास्वामी का। अब यदि मुख्तार जी (पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार) के कथनानुसार अर्थ किया जाय, तो ऐसा फलित होता है कि उमास्वामी बगैरह आचार्य तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र का अर्थ यदि 'तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र' किया जाए, तो यह फलित अर्थ दूषित ठहरता है, क्योंकि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र अकेले उमास्वामी द्वारा रचित माना जाता है, न कि उमास्वामी आदि अनेक आचार्यों द्वारा।" (त.सू. / वि.स. / प्रस्तावना/पृ. ७६)। यह विसंगति इस बात का प्रबल प्रमाण है कि 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' यह वाक्यांश आप्तपरीक्षाकार विद्यानन्द स्वामी का नही है, अपितु जब तत्त्वार्थसूत्रकार के लिए उमास्वामी नाम प्रसिद्ध हो गया, तब किसी के द्वारा प्रक्षिप्त कर दिया गया। प्रक्षिप्त करनेवाला आदरसूचनार्थ 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिभिः' इस प्रकार बहुवचन का प्रयोग करना चाहता था, किन्तु अज्ञानतावश 'प्रभृति' शब्द जोड़कर अर्थ का अनर्थ कर दिया। ४. श्री विद्यानन्दस्वामी के समय (८वीं-९ वीं शती ई०) तक तत्त्वार्थसूत्रकार के लिए 'उमास्वामी' नाम प्रचलित भी नहीं हुआ था, क्योंकि श्रवणबेलगोल के ई० सन् १४३३ (शक सं० १३५५) तक के शिलालेखों में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति नाम से ही उल्लिखित किये गये हैं। इन चार प्रमाणों से सिद्ध होता है कि 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' वाक्यांश विद्यानन्दस्वामी की लेखनी से उद्भूत नहीं हुआ है, अपितु प्रक्षिप्त है। विद्यानन्दस्वामी ने केवल गृध्रपिच्छाचार्य को ही तत्त्वार्थसूत्रकार कहा है। For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ 'गृद्धपिच्छाचार्य' नाम के साथ 'उमास्वाति' नाम का उल्लेख सर्वप्रथम श्रवणबेलगोल के शक सं० १०३७ (१११५ ई०) के शिलालेख क्रमांक ४७ (१२७) में मिलता है-"अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिञ्छः" (श्लोक ५)। तत्पश्चात् वहीं के शक सं० १०८५ के शिलालेख क्र० ४० (६४), शक सं० १०९९ के शिलालेख क्र. ४२ (६६), शक सं० १०४५ के शिलालेख क्र. ४३ (११७), शक सं. १०६८ के शिलालेख क्र. ५० (१४०), शक सं० १३२० के शिलालेख क्र. १०५ (२५४) तथा शक सं० १३५५ के शिलालेख क्र. १०८ (२५८) में भी उपर्युक्त दोनों नाम उपलब्ध होते हैं। अन्तिम दो शिलालेखों में 'गृद्धपिच्छाचार्य' इस द्वितीय नामवाले उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता भी कहा गया है। (देखिये, जै.शि.सं./मा. च./ भाग १)। मैसूर के नगर ताल्लुके के एक दिगम्बरजैन-शिलालेख (लगभग १५३० ई०) में भी उमास्वाति को श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण के साथ तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता कहते हुए नमस्कार किया गया है तत्त्वार्थसूत्रकारमुमास्वातिमुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥ _ (E C, VIII, Nagar tl., No. 46/ जै.शि.सं./ मा. च./ भा.३ / ले.क्र.६६७ / हुम्मच / पृ.५१८)। श्रवणबेलगोल के शक सं० १०३७ (१११५ ई०) के शिलालेख क्र. ४७ (१२७) के पूर्ववर्ती किसी भी शिलालेख या दिगम्बरजैन-ग्रन्थ में 'उमास्वाति' के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। पं० नाथूराम जी प्रेमी भी अपने अनुसन्धान के द्वारा इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे। श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी के कुछ प्रश्नों के उत्तर में उनके लिए लिखे पत्र में प्रेमी जी लिखते हैं ___ "श्रुतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में जो प्राचीन आचार्यपरम्परा दी हुई है, उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख नहीं है। श्रुतावतार में कुन्दकुन्द का उल्लेख है और उन्हें एक बड़ा टीकाकार बतलाया है, परन्तु उनके आगे या पीछे उमास्वाति का कोई उल्लेख नहीं है। इन्द्रनन्दी का श्रुतावतार यद्यपि बहुत पुराना नहीं है, फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वह किसी प्राचीन रचना का रूपान्तर है और इस दृष्टि से उसका कथन प्रमाण-कोटि का है। 'दर्शनसार' ९९० संवत् का बनाया हुआ है, उसमें पद्मनन्दी या कुन्दकुन्द का उल्लेख है, परन्तु उमास्वाति का नहीं। जिनसेन के समय राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक बन चुके थे, परन्तु उन्होंने भी बीसों आचार्यों और ग्रन्थकर्ताओं की प्रशंसा के प्रसंग में उमास्वाति का उल्लेख Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३७९ नहीं किया।---'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्' आदि श्लोक मालूम नहीं कहाँ का है और कितना पुराना है। तत्त्वार्थसूत्र की मूल प्रतियों में यह पाया जाता है।" ('अनेकान्त'/वर्ष १/किरण ६-७/वैशाख-ज्येष्ठ/ वीरनिर्वाण सं. २४५६ / वि.सं.१९८७ / पृष्ठ ४०५)। तत्त्वार्थसूत्रकार का 'उमास्वाति' नाम संभव नहीं श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में तत्त्वार्थसूत्रकार को जो 'उमास्वाति' नाम से अभिहित किया गया है, वह समीचीन नहीं है। श्वेताम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र और उस पर लिखा गया तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा रचित माने गये हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भाष्य की प्रशस्ति में अपना नाम उमास्वाति बतलाया है, इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा उमास्वाति को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता मानती है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण (शीर्षक 'ग'/१) में सिद्ध किया गया है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति है तथा द्वितीय प्रकरण में यह प्रमाणित किया गया है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखे जाने के बाद हुई थी। अतः तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता भाष्यकार से पूर्ववर्ती हैं। फलस्वरूप उनका नाम उमास्वाति नहीं हो सकता। यह नाम तो भाष्यकार (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता) का है। यतः श्वेताम्बरपरम्परा तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न मानने के कारण उमास्वाति को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता मानती है, अतः इसी से भ्रमित होकर ईसा की १२वीं शताब्दी से दिगम्बर-परम्परा में तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य का दूसरा नाम उमास्वाति माना जाने लगा, जैसा कि उपर्युक्त शिलालेखों से स्पष्ट है। ___आगे चलकर दिगम्बरपरम्परा में 'उमास्वाति' के स्थान में उमास्वामी नाम प्रचलित हो गया। उसका सर्वप्रथम प्रयोग श्रुतसागर सूरि (१६वीं शती ई०) की तत्त्वार्थवृत्ति (पृ.१) में हुआ है-"वन्दे नमस्करोमि। कः? कर्ताहमुमास्वामिनामाचार्यः।" इस पर प्रकाश डालते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' में 'उमास्वाति या उमास्वामी?' नामक लेख (पृ.१०८) में लिखते हैं-"विक्रम की १६ वीं शताब्दी से पहले का ऐसा कोई ग्रन्थ अथवा शिलालेख आदि अभी तक मेरे देखने में नहीं आया, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम उमास्वामी लिखा हो। हाँ, १६वीं शताब्दी के बने हुए श्रुतसागरसूरि के ग्रन्थों में इस नाम का प्रयोग जरूर पाया जाता है। श्रुतसागरसूरि ने अपनी श्रुतसागरी टीका में जगह-जगह पर यही (उमास्वामी) नाम दिया है और औदार्यचिन्तामणि नाम के व्याकरण-ग्रन्थ में श्रीमानुमाप्रभुरनन्तरपूज्यपादः इस वाक्य में आपने 'उमा' के साथ 'प्रभु' शब्द लगाकर For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ ओर भी साफ तौर से उमास्वामी नाम को सूचित किया है। जान पड़ता है कि 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागरसूरि का निर्देश किया हुआ है और उनके समय से ही यह हिन्दीभाषा आदि के ग्रन्थों में प्रचलित हुआ है। और अब इसका प्रचार इतना बढ़ गया है कि कुछ विद्वानों को उसके विषय में बिलकुल ही विपर्यास हो गया है और वे यहाँ तक लिखने का साहस करने लगे हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम दिगम्बरों के अनुसार 'उमास्वामी' और श्वेताम्बरों के अनुसार 'उमास्वाति' है। (पादटिप्पणी-देखो, तत्त्वार्थसूत्र के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना)।" श्रुतसागरसूरि को प्रमाण मानकर ही तत्त्वार्थसूत्र के मूलपाठ में निम्नलिखित श्लोक जोड़ा जाने लगा तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्रसञ्जातमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥ अनुवाद-तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छधारी, गणीन्द्रपद को प्राप्त मुनीश्वर उमास्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ। यह श्लोक कितना पुराना है और किस ग्रन्थ का है, इसके विशय में पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि उन्हें इसका कोई पता नहीं है। (देखिये, उनके पूर्वोद्धृत वचन/ अनेकान्त'/वर्ष १/किरण ६-७/पृ. ४०५)। पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री लिखते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्र की प्रतियो में यह बाद में जोड़ा गया है। (तत्त्वार्थसूत्र । प्रस्तावना/पृ. २२)। किन्तु इस श्लोक के रचनाकाल का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यह श्लोक सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के सूत्रपाठ में नहीं पाया जाता, न ही इनके कर्ताओं ने उमास्वामी को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता बतलाया है। इसके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल के ई० सन् १४३३ (शक सं० १३५५) तक के सात शिलालेखों में तथा कर्नाटक के नगर ताल्लुका के ई० सन् लगभग १५३० के शिलालेख में उमास्वामी को नहीं, अपितु उमास्वाति को तत्त्वार्थ-सूत्र का कर्ता कहा गया है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि उमास्वाति के स्थान में 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग ई० सन् १५३० के बाद प्रचलित हुआ, अतः उपर्युक्त श्लोक ई० सन् १५३० के बाद का है। दूसरी बात यह है कि उपर्युक्त श्लोक कर्नाटक के नगर ताल्लुका के १५३० ई० के शिलालेखगत श्लोक से पर्याप्त साम्य रखता है। यथा तत्त्वार्थसूत्र-कर्तारमुमास्वाति-मुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥ (नगर ताल्लुका-शिलालेख) For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३८१ तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपृच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्रसज्जातमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥ (तत्त्वार्थसूत्र में जोड़ा गया) इन श्लोकों में तत्त्वार्थसूत्रकर्तारम् तथा उमास्वातिमुनीश्वरम् (उमास्वामिमुनीश्वरम्) और वन्दे पदों का जो अत्यन्त साम्य है, उससे सिद्ध होता है कि नगर ताल्लुका के शिलालेखीय श्लोक में ही किञ्चित् परिवर्तन करके दूसरा श्लोक रचा गया है, अतः वह ई० सन् १५३० के बाद का है और रचयिता को 'उमास्वाति' के स्थान में 'उमास्वामी' शब्द के प्रयोग की प्रेरणा निश्चित ही श्री श्रुतसागरसूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति से प्राप्त हुई है, क्योंकि इस प्रयोग के लिए और कोई दूसरा साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पट्टावलियों में तथा अन्यत्र भी 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग 'तत्त्वार्थवृत्ति' के अनुकरण से ही प्रचलित हुआ है। 'उमास्वाति' का संशोधित रूप होने के कारण 'उमास्वामी' भी तत्त्वार्थसूत्रकार का वास्तविक नाम नहीं है। अतः सिद्ध है कि आचार्य गृद्धपिच्छ अथवा गृध्रपिच्छाचार्य ही उनका वास्तविक नाम है। पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि भाष्य की प्रशस्ति में उमास्वाति ने अपने को उच्चनागर शाखा से सम्बद्ध बतलाया है। इस शाखा का दिगम्बरसम्प्रदाय में होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता। (त.सू. / वि.स. / प्रस्ता. / पृ.१७)। __संघवी जी का कथन सही है। उमास्वाति तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता थे, तत्त्वार्थसूत्र के नहीं, यह पूर्वोद्धृत प्रमाणों से सिद्ध किया जा चुका है। अतः उच्चनागर-शाखा या नागरशाखा का दिगम्बरसाहित्य में उल्लेख न होना स्वाभाविक है। For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकरण 'तत्त्वार्थ' के सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध नहीं दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी तथा डॉ० सागरमल जी का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र के निम्नलिखित सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं १. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः। (४/३)। २. एकादश जिने। (९/११)। ३. मूर्छा परिग्रहः। (७/१७)। ४. पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः। (९/४६)। . ५. कालश्चेत्येके। (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-मान्य पाठ ५/३८)। पं० सुखलाल जी संघवी ने इन सूत्रों को श्वेताम्बरमत के अनुकूल बतलाया है, तो पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयमत के अनुकूल, अतः ये विद्वान्, तत्त्वार्थसूत्र को क्रमशः श्वेताम्बरग्रन्थ एवं यापनीयग्रन्थ मानते हैं। (त.सू./वि.स./ प्रस्ता./पृ. १७/ जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३९-५४०)। किन्तु यह कथन सत्य नहीं है कि उपर्युक्त सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं। दिगम्बरमत के सर्वथा अविरुद्ध हैं। 'मूर्छा परिग्रहः' और 'एकादश जिने' सूत्रों के दिगम्बरमत-सम्मत होने की सिद्धि प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में अपरिग्रह की परिभाषा वस्त्रपात्रदिग्रहण-विरोधी (शीर्षक १.५) तथा सूत्र में केवलिभुक्ति निषेध (शीर्षक १.७) नामक अनुच्छेदों में की जा चुकी है। यहाँ शेष तीन सूत्रों के दिगम्बरमतअविरुद्ध होने के प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। बारह स्वर्ग भी दिगम्बरमत में मान्य श्वेताम्बरपक्ष _श्वेताम्बर विद्वानों का एक तर्क यह है कि तत्त्वार्थसूत्र में कल्पवासी वैमानिक देवों के बारह भेद माने गये हैं, किन्तु कल्पों की संख्या सोलह बतलायी गयी है। यह अन्तर्विरोध संकेत करता है कि तत्त्वार्थसूत्र मूलतः श्वेताम्बराचार्य-रचित है, दिगम्बरों ने उसमें अपनी सोलह कल्पोंवाली मान्यता का प्रक्षेप कर उसका दिगम्बरीकरण करने For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०३ तत्त्वार्थसूत्र / ३८३ का प्रयत्न किया है। किन्तु डॉ० सागरमल जी मानते हैं कि वह प्रक्षेप दिगम्बरों ने नहीं किया है, अपितु तत्त्वार्थसूत्र की रचना श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान मातृपरम्परा (उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा) में हुई थी। उससे वह ग्रन्थ दोनों सम्प्रदायों को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ और बाद में यापनीयों ने उसमें अपनी सोलहस्वर्गवाली मान्यता का समावेश कर दिया। यापनीयपरम्परा का यह तत्त्वार्थसूत्र-पाठ दिगम्बरों के पास आया और उन्होंने उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। अपनी इस मान्यता को प्रकट करते हुए वे लिखते हैं-"मेरी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र की रचना उत्तरभारत की उस निर्ग्रन्थपरम्परा में हुई, जो उसकी रचना के पश्चात् एक-दो शताब्दियों में ही सचेल-अचेल ऐसे दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त हो गई, जो क्रमशः श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) के नाम से जानी जाने लगी। जहाँ तक दिगम्बरपरम्परा का प्रश्न है, उन्हें यह ग्रन्थ उत्तरभारत की अचेलपरम्परा, जिसे यापनीय कहा जाता है, उससे ही प्राप्त हुआ।" (जै.ध.या.स./पृ. २३९-२४०)। वे आगे लिखते हैं-"दिगम्बरपरम्परा-मान्य इस पाठ में, जहाँ चतुर्थ अध्याय का तीसरा सूत्र श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार वैमानिक देवों के बारह प्रकारों की ही चर्चा करता है, वहीं उन्नीसवाँ सूत्र दिगम्बरपरम्परा के अनुसार सोलह देवलोकों के नामों का उल्लेख करता है। इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा द्वारा मान्य सूत्रपाठ में ही एक अन्तर्विरोध परिलक्षित होता है। चतुर्थ अध्याय के इन तीसरे और उन्नीसवें सूत्रों का यह अन्तर्विरोध विचारणीय है। यह कहा जा सकता है कि एक स्थान पर तो अपनी परम्परा के अनुरूप पाठ को संशोधित कर लिया गया है और दूसरे स्थान पर असावधानीवश वह यथावत् रह गया है। किन्तु एक स्थान पर प्रयत्नपूर्वक संशोधन किया गया हो और दूसरे स्थान पर उसे असावधानीवश छोड दिया गया हो, यह बात बद्धिगम्य नहीं लगती है। सम्भावना यही है कि दिगम्बर आचार्यों को ये सूत्र या तो इसी रूप में प्राप्त हुए हों अथवा उस परम्परा के सूत्र हों, जो सोलह स्वर्ग मानकर भी वैमानिक देवों के बारह प्रकार मानती हो। हो सकता है, यह यापनीय मान्यता हो।" (जै.ध.या.सा./ पृ.३१२)। दिगम्बरपक्ष यहाँ डॉक्टर साहब के "हो सकता है, यह यापनीय मान्यता हो" ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं। अर्थात् वे निश्चितरूप से नहीं कह सकते कि वैमानिक देवों को बारह और कल्पों को सोलह मानना यापनीयों की मान्यता है। निश्चितरूप से न कह पाने का कारण यह है कि उनके पास इसे सिद्ध करनेवाला एक भी प्रमाण नहीं है। निष्कर्ष यह कि यह डॉक्टर साहब के मन की कल्पना मात्र है, प्रमाणसिद्ध तथ्य नहीं। वस्तुतः यापनीयपरम्परा का ऐसा एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० ३ है, जिसमें कल्पों की संख्या बारह या सोलह निर्दिष्ट की गई हो। षट्खण्डागम, भगवती - आराधना और मूलाचार में कल्पसंज्ञक स्वर्गों की संख्या सोलह बतलाई गई है और वरांगचरित में बारह । ये सभी ग्रन्थ दिगम्बराचार्यकृत हैं, यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है । 'वरांगचरित' का दिगम्बराचार्यकृत होना आगे सिद्ध किया जायेगा । अतः दिगम्बर - परम्परा में कल्पसंज्ञक स्वर्गों की संख्या बारह भी मानी गयी है और सोलह भी । दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी कहा गया है कि कोई आचार्य कल्पों की संख्या १२ बतलाते हैं और कोई सोलह । (ति.प./८/११५) । अतः कल्पवासी देवों के बारह भेद तथा कल्पों की संख्या सोलह मानना दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है, विरुद्ध नहीं । इससे यह सिद्ध होता है किं तत्त्वार्थसूत्र के मौलिक पाठ में उपर्युक्त दोनों ही सूत्र थे। श्वेताम्बराचार्यों ने जब उसे अपनाया, तब अपने आगमानुसार उसमें सोलह कल्पों के स्थान में बारह कल्प कर दिये । यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि यदि ऐसा था, तो तीर्थंकर प्रकृतिबन्धक सोलह कारणों के स्थान में श्वेताम्बर - परम्परानुसार बीस कारण क्यों नहीं किये? इसका उत्तर यह है कि श्वेताम्बराचार्यों को कारणों की संख्या सोलह मान लेने में भी कोई सैद्धान्तिक हानि दिखाई नहीं दी होगी, इसलिए उन्होंने उस सूत्र में कोई परिवर्तन नहीं किया । निष्कर्ष यह कि तत्त्वार्थसूत्र में कल्पवासी देवों के बारह भेदों का उल्लेख दिगम्बरमान्यता के विरुद्ध नहीं हैं अतः उसे तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का हेतु मानना असत्य है । और डॉक्टर साहब ने जो यह कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना उस सचेलाचेलपरम्परा में हुई थी जिससे श्वेताम्बर और यापनीयसंघ उत्पन्न हुए थे और उसी समान मातृ-परम्परा से उन्हें वह उत्तराधिकार में मिला था, वह सर्वथा कपोलकल्पित है। श्वेताम्बरों और यापनीयों की कोई समान मातृपरम्परा थी ही नहीं, श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) से हुई थी और यापनीयसंघ की श्वेताम्बरसंघ से, यह तथ्य पूर्व (अध्याय २ / प्र.३ एवं ४ ) में सप्रमाण स्थापित किया जा चुका है। अतः जो परम्परा थी ही नहीं, उसमें तत्त्वार्थसूत्र की रचना असंभव है, इसलिए उस परम्परा से उसका श्वेताम्बरों और यापनीयों को प्राप्त होना भी असंभव है। इसलिए डॉक्टर साहब का यह कथन भी मनगढ़ंत है कि दिगम्बरों को तत्त्वार्थसूत्र की प्राप्ति यापनीयों के माध्यम से हुई थी । पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बरमत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः उसकी रचना दिगम्बरपरम्परा में ही हुई थी। फलस्वरूप दिगम्बरों को किसी अन्य परम्परा से उसके प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०३ तत्त्वार्थसूत्र / ३८५ 'कालश्चेत्येके' सूत्र मौलिक नहीं श्वेताम्बरपक्ष __ श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में जो 'कालश्चेत्येके' (५/३८) सूत्र है, वह दिगम्बरमत के विरुद्ध है, क्योंकि दिगम्बरमत में कालद्रव्य का अस्तित्व निर्विवाद माना गया है, जब कि उपर्युक्त सूत्र में यह बतलाया है कि कुछ आचार्य काल को द्रव्य मानते हैं और कुछ नहीं। काल के द्रव्यत्व के विषय में ये दो मान्यताएँ श्वेताम्बर-मत से सम्बन्ध रखती हैं, अतः सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। (पं० सुखलाल जी संघवी/त.सू./वि.स./प्रस्ता./ पृ. १७)। दिगम्बरपक्ष 'कालश्चेत्येके' सूत्र मौलिक नहीं है। यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता श्वेताम्बर-आगमों में काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना गया है, अपितु जीव की पर्यायों को 'काल' संज्ञा दी गयी है।५३ और यही श्वेताम्बरों की आगमसम्मत मान्यता है, क्योंकि काल को द्रव्य माननेवाले आचार्य कुछ ही हैं, ऐसा सूत्रकार ने स्वयं कहा है-'कालश्चेत्येके।' किन्तु आश्चर्य यह है कि सूत्रकार ने उपर्युक्त आगमप्रमाणित मत का तो ग्रन्थ में कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, जब कि कुछेक आचार्यों द्वारा मान्य मत का उल्लेख किया है, जिससे जिज्ञासुओं को तत्त्वार्थसूत्र के अध्ययन से यह ज्ञान नहीं हो पाता कि काल के विषय में श्वेताम्बर-आगमों की मान्यता क्या है? दूसरी बात यह है कि कुछ श्वेताम्बराचार्यों ने काल को जो छठा द्रव्य माना है, वह नाममात्र का छठा द्रव्य है। उसकी जीव, पुद्गल आदि के समान स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। श्री सिद्धसेनगणी ने उसका अस्तित्व भेदनय से सिद्ध किया है अर्थात् जीव और अजीव तथा उनकी पर्यायों में जो नाम-लक्षण आदि की दृष्टि से भेद है, उसकी अपेक्षा जीव-अजीव की पर्यायों को जीव-अजीव से भिन्न मानकर उन पर्यायों को ही छठा काल द्रव्य-मान लिया गया है, किन्तु द्रव्यनय ( अभेदनय) की अपेक्षा, १५३. "किमिदं भंते! कालोत्ति पवुच्चति? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव।" इदं हि सूत्रमस्ति कायपञ्चकाव्यतिरिक्तकालप्रतिपादनाय तीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः काल इति सूत्रार्थ:--- । स च वर्तनादिरूपो द्रव्यस्यैव पर्यायः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/पृ. ४३२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०३ उनकी जीव-अजीव से भिन्न सत्ता स्वीकार नहीं की है।५४ इस प्रकार कालद्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता उन कुछ आचार्यों के मत से भी सिद्ध नहीं होती, जिन्होंने काल को छठा द्रव्य घोषित किया है। निष्कर्ष यह कि श्वेताम्बर आम्नाय में काल द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता मानी ही नहीं गई है। श्वेताम्बर विद्वान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने निश्चयकाल या मुख्यकाल का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है।५५ इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बरमत के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के समान काल द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। और जिस द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है, उसमें 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (त.सू. / श्वे./५ /३७) यह लक्षण घटित नहीं हो सकता। उसके वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व, ये कार्य भी उपपन्न नहीं हो सकते और उसमें अनन्तसमयरूप पर्यायें भी उत्पन्न नहीं हो सकतीं। अतः 'कालश्चेत्येके' सूत्र के साथ 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य (त.सू. / श्वे./५/ २२) तथा 'सोऽनन्तसमयः' (त.सू. / श्वे./ ५/३९) आदि समस्त कालविषयक सूत्र असंगत हो जाते हैं। इनकी संगति केवल दिगम्बरमान्य 'कालश्च' (त.सू./दि./५/३९) सूत्र के साथ बैठती है, क्योंकि दिगम्बरपरम्परा में काल को जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के समान ही स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में 'कालश्च' पाठ ही मौलिक है। श्वेताम्बराचार्यों ने उसमें 'इत्येके' जोड़कर अपने मत के अनुकूल बनाने की चेष्टा की है, किन्तु उन्होंने यह विचार नहीं किया कि ऐसा करने से उपर्युक्त सूत्र असंगत हो जायेंगे। __ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री भी अपनी गवेषणा से इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। वे लिखते हैं-"श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में जहाँ भी छह द्रव्यों का नामनिर्देश किया है, वहाँ कालद्रव्य के लिए अद्धासमय शब्द प्रयुक्त हुआ है, काल शब्द नहीं और अद्धासमय का अर्थ वहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इसी परिपाटी का निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के जिन १५४. “स च विशेषो भेदप्रधानो नयः, तद्बलेन कालोऽपीति, अपिशब्दश्च शब्दार्थः, कालश्च द्रव्यान्तरमागमे निरूपितमिति कथयन्ति-"कति णं भंते! दव्वा पण्णत्ता? गोयमा! छ दव्वा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए।" विनिवृत्तौ वा तु शब्दः। कस्य व्यावतर्कः? धर्मास्तिकायादिपञ्चकाव्यतिरिक्त कालपरिणतिवादिनो द्रव्यनयस्येति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/ पृ. ४३०।। १५५. "सूत्रकाराभिप्रायेण निश्चयकालस्यास्वीकारात् तत्स्वरूपाः कालाणवोऽपि न भवेयुः।--- किञ्च यदि कालो मुख्यद्रव्यं स्यात् तर्हि 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यत्राजीवरूपेण तस्याप्युल्लेखः करणीयो भवेत्।" हीरालाल : संस्कृत प्रस्तावना / पृ. २५ / तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / भा.१। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ३ तत्त्वार्थसूत्र / ३८७ सूत्रों में 'काल' शब्द आया है, वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्द का ही उपयोग किया है, किन्तु जिन सूत्रों में 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ काल का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा है, तो 'काल' शब्द का प्रयोग न कर अद्धासमय ( ५ / १ / पृ. २४५) शब्द का ही प्रयोग किया है । तत्त्वार्थभाष्य और उसके द्वारा मान्य सूत्रपाठ की ये दो स्थितियाँ हैं, जो हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में सहायता करती हैं कि प्रारंभ में तो 'कालश्च' सूत्र का ही निर्माण हुआ होगा, किन्तु बाद में वह बदलकर 'कालश्चेत्येके' यह रूप ले लेता है ।" (स.सि./ प्रता/ पृ. ३५)। इस प्रकार निश्चित होता है कि 'कालश्चेत्येके' पाठ मौलिक नहीं है, 'कालश्च' पाठ ही मौलिक है। अत: 'कालश्चेत्येके' सूत्र के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, अपितु 'कालश्च' सूत्र की युक्तिमत्ता सिद्ध हो जाने से दिगम्बरपरम्परा का ही सिद्ध होता है। ३ पुलाकादि मुनि दिगम्बरमत विरुद्ध नहीं श्वेताम्बरपक्ष तत्त्वार्थसूत्र में निर्ग्रन्थों के जो पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक भेद बतलाये गये हैं वे दिगम्बरमत से मेल नहीं खाते। (प्रेमी : जै. सा. इ./ द्वि.सं./पृ. ५४०, जै.ध.या.स./पृ. ३१४)। दिगम्बरपक्ष इसका उत्तर देते हुए माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"यह ठीक है कि मूलाचार और भगवती - आराधना में पुलाकादि का कथन नहीं है और न कुन्दकुन्द ने ही उनका कथन किया है । किन्तु इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि निर्ग्रन्थों के ये भेद दिगम्बर- परम्परा को मान्य नहीं । हाँ, उनमें से आदि के पुलाक मुनि अपने मूलगुणों में परिपूर्ण नहीं होते। प्रारंभ में ऐसा होना संभव है। इसी प्रकार बकुश मुनि को अपने शरीरादि का मोह भी रह सकता है । उसका निर्ग्रन्थ दिगम्बरमुनियों की चर्या के साथ विरोध नहीं है। हाँ, श्रुतसागर जी ने जो 'संयमश्रुत' आदि सूत्र की व्याख्या (तत्त्वार्थवृत्ति / ९ / ४७ / पृ. ३१६) में यह लिखा है कि असमर्थ मुनि शीतकालादि में वस्त्रादि भी ग्रहण करते हैं और इसे कुशील मुनि की अपेक्षा भगवती - आराधना के अभिप्राय के अनुसार बतलाया है, वह ठीक नहीं है । भगवतीआराधना में इस तरह का कोई विधान नहीं है। हाँ, टीकाकार अपराजित सूरी ने लिखा है कि विशेष अवस्था में अशक्त साधु वस्त्र आदि ग्रहण कर सकते थे। उसी For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०३ को श्रुतसागर जी ने भगवती-आराधना के नाम से लिख दिया है। श्रुतसागर जी के समय में दिगम्बर-परम्परा के भट्टारक वस्त्र धारण करने लगे थे। यद्यपि वे साधु नहीं माने जाते थे, तथापि इनकी प्रतिष्ठा वैसी ही थी। मुसलमानों के उपद्रवों के कारण भी साधुओं के नग्नविहार में कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित होने लगी थीं। ऐसा उन्होंने अपनी षट्प्राभृत की टीका में स्पष्ट लिखा है। श्रुतसागर जी के उक्त कथन के मूल में इन सब बातों का भी प्रभाव प्रतीत होता है। अतः उसे आर्षमत नहीं माना जा सकता। और इसीलिए पुलाकादि मुनियों की चर्चा को दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ./ भा.२/पृ.२६७-२६८)। पण्डित जी का यह कथन युक्तिसंगत है, जिससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र का 'पुलाकबकुश' आदि सूत्र (९/४६) दिगम्बरमत-सम्मत ही है। यहाँ इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि अपराजितसूरि ने भगवती-आराधना की टीका में जो यह लिखा है कि विशेष अवस्था में अशक्त साधु वस्त्र आदि ग्रहण कर सकते हैं, वह उन्होंने श्वेताम्बरमत का उल्लेख किया है। यह 'भगवती-आराधना' और 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक त्रयोदश एवं चतुर्दश अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है। दिगम्बरग्रन्थों में भी केवली का दर्शनज्ञानयोगपद्य श्वेताम्बरपक्ष श्वेताम्बर विद्वान् यह तर्क भी देते है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१/३१ / पृ.५६) में केवली भगवान् के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग का युगपत् होना माना गया है, जो दिगम्बर ग्रन्थों में दिखाई नहीं देता। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं है। (पं० सुखलाल जी संघवी/त.सू./वि.स./प्रस्ता./पृ. १७)। दिगम्बरपक्ष सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, इसलिए भाष्यकार की मान्यता को सूत्रकार की मान्यता नहीं माना जा सकता। जहाँ तक केवली के दर्शनज्ञानयोगपद्य का प्रश्न है, सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट कहा गया है कि छद्मस्थों में दर्शन और ज्ञान क्रम से प्रवृत्त होते हैं और केवली में युगपत् "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति। तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते, निरावरणेषु युगपत्।" (२/९) कुन्दकुन्दाचार्य ने भी नियमसार में कहा है Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ३ जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासा जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥ १६०॥ अनुवाद - " जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ प्रकट होते हैं, वैसे ही केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञान एक साथ प्रवृत्त होते हैं । " तत्त्वार्थसूत्र / ३८९ इस प्रकार दिगम्बरग्रन्थों में केवली के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के युगपत् होने की बात स्पष्ट शब्दों में स्वीकार की गयी है । अतः तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ ही है। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि माननीय पं० नाथूराम जी प्रेमी, पं० सुखलाल जी संघवी एवं डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थ के जितने भी सूत्र या सिद्धान्त दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध बतलाये हैं, वे दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध नहीं है, अपितु तत्सम्मत ही हैं। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार दिगम्बरग्रन्थ श्वेताम्बर-आगम तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार नहीं श्वेताम्बरपक्ष श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना के स्रोत श्वेताम्बर-आगम हैं, दिगम्बर-आगम नहीं। श्वेताम्बर मुनि उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने सन् १९३४ ई० में प्रकाशित अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय में उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर हुई है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल संघवी लिखते हैं-"उस प्राचीन समय में जैनपरम्परा में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसे शब्द नहीं थे, फिर भी आचारभेद के सूचक 'नग्न', 'अचेल' (उत्त. /२३/१३,२९), 'जिनकल्पिक, 'पाणिप्रतिग्रह' (कल्पसूत्र/९/२८), 'पाणिपात्र' आदि शब्द उत्कट-त्यागवाले दल के लिए तथा 'सचेल', 'प्रतिग्रहधारी' (कल्पसूत्र ९/३१), 'स्थविरकल्प' (कल्पसूत्र/९/६३) आदि शब्द मध्यम-त्यागवाले दल के लिए मिलते हैं।" (त.सू./वि.स. / प्रस्ता. / पृ. १९)। "---अचेलत्व-समर्थक दल का कहना था कि मूल अंगश्रुत सर्वथा लुप्त हो गया है, जो श्रुत सचेलदल के पास है और जो हमारे पास है, वह सब मूल अर्थात् गणधरकृत न होकर बाद के अपने-अपने आचार्यों द्वारा रचित व संकलित है। सचेलदलवाले कहते थे कि निःसन्देह बाद के आचार्यों द्वारा अनेकविध नया श्रुत निर्मित हुआ है और उन्होंने नई संकलना भी की है, फिर भी मूल अंगश्रुत के भावों में कोई परिवर्तन या काँट-छाँट नहीं की गयी है।" (वही/प्रस्ता./पृ. २१)। "---वाचक उमास्वाति स्थविर या सचेल-परम्परा के आचारवाले अवश्य रहे, अन्यथा उनके भाष्य एवं 'प्रशमरति' ग्रन्थ में सचेलधर्मानुसारी प्रतिपादन कदापि न होता, क्योंकि अचेलदल के किसी भी प्रवर मुनि की सचेल-प्ररूपणा बिलकुल सम्भव नहीं। अचेलदल के प्रधान मुनि कुन्दकुन्द ने भी एकमात्र अचेलत्व का ही निर्देश किया है (प्रवचनसार/अधिकार ३), अतः कुन्दकुन्द के अन्वय में होनेवाले किसी अचेल मुनि द्वारा सचेलत्व-प्रतिपादन संगत नहीं। 'प्रशमरति' की उमास्वाति-कर्तृकता भी विश्वसनीय है। स्थविरदल की प्राचीन और विश्वस्त वंशावली में उमास्वाति की उच्चनागर Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९१ शाखा तथा 'वाचक' पद का पाया जाना भी उनके स्थविरपक्षीय होने का सूचक है। उमास्वाति विक्रम की तीसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी तक किसी भी समय में हुए हों, पर उन्होंने 'तत्त्वार्थ' की रचना के आधाररूप में जिस अङ्ग-अनङ्ग श्रुत का अवलम्बन किया था, वह स्थविरपक्ष को मान्य था। अचेल-दल उसके विषय में या तो उदासीन था या उसका त्याग कर बैठा था।" (वही / प्रस्ता./पृ. २३)। इस प्रकार पं० सुखलाल जी संघवी भी मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना स्थविरपक्ष (सचेलदल) को मान्य अङ्ग-अनङ्ग श्रुत अर्थात् श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर हुई है। डॉ० सागरमल जी का भी यही मत है। उन्होंने लिखा है-"--- श्वेताम्बरपरम्परा के विद्वान्, जो अङ्ग और अङ्गबाह्य आगमों की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं, तत्त्वार्थसूत्र का आधार अङ्ग और अङ्ग बाह्य आगमसाहित्य को मानते हैं। स्थानकवासी आचार्य आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय नामक ग्रन्थ में तत्वार्थसूत्र की रचना का आधार श्वेताम्बरमान्य आगम-साहित्य को बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र की रचना का आगमिक आधार क्या है, इसे आगमों के उद्धरण देकर परिपुष्ट किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ. २४५)। दिगम्बरपक्ष मान्य श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का उपर्युक्त दावा समीचीन नहीं हैं। उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर रचित सिद्ध करने के लिए 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय' में जो उदाहरण दिये हैं, उनमें कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जो केवल नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में मिलते हैं। किन्तु इन दोनों ग्रन्थों की रचना पाँचवी शताब्दी ई० (वि० सं० ५२३) में हुई है,१५६ जिससे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र के बाद रचे गये हैं। डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि अनुयोगद्वारसूत्र निश्चित ही तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य से किञ्चित् परवर्ती हैं।१५७ अतः ये दोनों ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार नहीं हो सकते। इनमें तत्त्वार्थसूत्र से साम्य रखनेवाले जो विषय हैं, वे तत्त्वार्थसूत्र से ही उनमें पहुँचे हैं। इसलिए इन दोनों ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र के जो बीज बतलाये गये हैं, वे वस्तुतः श्वेताम्बरआगमों में अनुपलब्ध हैं। उनके बीज दिगम्बर-आगमों में ही हैं। तत्त्वार्थ के जिन सूत्रों को तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय में उपर्युक्त ग्रन्थों पर आधारित बतलाया गया १५६. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैनागम साहित्य मनन और मीमांसा / पृ. ३२८ तथा डॉ. जगदीश चन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास / पृ. १७१ । १५७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. ३२२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ है, वे इस प्रकार हैं १. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः । त. सू. / १ / ५ ( अनुयोगद्वार / सूत्र ८ पर आधारित) । २. निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः । त. सू/ १ / ७ (अनुयोगद्वार / सूत्र १५१ पर आधारित) । ३. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । त.सू./१/१३ ( नन्दिसूत्र / मतिज्ञान-गाथा ८० पर आधारित) । अ० १६ / प्र० ४ ४. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । त. सू. / १ / १४ ( नन्दिसूत्र / सूत्र ३ एवं अनुयोगद्वार, सूत्र १४४ पर आधारित) । ५. अवग्रहेहावायधारणाः । त. सू. / १ / १५ ( नन्दिसूत्र / सूत्र २७ पर आधारित ) । ६. अर्थस्य । त.सू./१/१७ ( नन्दिसूत्र / सूत्र ३० पर आधारित ) । ७. विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । त. सू. /१ / २४ ( नन्दिसूत्र / सूत्र १८ पर आधारित) । ८. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः । त. सू. /१ / २५ ( नन्दिसूत्र / मन:पर्ययज्ञानाधिकार पर आधारित) । ९. मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । त.सू./१ / २६ ( नन्दिसूत्र / सूत्र ३७ एवं ५८ पर आधारित ) । १०. रूपिष्ववधेः। त.सू./ १ /२७ ( नन्दिसूत्र / सूत्र १६ पर आधारित ) । ११. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । त.सू./१/२९ ( नन्दिसूत्र / सूत्र २२ पर आधारित) । १२. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः । त. सू. / १ / ३३ । यह निम्नलिखित सूत्र पर आधारित बतलाया गया है - "सत्तमूलणया पण्णत्ता, तं जहा - गमे संगहे ववहारे उज्जुसूए सद्दे समभिरूढे एवंभूए" (अनुयोगद्वार / सूत्र १३६ तथा स्थानांग ७ / ५५२ ) । किन्तु यह सूत्र इन दोनों श्वेताम्बरग्रन्थों में 'तत्त्वार्थ' के दिगम्बरमान्य पाठ से लिया गया है, क्योंकि श्वेताम्बरमान्य पाठ में पाँच ही मूल नय बतलाये गये हैं- " नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नया: १ / ३४ । ܙܙ १३. द्वितीय अध्याय के सूत्र क्रमांक ३, ४, ५, ६, और ७ 'अनुयोगद्वार' के षड्भावाधिकार पर आधारित बतलाये गये हैं । For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९३ १४. श्रुतमनिन्द्रियस्य । त. सू. / २ / २१ ( नन्दिसूत्र / सूत्र २४ पर आधारित ) । १५. संज्ञिनः समनस्काः । त. सू. / २ / २४ ( नन्दिसूत्र / सूत्र ४० पर आधारित) । १६. द्रव्याणि। त.सू./५/२ (अनुयोगद्वार, सूत्र १४१ पर आधारित ) । १७. भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषः । त. सू. / ५ / २८ (अनुयोगद्वार / दर्शनगुणप्रमाण/सू. १४४ पर आधारित) । १८. कालश्च। त.सू./ ५ / ३९ ( अनुयोगद्वार / द्रव्यगुणपर्यायनाम / सूत्र १२४ पर आधारित) । इन सूत्रों की आधारभूत सामग्री नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में ही है, अन्य किसी श्वेताम्बर-आगम में नहीं है । श्वेताम्बर मुनि श्री सागरानन्दसूरीश्वर जी महाराज ने तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय याने तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता श्वेताम्बर या दिगम्बर ? नामक ग्रन्थ लिखा है, जो विक्रम संवत् १९९३ (१९३६ ई०) में श्री ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ था । इसमें मुनिश्री ने विस्तार से यह बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में कौन सी विषयसामग्री किस आगम से ग्रहण की है। वे लिखते हैं 66 'श्रीमान् ( उमास्वाति जी) के द्वारा इस शास्त्र में कही हुई बातें सूत्रों में स्पष्ट उपलब्ध थीं और अभी भी उपलब्ध हैं। देखिए, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग के लिए नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्खं अणाबाहो ॥ (उत्तराध्ययनसूत्र / २८ / ३०)। " इसी तरह से पण्णवणा जी और उत्तराध्ययन में निसर्गाधिगम सम्यक्त्व का ब्यान (वर्णन) पद १ और उत्तराध्ययन की गाथाओं में है । सत्संख्याक्षेत्रादि के लिए संतपयपरूवणा अनुयोगद्वारों में, ज्ञान का सारा अधिकार नन्दीसूत्र में, नय का अधिकार अनुयोगद्वार में, भावों का अधिकार अनुयोगद्वारों में, जीवों के भेद जीवाभिगम और पण्णवणा में, शरीर का अधिकार प्रज्ञापना में और अनुयोगद्वार में, नरक का अधिकार जीवाभिगम, भगवती जी आदि में, भरतादि क्षेत्रों के लिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शेष समस्त द्वीप- समुद्रों के लिए भगवती जी और अनुयोगद्वार और जीवाभिगम, देवताओं का अधिकार स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना, जीवाभिगमादि, काल और सूर्यचन्द्रादि-भ्रमण के लिए स्थानांग, भगवती, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि, देवताओं की स्थिति के लिए प्रज्ञापना का स्थितपद आदि, धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के लिए अनुयोगद्वार, For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०४ स्थानांग, भगवती आदि, पुद्गलों के स्कन्ध वर्ण, शब्द के लिए उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, भगवती, स्थानांगादि, उत्पादादि स्याद्वाद के लिए नयापेक्षयुक्त अनुयोगद्वार, भगवती आदि, द्रव्यादि के लक्षणों के लिए उत्तराध्ययनादि, आश्रव के लिए स्थानांग, भगवती आदि, ज्ञानावरणादि हेतुओं के लिए श्रीभगवतीजी, पंचसंग्रहादि प्रकरण, देशसर्वविरति और भावना के लिए सूगडांग (सूत्रकृतांग), आचारांग, उपासकदशादि, अतिचारों के लिए उपासकदशांग, श्राद्धप्रतिक्रमणादि, कर्म के भेदों के लिए स्थानांग, प्रज्ञापना, भगवती, कर्मप्रकृत्यादि, कर्मों की स्थिति के लिए स्थानांग, समवायांग, प्रज्ञापनादि, संवर के लिए उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारांगादि, परीषह के लिए उत्तराध्ययन, भगवत्यादि, तपस्या के लिए उत्तराध्ययन, औपपातिक, स्थानांग, भगवत्यादि, ध्यान के लिए आवश्यकनियुक्ति, औपपातिक, स्थानांगादि, निर्ग्रन्थों के स्वरूप के लिए भगवती, उत्तराध्ययन, स्थानांगादि, मोक्ष के लिए औपपातिक, प्रज्ञापनादि, इन सबका मतलब यह है कि श्रीमान् उमास्वाति वाचक जी ने तत्त्वार्थसूत्र में जो हकीकत कही है, वे सूत्रों में अनुपलब्ध नहीं है।" (तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय / पृ. १५७-१५९)। मुनि जी की भाषा बहुत पुरानी है, इसलिए वाक्य रचना सही नहीं हो पायी है, फिर भी आशय समझ में आ जाता है। उनके इस विवरण से स्पष्ट है कि नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार में जो विषय निरूपित है, वह अन्य किसी श्वेताम्बर-आगम में उपलब्ध नहीं है। और चूँकि इन दो ग्रन्थों की रचना तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद हुई थी, इसलिए ये भी तत्त्वार्थसूत्र की रचना का आधार नहीं हो सकते। अत: सिद्ध है कि उपर्युक्त सूत्रों की रचना दिगम्बर-ग्रन्थों के आधार पर हुई है। सूत्रों की दिगम्बरग्रन्थों से शब्द-अर्थ-रचनागत समानता तत्त्वार्थसूत्र में अनेक सूत्र ऐसे हैं, जिनकी दिगम्बरग्रन्थों में उपलब्ध सूत्रादि से शाब्दिक, आर्थिक और रचनात्मक (अल्पशब्दप्रयोग की) समानता है, श्वेताम्बरग्रन्थों में उपलब्ध सूत्रादि से उनकी विषमता है। निम्नलिखित उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। यहाँ श्वेताम्बर-आगमों से जो उदाहरण दिये गये हैं, वे सभी तत्त्वार्थसूत्रजैनागम-समन्वय से उद्धृत हैं तत्त्वार्थसूत्र – सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। १/१ । पंचास्तिकाय - दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो। १६४ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९५ उत्तरा.सूत्र - ना दंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥२८/३०॥ यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र की पंचास्तिकाय के गाथासूत्र के साथ शाब्दिक और रचनात्मक (अल्पशब्दप्रयोग की) दृष्टि से अत्यधिक समानता है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र की गाथा के साथ इन दोनों दृष्टियों से बहुत भिन्नता है। तत्त्वार्थसूत्र - तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। १।२। समयसार - जीवादीसदहणं सम्मत्तं। १५५ । उत्तरा. सूत्र – तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ २८/१५॥ यहाँ भी उपर्युक्त सत्य ही दृष्टिगोचर होता है। तत्त्वार्थसूत्र - जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्। १/४। भावपाहुड - सव्वविरओ वि भावहि णवयपयत्थाई सत्ततच्चाई। . जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाई॥ ९५॥ स्थानांग - नवसब्भावपयत्था पण्णत्ते, तं जहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो निज्जरा बंधो मोक्खो। ९/६६५।। यहाँ द्रष्टव्य है कि कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में नौ पदार्थ और सात तत्त्व दोनों का कथन किया है, जब कि श्वेताम्बरागम स्थानांग में केवल नौ पदार्थों का कथन है। किसी भी श्वेताम्बरागम में सात तत्त्वों की अवधारणा नहीं है। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपर्युक्त सूत्र की रचना भावपाहुड के आधार पर की है। ४ तत्त्वार्थसूत्र - नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः। (१/५)। बोधपाहुड - णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया। २८। अनुयो.द्वा.सूत्र - आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दव्वावस्सयं भावावस्सयं। १७ । ___ यतः अनुयोगद्वारसूत्र पाँचवीं शती ई० की रचना है, अतः स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ का उपर्युक्त सूत्र कुन्दकुन्दकृत बोधपाहुड के आधार पर रचा गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ तत्त्वार्थ सूत्र नियमसार स्थानांग तत्त्वार्थसूत्र षट्खंडाग तत्त्वार्थसूत्र पंचास्तिकाय - स्थानांग — - मति शब्द के साम्य से सिद्ध है कि तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र की रचना नियमसार के आधार पर हुई है। इसी कारण 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च' (त.सू.१ / ३१) सूत्र भी नियमसार की उपर्युक्त गाथा (१२) के 'अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव' इस उत्तरार्ध से प्रेरित है । ६ मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । १ / १३ । सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । पु.१३ / ५,५,४१/पृ. २४४ । एवमाभिणिबोहिय --- । ष.खं. / पु.१३ / ५,५,४२/पृ.२४४। नन्दीसूत्र सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिबोहियं । ८० । यहाँ चिन्ता शब्द की समानता षट्खण्डागम के सूत्र के साथ है। नन्दीसूत्र में उसकी जगह पर पन्ना ( प्रज्ञा ) शब्द का प्रयोग हुआ है । इस अपेक्षा से तत्त्वार्थसूत्र की नन्दीसूत्र से भिन्नता है । - — — अ० १६ / प्र० ४ ५ मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । १ / ९ । सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । - १२ । पंचविहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा - आभिनिबोहियणाणे सुयणाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे । ५ / ३ / ४६३ । ७ औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । २/१। उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थे विच्छिण्णा ॥ ५६ ॥ छव्विधे भावे पण्णत्ते, तं जहा - ओदइये उपसमिए, खइए खयोवसमिए पारिणामिए सन्निवाइए (सन्निपातिकः ) । ६/५३७ । यहाँ भावों की संख्यात्मक समानता (पाँच) सिद्ध करती है कि तत्त्वार्थ का उपर्युक्त सूत्र पञ्चास्तिकाय को देखकर बनाया गया है। For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९७ तत्त्वार्थसूत्र - उपयोगो लक्षणम्। २।८। पंचास्तिकाय – जीवा---उवओगलक्खणा। १०९। भगवतीसूत्र - उवओगलक्खणेणं जीवे। २।१०। तत्त्वार्थ के इस सूत्र का जैसा साम्य भगवतीसूत्र के साथ है, वैसा ही पञ्चास्तिकाय के साथ है, तथापि पूर्वोक्त सूत्रों का साम्य श्वेताम्बरग्रन्थों के साथ न होकर दिगम्बरग्रन्थों के साथ है, अतः यह सूत्र भी पञ्चास्तिकाय से ही अनुकृत किया गया है, यह स्वतः सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र - संसारिणो मुक्ताश्च। २।१०। पंचास्तिकाय - जीवा संसारत्था णिव्वादा---। १०९। स्थानांग - दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव असिद्धा चेव। २/१/१०१। यहाँ संसारी शब्द की समानता सिद्ध करती है कि तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र की संरचना पञ्चास्तिकाय के आधार पर हुई है। तत्त्वार्थसूत्र - स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः। २/२० । प्रवचनसार - फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला होति। अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेहंति॥ १/५६॥ स्थानांग - पंच इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियत्थे जाव फासिंदि यत्थे। ५/३/४४३। तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र का शब्दसाम्य और शब्दक्रमसाम्य प्रवचनसार की गाथा से ही है, श्वेताम्बर-स्थानांग के सूत्र से नहीं। अतः उसकी रचना प्रवचनसार की गाथा के ही आधार पर हुई है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र - भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्। १/२१ । षट्खंडागम - जं तं भवपच्चइयं तं देवणेरइयाणं। पु.१३ /५-५-५४/पृ.२९२ । For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०४ स्थानांग - दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्ते, तं जहा-देवाणं चेव नेरइयाणं चेव। २/१/७१। त.सू.(श्वे.) - भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्। १ /२२। यहाँ दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थ के सूत्र का देवनारकाणाम् यह शब्दक्रम षट्खण्डागम के अनुसार है। स्थानांगसूत्र का भी उसी प्रकार है, जबकि भाष्यमान्य सूत्र का शब्दक्रम इन तीनों से विपरीत है। इससे सिद्ध है कि दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ ही परम्परागत है। १२ तत्त्वार्थसूत्र - मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। १/३१ । पंचास्तिकाय – कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णिवि णाणेहिं संजुत्ते। ४१ । प्रज्ञापना - अण्णाणपरिणामेणं भंते कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-मइअण्णापरिणामे, सुयअण्णाणपरिणामे, विभंगणाणपरिणामे। पद १३/३/३/२८७।। यहाँ तत्त्वार्थ का सूत्र सूत्रात्मक दृष्टि से पंचास्तिकाय के अत्यन्त निकट है। तत्त्वार्थसूत्र - देवाश्चतुर्णिकायाः। ४।१। पंचास्तिकाय - देवा चउण्णिकाया। ११८ । व्याख्याप्रज्ञ. - चउव्विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवइ, वाणमंतर, जोइस, वेमाणिया। २/७। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे तत्त्वार्थसूत्रकार ने पंचास्तिकाय के शब्दों को संस्कृत में रूपान्तरित करके तत्त्वार्थसूत्र में रख दिया हो। १४ तत्त्वार्थसूत्र - असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्। ५।८। नियमसार – धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु। ३५ । स्थानांग - चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला असंखेज्जा पण्णत्ता, तं जहा धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे, एगजीवे। ४/३/३३४। For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९९ यहाँ ऐसा लगता है जैसे नियमसार की गाथा में ही किंचित् शब्दिक परिवर्तन कर तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र की रचना कर दी गयी हो। ऐसी समानता स्थानांग के सूत्र के साथ तनिक भी दृष्टिगोचर नहीं होती। तत्त्वार्थसूत्र - संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम्। ५/१०। नियमसार - संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्स। ३५। प्रज्ञापना - अणंता संखिज्जपएसिया खंधा, अणंता असंखिज्जपएसिया खंधा, अणंता अणंतपएसिया खंधा। पद ५। यहाँ भी तत्त्वार्थ के सूत्र का शाब्दिक और सूत्रात्मक साम्य नियमसार के गाथांश से ही है, प्रज्ञापना के वाक्य से नहीं। १६ तत्त्वार्थसूत्र - आकाशस्यावगाहः। ५/१८ । प्रवचनसार - आगासस्सावगाहो। २/४१ । व्याख्याप्रज्ञ. - अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए। १३ /४/४८१ । यहाँ भी प्रवचनसार के ही शब्द संस्कृत में रूपान्तरित कर दिये गये हैं। तत्त्वार्थ का यह सूत्र शाब्दिक और सूत्रात्मक दृष्टि से व्याख्याप्रज्ञप्ति से बहुत भिन्न है। १७ तत्त्वार्थसूत्र - स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः। ५ /२३। पंचास्तिकाय - वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसा हि। ५१ । व्याख्याप्रज्ञ. - पोग्गले पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे पण्णत्ते।१२/५/४५०। यहाँ भी पञ्चास्तिकाय की गाथा के साथ ही तत्त्वार्थ के सूत्रगत शब्दों का साम्य है, व्याख्याप्रज्ञप्ति के सूत्र के साथ नहीं। १८ तत्त्वार्थसूत्र - अणवः स्कन्धाश्च। ५ / २५ । नियमसार - अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं। २०। For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ स्थानांग - दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा-परमाणुपोग्गला नोपरमाणु पोग्गला चेव। २/३/८२। यहाँ सूत्र में प्रयुक्त स्कन्ध शब्द नियमसार के खंध से समानता रखता है। स्थानांग में इस शब्द का प्रयोग ही नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र - सद् द्रव्यलक्षणम्। ५/२९ । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। ५/३० । गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। ५ /३८ । पंचास्तिकाय - दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। गुणपजयासयं वा जं तंभण्णंति सव्वण्हू॥ १०॥ व्याख्याप्रज्ञ. - सहव्वं वा। ८/९। स्थानांग - माउयाणुओगे उपन्ने वा विगए वा धुवे वा। १० । उत्तरा. सूत्र – गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पजवाणं तु उभओ अस्सिया भवे॥ २८/६॥ यहाँ तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्रों का एक-एक शब्द और वाक्यरचना पञ्चास्तिकाय की गाथा से ज्यों की त्यों मिलती है। वस्तुतः सूत्रकार ने गाथा को ही विभाजित कर तीन सूत्रों का निर्माण किया है। ऐसा साम्य स्थानांग और उत्तराध्ययन के सूत्रों के साथ नहीं है। पं० सुखलाल जी संघवी ने भी इस बात को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-"विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द के प्राकृतवचनों के साथ तत्त्वार्थ के संस्कृत सूत्रों का कहीं तो पूर्ण और कहीं बहुत ही कम सादृश्य है। श्वेताम्बर-सूत्रपाठ में द्रव्य के लक्षणवाले दो ही सूत्र हैं-'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' तथा 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।' इन दोनों के अतिरिक्त द्रव्य का लक्षणविषयक एक तीसरा सूत्र दिगम्बर-सूत्रपाठ में है-'सद् द्रव्यलक्षणम्।' ये तीनों दिगम्बर-सूत्रपाठगत सूत्र कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय की निम्न प्राकृतगाथा में पूर्णरूप से विद्यमान हैं-'दव्वं सल्लक्खणियं ---।' इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों के साथ तत्त्वार्थसूत्र का जो शाब्दिक तथा वस्तुगत महत्त्वपूर्ण सादृश्य है, वह आकस्मिक तो नहीं ही है।" (त.सू./वि. स./प्रस्ता./ पृ.९-१०)। किन्तु डॉ. सागरमल जी मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जो समानतत्त्व हैं, वे तत्त्वार्थसूत्र For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ४ तत्त्वार्थसूत्र / ४०१ से ही कुन्दकुन्द ने ग्रहण किये हैं । १५८ यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । यदि कुन्दकुन्द ने तत्त्वार्थसूत्र से 'सद् द्रव्यलक्षणम्' सूत्र ग्रहण किया होता, तो उसे श्वेताम्बरमान्य सूत्रपाठ में भी होना चाहिए था । किन्तु नहीं है, इससे सिद्ध है कि वह दिगम्बरसूत्रपाठ में कुन्दकुन्द के पञ्चास्तिकाय से ही आया है । और जब वह पंचास्तिकाय से आया है, तब उसके साथवाले सूत्र भी पंचास्तिकाय से ही आये हैं, यह स्वतः सिद्ध होता है, क्योंकि उनका पंचास्तिकाय की गाथा से जो घनिष्ठ साम्य है, वह उपर्युक्त स्थानांग और उत्तराध्ययन के सूत्रों के साथ नहीं है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द ने समयसार (गा. १०९) में बन्ध के चार हेतु बतलाये हैं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, जबकि तत्त्वार्थ सूत्र में प्रमाद को भी बन्ध का हेतु बतलाया गया है । १५९ यदि कुन्दकुन्द ने तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण किया होता, तो वे भी बन्ध के पाँच ही हेतु बतलाते, चार नहीं । तथा कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्व हुए हैं, पश्चात् नहीं, यह पूर्व (अध्याय १० / प्र . १ ) में सिद्ध किया जा चुका है। तत्त्वार्थ सूत्र पंचास्तिकाय व्याख्याप्रज्ञ. तत्त्वार्थसूत्र पंचास्तिकाय — जोगो मणवयणकायसंभूदो। १४८ । तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा – मणजोए, वइजोए, कायजोए । १६/१/५६४ । यहाँ भी तत्त्वार्थसूत्र और पंचास्तिकाय के वचनों में रचनात्मक घनिष्ठता है । - - - - २० कायवाङ् मनः कर्म योगः । ६ / १ | ---- २१ उत्तरा . सूत्र पुणं पावासवो तहा । २८ / १४ । इस तत्त्वार्थगत सूत्र का भी शब्दसाम्य पंचास्तिकाय की ही गाथा के साथ है। शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य । ६ / ३ | सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं--- । १३२ । २२ तत्त्वार्थसूत्र (६ / २४ ) में तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतु सोलह बतलाये गये हैं और दिगम्बर-ग्रन्थ षट्खण्डागम (पु.८ / ३ / ४१ / पृ. ७९) में भी सोलह ही निर्दिष्ट हैं, जब १५८. जैनधर्म का यापनीय सम्पदाय / पृ. २४७ । १५९. “मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।" तत्त्वार्थसूत्र ८ / १ | For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ कि श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथाङ्ग (अध्याय ८) में बीस हेतुओं का वर्णन है। तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में वर्णित इन हेतुओं में नामसाम्य और क्रमसाम्य भी ज्ञातृधर्मकथांग में वर्णित हेतुओं से अधिक हैं। २३ तत्त्वार्थसूत्र – हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्। ७/१ । चारित्तपाहुड - हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य। तुरियं अबभविरई पंचम संगम्मि विरई य॥ २९॥ स्थानांग - पंच महव्वया पण्णत्ता,तं जहा-सव्वाओ पाणातिवाया ओवेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, जाव सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं॥ ५/१/३८९। यहाँ पाँचों पापों का क्रमशः उल्लेख और उनके साथ विरति शब्द का प्रयोग तत्त्वार्थ के सूत्र और चारित्तपाहुड की गाथा में ही हुआ है, स्थानांग के सूत्र में नहीं। २४ तत्त्वार्थसूत्र – वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च। ७/४। चारित्तपाहुड - वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो। अवलोयभोयणाएऽहिंसाए भावणा होंति॥ ३१॥ समवायांग - इरियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाण भंडमत्तनिक्खेवणासमिई। २५ । यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र का चारित्तपाहुड की गाथा के साथ समवायांग के सूत्र की अपेक्षा शब्दसाम्य और क्रमसाम्य अधिक है। इतना ही नहीं, समवायांग के सूत्र में जो श्वेताम्बरमत-परक भाजन और भाण्ड का उल्लेख है, वह तत्त्वार्थ के सूत्र में नहीं है। २५ तत्त्वार्थसूत्र – शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसं वादाः पञ्च। ७/६। चारित्तपाहुड – सुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोधं च। एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मी संविसंवादो॥ ३३॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ४०३ समवायांग - उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमंजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया साहम्मिय उग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया साहारणपत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुंजणया। २५ । यहाँ तत्त्वार्थ का सूत्र चारित्तपाहुड के सूत्र की हूबहू छाया है, जब कि समवायांग के सूत्र का कोई भी शब्द उससे मिलता-जुलता नहीं है। २६ तत्त्वार्थसूत्र – मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च। (७/८)। चारित्तपाहुड - अपरिग्गहसमणुण्णेसु सद्दपरिसरूवगंधेसु। रायबोसाईणं परिहारो भावणा होति॥ ३५॥ चारित्तपाहुड - अमणुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य। ण करेइ रायदोसे पंचिंदियसंवरो भणिओ॥ २८॥ समवायांग - सोइंदियरागोवरई चक्टुंदियरागोवरई घाणिंदियरागोवरई जिब्भिंदियरागोवरई फासिंदियरागोवरई। समय २५ । यहाँ समवायांग के सूत्र का एक भी शब्द तत्त्वार्थ के सूत्र से सादृश्य नहीं रखता, न ही उसके साथ रचनात्मक समानता है, जब कि चारित्तपाहुड की गाथाओं से शाब्दिक साम्य भी है और रचनात्मक भी। २७ तत्त्वार्थसूत्र - मूर्छा परिग्रहः। ७/१७ । प्रवचनसार - मुच्छा परिग्गहो---। ३/१७.२। (जयसेननिर्दिष्ट गाथा)। दशवैका.सूत्र – मुच्छा परिग्गहो---। ६/२१ । यहाँ तीनों में साम्य है, तथापि पूर्वोक्त उदाहरणों में सूत्रकार ने कुन्दकुन्द का ही अनुकरण किया है, इससे सिद्ध होता है कि यहाँ भी उन्हीं का अनुकरण किया गया है। २८ तत्त्वार्थसूत्र - निःशल्यो व्रती। ७/१८ । नियमसार - मोत्तूण सल्लभावं णिस्सले जो दु साहु परिणमदि। ८७। For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ आव.सूत्र - पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं मिच्छादसणसल्लेणं। ४/७। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र और नियमसार के उद्धरणों में निःशल्य शब्द का साम्य है। यह शब्द आवश्यकसूत्र में अदृश्य है। २९ तत्त्वार्थसूत्र - मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। ८।१। समयसार - सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा॥ १०९॥ समवायांग - पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छत्तं अविरई पमायाकसाया जोगा। समय ५। यहाँ समवायांग में मिथ्यात्वादि को आस्रवद्वार कहा गया है, जो अर्थ को साक्षात् संकेतित करता है, फिर भी तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसे ग्रहण नहीं किया। समयसार का बन्धकर्तारः पद आस्रवहेतु अर्थ का परम्परया द्योतक है, फिर भी तत्त्वार्थ के कर्ता ने उसका ही अनुकरण किया है। ३० तत्त्वार्थसूत्र - सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। ८/२। प्रवचनसार – सपदेसो सो अप्पा कसायदो मोहरागदोसेहिं। कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये॥ २/९६॥ समवायांग - जोगबंधे कसायबंधे।" समय ५। स्थानांग - दोहिं ठाणेहिं पापकम्मा बंधंति, तं जहा–रागेण य दोसेण य। २/२। यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र का केवल प्रवचनसार की गाथा से ही शब्दगत, अर्थगत और बन्धप्रक्रिया-निरूपणरूप साम्य है, अन्य दो उद्धरणों के साथ नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र - आस्रवनिरोधः संवरः। ९/१। समयसार - आसवणिरोहो (संवरः)। १६६ । For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ४०५ उत्तरा. सूत्र - निरुद्धासवे संवरो। २९ / ११ । यहाँ तीनों में अर्थगत साम्य होते हुए भी शाब्दिक साम्य केवल पूर्वोक्त दो में ही है। ३२ तत्त्वार्थसूत्र - ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः। ९/५ । चारित्तपाहुड – इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ॥ ३६॥ समवायांग - पंच समिईयो पण्णत्ता, तं जहा-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासव णखेलसिंघाणजल्ल-परिट्ठावणियासमिई। समवाय ५। यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र में वर्णित समितियों के नामों का शतप्रतिशत साम्य चारित्तपाहुड में वर्णित नामों के साथ है। समवायांग में भाण्ड और मात्रक ( श्वेताम्बर-साधुओं के पात्रविशेष) के आदान-निक्षेपण का उल्लेख है, उसकी छाया भी तत्त्वार्थ के सूत्र में दृष्टिगोचर नहीं होती। यह इस बात का अखण्ड्य प्रमाण है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त सूत्र की रचना में कुन्दकुन्द का ही अनुकरण किया है। ३३ तत्त्वार्थसूत्र - उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मच र्याणि धर्मः। ९/६।। बारस अणु. - उत्तमखममद्दवजवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवचागमकिंचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि॥ ७०॥ समवायांग - दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती मुत्ती अज्जवे महवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे।६० सम. /१० । यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकार ने बारस-अणुवेक्खा का शब्दशः अनुकरण किया है और शब्दक्रम भी ज्यों का त्यों है, किन्तु समवायांग के साथ न तो पूर्णतः शब्दसाम्य है, न ही क्रमसाम्य। ३४ तत्त्वार्थसूत्र - अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोक .बोधिदुर्लधर्मस्वाख्यास्तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः। ९/७। १६०. खंती = क्षान्ति, मुत्ती = मुक्ति (आकिञ्चन्य), लाघवे = शौच, चियाए = त्याग। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ बारस अणु. – अद्धवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं। . आसवसंवरणिजरधम्मं बोहिं च चिंतेजो॥ २॥ भग.-आरा. - अद्धवमसरणमेगत्तमण्ण-संसार-लोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधिं च चिंतिज॥ १७१०॥ स्थानांग - अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा। अवायाणुप्पेहा ४/१/२४७, णिजरे १/१६, लोगे १/५। सूत्रकृतांग - अण्णत्ते, असुइअणुप्पेहा। २/१/१३। बोहिदुल्लहे। १/१ । उत्तरा.सूत्र - संवरे। २३/७१ । धम्मे। १०/१८१६१ यहाँ हम देखते हैं कि श्वेताम्बर-आगमों में कहीं भी एक साथ बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन नहीं है। कहीं पाँच का वर्णन है, कहीं दो का, कहीं एक का। यद्यपि इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओं की संख्या पूरी हो जाती है, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र में एक साथ वर्णित हैं, वैसे एक साथ वर्णित नहीं है, जब कि बारस-अणुवेक्खा और भगवती-आराधना में एक साथ वर्णित हैं। इसके अलावा श्वेताम्बर-आगमों में आस्रवानुप्रेक्षा का नाम नहीं है, उसके स्थान पर अपायानुप्रेक्षा का नाम है। इस तरह नाम और रचना की दृष्टि से तत्त्वार्थ के अनुप्रेक्षासूत्र की जितनी निकटता बारस-अणुवेक्खा और भगवती-आराधना के साथ है, उतनी श्वेताम्बर-आगमों के साथ नहीं है। डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"प्रकीर्णकों के अन्तर्गत मरणविभक्ति एक प्राचीन प्रकीर्णक है, इसकी ५७० से लेकर ६४० तक की ७१ गाथाओं में बारह भावनाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। मरणविभक्ति की भावनासम्बन्धी इन ७१ गाथाओं में भी अनेक भगवती-आराधना और मूलाचार में उपलब्ध होती हैं। अतः तत्त्वार्थभाष्य, भगवती-आराधना और मूलाचार में, जो साम्य परिलक्षित होता है, वह इन तीनों के कर्ताओं द्वारा आगमिक ग्रन्थों के अनुसरण के कारण ही है। भगवती-आराधना और मूलाचार यापनीयग्रन्थ हैं और यापनीय आगम मानते थे। मरणविभक्ति तत्त्वार्थभाष्य से प्राचीन है। वस्तुतः यापनीय (ग्रन्थों) और तत्त्वार्थभाष्य में जो समरूपता है, उसका कारण यह है कि उन दोनों का मूल स्रोत एक ही है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३५०-३५८)। डॉक्टर साहब का यह कथन निम्नलिखित कारणों से समीचीन नहीं हैं १६१. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / पृ. २०२-२०३। For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ४०७ १. यद्यपि पाँचवीं शताब्दी ई० में रचित नन्दीसूत्र में मरणविभक्ति नामक प्रकीर्णक का उल्लेख है, तथापि उसमें अनुयोगद्वारसूत्र का भी निर्देश है। और डॉक्टर साहब ने स्वयं लिखा है कि "अनुयोगद्वारसूत्र निश्चित ही तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य से किञ्चित् परवर्ती है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३२२)। इसलिए 'मरणविभक्ति' नामक ग्रन्थ केवल इस आधार पर तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती नहीं हो जाता कि उसका उल्लेख नन्दीसूत्र में है। २. दूसरी बात यह है कि नन्दीसूत्र में २९ उत्कालिक (दिन और रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर में भी पढ़े जाने योग्य) सूत्रों का वर्णन किया गया है-१.दशवैकालिक, २.कल्पाकल्प, ३.लघुकल्प, ४.महाकल्प, ५.औपपातिक, ६.राजप्रश्नीय, ७.जीवाभिगम, ८.प्रज्ञापना, ९.महाप्रज्ञापना, १०.प्रमादाप्रमाद, ११.नन्दी, १२.अनुयोगद्वार, १३.देवेन्द्रस्तव, १४.तंदुलवैचारिक, १५.चन्द्रवेध्यक, १६.सूर्यप्रज्ञप्ति, १७.पौरुषीमण्डल, १८.मण्डप्रवेश, १९.विद्याचरणविनिश्चय, २०.गणिविद्या, २१.ध्यानविभक्ति, २२.मरणविभक्ति, २३.आत्मविशुद्धि, २४.वीतरागश्रुत, २५.सल्लेखनाश्रुत, २६.विहारकल्प, २७.आतुरप्रत्याख्यान, २८.महाप्रत्याख्यान और २९.चरणाविधि। (नन्दीसूत्र / पृ. ४००)। . इनमें से दशवैकालिक, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार, और सूर्यप्रज्ञप्ति, मात्र इन आठ को नन्दीसूत्र के विवेचक मुनि श्री पारसकुमार जी ने विद्यमान बतलाया है, शेष २१ के बारे में कहा है कि उनका विच्छेद हो गया है।६२ इस प्रकार नन्दीसूत्र में उल्लिखित मरणविभक्ति का अस्तित्व ही नहीं है। जो उपलब्ध है, उसकी रचना तत्त्वार्थसूत्र और भगवती-आराधना के बाद हुई है। इसलिए उसमें जो बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तृत वर्णन है, वह तत्त्वार्थसूत्र और भगवतीआराधना के आधार पर ही किया गया है। अतः डॉक्टर साहब का यह कथन उचित है कि मरणविभक्ति की भावना-सम्बन्धी गाथाओं में से अनेक भगवती-आराधना और मूलाचार में मिलती हैं। किन्तु उनका यह कथन सही नहीं है कि भगवती-आराधना और मूलाचार यापनीयपरम्परा के ग्रन्थ हैं। पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि ये दोनों ग्रन्थ शतप्रतिशत दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ हैं। निष्कर्ष यह कि तत्त्वार्थ का अनुप्रेक्षासूत्र बारस-अणुवेक्खा, भगवती-आराधना और मूलाचार इन दिगम्बरग्रन्थों से घनिष्ठ साम्य रखता है, श्वेताम्बरग्रन्थों से उसकी समानता बहुत अल्प है। १६२. नन्दीसूत्र / पृ. ४०२ / अ.भा.साधुमार्गी जैन संस्कृतिरक्षक संघ सैलाना (म.प्र.) सन् १९८४ ई०। For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ १. तत्त्वार्थसूत्रगत बाईस परीषहों में अदर्शनपरीषह है-"प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि" ९/९। २. दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार में वर्णित बाईस परीषहों में भी अदर्शनपरीषह का ही उल्लेख है-"तह चेव पण्णपरिसह अण्णाणमदंसणं खमणं।" २५५ । ३. किन्तु श्वेताम्बर-आगम समवायांग में उसके स्थान में दर्शनपरीषह है__ "अण्णाणपरीसहे दंसणपरीसहे।" समवाय २२। ४. इसके अतिरिक्त समवायांग (समवाय २२) के अचेलपरीषह के स्थान पर तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषह शब्द है, जो दिगम्बरपरम्परा के सर्वथा वस्त्र रहितत्व को स्पष्टतः सूचित करता है।' इन उदाहरणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थ का परीषहसूत्र दिगम्बरपरम्परा की ओर झुका हुआ है। ३६ १. तत्त्वार्थ के बाह्यतपसूत्र (९/१९) में विविक्तशय्यासन नाम का तप है। २. दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना१६३ तथा मूलाचार ६४ में भी विविक्तशय्यासन ही नाम है। ३. किन्तु श्वेताम्बर-आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति (२५/७/२०८) में उसके स्थान पर पडिसंलीणया (प्रतिसंलीनता) नाम का तप है, यद्यपि उसका अर्थ विविक्त शय्यासन ही बतलाया गया है। इस तरह तत्त्वार्थ का बाह्यतपसूत्र भी दिगम्बरग्रन्थों से निकटता दर्शाता है। ३७ तत्त्वार्थसूत्र - ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः। ९/२३ । भावपाहुड - विणयं पंचपयारं। १०२। दसणपाहुड – दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकाल सुपसत्था। २३ । १६३. कायकिलेसो सेज्जा य विवित्ता बाहिरतवो सो॥ २१०॥ भगवती-आराधना / पृ. २३६ । १६४. विवित्तसयणासणं छटुं॥ ३४६ ॥ मूलाचार / पृ. २८३ । For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ४ व्याख्याप्रज्ञ. तत्त्वार्थसूत्र यहाँ तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्द के भावपाहुड दोनों में विनय के पाँच प्रकार बतलाये गये हैं, जब कि श्वेताम्बर - व्याख्याप्रज्ञप्ति में सात प्रकार । अतः 'ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारा: ' सूत्र भी दिगम्बरग्रन्थों के ही निकट है। पं० सुखलाल जी संघवी एवं डॉ० सागरमल जी के मानदंड के अनुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह सूत्र तत्त्वार्थसूत्र, भावपाहुड और दंसणपाहुड के उपर्युक्त सूत्र और गाथांशों में वर्णित अर्थ की अपेक्षा विकसित अर्थवाला भी है, जो अर्वाचीन होने का लक्षण है । षट्खंडाग समवायांग — - तत्त्वार्थसूत्र / ४०९ विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा—णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कार्याविणए लोगो - वेयारविणए । २५ / ७ / ८०२ । - ३८ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोप शान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । ९/४५ । सम्मत्तप्पत्ती वि य दंसणमोह सावयविरदे अणंतकम्मंसे । कसायउवसामए य उवसंते ॥ ७॥ खवर य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेजा । तव्ववदो कालो संखेज्जगुणाए य सेडीए ॥ ८ ॥ पु. १२ / ४,२ / पृ. ७८ । कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवद्वाणा पण्णत्ता, तं जहां - मिच्छादिट्ठी सासायणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठि अविरषसम्मट्ठी विरयाविरए पमत्तसंजए अप्पमत्तसंजए निअट्टीबायरे अनि अट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा उवसंतमोहे वा खीणमोहे सजोगीकेवली अजोगीकेवली । समवाय १४ तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्र एवं षट्खण्डागम की उक्त गाथाओं में गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का वर्णन किया गया है। उनमें नाम, क्रम और संख्या का शब्दशः साम्य है। उनके साथ श्वेताम्बर - आगम समवायांग का जो सूत्र उद्धृत किया गया है, उसे तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम - समन्वय ग्रन्थ के श्वेताम्बर - लेखक उपाध्याय मुनि श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त गुणश्रेणिनिर्जरास्थान - प्रतिपादक सूत्र का स्रोत बतलाया हैं । किन्तु वह गुणश्रेणिनिर्जरास्थानों का प्रतिपादक है ही नहीं । उसमें तो चौदह For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ गुणस्थानों के नाम वर्णित किये गये हैं। उदाहरणार्थ, उसमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि (सास्वादन सम्यग्दृष्टि) एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों का वर्णन है, इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती ही नहीं है। तथा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (विरत) से अधिक गुणश्रेणिनिर्जरा अनन्तवियोजक के और अनन्तवियोजक से अधिक दर्शनमोहक्षपक के होती है, किन्तु इनका सूत्र में नाम ही नहीं है। अपरञ्च दर्शनमोहक्षपक से अधिक गुणश्रेणिनिर्जरा चारित्रमोह-उपशमक के, उससे अधिक उपशान्तमोह के, उससे भी अधिक क्षपक के, उससे भी अधिक क्षीणमोह के और उससे भी अधिक 'जिन' (सयोगिकेवली और अयोगिकेवली) के होती है, किन्तु इनके नाम इस क्रम से उपर्युक्त सूत्र में वर्णित नहीं हैं। इससे सिद्ध है कि वह गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों का प्रतिपादक सूत्र नहीं है, अपितु केवल गुणस्थानों के नाम का वर्णन करनेवाला सूत्र है। उसमें ऐसा निर्देश भी किया गया है, यथा-"कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्ठी---।" अर्थात् कर्मों की विशुद्धि के मार्ग की अपेक्षा चौदह जीवस्थान (गुणस्थान) बतलाये गये हैं, जैसे-मिथ्यादृष्टि---। और डॉ० सागरमल जी ने तो इसे प्रक्षिप्त माना है। वे लिखते हैं-"---श्वेताम्बरमान्य समवायांग में १४ जीवठाण के रूप में १४ गुणस्थानों का निर्देश है, किन्तु अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि समवायांग में प्रथम शती से पाँचवी शती के बीच अनेक प्रक्षेप होते रहे हैं। अतः वलभीवाचना के समय ही जीवसमास का यह विषय उसमें संकलित किया होगा। अन्य प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर-आगमों, जैसे-आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती और यहाँ तक कि प्रथम शताब्दी में रचित प्रज्ञापना और जीवाभिगम में भी गुणस्थान का अभाव है।" (जै.ध.या.स./पृ.२५१)। इस कथन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थ का उपर्युक्त सूत्र षट्खण्डागम के उक्त सूत्र पर ही आधारित है। श्वेताम्बरग्रन्थ आचारांगनियुक्ति में गुणश्रेणिनिर्जरा-स्थान-प्रतिपादक दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु उसका रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी है, अतः वह भी तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्र का आधार नहीं हो सकती। समवायांग की तरह आचारांगनियुक्ति में भी उक्त गाथाएँ षट्खण्डागम से ही पहुँची हैं। (देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण ५/शीर्षक ३.१.,३.२.,३.३.)। उपर्युक्त उदाहरण इस बात के गवाह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों की शाब्दिक, आर्थिक और रचनात्मक दृष्टि से जितनी निकटता दिगम्बरग्रन्थों के साथ है, उतनी श्वेताम्बरग्रन्थों के साथ नहीं है। अतः दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थ ही तत्त्वार्थसूत्र की रचना के प्रमुख आधार हैं। इनके अलावा भगवती-आराधना और मूलाचार जैसे प्राचीन दिगम्बरग्रन्थों से भी विषयवस्तु ग्रहण की गई है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ४११ गुणस्थानाश्रित निरूपण के आधार दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रकार ने तत्त्वार्थ के निम्नलिखित सूत्रों में यह वर्णित किया है कि किस गुणस्थानवाले जीव को कौन-कौन से परीषह और कौन-कौन से ध्यान होते १. सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश। ९/१०। २. एकादश जिने। ९/११। ३. बादरसाम्पराये सर्वे। ९/१२। ४. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्। ९/३४। ५. हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः। ९/३५ । ६. परे केवलिनः। ९/३८। इस प्रकार का गुणस्थानाश्रित वर्णन किसी भी श्वेताम्बर-आगम में नहीं मिलता, जबकि षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि प्राचीन दिगम्बरग्रन्थ गुणस्थानाश्रित निरूपण से भरे पड़े हैं। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन ग्रन्थों के आधार पर ही तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्रों में गुणस्थानानुसार परीषहों और चतुर्विध ध्यान के स्वामित्व का विभाजन किया है। ये प्रचुर प्रमाण दिन के प्रकाश के समान स्पष्ट कर देते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना दिगम्बरग्रन्थों के आधार पर हुई है, न कि श्वेताम्बरग्रन्थों के आधार पर, अतः तत्त्वार्थसूत्र शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र के उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का ग्रन्थ न होने के प्रमाण तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सम्प्रदाय का ग्रन्थ होने की मान्यता डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय, इन तीनों में से किसी भी सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं माना है। वे इसे एक स्वकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का ग्रन्थ मानते हैं। उनका मान्यता है कि यह सम्प्रदाय भगवान् महावीर के उपदेशों का पालन करनेवाला मूल सम्प्रदाय था। यह अचेलमुक्ति, सचेलमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति, भगवान् महावीर के गर्भपरिवर्तन और मल्लितीर्थंकर के स्त्री होने के मत को मानता था। (जै.ध. या. स./ पृ.३५०)। उनके अनुसार इस सम्प्रदाय या परम्परा का अस्तित्व तीर्थंकर महावीर के काल से लेकर ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व तक बना रहा। पाँचवीं शती ई० में इसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति हुई। यापनीयसंघ उपर्युक्त अचेलमुक्ति, सचेलमुक्ति आदि सभी मान्यताओं को स्वीकार करता था और श्वेताम्बरसंघ को केवल अचेलमुक्ति मान्य नहीं है, शेष सभी मान्यताएँ स्वीकार्य हैं। एकमात्र यही दोनों में फर्क था। दिगम्बरपरम्परा को डॉ० सागरमल जी विक्रम की छठी शती में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा दक्षिण भारत में प्रवर्तित मानते हैं। तत्त्वार्थसूत्र को उक्त स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ बतलाते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं "श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के विद्वानों ने इसे अपनी परम्परा में रचित सिद्ध करने हेतु अनेक लेखादि लिखे हैं। मैंने उन सभी लेखों को, जिन्हें दोनों परम्पराओं के परम्परागत विद्वानों एवं कुछ तटस्थ विदेशी विद्वानों ने लिखा, देखने का प्रयास किया और उन सबको देखने के पश्चात् मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तत्त्वार्थसूत्र उस युग की रचना है, जब जैनपरम्परा में अनेक प्रश्नों पर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे और जैनसंघ विभिन्न गण, कुल और शाखाओं में विभक्त हो गया। किन्तु इन मतभेदों एवं गणभेदों के होते हुए भी तब तक जैनसंघ श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे विभागों में विभाजित नहीं हुआ था। मेरी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र की रचना उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थपरम्परा में Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १६ / प्र० ५ तत्त्वार्थसूत्र / ४१३ हुई, जो उसकी रचना के पश्चात् एक दो शताब्दियों में ही सचेल - अचेल ऐसे दो भागों में स्पष्टरूप से विभक्त ही गई, जो क्रमशः श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) के नाम से जानी जाने लगी। जहाँ तक दिगम्बरपरम्परा का प्रश्न है, उन्हें यह ग्रन्थ उत्तरभारत की अचेलपरम्परा, जिसे यापनीय कहा जाता है, से ही प्राप्त हुआ।" (जै. ध.या.स./पृ.२३९-२४०) । "मूर्धन्य विद्वान् पं० सुखलाल जी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र की भूमिका में, पं० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य की सिद्धसेनगणी की टीका के द्वितीय विभाग के प्रारंभ की अँगरेजी भूमिका में, डॉ० सुजिको ओहिरो ने अपने निबन्ध 'तत्त्वार्थसूत्र का मूलपाठ' में इसे श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है। स्थानकवासी आचार्य आत्मराज जी महाराज ने 'तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम - समन्वय' में तत्त्वार्थ के पाठों का आगमिक आधार प्रस्तुत करते हुए इसे श्वेताम्बरपरम्परा की ही कृति माना है। श्वेताम्बर - मूर्तिपूजक - परम्परा के सागरानन्द सूरीश्वर जी ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता श्वेताम्बर हैं और सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ संशोधित है, यह सिद्ध करने के लिए ९६ पृष्ठों की एक पुस्तक ( तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय) ही लिख डाली है । यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानों का यह आग्रह उचित नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र और उसके लेखक उस मूलधारा के हैं, जिससे इन विभिन्न परम्पराओं का विकास हुआ है।" (जै. ध. या.स./पृ.२६२-२६३)। उनकी (उमास्वाति की ) यह उच्चनागरी शाखा न तो श्वेताम्बर है और न यापनीय, अपितु दोनों की ही पूर्वज है। अतः उमास्वाति श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वपुरुष हैं। पुनः उमास्वाति उस काल में हुए हैं, जब कि निर्ग्रन्थसंघ में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे भेद अस्तित्व में नहीं आये थे ।" (जै. ध. या. स./पृ.३५५-३५६ ) । 44 २ उमास्वाति को उक्त सम्प्रदाय का आचार्य मानने के हेतु उपर्युक्त कथनों में डॉ० सागरमल जी ने उमास्वाति को दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों से पूर्ववर्ती माने गये स्वकल्पित उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है। इसके कारण बतलाते हुए वे लिखते हैं १. " काल की दृष्टि से उमास्वाति ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी के पश्चात् और चतुर्थ शताब्दी के पूर्व हुए हैं। प्रो० ढाकी के द्वारा उनका काल ईस्वी सन् ३७५४०० माना गया है। उनके इस काल के आधार पर उन्हें न तो श्वेताम्बर, न दिगम्बर For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०५ और न यापनीय ही कहा जा सकता है। वस्तुतः वे उस काल में हुए हैं, जब उत्तरभारत के निर्ग्रन्थसंघ में आचार एवं विचार सम्बन्धी अनेक मतभेद अस्तित्व मे आ गये थे, किन्तु उस युग तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होकर श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्पराओं का जन्म नहीं हुआ था। हमें पाँचवीं शताब्दी के पूर्व न तो अभिलेखों में और न साहित्यिक स्रोतों में ऐसे कोई संकेत मिलते हैं, जिनके आधार पर यह माना जा सके कि उस काल तक श्वेताम्बर (श्वेतपट्ट), दिगम्बर या यापनीय ऐसे नाम अस्तित्व में आ गये थे। यद्यपि वस्त्र-पात्रादि को लेकर विवाद का प्रादुर्भाव हो चुका था, किन्तु संघ स्पष्टरूप से खेमों में विभाजित होकर श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर ऐसे नामों से अभिहित नहीं हुआ था। उस काल तक मान्यताभेद और आचारभेद को लेकर विभिन्न गण, कुल और शाखाएँ तो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती थीं, किन्तु सम्प्रदाय नहीं बने थे। अतः काल की दृष्टि से उमास्वाति न तो श्वेताम्बर थे और न यापनीय ही थे, अपितु वे उस पूर्वज धारा के प्रतिनिधि हैं, जिससे ये दोनों परम्परायें विकसित हुई हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि दक्षिण भारत की अचेलधारा, जो आगे चलकर दिगम्बर नाम से जानी गई, उससे वे सीधे रूप से सम्बन्धित नहीं थे। २. "यह सत्य है कि तत्त्वार्थसूत्र की कुछ मान्यताएँ श्वेताम्बर आगमों के और कुछ मान्यताएँ दिगम्बरमान्य आगमों के विरोध में जाती हैं। यह भी सत्य है कि उसकी कुछ मान्यताएँ यापनीयग्रन्थों में यथावत् रूप में पायी जाती हैं, किन्तु इस सबसे हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि वे श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्परा के थे। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है, उमास्वाति उस काल में हुए हैं, जब वैचारिक एवं आचारगत मतभेदों के होते हुए भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ था। इसी का परिणाम है कि उनके ग्रन्थों में कुछ तथ्य श्वेताम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल, कुछ तथ्य दिगम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकुल तथा कुछ तथ्य यापनीयों के अनुकूल एवं कुछ उनके प्रतिकूल पाये जाते हैं। वस्तुतः उनकी जो भी मान्यताएँ हैं, उच्चनागर शाखा की मान्यताएँ हैं। अतः मान्यताओं के आधार पर वे कोटिकगण की उच्चनागर शाखा के थे। उन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय मान लेना संभव नहीं है।" (जै.ध.या.स./पृ.३८१-३८२)। यहाँ डॉक्टर सा० ने उमास्वाति को स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का मानने के दो हेतु बतलाये हैं-१. उमास्वाति के अस्तित्वकाल तक दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उदय न होना तथा. २. उनकी मान्यताओं का इन तीन सम्प्रदायों में से किसी के भी पूर्ण अनुकूल न होना। किन्तु ये हेतु प्रामाणिक नहीं हैं। इनका निरसन नीचे किया जा रहा है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०५ तत्त्वार्थसूत्र / ४१५ निरसन ___१. उमास्वाति को जिस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का बतलाया गया है, उसका अस्तित्व ही नहीं था, वह डॉ० सागरमल जी द्वारा कल्पित है, यह प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय (प्रकरण ३) में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः उमास्वाति का उस काल्पनिक सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना संभव ही नहीं हैं। ___. उक्त सम्प्रदाय का अस्तित्व होता भी, तो उसका श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में विभाजन कदापि संभव नहीं था, क्योंकि उसमें सचेल और अचेल दोनों लिंगों में से किसी भी लिंग को अपनाने का विकल्प था। जो अचेललिंग धारण करने में असमर्थ थे, उनके लिए सचेललिंग धारण करने की स्वतंत्रता थी, वे अचेललिंग ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं थे। सचेललिंग को लेकर संघविभाजन तभी हो सकता था, जब उक्त संघ में अचेललिंग ही अनिवार्य होता, किन्तु ऐसा नहीं था। इसी प्रकार अचेललिंग को लेकर भी किसी को अलग होने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उसे भी अपनाने की स्वतंत्रता उक्त सम्प्रदाय देता था। और यापनीय नामक सम्प्रदाय बनानेवालों के तो उक्त सम्प्रदाय से पृथक् होने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था, क्योंकि वे अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति के समर्थक थे और उक्त सम्प्रदाय ऐसा ही था। वस्तुतः तथाकथित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के माने गये सिद्धान्त यापनीयसम्प्रदाय के ही सिद्धान्त हैं। इसलिए सचेलाचेल-मुक्ति के समर्थकों को कोई पृथक् सम्प्रदाय बनाने और उसे 'यापनीय' नाम देने की आवश्यकता नहीं थी। उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय नाम से ही वह प्रसिद्ध रहता। इस तरह उक्त सम्प्रदाय के विभाजित होने के कोई कारण ही उसमें विद्यमान नहीं थे। इससे सिद्ध होता है कि उसके विभाजन की घटना काल्पनिक है। (इसका विस्तृत विवेचन अध्याय २/प्र.४/शी.२ में द्रष्टव्य है)। इस तरह जो श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय उक्त सम्प्रदाय से उत्पन्न ही नहीं हुए , उमास्वाति उनके पूर्वपुरुष कैसे हो सकते थे? कदापि नहीं। ३. यह मान्यता भी मिथ्या है कि ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व किसी अभिलेख या साहित्यिक स्रोत में दिगम्बर, श्वेताम्बर आदि सम्प्रदायों के नाम उपलब्ध नहीं होते। सम्राट अशोक के दिल्ली (टोपरा) के सातवें स्तम्भ लेख (ईसापूर्व २४२) में निर्ग्रन्थों (निगंठेसु) का उल्लेख है। (देखिये, अध्याय २/प्र.६/शी.२)। निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बर जैन मुनियों का वाचक है, यह पाँचवीं शताब्दी ई० के श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा एवं मृगेशवर्मा के देवागिरि एवं हल्सी के तामपत्रलेखों से सिद्ध है। तथा ईसापूर्व छठी शती के बुद्धवचनसंग्रहरूप त्रिपिटकसाहित्यगत अंगुत्तरनिकाय नामक ग्रन्थ में और प्रथम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०५ शताब्दी ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में निर्ग्रन्थ शब्द से दिगम्बरजैन साधुओं का कथन किया गया है (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२/शी.१.१ एवं १४)। इसी प्रकार अशोककालीन या ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचित बौद्धग्रन्थ अपदान में सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र = श्वेतपट) नाम से श्वेताम्बर साधुओं का उल्लेख मिलता है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२/शी.१.२)। इन ऐतिहासिक प्रमाणों से ये दोनों मान्यताएँ धराशायी हो जाती हैं कि पाँचवीं शती ई० के पूर्व तक दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आये थे और तब तक एकमात्र उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का अस्तित्व था। यतः इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि निर्ग्रन्थ (दिगम्बरजैन) संघ का अस्तित्व बौद्धकाल एवं सम्राट अशोक के काल (ईसापूर्व २४२) में भी था और श्वेतपटसंघ अशोककाल अथवा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में भी विद्यमान था, अतः यह निर्विवाद स्थापित होता है कि पाँचवीं शती ई० के पूर्व उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय नाम का कोई भी सम्प्रदाय विद्यमान नहीं था, केवल निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरजैनसंघ) एवं श्वेतपटसंघ का अस्तित्व था। अतः तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ और भाष्य (तत्त्वार्थधिगमभाष्य) के कर्ता उमास्वाति श्वेताम्बर ही थे। ४. भाष्यगत सैद्धान्तिक समानता के कारण भाष्यकार का यापनीय होना भी संभव है। भाष्य में स्वीकृत सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि की मान्यताएँ यह निश्चित करती हैं कि भाष्यकार श्वेताम्बर या यापनीय के अतिरिक्त और किसी सम्प्रदाय के नहीं हैं, उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के तो कदापि नहीं, क्योंकि वह कपोलकल्पित है। For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल द्वितीय शताब्दी ई० डॉ॰ सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल निर्धारित करने के लिए गुणस्थानसिद्धान्त को आधार बनाया है। वे लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजमात्र मिलते हैं, उसका पूर्ण विकसित रूप दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि षट् खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में वह पूर्ण विकसित रूप में उपलब्ध होता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम आदि के पूर्व हुई है । १६५ उनका कथन है कि "ये सभी ग्रन्थ लगभग पाँचवीं शती के आसपास के हैं। इसलिए इतना तो निश्चित है कि तत्त्वार्थ की रचना चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व की है ।" १६६ फिर वे और भी अन्य बातों का विचार करके लिखते हैं- " इस समस्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उमास्वाति का काल वि० सं० की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य है । १६७ डॉक्टर साहब की तथाकथित गुणस्थानसिद्धान्त के विकास की अवधारणा कपोलकल्पित है, यह दशम अध्याय के पंचम प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्रकार को गुणस्थानसिद्धान्त अपने परिपूर्णरूप में पूर्वाचार्यों द्वारा रचित षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, भगवती आराधना, मूलाचार आदि दिगम्बरग्रन्थों की परम्परा से प्राप्त हुआ था और उसके आधार पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में परीषहों और चतुर्विधध्यानों के स्वामित्व का सूक्ष्म और सटीक निरूपण किया है । यह तथ्य आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में विस्तार से प्रतिपादित किया गया है। यतः तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त अपने परिपूर्णरूप में उपलब्ध है, अतः उसके विकास की कल्पना निराधार है। इसलिए विकास की कल्पना के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र को प्राचीन और षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों को अर्वाचीन मानना भी निराधार है। प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में सोदाहरण सिद्ध किया गया है कि सूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम, समयसार, पंचास्तिकाय, भगवती - आराधना दिगम्बरग्रन्थों के आधार पर की है। इससे स्पष्ट है कि उसकी रचना इन ग्रन्थों की १६५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. ३६७-३६८ । १६६. वही / पृ. ३६८ । १६७. वही / पृ. ३७२ । For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०६ रचना के बाद हुई है। दिगम्बर-पट्टावलियों और शिलालेखों में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृध्रपिच्छाचार्य का नाम आचार्य कुन्दकुन्द के बाद आया है और कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध एवं ईसोत्तर प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया गया है, अतः तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृध्रपिच्छाचार्य द्वितीय शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में हुए थे।६८ इसलिए तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल यही है। इस प्रकार इन छह प्रकरणों में प्रस्तुत किये गये ये बहुविध प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ ही है, श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं। १६८. देखिए , अध्याय १०/प्रकरण १/शीर्षक ४.१. 'तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल।' For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र के यापनीयग्रन्थ न होने के प्रमाण - दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य दोनों के कर्ता उमास्वाति हैं। और ऐसा मानते हुए उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तत्त्वार्थसूत्र यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। किन्तु इसके समर्थन में उन्होंने जो तर्क दिये हैं, वे यथार्थ से परे हैं। अतः उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि तत्त्वार्थसूत्र यापनीयग्रन्थ है। यहाँ उनके तर्कों का निराकरण किया जा रहा हैप्रेमी जी "तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥ "इस श्लोक में उमास्वाति को श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण दिया गया है और यही विशेषण वैयाकरण शाकटायन के साथ लगा हुआ मिलता है, साथ ही इसी शिलालेख में शाकटायन की भी स्तुति की गई है। 'श्रुतकेवलिदेशीय' का अर्थ होता है 'श्रुतकेवली के तुल्य' और शाकटायन यापनीय थे।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३४)। इस विशेषण की समानता से सिद्ध होता है कि उमास्वाति भी यापनीय थे। प्रो० (डॉ.) ए० एन० उपाध्ये ने भी इसी तर्क से तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को यापनीय आचार्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वे अपने जैनसम्पद्राय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश नामक लेख में लिखते हैं-"विख्यात वैयाकरण शाकटायन ने आत्मप्रशस्ति में निम्नप्रकार लिखा है-"इति श्रीश्रुतकेवलिदेशीयाचार्यस्य शाकटायनस्य कृतौ शब्दानुशासने" इत्यादि। सम्भवतः यही तरीका है, जिससे यापनीय साधु (गुरु) स्वयं को दूसरों से पृथक् दिखलाया करते थे। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ने भी ऐसा ही वर्णन किया है तत्त्वार्थसूत्र कर्तारममास्वाति मुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥" (मूल अँगरेजी लेख के हिन्दी-अनुवादक : श्री कुन्दनलाल जैन/ अनेकान्त': महावीर निर्वाण विशेषांक/सन् १९७५ ई० / पृष्ठ २५२)। निराकरण यहाँ पहले तो यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि पाल्यकीर्ति शकटायन को तो 'श्रुतकेवलिदेशीय' स्वयं शाकटायन ने कहा है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० ७ श्रुतकेवलिदेशीय स्वयं तत्त्वार्थसूत्रकार ने नहीं कहा, अपितु शिलालेख के कवि ने कहा है। (जै.शि.सं./मा.च./ भा. ३ /ले. क्र. ६६७ / पृ. ५१८) । अतः तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति में यापनीय - प्रवृत्ति का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ।' दूसरी बात यह है कि उक्त श्लोक नन्दिसंघीय दिगम्बराचार्यों का वर्णन करनेवाले शिलालेख में उत्कीर्ण है, यापनीय - आचार्यों का वर्णन करनेवाले शिलालेख में नहीं । यथा स चतुर्दशपूर्व्वेशो भद्रबाहुर्ज्जयत्यरम् । दशपूर्व्वधराधीश - विशाख- प्रमुखार्चितः ॥ तत्त्वार्थसूत्रकर्त्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥ श्री कुन्दकुन्दान्वय- नन्दि सङ्के । योगी - राज्येन मतां ॥ जीयात्समन्तभद्रस्य देवागमन - संज्ञिनः स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलङ्को महर्द्धिकः । अलञ्चकार यस्सर्वमाप्तमीमांसितं मतम् । स्वामि-विद्यादिनन्दाय नमस्तस्मै महात्मने ॥ चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायाम् मार्त्तण्ड-वृद्धौ नितरां व्यदीपित् । सुखी --- न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः शाकटायन-कृत-सूत्रन्यासकर्त्रे व्रतीन्दवे ॥ न्यासं जिनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो - न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्ण-दृग्बोधवृत्तः ॥ १६९ इन पद्यों में चतुर्दशपूर्वेश ( श्रुतकेवली) भद्रबाहु, दर्शपूर्वधर विशाखाचार्य, नन्दिसंघीय कुन्दकुन्दान्वय में प्रसूत देवागमस्तोत्र के कर्त्ता स्वामी समन्तभद्र, 'देवागम' पर १६९. EC, VIII, Nagar tl., No. 46 (जैनशिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग ३ / लेख क्र. ६६७ / हुम्मच-कन्नड़ / लगभग १५३० ई / पृष्ठ ५१७ - ५१९, ५२९) । For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ / प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२१ अष्टशती (देवागम-विवृति) नामक भाष्य लिखनेवाले अकलंकदेव, 'आप्तमीमांसा' (देवागम) पर अष्टसहस्री (देवागमालंकार) नामक भाष्य रचनेवाले स्वामी विद्यानन्द, 'प्रेमयकमलमार्तण्ड', 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' एवं शाकटायन-न्यास, (शाकटायन-व्याकरणव्याख्या) के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र तथा 'जैनेन्द्रन्यास' (जैनेन्द्रव्याकरण), पाणिनि के सूत्रों पर 'शब्दावतार' नामक न्यास, वैद्यशास्त्र और तत्त्वार्थटीका (सर्वार्थसिद्धि) के रचयिता पूज्यपादस्वामी एवं उनकी कृतियों का उल्लेख है। ये सभी दिगम्बरजैनाचार्य हैं। उक्त पद्यों के अनन्तर भी अनेक पद्य हैं, जिनमें पात्र-केसरी, त्रिलोकसारकर्ता नेमिचन्द्र, चामुण्डराय आदि अन्य अनेक दिगम्बर-जैनाचार्यों का वर्णन है। १. इन दिगम्बरजैनाचार्यों के गुणकीर्तन एवं वन्दना के साथ आचार्य उमास्वाति का गुणकीर्तन एवं वन्दना की गयी है। इससे सिद्ध है कि वन्दना करनेवाला कवि एवं शिलालेख लिखानेवाले आचार्य, उनका संघ और राजा दिगम्बरजैन थे और वे उमास्वाति को दिगम्बर ही मानते थे। दिगम्बर होने के कारण वे किसी भी यापनीयआचार्य को नमस्कार नहीं कर सकते थे, क्योंकि यापनीयसंघ पाँच जैनाभासों मे आता था और मूलसंघ से बहिष्कृत था। दिगम्बरजैन मुनि व श्रावक जैनाभास साधुओं को नमस्कार करना तो दूर, उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं को भी वन्दनीय नहीं मानते थे। (दसणपाहुड / श्रुतसागरटीका / गा.११ तथा बोधपाहुड । श्रुतसागरटीका / गा. १०)। यदि शिलालेख-लेखन से सम्बद्ध कवि, मुनिसंघ और राजा यापनीय-सम्प्रदाय के होते, तो उन्हें दिगम्बर जैनाचार्यों, उनके गुणों और कृतियों के प्रशंसातिशय-सहित उल्लेख से कोई प्रयोजन न होता। अतः सिद्ध है कि वे दिगम्बरजैन थे और शिलालेखोल्लिखित अन्य दिगम्बर जैनाचार्यों के समान तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को भी दिगम्बराजैनाचार्य ही मानते थे। २. पं० नाथूराम जी प्रेमी ने कहा है कि उक्त शिलालेख में यापनीय-आचार्य शाकटायन की भी स्तुति की गयी है। प्रेमी जी का यह कथन सर्वथा असत्य है। शिलालेख में शाकटायन का नहीं, शाकटायन-व्याकरण पर प्रभाचन्द्र द्वारा लिखे गये न्यास का उल्लेख है और इस न्यास के कर्ता होने से न्यायचन्द्रोदयकार आचार्य प्रभाचन्द्र को नमस्कार किया गया है-"न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः शाकटायनकृतसूत्र-न्यासकर्ड ---।" (देखिये, पूर्वोद्धृत पद्य)। अतः आचार्य उमास्वाति को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत हेतु मिथ्या है। ३. यदि शिलालेख के कवि आदि यापनीयसम्प्रदाय के होते, तो वे उमास्वाति के साथ पाल्यकीर्ति शाकटायन को भी श्रद्धापूर्वक नमस्कार करते और उनके साथ श्रुतकेवलिदेशीय उपाधि का प्रयोग किये बिना नहीं रहते, क्योंकि शाकटायन के साथ इस उपाधि का प्रयोग ईसा की ९वीं शती से होता आ रहा था, उक्त शिलालेख तो Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० ७ १६वीं शती ई० में लिखा गया है। कोई शिलालेख - कवि यापनीयसम्प्रदाय का हो और वह शाकटायन के द्वारा रचे गये व्याकारण पर 'न्यास' लिखनेवाले दिगम्बराचार्य को तो नमस्कार करे और स्वयं शाकटायन को न करे, यह त्रिकाल में संभव नहीं है। अतः सिद्ध है कि शिलालेख का कवि एवं उसके मार्गदर्शक - प्रेरक मुनि एवं राजा यापनीयसम्प्रदाय के नहीं थे, अपितु दिगम्बरजैन थे । उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वा की वन्दना की गयी है, यह इस बात का प्रमाण है कि वे उमास्वाति को दिगम्बराचार्य ही मानते थे। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आचार्यविशेष के लिए श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण का प्रयोग दिगम्बरजैन - परम्परा में भी किया गया है। अतः किसी जैनाचार्य के साथ इस विशेषण का प्रयोग उसके यापनीय होने का प्रमाण नहीं है। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने सिद्धसेन दिवाकर को श्रुतकेवली उपाधि से अभिहित किया है। इससे प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अश्रुतकेवलियों के लिए श्रुतकेवली उपाधि का प्रयोग यापनीयसंघ का वैशिष्ट्य है, अतः सिद्धेसन दिवाकर यापनीय थे । ( Siddhasena's Nyayavatar And Other Works : A.N. Upadhye / Introduction / pp. XIII to ZVIII) | इसका खण्डन करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं- " श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीयपरम्परा के आचार्यों का, अपितु श्वेताम्बरपरम्परा के प्राचीन आचार्यों का भी विशेषण रहा है। यदि 'श्रुतकेवली' विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है, तो फिर यह निर्णय कर लेना कि सिद्धसेन यापनीय हैं, उचित नहीं होगा ।" (जै.ध.या.स. / पृ. २३२) । मेरा भी यही तर्क है। जब दिगम्बरजैनाचार्यों का वर्णन करनेवाले उपर्युक्त शिलालेख में दिगम्बर जैनाचार्य उमास्वाति के साथ ' श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण का प्रयोग किया गया है, तब उसके प्रयोग को केवल यापनीयसंघ के आचार्य का लक्षण मानना तर्कसंगत नहीं है। अतः सिद्ध है कि 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण का प्रयोग होने पर भी तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति दिगम्बरजैन आचार्य ही हैं। ४. — श्रुतकेवलिदेशीय' उपाधि अनुचित भी नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ ' श्रुतकेवली' नहीं है, अपितु 'श्रुतकेवलि-सदृश' है, जो एक बहुश्रुत और अपनी 'तत्त्वार्थसूत्र' जैसी गागर में सागरवत् ज्ञानगम्भीर प्रामाणिक कृति से महान् लोकोपकार करनेवाले आचार्य के प्रति अनुरागातिरेक से भरे हुए भक्त की लेखनी से निकलना सामान्य बात है । यापनीय-आचार्य शाकटायन ने अपने लिए इस उपाधि का प्रयोग किया ही है और श्वेताम्बराचार्य हरभिद्रसूरि ने तो सिद्धसेन दिवाकर को 'श्रुतकेवली' ही कह दिया है। लगता है इन्हीं प्रयोगों से प्रभावित होकर उक्त शिलालेख के दिगम्बरजैन कवि ने अपने सम्प्रदाय के बहुश्रुत तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को भी 'श्रुतकेवलिदेशीय' उपाधि से विभूषित कर दिया है। 1 For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६ /प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२३ प्रेमी जी "आठवें अध्याय का अन्तिम सूत्र है-'सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।" (त.सू./ श्वे./८/२६)। इसमें पुरुषवेद, हास्य, रति और सम्यक्त्वमोहनीय, इन चार प्रकृतियों को पुण्यरूप बतलाया है। परन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में इन्हें पुण्यप्रकृति नहीं माना है। इसलिए सिद्धसेनगणी को इस सूत्र की टीका करते हुए लिखना पड़ा कि "कर्मप्रकृति ग्रन्थ का अनुसरण करने वाले तो ४२ प्रकृतियों को ही पुण्यरूप मानते हैं। उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद नहीं हैं। सम्प्रदाय का विच्छेद हो जाने से मैं नहीं जानता कि इसमें भाष्यकार का क्या अभिप्राय है और कर्मप्रकृति-ग्रन्थ-प्रणेताओं का क्या? चौदहपूर्वधारी ही इसकी ठीक-ठीक व्याख्या कर सकते हैं।१७० वास्तव में उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप यापनीयसम्प्रदाय ही मानता है और यह न जानने के कारण ही सिद्धसेनगणी उलझन में पड़कर कुछ निर्णय नहीं कर सके हैं। अपराजित यापनीय थे। उन्होंने भी आराधना की विजयोदयाटीका में उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप माना है। यथासद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुंवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं, एतेभ्योऽन्यानि पापानि।"१७१ (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३४)। निराकरण __ तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ एवं उसके भाष्य दोनों में उक्त प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति बतलाया गया है, जब कि दिगम्बरमान्य पाठ में सद्वेद्य को छोड़कर शेष को पापप्रकृति ही कहा गया है। तथापि उनका पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य है, यह 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक चतुर्दश अध्याय के द्वितीय प्रकरण (शीर्षक ११) में प्रतिपादित किया जा चुका है। अतः उक्त आधार पर तत्त्वार्थसूत्रकार को यापनीय मानना युक्तिसंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त अपराजित सूरि ने सम्यक्त्वमोहनीय आदि को पुण्यप्रकृति मानते हुए भी भगवती-आराधना की टीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का जोरदार खण्डन किया है। इससे स्पष्ट है कि उनकी विचारधारा यापनीय-मतानुगामिनी नहीं थी। इस विचारधारा से वे पक्के दिगम्बर सिद्ध होते हैं। इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि उक्त प्रकृतियों को यापनीयसम्प्रदाय में पुण्यप्रकृति १७०."कर्मप्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृती: पुण्याः कथयन्ति।---आसां च मध्ये सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदा न सन्त्येवेति। कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणायिनामिति सम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति। चतुर्दशपूर्वधरादयस्तु संविदते यथावदिति निर्दोषं व्याख्यातम्।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ८/२६/पृ. १७८ । १७१. विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना /गा. 'अणुकंपासुद्धवओगो' १८२८/ पृ. ८१४। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०७ माना जाता था। प्रेमी जी ने अपराजित सूरि को यापनीय माना है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के चतुर्दश अध्याय में सिद्ध किया गया है कि वे शुद्ध दिगम्बर थे। अतः लगता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ आचार्य ऐसे थे, जो उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति मानते थे। प्रेमी जी "सातवें अध्याय के तीसरे सूत्र के भाष्य में पाँच व्रतों की जो पाँच-पाँच भावनाएँ बतलायी हैं, उनमें से अचौर्यव्रत की भावनायें भगवती-आराधना के अनुसार हैं, सर्वार्थसिद्धि के अनुसार नहीं---। इससे भी मालूम होता है कि भाष्यकार और भगवती-आराधना के कर्ता दोनों एक ही सम्प्रदाय के हैं।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.५३४-५३५ )। निराकरण १.यदि अचौर्यव्रत की भावनाओं का वर्णन भगवती-आराधना के अनुसार१७२ करने से भाष्यकार उमास्वाति यापनीय सिद्ध होते हैं, तो शेष चार व्रतों की भावनाओं का निरूपण सर्वार्थसिद्धि के अनुसार करने से दिगम्बर सिद्ध होते हैं। किन्तु वे यापनीय और दिगम्बर, दोनों एक साथ नहीं हो सकते। अतः प्रेमी जी के द्वारा प्रस्तुत हेतु हेत्वाभास है। अर्थात् उससे यह सिद्ध नहीं होता कि भाष्यकार यापनीय हैं। २. भगवती-आराधना नामक त्रयोदश अध्याय में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि उसके कर्ता दिगम्बर हैं, यापनीय नहीं, अतः उनके द्वारा वर्णित अचौर्यव्रत की भावनाओं का भाष्य में अनुकरण करने से न तो यह सिद्ध होता है कि भाष्यकार यापनीय हैं, न यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार यापनीय हैं। पूर्व प्रस्तुत प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, अतः प्रेमी जी का उन्हें अभिन्न मानना भी अप्रामाणिक है। प्रेमी जी "नवें अध्याय के सातवें सूत्र में अनित्य, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम दिए हैं और भाष्य में कहा है-'एता द्वादशानुप्रेक्षाः।' ये बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं। १७२. क- अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्धी अणुण्णवित्ता वि। एदावंतियउग्गहजायणमध उग्गहाणुस्स॥ १२०२॥ वज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु। उग्गहजायणमणुवीचिए तहा भावणा तइए॥ १२०३॥ भगवती-आराधना। ख-"अस्तेयस्यानुवीच्यवग्रहयाचनमभीक्ष्णावग्रहयाचनमेतावदित्यवग्रहावधारणं समानधार्मि केभ्योऽवग्रहयाचनमनुज्ञापितपानभोजनमिति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ७/३/ पृ.३२०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२५ परन्तु डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने मुझे बतलाया है कि उपलब्ध आगमों में कहीं भी पूरी बारह अनुप्रेक्षाएँ नहीं मिलतीं। कहीं चार हैं, कहीं दो हैं, कहीं एक, जब कि भगवती-आराधना में (गाथा १७१५-१८७१) इन्हीं बारह भावनाओं का खूब विस्तार के साथ वर्णन है। इससे भी उमास्वाति और भगवती-आराधना के कर्ता एक ही परम्परा के मालूम होते हैं। कम से कम उमास्वाति उस परम्परा के नहीं जान पड़ते, जो इस समय उपलब्ध आगमों की अनुयायिनी है। मूलाचार में भी आठवें परिच्छेद में द्वादशानुप्रेक्षाओं का विस्तृत वर्णन है और वह भी आराधना की परम्परा का ग्रन्थ है।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./ पृ. ५३५-५३६)। निराकरण पहले सिद्ध किया जा चुका है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बर-परम्परा का है। इसलिए उसमें और तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित द्वादशानुप्रेक्षाओं में जो साम्य है, उससे तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है, यापनीयपरम्परा का नहीं। मूलाचार भी दिगम्बराचार्यकृत ही है, यह पूर्व में प्रमाणित किया जा चुका है। प्रेमी जी "तीसरे अध्याय के 'आर्या म्लेच्छाश्च' सूत्र के भाष्य में अन्तरद्वीपों के नाम वहाँ के मनुष्यों के नाम से पड़े हुए बतलाये हैं, जैसे एकोरुकों का (एक टाँगवालों का) एकोरुकद्वीप आदि। परन्तु इसके विरुद्ध भाष्य-वृत्तिकर्ता सिद्धसेन कहते हैं कि उक्त द्वीपों के नाम से वहाँ के मनुष्यों के नाम पड़े हैं, जैसे एकोरुकद्वीप के रहने वाले एकोरुक मनुष्य। वास्तव में वे मनुष्य सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों से पूर्ण सुन्दर मनोहर हैं। अर्थात् इस विषय में भाष्य और वृत्तिकार की मान्यता में भेद है। परन्तु यापनीयों की विजयोदया टीका में भाष्य के ही मत का प्रतिपादन किया गया है और यह भी भाष्यकार के यापनीय होने का प्रमाण है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३६)। निराकरण विजयोदया टीका के कर्ता अपराजित सूरि यापनीय नहीं, दिगम्बर हैं, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। उनके मत में और भाष्यकार के मत में उपर्युक्त प्रकार से समानता है, इससे यही सिद्ध होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ आचार्य ऐसे थे, जिनका उक्त द्वीपों के नामकरण के विषय में एक जैसा मत था। इसके अतिरिक्त पूर्व में सप्रमाण दर्शाया गया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना द्वितीय शताब्दी ई० में हुई थी, जब कि यापनीयसंघ का उदय ईसा की पाँचवीं शताब्दी For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०७ के प्रारंभ में हुआ था। काल की यह पूर्वापरता दर्शाती है कि तत्त्वार्थसूत्रकार यापनीय हो ही नहीं सकते। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृध्रपिच्छाचार्य दिगम्बरपरम्परा के ही आचार्य हैं, वे न तो श्वेताम्बर हैं, न यापनीय। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता उमास्वाति श्वेताम्बर हैं। वे यापनीय भी हो सकते हैं। उपसंहार तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ : प्रमाण सूत्ररूप में १. तत्त्वार्थ के सूत्र सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति के विरोधी हैं, जब कि भाष्य इनका प्रतिपादक है। अतः सूत्रकार और भाष्यकार परस्पर भिन्न सम्प्रदायों के हैं। सूत्रकार दिगम्बर हैं, भाष्यकार श्वेताम्बर, इसलिए भाष्यकार के श्वेताम्बर होने से सूत्रकार श्वेताम्बर सिद्ध नहीं होते। २. सूत्र और भाष्य में परस्पर विसंगतियाँ हैं, इससे भी सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। ३. तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में न तो भाष्यसम्मत तत्त्वनिरूपण मिलता है, न भाष्यगत दिगम्बरमत-विरोधी सिद्धान्तों का निरसन है, न भाष्य के अंत में निबद्ध बत्तीस श्लोक ग्रहण किये गये हैं। इसके विपरीत भाष्य में सर्वार्थसिद्धिसम्मत तत्त्वनिरूपण है तथा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्र उद्धृत किया गया है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अर्वाचीन है तथा अर्थविस्तार भी सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक है। इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना पहले हुई थी और भाष्य की उसके बाद। इस प्रकार सूत्रकार और भाष्यकार में कालभेद होने से वे भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। अतः भाष्यकार के श्वेताम्बर होने से सूत्रकार श्वेताम्बर सिद्ध नहीं होते। __४. श्वेताम्बराचार्य रत्नसिंह सूरि ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर टिप्पण लिखे हैं। उनमें भाष्यमान्य सूत्रपाठ की अपेक्षा कुछ अधिक सूत्रों का उल्लेख है, जो दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ से मिलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थभाष्य लिखे जाने से पूर्व तत्त्वार्थसूत्र का एक ऐसा पाठ उपस्थित था, जिसकी दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ से संगति थी। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार में कालभेद और उससे उनका भिन्न-भिन्न व्यक्ति होना सिद्ध होता है। ५. भाष्य के पूर्व भी श्वेताम्बराचार्यों द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ लिखी गई थीं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि से पहले भी दिगम्बराचार्यों द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर टीका Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१६/प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२७ लिखे जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार में कालभेद और उसके द्वारा उनका व्यक्तिभेद साबित होता है। ६. 'तत्त्वार्थ' में कोई भी सूत्र दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध नहीं है, जब कि श्वेताम्बरपरम्परा के विरुद्ध अनेक सूत्र हैं। ७. 'तत्त्वार्थ' के सूत्रों की रचना षट्खण्डागम, समयसार, पंचास्तिकाय, नियमसार प्रवचनसार, मूलाचार आदि दिगम्बरग्रन्थों के आधार पर हुई है। ८. तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता दिगम्बर गृध्रपिच्छाचार्य हैं और भाष्य के कर्ता श्वेताम्बर उमास्वाति। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, श्वेताम्बरपरम्परा का नहीं। उसमें यापनीयों को मान्य सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि के विरोधी सूत्र हैं तथा उसकी रचना यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति (पंचम शती ई० के आरंभ) से पूर्व (द्वितीय शती ई० में) हुई थी, इससे सिद्ध होता है कि वह यापनीयमत का भी ग्रन्थ नहीं और उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय नाम का कोई सम्प्रदाय ही नहीं था, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र का उक्त सम्प्रदाय का ग्रन्थ होना सर्वथा असंभव है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय तिलोयपण्णत्ती प्रथम प्रकरण तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण क रचनाकाल : ईसा की द्वितीय शती का उत्तरार्ध 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय के प्रथम प्रकरण में तिलोयपण्णत्ती के रचनाकाल का निर्धारण किया गया है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उसके कर्ता आचार्य यतिवृषभ का समय ईसा की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित होता है। आचार्य यतिवृषभ के सम्प्रदाय पर प्रकाश डालते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"जहाँ तक चूर्णिसूत्रकार आचार्य यतिवृषभ के आम्नाय का सम्बन्ध है, उसमें न तो कोई मतभेद है और न उसके लिए कोई स्थान ही है, क्योंकि उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ती) में दी गई आचार्यपरम्परा से ही यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर आम्नाय के आचार्य थे।" (क.पा./भा.१ / प्रस्ता./ पृ.६४)। यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु किन्तु जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के मान्य लेखक डॉ. सागरमल जी जैन ने तिलोयपण्णत्ती के विषय में भी एक नयी उद्भावना की है। वे अपने उक्त ग्रन्थ में लिखते हैं कि तिलोयपण्णत्ती दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यापनीयपरम्परा का है। इसके समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. कसायपाहुडचूर्णि प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है और विषयवस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धमागधी आगमों और आगमिक व्याख्याओं के निकट है तथा शौरसेनी में Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ रचित है, अतः यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, फलस्वरूप उसके लेखक यतिवृषभ भी यापनीय हैं। (पृ. १११) । २. भाष्य और चूर्णि लिखने की परम्परा श्वेताम्बरों में ही रही है, दिगम्बरों में न तो कोई भाष्य लिखा गया और न कोई चूर्णि ही । श्वेताम्बरों और यापनीयों में आगमिक ज्ञान का पर्याप्त आदान-प्रदान रहा है । अतः यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीयपरम्परा के ही होंगे। (पृ. ११४) । ३. यदि यतिवृषभ, आर्यमंक्षु और नागहस्ती के परम्परा - शिष्य भी हों, तो भी वे बोटिक (यापनीय) ही होंगे, क्योंकि उत्तरभारतीय-अविभक्त-निर्ग्रन्थ-‍ - परम्परा के आर्यमक्षु और नागहस्ती का सम्बन्ध बोटिकों (यापनीयों) से ही हो सकता है, मूलसंघीय दक्षिणभारतीय कुन्दकुन्द की दिगम्बरपरम्परा से नहीं । (पृ. ११४) । ४. यापनीय शिवार्य ने भगवती - आराधना में सर्वगुप्तगणी का अपने गुरु के रूप में उल्लेख किया है । यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ती में सर्वनन्दी को उद्धृत किया है । संभवतः ये दोनों एक ही व्यक्ति हों। इससे यही संभावना लगती है कि यापनीय शिवार्य के गुरु होने से सर्वनन्दी यापनीय थे, अतः उन्हें उद्धृत करनेवाले यतिवृषभ भी यापनीय होंगे। (पृ. ११४)। ५. यतिवृषभ के नाम के आदि में जो यति विरुद है, वह उनके यापनीय होने की सूचना देता है, क्योंकि नाम के पूर्व 'यति' शब्द के प्रयोग की प्रथा श्वेताम्बरों और यापनीयों में ही प्रचलित रही है, जैसे यतिग्रामाग्रणी शाकटायन। (पृ. ११४)। ६. " यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में न तो स्त्रीमुक्ति का निषेध है और न केवलिभुक्ति का । अतः उन्हें यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती।" (पृ. ११५) । ७. भगवती - आराधना की 'अहिमारएण णिवदिम्मि' गाथा (२०६९) में कहा गया है कि उपसर्ग आने पर गणी ने शस्त्र मारकर आत्महत्या कर ली। अपराजित सूरि ने 'गणी' शब्द का अर्थ यतिवृषभ किया है । और शिवार्य तथा अपराजित यापनीय थे। अतः संभावना है कि उनके द्वारा उल्लिखित यतिवृषभ भी यापनीय रहे होंगे । (पृ. ११५) । ८. उपर्युक्त उल्लेखानुसार यतिवृषभ की मृत्यु उत्तरभारत के श्रावस्ती नगर में हुई थी। उत्तरभारत बोटिकों या यापनीयों का केन्द्र था । अतः यतिवृषभ यापनीय आचार्य थे। (पृ. ११५) । ९. तिलोयपण्णत्ती में आगमों के विच्छेद का जो क्रम दिया है, वह यापनीयपरम्परा के विरुद्ध है, उसे प्रक्षिप्त मानना होगा । (पृ. ११५ - ११६, १२०) । For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४३३ . ग सभी हेतु असत्य ये सभी हेतु यतिवृषभ को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये हैं, और ऐसा करके यह निष्कर्ष निकालने की चेष्टा की गई है कि चूँकि यतिवृषभ यापनीय हैं, इसलिए उनके द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। किन्तु तिलोयपण्णत्ती में से एक भी उदाहरण ऐसा नहीं दिया गया है, जिससे यह सिद्ध हो कि उसमें यापनीय मान्यताओं का प्रतिपादन है, बल्कि यापनीयपक्षधर विद्वान् इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत हैं कि ग्रन्थ में यापनीय-मान्यताओं के विरुद्ध कथन हैं। इसलिए उन्होंने उन्हें बिना किसी प्रमाण के प्रक्षिप्त मान लिया है और अपनी इच्छानुसार तिलोयपण्णत्ती को यापनीयमत का ग्रन्थ घोषित कर दिया। ये सभी हेतु असत्य हैं, क्योंकि ग्रन्थ में उपलब्ध यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त इसे दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करते हैं। इसके अतिरिक्त ये सभी हेतु कल्पित मतों और शब्दों में कल्पित अर्थारोपण द्वारा परिकल्पित किये गये हैं। इसलिए ये स्वरूपतः भी असत्य यहाँ सर्वप्रथम तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा रहा है। उनके साक्षात्कार से प्रथमदृष्टि में ही स्पष्ट हो जायेगा कि उपर्युक्त हेतु असत्य हैं। उसके बाद वे जिन कल्पित मतों और शब्दों में कल्पित अर्थारोपण द्वारा परिकल्पित किये गये हैं, उनका स्पष्टीकरण किया जायेगा। तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त सवस्त्रमुक्तिनिषेध तिलोयपण्णत्ती में कहा गया है कि देशव्रती श्रावक और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-शीलादि से परिपूर्ण स्त्रियाँ सौधर्मस्वर्ग से लेकर अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग तक उत्पन्न होती हैं तथा जिनलिंगधारी अभव्य मुनि उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त एवं निर्ग्रन्थ भव्य साधु सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जन्म लेते हैं। यथा सोहम्मादी-अच्चुदपरियंतं जंति देसवदजुत्ता। चउविहदाणपयट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता॥ ८/५८१॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ इस गाथा में देशव्रती श्रावकों के सौधर्मस्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जाने का कथन है। सम्मत्त-णाण-अजव-लज्जा-सीलादिएहि परिपुण्णा। जायंते इत्थीओ जा अच्चुद-कप्प-परियंतं॥ ८/५८२॥ इसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आर्जव, लज्जा और शीलादिगुणों से परिपूर्ण स्त्रियों की अच्युत स्वर्ग तक उत्पत्ति बतलायी गयी है। जिणलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा। ते जायंति अभव्वा उवरिम-गेवेज-परियंतं॥ ८/५८३॥ इस गाथा में कहा गया है कि जिनलिंगधारी अभव्य मुनि उपरिम अवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं। परदो अच्चण-वद-तव-दंसण-णाण-चरण-संपण्णा। . णिग्गंथा जायते भव्वा सव्वट्ठसिद्धिपरियंत॥ ८/५८४॥ यह गाथा बतलाती है कि निर्ग्रन्थ भव्य मुनि सर्वार्थसिद्धि तक के देव बन सकते हैं। इन गाथाओं से तिलोयपण्णत्ती का यह मत स्पष्ट हो जाता है कि चूँकि श्रावक और स्त्रियाँ सवस्त्र होते हैं, अतः अपने उत्कृष्ट धर्माचरण से भी वे अधिक से अधिक अच्युत स्वर्ग तक के देव का पद प्राप्त कर सकते हैं, उससे ऊपर नहीं जा सकते। किन्तु जिनलिंगधारी मुनि निर्वस्त्र होते हैं, इसलिए वे सर्वार्थसिद्धि तक के देव बन सकते हैं और अपने चरमभव में उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इस तरह सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती में एकमात्र जिनलिंग या निर्ग्रन्थ-लिंग को ही मोक्ष का साधक माना गया है, सवस्त्रलिंग को स्थविरकल्प या आपवादिकलिंग के रूप में भी मुक्ति का मार्ग स्वीकार नहीं किया गया है। मूलगुण सवस्त्रमुक्ति के विरोधी-तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथा में मूलगुण और उत्तरगुण के धारी मुनियों को ही महाऋद्धिधारी देवों की आयु का बन्धक बतलाया गया है उत्तरमूलगुणेसुं समिदिसुवदे सज्झाणजोगेसुं। णिच्चं पमादरहिदां धंति महद्धिग-सुराउं॥ ८/५७५॥ मुनियों के मूलगुण २८ होते हैं, जिनमें आचेलक्य (नग्नत्व) पहला मूलगुण है। मूल का अर्थ है आधार या बुनियाद। अतः 'मूल' शब्द यह द्योतित करता है Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४३५ कि नग्नत्व मोक्ष साधना की आधारशिला है। उसके होने पर ही उत्तरगुणों का विकास संभव है। उसके अभाव में मोक्ष के लिए आवश्यक त्रिगुप्ति, दशधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, तप, ध्यान आदि उत्तरगुणों का विकास नहीं हो सकता। इस तरह २८ गुणों के साथ 'मूल' विशेषण लगाया जाना सवस्त्रमुक्ति का निषेध सूचित करता है। मुनि के मूलगुणों की किञ्चित् झलक तिलोयपण्णत्ती की निम्न गाथाओं में प्रस्तुत की गई है। कल्की का मन्त्री दिगम्बर मुनि का स्वरूप बतलाते हुए कहता सचिवा चवंति सामिय सयल-अहिंसावदाण आधारो। संतो विमोक्कसंगो तणुट्ठाण-कारणेण मुणी॥ ४/१५४५॥ परघरदुवारएसुं मज्झण्हे कायदरिसणं किच्चा। पासुयमसणं भुंजदि पाणिपुडे विग्धपरिहीणं॥ ४/१५४६॥ अनुवाद-"मंत्री कल्कि से कहता है-स्वामी! वह मुनि सम्पूर्ण अहिंसाव्रतों का धारी है, समस्त परिग्रह से मुक्त है, शरीर की स्थिति के लिए वह दूसरों के घर के द्वार पर जाता है और शरीर को दिखाकर, मध्याह्नकाल में पाणिपात्र में अन्तरायरहित प्रासुक आहार ग्रहण करता है।" सम्पूर्ण तिलोयपण्णत्ती में मुनि के इस निर्ग्रन्थ, जिनलिंग का और कोई विकल्प अर्थात् वस्त्रपात्रसहित लिंग कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। यह तिलोयपण्णत्ती में सवस्त्रमुक्तिनिषेध का प्रबल प्रमाण है। मूलगुणों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार (३/८-९) में है। तिलोयपण्णत्तिकार ने उसी के आधार पर उनका कथन किया है। इससे प्रकट होता है कि वे कुन्दकुन्द की परम्परा के अनुगामी हैं। २ स्त्रीमुक्तिनिषेध पूर्व में तिलोयपण्णत्ती की 'सम्मत्त-णाण-अज्जव' इत्यादि गाथा (८/५८२) उद्धृत की गयी है। उसमें बतलाया गया है कि सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा तथा शीलादिगुणों से परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत स्वर्ग तक देवरूप में जन्म लेती हैं। इसके बाद की पूर्वोद्धृत गाथाओं में यह भी बतलाया गया है कि अच्युत स्वर्ग से ऊपर के स्वर्गों में जिनलिंगधारी (नग्न) मुनि ही देवरूप में उत्पन्न हो सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों में अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने की योग्यता नहीं होती। यह स्त्रीमुक्ति के निषेध का प्रमाण है। For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७/प्र०१ २.१. स्त्रियाँ पूर्वधर नहीं होती तिलोयपण्णत्ती के अष्टम महाधिकार में निम्नलिखित गाथा कही गयी है दसपुव्वधरा सोहम्मपहुदि सव्वदृसिद्धिपरियंत। चोद्दसपुव्वधरा तह लंतवकप्पादि वच्चंते॥ ८/५८०॥ इस गाथा में कहा गया है कि दसपूर्वधारी जीव सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त जाते हैं तथा चौदहपूर्वधारियों का गमन लान्तव कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त होता है। और यह पूर्वोद्धृत गाथा (८/५८२) में कहा जा चुका है कि स्त्रियाँ अच्युत स्वर्ग से ऊपर नहीं जातीं। इससे यह फलित होता है कि तिलोय-पण्णत्तिकार के अनुसार स्त्रियाँ पूर्वविद् नहीं हो सकती और पूर्वविद् न होने से आदि के दो शुक्लध्यान भी उन्हें नहीं हो सकते, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-"शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।" (९/३७)। अतः उनकी मुक्ति संभव नहीं है। यद्यपि श्वेताम्बर-मान्य तत्त्वार्थसूत्र में भी 'शुक्ले चाद्ये' (९/३९) सूत्र है और वे यह भी मानते हैं कि शारीरिक स्थिति के कारण स्त्रियों कि लिए द्वादशांग आगम के अध्ययन का निषेध किया गया है, तथापि वे इसकी यह व्याख्या करते हैं कि उनके लिए द्वादशांग आगम के अध्ययन का निषेध शब्दरूप से किया गया है, अर्थरूप से नहीं। शब्दरूप से उसका अध्ययन न करने पर भी जब वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होती हैं तब श्रुतज्ञानावरणकर्म का विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है, जिससे उनमें द्वादशांग आगम की अर्थरूप से अभिव्यक्ति हो जाती है और उससे शुक्लध्यान संभव होता है। किन्तु तिलोयपण्णत्तिकार ने स्त्रियों के अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने का सर्वथा निषेध किया है, जो मुक्ति का भी निषेध है। इससे स्पष्ट है कि उन्हें स्त्रियों का भावपूर्वविद् होना भी मान्य नहीं है। यह श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता के विरुद्ध है। यह भी तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक सबूत है। २.२. मल्लिनाथ के साथ कोई स्त्रीदीक्षा नहीं श्वेताम्बरीय आगम ज्ञातृधर्मकथांग में मल्लिनाथ को स्त्रीरूप में वर्णित किया गया है और कहा गया है कि जब उन्होंने दीक्षा ग्रहण की, तब उनके साथ उनकी आभ्यन्तरपरिषद् की तीन सौ स्त्रियाँ और बाह्यपरिषद् के तीन सौ पुरुष भी दीक्षित १. "कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः? तथाविधविग्रहे ततो दोषात्। श्रेणीपरिणतौ तु कालगर्भवद् भावतो भावोऽविरुद्ध एव।" ललितविस्तरा/ हरिभद्रसूरि/ स्त्रीमुक्ति गा.३/पृ. ४०६। For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४३७ हुए। देखिए "मल्ली णं अरहा---तिहिं इत्थीसएहिं अब्भिंतरियाए परिसाए, तिहिं पुरिससयेहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पव्वइए।" (अध्ययन ८/मल्ली/ पृ.२७७)। किन्तु तिलोयपण्णत्ती में मल्लिनाथ का वर्णन पुरुष के रूप में है और उनके साथ एक भी स्त्री के दीक्षित होने का कथन नहीं है, केवल तीन सौ राजकुमारों के दीक्षा लेने की बात कही गई है। यथा पव्वजिदो मल्लिजिणो रायकुमारेहि ति-सय-मेत्तेहिं। पासजिणो वि तह च्चिय एक्को च्चिय वड्डमाणजिणो॥ ४/६७५॥ इसी प्रकार ज्ञातृधर्मकथांग में कहा गया है कि मल्ली अरहंत के साथ आभ्यन्तरपरिषद् की पाँच सौ आर्यिकाएँ और बाह्यपरिषद् के पाँच सौ साधु सिद्ध हुए हैं। यथा "मल्ली ण---पंचहिं अजियाँ-सएहिं अब्भिंतरियाए परिसाए, पंचहिं अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए---सिद्धे।" (अध्ययन ८/मल्ली/ पृ. २८०)। किन्तु तिलोयपण्णत्ती में मल्लिनाथ के साथ एक भी स्त्री के मुक्त होने का कथन नहीं है, केवल पाँच सौ मुनियों के मोक्ष को प्राप्त होने का उल्लेख है। यथा पंचमिपदोससमए फग्गुणबहुलम्मि भरणिणक्खत्ते। : सम्मेदे मल्लिजिणो पंच-सय-समं गदो मोक्खं॥ ४/१२१४॥ यह तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति की अस्वीकृति का एक अन्य ज्वलन्त प्रमाण है। २.३. समस्त तीर्थंकरों के तीर्थ में केवल मुनियों को ही मोक्षप्राप्ति तिलोयपण्णत्ती (४/११७७-९१) में आर्यिकाओं के लिए विरती शब्द का प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग उपचारात्मक है, क्योंकि उनके महाव्रत भी उपचारात्मक ही होते हैं। इसका स्पष्टीकरण मूलाचार के अध्याय में किया जा चुका है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में आर्यिकाओं की संख्या लाखों में थी। कुल मिलाकर उनकी संख्या पचास लाख, छप्पन हजार, दो सौ पचास (५०,५६,२५०) बतलायी गई है। किन्तु मोक्षप्राप्त करने वालों में केवल २. "मल्लिजिणो---संजादो।" तिलोयपण्णत्ती ४/५५१ । ३. देखिए, अध्याय १५/प्रकरण २/ शीर्षक १। ४. तिलोयपण्णत्ती ४/११७७-८८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ मुनियों का ही उल्लेख है। एक भी आर्यिका या विरती के मुक्तिगमन. का कथन नहीं है। स्वयं मल्लिनाथ तीर्थंकर के काल में भी केवल २८,८०० यतियों को मोक्षप्राप्ति बतलायी गयी है, मोक्ष प्राप्त करनेवालों में आर्यिकाओं का नामोनिशाँ भी नहीं है। तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति की अस्वीकृति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? २.४. मल्लिनाथ का अवतार अपराजित स्वर्ग से, जयन्त से नहीं श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथांग में कहा गया है कि मल्लितीर्थंकरी जयन्त नामक अनुत्तर स्वर्ग से अवतरित होकर मिथिला की रानी प्रभादेवी के गर्भ में आयी थीं, जब कि तिलोयपण्णत्ती के अनुसार मल्लितीर्थंकर का अवतार अपराजित नामक अनुत्तर स्वर्ग से हुआ था। यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे। अतः तिलोयपण्णत्ती का मत यापनीयमत के विरुद्ध है। इससे भी सिद्ध होता है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है। २.५. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर का उल्लेख नहीं श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार वर्तमान हुण्डावसर्पिणीकाल में निम्नलिखित दस आश्चर्यजनक घटनाएँ घटी हैं-१.तीर्थंकरों पर उपसर्ग, २. भगवान् महावीर का गर्भापहरण, ३.स्त्री को तीर्थंकरत्व की प्राप्ति, ४. अभावित परिषत् : भगवान् महावीर के प्रथम उपदेश की विफलता। उसे सुनकर किसी ने चारित्र अंगीकार नहीं किया, ५. कृष्ण का अमरकंका नगरी में गमन, ६. चन्द्र और सूर्य देवों का विमानसहित पृथ्वी पर अवतरण, ७. हरिवंशकुल की उत्पत्ति, ८.चमर का उत्पात : चमरेन्द्र का सौधर्मकल्प में गमन, ९.एक समय में एक साथ एक सौ आठ जीवों को सिद्धत्व की प्राप्ति, और १०.असंयमी की पूजा। इन दस आश्चर्यजनक घटनाओं में मल्लीकुमारी स्त्री का तीर्थंकरपद प्राप्त करना भी एक आश्चर्यजनक घटना बतलाई गई है। किन्तु , तिलोयण्पण्णत्ती में हुण्डावसर्पिणीकाल के लक्षणों का वर्णन इस प्रकार किया गया है ५. तिलोयपण्णत्ती ४/१२२९-४० । ६."तए णं ये महब्बले देवे---जयंताओ विमाणाओ बत्तीससागरोवमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीपे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावईए , देवीए कुच्छिंसि ---गब्भत्ताए वक्कंते।" ज्ञाताधर्मकथा /अध्ययन ८, मल्ली/अनुच्छेद २४/ पृष्ठ २२२ । ७. अपराजियाभिहाणा अर-णमि-मल्लीओ णेमिणाहो य। सुमई जयंत-ठाणा आरण-जुगला य सुविहि सयिलया॥ ४ / ५३०॥ तिलोयपण्णत्ती। ८. स्थानांगसूत्र १०/१६०/संग्रहणी गाथा १-२/तथा प्रवचनसारोद्धार / गा.८८५-८९। For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती / ४३९ अ० १७ / प्र० १ १. सुषमदुःषम (तृतीयकाल) की स्थिति में कुछ काल शेष रहने पर भी वर्षा आदि होने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति शुरू हो जाती है। २. इस तृतीयकाल में ही कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का प्रारंभ हो जाता है। प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। ३. चक्रवर्ती का विजयभंग और तृतीयकाल में ही थोड़े से जीवों का मोक्षगमन होता है तथा चक्रवर्ती के द्वारा ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति की जाती है। ४. दुःषमसुषम (चतुर्थकाल) में केवल ५८ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं और नौवें से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति हो जाती है । ५. ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर पर उपसर्ग भी होता है। ६. तृतीय, चतुर्थ एवं पंचमकाल में उत्तमधर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं, चाण्डाल, शबर आदि जातियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। दुःषमकाल में ४२ कल्की और उपकल्की भी होते हैं । ७. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि, वज्राग्नि का पतन आदि दोष भी हुआ करते हैं। इनमें गर्भापहरण और स्त्री के तीर्थंकर होने आदि की घटनाओं का वर्णन नहीं है, जब कि ये श्वेताम्बरसाहित्य में वर्णित हैं और यापनीयों को भी मान्य हैं। यदि तिलोयपण्णत्ती श्वेताम्बरीय या यापनीय ग्रन्थ होता, तो उसमें इन घटनाओं का वर्णन छूट नहीं सकता था । ये घटनाएँ तो इन दोनों परम्पराओं की आत्मा हैं । इन घटनाओं का अनुल्लेख इस बात का प्रमाण है कि तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं की गई है। यह तिलोयपण्णत्ति के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का पक्का सबूत है। गृहस्थमुक्तिनिषेध श्वेताम्बर और यापनीय दोनों सम्प्रदायों में गृहस्थलिंग से भी मुक्ति अर्थात् गृहस्थ की भी मुक्ति मानी गयी है । हरिभद्रसूरि गृहिलिंग से मुक्ति का उदाहरण देते हुए कहते हैं—“गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः १० अर्थात् मरुदेवी आदि गृहस्थलिंग से सिद्ध हुए हैं। ९. तिलोयपण्णत्ती ४ / १६३७-४५ । १०. ललितविस्तरा / गा.२ / पृ. ३९९ । For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ किन्तु तिलोयपण्णत्ती कहती है कि चतुर्विध दान देनेवाले, कषायरहित और पंचपरमेष्ठी की भक्ति से युक्त देशव्रतधारी श्रावक सौधर्म से लेकर अच्युत ( सोलहवें) स्वर्ग तक के ही देवों की पर्याय प्राप्त कर पाते हैं। उससे ऊपर निर्ग्रन्थ मुनियों का ही गमन होता है। इससे सम्बन्धित गाथाएँ पूर्व में सवस्त्रमुक्तिनिषेध शीर्षक १ के अन्तर्गत उद्धृत की जा चुकी हैं। इससे स्पष्ट है कि तिलोयपण्णत्ती गृहिलिंग से मुक्ति की मान्यता को अमान्य करती है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता है । यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीयग्रन्थ होने के अनेक प्रमाणों में से एक प्रमाण है। ४ अन्यलिंगिमुक्तिनिषेध यापनीय और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ जैनेतर लिंग से भी मुक्ति स्वीकार करती हैं । हरिभद्रसूरि ने इसके समर्थन में परिव्राजकों का उदाहरण दिया है - " अन्यलिङ्गसिद्धाः परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धाः । १० अर्थात् परिव्राजक आदि साधुओं के लिंग से सिद्ध होनेवाले अन्यलिंग से सिद्ध हैं । किन्तु तिलोयपण्णत्ती में कहा गया हैचरया परिवज्जधरा मंदकसाया कमसो भावणपहुदी जम्मंते पियंवदा केई । अनुवाद - " मन्दकषायी और प्रियभाषी कितने ही चरक और परिव्राजकं साधु क्रमशः भवनवासी देवों से लेकर ब्रह्मकल्प तक के देवों में जन्म लेते हैं।" तणुदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा । कमसो भावणपहुदी केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥ ८/५८७ ॥ बम्हकप्पंतं ॥ ८/५८५ ॥ अनुवाद – " जो कायक्लेशादि तप करनेवाले, अमन्दक्रोधयुक्त आजीवक आदि साधु हैं, वे भवनवासियों से लेकर अच्युतस्वर्ग तक के देव बनते हैं । " अच्युतस्वर्ग से ऊपर केवल जिनलिंगधारी साधु ही जा सकते हैं, यह प्रतिपादित करनेवाली गाथाएँ (८/५८३-८४) पूर्व में उद्धृत की जा चुकी हैं। इस तरह तिलोयपण्णत्ती में अन्यलिंग से भी मुक्ति का निषेध किया गया है, जो श्वेताम्बर और यापनीय मान्यताओं का निषेध है। तब यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता । केवलिभुक्तिनिषेध तिलोयपण्णत्ती में केवलीभुक्ति का भी स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४४१ अर्थागम के कर्ता भगवान् महावीर के गुणों का वर्णन करते हुए यतिवृषभाचार्य ने कहा है चउविह-उवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुह-पहुदि-परिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेहिं॥ १/५९॥ एदेहिं अण्णेहिं विरचिद-चरणारविंद-जुगपूजो। दिट्ठ-सयलट्ठ-सारो महवीरो अस्थ-कत्तारो॥ १/६४॥ अनुवाद-"जो देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत और अचेतनकृत, इन चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से शून्य हैं, क्षुधादि बाईस परीषहों एवं रागद्वेष से रहित हैं, देवादि तथा अन्यों के द्वारा जिनके चरणकमल पूजित हैं और जिन्होंने समस्त पदार्थों के सार का उपदेश किया है, वे भगवान् महावीर अर्थागम के कर्ता यहाँ भगवान् महावीर को स्पष्ट शब्दों में क्षुधा आदि बाईस परीषहों से रहित कहा गया है। केवलिभुक्ति का इससे अधिक खुला निषेध और किन शब्दों में हो सकता है? इसके बाबजूद प्रतिपक्षी विद्वान् ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए हेत्वाभासों का विशाल मायाजाल खड़ा कर दिया है। केवलिभुक्तिनिषेध के प्रतिपादक अन्य उल्लेख भी ग्रन्थ में हैं। केवलज्ञानजन्य ग्यारह अतिशयों के वर्णन-प्रसंग में ग्रन्थकार यतिवृषभ कहते हैं जोयणसदमजादं सुभिक्खदा चउदिसासु णियठाणा। __णहयल-गमणमहिंसा भोयण-उवसग्ग-परिहीणा॥ ४/९०८॥ अनुवाद-"केवलज्ञान होने पर जहाँ तीर्थंकर विराजमान होते हैं, वहाँ से सौ योजन दूर तक सुभिक्ष हो जाता है, उनका आकाश गमन होने लगता है, अहिंसामय वातावरण निर्मित हो जाता है और भगवान् भोजन तथा उपसर्गों से रहित हो जाते इतना ही नहीं, ग्रन्थकार का कथन है कि जिनेन्द्रदेव के माहात्म्य से समवसरण में आये जीवों को भी भूख-प्यास आदि की पीड़ा नहीं होती आतंक-रोग-मरणुप्पत्तीओ वेर-काम-बाधाओ। तण्हा-छुह-पीडाओ जिण-माहप्पेण ण वि होंति॥ ४/९४२॥ इस तरह केवलिभुक्ति का निषेध भी तिलोयपण्णत्ती की वह विशेषता है, जो उसे दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ प्रमाणित करती है। For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ आचार्यपरम्परा दिगम्बरमतानुसार .. तिलोयपण्णत्ती में भगवान् महावीर के बाद की जो आचार्यपरम्परा दी गई है, वह दिगम्बरमत के अनुसार है। देखिए केवली - गौतम, लोहार्य (सुधर्म) और जम्बू। (४/१४८८-८९)। श्रुतकेवली - नन्दी (विष्णु), नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु। (४/१४९४-९५)। दशपूर्वी - विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गङ्गदेव और सुधर्म। (४/१४९७-९८)। एकादशांगधारी- नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस। (४/१५००)। आचारांगधारी - सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य। (४/१५०२)। यही आचार्यपरम्परा वीरसेन स्वामी ने धवला में भी बतलायी है। (ष.खं./पु.१/ १,१,१/पृ.६६-६७) जिनसेनकृत हरिवंशपुराण में भी इसी का उल्लेख है। (१/६०६५)। यापनीयों की किसी स्वतंत्र आचार्यपरम्परा का पता नहीं चलता। वे श्वेताम्बरआगमों को ही मानते थे। इसलिए श्वेताम्बर-आचार्यपरम्परा को ही यापनीयों की आचार्यपरम्परा मानना होगा। नन्दीसूत्र (गा.२५-५०) में तीर्थंकर महावीर के पश्चात् हुए आचार्यों का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है-सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, सम्भूतिविजय, भद्रबाहु (ये अन्तिम चौदहपूर्वधर थे), स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ति, बहुल, बलिस्सह, स्वाति, श्याम, शाण्डिल्य, समुद्र, मंगु, धर्म, भद्रगुप्त, आर्यरक्षित, नन्दिल, नागहस्ती, रेवतिनक्षत्र, सिंह, स्कन्दिल आदि। यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में नन्दीसूत्र की इस आचार्यपरम्परा को स्थान नहीं दिया है, जिसका अर्थ स्पष्ट है कि वे इस परम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं। अब विचारणीय है कि जिस ग्रन्थ में यापनीयों की आचार्यपरम्परा को मान्यता न दी गयी हो, उसे अमान्य किया गया हो, क्या वह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ हो सकता है? दिगम्बरआचार्यपरम्परा को मान्य किये जाने से सिद्ध है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। आश्चर्य तो यह है कि माननीय डॉक्टर सागरमल जी की दृष्टि से इतना बड़ा तथ्य ओझल कैसे हो गया? Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४४३ आगमों के विच्छेद का कथन तिलोयपण्णत्ती में यह कथन है कि उपर्युक्त दिगम्बर आचार्यों की परम्परा में आचार्यों के स्वर्गारोहण के साथ-साथ अंगों और पूर्वो का ज्ञान क्रमशः विच्छिन्न होता गयां और वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद सभी आचार्य सभी अंगों और पूर्वो के एकदेश के धारी हुए। यथा - जम्बूस्वामी अन्तिम अनुबद्ध केवली हुए (ति.प./४/१४८९)। उनके मोक्ष चले जाने पर क्रमशः नन्दी (विष्णु), नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु बारह अंगों के धारक होते हुए चौदहपूर्वी नाम से प्रसिद्ध हुए। अंत में भद्रबाहु के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का धारक श्रुतकेवली कोई नहीं रहा। (ति.प./४/१४९४९६)। उनके बाद विशाख आदि ग्यारह आचार्य दस पूर्वो के धारी हुए। इन सबके स्वर्गवासी हो जाने पर कोई दसपूर्वधारी नहीं हुआ। (ति.प./४/१४९७-९९)। किन्तु उनके बाद नक्षत्र आदि पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के धारी हुए। वे चौदह पूर्वो के एकदेश के भी धारी थे। उनके स्वर्गस्थ हो जाने पर फिर कोई ग्यारह अंगों का धारक नहीं रहा। (ति.प./४/ १५००-१)। तत्पश्चात् सुभद्र आदि चार आचार्य केवल आचारांग के धारक हुए। वे आचारांग के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के एकदेश के भी धारक थे। इनके स्वर्गगत हो जाने पर भरतक्षेत्र में आचारांग के पूर्ण ज्ञान का धारक कोई नहीं हुआ। (ति.प./४/१५०२-४)। तिलोयपण्णत्तिकार अन्त में कहते हैं कि इन आचार्यों के स्वर्गस्थ हो जाने के बाद (वीर नि० सं० ६८३ के पश्चात्) सभी अंगों और पूर्वो के एकदेश की ज्ञानाधारा क्रमशः क्षीण होती हुई पंचमकाल की शेष अवधि अर्थात् (२१०००-६८३) = २०,३१७ वर्ष पर्यन्त प्रवाहित होती रहेगी। तत्पश्चात् श्रुततीर्थ का सर्वथा व्युच्छेद हो जायेगा। (ति.प./४/१५०५)। श्रुत विच्छेद का ठीक इसी प्रकार का वर्णन वीरसेन स्वामी ने भी धवला और जयधवला में किया है।१ उपर्युक्त नाम के आचार्यों के क्रमशः स्वर्गगत होने पर अंगों और पूर्वो का ज्ञान उत्तरोत्तर विच्छिन्न होता गया, ऐसी मान्यता श्वेताम्बरपरम्परा में नहीं है। यापनीयपरम्परा ११. धवला/ ष. खं/पु.१ / पृ.६६-६८, जयधवला / क.पा./भा.१/ पृ.७७-८०। For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ के विषय में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि उस परम्परा का ऐसा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिससे इस विषय में कुछ पता चल सके। श्वेताम्बरपरम्परा को ही यापनीयपरम्परा मानकर चला जाय, तो सिद्ध है कि यापनीयपरम्परा में भी उपर्युक्त नाम के आचार्यों के स्वर्गस्थ होने के साथ-साथ अंगों और पूर्वो के उत्तरोत्तर विच्छेद होने की मान्यता का अभाव था। तब तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त प्रकार के श्रुतविच्छेद का उल्लेख होना निश्चितरूप से यापनीयपरम्परा के विरुद्ध है। अतः सिद्ध है कि यापनीयपरम्परा-विरोधी मान्यताओं का प्रतिपादक ग्रन्थ यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। डॉ० सागरमल जी भी मानते हैं कि आगमविच्छेद का उल्लेख यापनीयमत के विरुद्ध है। वे लिखते हैं-"यतिवृषभ को यापनीय मानने में एकमात्र बाधा यह है कि उनकी तिलोयपण्णत्ती में आगमों के विच्छेद का जो क्रम दिया है, वह यापनीयपरम्परा के अनुकूल नहीं है।" (जै.ध.या.स./११५)। किन्तु वे तिलोयपण्णत्ती को येन केन प्रकारेण यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने पर तुले हुए थे, इसलिए उन्होंने यह घोषित कर दिया कि उपर्युक्त उल्लेख प्रक्षिप्त है अथवा यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे। (जै.ध.या.सं./पृ.११६) उनके इस कथन की असत्यता के प्रमाण द्वितीय प्रकरण में प्रस्तुत किये जायेंगे। कल्पों की संख्या १२ और १६ दोनों मान्य तिलोयपण्णत्तिकार ने बतलाया है कि कल्पों की संख्या के विषय में आचार्यों के दो मत हैं। कोई आचार्य कल्पों की संख्या १२ बतलाते हैं और कोई १६। देखिए बारस कप्पा केई, केई सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणि कप्पातीदाणि पडलाणि॥ ८/११५॥ यतिवृषभ ने बारहकल्पों के भी नाम बतलाये हैं और सोलह कल्पों के भी। (ति.प./८/१२०, १२७-१२८)। यतः तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का निषेध किया गया है, इससे सिद्ध है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है और इसके कर्ता ने कल्पों की संख्या के विषय में दो मत बतलाये हैं और उनमें से किसी का भी अपनी तरफ से निषेध नहीं किया, इससे स्पष्ट होता है कि ये दोनों मत दिगम्बराचार्यों के हैं, अतः उसे दोनों स्वीकार्य हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी स्वीकार किया है कि "दिगम्बर सिंहनन्दी ने वरांगचरित में स्वर्गसंख्या १२ दी है, इसलिए दिगम्बर-सम्प्रदाय में इस संख्या का For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती / ४४५ अ० १७ / प्र० १ सर्वथा एकान्त नहीं है। १२ प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलालजी संघवी ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- "दिगम्बरपरम्परा के भी प्राचीन ग्रन्थों में बारह कल्पों का कथन है ।" १३ इस तरह तिलोयपण्णत्ती में दिगम्बरपरम्परानुसार कल्पों की संख्या १६ और १२ दोनों मानी गयी है, किन्तु श्वेताम्बर और यापनीय केवल १२ मानते हैं, इसलिए तिलोयपण्णत्ती की यह विशेषता उसे दिगम्बरग्रन्थ ही सिद्ध करती है। ९ नव अनुदिश मान्य अनुवाद - " तत्पश्चात् एक राजू की ऊँचाई में नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। ऊर्ध्वलोक में इस प्रकार का विभाग कहा गया है।" 44 गेवेज्ज णवाणुद्दिस पहुडीओ होंति एक्करज्जूवो । एवं उवरिमलो रज्जुविभागो समुद्दिट्ठो ॥ १ / १६२ ॥ तिलोयपण्णत्ती की इस गाथा में नौ अनुदिश नामक नौ स्वर्गों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता के विरुद्ध है। श्वेताम्बर मुनि उपाध्याय आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम - समन्वय (पृ. ११९) में लिखा है'आगमग्रन्थों ने नव अनुदिशों का अस्तित्व नहीं माना है ।" अतः यह भी तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक प्रमाण है । १० अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ मान्य श्वेताम्बर-वाड्मय में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ मान्य की गई है, १४ किन्तु तिलोयपण्णत्ती में दिगम्बरमतानुसार ९६ का उल्लेख है । यथा, निम्नलिखित गाथा में लवणसमुद्र में विद्यमान ४८ द्वीपों का वर्णन किया गया है दीवा लवणसमुद्दे अडदाल कुमाणुसाण चउवीसं । अब्भंतरम्मि भागे तेत्तियमेत्ता १२. ‘अनेकान्त' (मासिक) / वर्ष २/ किरण १० / १ अगस्त १९३९ / सम्पादकीय टिप्पणी / पृ. ५४५ १३. तत्त्वार्थसूत्र / विवेचनसहित / प्रस्तावना/४/२०/ पा.टि.४/पृ. १२० । प्रकाशित १४. परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास से ई० सन् १९९२ वर्तमान ‘सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' के अन्तर्गत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में ५६ अन्तरद्वीपों का बाहिरए ॥ ४ / २५१८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ अनुवाद - " लवणसमुद्र में अड़तालीस कुमानुषद्वीप हैं। इनमें से चौबीस अभ्यन्तर भाग में और इतने ही (२४) बाह्य भाग में हैं । " तिलोयपण्णत्ती की अधोलिखित गाथा में कालोदसमुद्रगत ४८ द्वीपों का कथन धादइसंडदिसासुं तेत्तियमेत्ता वि अंतरा दीवा । तेसुं तेत्तियमेत्ता कुमाणुसा होंति तण्णामा ॥ ४ / २५३० ॥ अनुवाद- -" धातकीखण्डद्वीप की दिशाओं (कालोदसमुद्र) में भी इतने (४८) ही अन्तरद्वीपों और उनमें रहनेवाले पूर्वोक्त नामों से युक्त कुमानुष हैं। " इसका स्पष्टीकरण मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने अधोलिखित वक्तव्य में किया है- " 'लवणसमुद्र में जम्बूद्वीप के तट पर चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में चार और अन्तर्दिशाओं में आठ तथा भरत और ऐरावत क्षेत्र - सम्बन्धी दोनों विजयार्ध पर्वतों के दोनों छोरों के समीप एक-एक एवं हिमवान् और शिखरी पर्वत के दोनों छोरों पर एक-एक, इस प्रकार कुल ( ४+४+८+४+४ = २४ अन्तद्वीप हैं। इसी प्रकार २४ - २४ अन्तद्वप लवणसमुद्र के दूसरे तट और कालोद समुद्र के उभय तटों पर हैं। इस प्रकार कुल ४८ + ४८ = ९६ कुभोगभूमियाँ हैं । इनमें कुमानुषं निवास करते हैं, इसलिए इन्हें कुभोगभूमि कहते हैं । " ( जैनतत्त्वविद्या / पृ. ८६) । श्वेताम्बरग्रन्थ बृहत्क्षेत्रसमास के लवणाब्धि - अधिकार का विवरण देते हुए माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- "इस अधिकार में अन्तरद्वीप छप्पन बतलाये हैं, जिनमें से अट्ठाईस द्वीप हिमालयपर्वतसम्बन्धी और २८ द्वीप शिखरीपर्वतसम्बन्धी हैं। इनके नाम क्रमशः एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, लाङ्गलिक आदि हैं। " (जै.सा.इ./भा.२/पृ.६५ ) । श्वेताम्बरसाहित्य में कालोदधि में ऐसे अन्तद्वीप नहीं माने गये हैं ।" (जै. सा. इ./भा./पृ.२/६६)। उल्लेख है- -" शिखरिणोऽप्येवमेवेत्यवं षट्पञ्चाशदिति । " (३/१५ / पृ. १७९) । किन्तु सिद्धसेनगणी के समय में (विक्रम की ७वीं शती के अन्तिम पाद से लेकर ८वीं शती के मध्यभाग तक उपलब्ध तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की प्रति में ९६ अन्तर द्वीपों का उल्लेख था । इस पर वृत्तिकार सिद्धसेन गणी ने रोष प्रकट करते हुए लिखा है कि यह कथन आर्षविरुद्ध है। जीवाभिगम आदि में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ ही बतलायी गयी है- " एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्षं चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३ / १५ / पृ.२६७। For Personal & Private Use Only बु Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४४७ पण्डित जी आगे लिखते हैं-"तिलोयपण्णत्ती से 'बृहत्क्षेत्रसमास' में द्वीपों का अवस्थान भी भिन्न रूप से बतलाया है। यह केवल ग्रन्थगत भेद नहीं है, किन्तु परम्परागत भेद है। दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ती के अनुसार कथन है और श्वेताम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में बृहत्क्षेत्र के अनुसार कथन मिलता है।" (जै.सा.इ./भा./ पृ.२/ ६५-६६)। तिलोयपण्णत्ती का यह वैशिष्ट्य भी उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का प्रमाण है। काल की स्वतंत्रद्रव्य के रूप में मान्यता श्वेताम्बरमत में काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना गया है। दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ 'कालश्च' (५/३९) सूत्र है, वहाँ श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में 'कालश्चेत्येके' (५/३८) पाठ है, जिसका अर्थ है-'कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं।' इससे यह घोतित किया गया है कि सूत्रकार स्वयं काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते। उसके स्वतंत्र द्रव्य होने की मान्यता किन्हीं अन्य आचार्यों की है। यहाँ स्पष्टतः दिगम्बराचार्यों की ओर संकेत किया गया है। प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी ने ऐसा ही अभिप्राय अभिव्यक्त किया है। उन्होंने लिखा है-"काल किसी के मत से वास्तविक द्रव्य है, ऐसा सूत्र (त. सू./श्वे./५ /३८) और उसके भाष्य का वर्णन दिगम्बरमत (त.सू.५/३९) के विरुद्ध है।" (त.सू./वि.स./प्रस्ता./ पृ. १७)। माननीय पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"तत्त्वार्थभाष्यकार ऐसा करते ('कालश्चेत्येके' सूत्र लिखते) हुए भी अन्य आचार्यों के मत से काल को द्रव्यरूप से स्वीकार करते हैं, स्वयं नहीं। यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थभाष्य में जहाँजहाँ द्रव्यों का उल्लेख किया है, वहाँ-वहाँ पाँच अस्तिकायों का ही उल्लेख किया है और लोक को पाँच अस्तिकायात्मक बतलाया है।५ श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में छह द्रव्यों का निर्देश किया है अवश्य और एक स्थान पर तो तत्त्वार्थभाष्यकार भी छह द्रव्यों का उल्लेख करते हैं,१६ परन्तु इससे वे काल को द्रव्य मानते ही हैं, यह नहीं कहा जा सकता। कारण यह है कि श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में जहाँ भी छह द्रव्यों का नामनिर्देश किया है, वहाँ काल द्रव्य के लिए अद्धासमय शब्द प्रयुक्त हुआ १५. क- "सर्वं पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ / पृ. ६५ । ख-"पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /३/६/ पृ. १५९ । ___ग-"पञ्चास्तिकायात्मकम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/७/ पृ.४०३। १६. "षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधात्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/३५ / पृ. ६५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ है, 'काल' शब्द नहीं। और 'अद्धासमय' शब्द का अर्थ वहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इसी परिपाटी का निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के जिन सूत्रों में 'काल' शब्द आया है, वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्द का ही उपयोग किया है, किन्तु जिन सूत्रों में 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ 'काल' का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा, तो 'काल' शब्द का प्रयोग न कर अद्धासमय" शब्द का ही प्रयोग किया है। (स.सि./ प्रस्ता. । पृ.३५)। इस तरह श्वेताम्बरपरम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु तिलोयपण्णत्ती उसे स्वतन्त्रद्रव्य स्वीकार करती है। प्रमाणस्वरूप तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथाएँ द्रष्टव्य हैं छद्दव्व-णव-पयत्थे सुदणाणं दुमणि-किरण-सत्तीए। . देक्खंतु भव्वजीवा अण्णाण-तमेण संच्छण्णा॥ १/३४॥ अनुवाद-"(तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ की रचना इसलिए की गई है कि) अज्ञानान्धकार से आच्छादित भव्यजीव श्रुतज्ञानरूप सूर्य की किरणों से छह द्रव्य, और नौ पदार्थों को देख सकें।" जीवा पोग्गलधम्माधम्मा काला इमाणि दव्वाणि। सव्वं लोयायासं आधूइय पंच चिटुंति॥ १/९२॥ अनुवाद-"जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल, ये पाँच द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं।" फासरसगंधवण्णेहि विरहिदो अगुरुलहुगुणजुत्तो। वट्टणलक्खणकलियं कालसरूवं इमं होदि॥ ४/२८१॥ अनुवाद-"स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से रहित, अगुरुलघुत्वगुण से सहित तथा वर्तनालक्षण से युक्त होना 'काल' द्रव्य का स्वरूप है।" कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पवट्टेदि॥ ४/२८२॥ अनुवाद-"काल के मुख्य (निश्चय) और अमुख्य (व्यवहार), ये दो भेद हैं। इनमें से मुख्यकाल के आधार से अमुख्यकाल की प्रवृत्ति होती है।" १७. "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/१। For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४४९ बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरिसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णिय णिय दव्वेसु चेटेदि॥ ४/२८५॥ ___ अनुवाद-"सर्वज्ञदेव ने निश्चयकाल को सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्य में स्थित है।" कालस्साणूभिण्णा अण्णोण्णपवेसणेण परिहीणा। पुह पुह लोयायासे चेटुंते संचएण विणा॥ ४/२८६॥ अनुवाद-"काल के भिन्न-भिन्न अणु, एक-दूसरे में प्रवेश न करते हुए संचय के बिना लोकाकाश में पृथक्-पृथक् स्थित हैं।" तिलोयपण्णत्ती की इन गाथाओं में काल को छह द्रव्यों के अन्तर्गत सम्पूर्ण लोकाकाश (लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश) में पृथक्-पृथक् स्थित रहनेवाला भिन्नभिन्न अणुरूप स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, जो केवल दिगम्बर-सिद्धान्त के अनुरूप है, श्वेताम्बर और श्वेताम्बर-आगमों के अनुयायी यापनीयों के सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। अतः यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरग्रन्थ होने का स्पष्ट प्रमाण है। मोक्षमार्ग की चतुर्दश-गुणस्थानात्मकता तिलोयपण्णत्ती में मोक्षमार्ग को चतुर्दश-गुणस्थानात्मक माना गया है अर्थात् यह माना गया है कि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप आध्यात्मिक विकास जब चौदहवें गुणस्थानरूप चरम अवस्था में पहुँचता है, तब आत्मा को सिद्धत्व (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। किस क्षेत्र का मनुष्य किस गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास कर सकता है, इसका निरूपण आचार्य यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ती की अधोलिखित गाथाओं में करते हैं पण-पण-अजाखंडे भरहेरावदम्मि मिच्छगुणठाणं। अवरे वरम्मि चोद्दस-परियंत कआइ दीसंति॥ ४/२९८०॥ अनुवाद-"भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्यखण्डों में जघन्यरूप से मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्टरूप से कदाचित् चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।" पंचविदेहे सट्ठि-समण्णिद-सद-अजखंडए अवरे। छग्गुणठाणे तत्तो चोद्दस-परियंत दीसंति॥ ४/२९८१॥ अनुवाद-"पाँच विदेहक्षेत्रों के भीतर एक सौ साठ आर्यखण्डों में जघन्यरूप से छह गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।" Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ ___तात्पर्य यह है कि विदेहक्षेत्र में पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और तेरहवाँ, ये छह गुणस्थान निरन्तर पाये जाते हैं। शेष गुणस्थान सान्तर हैं। अतः जघन्यतः ये छह गुणस्थान ही हमेशा उपलब्ध होते हैं। सव्वेसुं भोगभुवे दो गुणठाणाणि सव्वकालम्मि। दीसंति चउ-वियप्पं सव्व-मिलिच्छम्मि मिच्छत्तं॥ ४/२९८२॥ अनुवाद-"सब भोगभूमिजों में सदा दो गुणस्थान (मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि) तथा उत्कृष्टरूप से चार गुणस्थान रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।" विजाहरसेढीए तिगुणट्ठाणाणि सव्वकालम्मि। पणगुणढाणा दीसइ छंडिदविजाण चोहसं ठाणं॥ ४/२९८३॥ अनुवाद-"विद्याधर-श्रेणियों में सर्वदा तीन गुणस्थान (मिथ्यादृष्टि, असंयत और देशसंयत) तथा (उत्कृष्ट रूप से) पाँच गुणस्थान होते हैं। विद्याएँ छोड़ देने पर वहाँ चौदह गुणस्थान भी होते हैं।" ते वेदत्तयजुत्ता अवगदवेदा वि केइ दीसंति। सयलकसाएहि जुदा अकसाया होति केइ णरा॥ ४/२९८६॥ अनुवाद-"वे मनुष्य तीनों वेदों से युक्त होते हैं। परन्तु कोई मनुष्य (अनिवृत्तिकरण के अवेदभाग से लेकर) वेदरहित भी होते हैं। कषाय की अपेक्षा भी वे समस्त कषायों से युक्त होते हैं, किन्तु कोई (ग्यारहवें गुणस्थान से) कषायरहित भी होते हैं।" . इस प्रकार तिलोयपण्णत्ती में मोक्षमार्ग चतुर्दश-गुणस्थानात्मक कहा गया है, किन्तु श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों में परतीर्थिक (जैनेतरलिंगी) भी मुक्ति का पात्र माना गया है अर्थात् मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में भी मोक्षप्राप्ति स्वीकार की गई है, जिससे सिद्ध है कि इन परम्पराओं में मोक्षमार्ग की चतुर्दशगुणस्थानात्मकता मान्य नहीं है। यह सैद्धान्तिक विरोध भी तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करता है। १३ दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक श्वेताम्बर-आगमों में कहा गया है कि भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा अर्धमागधी थी-"भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ।"१८ १८. समवायांग ३४/२२ (डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दनग्रन्थ / पृ. २१)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४५१ किन्तु तिलोयपण्णत्ती का कथन है कि भगवान् के उपदेश की भाषा में अठारह महाभाषाएँ, सात सौ क्षुद्रभाषाएँ तथा समस्त संज्ञी जीवों की अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ १९ गर्भित होती हैं अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासा सयाइ सत्त तहा। अक्खरअणक्खरप्पय सण्णी जीवाण सयलभासाओ॥ ४/९१०॥ एदासिं भासाणं तालुव-दंतोट्ठ-कंठ-वावारे। परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं॥ ४/९११॥ __ अनुवाद-"भगवान् अठारह महाभाषाओं, सात सौ क्षुद्रभाषाओं तथा संज्ञी जीवों की जो और भी अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं, उनमें तालु , दन्त, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को उपदेश देते हैं।" इस तरह तिलोयपण्णत्तीकार यह नहीं मानते कि भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा अर्धमागधी थी। अर्धमागधी तो अठारह महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्रभाषाओं में से एक रही होगी। और वस्तुतः भगवान् इन सभी भाषाओं में उपदेश नहीं देते थे, अपितु उनके मुख से निकलनेवाली भाषा या ध्वनि इन सब भाषाओं में परिणमित हो जाती थी।२० यह परिणमन केवलज्ञान के ११ अतिशयों में से एक है।२१ और उनके मुख से निकलनेवाली भाषा कौन सी थी, इसके विषय में तिलोयपण्णत्तीकार ने कुछ भी नहीं कहा है। उन्होंने बस यही कहा है कि भगवान् उपर्युक्त सभी भाषाओं में उपदेश देते हैं। यह कथन श्वेताम्बरों और उनके आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत के विरुद्ध हैं। अतः यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का अन्यतम प्रमाण है। . १४ चामर-प्रतिहार्य में चामरों की बहुलता श्वेताम्बर विद्वान् श्री मधुसूदन ढाकी और श्री जितेन्द्र शाह ने मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र नामक पुस्तिका में इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि अष्ट प्रतिहार्यों १९. क- "तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्।" स्वयम्भूस्तोत्र / श्लोक ९७। . ख- "केरिसा सा? सव्वभासासरूवा।" जयधवला / क.पा./ भाग १/ गा.१/ पृ.११५। २०. महापुराण (आदिपुराण) २३/६९-७४ (जयधवला /क.पा./ भा.१ / गा.१/विशेषार्थ / पृ.११६ ११७)। २१. तिलोयपण्णत्ती ४/९१५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ में जो चामर-प्रतिहार्य है, उसकी संख्या को लेकर दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में मान्यता - भेद है । श्वेताम्बरपरम्परा में दो ही चामर माने गये हैं, जब कि दिगम्बरपरम्परा में चामरसमूह या चौंसठ चामरों का उल्लेख है । भक्तामरस्तोत्र में 'कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्' (३०) इस पद्य में 'चामर' शब्द से 'दो चामर' अर्थ लेकर उन्होंने उसे श्वेताम्बराचार्यकृत सिद्ध करने की चेष्टा की है। देखिए - 44 'चामर प्रातिहार्य के सम्बन्ध में दिगम्बर- मान्यता में चामर प्रायः दो से अधिक संख्या में माना गया है। कुमुदचन्द्र ने चामरों के ओघ (समूह) की बात की है, तो जिनसेन ने आदिपुराण में चामरालि ( चामरावली) एवं ६४ चामरों की बात कही है । भक्तामर में बहुलतादर्शक कोई इशारा न होने से, वहाँ चामरयुग्म ही अपेक्षित मानना ठीक होगा और यह हकीकत, स्तोत्रकार मूलतः उस (श्वेताम्बरीय) प्रणाली का अनुकरण कर रहा हो, ऐसा आभास कराती है। दो चामरों की मान्यतावाली परिपाटी दिगम्बर नहीं है । " २२ और इसकी पादटिप्पणी में उक्त विद्वान् कहते हैं- "कहीं-कहीं दिगम्बर- मान्य कृतियों में भी दो चामर की बात कही गई हो, तो भी वे रचनाएँ मूलत: दिगम्बर थीं या यापनीय, इसका भी निर्णय होना जरूरी है । " २३ यद्यपि कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम् इस पंक्ति में चामर के साथ संख्यावाचकविशेषण न होने से 'दो चामर' अर्थ किसी भी प्रकार ग्रहण नहीं किया जा सकता, इसके विपरीत समास में विभक्तिलोप हो जाने से और चामर की संख्या एक न होने से 'चामर' शब्द बहुवचन का ही प्रतिपादन करता है, तथापि विद्वद्द्द्वय का यह कथन सत्य है कि श्वेताम्बरपरम्परा में चामरयुंगल ही मान्य है और दिगम्बरपरम्परा में चामरसमूह या चौसठ चामर। यथा— सीहासणे णिसण्णो रत्तासोगस्स सक्को सहेमजालं सयमेव य दो होन्ति चामराओ सेताओ मणियएहिं दण्डेहिं । ईसाणचमरसहिता धरेन्ति णातवच्छस्स ॥ १९८६ ॥ श्वेताम्बरग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य की इन गाथाओं में दो चामरों का ही वर्णन है । तथा दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने स्तुतिविद्या ( जिनशतक) के निम्न पद्य में बहुवचनात्मक 'चामरैः ' पद का प्रयोग किया है— २२. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र / पृ. १०५ २३. वही / पृ. १०७ / पा. टि. ७ । हेट्ठतो भगवं । गेण्हते छत्तं ॥ ९९८५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४५३ दिव्यैर्ध्वनिसितच्छत्रचामरैर्दुन्दुभिः स्वनैः।। दिव्यैर्विनिर्मित-स्तोत्र-श्रमदर्दुरिभिर्जनैः॥ ६॥ आदिपुराण में भी "यक्षरुदक्षिप्यत चामराली" (२३/५५) तथा "धीन्द्राश्चतुः षष्टिमुदाहरन्ति" (२३/५९) इन उक्तियों के द्वारा चामरों की बहुलता एवं उनकी ६४ संख्या का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ती में ६४ चामरों का वर्णन किया चउसट्ठि-चामरेहिं, मुणाल-कुंदेंदु-संख-धवलेहि। सुरकर-पलव्विदेहिं विजिज्जंता जयंतु जिणा॥ ४/९३६॥ यह भी तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीय ग्रन्थ होने का एक प्रमाण है। उक्त दोनों श्वेताम्बर विद्वानों ने भी इन विशेषताओं के कारण तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ बतलाया है। यह उनके निम्नलिखित अनुच्छेद १५ में उद्धृत वचनों से सूचित होता है। तीर्थंकर के नभोयान का उल्लेख पूर्वोक्त श्वेताम्बर विद्वद्वय ने श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में एक अन्तर और भी निर्दिष्ट किया है। वह नभोयान या आकाशगमन से सम्बन्धित है। उनके अनुसार श्वेताम्बरपरम्परा में भगवान् का आकाशगमन नहीं माना गया है, जबकि दिगम्बरपरम्परा मानती है। और इस भेद के आधार पर उन्होंने भक्तामरस्तोत्र के 'उन्निद्रहेमवनपङ्कजपुञ्जकान्ति' इस ३६वें पद्य में नभोयान का वर्णन न मानकर उसे श्वेताम्बराचार्यकृत माना है। उक्त विद्वद्वय लिखते हैं "(भक्तामर) स्तोत्र के ३२वें (दिगम्बरपाठ के ३६वें) पद्य में जिनेन्द्र का कमलविहार उल्लिखित है। दिगम्बरसम्प्रदाय में तिलोयपण्णत्ती और समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा आदि प्राचीन रचनाओं में जिन का नभोविहार होना बतलाया है२४ और समन्तभद्र के बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में जिनपद्मप्रभ की स्तुति में एक ही पद्य में दोनों प्रकार के विहार (सन्दर्भानुसार) सूचित हैं। भक्तामर में नभोयान का उल्लेख है ही नहीं, वहाँ यह बात कहने के लिए चार पदयुक्त पद्य में कहीं न कहीं अवकाश २४. देवागम-नभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्॥ १॥ आप्तमीमांसा। For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ होते हुए भी। यदि स्तोत्रकार दिगम्बर थे, तो इस महत्त्वपूर्ण बात का जिक्र क्यों नहीं किया ? २५ विद्वद्द्द्वय ने नभोविहार और कमलविहार को अलग-अलग मान लिया है, जबकि ये अलग-अलग नहीं है। आकाश में गमन करते समय ही देवगण भगवान् के चरणों के नीचे कमल की रचना करते हैं, जैसा कि आप्तमीमांसा की 'देवागमनभोयान' इस कारिका (१) की आचार्य वसुनन्दी कृत निम्नलिखित व्याख्या से स्पष्ट है - " नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं नभोयानम्' तथा स्वयंभूस्तोत्र के पद्मप्रभजिन - स्तवन के निम्न पद्य में भी यही बात कही गई है नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः । पादाम्बुजैः पातितमारदप भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ॥ २९ ॥ इस तरह नभोविहार और कमलविहार अभिन्न हैं, अतः विद्वद्द्वय का भक्तामरस्तोत्र के उपर्युक्त पद्य में नभोयान का कथन न मानना उचित नहीं है, तथापि उनका यह मन्तव्य समीचीन है कि श्वेताम्बरमत में नभोयान की मान्यता नहीं है, जबकि दिगम्बरमत में है । तिलोयपण्णत्ती में तीर्थंकर के आकाशगमन का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख हैं-. जोयणसदमज्जादं सुभिक्खदा चउदिसासु णियठाणा । हयल-गमणमहिंसा भोयण उवसग्गपरिहीणा ॥ ४ / ९०८ ॥ इस गाथा में णहयलगमण ( नभतलगमन) को केवलज्ञान के ग्यारह अतिशयों में से एक बतलाया गया है। यह स्पष्टतः दिगम्बरपरम्परा का अनुसरण है, जो श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं के विरुद्ध है। यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ होने का एक अन्य प्रमाण है। उपर्युक्त श्वेताम्बर विद्वद्द्वय ने भी चौसठ चामर, भगवान् के आकाश गमन आदि के उल्लेख से तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है। १६ कुन्दकुन्द की गाथाओं का संग्रहण एवं अनुकरण आचार्य यतिवृषभ ने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ तिलोयपण्णत्ती में ग्रहण की हैं तथा कई गाथाओं के अंश लेकर नई गाथाएँ रची हैं। इससे ज्ञात होता है कि यतिवृषभ आचार्य कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक विचारधारा २५. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र / पृष्ठ १०५ For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७ / प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४५५ से बहुत प्रभावित हैं, न केवल विचार-धारा से अपितु उनकी भाषा एवं शैली से भी। (देखिये, अध्याय १० / प्रकरण १ / शीर्षक ५.२)। तिलोयपण्णत्ती में प्रतिपादित ये सभी सिद्धान्त एवं कुन्दकुन्द की गाथाओं का संग्रहण यापनीयमत के विरुद्ध हैं। अतः इन प्रमाणों से तिलोयपण्णत्ती का यापनीयग्रन्थ होना असिद्ध हो जाता है और सिद्ध होता है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता सवस्त्रमुक्तिनिषेध, स्त्रीमुक्तिनिषेध, गृहस्थमुक्तिनिषेध, अन्यतीर्थिकमुक्तिनिषेध, केवलिभुक्तिनिषेध और अट्ठाईस मूलगुणविधान, इनमें से एक भी सिद्धान्त की उपस्थिति तिलोयपण्णत्ती को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है, फिर इसमें तो ये सब के सब मौजूद हैं। ये सिद्धान्त यापनीयमत- विरुद्ध होने से यापनीयग्रन्थ के प्रतिलक्षण हैं। इसलिए इनकी उपस्थिति में अन्य कोई भी तथ्य तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं कर सकता। इस उद्देश्य से जो भी हेतु प्रस्तुत किया जायेगा उसका या तो अस्तित्व ही नहीं होगा या उसमें हेतु का लक्षण घटित नहीं होगा, अत एव अहेतु या हेत्वाभास होगा । अतः यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जितने हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब इसी प्रकार के हैं अर्थात् असत्य या हेत्वाभास हैं । यहाँ उनकी असत्यता एवं हेत्वाभासता के प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। १ कसायपाहुडचूर्णि एवं यतिवृषभ यापनीय नहीं यापनीयपक्ष विषयवस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धमागधी आगमों और आगमिक व्याख्याओं के निकट होने से कसायपाहुडचूर्णि यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। अतः उसके रचयिता यतिवृषभ भी यापनीय हैं। इसलिए उनके द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है । (जै. ध.या.स./ पृ. १११) । दिगम्बरपक्ष तिलोयपण्णत्ती में प्रतिपादित यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों से सिद्ध है कि उसके कर्त्ता यतिवृषभ यापनीय - आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बर हैं। अतः उनके द्वारा रचित कसायपाहुड - चूर्णिसूत्र भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है । इसलिए उसके रचायिता यतिवृषभ भी यापनीय नहीं हैं । अतः तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उसके रचयिता यतिवृषभ को यापनीय मानने का हेतु असत्य है । इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि विषयवस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धमागधी - आगमों के निकट होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण या हेतु नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१७/प्र०२ तिलोयपण्णत्ती / ४५७ दिगम्बरों में कसायपाहुडचूर्णि का लेखन यापनीयपक्ष दिगम्बरों में कोई चूर्णि नहीं लिखी गई, अतः कसायपाहुड पर रचित चूर्णिसूत्र यापनीयमत के ही होंगे। इसलिए उसके कर्ता यतिवृषभ यापनीय हैं। अतः उनके द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ है। (जै.ध.या.स./पृ.११४)। दिगम्बरपक्ष ऊपर सिद्ध किया जा चुका है कि यतिवृषभ दिगम्बर हैं। अतः उनके द्वारा रचित कसायपाहुडचूर्णि भी दिगम्बरग्रन्थ है। अतः ‘दिगम्बरों में कोई चूर्णि नहीं रची गई' यह मान्यता असत्य है अर्थात् प्रस्तुत किया गया हेतु असत्य है। इससे स्पष्ट है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं है। उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा कपोलकल्पित यापनीयपक्ष उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा के आर्यमंक्षु और नागहस्ती से कसायपाहुड का ज्ञान उत्तराधिकार में बोटिकों (यापनीयों) को ही प्राप्त हो सकता है, दक्षिणभारतीय दिगम्बरों को नहीं। इसलिए यतिवृषभ बोटिक (यापनीय) थे। (जै.ध.या.स/ पृ.११४)। दिगम्बरपक्ष द्वितीय अध्याय के तृतीय प्रकरण में सिद्ध किया जा चुका है कि उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, इसलिए आर्यमंक्षु और नागहस्ती भी उस परम्परा के आचार्य नहीं थे। इसलिए कसायपाहुड भी उसमें नहीं रचा गया था। इसलिए श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय भी उससे उद्भूत नहीं हुए थे। इसलिए कसायपाहुड का ज्ञान भी उस परम्परा से उत्तराधिकार में यापनीयों को प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिए यतिवृषभ भी यापनीय नहीं थे। इसलिए उनके द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती भी यापनीयग्रन्थ नहीं है। अतः वह दिगम्बरग्रन्थ है। इस प्रकार उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परावाला हेतु तथा उस पर आधारित अन्य सभी हेतु असत्य हैं, इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७/प्र०२ ४ शिवार्य दिगम्बर थे . यापनीयपक्ष शिवार्य ने भगवती-आराधना में सर्वनन्दी को गुरु कहा है। उन्हीं सर्वनन्दी का उल्लेख यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में किया है। शिवार्य यापनीयसंघ के थे, इसलिए उनके गुरु का उल्लेख करनेवाले यतिवृषभ भी यापनीसंघ के होंगे। (जै.ध.या.स./ पृ. ११४)। दिगम्बरपक्ष भगवती-आराधना में यापनीयमत विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, यह सोदाहरण निरूपित किया जा चुका है। अतः उसके कर्ता शिवार्य यापनीय नहीं, दिगम्बर थे। अतः उन्हें यापनीय मानने का हेतु मिथ्या है। इससे सिद्ध है कि यतिवृषभ यापनीय नहीं थे। नाम के साथ 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं यापनीयपक्ष यतिवृषभ के नाम के पहले यति शब्द जुड़ा हुआ है, जो यापनीय मुनियों की उपाधि है, जैसे 'यतिग्रामाग्रणी पाल्यकीर्ति शाकटायन।' अतः वे यापनीय थे। (जै.ध.या.स./पृ. ११४-११५)। दिगम्बरपक्ष यतिग्रामाग्रणी में यति शब्द नाम के पहले नहीं, अपितु उपाधि के पहले जुड़ा हुआ है। और ऐसी उपाधि अन्य किसी भी यापनीय साधु या आचार्य के साथ जुड़ी नहीं मिलती, जैसे अर्ककीर्ति, जिननन्दी, रविचन्द्र, शुभचन्द्र आदि के साथ।२६ इसके अतिरिक्त दिगम्बरजैनग्रन्थ न्यायदीपिका के कर्ता अभिनवधर्मभूषणयति२७ (१४ वीं २६. डॉ. ए. एन. उपाध्ये : 'जैनधर्म के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश'। 'अनेकान्त' __ (मासिक)। महावीर निर्वाण विशेषांक, १९७५ / पृष्ठ २४७।। २७. इति श्रीपरमार्हताचार्य-धर्मभूषण-यतिविरचितायां न्यायदीपिकायां---।" न्यायदीपिका। प्रमाणसामान्य-लक्षण/प्रथम प्रकाश/ पृष्ठ २२। For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०१७ / प्र०२ तिलोयपण्णत्ती / ४५९ शती ई०) के साथ भी यति उपाधि प्रयुक्त है। अतः यति शब्द यापनीय आचार्यों की असाधारण उपाधि नहीं थी। इसलिए यह यापनीय होने का लक्षण या हेतु नहीं है, अपितु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है। इससे सिद्ध है कि 'यतिवृषभ' नाम में 'यति' शब्द का योग होते हुए भी, वे यापनीय नहीं थे। स्त्रीमुक्त्यादि-निषेध का अनुल्लेख यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं यापनीयपक्ष यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध नहीं है, इसलिए पतिवृषभ यापनीय हैं। (जै.ध.या.स./पृ.११५)। दिगम्बरपक्ष किसी ग्रन्थ में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के निषेध का उल्लेख न होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं है, अपितु इनका प्रतिपादन होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण है। कुन्दकुन्द के समयसार में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के निषेध का कोई प्रकरण नहीं है, फिर भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। अतः स्त्रीमुक्ति आदि के निषेध का उल्लेख न होने का धर्म दिगम्बरग्रन्थों में भी उपलब्ध होने से वह यापनीयग्रन्थ होने का हेतु (लक्षण) नहीं है, अपितु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास (अहेतु) है। इससे सिद्ध है कि स्त्रीमुक्ति आदि के निषेध का उल्लेख न होने पर भी यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीयकृति नहीं हैं। न शिवार्य यापनीय थे, न यतिवृषभ पापनीयपक्ष शिवार्य ने भगवती-आराधना में यतिवृषभ का उल्लेख गणी शब्द से२८ तथा अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में यतिवृषभ नाम से किया है। ये दोनों यापनीय 4, इसलिए इनके द्वारा उल्लिखित होने से यतिवृषभ भी यापनीय थे। (जै.ध.या.स./ पृ. ११५)। २८. अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण। उट्ठाहपसमणत्थं सत्थग्गहणं अकासि गणी॥ २०६९ ॥ भगवती-आराधना। For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०२ दिगम्बरपक्ष भगवती-आराधना और अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य नामक १३वें और १४वें अध्यायों में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि न तो 'भगवती-आराधना' के कर्ता शिवार्य यापनीय थे, न उसके टीकाकार अपराजितसूरि। ये दोनों दिगम्बर थे। अतः यदि यापनीय होने की स्थिति में इनके द्वारा उल्लिखित होने से यतिवृषभ यापनीय सिद्ध हो सकते थे, तो यह संभावना निरस्त हो जाती है। और यापनीयपक्षधर विद्वान् के उपर्युक्त तर्क से वे दिगम्बर सिद्ध होते हैं। किन्तु , जिस 'अहिमारएण' इत्यादि गाथा (क्र.२०६९) में गणी शब्द आया है, उसकी अपराजितसूरि ने टीका ही नहीं की है। क्रमांक २०६७ से २०७१ तक की गाथाओं के उपसंहाररूप में केवल इतना लिखा है-"एवं पण्डितमरणं सविकल्पं सविस्तरं व्यावर्णितम्। वक्ष्यामि बालपण्डितमरणमित ऊर्ध्वं संक्षेपेण।" (भ. आ./ पृ. ८८७)। इसमें यतिवृषभ शब्द का उल्लेख ही नहीं है। अतः न तो शिवार्य के 'गणी' शब्द के प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि उससे उन्होंने 'यतिवृषभ' का संकेत किया है और न अपराजितसूरि की टीका से। अतः शिवार्य और अपराजितसूरि के द्वारा यतिवृषभ के उल्लेख किये जाने का हेतु विद्यमान ही नहीं है। इस तरह भी सिद्ध है कि यतिवृषभ यापनीय नहीं थे। 'गणी' शब्द यतिवृषभ का सूचक नहीं यापनीयपक्ष भगवती-आराधना के उल्लेखानुसार यतिवृषभ की मृत्यु उत्तरभारत के श्रावस्तीनगर में हुई थी। उत्तरभारत बोटिकों या यापनीयों का केन्द्र था, इसलिए यतिवृषभ यापनीय थे। (जै.ध.या.स./पृ. ११५)। दिगम्बरपक्ष यह हेतु भी 'भगवती-आराधना' की उपर्युक्त गाथा २०६९ में प्रयुक्त गणी शब्द को यतिवृषभ का सूचक मानने के आधार पर कल्पित किया गया है। किन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, 'गणी' शब्द यतिवृषभ का सूचक है ही नहीं। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त हेतु असत्य है। इसलिए हेतु के अभाव में यतिवृषभ का यापनीय होना असिद्ध है। For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७/प्र०२ तिलोयपण्णत्ती/४६१ के आगमविच्छेदक्रम न प्रक्षिप्त, न यापनीयकथित आपनीयपक्ष - डॉ० सागरमल जी लिखते हैं कि तिलोयपण्णत्ती में जो यापनीयमत के विरुद्ध आगम-विच्छेद का क्रम दिया गया है, वह प्रक्षिप्त है, क्योंकि पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने तिलोयपण्णत्ती में प्रक्षेपों का होना स्वीकार किया है। "दूसरे, मुझे ऐसा लगता है कि जब यापनीयसंघ में अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति शिथिल हो गयी, अपनी परम्परा में निर्मित ग्रन्थों से ही उनका काम चलने लगा, तभी आचार्यों द्वारा आगमों के क्रमिक उच्छेद की बात कही जाने लगी।" (जै.ध.या.स./पृ. ११६)। दिगम्बरपक्ष १. 'मुझे ऐसा लगता है' इन शब्दों से स्पष्ट है कि यापनीयपक्षधर विद्वान् ने आगम-विच्छेद की बात प्रचलित कर देने का जो हेतु बतलाया है, वह उन्होंने स्वबुद्धि से कल्पित किया है, उनके पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। और इस दूसरे 'विकल्प को सोचने से सिद्ध है कि उन्हें पहले (प्रक्षेपवाले) विकल्प में पक्का भरोसा नहीं है, क्योंकि उसका भी उनके पास कोई प्रमाण नहीं है। इस तरह उन्होंने तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध उल्लेख को निरस्त करने के लिए जो दो वैकल्पिक हेतु सोचे हैं, वे स्वयं एक-दूसरे को निरस्त कर देते हैं। इस तरह न तो यह सिद्ध हो पाता है कि आगमविच्छेद के क्रम का उल्लेख प्रक्षिप्त है, और न यह कि यापनीय भी झूठमूठ आगमविच्छेद की बात करने लगे थे। २. पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने अपने लेख में तिलोयपण्णत्ती के जिन अंशों को प्रक्षिप्त कहा है, उनमें श्रुतविच्छेदवाला अंश शामिल नहीं है।२९ उन्होंने केवल तिलोयपण्णत्ती के पहले महाधिकार की ७वीं गाथा से लेकर ८७ वी गाथा तक जो मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता से सम्बन्धित वर्णन है, उसे षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा खण्ड की धवलाटीका पर आधारित माना है।३° उन्होंने यह भी माना है कि धवलाटीका का कुछ गद्यभाग भी तिलोयपण्णत्ती में ज्यों का त्यों ले लिया गया है।३१ इस आधार पर पण्डित जी ने वर्तमान तिलोयपण्णत्ती को धवलाटीका के २९. देखिए, पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री का लेख : "वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके । रचनाकाल आदि का विचार" ('जैन सिद्धान्त भास्कर'/भाग ११/ किरण १, जून, १९४४)। ३०. वही/ पृ.७१। ३१. वही/ पृ.७३। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० २ बाद की रचना सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु उन्होंने आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं (४/१४८८-१५०४) को प्रक्षिप्त स्वीकार नहीं किया । तथा उन्होंने अपने लेख में तिलोयपण्णत्ती के जिन अंशों को धवला से प्रक्षिप्त या संगृहीत माना है, उन्हें पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने तिलोयपण्णत्ती से ही धवला में संगृहीत सिद्ध किया है । ३२ अतः प्रमाण के अभाव में उक्त गाथाओं को प्रक्षिप्त नहीं माना जा सकता। तात्पर्य यह कि आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं को प्रक्षिप्त मानने का हेतु असत्य है। ३. यदि आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं को प्रक्षिप्त मान लिया जाय, तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी यापनीयमतों का निषेध है, जिसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। ४. और यदि यह भी मान लिया जाय कि यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे, तो भी उसमें उपर्युक्त यापनीय-मान्यताओं का निषेध होने से तिलोयपण्णत्ती का यापनीयग्रन्थ सिद्ध होना असम्भव है । ५. यापनीयों ने आगमविच्छेद स्वीकार भी नहीं किया है, क्योंकि यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में मथुरागम को प्रमाणरूप में उद्धृत किया है । ३३ ६. यह कथन भी प्रामाणिक नहीं है कि जब यापनीयों का अपनी परम्परा में निर्मित ग्रन्थों से काम चलने लगा, तब उन्होंने आगमों को विच्छिन्न घोषित कर दिया, क्योंकि यापनीयपरम्परा में काम चलाने योग्य ग्रन्थों के निर्माण का कोई प्रमाण ही नहीं है। यापनीयों के केवल चार ग्रन्थों के नाम उपलब्ध होते हैं, जैसे यापनीयतन्त्र, स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण एवं शाकटायनव्याकरण । कुछ विद्वानों ने भगवती - आराधना, मूलाचार आदि को यापनीयग्रन्थ माना है, किन्तु पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि वे दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित हैं । यापनीय तो अन्त तक श्वेताम्बरग्रन्थों से ही काम चलाते रहे, यह नौवीं शताब्दी ई० में हुए पाल्यकीर्ति शाकटायन के उपर्युक्त उल्लेख से सिद्ध है। स्वयं श्वेताम्बर विद्वानों ने स्वीकार किया है कि यापनीय श्वेताम्बरआगम को प्रमाण मानते थे । ३२. देखिए, पं. जुगलकिशोर मुख्तार - कृत 'पुरातन जैन वाक्य सूची' की प्रस्तावना में (ग) 'एक नई विचारधारा और उसकी जाँच ।' (पृ. ४१-५७)। ३३. अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः (माहुरागमे ) सिद्धि: ( सिद्धम् ) । स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा ॥ ३४ ॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण । For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ०१७/प्र०२ तिलोयपण्णत्ती / ४६३ ७. तिलोयपण्णत्ती में जिन आचार्यों के स्वर्गस्थ होने पर श्रुत का क्रमिक विच्छेद बतलाया है, वे सब दिगम्बराचार्य हैं, यह हरिवंशपुराण, धवला आदि ग्रन्थों तथा नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली से प्रमाणित है। उनमें से श्रुतकेवली भद्रबाहु को छोड़कर किसी भी आचार्य का नाम श्वेताम्बर या यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों, पट्टावलियों या शिलालेखों में उपलब्ध नहीं होता। इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती में दिगम्बरमान्य श्रुतविच्छेदक्रम का ही उल्लेख है, यापनीयमान्य श्रुतविच्छेदक्रम का नहीं। ८. डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "श्वेताम्बरपरम्परा के आगमिक-प्रकीर्णक तीर्थोद्गालिक में भी आगमों के उच्छेदक्रम का उल्लेख है। जब आगमों के होते हुए भी श्वेताम्बरपरम्परा उनके विच्छेद की बात कर सकती है, तो यापनीय आचार्यों द्वारा उनके विच्छेद की बात करना आश्चर्यजनक भी नहीं है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ११७)। डॉक्टर सा० का यह 'तर्क' संगत हो सकता था, यदि यापनीयों ने कहीं आगमविच्छेद की बात की होती। किन्तु उन्होंने यह बात कहीं की ही नहीं है, तब उसकी 'तीर्थोद्गालिक' के उल्लेख से तलना करने और उसके आश्चर्यजनक न होने की टिप्पणी करने का कोई औचित्य ही नहीं है, जैसे बन्ध्यापुत्र के नाम पर कोई टिप्पणी करना औचित्यपूर्ण नहीं है। तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इससे सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। यह इस बात का प्रमाण है कि उसमें वर्णित आगमविच्छेदक्रम दिगम्बरों का ही मत है, यापनीयों का नहीं। ९. यदि यह माना जाय कि दिगम्बरों के अतिरिक्त श्वेताम्बरों और यापनीयों को भी आगमविच्छेद मान्य है तो आगमविच्छेद के उल्लेख के आधार पर तिलोयपण्णत्ती दिगम्बरग्रन्थ भी सिद्ध होगा, श्वेताम्बरग्रन्थ भी और यापीनयग्रन्थ भी, केवल यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं हो सकता। अतः तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए यह मानना अयुक्तिसंगत है कि यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे। इस तरह यह हेतु भी मिथ्या साबित होता है। ॥ इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने तिलोयपण्णत्ती को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु उपस्थित किये हैं, उनमें से कुछ का तो अस्तित्व ही नहीं है अर्थात् वे असत्य हैं तथा कुछ । हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, अतः वे हेत्वाभास या अहेतु हैं। इस तरह उसे जपनीयग्रन्थ सिद्ध करनेवाला कोई हेतु उपलब्ध न होने से निर्णीत होता है कि वह अपनीयग्रन्थ नहीं है। इसके विपरीत उसे दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करनेवाले अनेक हेतु Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०२ उपलब्ध हैं, जिनका वर्णन आरंभ में किया गया है। अतः उनसे स्थापित होता है कि तिलोयपण्णत्ती दिगम्बरग्रन्थ है। उपसंहार तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बराचार्यकृत होने के प्रमाण सूत्ररूप में अन्त में उन प्रमाणों को सूत्ररूप में संकलित किया जा रहा है, जिनसे प्रत्यक्षतः सिद्ध होता है कि तिलोयपण्णत्ती दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं १. तिलोयपण्णत्ती में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के प्रमुख सिद्धान्त हैं। २. तिलोयपण्णत्ती में २८ मूलगुणों का विधान है। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध ३. उसमें मोक्षमार्ग को चतुर्दश-गुणस्थानात्मक बतलाया गया है, जिसे श्वेताम्बर और यापनीय नहीं मानते। ४. तिलोयपण्णत्ती में स्त्रियों के पूर्वधर होने का निषेध है। ५. तिलोयपण्णत्ती में मल्लिनाथ के साथ स्त्रीदीक्षा का उल्लेख नहीं है, तथा मल्लिनाथ का अवतार अपराजित स्वर्ग से बतलाया गया है, जयन्त स्वर्ग से नहीं। यह यापनीयमत के विरुद्ध है। ६. समस्त तीर्थंकरों के तीर्थ में केवल मुनियों के मोक्ष का कथन है। ७. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर के होने का उल्लेख नहीं है। ८. तिलोयपण्णत्ती में चौदहपूर्वधारियों की परम्परा दिगम्बरमतानुसार दी गयी है। ९. उसमें आगमों के विच्छेद का कथन है, जब कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमों का विच्छेद नहीं मानते। १०. तिलोयपण्णत्ती में कल्पों (स्वर्गों) की संख्या सोलह और बारह दोनों मानी गयी है। श्वेताम्बर और यापनीय केवल बारह मानते हैं। ११. तिलोयपण्णत्ती में अनुदिश नामक नौ स्वर्गों का भी अस्तित्व स्वीकार किया गया है, जबकि श्वेताम्बर और यापनीय स्वीकार नहीं करते। १२. तिलोयपण्णत्ती में भौगोलिक वर्णन जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण रचित श्वेताम्बरग्रन्थ बृहत्क्षेत्रसमास से भिन्न है। For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती / ४६५ अ०१७ / प्र० २ १३. अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ मानी गयी है, जो श्वेताम्बरमत से भिन्न है । १४. काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, श्वेताम्बर और यापनीय ऐसा नहीं मानते। १५. तिलोयपण्णत्ती में तीर्थंकरों का उपदेश ऐसी भाषा में होने का वर्णन है जो अठारह महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्र भाषाओं में परिणत हो जाती है । यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगम केवल अर्धमागधी को दिव्योपदेश की भाषा मानते हैं । १६. चामरप्रतिहार्य में चामरों की बहुलता का उल्लेख है, जब कि श्वेताम्बरग्रन्थों में केवल दो चामर माने गये हैं । १७. तिलोयपण्णत्ती में केवलज्ञान के ग्यारह अतिशयों में भगवान् के आकशगमन का कथन है, जिसे श्वेताम्बर और यापनीय नहीं मानते । १८. तिलोयपण्णत्ती में कुन्दकुन्द के अध्यात्मवाद का अनुसरण किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य प्रथम प्रकरण सन्मतिसूत्रकार के दिगम्बर होने के प्रमाण आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र प्राचीनकाल से दिगम्बरग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु कुछ आधुनिक श्वेताम्बर विद्वानों ने उसे श्वेताम्बरग्रन्थ तथा कुछ नवीन दिगम्बर शोधकर्त्ताओं ने यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ० सागरमल जी ने उसे स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है। माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने गहन अनुसन्धान करके प्रबल युक्तियों और प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किया है कि वह दिगम्बरग्रन्थ ही है । उनका यह अनुसन्धानात्मक लेख उनके पुरातन - जैनवाक्य-सूची नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना का अंग है, जो पृष्ठ ११९ से १६८ तक सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन नाम से मुद्रित है। उनकी युक्तियों और प्रमाणों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ। केवल उनके द्वारा प्रयुक्त कुल तीन (क), (ख), (ग) क्रमाक्षरवाले शीर्षकों के स्थान पर तथा अन्य अनेक शीर्षकरहित स्थानों पर नये शीर्षकों का प्रयोग मेरे द्वारा किया जा रहा है। सन्मतिसूत्र जैनदर्शन - प्रभावक ग्रन्थ मुख्तार जी 'पुरातन - जैन - वाक्य - सूची' की प्रस्तावना में 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक के अन्तर्गत सिद्धसेनकृत 'सन्मतिसूत्र' के विषय में लिखते हैं-" इसकी गणना जैनशासन के दर्शन - प्रभावक ग्रंथों में है। श्वेताम्बरों के जीतकल्पचूर्णि ग्रंथ की श्रीचन्द्रसूरि - विरचित विषमपदव्याख्या नाम की टीका में श्रीअकलङ्कदेव के सिद्धिविनिश्चय ग्रंथ के साथ इस सन्मति ग्रंथ का भी दर्शनप्रभावक ग्रंथों में नामोल्लेख किया गया है और लिखा है कि 'ऐसे दर्शनप्रभावक शास्त्रों का अध्ययन करते हुए साधु को अकल्पित प्रतिसेवना का दोष भी लगे, तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है, वह साधु शुद्ध है ।' यथा For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ __ "दंसण त्ति-दसणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हंतोऽसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः।"१ "इससे प्रथमोल्लिखित सिद्धिविनिश्चय की तरह यह ग्रंथ भी कितने असाधारण महत्त्व का है इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसे ग्रंथ जैनदर्शन की प्रतिष्ठा को स्व-पर हृदयों में अंकित करनेवाले होते हैं। तदनुसार यह ग्रंथ भी अपनी कीर्ति को अक्षुण्ण बनाये हुए है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ.११९)। सिद्धसेन नाम के अनेक ग्रन्थकार मुख्तार जी आगे लिखते हैं-"इस सन्मति ग्रंथ के कर्ता आचार्य सिद्धसेन हैं, इसमें किसी को भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रंथों में ग्रंथनाम के साथ सिद्धसेन का नाम उल्लिखित है और इस ग्रन्थ के वाक्य भी सिद्धसेन नाम के साथ उद्धृत मिलते हैं, जैसे जयधवला (क.पा./ भाग १/ पृ. २३६) में आचार्य वीरसेन ने "णामं ठवणा दवियं" नाम की छठी गाथा को "उत्तं च सिद्धसेणेण" इस वाक्य के साथ उद्धृत किया है और पंचवस्तु में आचार्य हरिभद्र ने "आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइट्ठिअजसेणं" वाक्य के द्वारा सन्मति को सिद्धसेन की कृतिरूप में निर्दिष्ट किया है, साथ ही "कालो सहाव णियई" नाम की एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौन-से हैं, किस विशेष परिचय को लिए हुए हैं? कौन-से सम्प्रदाय अथवा आम्नाय से सम्बन्ध रखते हैं? इनके गुरु कौन थे? इनकी दूसरी कृतियाँ कौनसी हैं? और इनका समय क्या है? ये सब बातें ऐसी हैं, जो विवाद का विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाज में सिद्धसेन नाम के अनेक आचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान् भी हो गये हैं और इस ग्रंथ में ग्रंथकार ने अपना कोई परिचय दिया नहीं, न रचनाकाल ही दिया है, ग्रंथ की आदिम गाथा में प्रयुक्त हुए सिद्धं पद के द्वारा श्लेषरूप में अपने नाम का सूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वान् के द्वारा निर्मित होकर ग्रंथ के अन्त में लगी हुई नहीं है। दूसरे जिन ग्रंथों, खासकर द्वात्रिंशिकाओं तथा न्यायावतार को इन्हीं आचार्य की कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है, उनमें भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं १. श्वेताम्बरों के निशीथ ग्रन्थ की चूर्णि में भी ऐसा ही उल्लेख है-“दंसणगाही दसणणाणप्पभाव-गाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पिय पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" (उद्देशक १)। For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७१ है और न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है, जिनसे उन सब ग्रंथों को एक ही सिद्धसेनकृत माना जा सके। और इसलिये अधिकांश में कल्पनाओं तथा कुछ भ्रान्त धारणाओं के आधार पर ही विद्वान् लोग उक्त बातों के निर्णय तथा प्रतिपादन में प्रवृत्त होते रहे हैं, इसी से कोई भी ठीक निर्णय अभी तक नहीं हो पाया। वे विवादापन्न ही चली जाती हैं और सिद्धसेन के विषय में जो भी परिचय-लेख लिखे गये हैं, वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही गलतफहमियों को जन्म दे रहे तथा प्रचार में ला रहे हैं। अतः इस विषय में गहरे अनुसन्धान के साथ गंभीर विचार की जरूरत है और उसी का यहाँ पर प्रयत्न किया जाता है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १२६)। "दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में सिद्धसेन के नाम पर जो ग्रंथ चढ़े हुए हैं, उनमें से कितने ही ग्रंथ तो ऐसे हैं, जो निश्चितरूप में दूसरे उत्तरवर्ती सिद्धसेनों की कृतियाँ हैं, जैसे १.जीतकल्पचूर्णि, २.तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका, ३.प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति, ४. एकविंशतिस्थानप्रकरण (प्रा.) और ५.सिद्धिश्रेयसमुदय (शक्रस्तव) नाम का मंत्रगर्भित गद्यस्तोत्र। कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जिनका सिद्धसेन नाम के साथ उल्लेख तो मिलता है, परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १.बृहत्-षड्दर्शनसमुच्चय (जैन-ग्रंथावली, पृ. ९४), २.विषोग्रग्रहशमनविधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम ९वीं शताब्दी) के कल्याणकारक वैद्यकग्रंथ (२०-८५) में पाया जाता है और ३.नीतिसार-पुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि (वि० सं० १६८८) कृत कर्णामृतपुराण के निम्न पद्यों में पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिम्। विधास्यामि प्रसन्नार्थं ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम्॥ १९॥ खंखाग्निरसवाणेन्दु (१५६३००) श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता। नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः॥ २०॥ उपलब्ध न होने के कारण ये तीनों ग्रन्थ विचार में कोई सहायक नहीं हो २. हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरि का 'षड्दर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलती से सूरत के उन सेठ भगवानदास कल्याणदास की प्राइवेट रिपोर्ट में, जो पिटर्सन साहब की नौकरी में थे, दर्ज हो गया हो, जिस पर से जैनग्रन्थावली में लिया गया है। क्योंकि इसके साथ में जिस टीका का उल्लेख है, उसे 'गुणरत्न' की लिखा है और हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पर भी गुणरत्न की टीका है। ३. "शालाक्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतंत्रं च पात्रस्वामि-प्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः, प्रसिद्धैः।" For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ सकते। इन आठ ग्रन्थों के अलावा चार ग्रन्थ और हैं-१. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २. प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३. न्यायावतार और ४. कल्याणमन्दिर।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १२६-१२७)। कल्याणमन्दिरस्तोत्र-वर्णित पार्श्वनाथ-उपसर्ग श्वेताम्बरमत-विरुद्ध "कल्याणमन्दिर नाम का स्तोत्र ऐसा है, जिसे श्वेताम्बरसम्प्रदाय में सिद्धसेन दिवाकर की कृति समझा और माना जाता है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में वह स्तोत्र के अन्तिम पद्य में सूचित किये हुए कुमुदचन्द्र नाम के अनुसार कुमुदचन्द्राचार्य की कृति माना जाता है। इस विषय में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का यह कहना है कि "सिद्धसेन का नाम दीक्षा के समय कुमुदचन्द्र रक्खा गया था, आचार्यपद के समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया था, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरि के प्रभावकचरित (सं० १३३४) से जाना जाता है और इसलिये कल्याणमन्दिर में प्रयुक्त हुआ कुमुदचन्द्र नाम सिद्धसेन का ही नामान्तर है।" दिगम्बर समाज इसे पीछे की कल्पना और एक दिगम्बरकृति को हथियाने की योजनामात्र समझता है, क्योंकि प्रभावकचरित से पहले सिद्धसेनविषयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये हैं, उनमें कुमुदचन्द्र नाम का कोई उल्लेख नहीं है, पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने अपनी प्रस्तावना में भी इस बात को व्यक्त किया है। बाद के बने हुए मेरुतुङ्गाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१) में और जिनप्रभसूरि के विविधतीर्थकल्प (सं०१३८९) में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखर के प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध (सं०१४०५) में कुमुदचंद्र नाम को अपनाया जरूर गया है, परन्तु प्रभावकचरित के विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्र को पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका के रूप में व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीर की द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका-स्तुति से जब कोई चमत्कार देखने में नहीं आया, तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका रची गई है, जिसके ११वें से नहीं, किन्तु प्रथम पद्य से ही चमत्कार का प्रारम्भ हो गया। ऐसी स्थिति में पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका के रूप में जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह ३२ पद्यों का कोई दूसरा ही होना चाहिये, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना ४४ पद्यों में हुई है और इससे दोनों कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये। इसके सिवाय, वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र में 'प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि रोषात्' (३१) इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं, जो पार्श्वनाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यता के अनुकूल और ४. "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता। परं तस्मात्तादृक्षं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकर्तुं कल्याणमन्दिरस्तवं चक्रे प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गाद् धूमवर्तिरुदतिष्ठत्।" पाटन की हेमचन्द्राचार्य-ग्रन्थावली में प्रकाशित प्रबन्धकोश। For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७३ श्वेताम्बर मान्यता के प्रतिकूल हैं, क्योंकि श्वेताम्बरीय आचाराङ्गनिर्युक्ति में वर्द्धमान को छोड़कर शेष २३ तीर्थंकरों के तप:कर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया है । ५ इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बरकृति होनी चाहिये ।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १२७-१२८) । " प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने ग्रंथ की गुजराती प्रस्तावना में ६ विविधतीर्थकल्प को छोड़कर शेष पाँच प्रबन्धों का सिद्धसेनविषयक सार बहुपरिश्रम के साथ दिया है और उसमें कितनी ही परस्परविरोधी तथा मौलिक मतभेद की बातों का भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि “सिद्धसेन दिवाकर का नाम मूल में कुमुदचंद्र नहीं था, होता तो दिवाकरविशेषण की तरह यह श्रुतिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रंथ में सिद्धसेन की निश्चित कृति अथवा उसके उद्धृत वाक्यों के साथ जरूर उल्लेखित मिलता । प्रभावकचरित से पहले के किसी भी ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिर को सिद्धसेन की कृति सिद्ध करने के लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, वह सन्देहास्पद है।" ऐसी हालत में कल्याणमन्दिर की बात को यहाँ छोड़ ही दिया जाता है । प्रकृतविषय के निर्णय में वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है । " (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता/ पृ. १२८) । ४ न्यायावतार एवं ३२ द्वात्रिंशिकाओं का परिचय ** 'अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायावतार की बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकों का प्रमाण-नय-विषयक लघुग्रंथ है, जिसके आदि - अन्त में कोई मंगलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है, जो आमतौर पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर की कृति माना जाता है और जिस पर श्वे० सिद्धर्षि (सं० ९६२) की विवृति और उस विवृति पर देवभद्र की टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनों टीकाएँ डॉ० पी० एल० वैद्य के द्वारा सम्पादित होकर सन् १९२८ में प्रकाशित हो चुकी हैं। सन्मतिसूत्र का परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है। उस पर अभयदेवसूरि की २५ हजार श्लोक - परिमाण जो संस्कृतटीका है, वह उक्त दोनों विद्वानों के द्वारा सम्पादित होकर संवत् १९८७ ५. सव्वेसिं तवो कम्मं निरुवसग्गं तु वण्णियं जिणाणं । नवरं तु माण्स्ससोवसग्गं मुणेयव्वं ॥ २७६ ॥ ६. यह प्रस्तावना ग्रन्थ के गुजराती अनुवाद - भावार्थ के साथ सन् १९३२ में प्रकाशित हुई है और ग्रन्थ का यह गुजराती संस्करण बाद को अंग्रेजी में अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क' के नाम से सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका ३२-३२ पद्यों की ३२ कृतियाँ बतलाई जाती हैं, जिनमें से २१ उपलब्ध हैं। उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भावनगर की जैनधर्मप्रसारक सभा की तरफ से विक्रम संवत् १९६५ में प्रकाशित हो चुकी हैं। ये जिस क्रम से प्रकाशित हुई हैं, उसी क्रम से निर्मित हुई हों, ऐसा उन्हें देखने से मालूम नहीं होता, वे बाद को किसी लेखक अथवा पाठक द्वारा उस क्रम से संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती हैं। इस बात को पं० सुखलाल जी आदि ने भी प्रस्तावना में व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि "ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ सिद्धसेन ने जैनदीक्षा स्वीकार करने के पीछे ही रची हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमें से कितनी ही द्वात्रिंशिकाएँ (बत्तीसियाँ) उनके पूर्वाश्रम में भी रची हुई हो सकती हैं।" और यह ठीक है, परन्तु ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की रची हुई हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, चुनाँचे २१वीं द्वात्रिंशिका के विषय में पं० सुखलाल जी आदि ने प्रस्तावना में यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि "उसकी भाषारचना और वर्णित वस्तु की दूसरी बत्तीसियों के साथ तुलना करने पर ऐसा मालूम होता है कि वह बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेन की कृति है और चाहे जिस कारण से दिवाकर (सिद्धसेन) की मानी जाने वाली कृतियों में दाखिल होकर दिवाकर के नाम पर चढ़ गई है।" इसे महावीरद्वात्रिंशिका लिखा है, महावीर नाम का इसमें उल्लेख भी है, जबकि और किसी द्वात्रिंशिका में 'महावीर' उल्लेख नहीं है, प्रायः 'वीर' या 'वर्द्धमान' नाम का ही उल्लेख पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या ३३ है और ३३ वें पद्य में स्तुति का माहात्म्य दिया हुआ है, ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिंशिकाओं से विलक्षण हैं और उनसे इसके भिन्नकर्तृत्व की द्योतक हैं। इस पर टीका भी उपलब्ध है, जब कि और किसी द्वात्रिंशिका पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है। चंद्रप्रभसूरि ने प्रभावकचरित में न्यायावतावर की, जिस पर टीका उपलब्ध है, गणना भी ३२ द्वात्रिंशिकाओं में की है, ऐसा कहा जाता है, परन्तु प्रभावकचरित में वैसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और न उसका समर्थन पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अन्य किसी प्रबन्ध से ही होता है। टीकाकारों ने भी उसके द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका का अंग होने की कोई बात सूचित नहीं की, और इसलिये न्यायावतार एक स्वतंत्र ही ग्रंथ होना चाहिये तथा उसी रूप में प्रसिद्धि को भी प्राप्त है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १२८-१२९)। "२१वीं द्वात्रिंशिका के अन्त में सिद्धसेन नाम भी लगा हुआ है, जब कि ५वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर और किसी द्वात्रिंशिका में वह नहीं पाया जाता। हो सकता ७. यह द्वात्रिंशिका अलग ही है, ऐसा ताडपत्रीय प्रति से भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिंशिकाएँ अंकित हैं और उनके अन्त में "ग्रन्थाग्रं ८३० मंगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थ की समाप्ति के साथ उसकी श्लोकसंख्या का भी द्योतक है। जैनग्रन्थावली (पृ. २८१)-गत ताडपत्रीय प्रति में भी २० द्वात्रिंशिकाएँ हैं। For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७५ है कि ये नामवाली दोनों द्वात्रिंशिकाएँ अपने स्वरूप पर से एक नहीं, किन्तु दो अलगअलग सिद्धसेनों से सम्बन्ध रखती हों और शेष बिना नामवाली द्वात्रिंशिकाएँ इनसे भिन्न दूसरे ही सिद्धसेन अथवा सिद्धसेनों की कृतिस्वरूप हों। पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने पहली पाँच द्वात्रिंशिकाओं को, जो वीर भगवान् की स्तुतिपरक हैं, एक ग्रूप (समुदाय) में रक्खा है और उस ग्रूप (द्वात्रिंशिकापंचक) का स्वामी समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र के साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि "स्वयम्भूस्तोत्र का प्रारंभ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्द से होता है और अन्तिम पद्य (१४३) में ग्रन्थकार ने श्लेषरूप से अपना नाम समन्तभद्र सूचित किया है, उसी प्रकार इस द्वात्रिशिकापंचक का प्रारम्भ भी स्वयम्भू शब्द से होता है और उसके अन्तिम पद्य (५,३२) में भी ग्रंथकार ने श्लेषरूप में अपना नाम सिद्धसेन दिया है।" इससे शेष १५ द्वात्रिंशिकाएँ भिन्न ग्रूप अथवा ग्रूपों से सम्बन्ध रखती हैं और उनमें प्रथम ग्रूप की पद्धति को न अपनाये जाने अथवा अंत में ग्रंथकार का नामोल्लेख तक न होने के कारण वे दूसरे सिद्धसेन या सिद्धसेनों की कृतियाँ भी हो सकती हैं। उनमें से ११वीं किसी राजा की स्तुति को लिये हुए है, छठी तथा आठवीं समीक्षात्मक हैं और शेष बारह दार्शनिक तथा वस्तुचर्चावाली हैं।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १२९)। "इन सब द्वात्रिंशिकाओं के सम्बन्ध में यहाँ दो बातें और भी नोट किये जाने के योग्य हैं-एक यह कि द्वात्रिंशिका (बत्तीसी) होने के कारण जब प्रत्येक की पद्यसंख्या ३२ होनी चाहिये थी, तब वह घट-बढ़रूप में पाई जाती है। १०वीं में दो पद्य तथा २१वीं में एक पद्य बढ़ती है, और ८वीं में छह पद्यों की, ११वीं में चार की तथा १५वीं में एक पद्य की घटती है। यह घट-बढ़ भावनगर की उक्त मुद्रित प्रति में ही नहीं पाई जाती, बल्कि पूना के भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट और कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी की हस्तलिखित प्रतियों में भी पाई जाती है। रचना-समय की तो यह घट-बढ़ प्रतीति का विषय नहीं, पं० सुखलाल जी आदि ने भी लिखा है कि "बढ़-घट की यह घालमेल रचना के बाद ही किसी कारण से होनी चाहिये।" इसका एक कारण लेखकों की असावधानी हो सकता है, जैसे १९वीं द्वात्रिंशिका में एक पद्य की कमी थी, वह पूना और कलकत्ता की प्रतियों से पूरी हो गई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किसी ने अपने प्रयोजन के वश घालमेल की हो। कुछ भी हो, इससे उन द्वात्रिंशिकाओं के पूर्णरूप को समझने आदि में बाधा पड़ रही है, जैसे ११वीं द्वात्रिंशिका से यह मालूम ही नहीं होता कि वह कौन से राजा की स्तुति है, और इससे उसके रचयिता तथा रचना-काल को जानने में भारी बाधा उपस्थित है। यह नहीं हो सकता कि किसी विशिष्ट राजा की स्तुति की जाय और उसमें उसका नाम तक भी न हो। दूसरी स्तुत्यात्मक द्वात्रिंशिकाओं में स्तुत्य का नाम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ बराबर दिया हुआ है, फिर यही उससे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता। अतः जरूरत इस बात की है कि द्वात्रिंशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय। इससे अनुपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भी यदि कोई होंगी, तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से वे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकेंगी, जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलाल जी आदि को भी भारी शिकायत है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १२९-१३०)। "दूसरी बात यह कि द्वात्रिंशिकाओं को स्तुतियाँ कहा गया है और इनके अवतार का प्रसङ्ग भी स्तुति-विषयक ही है, क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धों के अनुसार विक्रमादित्य राजा की ओर से शिवलिंग को नमस्कार करने का अनुरोध होने पर जब सिद्धसेनाचार्य ने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार सहन करने में समर्थ नहीं है, मेरा नमस्कार सहन करनेवाले दूसरे ही देवता हैं, तब राजा ने कौतुकवश, परिणाम की कोई परवाह न करते हुए नमस्कार के लिए विशेष आग्रह किया। इस पर सिद्धसेन शिवलिंग के सामने आसन जमाकर बैठ गये और इन्होंने अपने इष्टदेव की स्तुति उच्चस्वर आदि के साथ प्रारम्भ कर दी; जैसा कि निम्न वाक्यों से प्रकट है श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिंगस्य स प्रभुः। उदाजह्वे स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरस्तदा॥ १३८॥ प्रभावकचरित। "ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तुतिमुपचक्रमे।" ___ विविध-तीर्थकल्प, प्रबन्धकोश। परन्तु उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओं में स्तुतिपरक द्वात्रिंशिकाएँ केवल सात ही हैं, जिनमें भी एक राजा की स्तुति होने से देवताविषयक स्तुतियों की कोटि से निकल जाती है और इस तरह छह द्वात्रिंशिकाएँ ही ऐसी रह जाती हैं, जिनका श्रीवीरवर्द्धमान ८. "सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसियाहिं जिणथुई"--- गद्यप्रबन्ध-कथावली। तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुई समत्ताहिं। बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं उद्दामसद्देण॥ पद्यप्रबन्ध / स.प्र./ पृ.५६। न्यायावतारसूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ। द्वात्रिंशच्छ्लोकमानाश्च त्रिंशदन्याः स्तुतीरपि॥ १४३॥ प्रभावकचरित। ९. ये मत्प्रणामसोढारस्ते देवा अपरे ननु। किं भावि प्रणम त्वं द्राक प्राह राजेति कौतुकी॥ १३५॥ देवान्निजप्रणम्यांश्च दर्शय त्वं वदन्निति। भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे नृप॥ १३६ ।। For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७७ की स्तुति से सम्बन्ध है और जो उस अवसर पर उच्चरित कही जा सकती हैं, शेष १४ द्वात्रिंशिकाएँ न तो स्तुति - विषयक हैं, न उक्त प्रसंग के योग्य हैं और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती, जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेन ने शिवलिङ्ग के सामने बैठ कर की थी।" (पु.जै.वा.सू / प्रस्ता. / पृ. १३०) । "यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकचरित के अनुसार स्तुति का प्रारम्भ "प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयं" इत्यादि श्लोकों से हुआ है, जिनमें से 'तथा हि' शब्द के साथ चार श्लोकों १० को उद्धृत करके उनके आगे इत्यादि लिखा गया है। और फिर 'न्यायावतारसूत्रं च' इत्यादि श्लोक द्वारा ३२ कृतियों की और सूचना की गई है, जिनमें से एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और ३० बत्तीस-बत्तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रबन्धचिन्तामणि के अनुसार स्तुति का प्रारम्भ प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ " इस श्लोक से होता है, जिसके अनन्तर " इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता " लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुति का प्रथम श्लोक है। इस श्लोक तथा उक्त चारों श्लोकों में से किसी से भी प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओं का प्रारंभ नहीं होता है, न ये श्लोक किसी द्वात्रिंशिका में पाये जाते हैं और न इनके साहित्य का उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओं के साहित्य के साथ कोई मेल ही खाता है । ऐसी हालत में इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्ध में उल्लेखित द्वात्रिंशिका - स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये । प्रभावकचरित के उल्लेख पर से इसका और भी समर्थन होता है, क्योंकि उसमें श्रीवीरस्तुति के १०. चारों श्लोक इस प्रकार हैंप्रकाशितं त्वयैकेन यथा समस्तैरपि नो नाथ ! विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि त्वद्वाक्यतोऽपि केषाञ्चिदबोध तथा भानोर्मरीचयः कस्य नाम नो वाद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ १४२ ॥ सम्यग्जगत्त्रयम् । वरतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १३९॥ किं तारकागणः ॥ १४० ॥ इति मेऽद्भुतम् । नालोकहेतवः ॥ १४१ ॥ क्लिष्टचेतसः । लिखित पद्यप्रबन्ध में भी ये ही चारों श्लोक 'तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुई' इत्यादि साथ दिये हैं । ( स. प्र./ पृ. ५४ / टि. ५८) । पद्य के अनन्तर यथा शब्द के For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओं को अन्याः स्तुती: लिखा है, वे श्रीवीर से भिन्न दूसरे ही तीर्थङ्करादि की स्तुतियाँ जान पड़ती हैं और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के प्रथम ग्रूप द्वात्रिंशिकापञ्चक में उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिसमें की प्रत्येक द्वात्रिंशिका श्रीवीरभगवान से ही सम्बन्ध रखती है । उक्त तीनों प्रबन्धों के बाद बने हुए विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश ( चतुर्विंशतिप्रबन्ध) में स्तुति का प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रं' इत्यादि पद्य से होता है, जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के प्रथम ग्रूप का प्रथम पद्य है, इसे देकर "इत्यादि श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" ऐसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओं का सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के साथ जोड़ने के लिये बाद को अपनाया गया मालूम होता है, क्योंकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धों से इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धों से इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है। दूसरे, इन दोनों ग्रंथों में द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका को एकमात्र श्री वीर से सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी देवं स्तोतुमुपचक्रमे शब्दों के द्वारा स्तुति ही बतलाया गया है, परन्तु उस स्तुति को पढ़ने से शिवलिंग का विस्फोट होकर उसमें से वीरभगवान् की प्रतिमा का प्रादुर्भूत होना किसी ग्रंथ में भी प्रकट नहीं किया गया । विविधतीर्थकल्प के कर्ता ने आदिनाथ की, और प्रबन्धकोश के कर्ता ने पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रकट होना बतलाया है । और यह एक असंगत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थंकर की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थंकर की प्रकट होवे । (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १३० - १३१)। " इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में उक्त १४ द्वात्रिंशिकाएँ, जो स्तुतिविषय तथा वीर की स्तुति से सम्बन्ध नहीं रखतीं, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओं में परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलाल जी तथा पं० बेचरदास जी का प्रस्तावना में यह लिखना कि "शुरुआत में दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवनवृत्तान्त में स्तुत्यात्मक बत्तीसियों (द्वात्रिंशिकाओं) को ही स्थान देने की जरूरत मालूम हुई और इनके साथ में संस्कृत भाषा तथा पद्यसंख्या में समानता रखनेवाली, परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं, ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके जीवनवृत्तान्त में स्तुत्यात्मक कृतिरूप में ही दाखिल हो गईं और पीछे किसी ने इस हकीकत को देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्तीसियों में कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन - कौन स्तुतिरूप नहीं हैं" और इस तरह सभी प्रबंध - रचयिता आचार्यों को ऐसी मोटी भूल के शिकार बतलाना कुछ भी जी को लगनेवाली बात मालूम नहीं होती। उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं की संगति बिठलाने का प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होने से समुचित प्रतीत नहीं होता । द्वात्रिंशिकाओं की इस सारी छान-बीन पर से निम्न बातें फलित होती हैं For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७९ "१. द्वात्रिंशकाएँ जिस क्रम से छपी हैं, उसी क्रम से निर्मित नहीं हुई हैं। "२. उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन के द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होती। ___ ३. न्यायावतार की गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती। "४. द्वात्रिंशिकाओं की संख्या में जो घट-बढ़ पाई जाती है वह, रचना के बाद हुई है और उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है, जोकि किसी के द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजन के लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओं का पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है। "५. उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं का प्रबन्धों में वर्णित द्वात्रिंशिकाओं के साथ, जो सब स्तुत्यात्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिग्रंथ 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की अंग जान पड़ती हैं, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दूसरे से भिन्न तथा भिन्नकर्तृक प्रतीत होती हैं। "ऐसी हालत में किसी द्वात्रिंशिका का कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलता है, तो उसे उसी द्वात्रिंशिका तथा उसके कर्ता तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओं में से किसी दूसरी द्वात्रिंशिका के विषय के साथ उसे जोड़कर उस पर से कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये, जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिंशिकाकार की कृति है। अस्तु।"(पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १३१-१३२)। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन केवल 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता । "अब देखना यह है कि इन द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार में से कौन-सी रचना सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन आचार्य की कृति है अथवा हो सकती है? इस विषय में पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने अपनी प्रस्तावना में यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ, न्यायावतार और 'सन्मति' ये सब एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हैं, और ये सिद्धसेन वे हैं, जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धों के अनुसार वृद्धवादी के शिष्य थे और दिवाकर नाम के साथ प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। दूसरे श्वेताम्बर विद्वानों का बिना किसी जाँच-पड़ताल के अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्ति का मूल है, जिसके कारण सिद्धसेन-विषयक जो भी परिचय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ लेख अब तक लिखे गये, वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियों को फैला रहे हैं और उनके द्वारा सिद्धसेन के समयादिक का ठीक निर्णय नहीं हो पाता। इसी मान्यता को लेकर विद्वद्वर पं० सुखलाल जी की स्थिति सिद्धसेन के समयसम्बन्ध में बराबर डाँवाडोल चली जाती है। आप प्रस्तुत सिद्धसेन का समय कभी विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व ५वीं शताब्दी १ बतलाते हैं, कभी छठी शताब्दी का भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूप में छठी या सातवीं शताब्दी१३ निर्दिष्ट करते हैं और कभी ५वीं तथा ६ठीं शताब्दी का मध्यवर्ती काल १४ प्रतिपादन करते हैं। और बड़ी मजे की बात यह है कि जिन प्रबन्धों के आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का परिचय दिया जाता है, उनमें न्यायावतार का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्ध में पाया भी जाता है, परन्तु सिद्धसेन की कृतिरूप में सन्मतिसूत्र का कोई उल्लेख कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। इतने पर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेन की कृतियों में उसे भी शामिल किया जाता है! यह कितने आश्चर्य की बात है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १३२-१३३)। "ग्रन्थ की प्रस्तावना में पं० सुखलाल जी आदि ने, यह प्रतिपादन करते हुए कि "उक्त प्रबन्धों में वे द्वात्रिंशिकाएँ भी, जिनमें किसी की स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनों तथा स्वदर्शन के मन्तव्यों के निरूपण तथा समालोचन को लिये हुए हैं, स्तुतिरूप में परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवन में उनकी कृतिरूप से स्थान मिला है," इसे एक 'पहेली' ही बतलाया है, जो स्वदर्शन का निरूपण करनेवाले और द्वात्रिंशिकाओं से न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) सन्मतिप्रकरण को दिवाकर के जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियों में स्थान क्यों नहीं मिला। परन्तु इस पहेली का कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि "सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता, तो वह प्राकृतभाषा में होते हुए भी दिवाकर के जीवनवृत्तान्त में स्थान पाई हुई संस्कृतबत्तीसियों के साथ में परिगणित हुए बिना शायद ही रहता।" पहेली का यह हल कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। प्रबन्धों से इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बात का कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जो द्वात्रिंशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं, वे सब दिवाकर सिद्धसेन के जीवनवृत्तान्त में दाखिल हो गई हैं और उन्हें भी उन्हीं ११. सन्मतिप्रकरण/ प्रस्तावना / पृ. ३९,४३,६४,९४। १२. ज्ञानबिन्दु-परिचय/ पृ.६। १३. सन्मतिप्रकरण के अंग्रेजी संस्करण का फोरवर्ड (Forword) और भारतीयविद्या में प्रकाशित 'श्रीसिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रश्न' नाम लेख (भारतीय विद्या/तृतीय भाग/ पृ. १५२)। १४. 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' नामक लेख (भारतीयविद्या / तृतीय भाग/ पृ. ११)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८१ सिद्धसेन की कृतिरूप से उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादन का ही समर्थन होता, प्रबन्धवर्णित जीवनवृत्तान्त में उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरित में न्यायावतार का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जस उल्लेख मिलता है, उस पर से उसकी गणना उस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका के अङ्गरूप में नहीं की जा सकती, जो सब जिन-स्तुतिपरक थी, वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है, जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है। और सन्मतिप्रकरण का बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेन के जीवनवृत्तान्त से सम्बद्ध कृतियों में उसके परिगणित होने के लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकता, खासकर उस हालत में जब कि चवालीस पद्यसंख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्र को उनकी कृतियों में परिगणित किया गया है और प्रभावकचरित में इस पद्यसंख्या का स्पष्ट उल्लेख भी साथ में मौजूद है।५ वास्तव में प्रबन्धों पर से यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकर की कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादी के शिष्य थे और जिन्हें आगमग्रन्थोंको संस्कृत में अनुवादित करने का अभिप्रायमात्र व्यक्त करने पर पारञ्चिकप्रायश्चित्त के रूप में बारह वर्ष तक श्वेताम्बरसंघ से बाहर रहने का कठोर दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ को उन्हीं सिद्धसेन की कृति बतलाना, यह सब बाद की कल्पना और योजना ही जान पड़ती है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता/पृ. १३३)। समान प्रतिभा का हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास-"पं० सुखलाल जी ने प्रस्तावना में तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र का एककर्तृत्व प्रतिपादन करने के लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियों को एक ही आचार्यकृत माना जा सके। प्रस्तावना में केवल इतना ही लिख दिया है कि "इन सबके पीछे रहा हुआ प्रतिभा का समान तत्त्व ऐसा मानने के लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभा के फल हैं।" यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकार से अपनी मान्यता का प्रकाशनमात्र है, क्योंकि इन सभी ग्रन्थों पर से प्रतिभा का ऐसा कोई असाधारण समान तत्त्व उपलब्ध नहीं होता, जिसका अन्यत्र कहीं भी दर्शन न होता हो। स्वामी समन्तभद्र के मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमांसा ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकों ने दोनों में पुष्कल साम्य का होना स्वीकार किया है और दोनों आचार्यों की ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभा का कितना ही चित्रण किया है। और भी अकलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही आचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थों के पीछे रहनेवाली प्रतिभा से कम नहीं है, तब प्रतिभा की समानता ऐसी कोई बात नहीं रह १५. ततश्चतुश्चत्वारिंशवृत्तां स्तुतिमसौ जगौ। कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने ॥ १४४॥ वृद्धवादिप्रबन्ध/ पृ. १०१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ जाती, जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधार पर इन सब ग्रन्थों को, जिनके प्रतिपादन में परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक ही आचार्यकृत नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है समानप्रतिभा के उक्त लालच में पड़कर ही बिना किसी गहरी जाँच-पड़ताल के इन सब ग्रन्थों को एक ही आचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यता को प्रश्रय दिया गया है, जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थों की अन्तःपरीक्षादि पर से मुझे इस बात का पता चला है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन से भिन्न हैं। यदि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हों, तो वे उनमें से किसी भी द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं। न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन की भी ऐसी ही स्थिति है। वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन से जहाँ भिन्न हैं, वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन से भी भिन्न हैं और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एक से अधिक सिद्धसेनों की कृतियाँ हों, तो वे उनमें से कुछ के कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसी के भी कर्ता नहीं बन सकते। इस तरह 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता, 'न्यायावतार' के कर्ता और कतिपय 'द्वात्रिंशिकाओं' के कर्ता तीन सिद्धसेन अलग-अलग हैं। शेष द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता इन्हीं में से कोई एक या दो अथवा तीनों हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिका के कर्ता इन तीनों से भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्धसेनों का अस्तित्वकाल एक दूसरे से भिन्न अथवा कुछ अन्तराल को लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्र के कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतार के कर्ता हैं। नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातों को संक्षेप में स्पष्ट करके बतलाया जाता है५.१. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन अभेदवाद (एकोपयोगवाद) के पुरस्कर्ता .. "सन्मतिसूत्र के द्वितीय काण्ड में केवली के ज्ञान-दर्शन-उपयोगों की क्रमवादिता और युगपद्वादिता में दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिता का स्थापन किया है। साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण का युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होते और केवली में क्रमशः भी नहीं होते। इन ज्ञान और दर्शन उपयोगों का भेद मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान हो जाने पर दोनों में कोई भेद नहीं रहता। तब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनों में कोई विषयभेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थों से अपने इस कथन की सङ्गति बिठलाने के लिये दर्शन की 'अर्थविशेषरहित निराकर सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है, उसे भी बदल कर For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८३ रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि 'अस्पृष्ट तथा अविषयरूप पदार्थ में अनुमानज्ञान को छोड़कर जो ज्ञान होता है, वह दर्शन है।' इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥ ३ ॥ केई भांति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥ ४ ॥ केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥ ५ ॥ सुत्तम्मि चेव 'साई अपज्जवसियं' ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरू तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ ७॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स केवलणाणम्मि य दंसणस्स संभवो णत्थि । तम्हा सहिणाई ॥ ८ ॥ अण्णायं पासंतो अद्दिनं किं जाणइ किं पासइ कह णाणं अप्पुट्ठे अविसए मोत्तूण लिंगओ जं जं अप्पुट्ठे भावे तम्हा तं णाणं दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं । होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुवे णत्थि उवओगा ॥ ९ ॥ च अरहा वियाणंतो । सव्वण्णू त्ति वा होइ ॥ १३ ॥ य अत्थम्मि दंसणं होइ । अणागयाईयविससु ॥ २५ ॥ जाणइ पासइ य केवली णियमा । दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥ ३० ॥ " इसी से सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अभेदवाद के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानबिन्दु के कर्ता उपाध्याय यशोविजय ने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। ज्ञानबिन्दु में तो एतद्विषयक सन्मति - गाथाओं की व्याख्या करते हुए उनके इस वाद को श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमतं (सिद्धसेन की अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक लिखा है। ज्ञानबिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना के आदि में पं० सुखलाल जी ने भी ऐसी ही घोषणा की है। " (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ. १३३ - १३५) । For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ ५.२. प्रथम-द्वितीय-पंचम द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वादप्रतिपादक "पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वाद की मान्यता को लिये हुए हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषयं यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि। अनेनैवाऽचिन्त्यप्रकृतिरससिद्धेस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्वारं तव गुण-कथोत्का वयमपि॥ १/३२॥ नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सीनं ज्ञातवानसि न तेऽच्युत! वेद्यमस्ति। त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच्च विश्वं पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम्॥ २/३०॥ अनन्तमेकं युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिर्निप्रतिघातवृत्ति॥ ५/२१॥ दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञानं त्वया जन्म-जराऽन्तकर्तृ। तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ! लोकोत्तमतामुपेतः॥ ५/२२॥ "इन पद्यों में ज्ञान और दर्शन के जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं, उन सबको युगपत् जानने-देखने की बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्व के सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहितअव्यवहित आदि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-अनन्त अवस्थाओं अथवा पर्यायों-सहित वीरभगवान् के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ युगपत् शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शन के यौगपद्य का . उसी प्रकार द्योतक है, जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत आप्तमीमांसा (देवागम) के "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्" (का. १०१) इस वाक्य में प्रयुक्त हुआ युगपत् शब्द, जिसे ध्यान में लेकर और पादटिप्पणी में पूरी कारिका को उद्धृत करते हुए पं० सुखलाल जी ने ज्ञानबिन्दु के परिचय में लिखा है-"दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने भी अपनी आप्तमीमांसा में एकमात्र यौगपद्यपक्ष का उल्लेख किया है।" साथ ही, यह भी बतलाया है कि भट्ट अकलङ्क ने इस कारिकागत अपनी अष्टशती व्याख्या में यौगपद्य-पक्ष का स्थापन करते हुए क्रमिकपक्ष का, संक्षेप में पर स्पष्टरूप में, For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८५ खण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणी में निम्न प्रकार से उद्धृत किया है ___ "तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात्। कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य-विशेष-विषययोर्विगतावरणयोरयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराऽभावात्।" "ऐसी हालत में इन तीन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता वे सिद्धसेन प्रतीत नहीं होते, जो सन्मतिसूत्र के कर्ता और अभेदवाद के प्रस्थापक अथवा पुरस्कर्ता हैं, बल्कि वे सिद्धसेन जान पड़ते हैं, जो केवली के ज्ञान और दर्शन का युगपत् होना मानते थे। ऐसे एक युगपद्वादी सिद्धसेन का उल्लेख विक्रम की ८वीं-९वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य हरिभद्र ने अपनी नन्दीवृत्ति में किया है। नन्दीवृत्ति में 'केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा' इत्यादि दो गाथाओं को उद्धृत करके, जो कि जिन-भद्रक्षमाश्रमण के विशेषणवती ग्रन्थ की हैं, उनकी व्याख्या करते हुए लिखा है "केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणंति, किं? 'युगपद्' एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च, कः? केवली, न त्वन्यः, नियमात् नियमेन।" "नन्दीसूत्र के ऊपर मलयगिरिसूरि ने जो टीका लिखी है, उसमें उन्होंने भी युगपद्वाद का पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्य को बतलाया है। परन्तु उपाध्याय यशोविजय ने, जिन्होंने सिद्धसेन को अभेदवाद का पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानबिन्दु में यह प्रकट किया है कि "नन्दीवृत्ति में सिद्धसेनाचार्य का जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है, वह अभ्युपगमवाद के अभिप्राय से है, न कि स्वतन्त्रसिद्धान्त के अभिप्राय से, क्योंकि क्रमोपयोग और अक्रम (युगपत्) उपयोग के पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने सन्मति में अपने पक्ष का उद्भावन किया है,"१६ जो कि ठीक नहीं है। मालूम होता है उपाध्याय जी की दृष्टि में सन्मति के कर्ता सिद्धसेन ही एकमात्र सिद्धसेनाचार्य के रूप में रहे हैं और इसी से उन्होंने सिद्धसेन-विषयक दो विभिन्न वादों के कथनों से उत्पन्न हुई असङ्गति को दूर करने का यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नहीं है। चुनाँचे पं० सुखलाल जी ने उपाध्याय जी के इस कथन को कोई महत्त्व न देते हुए और हरिभद्र जैसे बहुश्रुत आचार्य के इस प्राचीनतम उल्लेख की महत्ता का अनुभव करते हुए ज्ञानबिन्दु के परिचय (पृ.६०) में अन्त को यह लिखा है कि "समान नामवाले अनेक आचार्य होते आए हैं। इसलिये असम्भव नहीं कि सिद्धसेनदिवाकर से भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों, जो कि युगपद्वाद के समर्थक हुए हों या माने जाते हों।" वे १६. "यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मती उद्भावितत्वादिति द्रष्टव्यम्।" ज्ञानबिन्दु / पृ. ३३। For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिंशिकाओं में से किसी के भी कर्ता होने चाहिये। अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओं को सन्मतिसूत्र के कर्ता आचार्य सिद्धसेन की जो कृति माना जाता है, वह ठीक और सङ्गत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जो केवली के विषय में युगपद् उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद्-उपयोगवादिता का समर्थन हरिभद्राचार्य के उक्त प्राचीन उल्लेख से भी होता है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १३५ - १३७) । ५. ३. निश्चयद्वात्रिंशिका एकोपयोगवाद-विरोधी, युगपद्वादी “ १९वीं निश्चयद्वात्रिंशिका में "सर्वोपयोग-द्वैविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्य के द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवों के उपयोग का द्वैविध्य अविनश्वर है ।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छद्मस्थज्ञानी हो या केवली, सभी के ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकार के उपयोगों का सत्त्व होता है । यह दूसरी बात है कि एक में वे क्रम से प्रवृत्त ( चरितार्थ ) होते हैं और दूसरें में आवरणाभाव के कारण युगपत्। इससे उस एकोपयोगवाद का विरोध आता है, जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्र में केवली को लक्ष्य में लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है । ऐसी स्थिति में यह १९वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति मालूम नहीं होती।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ. १३७) । ५.४. निश्चयद्वात्रिंशिका मति श्रुतभेद - अवधि - मन:पर्ययभेद-विरोधी " उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १९ में श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से अलग नहीं माना हैं, लिखा है कि “मतिज्ञान से अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नहीं है, श्रुतज्ञान को अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोष को लिये हुए है।" और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का अभेद प्रतिपादन किया है । इसी तरह अवधिज्ञान से भिन्न मनःपर्यायज्ञान की मान्यता का भी निषेध किया है, लिखा है कि " या तो द्वीन्द्रियादिक जीवों के भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघात के कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते हैं, मनःपर्यायविज्ञान का मानना युक्त होगा अन्यथा मनः पर्यायज्ञान कोई जुदी वस्तु नहीं है ।" इन दोनों मन्तव्यों के प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार हैं वैयर्थ्याऽतिप्रसंगाभ्यां न मत्यधिकं श्रुतम् । सर्वेभ्यः प्रार्थना - प्रतिघाताभ्यां मनः पर्यायविज्ञानं युक्तं तेषु न केवलं चक्षुस्तमः क्रम - विवेककृत् ॥ १३ ॥ चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । वाऽन्यथा ॥ १७ ॥ (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १३७) For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८७ ५.५. सन्मतिसूत्र मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-भेदसमर्थक __"यह सब कथन सन्मतिसूत्र के विरुद्ध है, क्योंकि उसमें श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनों को अलग ज्ञानों के रूप में स्पष्टरूप से स्वीकार किया गया है, जैसा कि उसके द्वितीय काण्डगत१७ निम्न वाक्यों से प्रकट है मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो॥ ३॥ जेण मणोविसयगयाण दंसणं णस्थि दव्वजायाणं। तो मणपजवणाणं णियमा णाणं तु णिहिटुं॥ १९॥ मणपजवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं। भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा॥ २६॥ मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलंभो। एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो?॥ २७॥ जं पच्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मिया अत्था। तम्हा दंसणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे॥ २८॥ ५.६. न्यायावतार मतिज्ञान-श्रुतज्ञानादि-भेदसमर्थक "ऐसी हालत में यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिंशिका (१९) उन्हीं सिद्धसेनाचार्य की कृति नहीं है, जो कि सन्मतिसूत्र के कर्ता हैं। दोनों के कर्ता सिद्धसेन नाम की समानता को धारण करते हुए भी एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं। साथ ही, यह कहने में भी कोई सङ्कोच नहीं होता कि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन भी निश्चयद्वात्रिंशिका के कर्ता से भिन्न हैं, क्योंकि उन्होंने श्रुतज्ञान के भेद को स्पष्टरूप से माना है और उसे अपने ग्रन्थ में शब्दप्रमाण अथवा आगम (श्रुत-शास्त्र) प्रमाण के रूप में रक्खा है, जैसा कि न्यायावतार के निम्न वाक्यों से प्रकट है दृष्टेष्टाऽव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाऽभिधायिनः। तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥ ८॥ आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथ-घट्टनम्॥ ९॥८ नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तेः श्रुतवर्मनि। सम्पूर्णार्थविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते॥ ३०॥ १७. तृतीयकाण्ड में भी आगमश्रुतज्ञान को प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। १८. यह पद्य मूल में स्वामी समन्तभद्रकृत 'रत्नकरण्ड' का है, वहीं से उद्धृत किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/ प्र०१ "इस सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने ज्ञानबिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना में, यह बतलाते हुए कि 'निश्चयद्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन ने मति और श्रुत में ही नहीं, किन्तु अवधि और मन:पर्याय में आगमसिद्ध भेद-रेखा के विरुद्ध तर्क करके उसे अमान्य किया है' एक फुटनोट द्वारा जो कुछ कहा है, वह इस प्रकार है "यद्यपि दिवाकरश्री (सिद्धसेन) ने अपनी बत्तीसी (निश्चय. १९) में मति और श्रुत के अभेद को स्थापित किया है, फिर भी उन्होंने चिरप्रचलित मति-श्रुत के भेद की सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतार में आगमप्रमाण को स्वतन्त्ररूप से निर्दिष्ट किया है। जान पड़ता है इस जगह दिवाकरश्री ने प्राचीन परम्परा का अनुसरण किया और उक्त बत्तीसी में अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकरश्री के ग्रन्थों में आगमप्रमाण को स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने और न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरीय धाराएँ देखी जाती हैं, जिनका स्वीकार ज्ञानबिन्दु में उपाध्याय जी ने भी किया है।''(पृ. २४)। "इस फुटनोट में जो बात निश्चयद्वात्रिंशिका और न्यायावतार के मति-श्रुत-विषयक विरोध के समन्वय में कही गई है, वही उनकी तरफ से निश्चयद्वात्रिंशिका और 'सन्मति' के अवधि-मनःपर्यय-विषयक विरोध के समन्वय में भी कही जा सकती है और समझनी चाहिये। परन्तु यह सब कथन एकमात्र तीनों ग्रन्थों की एककर्तृत्व-मान्यता पर अवलम्बित है, जिसका साम्प्रदायिक मान्यता को छोड़कर दूसरा कोई भी प्रबल आधार नहीं है और इसलिये जब तक द्वात्रिंशिका, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र तीनों को एक ही सिद्धसेनकृत सिद्ध न कर दिया जाय, तब तक इस कथन का कुछ भी मूल्य नहीं है। तीनों ग्रन्थों का एक-कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं है, प्रत्युत इसके द्वात्रिंशिका और अन्य ग्रन्थों के परस्पर विरोधी कथनों के कारण उनका विभिन्नकर्तृक होना पाया जाता है। जान पड़ता है कि पं० सुखलाल जी के हृदय में यहाँ विभिन्न सिद्धसेनों की कल्पना ही उत्पन्न नहीं हुई और इसीलिये वे उक्त समन्वय की कल्पना करने में प्रवृत्त हुए हैं, जो ठीक नहीं है, क्योंकि सन्मति के कर्ता सिद्धसेन-जैसे स्वतन्त्र विचारक यदि निश्चयद्वात्रिंशिका के कर्ता होते, तो उनके लिए कोई वजह नहीं थी कि वे एक ग्रन्थ में प्रदर्शित अपने स्वतन्त्र विचारों को दबाकर दूसरे ग्रन्थ में अपने विरुद्धपरम्परा के विचारों का अनुसरण करते, खासकर उस हालत में जब कि वे सन्मति में उपयोग-सम्बन्धी युगपद्वादादि की प्राचीन परम्परा का खण्डन करके अपने अभेदवाद-विषयक नये स्वतन्त्र विचारों को प्रकट करते हुए देखे जाते हैं, वहीं पर वे श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान-विषयक अपने उन स्वतन्त्र विचारों को भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये ज्ञानोपयोग का प्रकरण होने के कारण वह स्थल (सन्मति का द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था, परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिंशिका के विरुद्ध अपने विचारों को रक्खा है और इसलिये उस पर से यही फलित होता Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८९ है कि वे उक्त द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं, उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये। उपाध्याय यशोविजय जी ने 'द्वात्रिंशिका' का 'न्यायावतार' और 'सन्मति' के साथ जो उक्त विरोध बैठता है, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। "यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्रुत की अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिका के कथन का विरोध न्यायावतार और सन्मति के साथ ही नहीं है, बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिका के साथ भी है, जिसके 'सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्य में 'जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः' जैसे शब्दों द्वारा अर्हत्प्रवचनरूप श्रुत को प्रमाण माना गया है। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ.१३७-१३९)। ५.७. निश्चयद्वात्रिंशिका में ज्ञानदर्शनचारित्र व्यस्तरूप से मोक्षमार्ग, सन्मतिसूत्र में समस्तरूप से "निश्चयद्वात्रिंशिका की दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देने की हैं, जो सन्मति के साथ स्पष्ट विरोध रखती हैं और वे निम्न प्रकार हैं ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः। अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः॥ १॥ "इस पद्य में ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को मोक्ष-हेतुओं के रूप में तीन उपाय (मार्ग) बतलाया है, तीनों को मिलाकर मोक्ष का एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथमसूत्र में मोक्षमार्गः इस एक वचनात्मक पद के प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनों यहाँ समस्तरूप में नहीं, किन्तु व्यस्त (अलग-अलग) रूप में मोक्ष के मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं और उन्हें एक दूसरे का प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनों सम्यक् विशेषण से शून्य हैं और दर्शन को ज्ञान के पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है, जो कि समूची द्वात्रिंशिका पर से श्रद्धान अर्थ का वाचक भी प्रतीत नहीं होता। यह सब कथन सन्मतिसूत्र के निम्न वाक्यों के विरुद्ध जाता है, जिनमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्रतिपत्ति से सम्पन्न भव्यजीव को संसार के दुःखों का अन्तकर्तारूप में उल्लेखित किया है और कथन को हेतुवाद-सम्मत बतलाया है (३/४४) तथा दर्शन शब्द का अर्थ जिनप्रणीत पदार्थों का श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शन के उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञान को सम्यग्दर्शन से युक्त बतलाते हुए वह । इस तरह सम्यग्दर्शन रूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२/३२, ३३ ) एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे। पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवइ जुत्तो॥ २/३२॥ सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं उ भयणिजं। सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥ २/३३॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ भविओ सम्मद्दंसणणाणचरित्तपडिवत्तिसंपण्णो । णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥ ३/४४ ॥ " निश्चयद्वात्रिंशिका का यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिंशिकाओं के भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके नमूने इस प्रकार हैं क्रियां च संज्ञानवियोगनिष्फलां क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता क्लेशसमूहशान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥ १/ २९ ॥ नालमाऽऽमय - शान्तये । यथाऽगद-परिज्ञानं अचारित्रं तथा ज्ञानं न बुद्धयध्यव्यवसायतः ॥ १७/२७ ॥ "इनमें से पहली द्वात्रिंशिका के उद्धरण में यह सूचित किया है कि "वीरजिनेन्द्र ने सम्यग्ज्ञान से रहित क्रिया ( चारित्र) को और क्रिया से विहीन सम्यग्ज्ञान की सम्पदा को क्लेशसमूह की शान्ति अथवा शिवप्राप्ति के लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्पदा का निषेध करते हुए ही उन्होंने मोक्षपद्धति का निर्माण किया है।" और १७वीं द्वात्रिंशिका के उद्धरण में बतलाया है कि " जिस प्रकार रोगनाशक औषध का परिज्ञान मात्र रोग की शान्ति के लिए समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार चारित्ररहित ज्ञान को समझना चाहिए, वह भी अकेला भवरोग को शान्त करने में समर्थ नहीं है।" ऐसी हालत में ज्ञान, दर्शन और चारित्र को अलग-अलग मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बतलाना इन द्वात्रिंशिकाओं के भी विरुद्ध ठहरता है । " (पु.जै.वा.सू/प्रस्ता./पृ. १३९-१४०) । ५.८. निश्चयद्वात्रिंशिका में धर्म-अधर्म - आकाश द्रव्य अमान्य, सन्मतिसूत्र में मान्य प्रयोग - विस्सा-कर्म लोकानुभाववृत्तान्तः किं अ०१८ / प्र० १ आकाशमवगाहाय तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्यां तदभावस्थितिस्तथा । धर्माऽधर्मयोः फलम् ॥ १९ / २४॥ तदनन्या दिगन्यथा । वाऽन्यमुदाहृतम् ॥ १९/२५॥ प्रकाशवदनिष्टं स्यात्साध्ये नार्थस्तु न श्रमः । जीव-पुद्गलयोरेव परिशुद्धः "इन पद्यों में द्रव्यों की चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों की मान्यता को निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गल का ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्हीं दो द्रव्यों को मानना चाहिए, ऐसी प्रेरणा की है। यह सब कथन भी सन्मतिसूत्र के विरुद्ध है, क्योंकि उसके तृतीय काण्ड में द्रव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाश) के प्रकारों को बतलाते हुए उत्पाद के जो प्रयोगजनित (प्रयत्नजन्य) For Personal & Private Use Only परिग्रहः ॥ १९ / २६॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९१ तथा वैस्रसिक (स्वाभाविक ) ऐसे दो भेद किये हैं, उनमें वैस्रसिक उत्पाद के भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं, और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यों (आकाश, धर्म, अधर्म) में परनिमित्त से होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाश की भी ऐसी ही विधि बतलाई है। इससे सन्मतिकार सिद्धसेन की इन तीन अमूर्तिक द्रव्यों के, जो कि एक-एक हैं, अस्तित्व - विषय में मान्यता स्पष्ट है । यथा उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ व विस्ससा चेव । तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥ ३२॥ साभाविओ व समुदयकओ व्व एगत्तिओ व्व होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥ ३३ ॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्तं अत्थंतरभावगमणं च ॥ ३४॥ 44 'इस तरह यह निश्चयद्वात्रिंशिका कतिपय द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मति के विरुद्ध प्रतिपादनों को लिये हुए है । सन्मति के विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं कही जा सकती।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १३९-१४०)। ५. ९. निश्चयद्वात्रिंशिकाकार सिद्धसेन के लिए 'द्वेष्य श्वेतपट' विशेषण का प्रयोग "यही एक द्वात्रिंशिका ऐसी है जिसके अंत में उसके कर्ता सिद्धसेनाचार्य को अनेक प्रतियों में श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषण के साथ 'द्वेष्य' विशेषण से भी उल्लेखित किया गया है, जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रु का होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरोध के कारण ही उन्हें अपने ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान् द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्य के साथ इस विशेषण पद का प्रयोग किया गया है, वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना और एशियाटिक सोसाइटी बङ्गाल (कलकत्ता) की प्रतियों में निम्न प्रकार से पाया जाता है— "द्वेष्यश्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्चयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः ।" "दूसरी किसी द्वात्रिंशिका के अन्त में ऐसा कोई पुष्पिकावाक्य नहीं है । पूर्व की १८ और उत्तरवर्ती १ ऐसे १९ द्वात्रिंशिकाओं के अन्त में तो कर्ता का नाम तक भी नहीं दिया है। द्वात्रिंशिका की संख्यासूचक एक पंक्ति इति शब्द से युक्त अथवा For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ वियुक्त और कहीं-कहीं द्वात्रिंशिका के नाम के साथ भी दी हुई है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १४०-१४१)। "द्वात्रिंशिकाओं की उपर्युक्त स्थिति में यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाएँ अथवा २१वीं को छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ हैं, क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवी और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओं की बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मति के विरुद्ध जाने के कारण सन्मतिकार की कृतियाँ नहीं बनती। शेष द्वात्रिंशिकाएँ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेनों में से किसी एक या एक से अधिक सिद्धसेनों की रचनाएँ हैं, तो भिन्न व्यक्तित्व के कारण उनमें से कोई भी सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकती। और यदि ऐसा नहीं है, तो उनमें से अनेक द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेन की भी कृति हो सकती हैं, परन्तु हैं और अमुक अमुक हैं यह निश्चितरूप में उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता, जब तक इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जाए। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४१)। ५.१०. न्यायावतार सन्मतिसूत्र से एक शताब्दी पश्चात् की रचना "अब रही न्यायावतार की बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्र से कोई एक शताब्दी से भी अधिक बाद का बना हुआ है, क्योंकि इस पर समन्तभद्रस्वामी के उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्यों का ही नहीं, किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यों का भी स्पष्ट प्रभाव है। डॉ० हर्मन जैकोबी के मतानुसार १९ धर्मकीर्ति ने दिग्नाग के प्रत्यक्षलक्षण२० में कल्पनापोढ विशेषण के साथ अभ्रान्त विशेषण की वृद्धि कर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" यह प्रत्यक्ष का धर्मकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है, जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थ में पाया जाता है और जिसमें अभ्रान्त पद अपनी खास विशेषता रखता है। न्यायावतार के चौथे पद्य में प्रत्यक्ष का लक्षण, अकलङ्कदेव की तरह 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशं प्रत्यक्षम्" दिया है और अगले पद्य में, अनुमान का लक्षण देते हुए , 'तदभ्रान्तप्रमाणत्वात्समक्षवत्' वाक्य के द्वारा उसे (प्रत्यक्ष को) 'अभ्रान्त' विशेषण से विशेषित भी सूचित किया है। उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेन के सामने-उनके लक्ष्य में-धर्मकीर्ति १९. देखिए , 'समराइच्चकहा' की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतार की डॉ. पी. एल. वैद्यकृत प्रस्तावना। २०. "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्।" प्रमाणसमुच्चय। "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं यज्ज्ञानं नामजात्यादिकल्पनारहितम्।" न्यायप्रवेश। For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९३ का उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षण में, ग्राहक पद के प्रयोगद्वारा जहाँ प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्ति के कल्पनापोढ विशेषण का निरसन अथवा वेधन किया है, वहाँ उनके अभ्रान्त विशेषण को प्रकारान्तर से स्वीकार भी किया है। न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि भी ग्राहकं पद के द्वारा बौद्धों ( धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षण का निरसन होना बतलाते हैं । यथा— " ग्राहकमिति च निर्णायकं द्रष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्' (न्या. बि. ४) इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् । " " इसी तरह 'त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं' यह धर्मकीर्ति के अनुमान का लक्षण है। इसमें त्रिरूपात् पद के द्वारा लिङ्ग को त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमान के साधारण लक्षण को एक विशेषरूप दिया गया है। यहाँ इस अनुमानज्ञान को अभ्रान्त या भ्रान्त ऐसा कोई विशेषण नहीं दिया गया, परन्तु न्यायबिन्दु की टीका में धर्मोत्तर ने प्रत्यक्ष-लक्षण की व्याख्या करके और उसमें प्रयुक्त हुए अभ्रान्त विशेषण की उपयोगिता बतलाते हुए "भ्रान्तं ह्यनुमानम्" इस वाक्य के द्वारा अनुमान को भ्रान्त प्रतिपादित किया है । जान पड़ता है इस सबको भी लक्ष्य में रखते हुए ही सिद्धसेन ने अनुमान के " साध्याविनाभुनो ( वो) लिङ्गात्साध्यनिश्चायकमनुमानं" इस लक्षण का विधान किया है और इसमें लिङ्ग का साध्याविनाभावी ऐसा एकरूप देकर धर्मकीर्ति के त्रिरूप का - पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व तथा विपक्षासत्वरूप का निरसन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्य की योजना द्वारा अनुमान को प्रत्यक्ष की तरह अभ्रान्त बतलाकर बौद्धों की उसे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यता का खण्डन भी किया है। इसी तरह “न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्" इत्यादि छठे पद्य में उन दूसरे बौद्धों की मान्यता का खण्डन किया है, जो प्रत्यक्ष को अभ्रान्त नहीं मानते । यहाँ लिङ्ग के इस एकरूप का और फलतः अनुमान के उक्त लक्षण का आभारी पात्रस्वामी का वह हेतुलक्षण है, जिसे न्यायावतार की २२वीं कारिका में " अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् " इस वाक्य के द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधार पर पात्रस्वामी ने बौद्धों के त्रिलक्षणहेतु का कदर्थन किया था तथा त्रिलक्षणकदर्थन २१ नाम का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है, परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे हैं। विक्रम की ८वीं - ९वीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में त्रिलक्षणकदर्थन सम्बन्धी कुछ श्लोकों को उद्धृत किया है और उनके शिष्य कमलशील ने टीका में उन्हें " अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते" इत्यादि २१. महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्त्तुम् ॥१२ ॥ मल्लिषेणप्रशस्ति (श्र. शि. ५४ ) । For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ वाक्यों के साथ दिया है। उनमें से तीन श्लोक नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता। नाऽसति त्र्यंशकस्याऽपि तस्मात् क्लीबास्त्रिलक्षणाः॥ १३६४॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव हेतुता। दृष्टान्तौ द्वावपि स्तां वा मा वा तौ हि न कारणम्॥ १३६८॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्?। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्?॥ १३६९॥ "इनमें से तीसरे पद्य को विक्रम की ७वीं-८वीं शताब्दी के २२ विद्वान् अकलङ्कदेव ने अपने न्यायविनिश्चय (कारिका ३२३) में अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय (प्र.६) में इसे स्वामी का अमलालीढ पद प्रकट किया है तथा वादिराज ने न्यायविनिश्चयविवरण में इस पद्य को पात्रकेसरी से सम्बद्ध अन्यथानुपपत्तिवार्तिक बतलाया है। "धर्मकीर्ति का समय ई० सन् ६२५ से ६५० अर्थात् विक्रम की ७वीं शताब्दी का प्रायः चतुर्थ चरण, धर्मोत्तर का समय ई० सन् ७२५ से ७५० अर्थात् विक्रम की ८वीं शताब्दी का प्रायः चतुर्थ चरण और पात्रस्वामी का समय विक्रम की ७वीं शताब्दी का प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, क्योंकि वे अकलङ्कदेव से कुछ पहले हुए हैं। तब सन्मतिकार सिद्धसेन का समय वि. संवत् ६६६ से पूर्व का सुनिश्चित है, जैसा कि अगले प्रकरण में स्पष्ट करके बतलाया जायगा। ऐसी हालत में जो सिद्धसेन सन्मति के कर्ता हैं, वे ही न्यायावतार के कर्ता नहीं हो सकते। समय की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक-दूसरे से भिन्न होने चाहिये। "इस विषय में पं० सुखलाल जी आदि का यह कहना है२३ कि 'प्रो० टुची (Tousi) ने दिग्नाग से पूर्ववर्ती बौद्धन्याय के ऊपर जो एक निबन्ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जुलाई, सन् १९२९ के जर्नल में प्रकाशित कराया है, उसमें बौद्ध-संस्कृतग्रन्थों के चीनी तथा तिब्बती अनुवाद के आधार पर यह प्रकट किया है कि 'योगाचार्यभूमिशास्त्र और प्रकरणार्यवाचा नाम के ग्रन्थों में प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी है, उसके २२. विक्रमसंवत् ७०० में अकलङ्कदेव का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ है, जैसा कि अकलङ्कचरित के निम्न पद्य से प्रकट है विक्रमार्क-शकाब्दीय - शतसप्त-प्रमाजुषि। कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत॥ २३. देखिए , 'सन्मति' के गुजराती संस्करण की प्रस्तावना, पृ. ४१, ४२ और अंग्रेजी संस्करण की प्रस्तावना पृ. १२-१४। For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९५ अनुसार प्रत्यक्ष को अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और भूल-विना का अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिये। साथ ही अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी शब्दों पर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दोनों पर्यायशब्द हैं, और चीनी तथा तिब्बती भाषा के जो शब्द अनुवादों में प्रयुक्त हैं, उनका अनुवाद अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी दोनों प्रकार से हो सकता है। और फिर स्वयं अभ्रान्त शब्द को ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष की व्याख्या में अभ्रान्त शब्द की जो वृद्धि की है, वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है, बल्कि सौत्रान्तिकों की पुरानी व्याख्या को स्वीकार करके उन्होंने दिग्नाग की व्याख्या में इस प्रकार से सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र असङ्ग के गुरु मैत्रेय की कृति है, असङ्ग (मैत्रेय?) का समय ईसा की चौथी शताब्दी का मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्ष के लक्षणमें अभ्रान्त शब्द का प्रयोग तथा अभ्रान्तपना का विचार विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के पहले भले प्रकार ज्ञात था अर्थात् यह (अभ्रान्त) शब्द सुप्रसिद्ध था। अतः सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार में प्रयुक्त हुए मात्र 'अभ्रान्त' पद पर से उसे धर्मकीर्ति के बाद का बतलाना जरूरी नहीं। उसके कर्ता सिद्धसेन को असङ्ग के बाद और धर्मकीर्ति के पहले मानने में कोई प्रकार का अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।' "इस कथन में प्रो. टुची के कथन को लेकर जो कुछ फलित किया गया है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथन में स्वयं भ्रान्त हैं, वे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनों मूल संस्कृत ग्रन्थों में प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी अथवा उसके लक्षण का जो निर्देश किया है, उसमें अभ्रान्त पद का प्रयोग पाया ही जाता है, बल्कि साफ तौर पर यह सूचित कर रहे हैं कि मूलग्रन्थ उनके सामने नहीं, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने हैं और उनमें जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, उनका अर्थ अभ्रान्त तथा अव्यभिचारि दोनों रूप से हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो, तो उसका निषेध भी नहीं किया। दूसरे, उक्त स्थिति में उन्होंने अपने प्रयोजन के लिये जो अभ्रान्त पद स्वीकार किया है, वह उनकी रुचि की बात है न कि मूल में अभ्रान्त-पदके प्रयोग की कोई गारंटी है और इसलिये उस पर से निश्चितरूप में यह फलित कर लेना कि 'विक्रम की पाँचवी शताब्दी के पहले प्रत्यक्ष के लक्षण में अभ्रान्त पद का प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथन का अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता। तीसरे, उन मूल संस्कृत ग्रन्थों में यदि अव्यभिचारि पद का ही प्रयोग हो, तब भी उसके स्थान पर धर्मकीर्ति ने अभ्रान्त पद की जो नई योजना की है, वह उसी की योजना कहलाएगी और न्यायावतार में उसका अनुसरण होने से उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीर्ति के बाद के ही विद्वान् Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ ठहरेंगे। चौथे, पात्रकेसरीस्वामी के हेतुलक्षण का जो उद्धरण न्यायावतार में पाया जाता है और जिसका परिहार नहीं किया जा सकता, उससे सिद्धसेन का धर्मकीर्ति के बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालत में न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन को असङ्ग के बाद का और धर्मकीर्ति के पूर्व का बतलाना निरापद नहीं है, उसमें अनेक विघ्नबाधाएँ उपस्थित होती हैं। फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामी के बाद की रचना होने से उन सिद्धसेनाचार्य की कृति नहीं हो सकता, जो सन्मतिसूत्र के कर्ता हैं। जिन अन्य विद्वानों ने उसे अधिक प्राचीनरूप में उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओं, 'सन्मति' और न्यायावतार को एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ मानकर चलने का फल है।" (पु.जै.वा.सू/ प्रस्ता./ पृ. १४१-१४४)। ___"इस तरह यहाँ तक के इस सब विवेचन पर से स्पष्ट है कि सिद्धसेन के नाम पर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं, उनमें से सन्मतिसूत्र को छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूप में सन्मतिकार की कृति नहीं कहा जा सकता, अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभाव से अभी तक उनकी कृतिरूप में स्थित है। कल को अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओं में से यदि किसी द्वात्रिंशिका का उनकी कृतिरूप में सुनिश्चय हो गया, तो वह भी सन्मति के साथ शामिल हो सकेगी।" (पु.जै. वा. सू./ प्रस्ता. पृ.१४४)। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नियुक्तिकार भद्रबाहु से उत्तरवर्ती "अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सन्मति के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समय के लगभग उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में निर्माणकाल का कोई उल्लेख और किसी प्रशस्ति का आयोजन न होने के कारण दूसरे साधनों पर से ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं ग्रन्थ का अन्तःपरीक्षण, उसके सन्दर्भ-साहित्य की जाँच-द्वारा बाह्य प्रभाव एवं उल्लेखादि का विश्लेषण, उसके वाक्यों तथा उसमें चर्चित खास विषयों का अन्यत्र उल्लेख, आलोचनप्रत्यालोचन, स्वीकार-अस्वीकार अथवा खण्डन-मण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेन के व्यक्तित्व-विषयक महत्त्व के प्राचीन उद्गार। इन्हीं सब साधनों तथा दूसरे विद्वानों के इस दिशा में किये गये प्रयत्नों को लेकर मैंने इस विषय में जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है, उसे ही यहाँ पर प्रकट किया जाता है "१. सन्मति के कर्ता सिद्धसेन केवली के ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषय में अभेदवाद के पुरस्कर्ता हैं, यह बात पहले (पिछले प्रकरण में) बतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवाद का खण्डन इधर दिगम्बरसम्प्रदाय में सर्वप्रथम अकलंकदेव के For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९७ राजवार्त्तिक-भाष्य में४ और उधर श्वेताम्बरसम्प्रदाय में सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमण के विशेषावश्यक-भाष्य तथा विशेषणवती नाम के ग्रन्थों में २५ मिलता है। साथ ही तृतीय काण्ड की ‘णत्थि पुढवीविसिट्ठो' और 'दोहिं वि णएहिं णीयं' नाम की दो गाथाएँ (५२,४९) विशेषावश्यकभाष्य में क्रमशः गा. नं.२१०४, २१९५ पर उद्धृत पाई जाती हैं।२६ इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञटीका में२७ 'णामाइतियं दव्वट्ठियस्स' इत्यादि गाथा ७५ की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकार ने स्वयं "द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह-व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्" इस वाक्य के द्वारा सिद्धसेनाचार्य का नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मत का उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजय जी के मगसिर सुदि १०मी, सं० २००५ के एक पत्र से मालूम हुआ है। दोनों ग्रन्थकार विक्रम की ७ वीं शताब्दी के प्रायः उत्तरार्ध के विद्वान् हैं। अकलंकदेव का विक्रम सं० ७०० में बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ है, जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोट में अकलंकचरित के आधार पर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमण ने अपना विशेषावश्यकभाष्य शक सं० ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ में बनाकर समाप्त किया है। ग्रन्थ का यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थ के अंत में दिया है, जिसका पता श्री जिनविजय जी को जैसलमेर भण्डार की एक अतिप्राचीन प्रति को देखते हुए चला है। ऐसी हालत में सन्मतिकार सिद्धसेन का समय विक्रम सं० ६६६ से पूर्व का सुनिश्चित है, परन्तु वह पूर्व का समय कौन-सा है? कहाँ तक उसकी कम से कम सीमा है? यही आगे विचारणीय है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४४-१४५)। ... "२. सन्मतिसूत्र में उपयोगद्वय के क्रमवाद का जोरों के साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले बतलाई जा चुकी तथा मूलग्रन्थ के कुछ वाक्यों को उद्धृत करके दर्शाई जा चुकी है। उस क्रमवाद का पुरस्कर्ता कौन है और उसका समय क्या है? यह बात यहाँ खास तौर से जान लेने की है। हरिभद्रसूरि ने नन्दिवृत्ति में तथा अभयदेवसूरि ने 'सन्मति' की टीका में यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमण को क्रमवाद के पुरस्कर्तारूप में उल्लेखित किया है, परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि वे तो सन्मतिकार २४. तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/१०/ वार्तिक १४-१६ । २५. विशेषावश्यकभाष्य /गा. ३०८९ से (कोट्याचार्य की वृत्ति में गा. ३७२९ से) तथा विशेषणवती गा. १८४ से २८०/ सन्मति-प्रस्तावना / पृ.७५ । २६. उद्धरण-विषयक विशेष ऊहापोह के लिये देखिए , 'सन्मति'- प्रस्तावना/पृ. ६८, ६९। ७. इस टीका के अस्तित्व का पता हाल में मुनि पुण्यविजय जी को चला है। देखिये, श्री आत्मानन्दप्रकाश पुस्तक ४५ / अंक ८ / पृ. १४२ पर उनका तद्विषयक लेख। (पु. जै. वा.सू./ प्रस्ता ./ पृ. १४४)। For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ के उत्तरवर्ती हैं, जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती। यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवाद का जोरों के साथ समर्थन और व्यवस्थित रूप से स्थापन किया है, संभवतः इसी से उनको उस वाद का पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पड़ता है। अन्यथा, क्षमाश्रमण जी स्वयं अपने निम्न वाक्यों द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद तथा अभेदवाद के पुरस्कर्ता हो चुके हैं केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुओवएसेणं॥ १८४॥ अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स। जं चि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विति॥ १८५॥ विशेषणवती। "पं० सुखलाल जी आदि ने भी कथन-विरोध को महसूस करते हुए प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और सिद्धसेन से पहले क्रमवाद के पुरस्कर्तारूप में कोई विद्वान् होने ही चाहिये, जिनके पक्ष का 'सन्मति' में खण्डन किया गया है, परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया। जहाँ तक मुझे मालूम है, वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहिये, जिन्होंने आवश्यकनियुक्ति के निम्न वाक्यद्वारा क्रमवाद की प्रतिष्ठा की है णाणंमि दंसणंमि अ इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा (स्स वि) जुगवं दो णत्थि उवओगा॥९७८॥ "ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं, जो अष्टाङ्गनिमित्त तथा मन्त्रविद्या के पारगामी होने के कारण नैमित्तिक८ कहे जाते हैं, जिनकी कृतियों में भद्रबाहुसंहिता और उपसग्गहरस्तोत्र के भी नाम लिये जाते हैं और जो ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के सगे भाई माने जाते हैं। इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति में स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को प्राचीन विशेषण के साथ नमस्कार किया है,२९ उत्तराध्ययननियुक्ति में मरणविभक्ति के सभी द्वारों का क्रमशः वर्णन करने के अनन्तर लिखा है कि २८. पावयणी १ धम्मकहा २ वाई ३ णेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य। विजा ६ सिद्धो ७ य कई ८ अट्ठेव पभावगा भणिया॥ १॥ अजरक्ख १ नंदिसेणो २ सिरिगुत्तविणेय ३ भद्दबाहू ४ य। खवग ५ ऽजखवुड ६ समिया ७ दिवायरो ८ वा इहाऽऽहरणा॥ २॥ 'छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार' लेख में उद्धृत। २९. वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिमसगलसुयणाणिं। सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे॥ १॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९९ “पदार्थों को सम्पूर्ण तथा विशदरीति से जिन ( केवलज्ञानी) और चतुर्दशपूर्वी ३० ( श्रुतकेवली) ही कहते हैं, कह सकते हैं" और आवश्यक आदि ग्रन्थों पर लिखी गई अनेक नियुक्तियों में आर्यवज्र, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति आदि कितने ही ऐसे आचार्यों के नामों, प्रसङ्गों, मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो भद्रबाहु श्रुतकेवली के बहुत कुछ बाद हुए हैं, किसी-किसी घटना का समय तक भी साथ में दिया है; जैसे निह्नवों की क्रमशः उत्पत्ति का समय वीरनिर्वाण से ६०९ वर्ष बाद तक का बतलाया है। ये सब बातें और इसी प्रकार की दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहु को श्रुतकेवली बतलाने के विरुद्ध पड़ती हैं, भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा उनका उस प्रकार से उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता । इस विषय का सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजय जी ने आज से कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदसूत्रकार और निर्युक्तिकार' नाम के उस गुजराती लेख में किया है, जो 'महावीर जैनविद्यालय - रजत महोत्सव- ग्रन्थ' में मुद्रित है।३१ साथ ही यह भी बतलाया है कि तित्थोगालिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकहारिभद्रीया टीका, परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन मान्य ग्रन्थों में जहाँ चतुर्दशपूर्वर भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ) का चरित्र वर्णन किया गया है, वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल --- छेदसूत्रों की रचना आदि का वर्णन तो है, परन्तु वराहमिहिर का भाई होना, निर्युक्तिग्रन्थों, उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहुसंहितादि ग्रन्थों की रचना से तथा नैमित्तिक होने से सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लेख नहीं है। इससे छेदसूत्रकार भद्रबाहु और नियुक्ति आदि के प्रणेता भद्रबाहु एक दूसरे से भिन्न व्यक्तियाँ हैं ।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / ./पृ.१४५-१४६)। ७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का समय छठी और ७वीं शती ई० का मध्य "इन नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रायः मध्यकाल है, क्योंकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहिर का यही समय सुनिश्चित है, ३०. सव्वे एए दारा मरणविभत्तीइं वण्णिया सगलणिउणे पयत्थे जिणचउदसपुव्विं कमसो। भासते ॥ २३३ ॥ ३१. “ इससे भी कई वर्ष पहले आपके गुरु मुनि श्री चतुरविजय जी ने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दि - स्मारकग्रन्थ में मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक लेख में इस विषय को प्रदर्शित किया था और यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली से भिन्न द्वितीय भद्रबाहु हैं और वराहमिहर के सहोदर होने से उनके समकालीन हैं। उनके इस लेख का अनुवाद अनेकान्त वर्ष ३ / किरण १२ में प्रकाशित हो चुका है।" (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १४६ ) । For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ उन्होंने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका के अन्त में, जो कि उनके उपलब्ध ग्रन्थों में अन्त की कृति मानी जाती है, अपना समय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६२। यथा सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये॥ ८॥ "जब नियुक्तिकार भद्रबाहु का उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है, तब यह कहने में कोई आपत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेन के समय की पूर्व सीमा विक्रम की छठी शताब्दी का तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवाद के पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ता किसी शिष्यादि के क्रमवाद-विषयक कथन को लेकर ही 'सन्मति' में उसका खण्डन किया है। ___ "इस तरह सिद्धसेन के समय की पूर्व सीमा विक्रम की छठी शताब्दी का तृतीय चरण और उत्तर सीमा विक्रम की सातवीं शताब्दी का तृतीय चरण (वि० सं० ५६२ से ६६६) निश्चित होती है।" इन प्रायः सौ वर्ष के भीतर ही किसी समय सिद्धसेन का ग्रन्थकाररूप में अवतार हुआ और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १४५-१४७)। ३. "सिद्धसेन के समय-सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी संघवी की जो स्थिति रही है, उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होंने अपने पिछले लेख में, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नाम से 'भारतीयविद्या' के तृतीय भाग (श्रीबहादुरसिंह जी सिंघी स्मृतिग्रन्थ) में प्रकाशित हुआ है, अपनी उस गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यता को, जो 'सन्मति' के अंग्रेजी संस्करण के अवसर पर फोरवर्ड (foreword)३२ लिखे जाने के पूर्व कुछ नये बौद्धग्रन्थों के सामने आने के कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्ड में सूचना की गई है, फिर से निश्चित रूप दिया है अर्थात् विक्रम की पाँचवीं शताब्दी को ही सिद्धसेन का समय निर्धारित किया है और उसी को अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यता के समर्थन में उन्होंने जिन दो प्रमाणों का उल्लेख किया है, उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हीं के शब्दों के अनुवादरूप में सङ्कलित किया गया है "(प्रथम), जिनभद्रक्षमाश्रमण ने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में, जो विक्रम संवत् ६६६ में बनकर समाप्त हुआ है, और लघुग्रन्थ विशेषणवती में सिद्धसेन ३२. फोरवर्ड के लेखकरूप में यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया' का दिया हुआ है, परन्तु उसमें दी हुई उक्त सूचना को पण्डित सुखलाल जी ने उक्त लेख में अपनी ही सूचना और अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १४७)। For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०१ दिवाकर के उपयोगाऽभेदवाद की तथैव दिवाकर की कृति सन्मतितर्क के टीकाकार मल्लवादी के उपयोग-योगपद्यवाद की विस्तृत समालोचना की है। इससे तथा मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्रगणी का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादी से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मान लिया जायतो सिद्धसेन दिवाकर का समय जो पाँचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है, वह अधिक सङ्गत लगता है। "(द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्र में सिद्धसेन के मतविशेष का उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेन के मतानुसार 'विद्' धातु के 'र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दी का यह उल्लेख बिलकुल सच्चा है, क्योंकि दिवाकर की जो कुछ थोड़ी- सी संस्कृत कृतियाँ बची हैं, उनमें से उनकी नवमी द्वात्रिंशिका के २२वें पद्य में "विद्रतेः' ऐसा 'र' आगमवाला प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातु के 'र' आगम स्वीकार करते हैं, तब सिद्धसेन ने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातु का 'र' आगमवाला प्रयोग किया है। इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि नामकी तत्त्वार्थ-टीका के सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्र की टीका में सिद्धसेन दिवाकर के एक पद्य का अंश 'उक्तं च' शब्द के साथ उद्धृत पाया जाता है और वह है 'वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते।' यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिंशिका के १६वें पद्य का प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दी का समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध है अर्थात् पाँचवीं शताब्दी के अमुक भाग से छठी शताब्दी के अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेन दिवाकर की पाँचवीं शताब्दी में होने की बात, जो अधिक सङ्गत कही गई है, उसका खुलासा हो जाता है। दिवाकर को देवनन्दी से पूर्ववर्ती या देवनन्दी के वृद्ध समकालीनरूप में मानिये, तो भी उनका जीवनसमय पाँचवीं शताब्दी से अर्वाचीन नहीं ठहरता। - "इनमें से प्रथम प्रमाण तो वास्तव में कोई प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि वह 'मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मान लिया जाय तो' इस भ्रान्त कल्पना पर अपना आधार रखता है। परन्तु क्यों मान लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथ में नहीं है। मल्लवादी का जिनभद्र से पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी, तो उन्हें जिनभद्र के समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववर्तित्व को चरितार्थ किया जा सकता है, उसके लिये १०० वर्ष से भी अधिक समय पूर्व की बात मान लेने की कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है, क्योंकि उनके जिस Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ उपयोग - यौगपद्यवाद की विस्तृत समालोचना जिनभद्र के दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है, उनमें कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखवाले अंश को उद्धृत करके ही सन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करने की जरूरत ही न रहती और न रहनी चाहिये थी कि " मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्र का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं।" यह तर्क भी उनकी अभीष्ट - सिद्धि में कोई सहायक नहीं होता, क्योंकि एक तो किसी विद्वान् के लिये यह लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थ में पूर्ववर्ती अमुक-अमुक विद्वानों का उल्लेख करे ही करे। दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्र के जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध हैं, वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तब उसके अनुपलब्ध अंशों में भी जिनभद्र का अथवा उनके किसी ग्रन्थादिक का उल्लेख नहीं, इसकी क्या गारण्टी ? गारण्टी के न होने और उल्लेखोपलब्धि की सम्भावना बनी रहने से मल्लवादी को जिनभद्र का पूर्ववर्ती बतलाना तर्कदृष्टि से कुछ भी अर्थ नहीं रखता। तीसरे, ज्ञान-बिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना में पण्डित सुखलाल जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्र का अवलोकन करके देखा, तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगद्वय) के सम्बन्ध में प्रचलित उपर्युक्त वादों (क्रम, युगपत् और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली । यद्यपि सन्मतितर्क की मल्लवादि - कृत - टीका उपलब्ध नहीं है, पर जब मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकर के ग्रन्थ पर टीका लिखें, तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने दिवाकर के ग्रन्थ की व्याख्या करते समय उसी में उनके विरुद्ध अपना युगपत् - पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो। इस तरह जब हम सोचते हैं, तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेव के युगपद्वाद के पुरस्कर्तारूप से मल्लवादी के उल्लेख का आधार नयचक्र या उनकी सन्मतिटीका में से रहा होगा ।" साथ ही, अभयदेव ने सन्मतिटीका में विशेषणवती की " केई भांति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा" इत्यादि गाथाओं को उद्धृत करके उनका अर्थ देते हुए 'केई' पद के वाच्यरूप में मल्लवादी का जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपवाद का पुरस्कर्ता बतलाया है, उनके उस उल्लेख की अभ्रान्तता पर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलाल जी लिखते हैं- " अगर अभयदेव का उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एवं साधार है, तो अधिक से अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादी का कोई अन्य युगपत् - पक्ष समर्थक छोटा-बड़ा ग्रन्थ अभयदेव के सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला कोई उल्लेख उन्हें मिला होगा ।" और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेव से कई शताब्दी पूर्व के प्राचीन आचार्य हरिभद्रसूरि ने उक्त 'केई' पद के वाच्यरूप में सिद्धसेनाचार्य का नाम उल्लेखित For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०३ किया है, पं० सुखलाल जी ने उनके उस उल्लेख को महत्त्व दिया है तथा सन्मतिकार से भिन्न दूसरे सिद्धसेन की सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं, जिनमें युगपद्वाद का समर्थन पाया जाता है, इसे भी ऊपर दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादी का जिनभद्र से पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है, तब उक्त प्रमाण और भी नि:सार एवं बेकार हो जाता है। साथ ही, अभयदेव का मल्लवादी को युगपद्वाद का पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है।" (पु.जै.वा.सू/ प्रस्ता./पृ. १४७-१४९)। "यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि हाल में मुनि श्री जम्बूविजय जी ने मल्लवादी के सटीक नयचक्र का पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्री आत्मानन्दप्रकाश' (वर्ष ४५ / अङ्क ७) में प्रकट किया है, उस पर से यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर वाक्यपदीय ग्रन्थ का उपयोग ही नहीं किया, बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरि का नामोल्लेख और भर्तृहरि के मत का खण्डन भी किया है। इन भर्तृहरि का समय इतिहास में चीनी-यात्री इत्सिङ्ग के यात्राविवरणादि के अनुसार ई० सन् ६०० से ६५० (वि० सं० ६५७ से ७०७) तक माना जाता है, क्योंकि इत्सिङ्ग ने जब सन् ६९१ में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समय का प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालत में भी मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। उक्त समयादिक की दृष्टि से वे विक्रम की प्रायः आठवीं-नवमी शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका ३३ पर टिप्पण लिखनेवाले मल्लवादी के साथ एक भी हो सकता है। इस टिप्पण में मल्लवादी ने अनेक स्थानों पर न्यायबिन्दु की विनीतदेव-कृत-टीका का उल्लेख किया है और इस विनीतदेव का समय राहुलसांकृत्यायन ने, वादन्याय की प्रस्तावना में, धर्मकीर्ति के उत्तराधिकारियों की एक तिब्बती सूची पर से ई० सन् ७७५ से ८०० (वि० सं० ८५७) तक निश्चित किया है।" (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४९)। "इस सारी वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान् प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरित के विजयसिंहसूरिप्रबन्ध में बौद्धों और उनके व्यन्तरों को वाद में जीतने का जो समय मल्लवादी का वीरवत्सर से ८८४ वर्ष बाद का अर्थात् विक्रम संवत् ४१४ दिया है ३४ और जिसके ३३. बौद्धाचार्य धर्मोत्तर का समय पं. राहलसांकत्यायन ने वादन्याय की प्रस्तावना में ई.स.७२५ से ७५०, (वि. सं. ७८२ से ८०७) तक व्यक्त किया है। (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १४९)। ३४. श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीति-संयुक्ते। जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्चाऽपि॥ ८३॥ For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ कारण ही उन्हें श्वेताम्बर समाज में इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजय ने भी जिसका एकबार पक्ष लिया है ३५ उसके उल्लेख में जरूर कुछ भूल हुई है। पं० सुखलाल जी ने भी उस भूल को महसूस किया है, तभी उसमें प्रायः १०० वर्ष की वृद्धि करके उसे विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध ( वि० सं० ५५०) तक मान लेने की बात अपने इस प्रथम प्रमाण में कही है। डॉ० पी० एल० वैद्य एम० ए० ने न्यायावतार की प्रस्तावना में, इस भूल अथवा गलती का कारण श्रीवीरविक्रमात् के स्थान पर श्रीवीरवत्सरात् पाठान्तर का हो जाना सुझाया है। इस प्रकार के पाठान्तर का हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है, किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझाव के अनुसार यदि शुद्ध पाठ वीरविक्रमात् हो, तो मल्लवादी का समय वि० सं० ८८४ तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादी के जीवन का प्रायः अन्तिम समय हो सकता है और मल्लवादी को हरिभद्र के प्रायः समकालीन कहना होगा, क्योंकि हरिभद्र ने 'उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना' जैसे शब्दों के द्वारा अनेकान्तजयपताका की टीका में मल्लवादी का स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्र का समय भी विक्रम की ९वीं शताब्दी के तृतीय-चतुर्थ चरण तक पहुँचता है,३६ क्योंकि वि० सं० ८५७ के लगभग बनी हुई भट्टजयन्त की न्यायमञ्जरी का 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नाम का एक पद्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी ने न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भाग की प्रस्तावना में उद्घोषित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्र ने स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चय के चतुर्थस्तवन में 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्य के द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षित के मत का उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीका में सूक्ष्मबुद्धिना का शान्तरक्षितेन अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है। शान्तरक्षित, धर्मोत्तर तथा विनीतदेव के भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुलसांकृत्यायन ने वादन्याय के परिशिष्टों में ई० सन् ८४० (वि० स० ८९७) तक बतलाया है। हरिभद्र को उनके समकालीन समझना चाहिये। इससे हरिभद्र का कथन उक्त समय में बाधक नहीं रहता और सब कथनों की सङ्गति ठीक बैठ जाती है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ.१४९-१५०)। ३५. देखिए, जैन साहित्य संशोधक / भाग २। ३६. ९वीं शताब्दी के द्वितीय चरण तक का समय तो मुनि जिनविजय जी ने भी अपने हरिभद्र के समय-निर्णयवाले लेख में बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् ८३५ (शक सं. ७००) में बनी हुई कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने हरिभद्र को न्यायविद्या में अपना गुरु लिखा है। हरिभद्र के समय, संयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्यों की विशालता को देखते हुए उनकी आयु का अनुमान सौ वर्ष के लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादी के समकालीन होने के साथ-साथ कुवलयमाला की रचना के कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५०)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०५ "नयचक्र के उक्त विशेष परिचय से यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थ में सिद्धसेन नाम के साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं, उनमें सिद्धसेन को आचार्य और सूरि जैसे पदों के साथ तो उल्लेखित किया है, परन्तु दिवाकर पद के साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, तभी मुनि श्री जम्बूविजय जी की यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "आ सिद्धसेनसूरि सिद्धसेन दिवाकरज संभवतः होवा जोइये" अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये, भले ही दिवाकर नाम के साथ वे उल्लेखित नहीं मिलते। उनका यह लिखना उनकी धारणा और भावना का ही प्रतीक कहा जा सकता है, क्योंकि 'होना चाहिये' का कोई कारण साथ में व्यक्त नहीं किया गया। पं० सुखलाल जी ने अपने उक्त प्रमाण में इन सिद्धसेन को दिवाकर नाम से ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थिति का बड़ा ही गलत निरूपण है और अनेक भूल-भ्रान्तियों को जन्म देनेवाला है। किसी विषय को विचार के लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानों के द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धि के लिये वस्तुस्थिति का ऐसा गलत चित्रण नहीं होना चाहिये। हाँ, उक्त परिचय से यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नाम के साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं, उनमें से कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकर के नाम पर चढ़े हुए उपलब्ध ग्रन्थों में से किसी में भी नहीं मिलता है। नमूने के तौर पर जो दो उल्लेख ३७ परिचय में उद्धृत किये गये हैं, उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादि से सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इससे भी सिद्धसेन के उन उल्लेखों को दिवाकर के उल्लेख बतलाना व्यर्थ ठहरता है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५०)। ७.१. पूज्यपाद-उल्लिखित सिद्धसेन सन्मतिसूत्रकार से भिन्न एवं पूर्ववर्ती "रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिंशिका के कर्ता जो सिद्धसेन हैं, वे पूज्यपाद देवनन्दी से पहले हुए हैं। उनका समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है। इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दी से पहले अथवा विक्रम की ५वीं शताब्दी में हुए हैं। इसको सिद्ध करने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिंशिकाएँ तीनों एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हैं। और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपाद से पहले उपयोगद्वय के क्रमवाद ३७. "तथा च आचार्यसिद्धसेन आह "यत्र ह्यर्थो वाचं व्यभिचरति न (ना) भिधानं तत्॥" वि. २७७ । "अस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेषणोक्तत्वात् सिद्धसेनसूरिणा।" वि. १६६। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५०)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ तथा अभेदवाद के कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धि में सनातन से चले आये युगपवाद का प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते, बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादों का खण्डन जरूर करते, परन्तु ऐसा नहीं है,३८ और इससे ग्रह मालूम होता है कि राज्यण्द के समय में केवली के उपयोग-विषयक क्रमवाद और अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे, वे उनके बाद ही सविशेषरूप से घोषित तथा प्रचार को प्राप्त हुए हैं, और इसी से पूज्यपाद के बाद अकलङ्कादिक के साहित्य में उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवाद का प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहु के द्वारा और अभेदवाद का प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेन के द्वारा हुआ है। उन वादों के इस विकासक्रम का समर्थन जिनभद्र की विशेषणवती-गत उन दो गाथाओं ('केई भणंति जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५) से भी होता है, जिनमें युगपत् , क्रम और अभेद इन तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं का इसी क्रम से उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर (नं.२ में) उद्धृत किया जा चुका है।" (पु. जै. वा. सू./प्रस्ता/पृ. १५०-१५१)। "पं० सुखलाल जी ने नियुक्तिकार भद्रबाहु को प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी मान लिया है, ३९ इसी से इन वादों के क्रम-विकास को समझने में उन्हें भ्रान्ति हुई है, और वे यह प्रतिपादन करने में प्रवृत हुए हैं कि पहले क्रमवाद था, युगपवाद बाद को सबसे पहले वाचक उमास्वाति द्वारा जैन वाङ्मय में प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवाद का प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेनाचार्य के द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो युगपद्वाद का प्रतिवाद भद्रबाहु की आवश्यकनियुक्ति के "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो णत्थि उवओगा" इस वाक्य में पाया जाता है, जो भद्रबाहु को दूसरी शताब्दी का विद्वान् मानने के कारण उमास्वाति के पूर्व का१ ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नियमसार जैसे ग्रन्थों और आचार्य भूतबलि के षट्खण्डागम में भी युगपद्वाद का स्पष्ट विधान पाया जाता है। ये दोनों आचार्य उमास्वाति के ३८. "स उपयोगो द्विविधः ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति।---साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमति। तच्छद्मस्थेष क्रमेण वर्तते। निरावरणेष युगपत।" सर्वार्थसिद्धि /२/९। ३९. ज्ञानबिन्दु परिचय/पृ.५/ पादटिप्पण। ४०. "मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत्। सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /१/३१। ४१. उमास्वातिवाचक को पं. सुखलाल जी ने विक्रम की तीसरी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान् बतलाया है। (ज्ञा.वि.परि./ पृ.५४) पु. जै. वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १५१ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०७ पूर्ववर्ती हैं ४२ और इनके युगपवाद - विधायक वाक्य नमूने के तौर पर इस प्रकार हैंजुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दियर - पयास - तावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥ १५९ ॥ नियमसार । " सई भयवं उप्पण्ण - णाण-दरिसी सदेवासुर - माणुसस्स लोगस्स आगदि गदिं चयणोववादं बंधं मोक्खं इडि ट्ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं मणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि ति ।" (ष. खं. / पु. १३ / ५,५,८२ / पृ.३४६)। "ऐसी हालत में युगपवाद की सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वाति से बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ्मय में इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन काल से चली आई है । यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेद की धाराएँ भी उसमें कुछ बाद को शामिल हो गई हैं, परन्तु विकासक्रम युगपवाद से ही प्रारंभ होता है, जिसकी सूचना विशेषणवती की उक्त गाथाओं ('केई भांति जुगवं ' इत्यादि) से भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपाद के ग्रन्थों में क्रमवाद तथा अभेदवाद का कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलाल जी को कुछ अखरा है, परन्तु इसमें अखरने की कोई बात नहीं है। जब इन आचार्यों के सामने ये दोनों बाद आए ही नहीं, तब वे इन वादों का ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे? अकलङ्क के सामने जब ये वाद आए, तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही है, चुनाँचे पं० सुखलाल जी स्वयं ज्ञानबिन्दु के परिचय में यह स्वीकार करते हैं कि " ऐसा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्क की कृतियों में पाते हैं। " और इसलिये उनसे पूर्व की, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र तथा पूज्यपाद की कृतियों में उन वादों की कोई चर्चा का न होना इस बात को और भी साफ तौर पर सूचित करता है कि इन दोनों वादों की प्रादुर्भूति उनके समय के बाद हुई है। सिद्धसेन के सामने ये दोनों वाद थे, दोनों की चर्चा 'सन्मति' में की गई है, अतः ये सिद्धसेन पूज्यपाद के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। पूज्यपाद ने जिन सिद्धसेन का अपने व्याकरण में नामोल्लेख किया है, वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये।" (पु. जै. वा. सू./प्रस्ता पृ. १५१-१५२) । ७.२. पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख "यहाँ पर एक खास बात नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि पं० सुखलाल जी सिद्धसेन को पूज्यपाद पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिए पूज्यपादीय ४२. इस पूर्ववर्तित्व का उल्लेख श्रवणबेलगोलादि के शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियों में पाया जाता है । (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १५१ ) For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ जैनेन्द्र व्याकरण का उक्त सूत्र तो उपस्थित करते हैं, परन्तु उसी व्याकरण के दूसरे समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं, उसके प्रति गजनिमीलन जैसा व्यवहार करते हैं, और ज्ञानबिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ.५५) में बिना किसी हेतु के ही यहाँ तक लिखने का साहस करते हैं कि "पूज्यपाद के उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र" ने अमुक उल्लेख किया! साथ ही, इस बात को भी भुला जाते हैं कि सन्मति की प्रस्तावना में वे स्वयं पूज्यपाद को समन्तभद्र का उत्तरवर्ती बतला आए हैं और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूप से प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्यों का उल्लेख पूज्यपाद ने अपने व्याकरण के उक्त सूत्रों में किया है, उनका कोई भी प्रकार का प्रभाव पूज्यपाद की कृतियों पर होना चाहिये।' मालूम नहीं फिर उनके इस साहसिक कृत्य का क्या रहस्य है! और किस अभिनिवेश के वशवर्ती होकर उन्होंने अब यों ही चलती कलम से समन्तभद्र को पूज्यपाद का उत्तरवर्ती कह डाला है!! इसे अथवा इसके औचित्य को वे ही स्वयं समझ सकते हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमें कोई औचित्य एवं न्याय नहीं देखते कि एक ही व्याकरण ग्रन्थ में उल्लेखित दो विद्वानों में से एक को उस ग्रन्थकार का पर्ववर्ती और दसरे को उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह भी बिना किसी युक्ति के। इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलाल जी की बहुत पहले से यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्र के पूर्ववर्ती हैं और वे जैसे-तैसे उसे प्रकट करने के लिए कोई भी अवसर चूकते नहीं हैं। हो सकता है कि उसी की धुन में उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरण का ही एक प्रकार है, अन्यथा वैसा कहने के लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है।" (पु.जै. वा.सू./प्रस्ता./ पृ.१५२)। __ "पूज्यपाद समन्तभद्र के पूर्ववर्ती नहीं, किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्र से ही नहीं, किन्तु श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों आदि से भी भले प्रकार जानी जाती है।३ पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है, इसे 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक लेख में स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्र के रत्नकरण्ड का 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यम्' ४३. देखिए , श्रवणबेलगोल-शिलालेख नं. ४० (६४), १०८ (२५८), 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ. १४१-१४३, तथा 'जैनजगत' वर्ष ९/अङ्क १५-१६ में प्रकाशित 'समन्तभद्र का समय और डॉ. के. बी. पाठक' शीर्षक लेख / पृ. १८-२३, अथवा 'दि एन्नल्स ऑफ दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना / वाल्यूम १५/ पार्ट १-२ में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr. K. B. Pathak पृ.८१-८८। (पु.जै. वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५२-१५३)। ४४. देखिए, अनेकान्त / वर्ष ५/ नवम्बर-दिसम्बर १९४३ / किरण १०-११ / पृ. ३४५-३५२। (प्रस्तुत अध्याय के तृतीय प्रकरण में उद्धृत)। susulinasiksila Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०९ नाम का शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतार में उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्ड में स्वाभाविकी और न्यायावतार में उद्धरण जैसी स्थिति को खूब खोलकर अनेक युक्तियों के साथ अन्यत्र दर्शाया जा चुका है५ उसके प्रक्षिप्त होने की कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही, क्योंकि एक तो न्यायावतार का समय अधिक दूर का न रहकर टीकाकार सिद्धर्षि के निकट पहुँच गया है, दूसरे उसमें अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादि के रूप में उद्धृत पाये जाते हैं। जैसे "साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्य में हेतु का लक्षण आ जाने पर भी "अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्" इस वाक्य में उन पात्रस्वामी के हेतुलक्षण को उद्धृत किया गया है, जो समन्तभद्र के देवागम से प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि आठवें पद्य में शाब्द (आगम) प्रमाण का लक्षण आ जाने पर भी अगले पद्य में समन्तभद्र का "आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्" इत्यादि शास्त्र का लक्षण समर्थनादि के रूप में उद्धृत हुआ समझना चाहिये। ७.३. न्यायावतार में समन्तभद्र का अनुकरण "इसके सिवाय, न्यायावतार पर समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) का भी स्पष्ट प्रभाव है, जैसा कि दोनों ग्रन्थों में प्रमाण के अनन्तर पाये जाने वाले निम्न वाक्यों की तुलना पर से जाना जाता हैदेवागम- उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान-हान-धीः। पूर्वा (वं) वाऽज्ञान-नाशो वा सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे॥ १०२॥ न्याया.- प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञान-विनिवर्तनम्। केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हान धीः॥ २८॥ "ऐसी स्थिति में व्याकरणादि के कर्ता पूज्यपाद और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दोनों ही स्वामी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं, इसमें संदेह के लिये कोई स्थान नहीं है। सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन चूँकि नियुक्तिकार एवं नैमित्तिक भद्रबाहु के बाद हुए हैं, उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवाद का खण्डन किया है, और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, यही समय सन्मतिकार सिद्धसेन के समय की पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध ४५. देखिए , 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास)/पृ. १२६-१३१ तथा अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १ से ४ में प्रकाशित 'रत्नकरण्ड के कर्तृत्वविषय में मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख / पृ. १०२-१०४। (प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में उद्धृत)। ४६. यहाँ 'उपेक्षा' के साथ सुखकी वृद्धि की गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा (रागादिक की निवृत्तिरूप अनासक्ति) के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ किया जा चुका है। पूज्यपाद इस समय से पहले गङ्गवंशी राजा अविनीत (ई० सन् ४३०-४८२) तथा उसके उत्तराधिकारी दुर्विनीत के समय में हुए हैं और उनके एक शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम संवत् ५२६ में द्राविडसंघ की स्थापना की है, जिसका उल्लेख देवसेनसूरि के दर्शनसार (वि० सं० ९९०) ग्रन्थ में मिलता है। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन पूज्यपाद के उत्तरवर्ती हैं, पूज्यपाद के उत्तरवर्ती होने से समन्तभद्र के भी उत्तरवर्ती हैं, ऐसा सिद्ध होता है। और इसलिये समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र तथा आप्तमीमांसा ( देवागम) नामक दो ग्रन्थों की सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्र के साथ तुलना करके पं० सुखलाल जी ने दोनों आचार्यों के इन ग्रन्थों में जिस वस्तुगत पुष्कल साम्य की सूचना सन्मति की प्रस्तावना (पृ.६६) में की है, उसके लिये सन्मतिसूत्र को अधिकांश में सामन्तभद्रीय ग्रन्थों के प्रभावादि का आभारी समझना चाहिये। अनेकान्त-शासन के जिस स्वरूपप्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापन की ओर समन्तभद्र का प्रधान लक्ष्य रहा है, उसी को सिद्धसेन ने भी अपने ढङ्ग से अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयों के सर्वथाअसर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक्-मिथ्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्र के मौलिक निर्देशों को भी आत्मसात् किया है। सन्मति का कोई-कोई कथन समन्तभद्र के कथन से कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष आयोजन को भी साथ में लिये हुए जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे। भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा॥ ३/६०॥ इस गाथा में बतलाया है कि "पदार्थों की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद को आश्रित करके ठीक होती है," जब कि समन्तभद्र ने "सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्यों के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टय को ही पदार्थप्ररूपण का मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्र के उक्त चतुष्टय में सिद्धसेन ने बाद को एक दूसरे चतुष्टय की और वृद्धि की है, जिसका पहले से पूर्व के चतुष्टय में ही अन्तर्भाव था।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५२-१५४)। ७.४. प्रथम द्वात्रिंशिका में समन्तभद्र का प्रचुर अनुकरण "रही द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन की बात, पहली द्वात्रिंशिका में एक उल्लेख ४७. सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वजणंदी पाहुडवेदी महासत्तो॥ २४॥ पंचसए छव्वीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो॥ २५॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५११ वाक्य निम्न प्रकार से पाया जाता है, जो इस विषय में अपना खास महत्त्व रखता है य एष षड्जीव निकाय विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः। अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः॥ १३॥ "इसमें बतलाया है कि "हे वीरजिन! यह जो षट् प्रकार के जीवों के निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरों के अनुभव में नहीं आया, वह आपके द्वारा उदित हुआ, बतलाया गया अथवा प्रकाश में लाया गया है। इसी से जो सर्वज्ञ की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे (आपको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नता के उदयरूप उत्सव के साथ आप में स्थित हुए हैं, बड़े प्रसन्नचित्त से आपके आश्रय में प्राप्त हुए और आपके भक्त बने हैं।" वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन हैं, जिनका यहाँ उल्लेख है और जो आप्तप्रभु वीरजिनेन्द्र की सर्वज्ञरूप में परीक्षा करने के अनन्तर उनके सुदृढ़ भक्त बने हैं? वे हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होंने आप्तमीमांसा द्वारा सबसे पहले सर्वज्ञ की परीक्षा की है, जो परीक्षा के अनन्तर वीर की स्तुतिरूप में युक्त्यनुशासन स्तोत्र के रचने में प्रवृत्त हुए हैं९ और जो स्वयम्भूस्तोत्र के निम्न पद्यों में सर्वज्ञ का उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्ति को “त्वयि सुप्रसन्नमनसाः स्थिता वयम्" इस वाक्य के द्वारा स्वयं व्यक्त करते हैं, जो कि "त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः" इस वाक्य का स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है बहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत्। नाथ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ॥ १२९॥ अत एव ते बुध-नुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम्। न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसा स्थिता वयम्॥ १३०॥ ४८. अकलङ्कदेव ने भी 'अष्टशती' भाष्य में आप्तमीमांसा को "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादिराजसूरि ने 'पार्श्वनाथचरित' में यह प्रतिपादित किया है कि उसी देवागम (आप्तमीमांसा) के द्वारा स्वामी (समन्तभद्र) ने आज भी सर्वज्ञ को प्रदर्शित कर रक्खा स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य न विस्मयावहम्। देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते॥ ४९. युक्त्यनुशासन की प्रथमकारिका में प्रयुक्त हुए 'अद्य' पद का अर्थ श्रीविद्यानन्द ने टीका में "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा आप्तमीमांसा के बाद युक्त्यनुशासन की रचना को सूचित किया है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ "इन्हीं स्वामी समन्तभद्र को मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिंशिका के अगले दो पद्य५० कहे गये जान पड़ते हैं, जिनमें से एक में उनके द्वारा अर्हन्त में प्रतिपादित उन दो-दो बातों का उल्लेख है, जो सर्वज्ञ-विनिश्चय की सूचक हैं और दूसरे में उनके प्रथित यश की मात्रा का बड़े गौरव के साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं। समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र का शैलीगत, शब्दगत और अर्थगत कितना ही साम्य भी इसमें पाया जाता है, जिसे अनुसरण कह सकते हैं, और जिसके कारण इस द्वात्रिंशिका को पढ़ते हुए कितनी ही बार इसके पदविन्यासादि पर से ऐसा भान होता है मानो हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर स्वयम्भूस्तोत्र का प्रारंभ जैसे उपजातिछन्द में स्वयम्भुवा भूत शब्दों से होता है, वैसे ही इस द्वात्रिंशिका का प्रारम्भ भी उपजाति छन्द में स्वयम्भुवं भूत शब्दों से होता है। स्वयम्भूस्तोत्र में जिस प्रकार समन्त, संहत, गत, उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन् , अनन्त, अनेकान्त जैसे कुछ विशेष शब्दों का मुने, नाथ, जिन, वीर जैसे सम्बोधनपदों का और १.जितक्षुल्लकवादिशासनः, २.स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ताः, ३. नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः, ४. शेरते प्रजाः, ५.अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि, ६. नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७.अचिन्त्यमीहितम्, आर्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं, ८.सहस्राक्षः, ९.त्वद्विषः, १०.शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं --- वपुः, ११. स्थिता वयं जैसे विशिष्ट पद-वाक्यों का प्रयोग पाया जाता है, उसी प्रकार पहली द्वात्रिंशिका में भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधनपदों के साथ १.प्रपञ्चितक्षुल्लकतर्कशासनैः, २.स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सराः, ३. परैरनालीढपथस्त्वयोदितः, ४.जगत्---शेरते, ५. त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली---भारती, ६.समीक्ष्य-कारिणः, ७.अचिन्त्यमहात्म्यं, ८.भूतसहस्रनेत्रं, ९.त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, १०. वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११. स्थिता वयं जैसे विशिष्ट पदवाक्यों का प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदों के प्रायः समकक्ष हैं। स्वयम्भूस्तोत्र में जिस तरह जिनस्तवन के साथ जिनशासन-जिनप्रवचन तथा अनेकान्त का प्रशंसन एवं महत्त्व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के शासनमाहात्म्य को "तव जिन! शासनविभव: जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः" जैसे शब्दों द्वारा कलिकाल में भी जयवन्त बतलाया गया है, उसी तरह इस द्वात्रिंशिका में भी जिनस्तुति के साथ जिनशासनादि का संक्षेप में कीर्तन किया गया है और वीरभगवान् को सच्छासनवर्द्धमान् लिखा है। ५०. वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं पराऽनुकम्पा सफलं च भाषितम्। न यस्य सर्वज्ञ-विनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः॥ १४॥ अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः। न तावदप्येकसमूहसंहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः॥ १५॥ For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१३ इस प्रथम द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओं के भी कर्ता हैं, जैसा कि पं० सुखलालजी का अनुमान है, तो ये पाँचों ही द्वात्रिंशिकाएँ, जो वीरस्तुति से सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्र ने 'क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्थाः ' जैसे वाक्य का उच्चारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्र के उत्तरकाल की रचनाएँ हैं । इन सभी पर समन्तभद्र के ग्रन्थों की छाया पड़ी हुई जान पड़ती है।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ. १५४-१५६) । " इस तरह स्वामी समन्तभद्र 'न्यायावतार' के कर्ता, 'सन्मति' के कर्ता और उक्त द्वात्रिंशिका अथवा द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता, तीनों ही सिद्धसेनों से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बरपट्टावली ५१ में शकसंवत् ६० (वि० सं० १९५) के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाज में आमतौर पर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियों में उन्हें सामन्तभद्र नाम से उल्लेखित किया है और उनके समय का पट्टाचार्यरूप में प्रारंभ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३ से बतलाया है। साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्य ने वीर नि० सं० ६९५ ( वि० सं० २२५) ५२ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समय की उत्तरावधि विक्रम की तीसरी शताब्दी के प्रथम चरण तक पहुँच जाती है । ५३ इससे समय - सम्बन्धी दोनों सम्प्रदायों का कथन मिल जाता है और प्राय: एक ही ठहरता है ।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ.१५६)। ७.५. आद्य जैन तार्किक सिद्धसेन नहीं, अपितु समन्तभद्र "ऐसी वस्तुस्थिति में पं० सुखलाल जी का अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' में, जो कि भारतीयविद्या के उसी अङ्क (तृतीय भाग) में प्रकाशित हुआ है, इन तीनों ग्रन्थों के कर्ता तीन सिद्धसेनों को एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर " आदि जैनतार्किक ", " जैन परम्परा में तर्कविद्या का और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मय का आदि प्रणेता", " आदि जैनकवि ", "आदि जैनस्तुतिकार", " आद्य जैनवादी" और " आद्य जैनदार्शनिक" हैं? क्या अर्थ रखता है और कैसे सङ्गत हो सकता है? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सिद्धसेन ५१. देखिए, हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान-विषयक डॉ० भाण्डारकर की सन् १८८३-८४ की रिपोर्ट/ पृ. ३२०, मिस्टर लेविस राइस की 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेलगोल' की प्रस्तावना और कर्णाटकशब्दानुशासन की भूमिका । (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता/पृ.१५६) । ५२. कुछ पट्टावलियों में यह समय वी० नि० सं० ५९५ अथवा विक्रम संवत् १२५ दिया है, जो किसी गलती का परिणाम है और मुनि कल्याणविजय ने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली' में उसके सुधार की सूचना की है। (पु. जै. वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १५६) । ५३. देखिये, मुनि श्री कल्याणविजय जी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली / पृ. ७९-८१ । For Personal & Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ के व्यक्तित्व और इन सब विषयों में उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभा के प्रति बहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्र की पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व साहित्य की पहले से मौजूदगी में मुझे इन सब उद्गारों का कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न पं० सुखलाल जी के इन कथनों में कोई सार ही जान पड़ता है कि-(क) 'सिद्धसेन का सन्मति प्रकरण जैनदृष्टि और जैन मन्तव्यों को तर्कशैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) 'स्वामी समन्तभद्र की स्वयम्भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ सिद्धसेन की कृतियों का अनुकरण हैं।' तर्कादि-विषयों में समन्तभद्र की योग्यता और प्रतिभा किसी से भी कम नहीं, किन्तु सर्वोपरि रही है, इसी से अकलङ्कदेव और विद्यानन्दादि जैसे महान् तार्किकों-दार्शनिकों एवं वादविशारदों आदि ने उनके यश का खुला गान किया है, भगवजिनसेन ने आदिपुराण में उनके यश को कवियों, गमकों, वादियों तथा वादियों के मस्तक पर चूड़ामणि की तरह सुशोभित बतलाया है (इसी यश का पहली द्वात्रिंशिका के 'तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दों में उल्लेख है) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा (कवियों को उत्पन्न करनेवाला विधाता) लिखा है तथा उनके वचनरूपी वज्रपात से कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है। और इसलिये उपलब्ध जैनवाङ्मय में समयादिक की दृष्टि से आद्य तार्किकादि होने का यदि किसी को मान अथवा श्रेय प्राप्त है, तो स्वामी समन्तभद्र को ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्त्यनुशासन,स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ आज भी जैनसमाज में अपनी जोड़ का कोई ग्रन्थ नहीं रखते। इन्हीं ग्रन्थों को मुनि कल्याणविजय जी ने भी उन निर्ग्रन्थचूड़ामणि श्रीसमन्तभद्र की कृतियाँ बतलाया है, जिनका समय भी श्वेताम्बर-मान्यतानुसार विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है।५५ तब सिद्धसेन को विक्रम की ५वीं शताब्दी का मान लेने पर भी समन्तभद्र की किसी कृति को सिद्धसेन की कृति का अनुकरण कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १५६-१५७)। ७.६. कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन पूज्यपाद से पूर्ववर्ती "इस सब विवेचन पर से स्पष्ट है कि पं० सुखलाल जी ने सन्मतिकार सिद्धसेन को विक्रम की पाँचवीं शताब्दी का विद्वान् सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे उस विषय को सिद्ध करने के लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाण से जिन सिद्धसेन का पूज्यपाद से पूर्ववर्तित्व एवं विक्रम की पाँचवीं शताब्दी ५४. विशेष के लिये देखिए, 'सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ'/ पृ. २५ से ५१। ५५. तपागच्छपट्टावली/ भाग पहला/पृ.८०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१५ में होना पाया जाता है, वे कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हैं, न कि सन्मतिसूत्र के, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहु के समय से पूर्व का सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहु का समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्री चतुरविजय जी और मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर विक्रम की छठी शताब्दी के प्रायः तृतीय चरण तक का निश्चित किया है। पं० सुखलाल जी का उसे विक्रम की दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन का जो समय विक्रम की छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण का मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है, वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोध में सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानों ने इस समय से पूर्व की अथवा उत्तरसमय की कल्पना की है, वह सब उक्त तीन सिद्धसेनों को एक मानकर उनमें से किसी एक के ग्रन्थ को मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्व का समय कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के उल्लेखों को लक्ष्य करके और उत्तर का समय न्यायावतार को लक्ष्य करके कल्पित किया गया है। इस तरह तीन सिद्धसेनों की एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकार के ठीक समय निर्णय में प्रबल बाधक रही है, इसी के कारण एक सिद्धसेन के विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओं को दूसरे सिद्धसेनों के साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेन का परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५७)। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य "अब 'विचारणीय यह है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन किस सम्प्रदाय के आचार्य थे अर्थात् दिगम्बरसम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं या श्वेताम्बरसम्प्रदाय से, और किस रूप में उनका गुण-कीर्तन किया गया है। आचार्य उमास्वाति (मी) और स्वामी समन्तभद्र की तरह सिद्धसेनाचार्य की मान्यता दोनों सम्प्रदायों में पायी जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ता के नाते आदर-सत्कार के रूप में नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्त्व या सिद्धान्तविशेष का ग्रहण करने के कारण ही है, बल्कि उन्हें अपने-अपने सम्प्रदाय के गुरुरूप में माना गया है, गुर्वावलियों तथा पट्टावलियों में उनका उल्लेख किया गया है और उसी गुरुदृष्टि से उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञता को साथ में व्यक्त करते हुए, लिखे गये हैं अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई हैं। (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ.१५७)। For Personal & Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ ८.१. दिगम्बर-सेनगण के आचार्य "दिगम्बरसम्प्रदाय में सिद्धसेन को सेनगण (संघ) का आचार्य माना जाता है और सेनगण की पट्टावली ५६ में उनका उल्लेख है। हरिवंशपुराण को शकसंवत् ७०५ में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्य ने पुराण के अन्त में दी हुई अपनी गुर्वावली में सिद्धसेन के नाम का भी उल्लेख किया है५७ और हरिवंश के प्रारम्भ में समन्तभद्र के स्मरणानन्तर सिद्धसेन का जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है, वह इस प्रकार है जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः। बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥ १/३०॥ "इसमें बतलाया गया है कि सिद्धसेनाचार्य की निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध बोध (केवलज्ञान) के धारक (भगवान्) वृषभदेव की निर्दोष सूक्तियों की तरह सत्पुरुषों की बुद्धि को बोधित करती हैं, विकसित करती हैं।" "यहाँ सूक्तियों में सन्मति के साथ कुछ द्वात्रिंशिकाओं की उक्तियाँ भी शामिल समझी जा सकती हैं। "उक्त जिनसेन-द्वारा प्रशंसित भगवज्जिनसेन ने आदिपुराण में सिद्धसेन को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके जो महत्त्व का कीर्तन एवं जयघोष किया है, वह यहाँ खासतौर से ध्यान देने योग्य है कवयः सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः। मणयः पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः॥ १/३९॥ प्रवादि-करियूथानां केशरी नयकेशरः। सिद्धसेन–कविर्जीयाद्विकल्प-नखराङ्करः॥ १/४२॥ "इन पद्यों में से प्रथम पद्य में भगवज्जिनसेन, जो स्वयं एक बहुत बड़े कवि हुए हैं, लिखते हैं कि 'कवि तो (वास्तव में) सिद्धसेनादिक हैं, हम तो कवि मान लिये गये हैं। (जैसे) मणि तो वास्तव में पद्मरागादि हैं, किन्तु काच भी (कभीकभी किन्हीं के द्वारा) मेचकमणि समझ लिया जाता है।' और दूसरे पद्य में यह घोषणा करते हैं कि 'जो प्रवादिरूप हाथियों के समूह के लिये विकल्परूप-नुकीले नखों से युक्त और नयरूप केशरों को धारण किये हुए केशरीसिंह हैं, वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, अपने प्रवचन-द्वारा मिथ्यावादियों के मतों का निरसन करते हुए ५६. जैनसिद्धान्तभास्कर / किरण १ / पृ.३८। ५७. ससिद्धसेनोऽभय-भीमसेनको गुरू परौ तौ जिन-शान्ति-सेनकौ॥ ६६ / २९॥ For Personal & Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१७ सदा ही लोकहृदयों में अपना सिक्का जमाए रक्खें, अपने वचन - प्रभाव को अङ्कित किये रहें ।' "यहाँ सिद्धसेन का कविरूप में स्मरण किया गया है और उसी में उनके वादित्वगुण को भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समय में कवि साधारण कविता - शायरी करनेवालों को नहीं कहते थे, बल्कि उस प्रतिभाशाली विद्वान् को कहते थे, जो नये-नये सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएँ तैयार करने में समर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनाओं में निपुण हो, कृती हो, नाना अभ्यासों में कुशाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान् (लौकिक व्यवहारों में कुशल) हो । ५८ दूसरे पद्य में सिद्धसेन को केशरी - सिंह की उपमा देते हुए उसके साथ जो नय- केशरः और विकल्प-नखराङ्कुरः जैसे विशेषण लगाये गये हैं, उनके द्वारा खासतौर पर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है, जिसमें नयों का ही मुख्यतः विवेचन है और अनेक विकल्पों द्वारा प्रवादियों के मन्तव्योंमान्यसिद्धान्तों का विदारण (निरसन) किया गया है। इसी सन्मतिसूत्र का जिनसेन ने जयधवला में और उनके गुरु वीरसेन ने धवला में उल्लेख किया है और उसके साथ घटित किये जानेवाले विरोध का परिहार करते हुए उसे अपना एक मान्य ग्रन्थ प्रकट किया है, जैसा कि इन सिद्धान्तग्रन्थों के उन वाक्यों से प्रकट है, जो इस लेख के प्रारम्भिक फुटनोट में उद्धृत किये जा चुके हैं। "" "नियमसार की टीका (पद्य ३) में पद्मप्रभ- मलधारिदेव ने 'सिद्धान्तोद्ध श्रीधवं सिद्धसेनं --- वन्दे' वाक्य के द्वारा सिद्धसेन की वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्त की जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्री के स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्ति ने आचार्यपूजा के प्रारंभ में दी हुई गुर्वावली में "सिद्धान्तपाथोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः ' इस वाक्य के द्वारा सिद्धसेन को 'सिद्धान्तसागर के पारगामी ' और 'गण के सारभूत' बतलाया है। मुनि कनकामर ने करकंडुचरिउ में सिद्धसेन को समन्तभद्र तथा अकलङ्कदेव के समकक्ष 'श्रुतजल के समुद्र' ५९ रूप में उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलिमय दिगम्बर - उल्लेख भी सन्मतिकार - सिद्धसेन से सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौर पर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्व का अच्छा आभास ग्रन्थ के अन्तिम काण्ड की उन गाथाओं ( ६१ आदि) से भी मिलता है, जो श्रुतधर - शब्दसन्तुष्टों, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत- बहुश्रुतमन्यों की आलोचना को लिए हुए हैं।" (पु. जै. वा. सू / प्रस्ता. / पृ. १५७–१५९) । ५८. “कविर्नूतनसन्दर्भः ।" प्रतिभोज्जीवनो नाना-वर्णना- निपुणः कविः । नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिर्व्युत्पत्तिमान् कविः ॥ अलङ्कारचिन्तामणि । ५९. " तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द अकलंक देव सुअजलसमुद्द।" क.२ । For Personal & Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ ८. २. सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि की 'पञ्चवस्तु' में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के लिए 'दिवाकर' उपनाम का प्रयोग " श्वेताम्बरसम्प्रदाय में आचार्य सिद्धसेन प्रायः दिवाकर विशेषण अथवा उपपद (उपनाम) के साथ प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। उनके लिये इस विशेषण - पद के प्रयोग का उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में सबसे पहले हरिभद्रसूरि के पञ्चवस्तु ग्रन्थ में देखने को मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप रात्रि के लिये दिवाकर (सूर्य) के समान होने से ‘दिवाकर' की आख्या को प्राप्त हुए लिखा है । ६° इसके बाद से ही यह विशेषण उधर प्रचार में आया जान पड़ता है, क्योंकि श्वेताम्बरचूर्णियों तथा मल्लवादी के नयचक्र - जैसे प्राचीन ग्रन्थों में, जहाँ सिद्धसेन का नामोल्लेख है, वहाँ उनके साथ में 'दिवाकर' विशेषण का प्रयोग नहीं पाया जाता है । ६१ हरिभद्र के बाद विक्रम की ११वीं शताब्दी के विद्वान् अभयदेवसूरि ने सन्मतिटीका के प्रारम्भ में उसे उसी दुःषमाकालरात्रि के अंधकार को दूर करनेवाले के अर्थ में अपनाया है । ६२ " श्वेताम्बरसम्प्रदाय की पट्टावलियों में विक्रम की छठी शताब्दी आदि की जो प्राचीन पट्टावलियाँ हैं, जैसे कल्पसूत्रस्थविरावली (थेरावली ), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःषमाकालश्रमणसंघ - स्तव, उनमें तो सिद्धसेन का कहीं कोई नामोल्लेख ही नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसंघ की अवचूरि में, जो विक्रम की ९वीं शताब्दी से बाद की रचना है, सिद्धसेन नाम जरूर है, किन्तु उन्हें 'दिवाकर' न लिखकर प्रभावक लिखा है और साथ ही धर्माचार्य का शिष्य सूचित किया है, वृद्धवादी का नहीं - " अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य - श्रीसिद्धसेन - प्रभावकः ॥" " दूसरी विक्रम की १५वीं शताब्दी आदि की बनी हुई पट्टावलियों में भी कितनी ही पट्टावलियाँ ऐसी हैं, जिनमें सिद्धसेन का नाम नहीं है, जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छ-पट्टावलीसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध ( लोकप्रकाश) और सूरिपरम्परा। हाँ, तपागच्छपट्टावलीसूत्र की वृत्ति में, जो विक्रम की १७वीं शताब्दी (सं० (१६४८ ) की रचना है, सिद्धसेन का दिवाकर विशेषण के साथ उल्लेख जरूर पाया ६०. आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइट्ठिअजसेणं । दूसमणिसा - दिवागर - कप्पन्तणओ तदक्खेणं ॥ १०४८॥ ६१. देखिए, सन्मतिसूत्र की गुजराती प्रस्तावना / पृ. ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि ( उद्देश ४) और दशाचूर्णि के उल्लेख तथा पिछले समय सम्बन्धी प्रकरण में उद्धृत नयचक्र के उल्लेख ६२. " इति मन्वान आचार्यो दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भूतसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमान:--- स्तवाभिधायिकां गाथामाह । " For Personal & Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१९ जाता है। यह उल्लेख मूल पट्टावली की ५वीं गाथा की व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरि के अनन्तर और दिन्नसूरि के पूर्व की व्याख्या में स्थित है।६२ इन्द्रदिन्नसूरि को सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर दसवाँ पट्टाचार्य बतलाने के बाद अत्रान्तरे शब्दों के साथ कालकसूरि आर्यरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगु का नामोल्लेख समयनिर्देश के साथ किया गया है और फिर लिखा है "वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र। तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोजयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतं, श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० सञ्जातम्।" __ "इसमें वृद्धवादी और पादलिप्त के बाद सिद्धसेनदिवाकर का नामोल्लेख करते हुए उन्हें उज्जयिनी महाकालमन्दिर के रुद्रलिङ्ग का कल्याणमन्दिरस्तोत्र के द्वारा स्फोटन करके श्री पार्श्वनाथ के बिम्ब को प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्य राजा को प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्य राज्य वीरनिर्वाण से ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेनदिवाकर को विक्रम की प्रथम शताब्दी का विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेखित विक्रमादित्य को गलतरूप में समझने का परिणाम है। विक्रमादित्य नाम के अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है, जो प्रचलित संवत् का प्रवतर्क है, इस बात को पं० सुखलालजी आदि ने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावली की यह वृत्ति जिन आधारों पर निर्मित हुई है, उनमें प्रधान पद तपागच्छ की मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावली को दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावली में भी सिद्धसेन का नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्ति से कोई १०० वर्ष बाद के (वि० सं० १७३९ के बाद के) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार ग्रन्थ में सिद्धसेनदिवाकर का उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दों में दिया है, जो उक्त वृत्ति में 'तथा' से 'संजातं' तक पाये जाते हैं।६४ और यह उल्लेख इन्द्रदिन्नसूरि के बाद अत्रान्तरे शब्दों के साथ मात्र कालकसूरि के उल्लेखानन्तर किया गया है-आयखपुट, आर्यमंगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नाम के आचार्यों का कालकसूरि के अनन्तर और सिद्धसेन के पूर्व में कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बाद की बनी हुई श्रीगुरुपट्टावली में भी सिद्धसेनदिवाकर ६३. देखिए , मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुच्चय'। प्रथम भाग। ६४. "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं सञ्जातम्॥" १०॥ पट्टावलीसमुच्चय / पृ. १५० ।। For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ का नाम उज्जयिनी की लिङ्गस्फोटन - सम्बन्धी घटना के साथ उल्लिखित है ।" ६५ (पु. जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५९-१६०)। " इस तरह श्वे. पट्टावलियों - गुर्वावलियों में सिद्धसेन का दिवाकररूप में उल्लेख विक्रम की १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धों में उनके इस विशेषण का प्रयोग सौ-दो सौ वर्ष और पहले से हुआ जान पड़ता है। रही स्मरणों की बात, उनकी भी प्राय: ऐसी ही हालत है, कुछ स्मरण दिवाकर - विशेषण को साथ में लिये हुए हैं और कुछ नहीं (लिये हुए) हैं। श्वेताम्बरसाहित्य से सिद्धसेन के श्रद्धांजलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाश में आये हैं, वे प्राय: इस प्रकार हैं क उदितोऽर्हन्त - व्योम्नि सिद्धसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जहे कविराज-बुध-प्रभा ॥ 44 44 'यह विक्रम की १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२) के ग्रन्थ अममचरित्र का पद्य है। इसमें रत्नसूरि अलंकारभाषा को अपनाते हुए कहते हैं कि अर्हन्मतरूपी आकाश में सिद्धसेन दिवाकर का उदय हुआ है, आश्चर्य है कि उसकी वचनरूपकिरणों से पृथ्वी पर कविराज की ( वृहस्पतिरूप 'शेष' कवि की) और बुध की (बुधग्रहरूप विद्वद्वर्ग) की प्रभा लज्जित हो गई (फीकी पड़ गई ) है।" ख तमः स्तोमं स हन्तुं श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलूकैरिव वादिभिः ॥ " यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी (सं० है, जिसमें प्रद्युम्नसूरि ने लिखा है कि "वे १३२४) के ग्रन्थ समरादित्य का वाक्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ( अज्ञान) अंधकार के समूह को नाश करें, जिनके उदय होने पर वादीजन उल्लुओं की तरह मूक हो रहे थे, उन्हें कुछ बोल नहीं आता था।" ग - प्रसिद्धा भवन्तु कृतप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान्निबन्धान् शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥ श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः सूरयो मि " यह स्याद्वादरत्नाकर का पद्य है। इसमें १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेवसूरि लिखते हैं कि " श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध आचार्य मेरे ऊपर 44 ६५. 'तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोज्जयिनीनगर्यां महाकालप्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।" पट्टावलीसमुच्चय / पृ. १६६ । For Personal & Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२१ प्रसन्न होवें, जिनके विविध निबन्धों पर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प-प्रतिभा का धारक भी प्रस्तुत शास्त्र के रचने में प्रवृत्त होता है । " घ- क्व सिद्धसेन - स्तुतयो अशिक्षितालापकला तथाऽपि यूथाधिपतेः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न " यह विक्रम की १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य हेमचन्द्र की एक द्वात्रिंशिकास्तुति का पद्य है। इसमें हेमचन्द्रसूरि सिद्धसेन के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अपर्ण करते हुए लिखते हैं कि "कहाँ तो सिद्धसेन की महान् अर्थवाली गम्भीर स्तुतियाँ और कहाँ अशिक्षित मनुष्यों के आलाप जैसी मेरी यह रचना ? फिर भी यूथ के अधि गजराज के पथ पर चलता हुआ उसका बच्चा ( जिस प्रकार ) स्खलितगति होता हुआ भी शोचनीय नहीं होता, उसी प्रकार मैं भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथ का अनुसरण करता हुआ स्खलितगति होने पर शोचनीय नहीं हूँ ।" क्व महार्था चैषा । "यहाँ स्तुतयः, यूथाधिपतेः और तस्य शिशुः ये पद खासतौर से ध्यान देने योग्य हैं । 'स्तुतयः' पद के द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थों के रूप में उन द्वात्रिंशिकाओं की सूचना की गई है, जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदों के द्वारा सिद्धसेन को अपने सम्प्रदाय का प्रमुख आचार्य और अपने को उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बरसम्प्रदाय के आचार्यरूप में यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं, जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन, जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिंशिकाओं के अथवा खासकर सन्मतिसूत्र के रचयिता हैं। श्वेताम्बरीय प्रबन्धों में भी, जिनका कितना ही परिचय ऊपर आ चुका है, उन्हीं सिद्धसेन का उल्लेख मिलता है, जो प्राय: द्वात्रिंशिकाओं अथवा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका - स्तुतियों के कर्तारूप में विवक्षित हैं । सन्मतिसूत्र का उन प्रबन्धों में कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १६० - १६१)। ८.३. नामसाम्य के कारण 'दिवाकर' उपनाम अन्य सिद्धसेनों के भी साथ जुड़ गया For Personal & Private Use Only पथस्थः शोच्यः ॥ "ऐसी स्थिति में सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये जिस दिवाकर विशेषण का हरिभद्रसूरि ने स्पष्टरूप से उल्लेख किया है, वह बाद को नाम - साम्यादि के कारण द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन एवं न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन के साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषण के जुड़ जाने के कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं । अन्यथा, पं० सुखलाल जी आदि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ के शब्दों (प्र./ पृ.१०३) में 'जिन द्वात्रिंशिकाओं का स्थान सिद्धसेन के ग्रन्थों में चढ़ता हुआ है' उन्हीं के द्वारा सिद्धसेन को प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रसूरि ने वैसा न करके सन्मति के द्वारा सिद्धसेन का प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि 'सन्मति' के द्वारा प्रतिष्ठितयश होनेवाले सिद्धसेन उन सिद्धसेन से प्रायः भिन्न हैं, जो द्वात्रिंशिकाओं को रचकर यशस्वी हुए हैं।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १६१ - १६२) । ८.४. रविषेण के पद्मचरित में 'दिवाकरयति' का उल्लेख " हरिभद्रसूरि के कथनानुसार जब सन्मति के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर की आख्या को प्राप्त थे, तब वे प्राचीनसाहित्य में सिद्धसेन नाम के बिना 'दिवाकर' नाम से भी उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र स्वामी नाम उल्लेखित मिलते हैं । ६६ खोज करने पर श्वेताम्बरसाहित्य में इसका एक उदाहरण 'अजरक्खनंदिसेणो' नाम की उस गाथा में मिलता है, जिसे मुनि पुण्यविजय जी ने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेख में 'पावयणी धम्मकहा' नाम की गाथा के साथ उद्धृत किया है और जिसमें आठ प्रभावक आचार्यों की नामावली देते हुए दिवायरो पद के द्वारा सिद्धसेनदिवाकर का नाम भी सूचित किया गया है। ये दोनों गाथाएँ पिछले समयादि- सम्बन्धी प्रकरण के एक फुटनोट में ( देखिए, पा. टि. २८) उक्त लेख की चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बरसाहित्य में दिवाकर का यतिरूप से एक उल्लेख रविषेणाचार्य के पद्मचरित की प्रशस्ति के निम्न वाक्य पाया जाता है, जिसमें उन्हें इन्द्र-गुरु का शिष्य, अर्हन्मुनिका गुरु और रविषेण के गुरु लक्ष्मणसेन का दादागुरु प्रकट किया है आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥ १२३ / १६७॥ " इस पद्यमें उल्लिखित दिवाकरयति का सिद्धसेनदिवाकर होना दो कारणों से अधिक सम्भव जान पड़ता है, एक तो समय की दृष्टि से और दूसरे गुरु-नाम की दृष्टि से । पद्मचरित वीरनिर्वाण से १२०३ वर्ष, ६ महीने बीतने पर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४ में बनकर समाप्त हुआ है, ६७ इससे रविषेण के पड़दादा (गुरु के दादा ) गुरु का समय लगभग एक शताब्दी पूर्व का अर्थात् विक्रम की ७वीं शताब्दी के द्वितीय चरण (६२६-६५०) के भीतर आता है, जो सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये ऊपर निश्चित ६६. देखिये, मणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना / पृ. ८ । ६७. द्विशताभ्यधिके समासहस्त्रे · समतीतेऽर्द्धचतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर-वर्द्धमान-सिद्धे चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥ १२३ / १८१ ॥ For Personal & Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२३ किया गया है। दिवाकर के गुरु का नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किसी नाम का संक्षिप्तरूप अथवा एकदेश मालूम होता है। श्वेताम्बरपट्टावलियों में जहाँ सिद्धसेनदिवाकर का नामोल्लेख किया है, वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्य के बाद अत्रान्तरे जैसे शब्दों के साथ उस नाम की वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकर के गुरु का नाम इन्द्र-जैसा होने और सिद्धसेन का सम्बन्ध आद्य विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्य के साथ समझ लेने की भूल के कारण ही सिद्धसेनदिवाकर को इन्द्रदिन्न आचार्य की पट्टबाह्य-शिष्यपरम्परा में स्थान दिया गया हो। यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्य में दिवाकरयतिः पद सिद्धसेनाचार्य का वाचक है, तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषेणाचार्य के पड़दादा गुरु होने से दिगम्बरसम्प्रदाय के आचार्य थे। अन्यथा, यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवन में दिवाकर की आख्या को प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषण बाद को हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्वाचार्य ने अलङ्कार की भाषा में दिया है और इसी से सिद्धसेन के लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्रायः देखने को नहीं मिलता। श्वेताम्बरसाहित्य का जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है, वह रत्नशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट्त्रिंशत्-षट्त्रिंशिका की स्वोपज्ञवृत्ति का एकवाक्य होने के कारण ५०० वर्ष से अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिद्धसेन की दिवाकररूप में बहुत बाद की प्रसिद्धि से सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेन के लिये 'दिवाकर' नाम के प्रयोग की बाढ़-सी आ रही है, परन्तु अतिप्राचीन काल में वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता।" (पु.जे.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १६२-१६३)। ___ "यहाँ पर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और यह कि उक्त श्वेताम्बरप्रबन्धों तथा पट्टावलियों में सिद्धसेन के साथ उज्जयिनी के महाकालमन्दिर में लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटना का उल्लेख मिलता है, उसका वह उल्लेख दिगम्बरसम्प्रदाय में भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगण की पट्टावली के निम्न वाक्य से प्रकट है (स्वस्ति) श्रीमदुजयिनीमहाकाल-संस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द्व-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम्॥ १४॥" "ऐसी स्थिति में द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन के विषय में भी सहज अथवा निश्चितरूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्ततः श्वेताम्बरसम्प्रदाय के थे, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की तो बात ही जुदी है। ८.५. दूसरी, पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में युगपद्वाद एवं स्त्रीवेदी-पुरुष-मुक्ति मान्य - "परन्तु 'सन्मति' की प्रस्तावना में पं० सुखलाल जी और पण्डित बेचरदास जी ने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बरसम्प्रदाय का आचार्य प्रतिपादित किया है, लिखा है Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' (पृ. १०४)। परन्तु इस बात को सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूप में केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीर के गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्र के शरणागमन की बात सिद्धसेन ने वर्णन की है, जो दिगम्बरपरम्परा में मान्य नहीं, किन्तु श्वेताम्बर-आगमों के द्वारा निर्विवादरूप से मान्य है।' और इसके लिये फुटनोट में ५वीं द्वात्रिंशिका के छठे और दूसरी द्वात्रिंशिका के तीसरे पद्य को देखने की प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार हैं अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते। चचार निभकशरस्तमर्थं त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः॥ ५/६॥ कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्षं दैत्याधिपः शतमुखभ्रकुटीवितानः। त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलब्धचेता लज्जातनुश्रुति हरेः कुलिशं चकार॥ २/३॥ "इनमें से प्रथम पद्य में लिखा है कि "हे यशोदाप्रिय! दूसरे अनेक जन्मों में भग्नमान हुआ कामदेव निर्लज्जतारूपी बाण को लिये हुए जो आपके सामने कुछ चला है, उसके अर्थ को आप ही नय के ज्ञाता जानते हैं, दूसरा और कौन जान सकता है? अर्थात् यशोदा के साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्य को समझने के लिये हम असमर्थ हैं।" दूसरे पद्य में देवाऽसुर-संग्राम के रूप में एक घटना का उल्लेख है, "जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्र ने सुरवधुओं को भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये। इससे इन्द्र की भ्रकुटी तन गई और उसने उस पर वज्र छोड़ा, असुरेन्द्र ने भागकर वीर भगवान् के चरणों का आश्रय लिया, जो कि शान्ति के धाम हैं और उनके प्रभाव से वह इन्द्र के वज्र को लज्जा से क्षीणद्युति करने में समर्थ हुआ।" "अलंकृत भाषा में लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओं का श्वेताम्बरसिद्धान्तों के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिये इनके इस रूप में उल्लेख मात्र पर से यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्यों के लेखक सिद्धसेन वास्तव में यशोदा के साथ भगवान् महावीर का विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना सजाकर तथा अपना भयंकर रूप बनाकर युद्ध के लिये स्वर्ग में जाना आदि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के आचार्य थे, क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरों के आवश्यकनियुक्ति आदि कुछ प्राचीन आगमों में भी दिगम्बर आगमों की तरह भगवान् महावीर को कुमार श्रमण के रूप में अविवाहित प्रतिपादित किया है६८ और असुरकुमारजातिविशिष्ट-भवनवासी देवों के अधिपति चमरेन्द्र का युद्ध की भावना को लिये हुए ६८. देखिए , आवश्यकनियुक्ति गाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त / वर्ष ४/ कि. ११-१२/ पृ. ५७९ पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरों में भी भगवान् महावीर के अविवाहित होने की मान्यता' नामक लेख। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १६४)। For Personal & Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२५ सैन्य सजाकर स्वर्ग में जाना सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तव्य के रूप में भी हो सकता है और आगमसूत्रों में कितना ही कथन परवक्तव्य के रूप में पाया जाता है, इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्य ने सन्मति - सूत्र में की है और लिखा है कि ज्ञातापुरुष को (युक्ति - प्रमाण- द्वारा) अर्थ की ङ्गति के अनुसार ही उनकी व्याख्या करनी चाहिये ।" ६९ (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ.१६३-१६४) । "यदि किसी तरह पर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनों पद्यों में जिन घटनाओं का उल्लेख है, वे परवक्तव्य या अलङ्कारादि के रूप में न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं, तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२, ५) के कर्ता जो सिद्धसेन हैं, वे श्वेताम्बर थे। इससे अधिक यह फलित नहीं हो सकता कि दूसरी द्वात्रिंशिकाओं तथा सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जब तक कि प्रबल युक्तियों के बल पर इन सब ग्रन्थों का कर्ता एक ही सिद्धसेन को सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है, जैसा कि पिछले एक प्रकरण में व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस के फलित होने में भी एक बाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओं में कोई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है, जो इनके शुद्ध श्वेताम्बरकृतियाँ होने पर नहीं बनती, जिसका एक उदाहरण तो इन दोनों में उपयोगद्वय के युगपवाद का प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बरपरम्परा का सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर - आगमों की क्रमवाद - मान्यता के विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पाँचवीं द्वात्रिंशिका का निम्न वाक्य है नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् । नैवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राचीं यियासुर्विपरीतयायी ॥ २५ ॥ + " इसके पूर्वार्ध में बतलाया है कि " हे नाथ! वीरजिन! आपके बतलाये हुए सन्मार्ग पर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोह को जीत लेते हैं (मोहनीयकर्म के सम्बन्ध का अपने आत्मा से पूर्णतः विच्छेद कर देते हैं) जो स्त्रीचेतसः होते हैं (स्त्रियों जैसा चित्त (भाव) रखते हैं) अर्थात् भावस्त्री होते हैं।" और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ मोह को पूर्णतः जीतने में समर्थ नहीं होतीं, तभी स्त्रीचित्त के लिये मोह को जीतने की बात गौरव को प्राप्त होती है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में जब स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह मोह पर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भव से मुक्ति को प्राप्त कर सकती हैं, तब एक श्वेताम्बर विद्वान् के इस कथन में कोई महत्त्व मालूम नहीं होता ६९. परवत्तव्वयपक्खा अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु । अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥ २/१८ ॥ सन्मतिसूत्र | For Personal & Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ कि "स्त्रियों-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र मोह को जीत लेते हैं', वह निरर्थक जान पड़ता है। इस कथन का महत्त्व दिगम्बर विद्वानों के मुख से उच्चरत होने में ही है, जो स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्रीपुरुषों के लिये मुक्ति का विधान करते हैं। अतः इस वाक्य के प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होंने इसी द्वात्रिंशिका के छठे पद्य में यशोदाप्रिय पद के साथ जिस घटना का उल्लेख किया है, वह अलङ्कार की प्रधानता को लिये हुए परवक्तव्य के रूप में उसी प्रकार का कथन है, जिस प्रकार कि ईश्वर को कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैन कवि ईश्वर को उलाहना अथवा उसकी रचना में दोष देता हुआ लिखता है हे विधि! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गन के तन में, तृन दन्त धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करें पर को दुखदाई ! साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !! "इस तरह सन्मति के कर्ता सिद्धसेन को श्वेताम्बर सिद्ध करने के लिये जो द्वात्रिंशिकाओं के उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये हैं, उनसे सन्मतिकार सिद्धसेन का श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन का भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नहीं होता, जिनके उक्त दोनों पद्य अङ्गरूप हैं। श्वेताम्बरत्व की सिद्धि के लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिसूत्र में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता। सन्मति में ज्ञान-दर्शनोपयोग के अभेदवाद की जो खास बात है, वह दिगम्बरमान्यता के अधिक निकट है, दिगम्बरों के युगपद्वाद पर से ही फलित होती है, न कि श्वेताम्बरों के क्रमवाद पर से, जिसके खण्डन में युगपद्वाद की दलीलों को सन्मति में अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के अभेदवाद की जो बात सन्मति द्वितीयकाण्ड की गाथा ३२-३३ में कही गई है, उसके बीज श्री कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थ में पाये जाते हैं। इन बीजों की बात को पं० सुखलाल जी आदि ने भी 'सन्मति' की प्रस्तावना (पृ.६२) में स्वीकार किया है, लिखा है कि "सन्मतिना (काण्ड २/ गाथा ३२) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना ऐक्यवादनुं बीज कुंदकुंदना समयसार (गा.११३) मां ७° स्पष्ट छ।" इसके सिवाय, समयसार की 'जो पस्सदि अप्पाणं' नाम की ७०. यहाँ जिस गाथा की सूचना की गई है, वह 'दंसणणाणचरित्ताणि' नाम की १६वीं गाथा है। इसके अतिरिक्त 'ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं' (७), 'सम्मइंसणणाणं For Personal & Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२७ १४वीं गाथा में शुद्धनय का स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्मा को अविशेषरूप से देखता है, तब उसमें ज्ञान दर्शनोपयोग की भेद- कल्पना भी नहीं बनती और इस दृष्टि से उपयोगद्वय की अभेदवादता के बीज भी समय-सार में सन्निहित हैं, ऐसा कहना चाहिये।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता./ पृ. १६४१६५)। ८.६. सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बरमान्य क्रमवाद का खण्डन और वह यह कि पं० ७१ “हाँ, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देने की है सुखलाल जी ने 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख में ' देवनन्दी पूज्यपाद को 'दिगम्बरपरम्परा का पक्षपाती सुविद्वान्' बतलाते हुए 'सन्मति' के कर्ता सिद्धसेन - दिवाकर को 'श्वेताम्बरपरम्परा का समर्थक आचार्य' लिखा है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किस रूप में श्वेताम्बरपरम्परा के समर्थक हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर में भेद की रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रसिद्ध हैं - १. स्त्रीमुक्ति, २. केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३. सवस्त्रमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बरसम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बरसम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनों में से एक का भी प्रतिपादन सिद्धसेन ने अपने किसी ग्रन्थ में नहीं किया है और न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओं के पूजनादि का ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिक की भी सन्मति के टीकाकार अभयदेवसूरि को जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूल में वैसा कोई खास प्रसङ्ग न होते हुए भी उसे यों ही टीका में लाकर घुसेड़ा है । ७२ ऐसी स्थिति में सिद्धसेनदिवाकर को दिगम्बरपरम्परा से भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्परा का समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता। सिद्धसेन ने तो श्वेताम्बरपरम्परा की किसी विशिष्ट बात का कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय-विषयक क्रमवाद की मान्यता का सन्मति में जोरों के साथ खण्डन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरता के शिकार श्वेताम्बर आचार्यों का कोपभाजन एवं तिरस्कार का पात्र तक बनना पड़ा है।" (पु.जै.वा. सू. / प्रस्ता/ पृ. १६५ - १६६)। एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं ' (१४४), और 'णाणं सम्मादिट्ठि दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं' (४०४) नाम की गाथाओं में भी अभेदवाद के बीज संनिहित हैं । (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १६५) । ७१. भारतीयविद्या / तृतीय भाग / पृ. १५४ ७२. देखिए, सन्मति - तृतीयकाण्डगत गाथा ६५ की टीका (पृ. ७५४), जिसमें " भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्यारोपणं कर्मक्षयकारणं" इत्यादि रूप से मण्डन किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ८.७. श्वेताम्बराचार्यों द्वारा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की निन्दा मुनि जिनविजय जी ने 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेख में ७३ उनके इस विचारभेद का उल्लेख करते हुए लिखा है "सिद्धसेन जी के इस विचारभेद के कारण उस समय के सिद्धान्त-ग्रन्थ- पाठी और आगमप्रवण आचार्यगण उनको तर्कम्मन्य जैसे तिरस्कार - व्यञ्जक विशेषणों से अलंकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर - भाव प्रकट किया करते थे ।" अ०१८ / प्र० १ "इस (विशेषावश्यक) भाष्य में क्षमाश्रमण (जिनभद्र) जी ने दिवाकर जी के उक्त विचारभेद का खूब ही खण्डन किया है और उनको आगम-विरुद्ध-भाषी बतलाकर उनके सिद्धान्त को अमान्य बतलाया है । " "सिद्धसेनगणी ने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' (१ / ३१) इस सूत्र की व्याख्या में दिवाकर जी के विचारभेद के ऊपर अपने ठीक वाग्बाण चलाये हैं। गणी जी के कुछ वाक्य देखिये - " यद्यपि केचित्पण्डिम्मन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थ - माचक्षते तर्कबलानुबिद्धबुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति । " ( पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ.१६६) । ८.८. दिगम्बरसाहित्य में सन्मतिसूत्रकार का गौरवपूर्वक स्मरण " दिगम्बरसाहित्य में ऐसा एक भी उल्लेख नहीं, जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन के प्रति अनादर अथवा तिरस्कार का भाव व्यक्त किया गया हो । सर्वत्र उन्हें बड़े ही गौरव के साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धृत हरिवंशपुराणादि के कुछ वाक्यों से प्रकट है। अकलङ्कदेव ने उनके अभेदवाद के प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही आदर के साथ लिखा है कि " यथा हि असद्भूतमनुपदिष्टं च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते" अर्थात् केवली (सर्वज्ञ) जिस प्रकार असद्भूत और अनुपदिष्ट को जानते हैं, उसी प्रकार उनको देखते भी हैं, इसके मानने में आपकी क्या हानि होती है? वास्तविक बात तो प्रायः ज्यों की त्यों एक ही रहती है। अकलङ्कदेव के प्रधान टीकाकार आचार्य श्री अनन्तवीर्य जी ने सिद्धिविनिश्चय की टीका में " असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ॥" इस कारिका की व्याख्या करते हुए सिद्धसेन को महान् आदर - सूचक भगवान् शब्द के साथ उल्लेखित किया है और जब उनके किसी स्वयूथ्य ने (स्वसम्प्रदाय के विद्वान् ने ) यह आपत्ति की कि "सिद्धसेन ने एकान्त के साधन में प्रयुक्त हेतु को कहीं भी असिद्ध नहीं बतलाया ७३. जैन साहित्य संशोधक / भाग १ / अंक १ / पृ. १०, ११ । For Personal & Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२९ है, अतः एकान्त के साधन में प्रयुक्त हेतु सिद्धसेन की दृष्टि में असिद्ध है, यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है," तब उन्होंने यह कहते हुए कि "क्या उसने कभी यह वाक्य नहीं सुना है" सन्मतिसूत्र की 'जे संतवायदोसे' इत्यादि कारिका (३/५०) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधन में प्रयुक्त हेतु को सिद्धसेन की दृष्टि में असिद्ध प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है। यथा "असिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमाणायां सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कथमिति चेदुच्यते---। ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति। कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह-सिद्धसेनेन क्वचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति। तेन कदाचिदेतत् श्रुतं-'जे संतवायदोसे सक्कोल्लूया भणंति संखाणं। संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा'॥" "इन्हीं सब बातों को लक्ष्य में रखकर प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दुलीचन्द देसाई बी.ए., एल-एल.बी. एडवोकेट हाईकोर्ट, बम्बई ने अपने 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रन्थ (पृ. ११६) में लिखा है कि "सिद्धसेनसूरि प्रत्येनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमां रहेलो देखाय छे" अर्थात् (सन्मतिकार) सिद्धसेनाचार्य के प्रति आदर दिगम्बर विद्वानों में रहा दिखाई पड़ता है, श्वेताम्बरों में नहीं। साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पार्श्वनाथचरित और एकान्तखण्डन जैसे दिगम्बरग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्तवीर्य, शिवकोटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र (धर) जैसे दिगम्बर विद्वानों का नामोल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि "इन दिगम्बर विद्वानों ने सिद्धसेनसूरिसम्बन्धी और सन्मतितर्क -सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभाव से किये हैं, और उन उल्लेखों से यह जाना जाता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारों में घना समय तक सिद्धसेन के (उक्त) ग्रन्थ का प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उस पर उन्होंने टीका भी रची है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १६६-१६७)। ___ "इस सारी परिस्थिति पर से यह साफ समझा जाता और अनुभव में आता है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन एक महान् दिगम्बराचार्य थे, और इसलिये उन्हें श्वेताम्बर परम्परा का अथवा श्वेताम्बरत्व का समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं है। वे अपने प्रवचन-प्रभाव आदि के कारण श्वेताम्बरसम्प्रदाय में भी उसी प्रकार से अपनाये गये हैं, जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टावलियों में पट्टाचार्य तक का पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० सुखलाल, पं० बेचरदास और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान् भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १६७)।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ९ कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्त्ता एक अन्य दिगम्बर सिद्धसेन और कुछ श्वेताम्बर सिद्धसेन “कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन इन सन्मतिकार सिद्धसेन से भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवतः वे ही उज्जयिनी के महाकालमन्दिरवाली घटना के नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे शुरू से श्वेताम्बरसम्प्रदाय में ही दीक्षित हुए हों, परन्तु श्वेताम्बर - आगमों को संस्कृत में कर देने का विचारमात्र प्रकट करने पर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये संघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो, तब वे सविशेषरूप से दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आए हों, उनके प्रभाव से प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचारों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हुए हों, खासकर समन्तभद्रस्वामी के जीवनवृतान्तों और उनके साहित्य का उन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा हो और इसीलिये वे उन्हीं - जैसे स्तुत्यादिक कार्यों के करने में दत्तचित्त हुए हों। उन्हीं के सम्पर्क एवं संस्कारों में रहते हुए ही सिद्धसेन से उज्जयिनी की वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो, जिससे उनका प्रभाव चारों ओर फैल गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो। यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसंघ को अपनी भूल मालूम पड़ी हो, उसने प्रायश्चित्त की शेष अवधि को रद्द कर दिया हो और सिद्धसेन को अपना ही साधु तथा प्रभावक आचार्य घोषित किया हो । अन्यथा, द्वात्रिंशिकाओं पर से सिद्धसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होने के साथ-साथ जिस उदार, स्वतन्त्र और निर्भय - प्रकृति के समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं, उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एवं अविवेकपूर्ण दण्ड को यों ही चुपके से गर्दन झुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये कोई दूसरा मार्ग न चुना हो । सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुर्व्यवहार के कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियों अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियों की ( द्वा. ६ में) कड़ी आलोचनाएँ की हैं। अ०१८ / प्र० १ "यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदाय ने दूसरे सम्प्रदाय की उज्जयिनीवाली घटना को अपने सिद्धसेन के लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः काँची या काशी में घटित होनेवाली समन्तभद्र की घटना की ही एक प्रकार से कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेन को भी उस प्रकार का प्रभावक ख्यापित करना अभीष्ट रहा हो । कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन अपने उदार विचार एवं प्रभावादि के कारण दोनों सम्प्रदायों में समानरूप से माने जाते हैं, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय में पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। " (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ. १६७-१६८) । For Personal & Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३१ न्यायावतार के कर्ता एक अन्य श्वेताम्बर सिद्धसेन "परन्तु न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन की दिगम्बरसम्प्रदाय में वैसी कोई खास मान्यता मालूम नहीं होती और न उस ग्रन्थ पर दिगम्बरों की किसी खास टीकाटिप्पण का ही पता चलता है, इसी से वे प्रायः श्वेताम्बर जान पड़ते हैं। श्वेताम्बरों के अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतार पर उपलब्ध होते हैं। उसके 'प्रमाणं स्वपराभासि' इत्यादि प्रथम श्लोक को लेकर तो विक्रम की ११वीं शताब्दी के विद्वान् जिनेश्वरसूरि ने उस पर प्रमालक्ष्म नाम का एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्त में उसके रचने में प्रवृत्त होने का कारण उन दुर्जनवाक्यों को बतलाया है, जिनमें यह कहा गया है कि "इन श्वेताम्बरों के शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षण-विषयक कोई ग्रन्थ अपने नहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी हैं, बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थों से अपना निर्वाह करनेवाले हैं, अतः ये आदि से नहीं, किसी निमित्त से नये ही पैदा हुए अर्वाचीन हैं।" साथ ही यह भी बतलाया है कि "हरिभद्र, मल्लवादी और अभयदेवसूरि-जैसे महान् आचार्यों के द्वारा इन विषयों की उपेक्षा किये जाने पर भी हमने उक्त कारण से यह प्रमालक्ष्म नाम का ग्रन्थ वार्तिकरूप में अपने पूर्वाचार्य का गौरव प्रदर्शित करने के लिये (टीका-"पूर्वाचार्यगौरव-दर्शनार्थं") रचा है और (हमारे भाई) बुद्धिसागराचार्य ने संस्कृत-प्राकृत शब्दों की सिद्धि के लिये पद्यों में व्याकरण ग्रन्थ की रचना की है।" ७१(पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १६८)। ___ "इस तरह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बर जाने जाते हैं। द्वात्रिंशिकाओं में से कुछ के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और कुछ के कर्ता श्वेताम्बर जान पड़ते हैं और वे उक्त दोनों सिद्धसेनों से भिन्न, पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनसे अभिन्न भी हो सकते हैं। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनी की उस घटना के साथ जिन सिद्धसेन का सम्बन्ध बतलाया जाता है, उन्होंने सबसे पहले कुछ द्वात्रिंशिकाओं की रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनों ने भी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ रची हैं और वे सब रचयिताओं के नाम-साम्य के कारण परस्पर में मिल-जुल गई हैं, अतः उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में यह निश्चय करना कि कौन-सी द्वात्रिंशिका किस सिद्धसेन की कृति है, विशेष अनुसन्धान से सम्बन्ध रखता है। साधारणतौर पर उपयोग-द्वय के युगपद्वादादि की दृष्टि से, जिसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है, प्रथमादि पाँच द्वात्रिंशिकाओं को दिगम्बर सिद्धसेन की, १९वीं तथा ७४. देखिये, वार्तिक नं. ४०१ से ४०५ और उनकी टीका अथवा 'जैनहितैषी' भाग १३, अङ्क ९-१० में प्रकाशित मुनि जिनविजय जी का 'प्रमालक्षण' नामक लेख। For Personal & Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ २१वीं द्वात्रिंशिकाओं को श्वेताम्बर सिद्धसेन की और शेष द्वात्रिंशिकाओं को दोनों में से किसी भी सम्प्रदाय के सिद्धसेन की अथवा दोनों ही सम्प्रदायों के सिद्धसेनों की अलग-अलग कृति कहा जा सकता है। यही इन विभिन्न सिद्धसेनों के सम्प्रदायविषयक विवेचन का सार है ।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १६८) । ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण मुख्तार जी के निर्णयों का विरोध और उसकी आधारहीनता 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के मान्य लेखक डॉ. सागरमल जी जैन ने पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के निर्णयों का विरोध किया है। विरोध में जो हेतु प्रस्तुत किये गये हैं, वे सब मिथ्या हैं। उनके मिथ्यात्व का प्रदर्शन एवं उनका निरसन क्रमशः श्वेताम्बरपक्ष और दिगम्बरपक्ष शीर्षकों से नीचे किया जा रहा है। श्वेताम्बरपक्ष मुख्तार जी ने सिद्ध किया है कि कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन, न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन तथा सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अलग-अलग व्यक्ति हैं और इनमें से प्रथम दो सिद्धसेन श्वेताम्बर हैं तथा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बर। उपर्युक्त ग्रन्थलेखक ने इसे मुख्तार जी का दुराग्रहमात्र घोषित किया है। (जै.ध.या. स./ पृ.२२८-२२९)। दिगम्बरपक्ष दुराग्रह तो उसे कहते हैं, जब बिना किसी युक्ति और प्रमाण के अपनी मान्यता थोपी जाय, प्रतिपक्षी की युक्तियों और प्रमाणों की उपेक्षा कर अपने ही मत के सही होने की रट लगाये रखी जाय। मुख्तार जी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सिद्धसेन के नाम से प्रसिद्ध उक्त ग्रन्थों में जो परस्पर सैद्धान्तिक विपरीतताएँ हैं, उन्हें सामने लाकर उनके कर्ताओं को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। इसे दुराग्रह कहेंगे, तो सयुक्तिक प्रतिपादन किसे कहेंगे? हाँ, उपर्युक्त श्वेताम्बरपक्षधर मान्य ग्रन्थ-लेखक अवश्य ही उन सैद्धान्तिक विपरीतताओं को देखकर भी नेत्रनिमीलित कर लेते हैं और केवल इस आधार पर उन्हें एक ही सिद्धसेन की कृति मानने के निर्णय पर कायम रहते हैं कि श्वेताम्बरपरम्परा में ऐसी ही मान्यता है और पं० सुखलाल जी संघवी ने प्रतिभा की समानता के आधार पर ऐसा ही माना है। सम्भवतः यह प्रवृत्ति दुराग्रह की परिभाषा में आती है। श्वेताम्बरपक्ष दूसरा आक्षेप करते हुए उपर्युक्त ग्रन्थ लेखक कहते हैं-"आदरणीय मुख्तार जी ने एक यह विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बरप्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लेखित सिद्धसेन अन्य कोई सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं। किन्तु मुख्तार जी ये कैसे भूल जाते हैं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०२ कि प्रबन्धग्रन्थों के लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं। जब प्रबन्धों से प्राचीन श्वेताम्बरग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो सिद्धसेन का उल्लेख है, वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का है?" (जै.ध.था.स/ पृ. २२६-२२७)। दिगम्बरपक्ष प्रश्न यह है कि जब पूर्वकालीन श्वेताम्बरग्रन्थों में सिद्धसेन की कृति के रूप में सन्मतिसूत्र का उल्लेख है, तब उत्तरकालीन प्रबन्धग्रन्थों में क्यों नहीं है? उनमें तो अवश्य ही होना चाहिए था। जिन प्रबन्धग्रन्थों में सिद्धसेन का सम्पूर्ण जीवनचरित वर्णित है, जिनमें उनके द्वारा रचित साहित्य के अन्तर्गत द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार का उल्लेख है, उनमें सन्मतिसूत्र जैसे अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ का उनकी कृति के रूप में उल्लेख नहीं है, यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह श्वेताम्बरसाहित्य में उनकी कृति के रूप में मान्य नहीं था। निशीथचूर्णिकार श्री जिनदास महत्तर (७वीं शती ई०) एवं आचार्य हरिभद्र सूरि (८वीं शती ई०) आदि ने सन्मतिसूत्र (६वीं शती ई०) को भ्रम से श्वेताम्बरीय ग्रन्थ घोषित कर दिया, किन्तु इससे अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, क्योंकि उसमें प्रतिपादित केवली का दर्शन-ज्ञानोपयोग-अभेदवाद श्वेताम्बरागमसम्मत नहीं है। इसी कारण जिनभद्रगणी, सिद्धसेनगणी आदि श्वेताम्बराचार्यों ने सन्मतिसूत्रकार के लिए आगमविरुद्धभाषी, पण्डितम्मन्य जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है और प्रबन्धग्रन्थों में सिद्धसेन की कृतियों में 'सन्मतिसूत्र' का उल्लेख नहीं किया गया। इससे सिद्ध है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बरपरम्परा के नहीं थे। दिगम्बरपरम्परा में जैसे पूर्वकालीन ग्रन्थों में उनका आदरपूर्वक उल्लेख है, उसी प्रकार उत्तरकालीन ग्रन्थों में भी है। यह साबित करता है कि हैं वे दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे। इस तरह मुख्तार जी के तर्क में विचित्रता की बात क्या है? वह तो एक युक्तिसम्मत अत्यन्त सीधा-सादा तर्क है। हाँ, मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् का यह तर्क अवश्य विचित्र लगता है कि श्वेताम्बर-प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख इसलिए नहीं है कि उसमें "श्वेताम्बर-आगम-मान्य क्रमवाद का खण्डन है, इसीलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने जानबूझकर उस ग्रन्थ की उपेक्षा की है। मध्ययुगीन सम्प्रदायगत मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो। अतः जानबूझकर उसकी उपेक्षा की।" (जै.ध.या.स./ पृ. २२८)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० २ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३५ 1 यह तर्क विचित्र इसलिए है कि श्वेताम्बर - आगममान्य क्रमवाद का खण्डन पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में भी है, क्योंकि उनमें यौगपद्यवाद का प्रतिपादन है। तथा उन्नीसवीं निश्चयद्वात्रिंशिका में भी यौगपद्यवाद स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तथा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में भी परस्पर अभेद का प्रतिपादन मिलता है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आगमों के विरुद्ध है। उसमें और भी अनेक प्रतिपादन श्वेताम्बर - मान्यताओं के विरुद्ध हैं। जब इन द्वात्रिंशिकाओं का उल्लेख प्रबन्धों में करने से मध्ययुगीन श्वेताम्बराचार्यों को कोई हानि दिखाई नहीं दी, तब सन्मतिसूत्र का उल्लेख करने से हानि दिखाई देती थी, यह तर्क गले नहीं उतरता । वे उपर्युक्त श्वेताम्बरमान्यता - विरोधी द्वात्रिंशिकाओं के व्यापक अध्ययन पर प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहते थे, केवल सन्मतिसूत्र पर लगाना चाहते थे, यह बात बुद्धिगम्य नहीं है। दूसरे, वे सन्मतिसूत्र के व्यापक अध्ययन पर रोक लगाना चाहते थे, सीमित अध्ययन पर नहीं, तथा ग्रन्थ तो उपलब्ध रहे, केवल उसे सिद्धसेनकृत ग्रन्थों की सूची में न रखा जाय, इतने मात्र से उसका व्यापक अध्ययन रुक जायेगा, ये तर्क अपने मध्ययुगीन श्वेताम्बराचार्यों की बुद्धि पर थोपना उनकी बुद्धि को बालबुद्धि से भी गया बीता सिद्ध करना है। यह बालबुद्धिप्रसूत तर्क सिद्धसेनकृत ग्रन्थों की सूची में सन्मतितर्क के उल्लेख के अभाव का औचित्य सिद्ध करने में असमर्थ है। अतः उसके अभाव के औचित्य को सिद्ध करनेवाला केवल एक ही तर्क शेष रहता है, वह यह कि सन्मतितर्क उन सिद्धसेन की कृति थी ही नहीं, जिनके जीवनचरित का वर्णन प्रबन्धों में किया गया है। वह दिगम्बर सिद्धसेन की कृति थी, जिनके द्वारा प्रतिपादित उपयोग- अभेदवाद का खण्डन जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में किया है तथा दर्शनप्रभावक होने से जिसके अध्ययन का औचित्य दिगम्बरअकलंकदेवकृत सिद्धिविनिश्चय के साथ श्वेताम्बर - निशीथचूर्णि में प्रतिपादित किया गया है । यथा "दंसणगाही — दंसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि हंतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः । " ७५ इस तरह चूँकि सन्मतिसूत्र का उल्लेख प्रबन्धों में वर्णित सिद्धसेन की कृतियों की सूची में नहीं है, अतः वह उनकी कृति नहीं है, अपितु दिगम्बरकृति है, मुख्तार ७५. निशीथचूर्णि / उद्देशक १ ( पुरातन जैन वाक्य सूची / प्रस्तावना / पृ. ११९ पर पादटिप्पणी २ में उद्धृत)। For Personal & Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०२ जी का यह निष्कर्ष युक्ति और प्रमाण से सिद्ध होने के कारण विचित्र नहीं है, अपितु बिलकुल बुद्धिगम्य और सीधासादा है। श्वेताम्बरपक्ष मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् का एक तर्क यह है कि "श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन किया है और उन्हें आगमों की अवमानना करने पर दण्डित किये जाने का उल्लेख भी किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय का नहीं बताया है। श्वेताम्बरपरम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के बावजूद भी अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे हैं। श्वेताम्बरग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेलधारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को होता है, अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं। अतः सिद्धसेन दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता।" (जै.ध.या.स./पृ. २२७)। दिगम्बरपक्ष दिगम्बराचार्य भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को अपनी ही परम्परा का मानते आ रहे हैं। और प्रबन्धों के अनुसार जिन सिद्धसेन को आगमों का संस्कृत में रूपान्तरण करने का विचार प्रकट करने से बारह वर्ष के लिए श्वेताम्बरसंघ से बहिष्कृत कर दिया था, वे सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नहीं थे, अपितु कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन थे, वे श्वेताम्बर ही थे। उन्हें ही निश्चयद्वात्रिंशिका में श्वेताम्बरागम-विरुद्ध प्रतिपादन करने से उनके ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान् ने द्वेष्यश्वेतपट (शत्रु माने जाने योग्य श्वेताम्बर) कहा था-"द्वेष्यश्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्चयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः।" ७७ यह पुष्पिकावाक्य इसी द्वात्रिंशिका के अन्त में अंकित है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि यही सिद्धसेन अर्थात् प्रबन्धों में वर्णित द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता तथा वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन ही द्वेष्य और दण्डनीय होते हुए भी श्वेतपट (श्वेताम्बर) थे, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं। अतः यह सर्वथा मान्य है कि उपर्युक्त प्रबन्धग्रन्थवर्णित द्वात्रिंशिकाकार, वृद्धवादी के शिष्य, सिद्धसेन दिगम्बरपरम्परा के आचार्य किसी भी स्थिति में नहीं थे। इसी तरह यह भी सर्वथा सत्य है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन किसी भी तरह श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य नहीं थे, अपितु दिगम्बरपरम्परा के ही आचार्य थे। ७६. देखिए , पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्ता. / पृ. १३३, १६८-१६८। ७७. देखिए , पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्ता. / पृ. १४१ । For Personal & Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०२ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३७ ___ यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि द्वात्रिंशिकाकार सिद्धसेन के लिए द्वेष्यश्वेतपट विशेषण का प्रयोग किसी श्वेताम्बर विद्वान् ने ही किया है, क्योंकि वह निश्चयद्वात्रिंशिका के अन्त में पुष्पिकावाक्य में प्रयुक्त है, तथापि माननीय डॉ० सागरमल जी ने लिखा है कि उक्त विशेषण का प्रयोग किसी दिगम्बराचार्य ने किया है। (जै. ध.या.स./ पृ.२२८)। विचारणीय है कि कोई दिगम्बराचार्य केवल निश्चयद्वात्रिंशिकाकार के लिए ही 'द्वेष्यश्वेतपट' क्यों कहेगा? अगर साम्प्रदायिक द्वेषवश ऐसा कहना होता, तो दिगम्बराचार्य हर श्वेताम्बरग्रन्थ के अन्त में उसके कर्ता के लिए 'द्वेष्यश्वेतपट' विशेषण अंकित कर देते। किन्तु ऐसा अपने ग्रन्थों में तो सम्भव है, किन्तु दूसरे सम्प्रदाय के ग्रन्थों में ऐसा करना न तो दिगम्बरों के लिए संभव है, न श्वेताम्बरों के लिए। फिर भी डॉक्टर सा० ने ऐसा मान लिया है। डॉक्टर सा० श्वेताम्बरों का दोष भी दिगम्बरों के सिर मढ़ना चाहते हैं। उनकी मनःस्थिति दिगम्बरों के प्रति बड़ी आक्रोशमय प्रतीत होती है। श्वेताम्बरपक्ष मुख्तार जी के आलोचक उक्त विद्वान् ने उन पर आरोप लगाया है कि उन्होंने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को दिगम्बरपरम्परा का आचार्य सिद्ध करने के लिए कोई भी आधारभूत प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया है। (जै.ध. या.स./पृ.२२६)। दिगम्बरपक्ष मुख्तार जी ने इसके लिए निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये हैं १. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन ने श्वेताम्बर-आगमों की उपयोगद्वयविषयक-क्रमवाद की मान्यता का सन्मतिसूत्र में जोरदार खण्डन किया है और अभेदवाद की सिद्धि की है, जो दिगम्बरमान्य यौगपद्यवाद के निकट है। (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १३४-१३५)। २. श्वेताम्बराचार्यों ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की अभेदवादी मान्यता की कटु आलोचना की है और उनके प्रति अनादरभाव प्रकट किया है, जब कि दिगम्बरसाहित्य में सर्वत्र उनका सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया है। (वही/ पृ. १६६)। ३. दिगम्बरसम्प्रदाय में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को सेनगण (संघ) का आचार्य माना गया है और सेनगण की पट्टावली में उनका उल्लेख है। (वही/ पृ. १५७)। ४. हरिवंशपुराणकार दिगम्बराचार्य जिनसेन ने पुराण के अन्त में अपनी गुर्वावली में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के नाम का उल्लेख किया है और आरंभ में उनकी सूक्तियों को भगवान् वृषभदेव की सूक्तियों के तुल्य बतलाया है। (वही/पृ. १५८)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०२ ५. आदिपुराणकार जिनसेन ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को अपने से उत्कृष्ट वि निरूपित करते हुए मिथ्यावादियों के मतों का निरसन करनेवाला कहा है । ( वही / पृ. १५८) । ६. वीरसेन स्वामी ने धवला में और उनके शिष्य जिनसेन ने जयधवला में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र को अपना मान्य ग्रन्थ कहा है । ( वही / पृ. १५८) । ७. नियमसार की तात्पर्यवृत्ति में पद्मप्रभमलधारिदेव ने उक्त सिद्धसेन की वन्दना करते हुए उन्हें सिद्धान्त का ज्ञाता और प्रतिपादन - कौशल - रूप उच्चश्री का स्वामी सूचित किया है। इसके अतिरिक्त प्रतापकीर्ति ने आचार्यपूजा के प्रारंभ में दी हुई गुर्वावली में तथा मुनि कनकामर ने करकंडुचरिउ में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की अत्यन्त प्रशंसा की है । ( वही / पृ. १५९)। ८. पद्मपुराणकार दिगम्बराचार्य रविषेण ने सन्मतिसूत्रकार के कर्त्ता सिद्धसेन को इन्द्रगुरु का शिष्य, अर्हन्मुनि का गुरु और रविषेण के गुरु लक्ष्मणसेन का दादागुरु अर्थात् अपना परदादागुरु कहा है । ( वही / पृ. १६२) । ९. दिगम्बर सेनगण की पट्टावली में भी उक्त सिद्धसेन के विषय में उज्जयिनी के महाकाल - मन्दिर में लिंगस्फोटनादि - सम्बन्धी घटना का उल्लेख मिलता है । ( वही/ पृ. १६३) । १०. इन प्रमाणों में एक मैं भी जोड़ देना चाहता हूँ, वह यह कि दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में सन्मतिसूत्र की अनेक गाथाओं का संस्कृतरूपान्तरण किया है। (उदाहरणार्थ देखिए, जै. ध. या.स./ पृ. १९०-१९१ )। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को दिगम्बराचार्य सिद्ध करनेवाले ये सभी आधारभूत प्रमाण मुख्तार जी ने प्रस्तुत किये हैं । श्वेताम्बरपक्ष उपर्युक्त ग्रन्थों में से हरिवंशपुराण, पद्मपुराण और वरांगचरित को मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् ने यापनीयपरम्परा के खाते में डाल दिया है । अतः वे लिखते हैं कि "रविषेण यापनीय परम्परा के हैं, अतः उनके परदादागुरु के साथ में सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख मानें, तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होंगे। (जै. ध. या.स./ पृ. २२६) । वे आगे लिखते हैं- "केवल यापनीयग्रन्थों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीयपरम्परा में मान्य रहे हैं।" ( वही / पृ. २२७ )। For Personal & Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० २ दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३९ उपर्युक्त तीनों ग्रन्थ दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ हैं, इसका सप्रमाण प्रतिपादन पद्मपुराण वरांगचरित एवं हरिवंशपुराण नामक उत्तरवर्ती १९वें, २० वें एवं २१वें अध्यायों में द्रष्टव्य है। अतः दिगम्बराचार्य रविषेण के परदादा गुरु के साथ में उल्लेख होने से आचार्य सिद्धसेन दिगम्बराचार्य ही सिद्ध होते हैं, यापनीयाचार्य नहीं । श्वेताम्बरपक्ष उपर्युक्त विद्वान् का कथन है कि पंचम द्वात्रिंशिका के ३६वें पद्य में यशोदा के साथ भगवान् महावीर के विवाह का उल्लेख है, जिससे सिद्ध होता है कि सिद्धसेन श्वेताम्बर थे। (जै. ध. या.स./ पृ. २२८) । दिगम्बरपक्ष माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा सिद्ध किया जा चुका है कि पञ्चम द्वात्रिंशिका में युगपद्वाद का प्रतिपादन है, जो सन्मतिसूत्र के अभेदवाद के विरुद्ध है । अतः वह सन्मतिसूत्रकार दिगम्बर सिद्धसेन की कृति नहीं है। इसलिए उसमें महावीर के विवाह का उल्लेख होने से सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन श्वेताम्बर सिद्ध नहीं होते । श्वेताम्बरपक्ष उक्त विद्वान् ने एक हेतु यह भी प्रस्तुत किया है कि महाराष्ट्रीप्राकृत में केवल श्वेताम्बराचार्यों ने ग्रन्थ लिखे हैं, दिगम्बरों और यापनीयों ने नहीं । अतः महाराष्ट्रीप्राकृत में निबद्ध होना सन्मतिसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का सबसे बड़ा प्रमाण है । (जै.ध.या.स./ पृ. २२९) । दिगम्बरपक्ष पूर्वप्रतिपादित प्रमाणों से सिद्ध है कि सन्मतिसूत्र दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसके महराष्ट्रीप्राकृत में लिखे जाने से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बराचार्यों ने भी महाराष्ट्री - प्राकृत का प्रयोग ग्रन्थलेखन में किया है। इस प्रकार सिद्ध है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के निर्णयों को असत्य सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब मिथ्या हैं । अतः मुख्तार जी का यह निर्णय निर्बाध स्थापित होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बर थे। ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकरण सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में उद्धृत अपने लेख के शीर्षक क्र.७.२ वाले अनुभाग में आचार्य समन्तभद्र को पूज्यपादस्वामी से पूर्ववर्ती सिद्ध करते हुए लिखा है कि पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है। इसे उन्होंने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक सम्पदकीयलेख में स्पष्ट किया है। वह लेख 'अनेकान्त' (मासिक) के वर्ष ५, किरण १०११, नवम्बर-दिगम्बर, १९४३ ई० के अंक (पृ. ३४५-३५२) में प्रकाशित हुआ था। 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' (प्रथम खण्ड/ पृ. ३२३-३३९) में भी वह संगृहीत है। उसे यहाँ यथावत् उद्धृत किया जा रहा है। लेख सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव पं० जुगलकिशोर मुख्तार, सम्पादक- अनेकान्त' "सर्वार्थसिद्धि आचार्य उमास्वाति (गृध्रपिच्छाचार्य) के तत्त्वार्थसूत्र की प्रसिद्ध प्राचीन टीका है और देवनन्दी अपरनाम पूज्यपाद आचार्य की खास कृति है, जिनका समय आमतौर पर ईसा की पाँचवीं और वि० की छठी शताब्दी माना जाता है। दिगम्बर समाज की मान्यतानुसार आ० पूज्यपाद स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं, यह बात पट्टावलियों से ही नहीं, किन्तु अनेक शिलालेखों से भी जानी जाती है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४० (६४) में आचार्यों के वंशादिक का उल्लेख करते हुए समन्तभद्र के परिचय-पद्य (९) के बाद 'ततः' (तत्पश्चात्) शब्द लिखकर 'यो देवनन्दिप्रथमाभिधानः' इत्यादि पद्यों (१०-११) के द्वारा पूज्यपाद का परिचय दिया है, और नं० १०८ (२५८) के शिलालेख में समन्तभद्र के अनन्तर पूज्यपाद के परिचय का जो प्रथम पद्य८ दिया है उसी में ततः शब्द का प्रयोग किया है, और इस तरह पर पूज्यपाद को समन्तभद्र के बाद का विद्वान् सूचित किया है। इसके सिवाय, स्वयं पूज्यपाद ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण के निम्न सूत्र में समन्तभद्र के मत का उल्लेख किया है-"चतुष्टयं समन्तभद्रस्य।" (५/४/१६८)। ७८. श्रीपूज्यपादो धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः। यदीयवैदुष्यगुणानिदानीं वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि॥ १५ ॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४१ " इस सूत्र की मौजूदगी में यह नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्र पूज्यपाद के बाद हुए हैं, और न अनेक कारणों के वश ७९ इसे प्रक्षिप्त ही बतलाया जा सकता है। " परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी और इन उल्लेखों की असत्यता का कोई कारण न बतलाते हुए भी, किसी गलत धारणा के वश, हाल में एक नई विचारधारा उपस्थित की गई है, जिसके जनक हैं प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलाल जी संघवी, काशी और उसे गति प्रदान करनेवाले हैं न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी शास्त्री, काशी । पं० सुखलाल जी ने जो बात अकलंकग्रन्थत्रय के 'प्राक्कथन' में कही, उसे ही अपनाकर तथा पुष्ट बनाकर पं० महेन्द्रकुमार जी ने न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग की प्रस्तावना, प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना और जैनसिद्धान्तभास्कर के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक लेख में प्रकाशित की है। चुनाँचे पं० सुखलाल जी, न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग के 'प्राक्कथन' में पं० महेन्द्रकुमार जी की कृति पर सन्तोष व्यक्त करते हुए और उसे अपने 'संक्षिप्त लेख का विशद और सबल भाष्य' बतलाते हुए लिखते हैं- " पं० महेन्द्रकुमार जी ने मेरे संक्षिप्त लेख का विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भाग की प्रस्तावना ( पृ. २५) में यह अभ्रान्तरूप से स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के उत्तरवर्ती हैं।" " इस तरह पं० सुखलाल जी को पं० महेन्द्रकुमार जी का और पं० महेन्द्रकुमार जी को पं० सुखलाल जी का इस विषय में पारस्परिक समर्थन और अभिनन्दन प्राप्त है। दोनों ही विद्वान् इस विचारधारा को बहाने में एकमत हैं। अस्तु । " इस नई विचारधारा का लक्ष्य है समन्तभद्र को पूज्यपाद के बाद का विद्वान् सिद्ध करना, और उसके प्रधान दो साधन हैं जो संक्षेप में निम्न प्रकार हैं "१. विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा और अष्टसहस्त्री के उल्लेखों पर से यह सर्वथा स्पष्ट है कि विद्यानन्द ने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्तोत्र को पूज्यपादकृत सूचित किया है और समन्तभद्र को इसी आप्तस्तोत्र का 'मीमांसाकार' लिखा है, अत एव समन्तभद्र पूज्यपाद के उत्तरवर्ती ही हैं। " २. यदि पूज्यपाद समन्तभद्र के उत्तरवर्ती होते, तो वे समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का और खासकर सप्तभंगी का, 'जो कि समन्तभद्र की जैनपरम्परा को उस ७९. . देखिये, 'समन्तभद्र का समय और डॉ० के. बी. पाठक' नाम का मेरा वह लेख जो १६ जून- १ जुलाई सन् १९३४ के 'जैन जगत्' (पृ. ९ से २३) में प्रकाशित हुआ है अथवा "Samantabhadra's date and Dr. Pathak, Annals of B.O.R.I., vol. XV, Pts. I-II, PP. 67-88. For Personal & Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ३ समय की नई देन रही," अपने 'सर्वार्थसिद्धि' आदि किसी ग्रन्थ में उपयोग किये बिना न रहते। चूँकि पूज्यपाद के ग्रन्थों में " समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी" नहीं पाया जाता, अत एव समन्तभद्र पूज्यपाद के 'उत्तरवर्ती ही हैं। " इन दोनों साधनों में से प्रथम साधन को कुछ विशद तथा पल्लवित करते हुए पं० महेन्द्रकुमार जी ने 'जैनसिद्धान्तभास्कर' ( भाग ९ / कि०१ ) में अपना जो लेख प्रकाशित कराया था, उसमें विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा के 'श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले' इत्यादि पद्य' ८० को देकर यह बतलाना चाहा था कि विद्यानन्द इसके द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि 'मोक्षमार्गस्त नेतारम्' इत्यादि जिस मंगलस्तोत्र का इसमें संकेत है उसे तत्त्वार्थशास्त्र की उत्पत्ति का निमित्त बतलाते समय या उसकी प्रोत्थान -भूमिका बाँधते समय पूज्यपाद ने रचा है। और इसके लिये उन्हें 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद की अर्थविषयक बहुत कुछ खींचतान करना पड़ी थी, शास्त्रावताररचितस्तुति तथा तत्त्वार्थशास्त्रादौ जैसे स्पष्ट पदों के सीधे सच्चे अर्थ को भी उसी प्रोत्थानारम्भकाले पद के कल्पित अर्थ की ओर घसीटने की प्रेरणा के लिये प्रवृत्त होना पड़ा था और खींचतान की यह सब चेष्टा पं० सुखलाल जी के उस नोट के अनुरूप थी, जिसे उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग के 'प्राक्कथन' (पृ.१७) में अपने बुद्धि-व्यापार के द्वारा स्थिर किया था। परन्तु 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद के अर्थ की खींचतान उसी वक्त तक कुछ चल सकती थी, जब तक विद्यानन्द का कोई स्पष्ट उल्लेख इस विषय का न मिलता कि वे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्तोत्र को किसका बतला रहे हैं। चुनाँचे न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया और पं० रामप्रसाद जी शास्त्री आदि कुछ विद्वानों ने जब पं० महेन्द्रकुमार जी की भूलों तथा गलतियों को पकड़ते हुए अपने उत्तर लेखों द्वारा विद्यानन्द के कुछ अभ्रान्त उल्लेखों को सामने रक्खा और यह स्पष्ट करके बतला दिया कि विद्यानन्द ने उक्त मंगलस्तोत्र को सूत्रकार उमास्वातिकृत लिखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण बतलाया है, तब उस खींचतान की गति रुकी तथा बन्द पड़ी। और इसलिये उक्त मंगलस्तोत्र को पूज्यपादकृत मानकर तथा समन्तभद्र को उसी का मीमांसाकार बतला कर निश्चितरूप में समन्तभद्र को पूज्यपाद के बाद का (उत्तरवर्ती) विद्वान् बतलानेरूप कल्पना की जो इमारत खड़ी की गई थी, वह एकदम धराशायी हो गई है। और ८०. श्रीमत्तत्वार्थ - शास्त्राद्भुत सलिल-निधेरिद्ध-रत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ॥ १२३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४३ इसी से पं० महेन्द्रकुमार जी को यह स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा है कि आ० विद्यानन्द ने उक्त मंगलश्लोक को सूत्रकार उमास्वाति-कृत बतलाया है, जैसा कि अनेकान्त की पिछली किरण में 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक उनके उत्तर लेख से प्रकट है। इस लेख में उन्होंने अब विद्यानन्द के कथन पर सन्देह व्यक्त किया है और यह सूचित किया है कि विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्री में अकलंक की अष्टशती के 'देवागमेत्यादिमङ्गलपुरस्सरस्तव' वाक्य का सीधा अर्थ न करके कुछ गलती खाई है और उसी का यह परिणाम है कि वे उक्त मंगलश्लोक को उमास्वाति की कृति बतला रहे हैं, अन्यथा उन्हें इसके लिये कोई पूर्वाचार्यपरम्परा प्राप्त नहीं थी। उनके इस लेख का उत्तर न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी ने अपने द्वितीय लेख में दिया है, जो इसी किरण में अन्यत्र, 'तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण' इस शीर्षक के साथ, प्रकाशित हो रहा है। जब पं० महेन्द्रकुमार जी विद्यानन्द के कथन पर सन्देह करने लगे हैं, तब वे यह भी असन्दिग्धरूप में नहीं कह सकेंगे कि समन्तभद्र ने उक्त मंगलस्तोत्र को लेकर ही 'आप्तमीमांसा' रची है, क्योंकि उसका पता भी विद्यानन्द के आप्तपरीक्षादि ग्रन्थों से चलता है। चुनाँचे वे अब इस पर भी सन्देह करने लगे है, जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है __ "यह एक स्वतन्त्र प्रश्न है कि स्वामी समन्तभद्र ने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक पर आप्तमीमांसा बनाई है या नहीं।" __ "ऐसी स्थिति में पं० सुखलाल जी द्वारा अपने प्राक्कथनों में प्रयुक्त निम्न वाक्यों का क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं "पूज्यपाद के द्वारा स्तुत आप्त के समर्थन में ही उन्होंने (समन्तभद्र ने) आप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्री में सर्वथा स्पष्टरूप से लिखी है।" (अकलंकग्रन्थत्रय / प्राक्कथन / पृ.८)। "मैंने अकलंकग्रन्थत्रय के ही प्राक्कथन में विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा एवं अष्टसहस्री के स्पष्ट उल्लेखों के आधार पर यह निःशंक रूप से बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के आप्तस्तोत्र के मीमांसाकार हैं, अत एव उनके उत्तरवर्ती ही हैं।" "ठीक उसी तरह से समन्तभद्र ने भी पूज्यपाद के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगलपद्य को लेकर उसके ऊपर आप्तमीमांसा रची है।" "पूज्यपाद का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला सुप्रसन्न पद्य उन्हें (समन्तभद्र को) मिला, फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी।" (न्यायकुमुदचन्द्र-द्वितीयभाग/प्राक्कथन/ पृ.१७-१९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०३ "इन वाक्यों पर से मुझे यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य होता है कि पं० सुखलाल जी जैसे प्रौढ़ विद्वान् भी कच्चे आधारों पर ऐसे सुनिश्चित वाक्यों का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं! सम्भवतः इसकी तह में कोई गलत धारणा ही काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा और अष्टसहस्त्री में कहीं भी उक्त मंगलश्लोक के पूज्यपादकृत होने की बात लिखी नहीं, तब उसे 'सर्वथा स्पष्ट रूप से लिखी' बतलाना कैसे बन सकता है? अस्तु। "अब रही दूसरे साधन की बात, पं० महेन्द्रकुमार जी इस विषय में पं० सुखलाल जी के एक युक्तिवाक्य को उद्धृत करते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जैन-सिद्धान्तभास्कर-वाले लेख के अन्त में, लिखते हैं "श्रीमान् पंडित सुखलाल जी सा० का इस विषय में यह तर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होते, तो समन्तभद्र की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृति का उल्लेख अपनी सर्वार्थसिद्धि आदि कृतियों में किए बिना न रहते" हृदय को लगता है।" ___ "इसमें पं० सुखलाल जी के जिस युक्ति-वाक्य का डबल इनवर्टेड कामाज के भीतर उल्लेख है, उसे पं० महेन्द्रकुमार जी ने अकलंकग्रंथत्रय और न्यायकुमुदचन्द्रद्वितीय भाग के प्राक्कथनों में देखने की प्रेरणा की है। तदनुसार दोनों प्राक्कथनों को एक से अधिक बार देखा गया, परन्तु खेद है कि उनमें कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ! न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना में यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्दपरिवर्तनों के साथ दिया हुआ है। और वहाँ किसी 'प्राक्कथन' को देखने की प्रेरणा भी नहीं की गई। अच्छा होता यदि 'भास्कर' वाले लेख में भी किसी प्राक्कथन को देखने की प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुखलाल जी के तर्क को उन्हीं के शब्दों में रक्खा जाता और या उसे डबल इनवर्टेड कामाज के भीतर न दिया जाता। अस्तु, इस विषय में पं० सुखलाल जी ने जो तर्क अपने दोनों प्राक्कथनों में उपस्थित किया है. उसी के प्रधान अंश को ऊपर साधन नं०२ में संकलित किया गया है. और उसमें पंडित जी के खास शब्दों को इनवर्टेड कामाज के भीतर दे दिया है। इस पंडित जी के तर्क की स्पिरिट अथवा रूपरेखा को भले प्रकार समझा जा सकता है। पंडित जी ने अपने पहले प्राक्कथन में उपस्थित तर्क की बावत दूसरे प्राक्कथन में यह स्वयं स्वीकार किया है कि-"मेरी वह (सप्तभंगी-वाली) दलील विद्यानन्द के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर किए गए निर्णय की पोषक है। और उसे मैंने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाण के रूप से पेश नहीं किया है।" परन्तु उक्त मंगलश्लोक को 'पूज्यपादकृत' ८१. यथा-"यदि समन्तभद्र पूज्यपाद के प्राक्कालीन होते, तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृति का उल्लेख किये बिना नहीं रहते।" For Personal & Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४५ बतलानेवाला जब विद्यानन्द का कोई स्पष्ट उल्लेख है ही नहीं और उसकी कल्पना के आधार पर जो निर्णय किया गया था, वह गिर गया है, तब पोषक के रूप में उपस्थित की गई दलील भी व्यर्थ पड़ जाती है, क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही, जिसे लेप लगाकर पुष्ट किया जाय, तब लेप व्यर्थ ठहरता है, उसका कुछ अर्थ नहीं रहता । और इसलिए पंडित जी की वह दलील विचार के योग्य नहीं रहती । " यद्यपि पं० महेद्रकुमार जी के शब्दों में, " ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्य के समय का स्वतन्त्र भाव से साधन - बाधन नहीं होता, " फिर भी विचार की एक कोटि उपस्थित हो जाती है । सम्भव है कल को पं० सुखलाल जी अपनी दलील को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में भी उपस्थित करने लगें, जिसका उपक्रम उन्होंने "समन्तभद्र की जैनपरम्परा को उस समय की नई देन" जैसे शब्दों को बाद में जोड़कर किया है और साथ ही 'समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी न करने' तक की बात भी वे लिख गये हैं, ८२ अतः उसपर, द्वितीय साधन पर विचार कर लेना ही आवश्यक जान पड़ता है। और उसी का इस लेख में आगे प्रयत्न किया जाता है । “सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि यद्यपि किसी आचार्य के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के सभी विषयों को अपने ग्रन्थ में उल्लेखित अथवा चर्चित करे, ऐसा करना या न करना ग्रंथकार की रुचिविशेष पर अवलम्बित है। चुनाँचे ऐसे बहुत से प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं, जिनमें पिछले आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों की कितनी ही बातों को अपने ग्रन्थों में छुआ कभी नहीं, इतने पर भी पूज्यपाद के सब ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। उनके सारसंग्रह नाम के एक खास ग्रन्थ का धवला में नयविषयक उल्लेख ८३ मिलता है और उस पर से वह उनका महत्त्व का स्वतन्त्र ग्रन्थ जान पड़ता है। बहुत सम्भव है कि उसमें उन्होंने सप्तभंगी की भी विशद चर्चा की हो । उस ग्रन्थ की अनुपलब्धि की हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि पूज्पाद ने 'सप्तभंगी' का विशद कथन नहीं किया अथवा उसे छुआ तक नहीं । “इसके सिवाय, 'सप्तभंगी' एकमात्र समन्तभद्र की ईजाद अथवा उन्हीं के द्वारा आविष्कृत नहीं है, बल्कि उसका विधान पहले से चला आता है और वह श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थों में भी स्पष्टरूप से पाया जाता है, जैसा कि निम्न दो गाथाओं से प्रकट है ८२. देखिये, न्यायकुमुदचन्द्र / द्वितीय भाग का 'प्राक्कथन' / पृ. १८ । ८३.‘“तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - 'अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय' इति ।" धवला / षट्खण्डागम / पु. ९ / ४,१,४५ / पृ.१६७ । For Personal & Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०३ अस्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं। पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा॥ २/२३॥ प्रवचनसार सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि॥ १४॥ पंचास्तिकाय "आचार्य कुन्दकुन्द पूज्यपाद से बहुत पहले हो गये हैं। पूज्यपाद ने उनके मोक्षप्राभृतादि ग्रन्थों का अपने समाधितंत्र में बहुत कुछ अनुसरण किया है। कितनी ही गाथाओं को तो अनुवादितरूप में ज्यों का त्यों रख दिया है ८४ और कितनी ही गाथाओं को अपनी सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' आदि रूप से उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५ वें अध्याय के १६ वें सूत्र की टीका में उद्धृत पंचास्तिकाय की निम्न गाथा है अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति॥ ७॥ "ऐसी हालत में पूज्यपाद के द्वारा सप्तभंगी का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख न होने पर भी जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि आ० कुन्दकुन्द पूज्यपाद के बाद हुए हैं, वैसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पूज्यपाद के बाद हुए हैं, उत्तरवर्ती हैं। और न यही कहा जा सकता है कि सप्तभंगी एकमात्र समन्तभद्र की कृति है, उन्हीं की जैनपरम्परा को 'नई देन' है। ऐसा कहने पर आचार्य कुन्दकुन्द को समन्तभद्र के भी बाद का विद्वान कहना होगा. और यह किसी तरह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, मर्करा का ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा ग्रन्थों के उल्लेख इसमें प्रबल बाधक हैं। अतः पं० सुखलाल जी की सप्तभंगीवाली दलील ठीक नहीं है, उससे उनके अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती। "अब मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि पं० सुखलाल जी ने अपने साधन (दलील) के अंगरूप में जो यह प्रतिपादन किया है कि 'पूज्यपाद ने समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी नहीं किया' वह अभ्रान्त न होकर वस्तुस्थिति के विरुद्ध है, क्योंकि समन्तभद्र की उपलब्ध पाँच असाधारण कृतियों में से आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार नाम की चार ८४. देखिये, वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'समाधितंत्र' की प्रस्तावना / पृ. ११,१२। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४७ कृतियों का स्पष्ट प्रभाव पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' पर पाया जाता है, जैसा कि अन्तःपरीक्षण द्वारा स्थिर की गई नीचे की कुछ तुलना पर से प्रकट है। इस तुलना में रक्खे हुए वाक्यों पर से विज्ञपाठक सहज ही में यह जान सकेंगे कि आ० पूज्यपाद स्वामी ने समन्तभद्र के प्रतिपादित अर्थ को कहीं शब्दानुसरण के, कहीं पदानुसरण के, कहीं वाक्यानुसरण के, कहीं अर्थानुसरण के, कहीं भावानुसरण के, कहीं उदाहरण के, कहीं पर्यायशब्दप्रयोग के, कहीं आदि' जैसे संग्राहकपद-प्रयोग के और कहीं व्याख्यानविवेचनादि के रूप में पूर्णतः अथवा अंशतः अपनाया है, ग्रहण किया है। तुलना में स्वामी समन्तभद्र के वाक्यों को ऊपर और श्री पूज्यपाद के वाक्यों को नीचे भिन्न टाइपों में रख दिया गया है, और साथ में यथावश्यक अपनी कुछ व्याख्या भी दे दी गई है, जिससे साधारण पाठक भी इस विषय को ठीक तौर पर अवगत कर सकें आप्तमीमांसा – नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंचरदोषतः॥ ५६॥ स्वयंभूस्तोत्र - नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः॥ ४३॥ सर्वार्थसिद्धि – तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम्। तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः।---येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते।---ततस्तद्भावेनाऽव्ययं तद्भावाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। तत्तु कथंचिद् वेदितव्यम्। . (५/३१)। "यहाँ पूज्यपाद ने समन्तभद्र के तेदेवेदमिति इस प्रत्यभिज्ञानलक्षण को ज्यों का त्यों अपनाकर इसकी व्याख्या की है, नाऽकस्मात् शब्दों को अकस्मान्न भवति रूप में रक्खा है, तदविच्छिदा के लिए सूत्रानुसार तद्भावेनाऽव्ययं शब्दों का प्रयोग किया है और प्रत्यभिज्ञान शब्द को ज्यों का त्यों रहने दिया है। साथ ही न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः, क्षणिकं कालभेदात् इन वाक्यों के भाव को तत्तु कथंचिद् वेदितव्यं इन शब्दों के द्वारा संगृहीत और सूचित किया है। आप्तमीमांसा - नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते॥ ३७॥ युक्त्यनुशा. - भावेषु नित्येषु विकारहानेर्न कारकव्यापृतकार्ययुक्तिः। न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम्॥ ८॥ For Personal & Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०३ स्वयम्भूस्तोत्र - न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्॥ २४॥ सर्वार्थसिद्धि - सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात् संसारतन्निवृत्ति-कारण __ प्रक्रिया-विरोधः स्यात्। (५/३१/५८६/पृ. २३१) । "यहाँ पूज्यपाद ने नित्यत्वैकान्तपक्षे पद के लिये समन्तभद्र के ही अभिमतानुसार सर्वथा नित्यत्वे इस समानार्थक पद का प्रयोग किया है, विक्रिया नोपपद्यते और विकारहानेः के आशय को अन्यथाभावाभावात् पद के द्वारा व्यक्त किया है और शेष का समावेश संसार-तन्निवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोध: स्यात् इन शब्दों में किया है। स्वयंभूस्तोत्र - विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते॥ ५३॥ आप्तमीमांसा - विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि। सतो विशेषणस्याऽत्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभिः॥ ३५॥ सर्वार्थसिद्धि - अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत्। तद्विपरीतमनर्पितम् प्रयोजनाभावात्। सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्यु पसर्जनीभूत मनर्पित-मिच्युते। (५ / ३२)। "यहाँ अर्पित और अनर्पित शब्दों की व्याख्या करते हुए समन्तभद्र की 'मुख्य' और 'गुण (गौण)' शब्दों की व्याख्या को अर्थतः अपनाया गया है। मुख्य के लिये प्राधान्य, गुण के लिये उपसर्जनीभूत, विवक्षित के लिये विवक्षया प्रापित और अन्यो गुणः के लिये तद्विपरीतमनर्पितम् जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। साथ ही, 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य' ये शब्द विवक्षित के स्पष्टीकरण को लिये हुए हैं-आप्तमीमांसा की उक्त कारिका में जिस अनन्तधर्मिविशेष्य का उल्लेख है और युक्त्यनुशासन की ४६ वीं कारिका में जिसे तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम् शब्दों से उल्लेखित किया है, उसी को पूज्यपाद ने अनेकान्तात्मकवस्तु के रूप में यहाँ ग्रहण किया है और उनका धर्मस्य पद भी समन्तभद्र के विशेषणस्य पद का स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दूसरी महत्त्व की बात यह है कि आप्तमीमांसा की उक्त कारिका में जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषण की होती हैं-असत् की नहीं, और जिसको स्वयम्भूस्तोत्र के अविवक्षो न निरात्मकः शब्दों के द्वारा भी सूचित किया गया है, उसी को पूज्यपाद ने सतोऽप्य Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० ३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४९ विवक्षा भवतीति इन शब्दों में संग्रहीत किया है। इस तरह अर्पित और अनर्पित की व्याख्या में समन्तभद्र का पूरा अनुसरण किया गया है। 1 युक्त्यनुशा. न द्रव्यपर्यायपृथग्व्यवस्था द्वैयात्म्यमेकार्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्चमिथस्त्रिधेमौ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्वौ ॥ ४७ ॥ न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥ ५७॥ ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति । यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनित्यताव्याघातः । अथानित्यत्वमेव स्थित्य - भावान्नित्यताव्याघात इति । नैतद्विरुद्धम् । कुत: ? (उत्थानिका) अर्पितानर्पितसिद्धेर्नास्ति विरोधः । तद्यथा - एकस्य देवदत्तस्य पिता, पुत्रो, भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्वजन्यत्वदिनिमित्ता न विरुद्ध्यन्ते अर्पणाभेदात् । पुत्रापक्षेया पिता, पित्रपक्षेया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यं विशेषार्पणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः । (५ / ३२ ) । आप्तमीमांसा सर्वार्थसिद्धि आप्तमीमांसा — - “यहाँ पूज्यपाद ने एक ही वस्तु में उत्पाद - व्ययादि की दृष्टि से नित्य-अनित्य के विरोध की शंका उठाकर उसका जो परिहार किया है, वह सब युक्त्यनुशासन और आप्तमीमांसा की उक्त दोनों कारिकाओं के आशय को लिये हुए है, उसे ही पिता-पुत्रादि के सम्बन्धों द्वारा उदाहृत किया गया है। आप्तमीमांसा की उक्त कारिका के पूर्वार्ध तथा तृतीय चरण में कही गई नित्यता- अनित्यता- विषयक बात को 'द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यं, विशेषार्पणयाऽनित्यमिति' इन शब्दों में फलितार्थ रूप से रक्खा गया है । और युक्त्युशासन की उक्त कारिका में 'एकार्पणया' (एक ही अपेक्षा से ) विरोध बतला कर जो यह सुझाया था कि अर्पणाभेद से विरोध नहीं आता, उसे न विरुद्ध्यन्ते अर्पणाभेदात् जैसे शब्दों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। ४ ➖➖➖ - ५ द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ ७१ ॥ संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥ ७२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०३ सर्वार्थसिद्धि - यद्यपि कथंचिद् व्यपदेशादिभेदहेत्वापेक्षया द्रव्यादन्ये ( गुणाः), तथापि तदव्यतिरेकात्तत्परिणामाच्च नान्ये। (५ / ४२)। "यहाँ द्रव्य और गुणों (पर्यायों) का अन्यत्व तथा अनन्यत्व बतलाते हुए, आ० पूज्यपाद ने स्वामी समन्तभद्र की उक्त दोनों ही कारिकाओं के आशय को अपनाया है और ऐसा करते हुए उनके वाक्य में कितना ही शब्दसाम्य भी आ गया है, जैसा कि तदव्यतिरेकात् और परिणामाच्च पदों के प्रयोग से प्रकट है। इसके सिवाय, कथंचित् शब्द न सर्वथा का, द्रव्यादन्य पद नानात्व का नान्य शब्द ऐक्य का, व्यपदेश शब्द संज्ञा का वाचक है तथा भेदहेत्वपेक्षया पद भेदात्, विशेषात् पदों का समानार्थक है और आदि शब्द संज्ञा से भिन्न शेष संख्या-लक्षण-प्रयोजनादि भेदों का संग्राहक है। इस तरह शब्द और अर्थ दोनों का साम्य पाया जाता है। आप्तमीमांसा - उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः। पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे॥ १०२॥ सर्वार्थसिद्धि - ज्ञस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थनिश्चये प्रीतिरुपजायते, सा फलमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्। रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा अन्धकारकल्पाज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते। (१/१०/१७० / पृ.७०)। "यहाँ इन्द्रियों के आलम्बन से अर्थ के निश्चय में जो प्रीति उत्पन्न होती है, उसे प्रमाणज्ञान का फल बतलाकर 'उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्' यह वाक्य दिया है, जो स्पष्टतया आप्तमीमांसा की उक्त कारिका का एक अवतरण जान पड़ता है और इसके द्वारा प्रमाणफल-विषय में दूसरे आचार्य के मत को उद्धृत किया गया है। कारिका में पड़ा हुआ पूर्वा पद भी उसी उपेक्षा फल के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिससे कारिका का प्रारम्भ है। स्वयंभूस्तोत्र - नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः॥ ६२॥ आप्तमीमांसा - निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥ १०८॥ युक्त्यनुशा. - मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थहेतु शा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः। परस्परेक्षाः पुरुषार्थहेतुर्दृष्टा नयास्तद्वदसिक्रियायाम्॥५०॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५१ त एते (नया) गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः । निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्यं नास्तीति । (१/३३ / २४९-५० /पृ. १०४) । " स्वामी समन्तभद्र ने अपने उक्त वाक्यों में नयों के मुख्य और गुण ( गौण ) ऐसे दो भेद बतलाये हैं, निरपेक्ष नयों को मिथ्या तथा सापेक्ष नयों को वस्तु = वास्तविक (सम्यक्) प्रतिपादित किया है और सापेक्ष नयों को अर्थकृत् लिख कर फलतः निरपेक्ष नयों को नार्थकृत् अथवा कार्याशक्त (असमर्थ ) सूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नहीं, किन्तु परस्पर सापेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु देखे जाते हैं और अंशों से अंशी पृथक् (भिन्न अथवा स्वतंत्र) नहीं होता, उसी प्रकार नयों को जानना चाहिये। इन सब बातों को सामने रख कर ही पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि के उक्त वाक्य की सृष्टि की जान पड़ती है । इस वाक्य में अंश अंशी की बात को तन्त्वादि- पटादि से उदाहृत करके रक्खा है। इसके गुणप्रधानतया, परस्परतंत्राः, पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात् और स्वतंत्रा : पद क्रमशः गुणमुख्यकल्पतः, परस्परेक्षा:-सापेक्षाः, पुरुषार्थहेतुः, निरपेक्षा:- अनपेक्षाः पदों समानार्थक हैं । और असमर्थाः तथा कार्यं नास्ति ये पद अर्थकृत् के विपरीत नार्थकृत् के आशय को लिये हुए हैं। अ० १८ / प्र० ३ सर्वार्थसिद्धि युक्त्यनुशा. सर्वार्थसिद्धि रत्नकर. श्रा.. - — " 'इस वाक्य में पूज्यपाद ने अभाव के वस्तुधर्मत्व की सिद्धि बतलाते हुए, समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन-गत उक्त वाक्य का शब्दानुसरण के साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, यह बात दोनों वाक्यों को पढ़ते ही स्पष्ट हो जाती है। इनमें 'हेत्वङ्ग' और 'वस्तुव्यवस्थाङ्ग' शब्द समानार्थक हैं। — --- ८ भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदर्हतस्ते । प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् ॥ ५९ ॥ अभावस्य भावान्तरत्वाद्धेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धेश्च । (९ / २७) । ९ धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ॥ ६१ ॥ For Personal & Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सर्वार्थसिद्धि रत्नकर. श्री. "यहाँ 'इच्छावशात् कृतपरिच्छेदः' ये शब्द 'परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता' के आशय को लिये हुए हैं। सर्वार्थसिद्धि सर्वार्थसिद्धि _ " २१ वें सूत्र ('दिग्देशानर्थदण्ड') की व्याख्या में अनर्थदण्डव्रत के समन्तभद्रप्रतिपादित पांचों भेदों को अपनाते हुए उनके जो लक्षण दिये हैं, उनमें शब्द और अर्थ का कितना अधिक साम्य है, यह इस तुलना तथा आगे की दो तुलनाओं से प्रकट है। यहाँ प्राणिवध हिंसा का समानार्थक है और आदि में प्रलम्भन भी गर्भित है। रत्नकर. श्री. - सर्वार्थसिद्धि अ० १८ / प्र० धन-धान्य- क्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम् (७ / २०) । रत्नकर. श्री. - वध-बन्ध-च्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ ७८ ॥ - १० तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्गः प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥ ७६ ॥ तिर्यक्क्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः । ( ७/२१/७०३/ पृ.२७८) । “यहाँ 'कथं स्यादिति मनसा चिन्तनम्' यह आध्यानम् पद की व्याख्या है, परेषां जय-पराजय तथा परस्वहरण यह आदि शब्द- द्वारा गृहीत अर्थ का कुछ प्रकटीकरण है और परस्वहरणादि में परकलत्रादि का अपहरण भी शामिल है। ११ परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् (७/२१ / ७०३ / पृ. २७८) । - १२ क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ॥ ८० ॥ प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकार्यं प्रमादाचरितम्। (७/२१/७०३/पृ. २७८) । For Personal & Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५३ "यहाँ प्रयोजनमन्तरेण यह पद विफलं पद का समानार्थक है, वृक्षादि पद वनस्पति के आशय को लिये हुए है, कुट्टन-सेचन में आरम्भ के आशय का एकदेश प्रकटीकरण है और आदि अवद्यकार्य में दहन-पवनारम्भ तथा सरण-सारण का आशय संगृहीत है। १२ रत्नकर. श्रा. - सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये। मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः॥ ८४॥ सर्वार्थसिद्धि - मधु मांसं मद्यं च सदा परिहर्त्तव्यं त्रसघातान्निवृत्तचेतसा। (७/२१)। "यहाँ सघातान्निवृत्तचेतसा ये शब्द त्रसहतिपरिहरणार्थं पद के स्पष्ट आशय को लिये हुए हैं और मधु मांसं परिहर्तव्यं पद क्रमशः क्षौद्रं, पिशितं, वर्जनीयं के पर्यायपद हैं। १४ रत्नकर. श्रा. - अल्पफलबहुविघातान्मूलकमाणि शृङ्गवेराणि। . नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम्॥ ८५॥ सर्वार्थसिद्धि – केतक्यर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनि-स्थाना न्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाताल्प-फलत्वात्। • (७/२१/७०३/ पृ. २७८) "यहाँ बहुघाताल्पफलत्वात् पद अल्पफलबहुविघातात् पद का शब्दानुसरण के साथ समानार्थक है, परिहर्तव्यानि पद हेयं के आशय को लिये हुए है और बहुजन्तुयोनिस्थानानि एवं अनन्तकायव्यपदेशार्हाणि जैसे दो पद स्पष्टीकरण के रूप में हैं। रत्नकर. श्रा. - यदनिष्टं तव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्। अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति॥ ८६॥ सर्वार्थसिद्धि - यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्नि वर्तनं कर्तव्यं कालनियमेन यावज्जीवं वा यथाशक्ति। (७ / २१/७०३/पृ. २८०)। For Personal & Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०३ ५५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सर्वार्थसिद्धि - व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। (७/१/६६४/ पृ. २६४)। "यहाँ यानवाहन आदि पदों के द्वारा अनिष्ट की व्याख्या की गई है, शेष भोगोपभोगपरिमाणव्रत में अनिष्ट के निवर्तन का कथन समन्तभद्र का अनुसरण है। साथ में कालनियमेन और यावज्जीवं जैसे पद समन्तभद्र के नियम और यम के आशय को लिये हुए हैं, जिनका लक्षण रत्नकरण्डश्रावकाचार के अगले पद्य (८७) में ही दिया हुआ है। भोगोपभोग-परिमाणव्रत के प्रसंगानुसार समन्तभद्र ने उक्त पद्य के उत्तरार्ध । में यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषय से ही नहीं, किन्तु योग्य विषय से भी जो अभिसन्धिकृता विरति होती है, वह व्रत कहलाती है। पूज्यपाद ने इस निर्देश से प्रसंगोपात्त विषयायोग्यात् पदों को निकाल कर उसे व्रत के साधारण लक्षण के रूप में ग्रहण किया है, और इसी से उस लक्षण को प्रकृत अध्याय (नं. ७) के प्रथम सूत्र की व्याख्या में दिया है। रत्नकर. श्रा. - आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन। : वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्राः॥ ११७॥ सर्वार्थसिद्धि - स (अतिथिसंविभागः) चतुर्विधः भिक्षोपकरणौषध-प्रतिश्रय भेदात्।" (७/२१/७०३ / पृ.२८०)। यहाँ पूज्यपाद ने समन्तभद्र प्रतिपादित दान के चारों भेदों को अपनाया है। उनके भिक्षा और प्रतिश्रय शब्द क्रमशः आहार और आवास के लिये प्रयुक्त हुए हैं। "इस प्रकार ये तुलना के कुछ नमूने हैं, जो श्री पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर स्वामी समन्तभद्र के प्रभाव को, उनके साहित्य की छाप को, स्पष्टतया बतला रहे हैं और द्वितीय साधन को दूषित ठहरा रहे हैं। ऐसी हालत में मित्रवर पं० सुखलाल जी का यह कथन कि 'पूज्यपाद ने समन्तभद्र की असाधारण कतियों का किसी अंश में स्पर्श भी नहीं किया' बड़ा ही आश्चर्यजनक जान पड़ता है और किसी तरह भी संगत मालूम नहीं होता। आशा है पं० सुखलाल जी उक्त तुलना की रोशनी में इस विषय पर फिर से विचार करने की कृपा करेंगे।" (जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / प्रथम खण्ड / पृ.३२३-३३९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकरण सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती नहीं आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र ही रत्नकरण्ड के कर्ता श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र (५,१,७) में सिद्धसेन के मतविशेष का उल्लेख किया है, जिसका उदाहरण नौवीं द्वात्रिंशिका में मिलता है। तथा तत्त्वार्थ के सातवें अध्याय के तेरहवें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में सिद्धसेनकृत तीसरी द्वात्रिंशिका के सोलहवें पद्य का "वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते" यह अंश 'उक्तं च' शब्द के साथ उद्धृत किया गया है। इसलिए आचार्य सिद्धसेन पूज्यपाद स्वामी से पूर्ववर्ती हैं। ० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इन हेतुओं का निरसन इस प्रकार किया १. पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (२/९) में केवली के दर्शनज्ञानोपयोग के युगपद्वाद का प्रतिपादन मात्र किया है, क्रमवाद और अभेदवाद का खण्डन नहीं किया, जब कि अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में क्रमवाद और अभेदवाद का खण्डन किया है। इससे सिद्ध है कि पूज्यपाद स्वामी के समय में क्रमवाद और अभेदवाद की मान्यताएँ प्रचलित नहीं थीं, अतः अभेदवाद के पुरस्कर्ता सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन पूज्यपाद से उत्तरवर्ती हैं।८६ ।। २. पूज्यपाद ने जिन सिद्धसेन का उल्लेख जैनेन्द्र व्याकरण में किया है तथा जिनकी द्वात्रिंशिका का पद्यांश सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत किया है, वे दोनों सिद्धसेन अवश्य ही पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए उत्तरवर्ती सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन से भिन्न हैं। ६ पं० सुखलाल जी संघवी यह भी मानते हैं कि आचार्य समन्तभद्र के स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन सिद्धसेन की कृतियों के अनुकरण हैं, इसलिए सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय का प्रकरण १/शीर्षक ७.५)। किन्तु जिस ८५. देखिये , प्रस्तुत अध्याय का प्रथम प्रकरण / शीर्षक ७/पैरा ६। ८६. देखिये , वही / शीर्षक ७.१ । For Personal & Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/ प्र०४ उपयोग-क्रमवाद का खण्डन सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में किया है, उसका सर्वप्रथम प्रतिपादन नियुक्तिकार भद्रबाहु (वि० सं० ५६२ = छठी शती ई०) ने किया था। पूज्यपाद स्वामी (४५० ई०) उनसे पूर्ववर्ती थे और उन्होंने अपने जैनेन्द्र व्याकरण के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र में समन्तभद्र का उल्लेख किया है, इससे समन्तभद्र पूज्यपाद और सिद्धसेन दोनों से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। अतः संघवी जी का यह कथन मिथ्या साबित होता है कि सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। इसके अतिरिक्त संघवी जी आदि विद्वान् न्यायावतार को भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं। उसमें समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' कारिका नौवें क्रमांक पर उपलब्ध होती है, इससे भी सिद्ध है कि समन्तभद्र सिद्धसेन से पूर्ववर्ती हैं। (देखिये, आगे शीर्षक ७.१)। किन्तु दिगम्बर विद्वान् प्रो० हीरालाल जी जैन ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक अपने लेख में यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' के कर्ता समन्तभद्र उन समन्तभद्र से भिन्न हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा की रचना की है। उसके कर्ता वे समन्तभद्र हैं, जो रत्नमाला (विक्रम की ११वीं शती) के रचयिता शिवकोटि के गुरु थे। (देखिये, आगे पंचम प्रकरण)। इसे प्रमाण मान कर पं० दलसुख मालवणिया 'न्यायावतारवार्तिकवृत्ति' की प्रस्तावना (पृ.१४१) में लिखते हैं-"रत्नकरण्ड के विषय में अब तो प्रो० हीरालाल ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह समन्तभद्रकृत नहीं है (अनेकान्त / वर्ष ८/ किरण १-३), तब उसके आधार से यह कहना कि सिद्धसेन समन्तभद्र के बाद हुए , युक्तियुक्त नहीं।" __ पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने एक लेख में प्रो० हीरालाल जैन के तर्कों का अनेक प्रमाणों और युक्तियों से निरसन कर यह सिद्ध किया है कि रत्नकरण्ड के कर्ता वही समन्तभद्र हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों की रचना की है। अतः वे सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन से पूर्ववर्ती ही हैं, उत्तरवर्ती नहीं। मुख्तार जी का यह लेख 'अनेकान्त' (वर्ष ९/ किरण १-४/२१ अप्रैल, १९४८/ पृ.१०२-१०४) में प्रकाशित हुआ था एवं उनके ग्रन्थ जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश (प्रथम खण्ड । पृ. ४३१-४८३) में संगृहीत है। उसका शीर्षक है 'रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय।' उसे यहाँ यथावत् उद्धृत कर रहा हूँ। केवल उसमें मूल उपशीर्षकों को कोष्ठक के भीतर रखते हुए नये उपशीर्षकों का प्रयोग मेरे द्वारा किया जा रहा है। For Personal & Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५७ लेख रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय लेखक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार प्रो० हीरालाल जी जैन का नया मत'र. क.' का 'क्षुत्पिपासा'-पद्यगत 'दोष' शब्द आ. मी.-कार के मतानुरूप नहीं "रत्नकरण्ड श्रावकाचार के कर्तृत्व-विषय की वर्तमान चर्चा को उठे हुए चार वर्ष हो चुके। प्रोफेसर हीरालाल जी, एम० ए० ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्ध में इसे उठाया था, जो जनवरी, सन् १९४४ में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन के १२ वें अधिवेशन पर बनारस में पढ़ा गया था। उस निबन्ध में प्रो० सा० ने अनेक प्रस्तुत प्रमाणों से पुष्ट होती हुई प्रचलित मान्यता के विरुद्ध अपने नये मत की घोषणा करते हुए यह बतलाया था कि 'रत्नकरण्ड उन्हीं ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र) की रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी, क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य में दोष का जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता।' साथ ही यह भी सुझाया था कि इस ग्रन्थ का कर्ता रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु भी हो सकता है। इसी घोषणा के प्रतिवादरूप में न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया ने जुलाई सन् १९४४ में 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' नामक एक लेख लिखकर अनेकान्त में इस चर्चा का प्रारम्भ किया था और तब से यह चर्चा दोनों विद्वानों के उत्तर-प्रत्युत्तररूप में बराबर चली आ रही है। कोठिया जी ने अपनी लेखमाला का उपसंहार अनेकान्त की ८वें वर्ष की किरण १०११ में किया है और प्रोफेसर साहब अपनी लेखमाला का उपसंहार ९वें वर्ष की पहली किरण में प्रकाशित 'रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तत्व' लेख में कर रहे हैं। दोनों ही पक्ष के लेखों में यद्यपि कहीं-कहीं कछ पिष्टपेषण तथा खींचतान से भी काम लिया गया है और एक-दूसरे के प्रति आक्षेपपरक भाषा का भी प्रयोग हुआ है, जिससे कुछ कटुता को अवसर मिला। यह सब यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा रहता। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानों ने प्रकृत विषय को सुलझाने में काफी दिलचस्पी से काम लिया है और उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक प्रयत्न के फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकों के सामने आई हैं। अच्छ होता यदि प्रोफेसर साहब न्यायाचार्य जी के पिछले लेख की नवोद्भावित-युक्तियों का उत्तर देते हुए अपनी लेखमाला का उपसंहार करते, जिससे पाठकों को यह जानने का अवसर For Personal & Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ मिलता कि प्रोफेसर साहब उन विशेष युक्तियों के सम्बन्ध में भी क्या कुछ कहना चाहते हैं। हो सकता है कि प्रो० सा० के सामने उन युक्तियों के सम्बन्ध में अपनी पिछली बातों के पिष्टपेषण के सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं समुचित कहने के लिए अवशिष्ट न हो और इसलिए उन्होंने उनके उत्तर में न पड़कर अपनी उन चार आपत्तियों को ही स्थिर घोषित करना उचित समझा हो, जिन्हें उन्होंने अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष ८/ किरण ३) के अन्त में अपनी युक्तियों के उपसंहाररूप में प्रकट किया था। और संभवत इसी बात को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अपने वर्तमान लेख में निम्न वाक्यों का प्रयोग किया हो "इस विषय पर मेरे 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक निबन्ध से लगाकर अभी तक मेरे और पं० दरबारीलाल जी कोठिया के छह लेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणों का विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई बात सन्मुख आने की अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है, मौलिकता केवल कटु शब्दों के प्रयोग में शेष रह गई है।" (प्रो० हीरालाल जी जैन के वाक्य)। "(आपत्तियों के पुनरुल्लेखानन्तर) "इस प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व के विरुद्ध पूर्वोक्त चारों आपत्तियाँ ज्यों की त्यों आज भी खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुआ है, उससे वे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं।" (प्रो० हीरालाल जी जैन के वाक्य)। "कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार आपत्तियों में से किसी का भी अब तक समाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते, बल्कि वर्तमान ऊहापोह के फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं अकाट्य समझने लगे हैं। अस्तु। (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१ / पृ. ४३१४३२)। "अपने वर्तमान लेख में प्रो० साहब ने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्र को उद्धृत किया है। इन पत्रों को प्रकाशित देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उनमें से किसी के भी प्रकाशन से मेरे क्रुद्ध होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहब ने अपने लेख में कल्पना की है, क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें समीचीन धर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावना में प्रकाशित करना चाहता था। चुनाँचे लेख के साथ भेजे हुए पत्र के उत्तर में भी मैंने प्रो० साहब को इस बात की सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्र को, जो कि रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्य के सम्बन्ध में उसके For Personal & Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५९ ग्रंथ का मौलिक अंग होने-न-होने विषयक गम्भीर प्रश्न को लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर साहब ने उसे अपनी 'प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न' बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्त्वपूर्ण' तथा रत्नकरण्ड के कर्तृत्वविषय से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और तीनों ही पत्रों को अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त आवश्यक सूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्र के उत्तर में प्राप्त विद्वानों के पत्रों आदि के आधार पर उक्त पद्य के विषय में मूल का अंग होने-न-होने की बावत और समूचे ग्रन्थ (रत्नकरण्ड) के कर्तृत्व-विषय में क्या कुछ निर्णय किया है। इसी जिज्ञासा को, जिसका प्रो० सा० के शब्दों में प्रकृतविषय से रुचि रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न होना स्वाभाविक है, प्रधानतः लेकर ही मैं इस लेख के लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूँ।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/ पृ. ४३३)। "सबसे पहले मैं अपने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूँ कि प्रस्तुत चर्चा के वादी-प्रतिवादी रूप में स्थित दोनों विद्वानों के लेखों का निमित्त पाकर मेरी प्रवृत्ति रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य पर सविशेषणरूप से विचार करने एवं उसकी स्थिति को जाँचने की ओर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई, जिसे मैंने अपने उस पत्र में व्यक्त किया है, जो कुछ विद्वानों को उनका विचार मालूम करने के लिये भेजा गया था और जिसे प्रोफेसर साहब ने विशेष महत्त्वपूर्ण एवं निर्णयार्थ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेख में उद्धृत किया है। विद्वानों को उक्त पत्र का भेजा जाना प्रोफेसर साहब की प्रथम आपत्ति के परिहार का कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहब ने समझा है, बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बात का निर्णय करना था कि समीचीन धर्मशास्त्र में, जो कि प्रकाशन के लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकार का व्यवहार किया जाय, उसे मूल का अङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त? क्योंकि रत्नकरण्ड में उत्सन्नदोष आप्त के लक्षणरूप में उसकी स्थिति के स्पष्ट होने पर अथवा प्रकीर्त्यते के स्थान पर प्रदोषमुक् जैसे पाठ का आविर्भाव होने पर मैं आप्तमीमांसा के साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूँ। और इसीलिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादि को उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीन धर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावना के लिये सुरक्षित रक्खा गया था। हाँ, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थ का वास्तविक अंग सिद्ध न होने पर प्रोफेसर साहब की प्रकृत-चर्चा का मूलाधार ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि रत्नकरण्ड के इस एक पद्य को लेकर ही उन्होंने आप्तमीमांसा-गत दोष-स्वरूप के साथ उसके विरोध की Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ कल्पना करके दोनों ग्रन्थों के भिन्न-कर्तृत्व की चर्चा को उठाया था, शेष तीन आपत्तियाँ तो उसमें बाद को पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होती रही हैं। और इस पुष्टि से प्रोफेसर साहब ने मेरे उस पत्र-प्रेषणादि को यदि अपनी प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न समझ लिया है, तो वह स्वाभाविक है, उसके लिये मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता। मैंने अपनी दृष्टि और स्थिति का स्पष्टीकरण कर दिया है। (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/पृ. ४३३-४३४)। "मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानों को भेजा गया था, उनमें से कुछ का तो कोई उत्तर ही प्राप्त नहीं हुआ, कुछ ने अनवकाशादि के कारण उत्तर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, कुछ ने अपनी सहमति प्रकट की, और शेष ने असहमति। जिन्होंने सहमति प्रकट की उन्होंने मेरे कथन को 'बुद्धिगम्य तर्कपूर्ण' तथा युक्तिवाद को 'अतिप्रबल' बतलाते हुए उक्त छठे पद्य को संदिग्धरूप में तो स्वीकार किया है, परन्तु जब तक किसी भी प्राचीन प्रति में उसका अभाव न पाया जाय, तब तक उसे 'प्रक्षिप्त' कहने में अपना संकोच व्यक्त किया है। और जिन्होंने असहमति प्रकट की है, उन्होंने उक्त पद्य को ग्रन्थ का मौलिक अंग बतलाते हुए उसके विषय में प्रायः इतनी ही सूचना की है कि वह पूर्व-पद्य में वर्णित आप्त के तीन विशेषणों में से 'उत्सन्नदोष' विशेषण के स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादि को लिये हुए है। और उस सूचनादि पर से यह पाया जाता है कि वह उनके सरसरी विचार का परिणाम है, प्रश्न के अनुरूप विशेष ऊहापोह से काम नहीं लिया गया अथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका। चुनाँचे कुछ विद्वानों ने उसकी सूचना भी अपने पत्रों में की है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं "रत्नकरण्डश्रावकाचार के जिस श्लोक की ओर आपने ध्यान दिलाया है, उस पर मैंने विचार किया, मगर मैं अभी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका। श्लोक ५ में उच्छिन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशी को आप्त कहा है, मेरी दृष्टि में उच्छिन्नदोष की व्याख्या एवं पुष्टि श्लोक ६ करता है और आगमेशी की व्याख्या श्लोक ७ करता है। रही सर्वज्ञता, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। इसका कारण यह जान पड़ता है कि आप्तमीमांसा में उसकी पृथक् विस्तार से चर्चा की है, इसलिये उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। श्लोक ६ में यद्यपि सब दोष नहीं आते, किन्तु दोषों की संख्या प्राचीन परम्परा में कितनी थी, यह खोजना चाहिये। श्लोक की शब्द-रचना भी समन्तभद्र के अनुकूल है, अभी और विचार करना चाहिए।" (यह पूरा उत्तर पत्र है)। "इस समय बिल्कुल फुरसत में नहीं हूँ---यहाँ तक कि दो-तीन दिन बाद आपके पत्र को पूरा पढ़ सका।---पद्य के बारे में अभी मैंने कुछ भी नहीं सोचा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६१ था, जो समस्याएँ आपने उसके बारे में उपस्थित की हैं, वे आपके पत्र को देखने के बाद ही मेरे सामने आई हैं, इसलिये इसके विषय में जितनी गहराई के साथ आप सोच सकते हैं, मैं नहीं, और फिर मुझे इस समय गहराई के साथ निश्चिन्त होकर सोचने का अवकाश नहीं, इसलिये जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, उसमें कितनी दृढ़ता होगी, यह मैं नहीं कह सकता। फिर भी आशा है कि आप मेरे विचारों पर ध्यान देंगे।" "हाँ, इन्हीं विद्वानों में से तीन ने छठे पद्य को संदिग्ध अथवा प्रक्षिप्त करार दिये जाने पर अपनी कुछ शंका अथवा चिन्ता भी व्यक्ति की है, जो इस प्रकार है "(छठे पद्य के संदिग्ध होने पर) ७वें पद्य की संगति आप किस तरह बिठलाएँगे और यदि ७वें की स्थिति संदिग्ध हो जाती है तो ८वाँ पद्य भी अपने आप संदिग्धता की कोटि में पहुँच जाता है।" "यदि पद्य नं० ६ प्रकरण के विरुद्ध है, तो ७ और ८ भी संकट में ग्रस्त हो जायेंगे।" "नं० ६ के पद्य को टिप्पणीकारकृत स्वीकार किया जाय, तो मूलग्रन्थकार द्वारा लक्षण में ३ विशेषण देखकर भी ७-८ में दो का ही समर्थन या स्पष्टीकरण किया गया, पूर्व विशेषण के सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया, यह दोषापत्ति होगी।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/ पृ.४३४-४३६)। __"इन तीनों आशंकाओं अथवा आपत्तियों का आशय प्रायः एक ही है और वह . यह कि यदि छठे पद्य को असंगत कहा जावेगा तो ७वें तथा ८वें पद्य को भी असंगत कहना होगा। परन्तु बात ऐसी नहीं है। छठा पद्य ग्रन्थ का अंग न रहने पर भी ७ वें तथा ८वें पद्य को असंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ७वें पद्य में सर्वज्ञ की, आगमेशी की, अथवा दोनों विशेषणों की व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसा कि अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूप से आप्त की नाममाला का उल्लेख है, जिसे उपलाल्यते पद के द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें आप्त के तीनों ही विशेषणों को लक्ष्य में रखकर नामों का यथावश्यक संकलन किया गया है। इस प्रकार की नाममाला देने की प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्खपाहुड में और दूसरा उत्तरवर्ती आचार्य पूज्यपाद ( देवनन्दी) के समाधितंत्र में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थों में परमात्मा का स्वरूप देने के अनन्तर उसकी नाममाला का जो कुछ उल्लेख किया है, वह ग्रन्थ-क्रम से इस प्रकार है Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा | परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ॥ ६ ॥ निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥ "इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक हैं और कुछ एक-दूसरे से भिन्न हैं, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्मा को उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारों ने अपनी-अपनी रुचि तथा आवश्यकता अनुसार उन्हें अपने-अपने ग्रन्थ में यथास्थान ग्रहण किया है । समाधितंत्र - ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने, 'तद्वाचिकां नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावना वाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोक में परमात्मा के नाम की वाचिका नाममाला का निदर्शन है । रत्नकरण्ड की टीका में भी प्रभाचन्द्राचार्य ने 'आप्तस्य वाचिकां नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना - वाक्य के द्वारा यह सूचना की है कि ७ वें पद्य में आप्त की नाममाला का निरूपण है । परन्तु उन्होंने साथ में आप्त का एक विशेषण उक्तदोषैर्विवर्जितस्य भी दिया है, जिसका कारण पूर्व में उत्सन्नदोष की दृष्टि से आप्त के लक्षणात्मक पद्य का होना कहा जा सकता है, अन्यथा वह नाममाला एकमात्र उत्सन्नदोष आप्त की नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसमें परं ज्योति और सर्वज्ञ जैसे नाम सर्वज्ञ आप्त के, सार्वः और शास्ता जैसे नाम आगमेशी (परमहितोपदेशक) आप्त के स्पष्ट वाचक भी मौजूद हैं। वास्तव में वह आप्त के तीनों विशेषणों को लक्ष्य में रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये ७ वें पद्य की स्थिति ५वें पद्य के अनन्तर ठीक बैठ जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है । ऐसी स्थिति में ७ वें पद्य का नम्बर ६ हो जाता है और तब पाठकों को यह जानकर कुछ आश्चर्य-सा होगा कि इन नाममालावाले पद्यों का तीनों ही ग्रन्थों में छठा नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा रहस्यमय घटना का ही परिणाम कहा जा सकता है।" (जै. सा. इ.वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४३६-४३७)। " इस तरह छठे पद्य के अभाव में जब ७वाँ पद्य असंगत नहीं रहता तब ८वाँ पद्य असंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह ७ वें पद्य में प्रयुक्त हुए विराग और शास्ता जैसे विशेषण- पदों के विरोध की शंका के समाधान रूप में है । " इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्ड की ऐसी कोई प्राचीन प्रतियाँ मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, जो प्रभाचन्द्र की टीका से पहले की अथवा विक्रम की ११ वीं शताब्दी की या उससे भी पहले की लिखी हुई हों । अनेकवार कोल्हापुर के प्राचीन शास्त्र - भण्डार को टटोलने के लिये डॉ० ए० एन० उपाध्ये जी For Personal & Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६३ से निवेदन किया गया, परन्तु हर बार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारक जी मठ में मौजूद नहीं हैं, बाहर गये हुए हैं। वे अक्सर बाहर ही घूमा करते हैं । और बिना उनकी मौजूदगी के मठ के शास्त्र भण्डार को देखा नहीं जा सकता।" (जै. सा. इ. वि. प्र. / खं.१/ पृ. ४३७-४३८)। निरसन १. आप्तमीमांसा में आप्तदोष के स्वरूप का वर्णन नहीं "ऐसी हालत में रत्नकरण्ड का छठा पद्य अभी तक मेरे विचाराधीन ही चला जाता है। फिलहाल, वर्तमान चर्चा के लिये, मैं उसे मूलग्रन्थ का अंग मानकर ही प्रोफेसर साहब की चारों आपत्तियों पर अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ । और वह निम्न प्रकार है "I. रत्नकरण्ड को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र की कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहब की जो सबसे बड़ी दलील है, वह यह है कि रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य में दोष का जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता, अर्थात् आप्तमीमांसाकार का दोष के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है, वह रत्नकरण्ड के उपर्युक्त पद्य में वर्णित दोषस्वरूप के साथ मेल नहीं खाता, विरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्य की कृति नहीं हो सकते। इस दलील को चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले यह मालूम होने की जरूरत है कि आप्तमीमांसाकार का दोष के स्वरूप-विषय में क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे प्रोफेसर साहब ने कहाँ से अवगत किया है? मूल आप्तमीमांसा पर से ? आप्तमीमांसा की टीकाओं पर से ? अथवा आप्तमीमांसाकार के दूसरे ग्रन्थों पर से ? और उसके बाद यह देखना होगा कि वह रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के साथ मेल खाता अथवा संगत बैठता है या कि नहीं। " प्रोफेसर साहब ने आप्तमीमांसाकार के द्वारा अभिमत दोष के स्वरूप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है कि मूल आप्तमीमांसा में कहीं भी दोष का कोई स्वरूप दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्द का प्रयोग कुल पाँच कारिकाओं नं० ४, ६, ५६, ६२, ८० में हुआ है, जिनमें से पिछली तीन कारिकाओं में बुद्ध्यसंचरदोष, वृत्तिदोष और प्रतिज्ञा तथा हेतु-दोष का क्रमशः उल्लेख है, आप्तदोष से सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठी कारिकाएँ ही हैं और वे दोनों ही 'दोष' के स्वरूपकथन से रिक्त हैं। और इसलिये दोष का अभिमत स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसा की For Personal & Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ टीकाओं तथा आप्तमीमांसाकार की दूसरी कृतियों का आश्रय लेना होगा। साथ ही ग्रन्थ के सन्दर्भ अथवा पूर्वापरकथन- सम्बन्ध को भी देखना होगा ।" (जै. सा. इ. वि.प्र./ खं.१/पृ. ४३८-४३९) । ( टीकाओं का विचार) २. अष्टसहस्त्री के 'विग्रहादिमहोदय' में भुक्त्युपसर्गाभाव अन्तर्भूत " प्रोफेसर साहब ने ग्रन्थसन्दर्भ के साथ टीकाओं का आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीका के आधार पर, जिसमें अकलङ्कदेव की अष्टशती टीका भी शामिल है, यह प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोर्हानि:' इस चतुर्थ- कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निर्दोष:' इस छठी कारिकागत वाक्य में प्रयुक्त 'दोष' शब्द का अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वेषादिक ८७ वृत्तियों से है, जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों से उत्पन्न होती हैं और केवली में उनका अभाव होने पर नष्ट हो जाती हैं ।८८ इस दृष्टि से रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य में उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह ये पाँच दोष तो आपको असङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं पड़ते, शेष क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क (रोग), जन्म और अन्तक (मरण), इन छह दोषों को आप असंगत समझते हैं, उन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघातिया कर्मजन्य मानते हैं और उनका आप्तकेवली में अभाव बतलाने पर अघातिया कर्मों का सत्त्व तथा उदय वर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते हैं । ९ परन्तु अष्टसहस्री में ही द्वितीया कारिका के अन्तर्गत विग्रहादिमहोदय: १° पद का जो अर्थ शश्वन्निःस्वेदत्वादि किया है और उसे घातिक्षयजः बतलाया है, उस पर प्रो० साहब ने पूरी तौर पर ध्यान दिया मालूम नहीं होता । शश्वन्निःस्वेदत्वादिः पद में उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्यों का समावेश है, जो श्रीपूज्यपाद के नित्यं निःस्वेदत्वं इस भक्तिपाठगत अर्हत्स्तोत्र में वर्णित हैं। इन अतिशयों में अर्हत्-स्वयम्भू के देहसम्बन्धी जो १० अतिशय हैं, उन्हें देखते हुए जरा और रोग के लिये कोई स्थान नहीं रहता और भोजन तथा उपसर्ग के अभावरूप (भुक्त्युपसर्गाभावः ) जो दो अतिशय हैं, उनकी उपस्थिति में क्षुधा और पिपासा के लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। शेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्म से और 'मरण' का अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरण से है, जिसके अनन्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता है। घातियाकर्म के क्षय हो जाने पर इन दोनों ८७. 'दोषास्तावदज्ञान - राग-द्वेषादय उक्ताः ।" अष्टसहस्री ६ / ६२ । ८८. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ७-८ / पृ. ६२ । ८९. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ३-४ / पृ. ३१ । ९०. “ विग्रहादिमहोदयः शश्वन्निःस्वेदत्वादिः घातिक्षयजः ।” 44. For Personal & Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६५ की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है। इस तरह घातियाकर्मों का क्षय होने पर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषों का अभाव होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना चाहिए। वसुनन्दिवृत्ति में तो दूसरी कारिका का अर्थ देते हुए , "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्यवाद्यभावः इत्यर्थः" इस वाक्य के द्वारा क्षुधा-पिपासादि के अभाव को साफ तौर पर विग्रहादिमहोदय के अन्तर्गत किया है, विग्रहादि-महोदय को अमानुषातिशय लिखा है तथा अतिशय को पूर्वावस्था का अतिरेक बतलाया है। और छठी कारिका में प्रयुक्त हुए 'निर्दोष' शब्द के अर्थ में अविद्या-रागादि के साथ क्षुधादि के अभाव को भी सूचित किया है। यथा __ "निर्दोष अविद्यारागदिविरहितः क्षुदादिविरहितो वा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः।" "इस वाक्य में अनन्तज्ञानादि-सम्बन्धेन पद क्षुदादिविरहितः पद के साथ अपनी खास विशेषता एवं महत्त्व रखता है और इस बात को सूचित करता है कि जब आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की आविर्भूति होती है, तब उसके सम्बन्ध से क्षुधादि दोषों का स्वतः अभाव हो जाता है अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक फल है, उसके लिये वेदनीयकर्म का अभाव-जैसे किसी दूसरे साधन के जुटने-जुटाने की जरूरत नहीं रहती। और यह ठीक ही है, क्योंकि मोहनीयकर्म के साहचर्य अथवा सहाय के बिना वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में उसी तरह असमर्थ होता है, जिस तरह ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्यान्तरायकर्म का अनुकूल क्षयोपशम साथ में न होने से अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है, अथवा चारों घातिया कर्मों का अभाव हो जाने पर वेदनीयकर्म अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करने में उसी प्रकार असमर्थ होता है, जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदि के बिना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में असमर्थ होता है। मोहादिक के अभाव में वेदनीय की स्थिति जीवितशरीर-जैसी न रहकर मृतशरीरजैसी हो जाती है, उस में प्राण नहीं रहता अथवा जली रस्सी के समान अपना कार्य करने की शक्ति नहीं रहती। इस विषय के समर्थन में कितने ही शास्त्रीय प्रमाण आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदिपुराण और जयधवला जैसे ग्रन्थों पर से पण्डित दरबारीलाल जी के लेखों में उद्धृत किये गये हैं ९१ जिन्हें यहाँ फिर से उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती। ऐसी स्थिति में क्षुत्पिपासा जैसे दोषों को सर्वथा वेदनीयजन्य नहीं कहा जा सकता, वेदनीयकर्म उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। और कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नहीं हुआ करता, ९१. अनेकान्त / वर्ष ८/ किरण ४-५ / पृ. १५९-१६१। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ उपादान कारण के साथ अनेक सहकारी कारणों की भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन सबका संयोग नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुआ करता । और इसलिये केवली में क्षुधादि का अभाव मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। वेदनीय का सत्त्व और उदय वर्तमान रहते हुए भी आत्मा में अनन्तज्ञान सुखवीर्यादि का सम्बन्ध स्थापित होने से वेदनीयकर्म का पुद्गल - परमाणु- पुञ्ज क्षुधादि दोषों को उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ होता है, जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारणशक्ति को मन्त्र तथा औषधादि के बल पर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारने का कार्य करने में असमर्थ होता है । निःसत्त्व हुए विषद्रव्य के परमाणुओं को जिस प्रकार विषद्रव्य के ही परमाणु कहा जाता है, उसी प्रकार निःसत्त्व हुए वेदनीयकर्म के परमाणुओं को वेदनीयकर्म के ही परमाणु कहा जाता है । इस दृष्टि से ही आगम में उनके वेदनीयकर्म के परमाणुओं के उदयादिक की व्यवस्था की गई है। उसमें कोई भी बाधा अथवा सैद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती और इसलिये प्रोफेसर साहब का यह कहना कि 'क्षुधादि दोषों का अभाव मानने पर केवली में अघातिया कर्मों के भी नाश का प्रसङ्ग आता है', ९२ उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है, जिस प्रकार कि धूम के अभाव में अग्नि का भी अभाव बतलाना अथवा किसी औषध प्रयोग में विषद्रव्य की मारणशक्ति के प्रभावहीन हो जाने पर विषद्रव्य के परमाणुओं का ही अभाव प्रतिपादित करना । प्रत्युत इसके, घातिया कर्मों का अभाव होने पर भी यदि वेदनीयकर्म के उदयादिवश केवली में क्षुधादि की वेदनाओं को और उनके निरसनार्थ भोजनादि के ग्रहण की प्रवृत्तियों को माना जाता है, तो उससे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयाँ एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो-तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं 'क - असातावेदनीय के उदयवश केवली को यदि भूख-प्यास की वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश परिणाम की अविनाभाविनी हैं ९३ तो केवली में अनन्तसुख का होना बाधित ठहरता है । और उस दुःख को न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है, तो अनन्तवीर्य भी बाधित हो जाता है, उसका कोई मूल्य नहीं रहता अथवा वीर्यान्तरायकर्म का अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है। "ख – यदि क्षुधादि वेदनाओं के उदय -वश केवली में भोजनादि की इच्छा उत्पन्न होती है, तो केवली के मोहकर्म का अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इच्छा मोह का परिणाम है और मोह के सद्भाव में केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । ९२. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ७-८ / पृ. ६२ । ९३. “संकिलेसाविणाभाविणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स ।" धवला / ष.खं. /पु १२ / ४,२,७, २६ / पृ. २४ । For Personal & Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६७ ___“ग-भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होने पर केवली में नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्य ज्ञानोपयोग न बन सकने पर उनका ज्ञान छद्मस्थों (असर्वज्ञों) के समान क्षायोपशमिक ठहरता है, क्षायिक नहीं। और तब ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नाम के घातियाकर्मों का अभाव भी नहीं बनता। घ-वेदनीयकर्म के उदयजन्य जो सुख-दुःख होता है, वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवली के इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति रहती नहीं। यदि केवली में क्षुधातृषादि की वेदनाएँ मानी जाएँगी, तो इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति होकर केवलज्ञान का विरोध उपस्थित होगा, क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादि युगपत् नहीं होते। "ङ–क्षुधादि की पीड़ा के वश भोजनादि की प्रवृत्ति यथाख्यातचारित्र की विरोधनी है। भोजन के समय मुनि को प्रमत्त (छठा) गुणस्थान होता है और केवली भगवान् १३वें गुणस्थानवर्ती होते हैं, जिससे फिर छठे में लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्र को प्राप्त केवली भगवान् के भोजन का होना, उनकी चर्या और पदस्थ के विरुद्ध पड़ता है। "इस तरह क्षुधादि की वेदनाएँ और उनकी प्रतिक्रिया मानने पर केवली में घातियाकर्मों का अभाव ही घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक बाधा होगी। इसी से क्षुधादि के अभाव को घातिकर्मक्षयजः तथा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य बतलाया गया है, जिसके मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक बाधा नहीं रहती। और इसलिये टीकाओं पर से क्षुधादि का उन दोषों के रूप में निर्दिष्ट तथा फलित होना सिद्ध है, जिनका केवली भगवान् में अभाव होता है। ऐसी स्थिति में रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य को क्षुत्पिपासादि दोषों की दृष्टि से भी आप्तमीमांसा के साथ असंगत अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ. ४३९-४४३)। (ग्रन्थ के सन्दर्भ की जाँच) ३. आप्तमीमांसाकार को केवली में क्षुधादिदोष मान्य नहीं "अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थ का सन्दर्भ स्वयं इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है? जहाँ तक मैंने ग्रन्थ के सन्दर्भ की जाँच की है और उसके पूर्वाऽपर-कथनसम्बन्ध को मिलाया है, मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात नहीं मिली, जिसके आधार पर केवली में क्षुत्पिपासादि के सद्भाव को स्वामी समन्तभद्र की मान्यता कहा जा सके। प्रत्युत इसके, ग्रन्थ की प्रारम्भिक दो कारिकाओं में जिन अतिशयों का देवागम-नभोयान-चामरादि विभूतियों के तथा अन्तर्बाह्य-विग्रहादि-महोदयों के रूप में उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें घातिक्षय-जन्य होने से क्षुत्पिपासादि For Personal & Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा ५६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०४ के अभाव का भी समावेश है, उनके विषय में एक भी शब्द ग्रन्थ में ऐसा नहीं पाया जाता, जिससे ग्रन्थकार की दृष्टि में उन अतिशयों का केवली भगवान में होना अमान्य समझा जाय। ग्रन्थकार महोदय ने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यस्ति' इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए अपि शब्दों के द्वारा इस बात को स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वे अर्हत्केवली में उन विभूतियों तथा विग्रहादिमहोदय-रूप अतिशयों का सद्भाव मानते हैं, परन्तु इतने से ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते, क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) तथा रागादियुक्त देवों में भी पाये जाते हैं, भले ही उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूप में न हों, जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवली में पाये जाते हैं। और इसलिये उनकी मान्यता का आधार केवल आगमाश्रित श्रद्धा ही नहीं है, बल्कि एक दूसरा प्रबल आधार वह गुणज्ञता अथवा परीक्षा की कसौटी है, जिसे लेकर उन्होंने कितने ही आप्तों की जाँच की है और फिर उस परीक्षा के फलस्वरूप वे वीर-जिनेन्द्र के प्रति यह कहने में समर्थ हुए हैं कि 'वह निर्दोष आप्त आप ही हैं' स त्वमेवासि निर्दोषः। साथ ही युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् इस पद के द्वारा उस कसौटी को भी व्यक्त कर दिया है, जिसके द्वारा उन्होंने आप्तों के वीतरागता और सर्वज्ञता जैसे असाधारण गुणों की प की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधरूप यथार्थ होते हैं, और आगे संक्षेप में परीक्षा की तफसील भी दे दी है। इस परीक्षा में जिनके आगमवचन युक्ति-शास्त्र से अविरोधरूप नहीं पाये गये, उन सर्वथा एकान्तवादियों को आप्त न मान कर आप्ताभिमानदग्ध घोषित किया है। इस तरह निर्दोष-वचन-प्रणयन के साथ सर्वज्ञता और वीतरागता जैसे गुणों को आप्त का लक्षण प्रतिपादित किया है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आप्त में दूसरे गुण नहीं होते, गुण तो बहुत होते हैं, किन्तु वे लक्षणात्मक अथवा इन तीन गुणों की तरह खास तौर से व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये आप्त के लक्षण में वे भले ही ग्राह्य न हों, परन्तु आप्त के स्वरूप-चिन्तन में उन्हें अग्राह्य नहीं कहा जा सकता। लक्षण और स्वरूप में बड़ा अन्तर है। लक्षणनिर्देश में जहाँ कुछ असाधारण गुणों को ही ग्रहण किया जाता है, वहाँ स्वरूप के निर्देश अथवा चिन्तन में अशेष गुणों के लिए गुञ्जाइश रहती है। अतः अष्टसहस्रीकार ने विग्रहादिमहोदयः का जो अर्थ शश्वन्निःस्वेदत्वादिः किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है, उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा० ने जो यह लिखा है कि "शरीरसम्बन्धी गुणधर्मों का प्रकट होना, न होना आप्त के स्वरूपचिन्तन में कोई महत्त्व नहीं रखता"९४ वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में ऐसे दूसरे कितने ही गुणों का चिन्तन किया है, ९४. अनेकान्त/वर्ष ७/किरण ७-८/ पृ.६२। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६९ जिनमें शरीरसम्बन्धी गुणधर्मों के साथ अन्य अतिशय भी आ गये हैं । ९५ और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयों को मानते थे और उनके स्मरण - चिन्तन को महत्त्व भी देते थे । “ऐसी हालत में आप्तमीमांसा ग्रन्थ के सन्दर्भ की दृष्टि से भी आप्त में क्षुत्पिपासादिक के अभाव को विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्ड का उक्त छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता।" (जै. सा. इ. वि. प्र. / खं. १ / पृ. ४४३-४४५)। ४. 'विद्वान्' शब्द तत्त्वज्ञानी का वाचक, सर्वज्ञ का नहीं "हाँ, प्रोफेसर साहब ने आप्तमीमांसा की ९३ वीं कारिका को विरोध में उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः ॥ ९३॥ 44 'इस कारिका के सम्बन्ध में प्रो० सा० का कहना है कि 'इसमें वीतराग सर्वज्ञ के दुःख की वेदना स्वीकार की गई है, जो कि कर्मसिद्धान्त की व्यवस्था के अनुकूल है, जब कि रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य में क्षुत्पिपासादिक का अभाव बतलाकर ९५. इस विषय के सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं क - शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छविरालिलेप ॥ २८॥ यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोऽरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बाह्यं बहुमानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ ३७॥ समन्ततोऽङ्गभासां ते परिवेषेण भूयसा । तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा ॥ ९५ ॥ यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा ॥ १०७॥ शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ॥ ११३॥ ख- नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। पादाम्बुजैः पातितमारदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ॥ २९ ॥ प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् ॥ ७३ ॥ मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः ॥ ७५॥ पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्रम्॥ ७९॥ सर्वज्ञज्योतिषोद्भूतस्तावको महिमोदयः । कं न कुर्यात्प्रणम्रं ते सत्त्वं नाथ सचेतनम् ॥ ९६ ॥ तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ ९७ ॥ भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा ॥ १०८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ दुःख की वेदना अस्वीकार की गई है, जिसकी संगति कर्मसिद्धान्त की उन व्यवस्थाओं के साथ नहीं बैठती, जिनके अनुसार केवली के भी वेदनीयकर्मजन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये रत्नकरण्ड का उक्त पद्य इस कारिका के सर्वथा विरुद्ध पड़ता है, दोनों ग्रन्थों का एककर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध बाधक है । ' ९६ जहाँ तक मैंने इस कारिका के अर्थ पर उसके पूर्वापर-सम्बन्ध की दृष्टि से और दोनों विद्वानों के ऊहापोह को ध्यान में लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञ का कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता । प्रो० साहब का जो यह कहना है कि 'कारिकागत वीतरागः और विद्वान् पद दोनों एक ही मुनि व्यक्ति के वाचक हैं और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथ में लगा है, ९७ वह ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वकारिका में ९८ जिस प्रकार अचेतन और अकषाय ( वीतराग ) ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियों में बन्ध का प्रसंग उपस्थित करके पर में दुःख-सुख के उत्पादन का निमित्तमात्र होने से पाप-पुण्य के बन्ध की एकान्त मान्यता को सदोष सूचित किया है, उसी प्रकार इस कारिका में भी वीतराग मुनि और विद्वान् ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियों में बन्ध का प्रसंग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुख के उत्पादन का निमित्तमात्र होने से पुण्य-पाप के बन्ध की एकान्त मान्यता को सदोष बतलाया है, जैसा कि अष्टसहस्रीकार श्री विद्यानन्द आचार्य के निम्न टीका - वाक्य से भी प्रकट है "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखोत्पादनात्तु पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युञ्ज्यान्निमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादि-रूपदुःखोत्पत्तेर्विदुषस्तत्त्वज्ञानसन्तोषलक्षणसुखोत्पत्तेस्तन्निमित्तत्वात्।” " इसमें वीतराग के कायक्लेशादिरूप दुःख की उत्पत्ति को और विद्वान् के तत्त्वज्ञान-सन्तोष-लक्षण - सुख की उत्पत्ति को अलग-अलग बतलाकर दोनों (वीतराग और विद्वान् ) के व्यक्तित्व को साफ तौर पर अलग घोषित कर दिया है । और इसलिये वीतराग का अभिप्राय यहाँ उस छद्मस्थ वीतरागी मुनि से है, जो रागद्वेष की निवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर होता है, केवली से नहीं, और अपनी उस चारित्रपरिणति के द्वारा बन्ध को प्राप्त नहीं होता । और विद्वान् का अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है, जो तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा सन्तोष- सुख का अनुभव करता है और अपनी ९६. अनेकान्त / वर्ष ८ / किरण ३ / पृ. १३२ तथा वर्ष ९/कि.१/पृ. ९ । ९७. अनेकान्त / वर्ष ७ / कि. ३-४ / पृ. ३४ । ९८. पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥ आप्तमीमांसा । ९९. अन्तरात्मा के लिये 'विद्वान्' शब्द का प्रयोग आचार्य पूज्यपाद ने अपने समाधितन्त्र के 'त्यक्त्वारोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' (१०४) इस वाक्य में किया है और स्वामी For Personal & Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७१ उस सम्यग्ज्ञानपरिणति के निमित्त से बन्ध को प्राप्त नहीं होता। वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता है और गृहस्थ भी, परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा आप्त नहीं। (अनेकान्त/वर्ष ८ /किरण १/पृ.३०)।१०० समन्तभद्र ने 'स्तुयान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' (११६) तथा 'त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी' (११७) इन स्वयम्भूस्तोत्र के वाक्यों द्वारा जिन विद्वानों का उल्लेख किया है, वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते हैं। १००. यहाँ मेरा (प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखक का) मत मुख्तार जी के मत से कुछ भिन्न है। आप्तमीमांसा की उपर्युक्त कारिकाओं को एक साथ रखकर देखा जाय पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः॥ ९२॥ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि।। वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यान्निमित्ततः॥ ९३॥ ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि पहली कारिका में अचेतनाकषायौ कर्तृपद द्विवचनात्मक है और 'बध्येयातां' क्रियापद भी द्विवचनात्मक है। अतः उसमें दो कर्ताओं के विषय में बात कही गयी है। किन्तु दूसरी कारिका में मुनिः कर्तृपद और युद्ध्यात् क्रियापद दोनों एक वचनान्त हैं। इसलिए यहाँ एक ही कर्ता के विषय में कथन किया गया है। वीतराग तथा विद्वान् पद मुनि के विशेषण हैं। और 'मुनि' शब्द छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि का वाचक है, क्योंकि मुख्तार जी द्वारा पूर्वोद्धृत अष्टसहस्री टीका के 'स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं---' इत्यादि वाक्य में कहा गया है कि मुनि अपने में (विविध तप एवं केशलोच आदि के द्वारा) कायक्लेशादिरूप दुःख की तथा तत्त्वज्ञान का अवलम्बन कर सन्तोषरूपी सुख की उत्पत्ति करता है। और उसके आगे उसी ९३वीं कारिका की अष्टसहस्रीटीका में निम्नलिखित वाक्य आया है ___ "स्यान्मतं-'स्वस्मिन् दुःखस्य सुखस्य चोत्पत्तावपि वीतरागस्य तत्त्वज्ञानवतस्तदभिसन्धेरभावान्न पुण्यपापाभ्यां योगस्तस्य तदभिसन्धिनिबन्धनत्वात्' इति तर्खनेकान्तसिद्धिरेवायाता।" इसका भावार्थ यह है कि यद्यपि वीतराग-तत्त्वज्ञानी मुनि स्वयं में दुःख-सुख उत्पन्न करता है, तथापि अभिसन्धिपूर्वक (अभिप्रायपूर्वक) न करने के कारण पुण्य-पाप से संयुक्त नहीं होता, क्योंकि पुण्य-पाप से संयोग अभिसन्धि (अभिप्राय) के निमित्त से होता है। इस प्रकार यहाँ स्व या पर में अभिप्रायपूर्वक सुख-दुःख उत्पन्न न करना 'वीतराग' होने का लक्षण है। यह अष्टसहस्री के निम्नलिखित वाक्यों से और भी स्पष्ट हो जाता है "परस्मिन् सुखदुःखयोरुत्पादनात् चेतना एव बन्धार्हा इति चेत् तर्हि वीतरागाः कथं न बध्येरन्? तन्निमित्तत्वाद् बन्धस्य। तेषामभिसन्धिरभावान्न बन्ध इति---।" (कारिका ९२)। For Personal & Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ "अतः इस कारिका में जब केवली आप्त या सर्वज्ञ का कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियों का उल्लेख है, तब रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य के साथ इस कारिका का सर्वथा विरोध कैसे घटित किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता, खासकर उस हालत में जब कि मोहादिक का अभाव और अनन्तज्ञानादिक का सद्भाव होने से केवली में दुःखादिक की वेदनाएँ वस्तुतः बनती ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीयादि कर्मों के अभाव में साताअसाता-वेदनीय-जन्य सुख-दुःख की स्थिति उस छाया के समान औपचारिक होती है, वास्तविक नहीं, जो दूसरे प्रकाश के सामने आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती। और इसलिये प्रोफेसर साहब का यह लिखना तथा कारिकागत विद्वान् शब्द तत्त्वज्ञानी अर्थ का वाचक है, जैसा कि उपर्युक्त अष्टसहस्रीवाक्य में तत्त्वज्ञानवतः पद से स्पष्ट है। तत्त्वज्ञान से सन्तोषसुख अथवा आहार-ग्रहण एवं वैयावृत्य से कायसुख प्राप्त करनेवाला मुनि भी वीतराग (सुखनिष्कांक्ष) होने पर ही पापबन्ध से बचता है। फलस्वरूप वीतराग और विद्वान् दोनों एक ही षष्ठ-सप्तम गुण- थानवर्ती मुनि के विशेषण हैं, अलग-अलग दो मुनियों के नहीं। अतः यहाँ 'वीतराग' पद अरहन्त का वाचक नहीं है और न 'विद्वान्' पद सर्वज्ञ का। कारण यह है कि अरहन्त अपने में कायक्लेशादिरूप दुःख की उत्पत्ति नहीं करते, क्योंकि घातिकर्मों का क्षय हो जाने से कायक्लेशादि तप और केशलोच आदि दुःखोत्पादक क्रियाएँ अनावश्यक हो जाती हैं। इसी प्रकार मोहनीय के क्षय से इच्छाओं का अभाव हो जाने पर असन्तोष का अभाव हो जाता है, जिससे सन्तोषसुख की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञान में उपयोग लगाने की आवश्यकता नहीं रहती। डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया का भी कथन है कि "आप्तमीमांसा कारिका ९३ में जो वीतरागमुनि में सुखदुःख स्वीकार किया गया है, वह छठे आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागमुनियों के ही बतलाया गया है, न कि तेरहवें चौदहवें-गुणस्थानवर्ती मुनि (केवली) के---वस्तुतः वीतरागमुनि शब्द से यहाँ समन्तभद्र को वह मुनि विवक्षित है, जिसके केशलुंचनादि कायक्लेश संभव है। और यह निश्चित है कि वह केवली के नहीं होता। वीतरागमुनि शब्द का प्रयोग केवली के अलावा छठे आदि गुणस्थानवर्तियों के लिए भी साहित्य में हुआ है। यथा१. सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥ १/१४॥ प्रवचनसार। २. "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।" तत्त्वार्थसूत्र /९/१० । "--- स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग जैसा ही वीतमोह शब्द का प्रयोग केवलीभिन्नों (केवली से भिन्न मुनियों) के लिए 'आप्तमीमांसा' का० ९८ में किया है। इससे स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का एक ही अभिप्राय है और इसलिए वे दोनों एक ही ग्रन्थकार की कृतियाँ हैं और वे हैं स्वामी समन्तभद्र।" ( लेख-'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?'/ 'अनेकान्त'/ वर्ष ६/ किरण १२/ जुलाई १९४४ / पृ.३८४)। For Personal & Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७३ कि "यथार्थतः वेदनीयकर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है। वस्तुतः अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूप से अपनी स्थिति तथा अनुभागादि के अनुरूप फलदान-कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। किसी भी कर्म के लिये अनेक कारणों की जरूरत पड़ती है और अनेक निमित्तों को पाकर कर्मों में संक्रमण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समय से पहले उनकी निर्जरा भी हो जाती है और तपश्चरणादि के बल पर उनकी शक्ति को बदला भी जा सकता है। अतः कर्मों को सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है, मिथ्यात्व है और मुक्ति का भी निरोधक है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ.४४५-४५८)। "यहाँ 'धवला' पर से एक उपयोगी शङ्का-समाधान उद्धृत किया जाता है, जिससे केवली में क्षुधा-तृषा के अभाव का सकारण प्रदर्शन होने के साथ-साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्का का भी समाधान हो जाता है कि 'यदि केवली के सुख-दुःख की वेदना मानने पर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता, तो फिर कर्मसिद्धान्त में केवली के साता और असाता वेदनीय कर्म का उदय माना ही क्यों जाता०१ और वह इस प्रकार है "सगसहाय-घादिकम्माभावेण णिस्सत्तितमावण्ण-असादावेदणीय-उदयादो भुक्खातिसाणमणुप्पत्तीए। णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसदं (डं) तस्स कथमुदयववएसो? ण, जीवकम्मविवेगमेत्तफलं दह्ण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो।" ( वीरसेवामन्दिर-प्रति/पृ. ३७५, आरा-प्रति/पृ.७४१)१०६ "शङ्का-अपने सहायक घातिया कर्मों का अभाव होने के कारण निःशक्ति को प्राप्त हुए असातावेदनीयकर्म के उदय से जब (केवली में) क्षुधा-तृषा की उत्पत्ति नहीं होती, तब प्रतिसमय नाश को प्राप्त होनेवाले (असातावेदनीय कर्म के) निष्फल परमाणुपुञ्ज का कैसे उदय कहा जाता है? ___ "समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं, क्योंकि जीव और कर्म का विवेक-मात्र फल देखकर उदय के फलपना माना गया है। ___ "ऐसी हालत में प्रोफेसर साहब का वीतराग सर्वज्ञ के दुःख की वेदना के स्वीकार को कर्मसिद्धान्त के अनुकूल और अस्वीकार को प्रतिकूल अथवा असंगत बतलाना किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं ठहर सकता और इस तरह ग्रन्थसन्दर्भ के अन्तर्गत उक्त ९३वीं कारिका की दृष्टि से भी रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य को विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ.४४८)। १०१. अनेकान्त/वर्ष ८/किरण २/पृ. ८९। १०२. धवला / ष.खं./पु.१२/४, २, ७, २६/ पृ. २४-२५ । For Personal & Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ (समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थों की छानबीन) ५. 'स्वदोषशान्त्या' आदि पद्यों में केवली के क्षुधादि दोषों की शान्ति का कथन अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्र के दूसरे किसी ग्रन्थ में ऐसी कोई बात पाई जाती है, जिससे रत्नकरण्ड के उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्य का विरोध घटित होता हो अथवा जो आप्त-केवली या अर्हत्परमेष्ठी में क्षुधादि दोषों के सद्भाव को सूचित करती हो। जहाँ तक मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थों की छानबीन की है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई, जो रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य के विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विषय में उसका विरोध उपस्थित करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी ही बातें देखने में आती हैं, जिनसे अर्हत्केवली में क्षुधादि-वेदनाओं अथवा दोषों के अभाव की सूचना मिलती है। यहाँ उनमें से दोचार नमूने के तौर पर नीचे व्यक्त की जाती हैं __ "क–'स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिन के स्तोत्र में यह बतलाया है कि शान्ति-जिनेन्द्र ने अपने दोषों की शान्ति करके आत्मा में शान्ति स्थापित की है और इसी से वे शरणागतों के लिये शान्ति के विधाता हैं। चूँकि क्षुधादिक भी दोष हैं और वे आत्मा में अशान्ति के कारण होते हैं-कहा भी है कि "क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना," अतः आत्मा में शान्ति की पूर्णप्रतिष्ठा के लिये उनको भी शान्त किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्ति के विधाता बने हैं और तभी संसारसम्बन्धी क्लेशों तथा भयों से शान्ति प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और यह ठीक ही है, जो स्वयं रागादिक दोषों अथवा क्षुधादि वेदनाओं से पीडित है, अशान्त है, वह दूसरों के लिये शान्ति का विधाता कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। "ख–'त्वं शुद्धिशक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिनशान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुशासन के वाक्य में वीरजिनेन्द्र को शुद्धि, शक्ति और शान्ति की पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ बतलाया है, जो शान्ति की पराकाष्ठा (चरमसीमा) को पहुँचा हुआ हो, उसमें क्षुधादि वेदनाओं की सम्भावना नहीं बनती। "ग-'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' इस धर्म-जिन के स्तवन में यह बतलाया है कि धर्मनाम के अर्हत्परमेष्ठी ने शाश्वत सुख की प्राप्ति की है और इसी से वे शङ्कर (सुख के करनेवाले) हैं। शाश्वतसुख की अवस्था में एक क्षण के लिये भी क्षुधादि दुःखों का उद्भव सम्भव नहीं। इसी से श्री विद्यानन्दाचार्य ने श्लोकवार्तिक में लिखा है कि 'क्षुधादिवेदनोद्भूतौ नाहतोऽनन्तशर्मता' अर्थात् क्षुधादि वेदना की उद्भूति होने पर अर्हन्त के अनन्तसुख नहीं बनता। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/ प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७५ "घ-'त्वं शम्भवः सम्भवतर्षरोगैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवन में शम्भ-वजिन को सांसारिक तृषा-रोगों से प्रपीडित प्राणियों के लिये उन रोगों की शान्ति के अर्थ आकस्मिक वैद्य बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि अर्हज्जिन स्वयं तृषारोगों से पीडित नहीं होते, तभी वे दूसरों के तृषा-रोगों को दूर करने में समर्थ होते हैं। इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जराऽन्तकार्तं निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्य के द्वारा उन्हें जन्म-जरा मरण से पीडित जगत् को निरञ्जना शान्ति की प्राप्ति कराने वाला लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि वे स्वयं जन्म-मरण से पीडित न होकर निरञ्जना शान्ति को प्राप्त थे। निरञ्जना शान्ति में क्षुधादि वेदनाओं के लिए अवकाश नहीं रहता। __ "ङ–'अनन्तदोषाशयविग्रहोग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित् 'जिन' के स्तोत्र में जिस मोहपिशाच को पराजित करने का उल्लेख है, उसके शरीर को अनन्तदोषों का आधारभूत बताया है। इससे स्पष्ट है कि दोषों की संख्या कुछ इनी-गिनी ही नहीं है, बल्कि बहुत बढ़ी-चढ़ी है। अनन्तदोष तो मोहनीयकर्म के ही आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोषों में मोह की पुट ही काम किया करती है। जिन्होंने मोहकर्म का नाश कर दिया है, उन्होंने अनन्तदोषों का नाश कर दिया है। उन दोषों में मोह के सहकार से होनेवाली क्षुधादि की वेदनाएँ भी शामिल हैं, इसी से मोहनीय का अभाव हो जाने पर वेदनीयकर्म को क्षुधादि वेदनाओं के उत्पन्न करने में असमर्थ बतलाया है। "इस तरह मूल आप्तमीमांसा ग्रन्थ, उसके ९६वीं कारिका-सहित ग्रन्थसन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि टीकाओं और ग्रन्थकार के दूसरे ग्रन्थों के उपर्युक्त विवेचन पर से यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड का उक्त क्षुत्पिपासादि पद्य स्वामी समन्तभद्र के किसी भी ग्रन्थ तथा उसके आशय के साथ कोई विरोध नहीं रखता अर्थात् उसमें दोष का क्षुत्पिपासादि के अभावरूप जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसा के ही नहीं, किन्तु आप्तमीमांसाकार की दूसरी भी किसी कृति के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उन सबके साथ सङ्गत है। और इसलिये उक्त पद्य को लेकर आप्तमीमांसा और रत्नकरण्ड का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः इस विषय में प्रोफेसर साहब की प्रथम आपत्ति के लिये कोई स्थान नहीं रहता, वह किसी तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ पृ.४४९-४५१)। ६. पूर्व में रत्नकरण्ड का समन्तभद्रकर्तृत्व एवं प्राचीनता स्वीकृत "अब मैं प्रो० हीरालाल जी की शेष तीनों आपत्तियों पर भी अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ, परन्तु उसे प्रकट कर देने के पूर्व यह बतला देना चाहता हूँ कि प्रो० साहब ने, अपनी प्रथम मूल आपत्ति को 'जैन इतिहास का For Personal & Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्ध में प्रस्तुत करते हुए, यह प्रतिपादन किया था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य के उपदेशों के पश्चात् उन्हीं के समर्थन में लिखा गया है, और इसलिए इसके कर्ता वे समन्तभद्र हो सकते हैं, जिनका उल्लेख शिलालेख व पट्टावलियों में कुन्दकुन्द के पश्चात् पाया जाता है। कुन्दकुन्दाचार्य और उमास्वामी का समय वीरनिर्वाण से लगभग ६५० वर्ष पश्चात् (वि० सं० १८०) सिद्ध होता है। फलतः रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ता समन्तभद्र का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का अन्तिम भाग अथवा तीसरी शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये (यही समय जैन समाज में आमतौर पर माना भी जाता है)।' साथ ही यह भी बतलाया था कि 'रत्नकरण्ड के कर्ता ये समन्तभद्र उन शिवकोटि के गुरु भी हो सकते हैं, जो रत्नमाला के कर्ता हैं।१०३ इस पिछली बात पर आपत्ति करते हुए पं० दरबारीलाल जी ने अनेक युक्तियों के आधार पर जब यह प्रदर्शित किया कि रत्नमाला एक आधुनिक ग्रन्थ है, रत्नकरण्डश्रावकाचार से शताब्दियों बाद की रचना है, विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्व की तो वह हो नहीं सकती और न रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता समन्तभद्र के साक्षात् शिष्य की कृति हो सकती है,०४ तब प्रो० साहब ने उत्तर की धुन में कुछ कल्पित युक्तियों के आधार पर यह तो लिख दिया कि 'रत्नकरण्ड का समय विद्यानन्द के समय (ईसवी सन् ८१६ के लगभग) के पश्चात् और वादिराज के समय अर्थात् शक सं० ९४७ (ई० सन् १०२५) के पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधि के प्रकाश में रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमाला का रचनाकाल समीप आ जाते हैं और उनके बीच शताब्दियों का अन्तराल नहीं रहता।" १०५ साथ ही आगे चलकर उसे तीन आपत्तियों का रूप भी दे दिया।०६ परन्तु इस बात को भुला दिया कि उनका यह सब प्रयत्न और कथन उनके पूर्वकथन एवं प्रतिपादन के विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने पूर्वकथन को वापिस ले लेना चाहिए था और या उसके विरुद्ध इस नये कथन का प्रयत्न तथा नई आपत्तियों का आयोजन नहीं करना चाहिये था। दोनों परस्पर विरुद्ध बातें एक साथ नहीं चल सकतीं।" "अब यदि प्रोफेसर साहब अपने उस पूर्व कथन को वापिस लेते हैं, तो उनकी वह थियोरी (Theory) अथवा मत-मान्यता ही बिगड़ जाती है, जिसे लेकर वे 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' लिखने में प्रवृत्त हुए हैं और यहाँ तक लिख गये हैं कि 'बोडिक-सङ्घ के संस्थापक शिवभूति, स्थविरावली में उल्लिखित आर्य १०३. जैनइतिहास का एक विलुप्त अध्याय / पृ. १८,२० । १०४. अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२/ पृ. ३८०-३८२। १०५. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ.५४।। १०६. अनेकान्त/वर्ष ८/किरण ३/ पृ. १३२ तथा वर्ष ९/किरण १/पृ. ९-१०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७७ शिवभूति, भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य और उमास्वाति के गुरु के गुरु शिवश्री ये चारों एक ही व्यक्ति हैं। इसी तरह शिवभूति के शिष्य एवं उत्तराधिकारी भद्र, नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु, द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्य-वाणी के कर्ता व दक्षिणापथ को विहार करनेवाले भद्रबाहु, कुन्दकुन्दाचार्य के गुरु भद्रबाहु, वनवासी सङ्घ के प्रस्थापक समन्तभद्र और आप्तमीमांसा के कर्ता सामन्तभद्र ये सब भी एक ही व्यक्ति हैं।' "और यदि प्रोफेसर साहब अपने उस पूर्वकथन को वापिस न लेकर पिछली तीन युक्तियों को ही वापिस लेते हैं, तो फिर उन पर विचार की जरूरत ही नहीं रहती। प्रथम मूल आपत्ति ही विचार के योग्य रह जाती है और उस पर ऊपर विचार किया ही जा चुका है। __ "यह भी हो सकता है कि प्रो० साहब के उक्त विलुप्त अध्याय के विरोध में जो दो लेख (१. क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं?, २. शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार) वीरसेवामन्दिर के विद्वानों द्वारा लिखे जाकर अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं१०७ और जिनमें विभिन्न आचार्यों के एकीकरण की मान्यता का युक्तिपुरस्सर खण्डन किया गया है तथा जिनका अभी तक कोई भी उत्तर साढ़े तीन वर्ष का समय बीत जाने पर भी प्रो० साहब की तरफ से प्रकाश में नहीं आया, उन पर से प्रो० साहब का विलुप्त अध्याय-सम्बन्धी अपना अधिकांश विचार ही बदल गया हो और इसी से वे भिन्न कथन द्वारा शेष तीन आपत्तियों को खड़ा करने में प्रवृत्त हुए हों। परन्तु कुछ भी हो, ऐसी अनिश्चित दशा में मुझे तो शेष तीनों आपत्तियों पर भी अपना विचार एवं निर्णय प्रकट कर देना ही चाहिए। तदनुसार ही उसे आगे प्रकट किया जाता है।" (जै.सा. इ.वि.प्र./खं.१/पृ.४५२-४५३)। ७. सर्वार्थसिद्धि में रत्नकरण्ड के शब्दार्थादि का अनुकरण "II. रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने के लिये प्रो० साहब की जो दूसरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "रत्नकरण्ड का कोई उल्लेख शक संवत् ९४७ (वादिराज के पार्श्वनाथचरित के रचनाकाल) से पूर्व का उपलब्ध नहीं है तथा उसका आप्तमीमांसा के साथ एककर्तृत्व बतलानेवाला कोई भी सुप्राचीन उल्लेख नहीं पाया जाता।" यह दलील वास्तव में कोई दलील नहीं है, क्योंकि उल्लेखाऽनुपलब्धि का भिन्नकर्तृत्व के साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है, उल्लेख के न मिलने पर भी दोनों का एक कर्ता होने में स्वरूप से कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। इसके सिवाय, यह प्रश्न पैदा होता है कि रत्नकरण्ड का वह पूर्ववर्ती उल्लेख प्रो० सा० को उपलब्ध नहीं है या किसी को भी उपलब्ध नहीं है अथवा वर्तमान १०७. अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १०-११ और वर्ष ७/किरण १-२। For Personal & Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ में कहीं उसका अस्तित्व ही नहीं और पहले भी उसका अस्तित्व नहीं था? यदि प्रो० साहब को वह उल्लेख उपलब्ध नहीं और किसी दूसरे को उपलब्ध हो, तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जा सकता, भले ही वह उसके द्वारा अभी तक प्रकाश में न लाया गया हो। और यदि किसी के द्वारा प्रकाश में न लाये जाने के कारण ही उसे दूसरों के द्वारा भी अनुपलब्ध कहा जाय और वर्तमान साहित्य में उसका अस्तित्व हो, तो उसे सर्वथा अनुपलब्ध अथवा उस उल्लेख का अभाव नहीं कहा जा सकता। और वर्तमान साहित्य में उस उल्लेख के अस्तित्व का अभाव तभी कहा जा सकता है, जब सारे साहित्य का भले प्रकार अवलोकन करने पर वह उसमें न पाया जाता हो। सारे वर्तमान जैनसाहित्य का अवलोकन न तो प्रो० साहब ने किया है और न किसी दसरे विद्वान के द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है। और जो साहित्य लुप्त हो चुका है, उसमें वैसा कोई उल्लेख नहीं था, इसे तो कोई भी दृढ़ता के साथ नहीं कह सकता। प्रत्युत इसके, वादिराज के सामने शक सं० ९४७ में जब रत्नकरण्ड खूब प्रसिद्धि को प्राप्त था और उससे कोई ३० या ३५ वर्ष बाद ही प्रभाचन्द्राचार्य ने उस पर संस्कृत टीका लिखी है और उसमें उसे साफ तौर पर स्वामी समन्तभद्र की कृति घोषित किया है, तब उसका पूर्व साहित्य में उल्लेख होना बहुत कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है। वादिराज के सामने कितना ही जैनसाहित्य ऐसा उपस्थित था, जो आज हमारे सामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके ग्रन्थों में मिलता है। ऐसी हालत में पूर्ववर्ती उल्लेख का उपलब्ध न होना कोई खास महत्त्व नहीं रखता और न उसके उपलब्ध न होने मात्र से रत्नकरण्ड की रचना को वादिराज के सम-सामयिक ही कहा जा सकता है, जिसके कारण आप्तमीमांसा और रत्नकरण्ड के भिन्न-कर्तृत्व की कल्पना को बल मिलता। (जै.सा.इ.वि.प्र/खं.१ / पृ. ४५३-४५४)। "दूसरी बात यह है कि उल्लेख दो प्रकार का होता है-एक ग्रन्थनाम का और दूसरा ग्रन्थ के साहित्य तथा उसके किसी विषय-विशेष का। वादिराज से पूर्व का जो साहित्य अभी तक अपने को उपलब्ध है उसमें यदि ग्रन्थ का नाम 'रत्नकरण्ड' उपलब्ध नहीं होता तो उससे क्या? रत्नकरण्ड का पद-वाक्यादि के रूप में साहित्य और उसका विषयविशेष तो उपलब्ध हो रहा है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि रत्नकरण्ड का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है? नहीं कहा जा सकता। आ० पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थों पर से उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थ को कहीं शब्दानुसरण के, कहीं भावानुसरण के, कहीं उदाहरण के, कहीं पर्यायशब्दप्रयोग के और कहीं व्याख्यान-विवेचनादि के रूप में पूर्णतः अथवा अंशतः अपनाया है, ग्रहण किया है और जिसका प्रदर्शन मैंने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७९ का प्रभाव' नामक अपने लेख में किया है । १०८ उसमें आप्तमीमांसा, स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन के अलावा रत्नकरण्ड श्रावकाचार के भी कितने ही पद - वाक्यों को तुलना करके रक्खा गया है, जिन्हें सर्वार्थसिद्धिकार ने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख पाया जाता है। अकलङ्कदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक में भी ऐसे उल्लेखों की कमी नहीं है। उदाहरण के तौर पर तत्त्वार्थसूत्रगत ७वें अध्याय के 'दिग्देशाऽनर्थदण्ड' नामक २१वें सूत्र से सम्बन्ध रखनेवाले 'भोगपरिसंख्यानं पञ्चविधं त्रसघात-प्रमाद-बहुवधाऽनिष्टाऽनुप- सेव्यविषयभेदात्' इस उभय- वार्तिकगत वाक्य १० १०८.१ और इसकी व्याख्याओं को रत्नकरण्ड के 'त्रसहतिपरिहरणार्थं,' 'अल्पफलबहुविघातात्, ' 'यदनिष्टं तद् व्रतयेत्' इन तीन पद्यों (नं० ८४, ८५, ८६) के साथ तुलना करके देखना चाहिए, जो इस विषय में अपनी खास विशेषता रखते हैं।" (जै. सा. इ. वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४५४-४५५) । " परन्तु मेरे उक्त लेख पर से जब रत्नकरण्ड और सर्वार्थसिद्धि के कुछ तुलनात्मक अंश उदाहरण के तौर पर प्रो० साहब के सामने बतलाने के लिए रक्खे गये कि 'रत्नकरण्ड सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद से भी पूर्व की कृति है और इसलिये रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि के गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते' तो उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि " सर्वार्थसिद्धिकार ने उन्हें रत्नकरण्ड से नहीं लिया, किन्तु सम्भव है रत्नकरण्डकार ने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धि के आधार से की हो।" साथ ही, रत्नकरण्ड के उपान्त्यपद्य 'येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या, ' (१४९) को लेकर एक नई कल्पना भी कर डाली और उसके आधार पर यह घोषित कर दिया कि 'रत्नकरण्ड की रचना न केवल पूज्यपाद से पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्द से भी पीछे की है।' और इसी को आगे चलकर चौथी आपत्ति का रूप दे दिया। यहाँ भी प्रोफेसर साहब ने इस बात को भुला दिया कि 'शिलालेखों के उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती जिन समन्तभद्र को रत्नकरण्ड का कर्ता बतला आए हैं, उन्हें तो शिलालेखों में भी पूज्यपाद, अकलङ्क और विद्यानन्द का पूर्ववर्ती लिखा है, तब उनके रत्नकरण्ड की रचना अपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादि के बाद की अथवा सर्वार्थसिद्धि के आधार पर की हुई कैसे हो सकती है?' अस्तु, इस विषय में विशेष विचार चौथी आपत्ति के विचाराऽवसर पर ही किया जायगा ।" (जै.सा. इ. वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४५५) । ७वीं शती ई. के 'न्यायावतार' में 'रत्नकरण्ड' का पद्य – “यहाँ पर मैं साहित्यिक उल्लेख का एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता १०८. अनेकान्त / वर्ष ५ / किरण १०-११ / पृ. ३४५-३५२ । १०८.१ तत्त्वार्थराजवार्तिकगत (७ / २१ / २७) एवं श्लोकवार्तिकगत वाक्य । For Personal & Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ हूँ, जो ईसा की ७वीं शताब्दी के ग्रन्थ में पाया जाता है और वह है रत्नकरण्ड श्रावकाचार के निम्न पद्य का सिद्धसेन के न्यायावतार में ज्यों का त्यों उद्धृत होनाआप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट - विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ ९ ॥ जाय, 'यह पद्य रत्नकरण्ड का एक बहुत ही आवश्यक अंग है और उसमें यथास्थान यथाक्रम मूलरूप से पाया जाता है। यदि इस पद्य को उक्त ग्रन्थ से अलग कर दिया तो उसके कथन का सिलसिला ही बिगड़ जाय । क्योंकि ग्रन्थ में, जिन आप्त, आगम (शास्त्र) और तपोभृत् (तपस्वी) के अष्ट अंगसहित और त्रिमूढतादिरहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया गया है, उनका क्रमशः स्वरूप-निर्देश करते हुए, इस पद्य से पहले 'आप्त' का और इसके अनन्तर 'तपोभृत्' का स्वरूप दिया है, यह पद्य यहाँ दोनों के मध्य में अपने स्थान पर स्थित है, और अपने विषय का एक ही पद्य है। प्रत्युत इसके, न्यायावतार में, जहाँ भी यह नम्बर ९ पर स्थित है, इस पद्य की स्थिति मौलिकता की दृष्टि से बहुत ही सन्दिग्ध जान पड़ती है। यह उसका कोई आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होता और न इसको निकाल देने से वहाँ ग्रन्थ के सिलसिले में अथवा उसके प्रतिपाद्य विषय में ही कोई बाधा आती है। न्यायावतार में परोक्ष प्रमाण के अनुमान और शाब्द ऐसे दो भेदों का कथन करते हुए, स्वार्थानुमान का प्रतिपादन और समर्थन करने के बाद इस पद्य से ठीक पहले शाब्द प्रमाण के लक्षण का यह पद्य दिया हुआ है दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥ ८॥१०९ " इस पद्य की उपस्थिति में इसके बाद का उपर्युक्त पद्य, जिसमें शास्त्र ( आगम ) का लक्षण दिया हुआ है, कई कारणों से व्यर्थ पड़ता है। प्रथम तो उसमें शास्त्र का लक्षण आगम-प्रमाणरूप से नहीं दिया। यह नहीं बतलाया कि ऐसे शास्त्र से उत्पन्न हुआ ज्ञान११० आगमप्रमाण अथवा शब्दप्रमाण कहलाता है, बल्कि सामान्यतया आगमपदार्थ के रूप में निर्दिष्ट हुआ है, जिसे रत्नकरण्ड में सम्यग्दर्शन का विषय बतलाया गया है। दूसरे, शाब्दप्रमाण शास्त्रप्रमाण कोई भिन्न वस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्दप्रमाण १०९. सिद्धर्षि की टीका में इस पद्य से पहले यह प्रस्तावना - वाक्य दिया हुआ है - " तदेवं स्वार्थानुमानलक्षणं प्रतिपाद्य तद्वतां भ्रान्तताविप्रतिपत्तिं च निराकृत्य अधुना प्रतिपादितपरार्थानुमानलक्षणं एवाल्पवक्तव्यत्वात् तावच्छाब्दलक्षणमाह । " ११०. स्व-परावभासी निर्बाध ज्ञान को ही न्यायावतार के प्रथम पद्य में प्रमाण का लक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाण के प्रत्येक भेद में उसकी व्याप्ति होनी चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८१ के बाद पृथक् रूप से उल्लेख करने की जरूरत होती, बल्कि उसी में अन्तर्भूत है। टीकाकार ने भी, शब्द के लौकिक और शास्त्रज ऐसे दो भेदों की कल्पना करके, यह सूचित किया है कि इन दोनों का ही लक्षण इस आठवें पद्य में आ गया है।१११ इससे ९वें पद्य में शब्द के 'शास्त्रज' भेद का उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट हो जाता है। तीसरे, ग्रन्थ भर में, इससे पहले, 'शास्त्र' या 'आगम' शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ, जिसके स्वरूप का प्रतिपादक ही यह ९वाँ पद्य समझ लिया जाता, और न 'शास्त्रज' नाम के भेद का ही मूलग्रन्थ में कोई निर्देश है, जिसके एक अवयव (शास्त्र) का लक्षण-प्रतिपादक यह पद्य हो सकता। चौथे, यदि यह कहा जाय कि ८वें पद्य में 'शाब्द' प्रमाण को जिस वाक्य से उत्पन्न हुआ बतलाया गया है, उसी का 'शास्त्र' नाम से अगले पद्य में स्वरूप दिया गया है, तो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि ८वें पद्य में ही दृष्टेष्टाव्याहत आदि विशेषणों के द्वारा वाक्य का स्वरूप दे दिया गया है और वह स्वरूप अगले पद्य में दिये हुए शास्त्र के स्वरूप से प्रायः मिलता-जुलता है। उसके दृष्टेष्टाव्याहत का अदृष्टेष्टाविरोधक के साथ साम्य है और उसमें अनुल्लंघ्य तथा आप्तोपज्ञ विशेषणों का भी समावेश हो सकता है, परमार्थाभिधायि विशेषण कापथघट्टन और सार्व विशेषणों के भाव का द्योतक है, और शाब्दप्रमाण को तत्त्वग्राहितयोत्पन्न प्रतिपादन करने से यह स्पष्ट ध्वनित है कि वह वाक्य तत्त्वोपदेशकृत् माना गया है। इस तरह दोनों पद्यों में बहुत कुछ साम्य पाया जाता है। ऐसी हालत में समर्थन में उद्धरण के सिवाय ग्रन्थ-सन्दर्भ के साथ उसकी दूसरी कोई गति नहीं, उसका विषय पुनरुक्त ठहरता है। पाँचवें, ग्रन्थकार ने स्वयं अगले पद्य में वाक्य को उपचार से 'परार्थानुमान' बतलाया है। यथा स्व-निश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः। परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः॥ १०॥ "इन सब बातों अथवा कारणों से यह स्पष्ट है कि न्यायावतार में 'आप्तोपज्ञ' नाम के ९वें पद्य की स्थिति बहुत ही सन्दिग्ध है, वह मूल ग्रन्थ का पद्य मालूम नहीं होता। उसे मूलग्रन्थकार-विरचित ग्रन्थ का आवश्यक अङ्ग मानने से पूर्वोत्तर पद्यों के मध्य में उसकी स्थिति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रन्थ की प्रतिपादनशैली भी उसे स्वीकार नहीं करती, और इसलिये वह अवश्य ही वहाँ एक उद्धृत पद्य जान पड़ता है, जिसे 'वाक्य' के स्वरूप का समर्थन करने के लिये रत्नकरण्ड पर से 'उक्तञ्च' आदि के रूप में उद्धृत किया गया है। उद्धरण का यह कार्य यदि मूलग्रन्थकार के द्वारा १११."शाब्दं च द्विधा भवति-लौकिकं शास्त्रजं चेति। तत्रेदं द्वयोरपि साधारणं लक्षणं प्रतिपादितम्।" For Personal & Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ नहीं हुआ है, तो वह अधिक समय बाद का भी नहीं है, क्योंकि विक्रम की १०वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य सिद्धर्षि की टीका में यह मूलरूप से परिगृहीत है, जिससे यह मालूम होता है कि उन्हें अपने समय में न्यायावतार की जो प्रतियाँ उपलब्ध थीं, उनमें यह पद्य मूल का अङ्ग बना हुआ था। और जब तक सिद्धर्षि से पूर्व की किसी प्राचीन प्रति में उक्त पद्य अनुपलब्ध न हो, तब तक प्रो० साहब तो अपनी विचार-पद्धति१२ के अनुसार यह कह ही नहीं सकते कि वह ग्रन्थ का अङ्ग नहीं, ग्रन्थकार के द्वारा योजित नहीं हुआ अथवा ग्रन्थकार से कुछ अधिक समय बाद उसमें प्रविष्ट या प्रक्षिप्त हुआ है। चुनाँचे प्रो० साहब ने वैसा कुछ कहा भी नहीं और न उस पद्य के न्यायावतार में उद्धृत होने की बात का स्पष्ट शब्दों में कोई युक्तिपुरस्सर विरोध ही प्रस्तुत किया है, वे उस पर एकदम मौन हो रहे हैं।" (जै.सा.इ.वि.प्र/ खं.१/पृ.४५६-४५९)। अतः ऐसे प्रबल साहित्यिक उल्लेखों की मौजूदगी में रत्नकरण्ड को विक्रम की ११वीं शताब्दी की रचना अथवा रत्नमालाकार के गुरु की कृति नहीं बतलाया जा सकता और न इस कल्पित समय के आधार पर उसका आप्तमीमांसा से भिन्नकर्तृत्व ही प्रतिपादित किया जा सकता है। यदि प्रो० साहब साहित्य के उल्लेखादि को कोई महत्त्व न देकर ग्रन्थ के नामोल्लेख को ही उसका उल्लेख समझते हों, तो वे आप्तमीमांसा को कुन्दकुन्दाचार्य से पूर्व की तो क्या, अकलङ्क के समय से पूर्व की अथवा कुछ अधिक पूर्व की भी नहीं कह सकेंगे, क्योंकि अकलङ्क से पूर्व के साहित्य में उसका नामोल्लेख नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में प्रो० साहब की दूसरी आपत्ति का कोई महत्त्व नहीं रहता, वह भी समुचित नहीं कही जा सकती और न उसके द्वारा उनका अभिमत ही सिद्ध किया जा सकता है। "III. रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालाल जी की जो तीसरी दलील (युक्ति) है, उसका सार यह है कि 'वादिराजसूरि के पार्श्वनाथचरित में आप्तमीमांसा को तो 'देवागम' नाम से उल्लेख करते हुए स्वामिकृत कहा गया है और रत्नकरण्ड को स्वामिकृत न कहकर योगीन्द्रकृत बतलाया है। 'स्वामी' का अभिप्राय स्वामी समन्तभद्र से और 'योगीन्द्र' का अभिप्राय उस नाम ११२. प्रो० साहब की इस विचारपद्धति का दर्शन उस पत्र पर से भले प्रकार हो सकता है, जिसे उन्होंने मेरे उस पत्र के उत्तर में लिखा था, जिसमें उनसे रत्नकरण्ड के उन सात पद्यों की बावत सयुक्तिक राय मांगी गई थी, जिन्हें मैंने रत्नकरण्ड की प्रस्तावना में सन्दिग्ध करार दिया था और जिस पत्र को उन्होंने मेरे पत्र-सहित अपने पिछले लेख (अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १/ पृ. १२) में प्रकाशित किया है। For Personal & Private Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८३ के किसी आचार्य से अथवा आप्तमीमांसाकार से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र से है। दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक ही समन्तभद्र नहीं हो सकते अथवा यों कहिये कि वादिराजसम्मत नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों ग्रन्थों के उल्लेख-सम्बन्धी दोनों पद्यों के मध्य में 'अचिन्त्यमहिमा देवः' नाम का एक पद्य पड़ा हुआ है, जिसके देव शब्द का अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपाद से है और जो उनके शब्दशास्त्र (जैनेन्द्र) की सूचना को साथ में लिए हुए है।' जिन पद्यों पर से इस युक्तिवाद अथवा रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व पर आपत्ति का जन्म हुआ है, वे इस प्रकार हैं स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम्। देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते॥ १७॥ अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा। शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः॥ १८॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः। अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः॥ १९॥ "इन पद्यों में से जिन प्रथम और तृतीय पद्यों में ग्रन्थों का नामोल्लेख है, उनका विषय स्पष्ट है और जिसमें किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, उस द्वितीय पद्य का विषय अस्पष्ट है, इस बात को प्रोफेसर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है। और इसीलिए द्वितीय पद्य के आशय तथा अर्थ के विषय में विवाद है। एक उसे स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करते हैं, तो दूसरे देवनन्दी पूज्यपाद के साथ। यह पद्य यदि क्रम में तीसरा हो और तीसरा दूसरे के स्थान पर हो, और ऐसा होना लेखकों की कृपा से कुछ भी असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवाद के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता, तब देवागम (आप्तमीमांसा) और रत्नकरण्ड दोनों निर्विवादरूप से प्रचलित मान्यता के अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित हो जाते हैं और शेष पद्य का सम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद और उनके शब्दशास्त्र से लगाया जा सकता है। चूँकि उक्त पार्श्वनाथचरित-सम्बन्धी प्राचीन प्रतियों की खोज अभी तक नहीं हो पाई है, जिससे पद्यों की क्रमभिन्नता का पता चलता और जिसकी कितनी ही सम्भावना जान पड़ती है, अत: उपलब्ध क्रम को लेकर ही इन पद्यों के प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थ पर विचार किया जाता है "पद्यों के उपलब्ध क्रम पर से दो बातें फलित होती हैं-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्र की स्तुति को लिये हुए हैं और उनमें उनकी तीन कृतियों का उल्लेख है, और दूसरी यह कि तीनों पद्यों में क्रमशः तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियों का उल्लेख है। इन दोनों में से कोई एक बात ही ग्रन्थकार के द्वारा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/ प्र०४ अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है, दोनों नहीं। वह एक बात कौन-सी हो सकती है, यही यहाँ पर विचारणीय है। तीसरे पद्य में उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं है, जो स्वामी समन्तभद्र की कृतिरूप से प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि 'योगीन्द्र' नाम के आचार्य-द्वारा रचा हुआ उसी नाम का कोई दूसरा ही ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों पद्यों में तीन आचार्य और उनकी कृतियों का उल्लेख है, भले ही वह दूसरा रत्नकरण्ड कहीं पर उपलब्ध न हो अथवा उसके अस्तित्व को प्रमाणित न किया जा सके। और तब इन पद्यों को लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है, वही स्थिर नहीं रहता, समाप्त हो जाता है अथवा यों कहिये कि प्रोफेसर साहब की तीसरी आपत्ति निराधार होकर बेकार हो जाती है। परन्तु प्रो० साहब को दूसरा रत्नकरण्ड इष्ट नहीं, तभी उन्होंने प्रचलित रत्नकरण्ड के ही छठे पद्य 'क्षुत्पिपासा' को आप्तमीमांसा के विरोध में उपस्थित किया था, जिसका ऊपर परिहार किया जा चुका है। और इसलिये तीसरे पद्य में उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि प्रचलित रत्नकरण्डश्रावकाचार ही है, तो तीनों पद्यों को स्वामी समन्तभद्र के साथ ही सम्बन्धित कहना होगा, जब तक कि कोई स्पष्ट बाधा इसके विरोध में उपस्थित न की जाय। इसके सिवाय, दूसरी कोई गति नहीं, क्योंकि प्रचलित रत्नकरण्ड को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकृत मानने में कोई बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी, उसका ऊपर दो आपत्तियों का विचार करते हुए भले प्रकार निरसन किया जा चुका है और यह तीसरी आपत्ति अपने स्वरूप में ही स्थिर न होकर असिद्ध तथा संदिग्ध बनी हुई है, और इसलिये प्रो० साहब के अभिमत को सिद्ध करने में असमर्थ है। जब आदि-अन्त के दोनों पद्य स्वामी समन्तभद्र से सम्बन्धित हों, तब मध्य के पद्य को दूसरे के साथ सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौर पर कल्पना कीजिये कि रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले तीसरे पद्य के स्थान पर स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत स्वयंभूस्तोत्र के उल्लेख को लिये हुए निम्न प्रकार के आशय का कोई पद्य है स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधिविनाशनम्। विराग-द्वेष-वादादिमनेकान्त-मतं नुमः॥ "ऐसे पद्य की मौजूदगी में क्या द्वितीय पद्य में उल्लिखित देव शब्द को देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक कहा जा सकता है? यदि नहीं कहा जा सकता, तो रत्नकरण्ड के उल्लेख वाले पद्य की मौजूदगी में भी उसे देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक नहीं कहा जा सकता, उस वक्त तक, जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाय कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है। क्योंकि असिद्ध साधनों के द्वारा कोई भी बात सिद्ध नहीं की जा सकती। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८५ " इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए, आज से कोई २३ वर्ष पहले रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना के साथ में दिये हुए स्वामी समन्तभद्र के विस्तृत परिचय (इतिहास) में, जब मैंने 'स्वामिनश्चरितं तस्य' और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन दो पद्यों को पार्श्वनाथचरित से एक साथ उद्धृत किया था, तब मैंने फुटनोट ( पादटिप्पणी) में यह बतला दिया था कि इनके मध्य में 'अचिन्त्यमहिमा देवः ' नाम का एक तीसरा पद्य मुद्रित प्रति में और पाया जाता है, जो मेरी राय में इन दोनों पद्यों के बाद होना चाहिये, तभी वह देवनन्दी आचार्य का वाचक हो सकता है। साथ ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह तीसरा पद्य सचमुच ही ग्रन्थ की प्राचीन प्रतियों में इन दोनों पद्यों के मध्य में ही पाया जाता है और मध्य का ही पद्य है, तो यह कहना पड़ेगा कि वादिराज ने समन्तभद्र को अपना हित चाहनेवालों के द्वारा वन्दनीय और अचिन्त्य महिमावाला देव प्रतिपादित किया है, साथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके किसी व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख किया है।" अपनी इस दृष्टि और राय के अनुरूप ही मैं ' अचिन्त्यमहिमा देव:' पद्य को प्रधानतः देवागम और रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले पद्यों का उत्तरवर्ती तीसरा पद्य मानता आ रहा हूँ और तदनुसार ही उसके 'देव' पद का देवनन्दी अर्थ करने प्रवृत्त हुआ हूँ । अत: इन तीनों पद्यों के क्रमविषय में मेरी दृष्टि और मान्यता को छोड़कर किसी को भी मेरे उस अर्थ का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, जो समाधितन्त्र की प्रस्तावना तथा सत्साधु - स्मरण - मङ्गलपाठ' में दिया हुआ है, ११३ क्योंकि मुद्रित प्रति का पद्यक्रम ही ठीक होने पर मैं उस पद्य के देव पद को समन्तभद्र का ही वाचक मानता हूँ और इस तरह तीनों पद्यों को समन्तभद्र के स्तुति - विषयक समझता हूँ । अस्तु ।" (जै. सा. इ. वि. प्र./ खं / पृ. ४५९-४६२)। 44 'अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्यों को स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करने अथवा रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्र की कृति बतलाने में कोई दूसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैंने इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार किया है, मुझे उसमें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यों में क्रमशः तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। उक्त क्रम से रक्खे हुए तीनों पद्यों का अर्थ निम्न प्रकार है " उन स्वामी ( समन्तभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नहीं है, जिन्होंने 'देवागम' (आप्तमीमांसा) नाम के अपने प्रवचन द्वारा आज भी सर्वज्ञ ११३. प्रो० साहब ने अपने मत की पुष्टि में उसे पेश करके सचमुच ही उसका दुरुपयोग किया है। For Personal & Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ को प्रदर्शित कर रक्खा है। वे अचिन्त्यमहिमा-युक्त देव (समन्तभद्र) अपना हित चाहनेवालों के द्वारा सदा वन्दनीय हैं, जिनके द्वारा (सर्वज्ञ ही नहीं, किन्तु) शब्द भी ११४ भले प्रकार सिद्ध होते हैं। वे ही योगीन्द्र (समन्तभद्र) सच्चे अर्थों में त्यागी (त्यागभाव से युक्त अथवा दाता) हुए हैं, जिन्होंने सुखार्थी भव्यसमूह के लिए अक्षयसुख का कारणभूत धर्मरत्नों का पिटारा–'रत्नकरण्ड' नाम का धर्मशास्त्र दान किया है। "इस अर्थ पर से स्पष्ट है कि दूसरे तथा तीसरे पद्य में ऐसी कोई बात नहीं, जो स्वामी समन्तभद्र के साथ सङ्गत न बैठती हो। समन्तभद्र के लिए देव विशेषण का प्रयोग कोई अनोखी अथवा उनके पद से कोई अधिक चीज नहीं है। देवागम की वसुनन्दिवृति, पण्डित आशाधर की सागारधर्मामृत टीका, आचार्य जयसेन की समयसारटीका, नरेन्द्रसेन आचार्य के सिद्धान्तसार-संग्रह और आप्तमीमांसामूल की एक वि० संवत् १७५२ की प्रति की अन्तिम पुष्पिका में समन्तभद्र के साथ देव पद का खुला प्रयोग पाया जाता है, जिन सब के अवतरण पं० दरबारीलाल जी कोठिया के लेख में उद्धृत हो चुके हैं।११५ इसके सिवाय वादिराज के पार्श्वनाथचरित से ४७ वर्ष पूर्व शक सं० ९०० में लिखे गये चामुण्डराय के त्रिषष्टिशलाका-महापुराण में भी देव उपपद के साथ समन्तभद्र का स्मरण किया गया है और उन्हें तत्त्वार्थभाष्यादि का कर्ता लिखा है।१६ ऐसी हालत में प्रो० साहब का समन्तभद्र के साथ देव पद की असङ्गति की कल्पना करना ठीक नहीं है, वे साहित्यिकों में देव विशेषण के साथ भी प्रसिद्धि को प्राप्त रहे हैं।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ. ४६२-४६४)। "और अब प्रो० साहब का अपने अन्तिम लेख में यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखता कि "जो उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं, उन सब में देव पद समन्तभद्र के साथ-साथ पाया जाता है। ऐसा कोई एक भी उल्लेख नहीं, जहाँ केवल देव शब्द से समन्तभद्र का अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह वास्तव में कोई उत्तर नहीं, इसे केवल उत्तर के लिये ही उत्तर कहा जा सकता है, क्योंकि जब कोई विशेषण किसी के साथ जुड़ा होता है, तभी तो वह किसी प्रसंग पर संकेतादि के रूप में अलग से भी कहा जा सकता है, जो विशेषण कभी साथ में जुड़ा ही न हो, वह न तो अलग से कहा जा सकता है और न उसका वाचक ही हो सकता है। प्रो० साहब ऐसा कोई भी उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे, जिसमें समन्तभद्र के साथ स्वामी पद जुड़ने से पहले उन्हें केवल 'स्वामी' पद के द्वारा उल्लेखित किया गया हो। ११४. मूल में प्रयुक्त हए 'च' शब्द का अर्थ। ११५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११ / पृ. ४१०-४११। ११६. अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १/पृ. ३३ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८७ अतः मूल बात समन्तभद्र के साथ देव विशेषण का पाया जाना है, जिसके उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं और जिनके आधार पर द्वितीय पद्य में प्रयुक्त हुए देव विशेषण अथवा उपपद को समन्तभद्र के साथ संगत कहा जा सकता है। प्रो० साहब वादिराज के इसी उल्लेख को वैसा एक उल्लेख समझ सकते हैं, जिसमें 'देव' शब्द से समन्तभद्र का अभिप्राय प्रगट किया गया है, क्योंकि वादिराज के सामने अनेक प्राचीन उल्लेखों के रूप में समन्तभद्र को भी 'देव' पद के द्वारा उल्लिखित करने के कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो० साहब ने श्लेषार्थ को लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है, उसका अर्थ जब स्वामी समन्तभद्रपरक किया जाता है, तब 'देव' पद स्वामी समन्तभद्र का, अकलङ्कपरक अर्थ करने से अकलंक का और विद्यानन्दपरक अर्थ करने से विद्यानन्द का ही वाचक होता है। इससे समन्तभद्र नाम साथ में न रहते हुए भी समन्तभद्र के लिये 'देव' पद का अलग से प्रयोग अघटित नहीं है, यह प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्य से भी जाना जाता है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१/ पृ. ४६४)। "यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्द को एकान्ततः 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैसा समझने के कारण ही उन्होंने उक्त पद्य में देवनन्दी के लिये उसका प्रयोग किया है, क्योंकि वादिराज ने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरण में अकलंक के लिये 'देव' पद का बहुत प्रयोग किया है,११७ इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरित में भी वे 'तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः' इस वाक्य में प्रयुक्त हुए देव पद के द्वारा अकलंक का उल्लेख कर रहे हैं। और जब अकलंक के लिये वे 'देव' पद का उल्लेख कर रहे हैं, तब अकलंक से भी बड़े और उनके भी पूज्यगुरु समन्तभद्र के लिये देव पद का प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नहीं है। इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चय-विवरण के अन्तिम भाग में पूज्यपाद का देवनन्दी नाम से उल्लेख न करके पूज्यपाद नाम से ही उल्लेख किया है,११८ जिससे मालूम होता है कि यही नाम उनको अधिक इष्ट था। "ऐसी स्थिति में यदि वादिराज का अपने द्वितीय पद्य से देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होता, तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके जैनेन्द्र व्याकरण का ११७. जैसा कि नीचे के उदाहरणों से प्रकट है "देवस्तार्किकचक्रचूडामणिभूयात्स वः श्रेयसे।" पृ. ३।। "भूयो भेदनयावगाहगहनं देवस्य यद्वाङ्मयम्।" "तथा च देवस्यान्यत्र वचनं "व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव नः।" प्रस्ताव १। "देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यतः क इव बोद्धमतीव दक्षः।" प्रस्ताव २। ११८. “विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मतिसागरं---वन्दे जिनेन्द्रं मुदा।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०४ साथ में स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्य को रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले पद्य के बाद में रखते, जिससे समन्तभद्र का स्मरणविषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरण का प्रारम्भ समझा जाता। जब ऐसा कुछ भी नहीं है, तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्य में 'देव' विशेषण के द्वारा समन्तभद्र का ही उल्लेख किया गया है। उनका अचिन्त्य महिमा से युक्त होना और उनके द्वारा शब्दों का सिद्ध होना भी कोई असंगत नहीं है। वे पूज्यपाद से भी अधिक महान् थे, अकलंक और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े आचार्यों ने उनकी महानता का खुला गान किया है, उन्हें सर्वपदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद-तीर्थ को कलिकाल में भी प्रभावित करनेवाला, और वीरशासन की हजारगुणी वृद्धि करनेवाला, जैनशासन का प्रणेता तक लिखा है। उनके असाधारण गुणों के कीर्तनों और महिमाओं के वर्णनों से जैनसाहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ में दिये हुए समन्तभद्र के स्मरणों पर से सहज में ही प्राप्त कर सकते हैं। समन्तभद्र के एक परिचय-पद्य से मालूम होता है कि वे सिद्धसारस्वत १९ थे, सरस्वती उन्हें सिद्ध थी, वादीभसिंह जैसे आचार्य उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द-विहारभूमि बतलाते हैं और एक दूसरे ग्रन्थकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हुए ग्रन्थसमूहरूपी निर्मलकमलसरोवर में, जो भावरूप हंसों से परिपूर्ण है, सरस्वती को क्रीडा करती हुई उल्लेखित करते हैं।१२० इससे समन्तभद्र के द्वारा शब्दों का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती। उनका जिनशतक उनके अपूर्व व्याकरणपाण्डित्य और शब्दों के एकाधिपत्य को सूचित करता है। पूज्यपाद ने तो अपने जैनेन्द्रव्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह सूत्र (५, ४, १४०) रखकर समन्तभद्र-द्वारा होनेवाली शब्दसिद्धि को स्पष्ट सूचित भी किया है, जिस पर से उनके व्याकरणशास्त्र की भी सूचना मिलती है। और श्री प्रभाचन्दाचार्य ने अपने गद्यकथाकोश में उन्हें तर्कशास्त्र की तरह व्याकरणशास्त्र का भी व्याख्याता (निर्माता)१२१ लिखा है।१२२ इतने पर भी प्रो० साहब का अपने पिछले लेख में यह लिखना कि "उनका बनाया हुआ न तो कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते हैं" व्यर्थ की खींचतान के सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता। यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तो उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता ११९. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ३-४/ पृ. २६ । १२०. सत्साधुस्मरणमंगलपाठ / पृ. ३४, ४९ । १२१. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११/ पृ. ४१९ । १२२. 'जैनग्रन्थावली' में रायल एशियाटिक सोसाइटी की रिपोर्ट के आधार पर समन्तभद्र के एक प्राकृतव्याकरण का नामोल्लेख है और उसे १२०० श्लोकपरिमाण सूचित किया Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८९ कि वह कभी था ही नहीं। वादिराज के ही द्वारा पार्श्वनाथचरित में उल्लिखित सन्मतिसूत्र की वह विवृति और विशेषवादी की वह कृति आज कहाँ मिल रही हैं? यदि उनके न मिलने मात्र से वादिराज के उल्लेख-विषय में अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती, तो फिर समन्तभद्र के शब्दशास्त्र के उपलब्ध न होने मात्र से ही वैसी कल्पना क्यों की जाती है? उसमें कुछ भी औचित्य मालूम नहीं होता। अतः वादिराज के उक्त द्वितीय पद्य नं० १८ का यथावस्थित क्रम की दृष्टि से समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेने में किसी भी बाधा के लिये कोई स्थान नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१ / पृ. ४६४४६७)। "रही तीसरे पद्य की बात, उसमें योगीन्द्रः पद को लेकर जो वाद-विवाद अथवा झमेला खड़ा किया गया है, उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान् ऐसा नहीं हो सकता, जो समन्तभद्र को योगी अथवा योगीन्द्र मानने के लिये तैयार न हो, . खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पञ्च आचारों का स्वयं आचार करनेवाले और दूसरों को आचारण करानेवाले दीक्षागुरु के रूप में थे, ‘पदर्द्धिक' थे, तप के बल पर चारणऋद्धि को प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्ररूप बचनबल से शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभ की प्रतिमा को बुला लिया था ('स्वमन्त्रवचन-व्याहूतचन्द्रप्रभः')। योगसाधना जैनमुनि का पहला कार्य होता है और इसलिये जैनमुनि को 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्र का तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य हो जाता है। इसी से जिस वीरशासन के स्वामी समन्तभद्र अनन्य उपासक थे, उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का० ६) में उन्होंने दया, दम और त्याग के साथं समाधि (योगसाधना) को भी उसका प्रधान अंग बतलाया है। तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासन के अनन्य उपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हों? "सबसे पहले सुहृद्वर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इस योगीन्द्रविषयक चर्चा को 'क्या रत्नकरण्ड के कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं?' इस शीर्षक के अपने लेख में उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि "योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें (समन्तभद्र को) कहीं भी नहीं दिया गया।"१२३ इसके उत्तर में जब मैंने 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे' इस शीर्षक का लेख२४ लिखा और उसमें अनेक प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा १२३. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ३-४/पृ. २९,३०। १२४. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ. ४२,४८। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०४ योगी और योगीन्द्र विशेषणों का उनके नाम के साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया, तब प्रेमी जी तो उस विषय में मौन हो रहे, परन्तु प्रो० साहब ने इस चर्चा को यह लिखकर लम्बा किया कि "मुख्तार साहब तथा न्यायाचार्य जी ने जिस आधार पर योगीन्द्र शब्द का उल्लेख प्रभाचन्द्रकृत स्वीकार कर लिया है, वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं, उनसे जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानों में से किसी एक ने भी अभी तक न प्रभाचन्द्र का कथाकोष स्वयं देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसी से सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोष में समन्तभद्र के लिये योगीन्द्र शब्द आया है। केवल प्रेमीजी ने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्त की कथा प्रभाचन्द्र की गद्यकथा का प्रायः पूर्ण अनुवाद है।" उसी के आधार पर आज उक्त दोनों विद्वानों को यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य कथाकोष में स्वामी समन्तभद्र को योगीन्द्र रूप में उल्लेखित किया है।" "इस पर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोष को मँगाकर देखा गया और उस पर से समन्त- भद्र को 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बतलानेवाले जब डेढ़ दर्जन के करीब प्रमाण न्यायाचार्य जी ने अपने अन्तिम लेख में १२५ उद्धृत किये, तब उसके उत्तर में प्रो० साहब अब अपने पिछले लेख में यह कहने बैठे हैं, जिसे वे नेमिदत्त-कथाकोष के अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि "कथानक में समन्तभद्र को केवल उनके कपटवेष में ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेष में कहीं भी उक्त शब्द का प्रयोग नहीं पाया जाता।" यह उत्तर भी वास्तव में कोई उत्तर नहीं है। इसे भी केवल उत्तर के लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। क्योंकि समन्तभद्र के योग-चमत्कार को देखकर जब शिवकोटिराजा, उनका भाई शिवायन और प्रजा के बहुत से जन जैनधर्म में दीक्षित हो गये तब योगिरूप में समन्तभद्र की ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और वे आमतौर पर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर कोई समझ सकता है, क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्र के साथ सम्बद्ध था, न कि उनके पाण्डुराङ्गतपस्वीवाले वेष के साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वी के वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों, जैनवेषवाले मुनियों को योगी न कहा जाता हो। यदि ऐसा होता, तो रत्नकरण्ड के कर्ता को भी 'योगीन्द्र' विशेषण से उल्लेखित न किया जाता। वास्तव में योगी एक सामान्य शब्द है, जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी आदिक का वाचक है, जैसा कि धनञ्जय-नाममाला के निम्न वाक्य से प्रकट है १२५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११/पृ. ४२०-४२१ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९१ ऋषिर्यतिर्मुनिर्भिक्षुस्तापसः संयतो व्रती। तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः॥ ३॥ "जैनसाहित्य में योगी की अपेक्षा यति, मुनि, तपस्वी जैसे शब्दों का प्रयोग अधिक पाया जाता है, जो उसके पर्याय नाम हैं। रत्नकरण्ड में भी यति, मुनि और तपस्वी शब्द योगी के लिये व्यवहत हुए हैं। तपस्वी को आप्त तथा आगम की तरह सम्यग्दर्शन का विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक पद्य'२६ में दिया है, वह खासतौर से ध्यान देने योग्य है। उसमें लिखा है कि-"जो इन्द्रियविषयों तथा इच्छाओं के वशीभूत नहीं है, आरम्भों तथा परिग्रहों से रहित है और ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरणों में लीन रहता है, वह तपस्वी प्रशंसनीय है।" इस लक्षण से भिन्न योगी के और कोई सींग नहीं होते। एक स्थान पर सामायिक में स्थित गृहस्थ को चेलोपसृष्टमुनि की तरह यतिभाव को प्राप्त हुआ लिखा है।१२७ चेलोपसृष्टमुनि का अभिप्राय उस नग्न दिगम्बर जैन योगी से है, जो मौन-पूर्वक योग-साधना करता हुआ ध्यानमग्न हो और उस समय किसी ने उसको वस्त्र ओढ़ा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसर्ग समझता है। सामायिक में स्थित वस्त्रसहित गृहस्थ को उस मुनि की उपमा देते हुए उसे जो यतिभाव (योगी के भाव) को प्राप्त हुआ लिखा है और अगले पद्य में उसे अचलयोग भी बतलाया है, उससे स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड में भी योगी के लिये यति शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके सिवाय, अकलंकदेव ने अष्टशती (देवागम-भाष्य) के मंगल-पद्य में आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र को 'यति' लिखा है,१२८ जो सन्मार्ग में यत्नशील अथवा मन-वचन-काय के नियन्त्रणरूप योग की साधना में तत्पर योगी का वाचक है, और श्रीविद्यानन्दाचार्य ने अपनी अष्टसहस्री में उन्हें यतिभृत् और यतीश तक लिखा है,१२९ जो दोनों ही योगिराज अथवा योगीन्द्र अर्थ के द्योतक हैं, और यतीश के साथ प्रथिततर विशेषण लगाकर तो यह भी सूचित किया गया है कि वे एक बहुत बड़े प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसे ही उल्लेखों को दृष्टि में रखकर वादिराज ने उक्त पद्य में समन्तभद्र के लिये योगीन्द्र विशेषण का प्रयोग किया जान पड़ता है। और इसलिये यह कहना कि 'समन्तभद्र योगी नहीं थे अथवा १२६. विषयाऽऽशावशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वीस प्रशस्यते॥ १०॥ १२७. सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। __ चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्॥ १०२ ॥ १२८. "येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम्।" १२९. "स श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृद्-भूयाद्विभुर्भानुमान्।" ___ "स्वामी जीयात्स शवश्त्प्रथिततरयतीशोऽकलङ्कोरुकीर्तिः।" For Personal & Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ योगीरूप से उनका कहीं उल्लेख नहीं' किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । रत्नकरण्ड की अब तक ऐसी कोई प्राचीन प्रति भी प्रो० साहब की तरफ से उपस्थित नहीं की गई, जिसमें ग्रन्थकर्ता को 'योगीन्द्र' नाम का कोई विद्वान् लिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्र से भिन्न दूसरा कोई समन्तभद्र उसका कर्ता है, ऐसी स्पष्ट सूचना साथ में की गई हो।" (जै. सा. इ. वि. प्र. / खं. १ / पृ. ४६७ - ४७० ) "समन्तभद्र नाम के दूसरे छह विद्वानों की खोज करके मैंने उसे रत्नकरण्ड श्रावकाचार की अपनी प्रस्तावना में आज से कोई २३ वर्ष पहले प्रकट किया था। उसके बाद से और किसी समन्तभद्र का अब तक कोई पता नहीं चला। उनमें से एक लघु, दूसरे चिक्क, तीसरे गेरुसोप्पे, चौथे अभिनव, पाँचवें भट्टारक, छठे गृहस्थ विशेषण विशिष्ट पाये जाते हैं । उनमें से कोई भी अपने समयादिक की दृष्टि से 'रत्नकरण्ड' का कर्ता नहीं हो सकता १३० और इसलिये जब तक जैनसाहित्य पर से किसी ऐसे दूसरे समन्तभद्र का पता न बतलाया जाय, जो इस रत्नकरण्ड का कर्ता हो सके, तब तक 'रत्नकरण्ड' के कर्ता के लिये 'योगीन्द्र' विशेषण के प्रयोग मात्र से उसे कोरी कल्पना के आधार पर स्वामी समन्तभद्र से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता । "ऐसी वस्तुस्थिति में वादिराज के उक्त दोनों पद्यों को प्रथम पद्य के साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं होती । १३१ प्रत्युत इसके, वादिराज के प्रायः समकालीन विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र का अपनी टीका में ‘रत्नकरण्ड' उपासकाध्ययन को साफ तौर पर स्वामी समन्तभद्र की कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। उन्होंने अपनी टीका के केवल संधिवाक्यों में ही समन्तभद्रस्वामिविरचित जैसे विशेषणों द्वारा वैसी घोषणा नहीं की, बल्कि टीका की आदि में निम्न प्रस्तावना - वाक्य द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है " श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह । " १३०. देखिए, माणिकचन्द - ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार / प्रस्तावना / पृ. ५ से ९ । १३१. सन् १९१२ में तंजोर से प्रकाशित होनेवाले वादिराज के 'यशोधर - चरित' की प्रस्तावना में, टी. ए. गोपीनाथराव, एम. ए. ने भी इन तीनों पद्यों को इसी क्रम के साथ समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। इसके सिवाय, प्रस्तुत चरित पर शुभचन्द्रकृत जो 'पंजिका' है, उसे देखकर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने बाद को यह सूचित किया है कि उसमें भी ये तीनों पद्य समन्तभद्रविषयक माने गये । और तीसरे पद्य में प्रयुक्त हुए 'योगीन्द्र' पद का अर्थ 'समन्तभद्र' ही लिखा है। इससे बाधा की जगह साधक प्रमाण की बात और भी सामने आ जाती है। For Personal & Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९३ "हाँ, यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि प्रो० साहब ने अपने "विलुप्त अध्याय' में यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन साहित्य में जो आचार्य स्वामी की उपाधि से विशेषतः विभूषित किये गये हैं, वे आप्तामीमांसा के कर्ता समन्तभद्र ही हैं।" और आगे श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में भद्रबाहु द्वितीय के साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देखकर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहु की उपाधि 'स्वामी' थी, जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्र के लिये ही प्रयुक्त हई है" समन्तभद्र और भद्रबाह द्वितीय को 'एक ही व्यक्ति' प्रतिपादित किया था। इस पर से कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन समन्तभद्र के साथ स्वामी पद लगा हुआ हो उन्हें प्रो० साहब के मतानुसार आप्तमीमांसा का कर्ता समझना चाहिए। तदनुसार ही प्रो० साहब के सामने रत्नकरण्ड की टीका का उक्त प्रमाण यह प्रदर्शित करने के लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्रचार्य भी रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्रक लिख रहे हैं और प्रो० साहब 'स्वामी' पद का असाधारण सम्बन्ध आप्तमीमांसाकार के साथ जोड़ रहे हैं, तब वह उसे आप्तमीमांसाकार से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति कैसे बतलाते हैं? इसके उत्तर में प्रो० साहब ने लिखा है कि "प्रभाचन्द्र का उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्ड के कर्ता स्वामी समन्तभद्र हैं. उन्होंने यह तो प्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकरण्ड के कर्ता आप्तमीमांसा के भी रचयिता हैं।"१३२ परन्तु साथ में लगा हुआ स्वामी पद तो उन्हीं के मन्तव्यानुसार उसे प्रकट कर रहा है, यह देखकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि "रत्नकरण्ड के कर्ता समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद बाद को जुड़ गया है, चाहे उसका कारण भ्रान्ति हो या जान बूझकर ऐसा किया गया हो।" परन्तु अपने प्रयोजन के लिये यह कह देने मात्र से कोई काम नहीं चल सकता, जब तक कि उसका कोई प्राचीन आधार व्यक्त न किया जाय, कम से कम प्रभाचन्द्राचार्य से पहले की लिखी हुई रत्नकरण्ड की कोई ऐसी प्राचीन मूल प्रति पेश होनी चाहिये थी, जिसमें समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ न हो। लेकिन प्रो० साहब ने पहले की, ऐसी कोई भी प्रति पेश नहीं की, तब वे बाद को भ्रान्ति आदि के वश 'स्वामी' पद के जुड़ने की बात कैसे कह सकते हैं? नहीं कह सकते, उसी तरह, जिस तरह कि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्ड के सात पद्यों को प्रभाचन्द्रीय टीका से पहले की ऐसी प्राचीन प्रतियों के न मिलने के कारण प्रक्षिप्त नहीं कह सकते,१३३ जिनमें वे मद्य सम्मिलित न हों।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१/४७०-४७३)। १२. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण ३/पृ. १२९ । ३. अनेकान्त / वर्ष ९ / किरण १/ पृ. १२ पर प्रकाशित प्रोफेसर साहब का उत्तर पत्र। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ ___ "इस तरह प्रो० साहब की तीसरी आपत्ति में कुछ भी सार मालूम नहीं होता। युक्ति के पूर्णतः सिद्ध न होने के कारण वह रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व में बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये उसे भी समुचित नहीं कहा जा सकता। "IV. अब रही चौथी आपत्ति की बात, जिसे प्रो० साहब ने रत्नकरण्ड के निम्न उपान्त्य पद्य पर से कल्पित करके रक्खा है येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्। नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु॥ "इस पद्य (१४९) में ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए यह बतलाया गया है कि "जिस (भव्य जीव) ने आत्मा को निर्दोषविद्या, निर्दोषदृष्टि और निर्दोषक्रियारूप रत्नों के पिटारे के भाव में परिणत किया है, अपने आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयधर्म का आविर्भाव किया है, उसे तीनों लोकों में सर्वार्थसिद्धि, धर्म-अर्थ-काम मोक्षरूप सभी प्रयोजनों की सिद्धि स्वयंवरा कन्या की तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है, अर्थात् उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे स्वेच्छा से अपना पति बनाती है, जिससे वह चारों पुरुषार्थों का स्वामी होता है और उसका कोई भी प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।" "इस अर्थ को स्वीकार करते हुए प्रो० साहब का जो कुछ विशेष कहना है, वह यह है-"यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्र के द्वारा बतलाये गये वाच्यार्थ के अतिरिक्त श्लेषरूप से यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि "जिसने अपने को अकलङ्क और विद्यानन्द के द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों की पिटारी बना लिया है, उसे तीनों स्थलों पर सर्व अर्थों की सिद्धिरूप सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैसे इच्छामात्र से पति को अपनी पत्नी।" यहाँ निःसन्देहतः रत्नकरण्डकार ने तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गई तीनों टीकाओं का उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं अर्थतः, अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दकृत श्लोकवार्तिक में प्रायः पूरी ही ग्रथित है। अत: जिसने अकलङ्ककृत और विद्यानन्द की रचनाओं को हृदयङ्गम कर लिया, उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं आ जाती है। रत्नकरण्ड के इस उल्लेख पर से निर्विवादतः सिद्ध हो जाता है कि यह रचना न केवल पूज्यपाद से पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्द से भी पीछे की है।"१३४ ऐसी हालत में रत्नकरण्डकार का आप्तमीमांसा के कर्ता से एकत्व सिद्ध नहीं होता।३५ १३४. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ.५३। १३५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण ३/ पृ. १३२। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९५ "यहाँ प्रो० साहब द्वारा कल्पित इस श्लोषार्थ के सुघटित होने में दो प्रबल बाधाएँ हैं । एक तो यह कि जब वीतकलंक से अकलंक का और विद्या से विद्यानन्द का अर्थ ले लिया गया तब दृष्टि और क्रिया दो ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मल-निर्दोष अथवा सम्यक् जैसे मौलिक विशेषण से शून्य । ऐसी हालत में श्लेषार्थ के साथ जो निर्मल ज्ञान अर्थ भी जोड़ा गया है, वह नहीं बन सकेगा और उसके न जोड़ने पर वह श्लेषार्थ ग्रन्थसन्दर्भ के साथ असङ्गत हो जायगा, क्योंकि ग्रन्थभर में तृतीय पद्य से प्रारम्भ करके इस पद्य के पूर्व तक सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप तीन रत्नों का ही धर्मरूप से वर्णन है, जिसका उपसंहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्य में उनको अपनानेवाले के लिये सर्व अर्थ की सिद्धिरूप फल की व्यवस्था की गई है, इसकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि त्रिषु विष्टपेषु पदों का अर्थ जो 'तीनों स्थलों पर' किया गया है, वह सङ्गत नहीं बैठता, क्योंकि अकलंकदेव का राजवार्तिक और विद्यानन्द का श्लोकवार्तिक ग्रन्थ ये दो ही स्थल ऐसे हैं, जहाँ पर पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा अर्थतः पाई जाती है। तीसरे स्थल की बात मूल के किसी भी शब्द पर से उसका आशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह बाधा जब प्रो० साहब के सामने उपस्थित की गई और पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों स्थलों पर' किया गया है, वे तीन स्थल कौन से हैं, जहाँ पर सर्व अर्थ की सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं प्राप्त हो जाती है? तब प्रोफेसर साहब उत्तर देते हुए लिखते हैं " मेरा ख्याल था कि वहाँ तो किसी नई कल्पना की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वहाँ उन्हीं तीन स्थलों की सङ्गति सुस्पष्ट है, जो टीकाकार ने बतला दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चरित्र, क्योंकि वे तत्त्वार्थसूत्र के विषय होने से सर्वार्थसिद्धि में तथा अकलंङ्कदेव और विद्यानन्द की टीकाओं में विवेचित हैं और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकार ने किया है । " १३६ (जै. सा. इ. वि.प्र./खं.१/पृ.४७३-४७५)। " यह उत्तर कुछ भी संगत मालूम नहीं होता, क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्र ने 'त्रिषु विष्टपेषु' का स्पष्ट अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पद के द्वारा 'तीनों लोक में' दिया है। उसके स्वीकार की घोषणा करते हुए और यह आश्वासन देते हुए भी कि उस विषय में टीकाकार से भिन्न " किसी नई कल्पना की आवश्यकता नहीं" टीकाकार का अर्थ न देकर 'अर्थात्' शब्द के साथ उसके अर्थ की निजी नई कल्पना को लिये हुए अभिव्यक्ति करना और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पद का अर्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र बतलाना अर्थ का अनर्थ करना अथवा खींचतान की पराकाष्ठा है। इससे उत्तर की १३६. अनेकान्त / वर्ष ८ / किरण ३ / ५. १३० । For Personal & Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ संगति और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओं में दर्शन, ज्ञान और चारित्र विवेचित हैं, प्रतिपादित हैं, बल्कि यह कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाएँ विवेचित हैं, प्रतिपादित हैं, जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस तरह आधार-आधेयसम्बन्धादि की सारी स्थिति बिगड़ जायगी, और तब श्लेषरूप में यह भी फलित नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्द की टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं, जहाँ पर पूज्यपाद की टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है। "इन दोनों बाधाओं के सिवाय श्लेष की यह कल्पना अप्रासंगिक भी जान पड़ती है, क्योंकि रत्नकरण्ड के साथ उसका कोई मेल नहीं मिलता, रत्नकरण्ड तत्त्वार्थसूत्र की कोई टीका भी नहीं, जिससे किसी तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिठलाया जाता, वह तो आगम की ख्याति को प्राप्त एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादि की उक्त टीकाओं का कोई आधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। और इसलिये उसके साथ उक्त श्लेष का आयोजन एक प्रकार का असम्बद्ध प्रलाप ठहरता है अथवा यों कहिये कि 'विवाह तो किसी का और गीत किसी के' इस उक्ति को चरितार्थ करता है। यदि विना सम्बन्धविशेष के केवल शब्दछल को लेकर ही श्लेष की कल्पना अपने किसी प्रयोजन के वश की जाय और उसे उचित समझा जाय, तब बहुत कुछ अनर्थों के सङ्घटित होने की सम्भावना है। उदाहरण के लिये स्वामिसमन्तभद्र-प्रणीत जिनशतक के उपान्त्य पद्य (नं० ११५) में भी 'प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा' इस वाक्य के अन्तर्गत 'सर्वार्थसिद्धि' पद का प्रयोग पाया जाता है और ६१वें पद्य में तो 'प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां' इस वाक्य के साथ उसका रूप और स्पष्ट हो जाता है, उसके साथवाले 'गां' पद का अर्थ वाणी लगा लेने से वह वचनात्मिका 'सर्वार्थसिद्धि' हो जाती है। इस ‘सर्वार्थसिद्धि' का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थ की तरह पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' लगाया जायगा, तो स्वामी समन्तभद्र को भी पूज्यपाद के बाद का विद्वान् कहना होगा और तब पूज्यपाद के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस व्याकरणसूत्र में उल्लिखित समन्तभद्र चिन्ता के विषय बन जायेंगे तथा और भी शिलालेखों, प्रशस्तियों तथा पट्टावलियों आदि की कितनी ही गड़बड़ उपस्थित हो जायगी। अतः सम्बन्धविषय को निर्धारित किये बिना केवल शब्दों के समानार्थ को लेकर ही श्लेषार्थ की कल्पना व्यर्थ है। - "इस तरह जब श्लेषार्थ ही सुघटित न होकर बाधित ठहरता है, तब उसके आधार पर यह कहना कि "रत्नकरण्ड के इस उल्लेख पर से निर्विवादतः सिद्ध हो जाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपाद के पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलंक और विद्यानन्द से भी पीछे की है" कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९७ है। उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता, रत्नकरण्ड के 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य' पद्य का न्यायावतार में पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह केवल उत्तर के लिये किया गया प्रयास मात्र है और इसी से उस को प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहब को अपने पूर्वकथन के विरोध का भी कुछ ख्याल नहीं रहा, जैसा कि मैं इससे पहले द्वितीयादि आपत्तियों के विचार की भूमिका में प्रकट कर चुका हूँ। "यहाँ पर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि प्रो० साहब श्लेष की कल्पना के बिना उक्त पद्य की रचना को अटपटी और अस्वाभविक समझते हैं, परन्तु पद्य का जो अर्थ ऊपर दिया गया है और जो आचार्य प्रभाचन्द्रसम्मत है, उससे पद्य की रचना में कहीं भी कुछ अपटपटापन या अस्वाभाविकता का दर्शन नहीं होता है। वह बिना किसी श्लेषकल्पना के ग्रन्थ के पूर्व कथन के साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता हुआ ठीक उसके उपसंहाररूप में स्थित है। उसमें प्रयुक्त हुए 'विद्या', 'दृष्टि' जैसे शब्द पहले भी ग्रन्थ में ज्ञान-दर्शन जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, उनके अर्थ में प्रो० साहब को कोई विवाद भी नहीं है। हाँ, 'विद्या' से श्लेषरूप में 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी कल्पना है, जिसके समर्थन में कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया, केवल नाम का एकदेश कहकर उसे मान्य कर लिया है। १३७ तब प्रो० साहब की दृष्टि में पद्य की रचना का अटपटापन या अस्वाभाविकपन एकमात्र वीतकलंक शब्द के साथ केन्द्रित जान पड़ता है, उसे ही सीधे वाच्य-वाचक-सम्बन्ध का बोधक न समझकर आपने उदाहरण में प्रस्तुत किया है। परन्तु 'सम्यक' शब्द के लिये अथवा उसके स्थान पर 'वीतकलंक' शब्द का प्रयोग छन्द तथा स्पष्टार्थ की दृष्टि से कुछ भी अटपटा, असंगत या अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि 'कलंक' का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है।३८ और उसके साथ में 'वीत' १३७. जहाँ तक मुझे मालूम है संस्कृतसाहित्य में श्लेषरूप से नाम का एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुष के लिये उसका पुंल्लिंग अंश और स्त्री के लिये स्त्रीलिंग अंश ग्रहण किया जाता है, जैसे 'सत्यभामा' नाम की स्त्री के लिये 'भामा' अंश का प्रयोग होता है न कि सत्य अंश का। इसी तरह 'विद्यानन्द' नाम का 'विद्या' अंश, जो कि स्त्रीलिंग है, पुरुष के लिये व्यवहत नहीं होता। चुनाँचे प्रो० साहब ने श्लेष के उदाहरणरूप में जो 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्तया' नामका पद्य उद्धृत किया है, उसमें विद्यानन्द का 'विद्या' नाम से उल्लेख न करके पूरा ही नाम दिया है। विद्यानन्द का 'विद्या' नाम से उल्लेख का दूसरा कोई भी उदाहरण देखने में नहीं आता। १३८. 'कलङ्कोऽङ्के कालायसमले दोषापवादयोः।' विश्वलोचन कोश। दोष के अर्थ में कलंक शब्द के प्रयोग का एक सुस्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है- . अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्वित्तसम्भवम्। कलङ्कमङ्किनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ १५॥ ज्ञानार्णव। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ विशेषण विगत, मुक्त, त्यक्त, विनष्ट अथवा रहित जैसे अर्थ का वाचक है, जिसका प्रयोग समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थों में भी ऐसे स्थलों पर पाया जाता है, जहाँ श्लेषार्थ का कोई काम नहीं, जैसे आप्तमीमांसा के 'वीतरागः ' तथा 'वीतमोह: ' पदों में, स्वयम्भूस्तोत्र के 'वीतघनः' तथा 'वीतरागे' पदों में, युक्त्यनुशासन के 'वीतविकल्पधी : ' और जिनशतक के 'वीतचेतो - विकाराभिः ' पद में। जिसमें से दोष या कलंक निकल गया अथवा जो उससे मुक्त है, उसे वीतदोष, निर्दोष, निष्कलंक, अकलंक तथा वीतकलंक जैसे नामों से अभिहित किया जाता है, जो सब एक ही अर्थ के वाचक पर्यायनाम हैं। वास्तव में जो निर्दोष है, वही सम्यक् ( यथार्थ ) कहे जाने के योग्य है, दोषों से युक्त अथवा पूर्ण को सम्यक् नहीं कह सकते। रत्नकरण्ड में सत्, सम्यक् समीचीन, शुद्ध और वीतकलंक इन पाँचों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है और वह है यथार्थता - निर्दोषता, जिसके लिये स्वयंम्भूस्तोत्र में समञ्जस शब्द का भी प्रयोग किया गया है। इनमें 'वीतकलंक' शब्द सबसे अधिक, 'शुद्ध' से भी अधिक स्पष्टार्थ को लिये हुए है और वह अन्त में स्थित हुआ अन्तदीपक की तरह पूर्व में प्रयुक्त हुए 'सत्' आदि सभी शब्दों की अर्थदृष्टि पर प्रकाश डालता है, जिसकी जरूरत थी, क्योंकि 'सत्', 'सम्यक्' जैसे शब्द प्रशंसादि के भी वाचक हैं। प्रशंसादि किस चीज में है? दोषों के दूर होने में है । उसे भी 'वीतकलंक' शब्द व्यक्त कर रहा है। दर्शन में दोष शंकामूढतादिक, ज्ञान में संशय-विपर्ययादिक और चारित्र में रागद्वेषादि होते हैं । इन दोषों से रहित जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, वे ही वीतकलंक अथवा निर्दोष दर्शन - ज्ञान - चारित्र हैं, उन्हीं रूप जो अपने आत्मा को परिणत करता है, उसे ही लोकपरलोक के सर्व अर्थों की सिद्धि प्राप्त होती है । यही उक्त उपान्त्य पद्य का फलितार्थ है और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पद्य में 'सम्यक्' के स्थान पर 'वीतकलंक' शब्द का प्रयोग बहुत सोच-समझकर गहरी दूरदृष्टि के साथ किया गया है । छन्द की दृष्टि से भी वहाँ सत्, सम्यक्, समीचीन, शुद्ध या समञ्जस जैसे शब्दों में से किसी का प्रयोग नहीं बनता और इसलिये 'वीतकलंक' शब्द का प्रयोग श्लेषार्थ के लिये अथवा द्राविडी प्राणयाम के रूप में नहीं है, जैसा कि प्रोफेसर साहब समझते हैं। यह बिना किसी श्लेषार्थ की कल्पना के ग्रन्थसन्दर्भ के साथ सुसम्बद्ध और अपने स्थान पर सुप्रयुक्त है।" (जै. सा. इ.वि.प्र. / खं.१/ पृ. ४७५-४७९)। 44 'अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि ग्रन्थ का अन्तःपरीक्षण करने पर उसमें कितनी ही बातें ऐसी पाई जाती हैं, जो उसकी अति प्राचीनता की द्योतक हैं, उसके कितने ही उपदेशों, आचारों, विधि-विधानों अथवा क्रियाकाण्डों की तो परम्परा भी टीकाकार प्रभाचन्द्र के समय में लुप्त हुई-सी जान पड़ती है, इसी से वे उन पर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल सके और न बाद को ही किसी के द्वारा वह डाला For Personal & Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९९ जा सकता है, जैसे 'मूर्धरुह-मुष्टि-वासो-बन्धं' और 'चतुरावर्तत्रितय' नामक पद्यों में वर्णित आचार की बात। अष्ट-मूलगुणों में पञ्च अणुव्रतों का समावेश भी प्राचीन परम्परा का द्योतक है, जिसमें समन्तभद्र से शताब्दियों बाद भारी परिवर्तन हुआ और उसके अणुव्रतों का स्थान पञ्च उदम्बरफलों ने ले लिया। १३९ एक चाण्डालपुत्र को 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाने और एक गृहस्थ को मुनि से भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश भी बहुत प्राचीनकाल के संसूचक हैं, जब कि देश और समाज का वातावरण काफी उदार और सत्य को ग्रहण करने में सक्षम था। परन्तु यहाँ उन सब बातों के विचार एवं विवेचन का अवसर नहीं है, वे तो स्वतन्त्र लेख के विषय हैं, अथवा अवसर मिलने पर समीचीन-धर्मशास्त्र की प्रस्तावना में उनपर यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा। यहाँ मैं उदाहरण के तौरपर सिर्फ दो बातें ही निवेदन कर देना चाहता हूँ और वे इस प्रकार हैं "क-रत्नकरण्ड में सम्यग्दर्शन को तीन मूढताओं रहित बतलाया है और उन मूढताओं में पाखण्डिमूढता का भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप दिया है, वह इस प्रकार है सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्। पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम्॥ २४॥ "जो सग्रन्थ हैं (धनधान्यादि परिग्रह से युक्त हैं), आरम्भसहित हैं (कृषि-वाणिज्यादि सावद्यकर्म करते हैं), हिंसा में रत हैं और संसार के आवर्तों में प्रवृत्त हो रहे हैं (भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कर्मों द्वारा दुनिया के चक्कर अथवा गोरखधन्धे में फंसे हुए हैं), ऐसे पाखण्डियों का, वस्तुतः पाप के खण्डन में प्रवृत्त न होनेवाले लिंगी साधुओं का जो (पाखण्डी के रूप में अथवा साधु-गुरु बुद्धि से) आदर-सत्कार है, उसे पाखण्डिमूढ समझना चाहिए।" . "इस पर से यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड ग्रन्थ की रचना उस समय हुई है जब कि पाखण्डी शब्द अपने मूल अर्थ में 'पापं खण्डयतीति पाखण्डी' इस नियुक्ति के अनुसार पाप का खण्डन करने के लिए प्रवृत्त हुए तपस्वी साधुओं के लिये आमतौर पर व्यवहत होता था, चाहे वे साधु स्वमत के हों या परमत के। १३९. इस विषय को विशेषतः जानने के लिये देखो लेखक का 'जैनाचार्यों का शासन भेद' नामक ग्रन्थ पृष्ठ ७ से १५। उसमें दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाण पर से यह भी जाना जाता है कि रत्नमाला की रचना उसके बाद हुई है, जब कि मूलगुणों में अणुव्रतों के स्थान पर पञ्चोदम्बर की कल्पना रूढ हो चुकी थी और इसलिए भी वह रत्नकरण्ड से शताब्दियों बाद की रचना है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ चुनाँचे मूलाचार (अ०५) में 'रत्तवडचरग-तावसपरिहत्तादीय अण्णपासंडा' वाक्य के द्वारा रक्तपटादिक साधुओं को अन्यमत के पाखण्डी बतलाया है, जिससे साफ ध्वनित है कि तब स्वमत (जैनों) के तपस्वी साधु भी 'पाखण्डी' कहलाते थे। और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थ की 'पाखंडीलिंगाणि य गिहलिंगाणि व बहुप्पयाराणि' इत्यादि गाथा नं० ४०८ आदि से भी होता है, जिनमें पाखंडीलिंग को अनगार-साधुओं (निर्ग्रन्थादि मुनियों) का लिंग बतलाया है। परन्तु पाखण्डी शब्द के अर्थ की यह स्थिति आज से कोई दशों शताब्दियों पहले से बदल चुकी है। और तब से यह शब्द प्रायः धूर्त अथवा दम्भी-कपटी जैसे विकृत अर्थ में व्यहत होता आ रहा है। इस अर्थ का रत्नकरण्ड के उक्त पद्य में प्रयुक्त हुए पाखण्डिन् शब्द के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ 'पाखण्डी' शब्द के प्रयोग को यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे (मिथ्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थ में लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकों ने भ्रमवश आधुनिक दृष्टि से ले लिया है, तो अर्थ का अनर्थ हो जाय और पाखण्डिमोहनम् पद में पड़ा हुआ 'पाखण्डिन्' शब्द अनर्थक और असम्बद्ध ठहरे। क्योंकि इस पद का अर्थ है-'पाखण्डियों के विषय में मूढ होना' अर्थात् पाखण्डी के वास्तविक ४० स्वरूप को न समझकर अपाखण्डियों अथवा पाखण्ड्याभासों को पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप आदर-सत्कार का व्यवहार करना। इस पद का विन्यास ग्रन्थ में पहले से प्रयुक्त देवतामूढम् पद के समान ही है, जिसका आशय है कि 'जो देवता नहीं हैं-रागद्वेष से मलीन देवताभास हैं, उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना। ऐसी हालत में 'पाखंडिन्' शब्द का अर्थ 'धूर्त' जैसा करने पर इस पद का ऐसा अर्थ हो जाता है कि 'धूर्तों के विषय में मूढ़ होना अर्थात् जो धूर्त नहीं हैं, उन्हें धूर्त समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कार का व्यवहार करना' और यह अर्थ किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता। अतः रत्नकरण्ड में 'पाखंडिन्' शब्द अपने मूल पुरातन अर्थ में ही व्यवहृत हुआ है, इसमें जरा भी सन्देह के लिये स्थान नहीं है। इस अर्थ की विकृति विक्रम सं० ७३४ से पहले हो चुकी थी और वह धूर्त जैसे अर्थ में व्यवहृत होने लगा था, इसका पता उक्त संवत् अथवा वीरनिर्वाण सं० १२०४ में बनकर समाप्त हुए श्रीरविषेणाचार्यकृत पद्मचरित के निम्न वाक्य से चलता है, जिसमें भरत चक्रवर्ती के १४०. पाखण्डी का वास्तविक स्वरूप वही है, जिसे ग्रन्थकार महोदय ने 'तपस्वी' के निम्न लक्षण में समाविष्ट किया है। ऐसे ही तपस्वी साधु पापों का खण्डन करने में समर्थ होते हैं विषयाशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ १०॥ For Personal & Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०१ प्रति यह कहा गया है कि जिन ब्राह्मणों की सृष्टि आपने की है, वे वर्द्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण के बाद कलियुग में महा-उद्धत पाखंडी हो जायेंगे। और अगले पद्य में उन्हें सदा पापक्रियोद्यताः विशेषण भी दिया गया है वर्द्धमानजिनस्याऽन्ते भविष्यन्ति कलौ युगे। ते ये भवता सृष्टाः पाखण्डिनो महोद्धताः॥ ४/११६॥ "ऐसी हालत में रत्नकरण्ड की रचना उन विद्यानन्द आचार्य के बाद की नहीं हो सकती, जिनका समय प्रो० साहब ने ई० सन् ८१६ (वि. संवत् ८७३) के लगभग बतलाया है। "ख-रत्नकरण्ड में एक पद्य निम्न प्रकार से पाया जाता है गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याऽशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः॥ १४७॥ "इसमें ११वीं प्रतिमा (कक्षा)-स्थित उत्कृष्ट श्रावक का स्वरूप बतलाते हुए, घर से मुनिवन को जाकर गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण करने की जो बात कही गई है, उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रन्थ उस समय बना है, जब कि जैन मुनिजन आमतौर पर वनों में रहा करते थे, वनों में ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थे और वहीं जाकर गुरु (आचार्य) के पास उत्कृष्ट श्रावकपद की दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति उस समय की है जब कि चैत्यवास (मन्दिर मठों में मुनियों का आमतौर पर निवास) प्रारम्भ नहीं हुआ था। चैत्यवास विक्रम की ४ थी, ५वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था, यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ पहले हुआ था, ऐसा तद्विषयक इतिहास से जाना जाता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी के 'वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय' नामक निबन्ध से भी इस विषय पर कितना ही प्रकाश पड़ता है।०१ और इसलिये भी रत्नकरण्ड की रचना विद्यानन्द आचार्य के बाद की नहीं हो सकती और न उस रत्नमालाकार के समसामयिक अथवा उसके गुरु की कृति हो सकती है, जो स्पष्ट शब्दों में जैन मुनियों के लिये वनवास का निषेध कर रहा है, उसे उत्तम मुनियों के द्वारा वर्जित बतला रहा है, और चैत्यवास का खुला पोषण कर रहा है।४२ वह तो उन्हीं स्वामी समन्तभद्र की कृति होनी चाहिए जो प्रसिद्ध वनवासी थे, जिन्हें प्रोफेसर साहब ने श्वेताम्बर पट्टावलियों के आधार पर 'वनवासी' गच्छ अथवा सङ्घ के प्रस्थापक सामन्तभद्र लिखा है, जिनका श्वेताम्बरमान्य १४१. जैन साहित्य और इतिहास / प्रथम संस्करण / पृ. ३४७ से ३६९। १२. कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः॥ २२॥ रत्नमाला। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०४ समय भी दिगम्बरमान्य समय (विक्रम की दूसरी शताब्दी) के अनुकूल है और जिनका आप्तमीमांसाकार के साथ एकत्व मानने में प्रो० सा० को कोई आपत्ति भी नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/पृ. ४७९-४८२)। "रत्नकरण्ड के इन सब उल्लेखों की रोशनी में प्रो० साहब की चौथी आपत्ति और भी निःसार एवं निस्तेज हो जाती है और उनके द्वारा ग्रन्थ के उपान्त्य पद्य में की गई श्लेषार्थ की उक्त कल्पना बिल्कुल ही निर्मूल ठहरती है, उसका कहीं से भी कोई समर्थन नहीं होता। रत्नकरण्ड के समय को जाने-अनजाने रत्नमाला के रचनाकाल (विक्रम की ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध या उसके भी बाद) के समीप लाने का आग्रह करने पर यशस्तिलक के अन्तर्गत सोमदेवसूरि का ४६ कल्पों में वर्णित उपासकाध्ययन (वि.सं.१०१६) और श्रीचामुण्डराय का चारित्रसार (वि० सं० १०३५ के लगभग) दोनों रत्नकरण्ड के पूर्ववर्ती ठहरेंगे, जिन्हें किसी तरह, भी रत्नकरण्ड से पूर्ववर्ती सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों रत्नकरण्ड के कितने ही शब्दादि के अनुसरण को लिये हुए हैं। चारित्रसार में तो रत्नकरण्ड का 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' नाम का एक पूरा पद्य भी 'उक्तं च' रूप से उद्धृत है। और तब प्रो० साहब का यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार है' उनके विरुद्ध जायगा, जिसे उन्होंने धवला की चतुर्थ पुस्तक (क्षेत्रस्पर्शन अनु०) की प्रस्तावना में व्यक्त किया है१४२.१ और जिसका १४२.१. उक्त कथन प्रो० हीरालाल जी जैन ने अपने लेख 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' में किया है। (देखिये, आगे पंचम प्रकरण / पैराग्राफ ५)। यह लेख षट्खण्डागम की चौथी पुस्तक की प्रस्तावना में सम्मिलित किया गया था, जैसा कि प्रो० हीरालाल जी जैन ने इस चौथी पुस्तक के ई० सन् १९४१ में प्रकाशित प्रथम संस्करण के प्राक्कथन (पृष्ठ २) में निम्नलिखित शब्दों में सूचित किया है"---हमारे इस विवेचन को पाठक प्रस्तुत भाग की प्रस्तावना में 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' शीर्षक में देखेंगे, जिससे उन्हें पता चल जायेगा कि कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि जैसे अत्यन्त प्राचीन और प्रामाणिक आचार्यों ने गृहस्थों को सिद्धान्तशास्त्र पढ़ने का प्रतिषेध नहीं किया, किन्तु खूब उपदेश दिया है।" यह प्राक्कथन ई० सन् १९९६ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर से प्रकाशित उक्त चौथी पुस्तक के तृतीय संस्करण में मुद्रित है, किन्तु 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' लेख मुद्रित नहीं है। इसके विपरीत षट्खण्डागम-पुस्तक २ (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर/सन् १९९२ ई०) की विषयसूची (पृ.८) में प्रस्तावना' शीर्षक के नीचे 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' (पृष्ठ १-३) नामक लेख का उल्लेख है, किन्तु प्रस्तावना (पृष्ठ १-४) में इस शीर्षक के नीचे वह लेख नहीं है, जो षट्खण्डागम For Personal & Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०३ उन्हें उत्तर के चक्कर में पड़कर कुछ ध्यान रहा मालूम नहीं होता और वे यहाँ तक लिख गये हैं कि "रत्नकरण्ड की रचना का समय इस ( विद्यानन्दसमय वि० सं० ८७३) के पश्चात् और वादिराज के समय अर्थात् शक सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) से पूर्व सिद्ध होता है । इस समयावधि के प्रकाश में रत्नकरण्ड श्रावकाचार और रत्नमाला का रचनाकाल समीप आ जाते हैं और उनके बीच शताब्दियों का अन्तराल नहीं रहता । ' ,१४३ 44 'इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालोचन के साथ विचार करने पर प्रो० साहब की चारों दलीलें अथवा आपत्तियों में से एक भी इस योग्य नहीं ठहरती, जो रत्नकारण्ड श्रावकचार और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने अथवा दोनों के एककर्तृत्व में कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ हो सके और इसलिये बाधक प्रमाणों के अभाव एवं साधक प्रमाणों के सद्भाव में यह कहना न्यायप्राप्त है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार उन्हीं समन्तभद्र आचार्य की कृति है, जो आप्तमीमांसा (देवागम ) के रचयिता हैं । और यही मेरा निर्णय है ।" (जै. सा. इ.वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४८२ - ४८३) । पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' 'आप्तमीमांसा' के रचयिता समन्तभद्र की ही कृति है, विक्रम की ११वीं शती में रचित 'रत्नमाला' के कर्त्ता शिवकोटि के गुरु की नहीं । अतः यदि पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वान् 'न्यायावतार' (७वीं शती ई०) को सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं, तो उसमें 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' (तीसरी शती ई०) की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' इत्यादि कारिका के उपलब्ध होने से यह कहना कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं, सर्वथा युक्तियुक्त है। की चौथी पुस्तक के प्रथम संस्करण में प्रो० हीरालाल जी जैन के द्वारा लिखा गया था। उसके बदले प्रो० हीरालाल जी जैन की भूमिका के साथ उनके द्वारा प्रस्तुत सेठ हीरालाल नेमचंद, सोलापुर का ई. सन् १९१६ में लिखा गया 'श्रीधवल, जयधवल, महाधवल सिद्धान्तग्रन्थ श्रावकों ने पढ़ना चाहिए या नहीं, इस विषय की चर्चा' नामक लेख छपा है । षट्खण्डागम की चौथी पुस्तक के तृतीय संस्करण में प्रो० हीरालाल जी का उक्त लेख क्यों नहीं छापा गया, यह विचारणीय है। प्रमाण के लिए उक्त लेख षट्खण्डागम (पुस्तक ४) के प्रथम संस्करण (सन् १९४१ ) में देखा जा सकता है। संभव है वह द्वितीय संस्करण में भी हो । १४३. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ५-६ / पृ. ५४ । ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम प्रकरण रत्नकरण्ड और रत्नमाला में सैद्धान्तिक एवं कालगत भेद प्रस्तुत अष्टादश अध्याय के प्रथम प्रकरण में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार का 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक लेख (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. ११९-१६८) उद्धृत किया गया है। उसमें उन्होंने लिखा है कि पं० सुखलाल जी संघवी ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को 'सर्वार्थसिद्धि' के कर्त्ता पूज्यपादस्वामी से पूर्ववर्ती (विक्रम की ५वीं शताब्दी में स्थित) तथा स्वामी समन्तभद्र को पूज्यपाद से उत्तरवर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय । प्रकरण १ / शीर्षक ७ एवं ७.२)। किन्तु पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वान् ‘न्यायावतार' को भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं, जिसमें आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य म्' कारिका उपलब्ध होती है। इससे सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धसेन समन्तभद्र से उत्तरवर्ती हैं। और पूज्यपादस्वामी ने 'जैनेन्द्र-व्याकरण' में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य इन शब्दों में समन्तभद्र का उल्लेख किया है। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय । प्रकरण १/ शीर्षक ७.२)। इससे पूज्यपाद समन्तभद्र से उत्तरवर्ती ठहरते हैं। किन्तु प्रो० हीरालाल जी जैन ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक अपने लेख में यह सिद्ध करने का परिश्रम किया है कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के कर्ता वे समन्तभद्र नहीं हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा की रचना की है, अपितु उनसे बहुत बाद में उत्पन्न हुए एक अन्य समन्तभद्र जो 'रत्नमाला' के कर्ता शिवकोटि के गुरु थे, उसके कर्ता हैं। प्रो० हीरालाल जी ने आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र का समय वीरनिर्वाण संवत् ६४९ (१२२ ई०) माना है। ('जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय'। अन्तिम पैरा क्र.७)। प्रोफेसर सा० की इस उद्भावना को प्रमाणरूप में उद्धृत करते हुए पं० दलसुख मालवणिया ने अपना यह मन्तव्य प्रकट किया है कि 'न्यायावतार' (पं० सुखलाल जी संघवी के अनुसार विक्रम की ५वीं शती) में उपलब्ध 'आप्तोपज्ञमनुल्ल ध्यम्' कारिका 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' (मालवणिया जी के अनुसार विक्रम की ५वीं शती से बहुत बाद में रचित) से गृहीत नहीं है, अपितु 'न्यायावतार' की मौलिक कारिका है। अतः "उसके (रत्नकरण्डश्रावकाचार के) आधार से यह कहना कि सिद्धसेन (सन्मतिसूत्रकार) समन्तभद्र के बाद हुये, युक्तियुक्त नहीं है।" (न्यायावतारवार्तिकवृत्ति/ प्रस्ता./ पृ.१४१)। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने उपर्युक्त 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक लेख में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि पूज्यपादस्वामी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन For Personal & Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०५ से पूर्ववर्ती हैं तथा प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में उद्धृत अपने लेख 'रलकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय' में मुख्तार जी ने यह सिद्ध किया है कि 'आप्तमीमांसा' के कर्ता समन्तभद्र ही 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के कर्ता हैं। इसकी पुष्टि में मुख्तार जी ने पं० दरबारीलाल जी कोठिया के उस लेख की चर्चा की है, जिसमें उन्होंने अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमाला में पर्याप्त सैद्धान्तिक भेद है, जिससे वे क्रमशः गुरु (समन्तभद्र) और शिष्य (शिवकोटि) की रचनाएँ सिद्ध नहीं होती। इसके अतिरिक्त रत्नकरण्डश्रावकाचार में वर्णित आचार की अपेक्षा रत्नमाला में वर्णित आचार भी बहुत शिथिल दिखायी देता है, जिससे रत्नकरण्डश्रावकाचार प्राचीन काल की तथा रत्नमाला उसके बहुत बाद की, लगभग ११वीं शती ई० की रचना सिद्ध होती है। इससे साबित होता है कि 'रत्नकरण्ड' उन समन्तभद्र की रचना नहीं है, जो रत्नमालाकार शिवकोटि के गुरु थे, अपितु आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र की कृति है। (देखिए, प्रस्तुत अध्याय। प्रकरण ४/ शीर्षक ६)। ___ यतः प्रो० हीरालाल जी के अनुसार आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र ईसा की द्वितीय शती (१२२ ई०) में हुए थे और पं० सुखलाल जी संघवी के मतानुसार 'न्यायावतार', 'सन्मतिसूत्र' आदि के कर्ता सिद्धसेन विक्रम की पाँचवीं शताब्दी मे स्थित थे, अतः यह स्वतः सिद्ध होता है कि 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' कारिका 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' से ही 'न्यायावतार' में पहुंची है। फलस्वरूप सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र से उत्तरवर्ती हैं। पं० दरबारीलाल जी कोठिया के उपर्युक्त लेख का शीर्षक है-'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' यह 'अनेकान्त' के वर्ष ६/ किरण १२ / जुलाई १९४४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रत्यक्ष प्रमाण के लिए उसका सम्बन्धित अंश नीचे उद्धृत किया जा रहा। . लेख क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है? लेखक : न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया (यहाँ लेख का केवल प्रारंभिक अर्धांश उद्धृत है। पृ. ३७९-३८२) "प्रो० हीरालाल जी जैन एम० ए० ने, 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नाम के निबन्ध में कुछ ऐसी बातों को प्रस्तुत किया है, जो आपत्तिजनक हैं। उनमें से श्वेताम्बर आगमों की दश नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु-द्वितीय और आप्तमीमांसा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०५ के कर्ता स्वामी समन्तभद्र को एक ही व्यक्ति बतलाने की बात पर तो मैं 'अनेकान्त' की गत संयुक्त किरण नं० १०-११ में सप्रमाण विस्तृत विचार करके यह स्पष्ट कर आया हूँ कि नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीय और आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र एक व्यक्ति नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं और वे जुदी दो भिन्न परम्पराओं (श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों) में क्रमशः हुए हैं, स्वामी समन्तभद्र जहाँ दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान् हैं, वहाँ नियुक्तिकार भद्रबाहु छठी शताब्दी के विद्वान् हैं। __ "आज मैं प्रो० सा० की एक दूसरी बात को लेता हूँ, जिसमें उन्होंने रत्नकरण्डश्रावकाचार को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र की कृति स्वीकार न करके दूसरे ही समन्तभद्र की कृति बतलाई है और जिन्हें आपने आचार्य कुन्दकुन्द के उपदेशों का समर्थक तथा रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु संभावित किया है, जैसा कि आपके (उपर्युक्त) निबन्ध की निम्न पंक्तियों से प्रकट है "रत्नकरण्डश्रावकाचार को उक्त समन्तभद्र प्रथम (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करने के लिये जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन सबके होते हुए भी मेरा अब यह मत दृढ़ हो गया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकार की रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी, क्योंकि उसमें दोष का १४४ जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता। मैं समझता हूँ कि रत्नकरण्ड-श्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य के उपदेशों के पश्चात् उन्हीं के समर्थन में लिखा गया है। इस ग्रन्थ का कर्ता उस रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु भी हो सकता है, जो आराधना के कर्ता शिवभूति या शिवार्य की रचना कदापि नहीं हो सकती।" (अनेकान्त/वर्ष ६/किरण १२/ पृ. ३७९)। "यहाँ मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो० सा० ने आज से कुछ अर्से पहले 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' शीर्षक लेख में, जो बाद को धवला की चतुर्थ पुस्तक में भी सम्बद्ध किया गया है, रत्नकरण्डश्रावकाचार को स्वामी समन्तभद्रकृत स्वीकार किया है और उसे गृहस्थों के लिये सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययन-विषयक नियंत्रण न करने में प्रधान और पुष्ट प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यथा "श्रावकाचार का सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरि ने, 'अक्षयसुखावह' और प्रभाचन्द्र ने 'अखिल सागारधर्म को प्रकाशित करने वाला सूर्य' कहा है । इस ग्रन्थ में १४४. क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते॥ ६॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०७ श्रावकों के अध्ययन पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया, किन्तु इसके विपरीत--।" (क्षेत्रस्पर्शन/ प्रस्ता./पृ.१२)। (देखिये, इसी अध्याय में पादटिप्पणी क्र. १४२.१)। __ "किन्तु अब मालूम होता है कि प्रो० सा० ने अपनी वह पूर्व मान्यता छोड़ दी है और इसीलिये रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं मान रहे हैं। अस्तु। "प्रो० साहब ने अपने निबन्ध की उक्त पंक्तियों में रत्नकरण्डश्रावकाचार को स्वामी समन्तभद्रकृत सिद्ध करनेवाले जिन प्रस्तुत प्रमाणों की ओर संकेत किया है, वे प्रमाण वे हैं, जिन्हें परीक्षा द्वारा अनेक ग्रन्थों को जाली सिद्ध करनेवाले मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जी ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना में विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है।४५ मैं चाहता था कि उन प्रमाणों को यहाँ उद्धृत करके अपने पाठकों को यह बतलाऊँ कि वे कितने प्रबल तथा पुष्ट प्रमाण हैं, परन्तु वर्तमान सरकारी आर्डिनेंस के कारण पत्रों का कलेवर इतना कृश हो गया है कि उसमें अधिक लम्बे लेखों के लिये स्थान नहीं रहा और इसलिये मुझे अपने उक्त विचार को छोड़ना पड़ा, फिर भी मैं यहाँ इतना जरूर प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो० साहब ने अपने निबन्ध में उक्त प्रमाणों का कोई खण्डन नहीं किया-वे उन्हें मानकर ही आगे चले हैं, जैसा कि "उन सबके होते हुए भी मेरा अब यह दृढ़ मत हो गया है" इन शब्दों में प्रकट है। जान पड़ता है मुख्तार साहब ने अपने प्रमाणों को प्रस्तुत कर देने के बाद जो यह लिखा था कि "ग्रन्थ (रत्नकरण्ड श्रा०) भर में ऐसा कोई कथन भी नहीं है, जो आचार्य महोदय के दूसरे किसी ग्रन्थ के विरुद्ध पड़ता हो" इसे लेकर ही प्रो० साहब ने दोष के स्वरूप में विरोधप्रदर्शन का कुछ यत्न किया है, जो ठीक नहीं हैं और जिसका स्पष्टीकरण आगे चल कर किया जायगा।" (अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२ / पृ.३७९-८०)। "यहाँ सबसे पहले रत्नमाला के सम्बन्ध में विचार कर लेना उचित जान पड़ता है। यह रत्नमाला रत्नकरण्डश्रावकाचार-निर्माता के शिष्य की तो कृति मालूम नहीं होती, क्योंकि दोनों ही कृतियों में शताब्दियों का अन्तराल जान पड़ता है, जिससे दोनों के कर्ताओं में साक्षाद् गुरु-शिष्य-सम्बन्ध अत्यन्त दुर्घट ही नहीं, किन्तु असंभव है। साथ ही इसका साहित्य बहुत ही घटिया तथा अक्रम है। इतना ही नहीं, इसमें रत्नकरण्डश्रावकाचार से कितने ही ऐसे सैद्धान्तिक मतभेद भी पाये जाते हैं, जो प्रायः साक्षात् गुरु और शिष्य के बीच में संभव प्रतीत नहीं होते। नमूने के तौर पर यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं १४५. देखिये, प्रस्तावना पृ.५ से १५ तक। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०५ "१. रत्नकरण्ड में शिक्षा-व्रतों के चार भेद बतलाये हैं १ देशावकाशिक, २ सामयिक, ३ प्रोषधोपवास और ४ वैयावृत्य। लेकिन रत्नमाला में देशावकाशिक को छोड़ दिया गया है, यहाँ तक कि उसको किसी भी व्रत में परिगणित नहीं किया और मारणान्तिक सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में गिनाया है। यथा देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्त्यं शिक्षा-व्रतानि चत्वारि शिष्टानि॥ ९१। र.क.पा.। ---------------- -------- --------॥ सामायिकं प्रोषधोपवासोऽतिथिसु पूजनम्॥ १७॥ रत्नमाला। मारणान्तिकसल्लेख इत्येवं तच्चतुष्टयम्। ------- ----॥ १८॥ रत्नमाला। "२. रत्नकरण्ड में उत्कृष्ट श्रावक के लिये मुनियों के निवासस्थान वन में जाकर व्रतों को ग्रहण करने का विधान किया गया है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि दिगम्बर मुनि उस समय वन में ही रहा करते थे। जब कि रत्नमाला में मुनियों के लिये वन में रहना मना किया गया है। जिनमंदिर तथा ग्रामादि में ही रहने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। यथा गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः॥ १४७॥ र.क.श्रा.। कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः॥ २२॥ रत्नमाला। "इन बातों से मालूम होता है कि रत्नमाला रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता के शिष्य की कृति कहलाने योग्य नहीं है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि रत्नमाला की रचना उस समय हुई है, जब मुनियों में काफी शिथिलाचार आ गया था और इसी से पं० आशाधर जी जैसे विद्वानों को 'पंडितैर्धष्टचारित्रैः वठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्॥' कहना पड़ा। पर रत्नकरण्ड पर से रत्नकरण्डकार के समय में ऐसे किसी भी तरह के शिथिलाचार की प्रवृत्ति का संकेत नहीं मिलता और इसलिये वह रत्नमाला से बहुत प्राचीन रचना है। रत्नमाला का सूक्ष्म अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि यह यशस्तिलकचम्पू के कर्ता सोमदेव से, जिन्होंने अपने यशस्तिलक की समाप्ति शक सं० ८८१ (वि०१०१६) में की है और इस तरह जो वि० की ११वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, बहुत बाद की रचना है, क्योंकि रत्नमाला Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०९ में आ० सोमदेव का१४६ आधार है और जिनमंदिर के लिये गाय, जमीन, स्वर्ण और खेत आदि के देने का उपदेश पाया जाने से४७ यह भट्टारकीय युग की रचना जान पड़ती है। अतः रत्नमाला का समय वि० की ११वीं शताब्दी से पूर्व सिद्ध नहीं होता, जब कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ता के अस्तित्व का समय विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व का ही प्रसिद्ध होता है। जैसा कि नीचे के कुछ प्रमाणों से प्रकट है "१. वि० की ११ वीं शताब्दी के विद्वान् आ० वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित में रत्नकरण्डश्रावकाचार का स्पष्ट नामोल्लेख किया है,१४८ जिससे प्रकट है कि रत्नकरण्ड वि० की ११वीं शताब्दी (१०८२ वि०) से पूर्व की रचना है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी, तभी वह वादिराज के सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण कृति समझी जाती रही कि आ० वादिराज स्वयं उसे अक्षयसुखावह बतलाते हैं और दिष्टः कह कर उसके आगम होने का संकेत करते हैं। (अनेकान्त/ वर्ष ६ /किरण १२/ पृ. ३८०-८१)। "२. ११वीं शताब्दी के ही विद्वान् और वादिराज के कुछ समय पूर्ववर्ती आ० प्रभाचन्द्र ने४९ प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक ख्यात टीका लिखी है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में रत्नकरण्ड के साथ प्रकाशित हो चुकी है और जिससे भी प्रकट है कि यह ग्रन्थ ११वीं सदी से पूर्व का है। श्रीप्रभाचन्द्र ने इस ग्रन्थ को स्वामी समन्तभद्रकृत स्पष्ट लिखा है। यथा "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो ---।" १४६. क- सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम्॥ ४८०॥ यशस्तिलकचम्पू। ख-सर्वमेव विधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सताम्। यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खण्डनम्॥ ६५॥ रत्नमाला। १४७. गोभूमिस्वर्णकच्छादिदानं वसतयेऽर्हताम्। ----------- ॥२८॥ रत्नमाला। १४८. त्यागी स एव योगीन्द्रः येनाऽक्षय्यसुखावहः। अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः॥ १९॥ १४९. इनका समय पं० महेन्द्रकुमार जी ने ई० ९८० से १०६५ दिया है। (न्यायकुमुदचन्द्र/ द्वितीयभाग की प्रस्तावना)। For Personal & Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ५ 44 'अतः इन दो स्पष्ट समकालीन उल्लेखों से यह निश्चित है कि रत्नकरण्ड ११वीं शताब्दी के पहले की रचना है, उत्तरकालीन नहीं । " ३. आ० सोमदेव (वि० सं० १०१६) के यशस्तिलक में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का कितना ही उपयोग हुआ है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं र. क. श्री. यशस्तिलक र.क. श्री. यशस्तिलक — क स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्यीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ २६ ॥ यो मदात्समयस्थानामवह्लादेन मोदते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ पृ. ४१४ ॥ ख नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥ ८७ ॥ यमश्च नियमश्चेति द्वे त्याज्ये वस्तुनी स्मृते । यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिर्नियमः स्मृतः ॥ पृ. ४०३ ॥ "इससे साफ है कि रत्नकरण्ड और उसके कर्ता का अस्तित्व सोमदेव (वि० १०१६ ) से पूर्व का है। " ( अनेकान्त / वर्ष ६ / किरण १२ / पृ. ३८१) । " ४. विक्रम की ७वीं शताब्दी के आ० सिद्धसेन दिवाकर के प्रसिद्ध न्यायावतार ग्रन्थ में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य' श्लो० ९ ज्यों का त्यों पाया जाता है, जो दोनों ही ग्रन्थों के संदर्भों का ध्यान से समीक्षण करने पर निःसंदेह रत्नकरण्ड का ही पद्य स्पष्ट प्रतीत होता है । रत्नकरण्ड में जहाँ वह स्थित है, वहाँ उसका मूलरूप से होना अत्यन्त आवश्यक है । किन्तु यह स्थिति न्यायावतार के लिये नहीं है, वहाँ यह श्लोक मूलरूप में न भी रहे, तो भी ग्रन्थ का कथन भंग नहीं होता । क्योंकि वहाँ परोक्षप्रमाण के 'अनुमान' और 'शाब्द' ऐसे दो भेदों को बतलाकर स्वार्थानुमान के कथन के बाद 'स्वार्थ शाब्द' का कथन करने के लिये श्लोक ८ रचा गया है और इसके बाद उपर्युक्त आप्तोपज्ञ श्लोक दिया गया है। परार्थ शाब्द और परार्थ अनुमान को बतलाने के लिये भी आगे स्वतंत्र - स्वतंत्र श्लोक हैं, अतः यह पद्य श्लोक ८ में उक्त विषय के समर्थनार्थ ही रत्नकरण्ड से अपनाया गया है, १५० यह १५०. विशेष के लिये देखिये, 'स्वामी समन्तभद्र / पृ. १२७ से १३२ । For Personal & Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८ / प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६११ स्पष्ट है। और उसे अपनाकर ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ का उसी प्रकार अङ्ग बना लिया है, जिस प्रकार अकलङ्कदेव ने आप्तमीमांसा की 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' कारिका को अपनाकर अपने न्यायविनिश्चय में कारिका ४१५ के रूप में ग्रन्थ का अंग बना लिया है। न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि ने, जिनका समय ९वीं शताब्दी है, इस पद्य की टीका भी की है, इससे रत्नकरण्ड की सत्ता निश्चय ही ९वीं और ७वीं शताब्दी से पूर्व पहुँच जाती है। "५. ईसा की पाँचवीं (विक्रम की छठी) शताब्दी के विद्वान् आ० पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में रत्नकरण्डश्रावकाचार के कितने ही पद, वाक्यों और विचारों का शब्दशः और अर्थशः अनुसरण किया है, जिसका मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जी ने अपने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक लेख में अच्छा प्रदर्शन किया है।५१ यहाँ उसके दो नमूने दिये जाते है क . र. क. श्रा. - तिर्यक्क्लेश-वणिज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्गः प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः॥ ७६॥ स.सि. - तिर्यक्क्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोदेशः। ७/२१/७०३/पृ. २६४। र. क. श्रा. - अभिसन्धिकृता विरति:---व्रतं भवति॥ ८६॥ स. सि.. - व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। ७/१/६६५/पृ. २६४। "ऐसी हालत में छठी शताब्दी से पूर्व के रचित रत्नकरण्ड के कर्ता (समन्तभद्र) ११वीं शताब्दी के उत्तरवर्ती रत्नमालाकार शिवकोटि के गुरु कदापि नहीं हो सकते। "अतः उपर्युक्त विवेचन से जहाँ यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड के कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटि के साक्षात् गुरु नहीं हैं, वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि निकरण्डश्रावकाचार सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद (४५० ई०) से पूर्व की कृति है।" (अनेकान्त/वर्ष ६/ किरण १२/ पृ.३८१-८२)। (लेख समाप्त)। । उपर्युक्त प्रमाण यह भी सिद्ध कर देते हैं कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र से पूर्ववर्ती नहीं, अपितु, उत्तरवर्ती हैं। १. देखिये, अनेकान्त / वर्ष ५/किरण १०-११ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०५ विद्वद्वर पं० दरबारीलाल जी कोठिया ने अनेकान्त ( वर्ष ६/ किरण १०-११/ जून १९४४ ) में 'क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और समन्तभद्र एक हैं?' इस शीर्षक से एक लेख लिखकर प्रो० हीरालाल जी जैन की इस मान्यता का भी सप्रमाण खण्डन किया है कि नियुक्तिकार श्वेताम्बराचार्य भद्रबाहु ही स्वामी समन्तभद्र थे। कोठिया जी का यह लेख दशम अध्याय (प्रकरण ८/ शीर्षक २.१०) में उद्धृत किया जा चुका है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ प्रकरण रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसादि में शब्दार्थसाम्य माननीय कोठिया जी ने 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' इस लेख के उत्तर भाग (पृ.३८४-३८५) में १५२ रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसादि ग्रन्थों में उपलब्ध शब्दार्थसाम्य के उदाहरण देकर यह भी सिद्ध किया है कि आप्तमीमांसादि ग्रन्थों के कर्ता समन्तभद्र ही 'रत्नकरण्ड' के कर्ता हैं, जो पूर्वोक्त प्रकार से इस बात का प्रमाण है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र के पश्चात् हुए हैं। उनके शब्द इस प्रकार हैं "आप्तमीमांसाकार ही रत्नकरण्ड के कर्ता हैं, इस बात को मैं अन्तःपरीक्षण द्वारा भी प्रकट कर देना चाहता हूँ, ताकि फिर दोनों के कर्तृत्व के सम्बन्ध में कोई संदेह या भ्रम न रहे "१. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ९ में शास्त्र के लक्षण में एक खास पद दिया गया है, जो बड़े महत्त्व का है और जो निम्न प्रकार है 'अदृष्टेष्टविरोधकम्। --- शास्त्रं ---' ॥ ९॥ र.क.बा.। "स्वामी समन्तभद्र शास्त्र के इसी लक्षण को युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्र में देते हैं। यथा क-दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते॥ ४८॥ युक्त्यनुशासन। ख-युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्---अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ ६॥ __ आप्तमीमांसा। -ग-दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः॥ १३८॥ स्वयम्भूस्तोत्र । "यहाँ तीनों जगह शास्त्र का वही लक्षण दिया है, जिसे रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है और जिसे यहाँ तार्किकरूप दिया है। पाठक देखेंगे कि यहाँ शब्द और अर्थ प्रायः दोनों एक हैं। (अनेकान्त/वर्ष६/किरण १२/ पृ.३८४)। "२. रत्नकरण्ड में ब्रह्मचर्यप्रतिमा का लक्षण करते हुए कहा गया है कि 'पूतिगन्धि बीभत्सम्---अङ्गम्' (र.क. श्रा. १४३) और यही स्वयंभूस्तोत्र में सुपार्श्वजिन १५२. 'अनेकान्त'/ वर्ष ६/किरण १२ / जुलाई १९४४ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ / जैनपरप्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०६ की स्तुति में कहा है '--- जीवधृतं शरीरम्। बीभत्सु पूति क्षयि' (श्लोक ३२)। ये दोनों वाक्य स्पष्ट ही एक व्यक्ति की भावना को बंतलाते हैं। "३. रत्नकरण्डश्रावकाचार में आप्त का लक्षण निम्नलिखित किया गया है, जो खास ध्यान देने योग्य है आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्॥ ५॥ , "इस श्लोक को पाठक, आप्तमीमांसा की निम्न कारिकाओं के साथ पढ़ने का कष्ट करें सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः॥ ३॥ दोषावरणयोहानि-निश्शेषाऽस्त्यति-शायनात्। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥ ४॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्। अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ ६॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम्। आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते॥ ७॥ "यहाँ देखेंगे कि रत्नकरण्ड में आप्त का आगमिक दृष्टि से जो स्वरूप बताया गया है, उसे ही समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की इन कारिकाओं में विभिन्न दार्शनिकों के सामने दार्शनिक ढंग से अन्ययोगव्यवच्छेदपूर्वक रक्खा है और प्रतिज्ञात आप्तस्वरूप को ही अपूर्व शैली से सिद्ध किया है। 'आप्त' के लिये सबसे पहिले उच्छिन्नदोष होना आवश्यक और अनिवार्य है, फिर सर्वज्ञ और इसके बाद शास्ता। जो इन तीन बातों से विशिष्ट है, वही सच्चा आप्त है। इसके बिना 'आप्तता' संभव नहीं है। समन्तभद्र आप्तमीमांसा में इसी बात को युक्ति से सिद्ध करते हैं। 'दोषावरणयोः' कारिका के द्वारा उच्छिन्नदोष, 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' के द्वारा सर्वज्ञ और 'स त्वमेवासि निर्दोषो' तथा 'त्वन्मतामृत' इन दो कारिकाओं के द्वारा शास्ता-अविरोधिवक्ता प्रकट किया है। सबसे बड़े महत्त्व की बात तो यह है कि रत्नकरण्ड में आप्तत्व के प्रयोजक क्रम-विकसित जिन गुणों का प्रतिपादन-क्रम रक्खा है, उसे ही आप्तमीमांसा में अपनाया और प्रस्फुटित किया है। 'ह्यन्यथा आप्तता न भवेत्' और 'सर्वेषामाप्तता नास्ति' ये Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०६ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६१५ दोनों पद तो प्रायः एक हैं और इसलिये जो एक दूसरे का ऐक्य बतलाने के लिये खास महत्त्व के हैं और जो किसी भी प्रकार उपेक्षणीय नहीं हैं। अन्यथा आप्तता क्यों नहीं बन सकती? इसका स्पष्ट खुलासा रत्नकरण्डश्रावकाचार में नहीं मिलता और जिसका न मिलना स्वाभाविक है, क्योंकि रत्नकरण्ड आगमिक और विधिपरक रचना है, साथ में संक्षिप्त और विशद गृहस्थाचार की प्रतिपादक एक कृति है। सुकुमारमति गृहस्थों को वे यहाँ युक्तिजाल में आबद्ध करना (लपेटना) ठीक नहीं समझते, किन्तु वे इसका खुलासा आप्तमीमांसा की 'त्वन्मतामृतबाह्यानां' आदि कारिकाओं में करते हैं और कहते हैं कि उच्छिन्नदोषत्वादि के न होने से सदोषता में आप्तता नहीं बन सकती है। अतः यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसादि के कर्ता एक हैं और वे स्वामी समन्तभद्र हैं। (अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२ / पृ. ३८४-८५)। "यहाँ यह शंका उठ सकती है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार के भाषासाहित्य और. प्रतिपादनशैली के साथ आप्तमीमांसादि के भाषासाहित्य और प्रतिपादनशैली का मेल नहीं खाता। रत्नकरण्डश्रावकाचार की भाषा अत्यन्त सरल और स्पष्ट है, प्रतिपादनशैली भी प्रसन्न है, पर गहरी नहीं है, जब कि आप्तमीमांसादि कृतियों की भाषा अत्यन्त गूढ और जटिल है, थोड़े में अधिक का बोध कराने वाली है, प्रतिपादनशैली गंभीर और सूत्रात्मक है। अतः इन सब का एक कर्ता नहीं हो सकता? यह शंका एककर्तृकता में कोई बाधक नहीं है। रत्नकरण्डश्रावकाचार आगमिक दृष्टि से लिखा गया है और उसके द्वारा सामान्य लोगों को भी जैनधर्म का प्राथमिक ज्ञान कराना लक्ष्य है। आप्तमीमांसादि दार्शनिक कृतियाँ हैं और इसलिये वे दार्शनिक ढंग से लिखी गई हैं। उनके द्वारा विशिष्ट लोगों को, जगत् के विभिन्न दार्शनिकों को जैनधर्म के सिद्धान्तों का रहस्य समझाना लक्ष्य है। "दूर नहीं जाइये, अकलंक को ही लीजिये। अकलंकदेव जब तत्त्वार्थसूत्र पर अपना तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य रचते हैं, तो वहाँ उनका भाषासाहित्य कितना सरल और विशद हो जाता है, प्रतिपादनशैली न गंभीर है और न गूढ़ है। किन्तु वही अकलंक जब लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और अष्टशती इन दार्शनिक कृतियों की रचना करते हैं, तो उनकी प्रतिपादनशैली कितनी अधिक सूत्रात्मक, दुरवगाह और गंभीर हो जाती है, वाक्यों का विन्यास कितना गूढ और जटिल हो जाता है कि उनके टीकाकार बरबस कह उठते हैं कि अकलंक के गूढ पदों का अर्थ व्यक्त करने की हममें सामर्थ्य नहीं है।५३ अतः जिस प्रकार अकलंकदेव का राजवार्तिकभाष्य १५३. देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः। न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि॥ अनन्तवीर्य। For Personal & Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १८ / प्र०६ आगमिक दृष्टि से लिखा होने से सरल और विशद है और प्रमाणसंग्रहादि दार्शनिकदृष्टि से लिखे होने से जटिल और दुरवगाह हैं, फिर भी इन सबका कर्ता एक है और वे अकलंकदेव हैं, उसी प्रकार 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' आगमिक दृष्टिकोण से लिखा गया है और आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र दार्शनिक दृष्टिकोण से । अतः इन सबका कर्ता एक ही है और वे हैं स्वामी समन्तभद्र ।" ( अनेकान्त / वर्ष ६ / किरण १२/पृ.३८५) ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता माननीय डॉ० ए० एन० उपाध्ये और उनका अनुसरण करनेवाली श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र की यापनीयग्रन्थ के रूप में पहचान की है । किन्तु उनके द्वारा उपस्थापित हेतु भी या तो असत्य हैं या हेतु की परिभाषा में नहीं आते। डॉ० उपाध्ये ने 'सिद्धसेन का न्यायावतार और अन्य कृतियाँ' नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना में १५४ उन हेतुओं की चर्चा की है। दोनों ग्रन्थकारों के हेतुओं को यहाँ यापनीय-पक्ष शीर्षक के नीचे दिखलाया जा रहा है और दिगम्बरपक्ष शीर्षक के अन्तर्गत उनकी असत्यता या हेत्वाभासता प्रदर्शित की जा रही है। १ यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये – श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के लिए श्रुतकेवली विशेषण का प्रयोग किया है। १५५ आचार्यों के लिये इस विशेषण का प्रयोग यापनीयपरम्परा में मिलता है, जैसे यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने अपने व्याकरणग्रन्थ की समाप्ति पर लिखा है - " इति श्रीश्रुतकेवलिदेशीयाचार्यस्य शाकटायनस्य कृतौ शब्दानुशासने ।" इससे सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय थे। दिगम्बरपक्ष इस उदाहरण से तो यापनीय आचार्यों के साथ श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण का प्रयोग किया जाना सिद्ध होता है न कि श्रुतकेवली का। डॉ० सागरमल जी का कथन है कि श्वेताम्बरपरम्परा में भी प्राचीन आचार्यों के लिए 'श्रुतकेवली' विशेषण का प्रयोग होता था । (जै.ध.या.स./ पृ. २३२ ) । इसलिए इस उभयपक्षी विशेषण के आधार पर न तो वे श्वेताम्बर सिद्ध हो सकते हैं, न यापनीय । उभयपक्षी होने से यह हेतु नहीं, हेत्वाभास है। मेरे विचार से हरिभद्रसूरि ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को श्रुतकेवली के १५४. Siddhasena's Nyāyāvatār and other works, Introduction, p. Xiii to ZViii. (जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २३२-२३७)। १५५. भण्णइ एगंतेणं अम्हाणं कम्मवायणो इट्ठो । ण णो सहाववाओ सुअकेवलिणा जओ भणियं ॥ १०४७ ॥ आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए प इट्ठिअजसेणं । दूसमणिसादिवागर कप्पत्तणओ तदक्खेणं ॥ १०४८ ॥ पञ्चवस्तु । ( श्रीमती डॉ. कुसुम पटोरिया : यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४१ ) For Personal & Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ७ अनुरूप आदर प्रदान करने के लिए अपनी परम्परानुसार इस विशेषण से विभूषित किया है। दिगम्बराचार्यों ने सिद्धसेन और उनके सन्मतिसूत्र का अनेकत्र उल्लेख किया है, किन्तु 'श्रुतकेवली' विशेषण का प्रयोग नहीं किया। यदि वे यापनीय होते, तो समकालीन दिगम्बर आचार्यों से उनका सम्प्रदाय छिपा न रहता । हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन, आदिपुराण के कर्त्ता जिनसेन, पद्मपुराणकार रविषेण तथा धवलाकार वीरसेन स्वामी समकालीन यापनीय आचार्यों से सुपरिचित रहे होंगे । यदि सन्मतिसूत्र यापनीयचार्य की कृति होती, तो वे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के समर्थक जैनाभासी आचार्य को अपनी परम्परा के आचार्यों एवं गुर्वावलियों में परिगणित कर एवं उनकी सूक्तियों को अपने ग्रन्थों में प्रमाणरूप से उद्धृत कर प्रगाढ़ भक्ति और श्रद्धा प्रकट न करते । २ यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये – सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर - आगमों से कुछ बातों में विरोध है, इसीलिए उसे श्वेताम्बरप्रबन्धों में स्थान नहीं मिला। यह सन्मतिसूत्रकार के यापनीय होने का प्रमाण है। दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार का मुख्यतः उपयोग- अभेदवाद की अपेक्षा श्वेताम्बर - आगमों से विरोध है। यह उनके श्वेताम्बर न होने का प्रमाण तो है, किन्तु यापनीय होने का प्रमाण नहीं है, क्योंकि अभेदवाद यापनीयों का सिद्धान्त था, यह किसी अन्य स्रोत से प्रमाणित नहीं है। इसके विपरीत यापनीय श्वेताम्बर - आगमों को मानते थे, यह सुप्रसिद्ध है, अतः श्वेताम्बर - आगम-मान्य क्रमवाद यापनीयों को भी मान्य था, यह स्वतः फलित होता है। यह केवल दिगम्बरों को अमान्य था, अतः सन्मतिसूत्र में उसका खण्डन एवं अभेदवाद का प्रतिपादन दिगम्बरमान्यताओं के अनुरूप होने से सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिगम्बर ही हैं । यतः उपयोग- अभेदवाद यापनीयों का सिद्धान्त नहीं था, अतः यह हेतु असत्य है । यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये—'पंचम द्वात्रिंशिका' में महावीर के विवाहित होने का संकेत है। यह सिद्धसेन के यापनीय होने का सूचक है। For Personal & Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र० ७ दिगम्बरपक्ष इस द्वात्रिंशिका में युगपद्वाद का प्रतिपादन है, जो सन्मतिसूत्र के अभेदवाद के विरुद्ध है। अतः वह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है, सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की नहीं। फलस्वरूप उसके वर्ण्यविषय के आधार पर सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन यापनीय सिद्ध नहीं होते। चूँकि 'पंचम द्वात्रिंशिका' सन्मतिसूत्रकार की कृति नहीं है, अतः यह हेतु भी असत्य है। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६१९ ४ यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये - निश्चयद्वात्रिंशिका में कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हैं, जो सिद्धसेन की यापनीय-सम्प्रदायगत मान्यताएँ हो सकती हैं, उन्हीं के कारण उन्हें द्वेष्यश्वेतपट कहा गया है। दिगम्बरपक्ष निश्चयद्वात्रिंशिका में वर्णित मान्यताएँ सन्मतिसूत्र के सर्वथा विरुद्ध हैं, अतः यह सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति नहीं है। देापवेनपट (शत्रु मारे जाने योग्य प्रवेताम्बर। विशेषण तो इस द्वात्रिंशिकाकार के श्वेताम्बर होने का ही सूचक है । निश्चय - द्वात्रिंशिका के सन्मतिसूत्रकार की कृति न होने से प्रस्तुत हेतु भी असत्य है । यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये—सिद्धसेन के परम्परा से भिन्न मतों को उनके प्रगतिशील होने का ही लक्षण मानना उचित नहीं है, अपितु संभव है कि वे मान्यताएँ यापनीयसम्प्रदाय से सम्बन्ध रखती हों । दिगम्बरपक्ष वे मान्यताएँ यापनीयसम्प्रदाय से सम्बन्ध रखती हैं, इसे सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । इसलिए प्रमाण के बिना उन्हें यापनीयसम्प्रदाय की मान्यताएँ मान लेना अप्रामाणिक होगा । अभेदवाद की मान्यता दिगम्बरों के यौगपद्यवाद के निकट है, अतः उसके प्रतिपादक सिद्धसेन एक प्रगतिशील दिगम्बर सिद्ध होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ६ यापनीयपक्ष डॉ० उपाध्ये – सिद्धसेन कर्नाटक के थे, क्योंकि कर्नाटकोत्पन्न कुन्दकुन्द और मूलाचार के कर्ता वट्टकेर की गाथाओं से 'सन्मन्तिसूत्र' की गाथाओं का साम्य है। यापनीयों का सम्बन्ध भी कर्नाटक से रहा है । अतः सिद्धसेन यापनीय थे । दिगम्बरपक्ष कर्नाटक से सम्बन्ध तो कुन्दकुन्द और वट्टकेर जैसे दिगम्बराचार्यों का भी रहा है । अत: कर्नाटक से सम्बन्ध रखनेवाला हेतु उभयपक्षसाधक होने से निर्णायक नहीं है। हाँ, कुन्दकुन्द की गाथाओं और दिगम्बराचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार की गाथाओं से सन्मतिसूत्र की गाथाओं का साम्य सिद्ध करता है कि सिद्धसेन दिगम्बर थे। उभयपक्षसाधक होने से उपर्युक्त हेतु हेत्वाभास है । अ०१८ / प्र० ७ ७ यापनीयपक्ष डॉ० पटोरिया - हरिवंशपुराण तथा पद्मपुराण के कर्त्ताओं ने सिद्धसेन को अपनी गुर्वावली में प्रदर्शित किया है। किन्तु ये दोनों ग्रन्थ भी यापनीय हैं, अतः इनके कर्त्ता यापनीय हैं। फलस्वरूप इनके गुरु सिद्धसेन भी यापनीय सिद्ध होते हैं । दिगम्बरपक्ष इन दोनों पुराणों के कर्त्ता दिगम्बर हैं, यापनीय नहीं । इसके प्रमाण १९वें और २१वें अध्यायों में द्रष्टव्य हैं । अतः यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि इनके द्वारा गुर्वावली में उल्लिखित सिद्धसेन दिगम्बर ही हैं । उक्त पुराणकर्त्ताओं के यापनीय न होने से सिद्ध है कि प्रस्तुत किया हेतु असत्य है । यापनीयपक्ष डॉ० पटोरिया – सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बरग्रन्थों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है । जीतकल्पचूर्णि में सन्मतिसूत्र को सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावक ग्रन्थ कहा गया है । सिद्धिविनिश्चय भी सम्भवतः यापनीय शिवार्यकृत ग्रन्थ है, क्योंकि शाकटायनव्याकरण में शिवार्यकृत सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ का उल्लेख है । निशीथचूर्णि में भी इसी प्रकार 'सिद्धिविनिश्चय', 'सन्मति' आदि का दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में उल्लेख है । इससे सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय हैं । १५६ १५६. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४३ । For Personal & Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १८ / प्र०७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६२१ दिगम्बरपक्ष उपर्युक्त श्वेताम्बरचूर्णियों में दिगम्बराचार्य अकलंकदेवकृत 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख है। यह इससे स्पष्ट है कि उसका उल्लेख सन्मतिसूत्र जैसे समान विषयवाले ग्रन्थ के साथ किया गया है। यदि उसे शिवार्यकृत 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख भी माना जाय, तो शिवार्य भी दिगम्बर ही थे, यह 'भगवती-आराधना' नामक त्रयोदश अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः जिस प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में सिद्धिविनिश्चय का आदरपूर्वक उल्लेख होने से अकलंकदेव या शिवार्य यापनीय सिद्ध नहीं होते, वैसे ही उनमें 'सन्मतिसूत्र' का आदरपूर्वक निर्देश होने से सिद्धसेन भी यापनीय सिद्ध नहीं होते। सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ के दिगम्बरग्रन्थ होने से स्पष्ट है कि बतलाया गया हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष डॉ० पटोरिया-केवली के दर्शनज्ञानोपयोग के विषय में क्रमवाद का खण्डन और अभेदवाद का प्रतिपादन करते समय सन्मतिसूत्रकार क्रमवादी आचार्यों पर आक्षेप करते हुए कहते हैं-"जो लोग आगम का अवलम्बन कर कहते हैं कि जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं हैं, वे ऐसा तीर्थंकरों की आशातना ( अवमानना) के डर से कहते हैं।"१५७ किन्तु तीर्थंकरों ने स्वयं कहा है कि केवली के केवलज्ञान और दर्शन सादि और अनन्त हैं। अतः जब दोनों उपयोग अनन्तकाल तक एक साथ रहते हैं, तब उनमें क्रम कैसे हो सकता है? इस प्रकार तीर्थंकर के वचन से ही क्रमवाद का खण्डन हो जाता है। अतः क्रमवाद को न मानने से तीर्थंकरों की आशातना नहीं होती।५८ यहाँ विचारणीय है कि यदि ग्रन्थकार दिगम्बर होते, तो उन्हें क्रमवाद का खण्डन करते समय आचार्यों को सूत्रावलम्बी तथा तीर्थङ्कराशातनाभीरु कहने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे क्रमवाद के समर्थक आगमों को नहीं मानते। संकलित आगमग्रन्थों को प्रमाण माननेवाले के लिए ही किसी सूत्र को न मानना तीर्थंकराशातनाभीरु कहना, यही व्यक्त करता है कि वे भी सूत्रों को प्रामाणिक माननेवाली परम्परा के हैं।"१५९ १५७. क- केई भणंति जइया जाणइ तइया न पासइ जिणो त्ति। सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू॥ २/४॥ आसायणा = आशातना (विपरीतवर्तन, अपमान, तिरस्कार)/ 'पाइअ-सह-महण्णवो'। पृ.१२६। १५८. सुत्तम्मि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं। सुत्तासायणाभीरुहिं तं च दट्ठव्वयं होई ॥ २/७॥ सन्मतिसूत्र । १५९. यापनीय और उनका साहित्य / पृष्ठ १४४ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ 1 (प्रतीत होता है कि 'संकलित आगमग्रन्थों को प्रमाण माननेवालें- इस वाक्य के कुछ शब्द मुद्रित नहीं हो पाये, इसलिए अर्थ अस्पष्ट हो गया है। लेखिका सम्भवतः यह कहना चाहती हैं कि जो आचार्य संकलित आगमग्रन्थों को प्रमाण मानता हो, वह यदि किसी सूत्र को न माने, तो उसे सूत्रावलम्बी तथा तीर्थंकराशतनाभीरु कहा जा सकता है। ऐसे आचार्य को सन्मतिसूत्रकार का सूत्रावलम्बी एवं तीर्थंकराशातनाभीरु कहना यही व्यक्त करता है कि वे ( सन्मतिसूत्रकार) भी सूत्रों को प्रामाणिक माननेवाली परम्परा के हैं ।) दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार ने श्वेताम्बरों की दृष्टि से ही श्वेताम्बर - आगमों को सूत्र कहा है और स्पष्ट किया है कि जिन्हें वे सूत्र कहते हैं और उनका उल्लंघन करने से तीर्थंकर की आशातना मानते हैं, उनके ही अनुसार क्रमवाद का खण्डन होता है। उन्हें उन सूत्रों पर भी दृष्टि डालनी चाहिए। यदि वे ऐसा करेंगे तो उन्हें क्रमवाद की असत्यता का बोध हो जावेगा । इस प्रकार सन्मतिसूत्रकार ने श्वेताम्बरों की ही भाषा का प्रयोग कर उनके ही आगमों के आधार पर क्रमवाद का खण्डन किया है। प्रतिपक्षी मत को खण्डित करने की यह सर्वाधिक प्रामाणिक पद्धति है । इसलिए श्वेताम्बरमत के खण्डन के लिए श्वेताम्बर - आगमों को श्वेताम्बरों की ओर से 'सूत्र' शब्द से अभिहित करते हुए प्रमाणरूप में प्रस्तुत करने से यह सिद्ध नहीं होता कि सिद्धसेन स्वयं भी उन्हें प्रमाण मानते थे । वस्तुतः उन्होंने तो श्वेताम्बर - आगमों के अन्तर्विरोधों को दर्शाकर उन्हें अप्रामाणिक सिद्ध किया है। वे दर्शाते हैं कि क्रमवाद भी सूत्र के अवलम्बन से ही सिद्ध होता है और अक्रमवाद भी सूत्र पर ही आधारित है। और ये दोनों एक ही अपेक्षा से सिद्ध होते हैं, भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से नहीं। इस प्रकार सूत्र अन्तर्विरोधों से भरा हुआ है, अतः वह अप्रामाणिक है। सिद्धसेन सन्मतिसूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि उपर्युक्त परस्परविरुद्ध दो मतों में से अक्रमवाद ही स्वसमय (सम्यग् मत) है, क्रमवाद परतीर्थमत अर्थात् मिथ्यामत है अ०१८ / प्र० ७ साइ- अपज्जवसियं ति दो वि ते समसमओ हवइ एवं । परतित्थय वत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ ॥ २ / ३१॥ इस गाथा के द्वारा सिद्धसेन ने श्वेताम्बर - आगममान्य क्रमवाद को मिथ्या सिद्ध कर दिगम्बरमान्य युगपवाद के निकटवर्ती अभेदवाद को समीचीन सिद्ध किया है । यह सिद्धसेन के श्वेताम्बर या यापनीय न होकर दिगम्बर होने का ज्वलन्त प्रमाण है। For Personal & Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१८/प्र०७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६२३ अपराजितसूरि ने भी श्वेताम्बर-आगमों के लिए 'सूत्र' शब्द का प्रयोग करते हुए उनसे प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि उनमें भी एकान्त अचेलत्व को ही मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया गया है, पर इससे वे श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध नहीं होते। उन्होंने अपनी विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और केवलिभुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है, जिससे उनका दिगम्बरत्व प्रमाणित है। यह अपराजितसूरिवाले चतुर्दश अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। इस प्रकार सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवालों की परम्परा के नहीं हैं, अतः उन्हें उक्त परम्परा का मानने का हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष ___ डॉ० पटोरिया-सन्मतिसूत्र की ‘एवं एगे आया' (१/४९), 'जं च पुण' (३/११) तथा 'जंपंति अत्थि' (३/१३) गाथाएँ श्वेताम्बर-आगमों की गाथाओं एवं सूत्रों से साम्य रखती हैं।६० अतः श्वेताम्बर-आगमों का अनुसरण करने से सन्मतिसूत्रकार यापनीय सिद्ध होते हैं।१६१ दिगम्बरपक्ष इसका समाधान पूर्व में अनेकत्र किया जा चुका है कि दिगम्बरग्रन्थों की जिन गाथाओं का श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं या सूत्रों से अंशतः या पूर्णतः साम्य है, वे दोनों सम्प्रदायों को अपनी अविभक्त निर्ग्रन्थ अवस्थाक की समान आचार्य-परम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई हैं। अतः ग्रन्थ में उनकी उपलब्धि के आधार पर सम्प्रदायविशेष का निर्णय नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है। यापनीयपक्ष ___डॉ० पटोरिया-यापनीयग्रन्थ मूलाचार की गाथाओं से सन्मतिसूत्र की गाथाओं का साम्य है। डॉ० उपाध्ये ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना में उन गाथाओं की सूची दी है। यतः मूलाचार यापनीयग्रन्थ है, अतः यह गाथासाम्य सिद्धसेन के यापनीय होने का प्रमाण है।६२ दिगम्बरपक्ष ___ यह भी पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि मूलाचार विशुद्ध दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसकी गाथाओं से सन्मतिसूत्र की गाथाओं का साम्य होना सन्मतिसूत्र के दिगम्बर १६०. 'एगे आया। एगे दंडे। एगा किरिया।' स्थानांगसूत्र २/३/४ १६१. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४४। १६२. वही/प. १४५। For Personal & Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १८ / प्र० ७ ग्रन्थ होने का ही प्रमाण है। डॉ० उपाध्ये ने उक्त गाथासाम्य से केवल यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यतः वट्टकेर कर्णाटक के थे, अतः सिद्धसेन भी कर्णाटक के थे। उन्होंने मूलाचार के कर्त्ता वट्टकेर को यापनीय सिद्ध नहीं किया है । यतः मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है, अतः कथित हेतु भी असत्य है । यापनीयपक्ष डॉ० पटोरिया — मदनूर ( जिला नेल्लोर) से प्राप्त एक संस्कृत शिलालेख १६३ में यह उल्लेख है कि कोटिमडुवगण में, जो यापनीयसंघ की शाखा थी, दिवाकर नाम के मुनिपुंगव हुए। यदि यही दिवाकर सिद्धसेन हैं, तो उनके यापनीय होने का निश्चित प्रमाण मिल जाता है । १६४ दिगम्बरपक्ष इसका खण्डन माननीय डॉ० सागरमल जी के निम्नलिखित शब्दों से हो जाता है - " इस अभिलेख में उल्लिखित दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर हैं, यह कहना कठिन है, क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमन्दिरदेवमुनि का उल्लेख है, जिनके द्वारा अधिष्ठित कटकाभरण जिनालय को यह दान दिया गया था । यदि दिवाकर, मन्दिरदेव के गुरु हैं, तो वे सिद्धसेन दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं, क्योंकि इस अभिलेख के अनुसार मन्दिरदेव का काल ईसवी सन् ९४५ अर्थात् विक्रम सं० १००२ है । इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जायँ, तो वे दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही सिद्ध होते हैं, जब कि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी भी स्थिति में पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं हैं।" (जै. ध. या.स./ पृ.२३८ ) । इस प्रकार सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत् है । इन प्रमाणों और युक्तियों के प्रकाश में हम देखते हैं कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त हेतु असत्य एवं हेत्वाभास हैं । पूर्व प्रकरणों में यह भी सिद्ध हो चुका है कि वे श्वेताम्बर - परम्परा भी नहीं हैं । दर्शाये गये सभी प्रमाणों और युक्तियों से यही सिद्ध होता है कि वे दिगम्बराचार्य हैं । १६३. “यापनीयसंघप्रपूज्यकोटिमडुवगणेशमुख्यो यः --- - दिवाकराख्यो मुनिपुङ्गवोऽभूत्अभवदस्य शिष्यो --- ।" (जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भाग २ / लेख १४३ / पृ.१८० / शक सं. ८६७, सन् ९४५ ई.) । १६४. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४५ । श्रीमन्दिरदेवमुनिः For Personal & Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्रकरण उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के पक्षधर हेतुओं की असत्यता पूर्वोल्लिखित विद्वान् ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन सम्प्रदायभेद की पूर्ववर्ती उत्तरभारतीय - सचेलाचेल - निर्ग्रन्थ- परम्परा में उत्पन्न हुए थे। वे लिखते हैं कि सिद्धसेन विक्रम की चौथी शताब्दी में हुए हैं। "उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे । श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में स्पष्ट नामनिर्देश के साथ जो सर्वप्रथम उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लगभग ई० सन् ४७५ तदनुसार विक्रम सं० ५३२ के लगभग अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध के हैं । अतः काल के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदायविशेष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न ही वे अस्तित्व में आये थे ।" (जै.ध.या.स./ पृ.२३१-२३२) । यही बात वे इन शब्दों में दुहराते हैं- "सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे । वे उत्तरभारत की निर्ग्रन्थधारा में हुए हैं, जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में विभाजित हुई । यापनीयपरम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख उनके अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण ही है ।" ( वही / पृ. २३६) । निरसन प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि उत्तरभारत में तो क्या, भारत के किसी भी कोने में सचेलाचेल - निर्ग्रन्थ-1 - परम्परा नाम की या निर्ग्रन्थ नाम के साथ सचेल और अचेल दोनों लिंगों से मुक्ति माननेवाली कोई परम्परा M नहीं थी । इसलिए सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन उक्त परम्परा के आचार्य नहीं थे। तथा सिद्धसेन को जो विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में हुआ बतलाया गया है, वह समीचीन नहीं है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने पूर्वोद्धृत लेख में सप्रमाण सिद्ध किया है कि सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में जिस उपयोग- क्रमवाद का खण्डन किया है, उसकी प्रतिष्ठा विक्रम की छठी शताब्दी (वि० सं० ५६२) में श्वेताम्बर - परम्परा में हुए भद्रबाहु द्वितीय ने आवश्यकनिर्युक्ति में की है। और उसका सर्वप्रथम खण्डन विक्रम की सातवीं शती में हुए श्वेताम्बर जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य For Personal & Private Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०८ में तथा दिगम्बर अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में किया है। इस प्रकार सिद्धसेन विक्रम की छठी और सातवीं शताब्दी के बीच हुए थे। तथा विक्रम की ५वीं-६वीं शताब्दी में विद्यमान पूज्यपादस्वामी की सर्वार्थसिद्धि टीका में क्रमवाद का खण्डन नहीं मिलता, जब कि उनके बाद हुए अकलंकदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिक (६/१०) में मिलता है। इससे सिद्ध है कि वे पूज्यपाद देवनन्दी के बाद हुए हैं। पूज्यपाद ने जैनेन्द्रव्याकरण में 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र के द्वारा जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया है, वे नौवीं द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन हैं, न कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन । इस तरह सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में और सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं, न कि चौथी शताब्दी में। इस स्थितिकाल के परिप्रेक्ष्य में भी उक्त ग्रन्थलेखक की यह कल्पना धराशयी हो जाती है कि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वजपरम्परा अर्थात् उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा में उत्पन्न हुए थे, क्योंकि विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में तो श्वेताम्बरों और यापनीय दोनों का अस्तित्व था। फलस्वरूप यही निर्णीत होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बराचार्य थे। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंश अध्याय रविषेणकृत पद्मपुराण प्रथम प्रकरण पद्मपुराण के दिगम्बर ग्रन्थ होने के प्रमाण पं० नाथूराम जी प्रेमी ने आचार्य रविषेण को दिगम्बरपरम्परा के सेनसंघ से सम्बद्ध माना है। वे लिखते हैं- “रविषेण ने न तो अपने किसी संघ या गण-गच्छ का कोई उल्लेख किया है और न स्थानादि की ही चर्चा । परन्तु सेनान्त नाम से अनुमान होता है कि शायद वे सेनसंघ के हों और इनकी गुरुपरम्परा के पूरे नाम इन्द्रसेन, दिवाकरसेन, अर्हत्सेन और लक्ष्मणसेन हों।" (जै. सा. इ. / द्वि.सं./ पृ. ८८) । 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी ने भी पहले एक लेख में रविषेणकृत पद्मपुराण (पद्मचरित) को दिगम्बरग्रन्थ ही माना था । उन्होंने उसमें लिखा है - "दिगम्बरपरम्परा में पद्मपुराण के रचयिता रविषेण (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंशपउमचरिउ के रचयिता यापनीय स्वयम्भू ने विमलसूरि का ही पूरी तरह अनुकरण किया है। पद्मपुराण तो 'पउमचरिय' का ही विकसित संस्कृत-रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे दिगम्बर-परम्परा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।" (डॉ. सा. म. जै. अभि.ग्र. / पृ. ६४८)। किन्तु श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने इस दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ बतलाया है, अतः उसे देखकर डॉ० सागरमल जी ने भी श्रीमती पटोरिया की हाँ में हाँ मिला दी और उसे यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया। इसके पक्ष में उक्त विदुषी ने जो हेतु बतलाये हैं, उन्हीं को उक्त विद्वान् ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत कर दिया है। (जै.ध.या.स./ पृ. १७७-१८०)। मान्या विदुषी द्वारा प्रस्तुत हेतुओं का उल्लेख और मीमांसा बाद में की जायेगी। पहले पद्मपुराण में प्रतिपादित उन यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का निरूपण किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है | For Personal & Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९ / प्र०१ ६३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ पद्मपुराण में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त वैकल्पिक सवस्त्र-मुनिलिंग का निषेध १.१. मुनियों का एक ही लिंग : दिगम्बरलिंग आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में वर्णन किया है कि केवलज्ञानप्राप्ति के अनन्तर भगवान् ऋषभदेव समवसरण में गणधर की प्रार्थना पर धर्म का उपदेश देते हैं। उसमें वे धर्म के दो भेद बतलाते हैं : श्रावकधर्म और यतिधर्म, तथा यतियों के धर्म को व्योमवाससों (आकाश-रूपी-वस्त्रधारियों) का धर्म कहते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि रविषेण की मान्यतानुसार भगवान् ऋषभदेव ने दिगम्बरलिंगधारी को ही यति या मुनि कहा है, सवस्त्रलिंगधारी को नहीं। देखिए सागाराणां यतीनां च धर्मोऽसौ द्विविधः स्मृतः। तृतीयं ये तु मन्यन्ते दग्धास्ते मोहवह्निना॥ ४/४५ ॥ अणुव्रतानि पञ्च स्युस्त्रिप्रकारं गुणवतम्। शिक्षाव्रतानि चत्वारि धर्मोऽयं गृहमेधिनाम्॥ ४/४६॥ सर्वारम्भपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहाः। कालधर्मेण संयुक्ता गतिं ते यान्ति शोभनाम्॥ ४/४७॥ महाव्रतानि पञ्चस्युस्तथा समितयो मताः ।। गुप्तयस्तिस्र उद्दिष्टा धर्मोऽयं व्योमवाससाम्॥ ४/४८॥ धर्मेणानेन संयुक्ताः शुभध्यानपरायणाः। यान्ति नाकं च मोक्षं च हित्वा पूतिकलेवरम् ॥ ४/४९॥ येऽपि जातस्वरूपाणां परमब्रह्मचारिणाम्। स्तुतिं कुर्वन्ति भावेन तेऽपि धर्ममवाप्नुयुः॥ ४/५०॥ तेन धर्मप्रभावेण कुगतिं न व्रजन्ति ते। लभन्ते बोधिलाभं च मुच्यन्ते येन किल्विषात्॥ ४/५१ ।। इत्यादि देवदेवेन भाषितं धर्ममुत्तमम्। श्रुत्वा देवा मनुष्याश्च परमामोदमागताः॥ ४/५२॥ पद्मपुराण/ भाग १। अनुवाद-"यह धर्म दो प्रकार का है : सागारधर्म और यतिधर्म। जो इनके अतिरिक्त तीसरा धर्म मानते हैं, वे मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९ / प्र०१ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३१ और चार शिक्षाव्रत, यह गृहस्थों का धर्म है। जो गृहस्थ अन्तिम समय में सर्व आरंभ का परित्याग कर शरीर में भी निःस्पृह हो जाते हैं तथा समताभाव से मरण करते हैं, वे उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।" (४५-४७) "पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ, यह व्योमवाससों (आकाशाम्बरों - दिगम्बरों) का अर्थात् यतियों या मुनियों का धर्म है। जो इस दिगम्बरों अर्थात् मुनियों के धर्म को धारणकर शुभध्यान में लीन होते हैं, वे दुर्गन्धमय शरीर को छोड़कर स्वर्ग या मोक्ष को प्राप्त होते हैं।" (४८-४९)। "और जो जीव परमब्रह्मचारी-जन्मजातरूपधारियों (दिगम्बरमुनियों) की भावपूर्वक स्तुति करते हैं, वे धर्म को प्राप्त हो सकते हैं। वे उस धर्म के प्रभाव से कुगतियों में नहीं जाते, अपितु उस रत्नत्रयधर्म को प्राप्त कर लेते हैं, जो उन्हें पाप से मुक्त कर देता है। इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् ऋषभदेव के द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर देव और मनुष्य परम हर्ष को प्राप्त हुए।" (५०-५२)।। यहाँ रविषेण ने नग्न अर्थ के वाचक व्योमवासस् और जातस्वरूप शब्दों को मुनि शब्द के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे वस्त्रधारी को मुनि नहीं मानते। तथा उन्होंने यह वर्णन किया है कि तीर्थंकर वृषभदेव ने केवल व्योमवसन-लिंगरूप अर्थात् नाग्न्यलिंगरूप जिनकल्प को ही मुनियों का धर्म बतलाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे यापनीयमत में मान्य मुनियों के सचेल स्थविरकल्प को तीर्थंकरोपदिष्ट नहीं मानते। इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि वे यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमतावलम्बी हैं। रविषेण ने निम्नलिखित श्लोक में भी दिगम्बरलिंग को ही मुनियों का एकमात्र लिंग बतलाया है सागारं निरगारं च द्विधा चारित्रमुत्तमम्। सावलम्बं गृहस्थानां निरपेक्षं खवाससाम्॥ ३३/१२१॥ पद्मपुराण / भाग २। अनुवाद-"उत्तम चारित्र दो प्रकार का है : सागार और अनगार। जिसमें बाह्य पदार्थों का अवलम्बन होता है, वह गृहस्थों का चारित्र (सागारचारित्र) है और जो बाह्य पदार्थों के अवलम्बन से रहित होता है, वह आकाशरूपी वस्त्र धारण करनेवालों का (ख-वाससाम्) अर्थात् दिगम्बर मुनियों का चारित्र (अनगारचारित्र) है।" इस श्लोक में दिगम्बरों को ही अनगार या मुनि कहा गया है, सवस्त्र साधु को नहीं। दिगम्बर साधु के अतिरिक्त शेष सभी वस्त्रादि-बाह्यपदार्थों का अवलम्बन Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ करनेवालों को गृहस्थ संज्ञा दी गई है। इससे स्पष्ट है कि पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। आचार्य रविषेण आगे कहते हैं सुदुष्करं विगेहानां चारित्रमवधार्य सः। पुनः पुनर्मतिं चक्रेऽणुव्रतेष्वेव पार्थिवः॥ ३३/१२३॥ पद्मपुराण / भाग २। अनुवाद-"राजा वज्रकर्ण ने मुनियों के चारित्र को अत्यन्त कठिन समझकर अणुव्रत धारण करने का ही बार-बार विचार किया।" इससे भी स्पष्ट होता है कि राजा के सामने दिगम्बरमुनि-मार्ग के अलावा अणुव्रतधारी श्रावक का ही दूसरा मार्ग अवशिष्ट था, यापनीयपरम्परा के समान सवस्त्र स्थविरकल्पी मुनियों के सरल अपवादमार्ग का विकल्प नहीं था। यह भी ग्रन्थ के यापनीय न होकर दिगम्बरीय होने का प्रमाण है। १.२. दिगम्बर मुनि की ही मुनि, श्रमण, साधु आदि संज्ञाएँ निम्नलिखित पद्यों में आचार्य रविषेण ने निरम्बर (दिगम्बर) मुनि को हो यमी, वीतराग, योगी, ध्यानी, साधु, आचार्य, अनगार, भिक्षु और श्रमण नामों से अभिहित किया है यमिनो वीतरागाश्च निर्मुक्ताङ्गा निरम्बराः। योगिनो ध्यानिनो वन्द्या ज्ञानिनो निःस्पृहा बुधाः॥ १०९/८८॥ निर्वाणं साधयन्तीति साधवः परिकीर्तिताः। आचार्या यत्सदाचारं चरन्त्याचारयन्ति च ॥ १०९।८९ ॥ अनगारगुणोपेता भिक्षवः शुद्धभिक्षया। श्रमणाः सितकर्माणः परमश्रमवर्तिनः॥ १०९/९० ॥ पद्मपुराण / भाग ३।। इससे सूचित होता है कि रविषेण सवस्त्र साधु को साधु संज्ञा का पात्र नहीं मानते। यह उनके यापनीय न होने का सबूत है। १.३. 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बर का वाचक रविषेण ने दिगम्बर को ही निर्ग्रन्थ कहा है। राम सुव्रतमुनि के पास जाकर निर्ग्रन्थदीक्षा की याचना करते हैं। जब वे अनुमति दे देते हैं तब राम आहार, मुकुट, कुण्डल, वस्त्र आदि का परित्याग कर पर्यङ्कासन में विराजमान हो जाते हैं और शिर के बालों को अंगुलियों से उखाड़कर अलग कर देते हैं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९/प्र०१ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३३ त्रियामायामतीतायां भास्करेऽभिनिवेदिते। प्रणम्य राघवः साधून् ववे निर्ग्रन्थदीक्षणम्॥ ११९/१९॥ आहारं कुण्डलं मौलिमपनीयाम्बरं तथा। परमार्थार्पित - स्वान्तस्तनु - लग्न - मलावलिः॥ ११९/२६ ॥ श्वेताब्जसुकुमाराभिरङ्गलीभिः शिरोरुहान्। निराचकार काकुत्स्थः पर्यङ्कासनमास्थितः॥ ११९ / २७ ॥ पद्मपुराण/भाग ३। अधोलिखित पद्यों में भी निर्ग्रन्थ शब्द को दिग्वासस् और दिगम्बर शब्दों के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया गया है अत्यन्तदुस्सहा चेष्टा निर्ग्रन्थानां महात्मनाम्। परिकर्मविशुद्धस्य जायते सुखसाधना ॥ ३२ / १४३ ।। अनर्घ्यरत्नसदृशं तपो. दिग्वाससामिति। एवमप्यक्षमं वक्तुं परस्तस्योपमा कुतः॥ ३२ / १४५ ॥ पद्मपुराण / भाग २। इसी तरह सीता जी जब राम से कहती हैं- "हे नरश्रेष्ठ! तप से कृश शरीरवाले इस दिगम्बर-युगल को देखो।" तब राम चकित होकर उत्सुकता से पूछते हैं-"हे साध्वि! कहाँ है, कहाँ है वह निर्ग्रन्थ युगल?" पश्य पश्य नरश्रेष्ठ! तपसा कृशविग्रहम्। दैगम्बरं परिश्रान्तं भदन्तयुगलं शुभम्॥ ४१/१८॥ क्व तत्क्व तत्प्रिये साध्वि पण्डिते चारुदर्शने। निर्ग्रन्थयुगलं दृष्टं भवत्या गुणमण्डने॥ ४१/१९॥ पद्मपुराण / भाग २। इस प्रकार दिगम्बर मुनि को ही निर्ग्रन्थ कहकर आचार्य रविषेण ने वस्त्रधारी मुनि के निर्ग्रन्थ कहे जाने का निषेध किया है, जो उनके यापनीय न होने और दिगम्बर होने का सूचक है। १.४. वस्त्र का भी परित्याग 'अशेषपरिग्रहत्याग' का लक्षण मुकुट, कुण्डल और वस्त्र का परित्याग कर देनेवाले राम की शोभा का वर्णन | करते हुए रविषेण कहते हैं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ /प्र०१ रराज सुतरां रामस्त्यक्ताशेषपरिग्रहः। सैंहिकेयविनिर्मुक्तो हंसमण्डलविभ्रमः॥ ११९ / २८ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"अशेष परिग्रह का त्याग कर देने पर राम इस प्रकर सुशोभित हो रहे थे, जैसे राहु से मुक्त सूर्य।" इस तरह रविषेण ने वस्त्र का भी त्याग कर देनेवाले को ही अशेषपरिग्रह का त्यागी कहा है और निम्नलिखित श्लोकों में जातरूपधरत्व (नग्नरूप) को ही बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्याग का लक्षण बतलाया है भरतोऽपि महातेजा महाव्रतधरो विभुः। धराधर-गुरुस्त्यक्त-बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहः॥ ८७/९॥ जातरूपधरः सत्यकवचः शान्तिसायकः । परीषहजयोद्युक्तस्तपःसंयत्यवर्तत॥ ८७/१२॥ __ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"भरत भी महातेजस्वी, महाव्रतधारी, विभु , पर्वत के समान स्थिर तथा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी थे। यथाजातरूप (नग्नरूप) धारण कर, सत्यरूपी कवच एवं क्षमारूपी बाणों से सुसज्जित हो, परीषहों को जीतने के लिए तपरूपी युद्धभूमि में विचरण कर रहे थे।" इन वचनों से ध्वनित होता है कि आचार्य रविषेण अपवादरूप से वस्त्रधारण करनेवाले साधु को अशेषपरिग्रह या बाह्याभ्यन्तर-परिग्रह का त्यागी नहीं मानते। फलस्वरूप वह अपरिग्रह-महाव्रतधारी न होने से उनकी दृष्टि में साधु नहीं है। इससे पता चल जाता है कि रविषेण यापनीय नहीं थे। १.५. सभी के द्वारा दिगम्बर-दीक्षा का ग्रहण राम के दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करने पर उनके साथ सोलह हजार से अधिक लोग दिगम्बर मुनि ही बनते हैं। एक भी पुरुष को अपवादलिंगधारी सवस्त्र मुनि बनते हुए वर्णित नहीं किया गया। देखिए पद्मपुराण (भाग ३) के निम्नलिखित श्लोक एवं श्रीमति निष्क्रान्ते रामे जातानि षोडश। श्रमणानां सहस्राणि साधिकानि महीपते॥ ११९/४१॥ सप्तविंशसहस्राणि प्रधानवरयोषिताम् । श्रीमती-श्रमणीपार्वे बभूवुः परमार्यिकाः॥ ११९/४२॥ For Personal & Private Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १९ / प्र० १ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३५ अनुवाद - ( गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं) "हे राजन् ! इस प्रकार श्रीमान् राम के प्रव्रजित होने पर सोलह हजार से अधिक लोग श्रमण हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख - प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक श्रमणी के पास आर्यिका हुईं।" पूर्वशीर्षक १.२ के अन्तर्गत उद्धृत पद्मपुराण के श्लोकों ( १०९ / ८८-९०) में निरम्बर (दिगम्बर) मुनि को ही श्रमण कहा गया है तथा राम ने दिगम्बरदीक्षा ही ग्रहण की थी। (देखिये, पूर्वशीर्षक १.३), अतः उनके साथ दीक्षित लोगों का दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करना स्वतः सिद्ध है। लङ्का में भी रावण की मृत्यु से निर्वेद को प्राप्त उसके अनुयायी दैगम्बरी दीक्षा ही लेते हैं, यापनीयों की अपवादमार्गी सवस्त्र दीक्षा कोई भी ग्रहण नहीं करताकेचित्संसारभावेभ्यो निर्वेदं परमागताः । चक्रुर्दैगम्बरीं दीक्षां मानसे जिनभाषिताम् ॥ ७८/५२ ॥ राम के वनगमन से शोकसन्तप्त अनेक राजा भी निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) दीक्षा ही लेते हुए दिखलाये गये हैं। राजा अतिवीर्य श्रुतिधर मुनि से दैगम्बरी दीक्षा की ही याचना करता है।' देशभूषण और कुलभूषण राजकुमार भी दैगम्बरी दीक्षा का ही आश्रय लेते हैं। मृदुमति नामक ब्राह्मणपुत्र भी उसी का अवलम्बन करता है। इससे स्पष्ट है कि पद्मपुराण अपवादमार्गी सवस्त्र मुनिदीक्षा को स्थान देनेवाले यापनीयमत का ग्रन्थ नहीं है । १.६. सभी को दिगम्बर मुनि बनने का उपदेश गौतम स्वामी, राजा श्रेणिक तथा उनके साथ आये सामन्तादि को भी श्रीराम के ही मार्ग का अनुसरण करने ( दिगम्बर मुनि बनने) का उपदेश देते हैं पद्मपुराण/ भाग ३ | युष्मानपि वदाम्यस्मिन् सर्वानिह समागतान्। रमध्वं तत्र सन्मार्गे रतो यत्र रघूत्तमः ॥ ११९ / ५५ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। १. पद्मपुराण / भाग २ / ३२ / ७२-७३ । २. जगाद नाथ वाञ्छामि दीक्षां दैगम्बरीमिति ॥ ३७ / १६० ॥ पद्मपुराण / भाग २ | ३. दीक्षां दैग्वाससीं श्रितौ ॥ ३९/१७४ ॥ पद्मपुराण / भाग २ । ४. पादमूलेऽभजद्दीक्षां सर्वग्रन्थविमोचिताम् ॥ ८५ / १३७ ॥ पद्मपुराण / भाग ३ | For Personal & Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ गौतम स्वामी ने यह किसी से भी नहीं कहा कि जो परीषहादि सहने में असमर्थ होने के कारण दिगम्बरदीक्षा ग्रहण न कर सकता हो, वह अपवादमार्ग के रूप में सवस्त्र मुनि-दीक्षा ग्रहण करे। इससे सिद्ध होता है कि रविषेण यापनीयमान्य सवस्त्र मुनिदीक्षा के विरुद्ध थे। १.७. वस्त्रपात्रादि उपकरणधारी कुलिंगी हैं रविषेण ने गौतम स्वामी के मुख से वस्त्रपात्रादि उपकरणधारी साधुओं को कुलिंगी और निर्ग्रन्थ (अशेषपरिग्रह-त्यागी यथाजातरूपधर) मुनियों को ही पूज्य कहलवाया है नानोपकरणं दृष्ट्वा साधनं शक्तिवर्जिताः। निर्दोषमिति भाषित्वा गृह्णते मुखराः परे॥ ११९/५९॥ व्यर्थमेव कुलिङ्गास्ते मूढैरन्यैः पुरस्कृताः। प्रखिन्नतनवो भारं वहन्ति भृतका इव॥ ११९/६०॥ ऋषयस्ते खलु येषां परिग्रहे नास्ति याचने वा बुद्धिः। तस्मात्ते निर्ग्रन्थाःसाधुगुणैरन्विता बुधैः संसेव्याः॥ ११९/६१ ॥ पद्मपुराण/ भाग ३। इन वचनों से तो इस निर्णय में सन्देह ही नहीं रहता कि रविषेण को यापनीय साधुओं का वस्त्रपात्रमय अपवादलिंग सर्वथा अमान्य था, इसलिए वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर थे। १.८. जैनलिंग से ही मोक्ष की प्राप्ति रविषेण ने बतलाया है कि जिनलिंग (दिगम्बरमुद्रा) के ही द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसका निरूपण करते हुए वे लिखते हैं "अथातोऽपरे भव्यधर्मस्थिताः प्राणिनो देवदेवस्य वाग्भिभृशं भाविताः सिद्धिमार्गानुसारेण शीलेन सत्येन शौचेन सम्यक्तपोदर्शनज्ञानचारित्रयोगेन चात्युत्कटाः येन ये यावदष्टप्रकारस्य कुर्वन्ति निर्णाशनं कर्मणस्तावदुत्तुङ्गभूत्यन्विताः स्वर्भवानां भवन्त्युत्तमाः स्वामिनस्तत्र चाम्भोधितुल्यान् प्रभूताननेकप्रभेदान् समासाद्य सौख्यं ततः प्रच्युता धर्मशेषस्य लब्ध्वा फलं स्फीतभोगान् श्रियं प्राप्य बोधिं, परित्यज्य राज्यादिकं जैनलिङ्गं समादाय कृत्वा तपोऽत्यन्तघोरं समुत्पाद्य सद्ध्यानिनः केवलज्ञानमायुःक्षये कृत्स्नकर्मप्रमुक्ता भवन्तस्त्रिलोकाग्रमारुह्य सिद्धा अनन्तं शिवं सौख्यमात्मस्वभावं परिप्राप्नुवन्त्युत्तमम्।" (पद्मपुराण। भाग ३/पर्व ७८ / श्लोक ६२ के अनन्तर/ पृ.८३)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १९ / प्र०१ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३७ अनुवाद-"जो भव्य प्राणी देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के वचनों से अत्यन्त प्रभावित हो मोक्षमार्ग के अनुरूप शील, सत्य, शौच, सम्यक् तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त होते हुए अष्ट कर्मों के नाश का प्रयत्न करते हैं, वे उत्कृष्ट वैभव से युक्त हो, देवों के उत्तम स्वामी होते हैं और वहाँ अनेक सागर पर्यन्त नाना प्रकार के सुख भोगते हैं। तदनन्तर वहाँ से च्युत हो अवशिष्ट धर्म के फलस्वरूप प्रचुर भोग और लक्ष्मी प्राप्त करते हैं। अन्त में रत्नत्रय का आश्रय ले, राज्यादि का परित्याग कर जैनलिंग (दिगम्बरमुद्रा) धारण करते हैं। फिर अत्यन्त घोर तप कर शुक्लध्यान के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। पश्चात् आयु का क्षय होने पर समस्त कर्मों से मुक्त होकर लोकाग्र पर आरूढ़ हो सिद्धावस्था में अनन्त आत्मोत्थ उत्तम सुख का अनुभव करते हैं। इस प्रकार आचार्य रविषेण के मत में जैनलिंग के ही द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। और उन्होंने सर्वत्र दिगम्बरमुद्रा को ही जैनलिंग प्रतिपादित किया है। कहीं भी आपवादिक सवस्त्र मुनिलिंग को जैनलिंग या जिनमुद्रा नहीं कहा। इससे सिद्ध है कि रविषेण यापनीयमतावलम्बी नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य ही हैं। वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी की क्षुल्लक संज्ञा आचार्य रविषेण ने वस्त्रमात्र-परिग्रहधारी मोक्षसाधक को स्थविरकल्पी साधु या अपवादमार्गी सवस्त्र साधु की संज्ञा नहीं दी, अपितु क्षुल्लक संज्ञा दी है, जो दिगम्बरपरम्परा में उत्कृष्ट श्रावक का पद है। उसके स्वरूप का वर्णन रविषेण ने इस प्रकार किया है ततस्तत्पुण्ययोगेन सिद्धार्थो नाम विश्रुतः। शुद्धात्मा क्षुल्लकः प्राप वज्रजङ्घस्य मन्दिरम्॥ १००/३२॥ सन्ध्यात्रयमबन्ध्यं यो महाविद्यापराक्रमः। मन्दरोरसि वन्दित्वा जिनानेति पदं क्षणात् ॥ १००/३३॥ प्रशान्तवदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तकः। साधुभावनचेतस्को वस्त्रमात्रपरिग्रहः॥ १००/३४॥ उत्तमाणुव्रतो नाना-गुण-शोभन-भूषितः। जिनशासन-तत्त्वज्ञः-कला-जलधि- पारगः॥ १०० / ३५॥ अंशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलात्मना। मृणालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थरः॥ १००/३६॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ करञ्जजालिकां कक्षे कृत्वा प्रियसखीमिव। मनोज्ञममृतास्वादं धर्मवृद्धिरिति ब्रुवन्॥ १०० । ३७॥ गृहे गृहे शनैर्भिक्षां पर्यटन् विधि सङ्गत:गृहोत्तमं समासीदद्यत्र तिष्ठति जानकी ॥ १०० / ३८ ।। जिनशासनदेवीव सा मनोहर-भावना। दृष्ट्वा क्षुल्लकमुत्तीर्य सम्भ्रान्ता नवमालिकाम्॥ १००/३९ ॥ उपगत्यसमाधाय कर-वारिरुह-द्वयम्। इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य विधिकोविदा॥ १००/४० ॥ विशिष्टेनान्न-पानेन समतर्पयदादरात्।। जिनेन्द्रशासनासक्तान् सा हि पश्यति बान्धवान्॥ १००/४१ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"तदनन्तर राजा वज्रजंघ के पुण्ययोग से सिद्धार्थ नामक प्रसिद्ध, शुद्धहृदय क्षुल्लक उसके घर आया। महाविद्याओं के द्वारा उसमें इतना पराक्रम आ गया था कि वह तीनों सन्ध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिनप्रतिमाओं की वन्दना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था। वह प्रशान्त मुख था, धीरवीर था, केशलुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था। वह वस्त्रमात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुणरूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिनशासन के रहस्य का ज्ञाता था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जाना पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मन्द-मन्द चलनेवाला गजराज ही हो। वह प्रियसखी के समान पिच्छी को कक्ष में दबाकर अमृत के समान सुस्वादु धर्मवृद्धि शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर-घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था। इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुँचा, जहाँ सीता बैठी थीं। जिनशासनदेवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्यों ही वे संभ्रम के साथ नौखण्डा महल से उतर कर नीचे आ गईं तथा पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने इच्छाकार आदि के द्वारा उसकी अच्छी तरह पूजा की। तदनन्तर विधि को जाननेवाली सीता ने उसे आदरपूर्वक विशिष्ट अन्न-पान देकर सन्तुष्ट किया, क्योंकि वे जिनशासन-प्रेमियों को अपना बन्धु समझती थीं।" यहाँ द्रष्टव्य है कि वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी साधुवत् दिखाई देनेवाले मोक्षसाधक को क्षुल्लक संज्ञा दी गई है और बतलाया गया है कि वह मात्र वस्त्र और पिच्छी ग्रहण करते हुए भी अणुव्रतधारी अर्थात् गृहस्थ ही होता है। मुनि से किंचित् वेशगत साम्य Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९/प्र०१ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३९ (अधिकांशतः निर्वस्त्र शरीर, कटि-आच्छादक वस्त्र के अतिरिक्त शेष बाह्य परिग्रह का अभाव, लुंचितमस्तक तथा पिच्छीकमण्डलु-ग्रहणरूप अल्प वेशसाम्य) होने के कारण उसे रविषेण ने गृहस्थमुनि शब्द से भी अभिहित किया है-गृहस्थमुनिवेषभृत् = गृहस्थमुनि अर्थात् क्षुल्लक का वेष धारण करनेवाला (पद्मपुराण/भाग ३/१०२/३/अनुवाद : पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य)। नारद नामक क्षुल्लक को, जिसका दूसरा नाम अवद्वार है, रविषेण ने यह संज्ञा दी है। क्षुल्लक के साथ गृहस्थ विशेषण लगा कर और उसे अणुव्रतधारी (उत्तमाणुव्रतः-प.पु./भा.३/१००/३५) कहकर स्पष्ट कर दिया गया है कि वह साक्षात् मुक्ति का पात्र नहीं है। मुनि शब्द के प्रयोग से उसे अपवादलिंगधारी सवस्त्र यापनीयमुनि न समझ लिया जाय, क्योंकि रविषेण ने उपर्युक्त पद्यों में उसे धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देनेवाला (धर्मवृद्धिरिति ब्रुवन्-प.पु./भा.३/१००/३७) कहा है, जो दिगम्बर-परम्परा का लक्षण है। यापनीय-परम्परा में धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया जाता था। वस्त्रमात्र परिग्रहधारी मुमुक्षु को रविषेण द्वारा क्षुल्लक संज्ञा दिये जाने से स्पष्ट है कि वे उसे अपवादलिंगधारी मुनि नहीं मानते। यह उनके यापनीय न होने का प्रबल प्रमाण है। गृहस्थमुक्तिनिषेध आचार्य रविषेण ने गृहस्थ को साक्षात् मुक्ति के योग्य नहीं माना, यह भी उनके ५. जटाकूर्चधरः शुक्लवस्त्रप्रावृतविग्रहः। अवद्वारगुणाभिख्यो नारदः क्षितिविश्रुतः॥ ८१/११॥ पद्मपुराण / भाग ३। पद्मनाभस्ततोऽवोचत् । सोऽवद्वारगतिर्भवान्। क्षुल्लकोऽभ्यागतः कस्मादुक्तश्च स जगौ क्रमात्॥ ८१/६३॥ पद्मपुराण / भाग ३। दर्शनेऽवस्थितौ वीरौ प्राप ताभ्यां च पूजितः। आसनादिप्रदानेन गृहस्थ-मुनि-वेष-भृत्॥ १०२/३॥ पद्मपुराण / भाग ३। ततः सुखं समासीनः परमं तोषमुद्वहन्। अब्रवीत्ताववद्वारः कृतस्निग्धनिरीक्षणः॥ १०२/४॥ पद्मपुराण / भाग ३। ६. क-"आद्यास्त्रयोऽपि सङ्घा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति। --- गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति।" तर्करहस्यदीपिकावृत्ति / षड्दर्शनसमुच्चय / अधिकार ४/ पृ.१६१। ख- डॉ० सागरमल जी भी लिखते हैं-"इसी प्रकार पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में मुनि को आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ कहते हुए दिखाया गया है, जब कि दिगम्बर-परम्परा में मुनि आशीर्वचन के रूप में धर्मवृद्धि कहते हैं, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है।" जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/ पृ. २१७-२१८ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ / प्र०१ यापनीय न होने का सबूत है। गृहस्थ की मुक्तियोग्यता का निषेध उन्होंने पद्मपुराण (भाग २) के निम्नलिखित वाक्यों में किया है कामक्रोधादिपूर्णस्य का मुक्तिर्गृहसेविनः॥ ३१ / १३५॥ अनुवाद-"कामक्रोधादि से पूर्ण गृहस्थ की मुक्ति कैसे हो सकती है?" गृहधर्मेण तस्मिन् हि मुक्त्यभावः सुनिश्चितः॥ ३१ / १३७॥ अनुवाद- "गृहस्थाश्रम से मुक्ति का अभाव सुनिश्चित है।" गृहस्थधर्म को पद्मपुराण (भाग ३) में परम्परया मोक्ष का हेतु बतलाया गया है, साक्षात् नहीं। साक्षात् हेतु मुनिधर्म को ही कहा गया है अणुधर्मोऽग्रधर्मश्च श्रेयसः पदवी द्वयी। पारम्पर्येण तत्राद्या परा साक्षात्प्रकीर्तिता ॥ ८५/१८॥ गृहाश्रमविधिः पूर्वः महाविस्तारसङ्गतः। परो निर्ग्रन्थशूराणां कीर्तितोऽत्यन्तदुःसहः॥ ८५ /१९॥ अनुवाद-"मोक्ष के दो मार्ग हैं : अणुधर्म और पूर्णधर्म। पहला परम्परया मोक्ष का कारण है, दूसरा साक्षात्। पहला अणुधर्म बहुत विस्तृत है, वह गृहस्थाश्रम में होता है। दूसरा महाधर्म अत्यन्त कठिन है, वह महाशूर निर्ग्रन्थ साधुओं के ही होता आपवादिक सवस्त्रमुक्ति की तरह गृहस्थमुक्ति की मान्यता भी यापनीयमत का आधारभूत सिद्धान्त है। इसका पद्मपुराण में स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। इससे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। परतीर्थिकमुक्तिनिषेध जैनेतरलिंग अर्थात् परशासन से मुक्ति मानना भी यापनीयों का मौलिक सिद्धान्त है। रविषेण ने इसका निषेध इन खुले शब्दों में किया है जिनेन्द्रशासनादन्यशासने रघुनन्दन। न सर्वयत्नयोगेऽपि विद्यते कर्मणां क्षयः॥ १०५ / २०४॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-“हे रघुनन्दन! जिनेन्द्रशासन को छोड़कर अन्य शासन से मोक्ष की प्राप्ति समस्त यत्न करने पर भी नहीं होती।" For Personal & Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १९ / प्र० १ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४१ केवल यह एकवाक्य रविषेण को यापनीय सिद्ध करने की चेष्टा को कुचेष्टा सिद्ध कर देता है। ५ स्त्रीमुक्तिनिषेध पूर्व ( शीर्षक १ एवं ३) में आचार्य रविषेण के ये शब्द उद्धृत किये गये हैं कि “चारित्र दो प्रकार का है : सागार और निरगार । सागारचारित्र गृहस्थों का है और निरगार दिगम्बरों का।" (प.पु/भा.२/३३ / १२१ ) । उनका दूसरा यह कथन भी उद्धृत किया गया है कि "मोक्ष के दो मार्ग हैं : अणुधर्म और पूर्णधर्म । अणुधर्म के स्वामी गृहस्थ होते हैं और पूर्णधर्म के निर्ग्रन्थशूर।” (प.पु. / भा.३/८५/१८-१९) । रविषेण ने इन दो वचनों के द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि यतः स्त्रियाँ दिगम्बर या निर्ग्रन्थ नहीं हो सकतीं, अतः उनके निरगारचारित्र या पूर्णधर्म संभव नहीं हैं, इसलिए वे मुक्ति के योग्य नहीं हैं । "" रविषेण ने पद्मपुराण (भाग ३) में वर्णन किया है कि आर्यिका सीता सदा सोचती रहती थीं कि स्त्रीपर्याय अत्यन्त निन्दनीय है- " अत्यन्तनिन्दितं स्त्रीत्वं चिन्तयन्ती सती सदा' (१०९ / ८) । वे इसे इतना दुःखद और आत्महित में बाधक समझती हैं कि राम से कहती हैं- "हे बलदेव ! मैंने आपके प्रसाद से देवोपम भोग भोगे हैं, अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वह काम करूँगी, जिससे फिर स्त्री न होना पड़े - " अधुना तदहं कुर्वे जाये स्त्री न यतः पुनः " ( १०५ / ७३) । अर्थात् वे पुरुषपर्याय प्राप्त करना चाहती हैं और इसके लिए वे आर्यिकादीक्षा ग्रहण करती हैं— "संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा" (१०५/७९) । अर्थात् आचार्य रविषेण आर्यिका - दीक्षा को पुरुषपर्याय - प्राप्ति का साधन मानते हैं, मोक्ष का नहीं। वे वर्णन करते हैं कि सीता बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप कर तथा तैंतीस दिन की उत्तम सल्लेखना धारण कर उपभुक्त बिस्तर के समान शरीर को छोड़कर आरण- अच्युत - युगल में प्रतीन्द्रपद को प्राप्त हुईं। ( १०९ / १७ - १८ ) । वे गौतम स्वामी के मुख से कहलवाते हैं कि अहो ! जिनशासन में धर्म का माहात्म्य देखो कि यह जीव स्त्रीपर्याय को छोड़कर देवों का स्वामी पुरुष हो गया माहात्म्यं पश्यतेदृक्षं धर्मस्य जिनशासने । जन्तुः स्त्रीत्वं यदुज्झित्वा पुमान् जातः सुरप्रभुः ॥ १०९ / १९ ॥ सीता के आरणाच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र बन जाने के बाद श्रीराम दिगम्बरदीक्षा ग्रहणकर तप करते हैं और उसी भव में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है । तब अच्युतेन्द्र पद को प्राप्त सीता का जीव सीतेन्द्र केवली भगवान् श्रीराम (पद्मनाभ) के पास जाकर For Personal & Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ /प्र०१ अपनी भावी पर्याय के बारे में पूछता है। केवली श्रीराम सीतेन्द्र को बतलाते हैं कि "तुम आरणाच्युत कल्प से च्युत होकर इस भरतक्षेत्र के रत्नस्थलपुर नामक नगर में चक्ररथ नामक चक्रवर्ती होगे। रावण और लक्ष्मण के जीव तुम्हारे इन्द्ररथ और मेघरथ नाम के पुत्र होंगे। इन्द्ररथ (रावण का जीव) अनेक उत्तम भव प्राप्त करने के बाद मनुष्य होकर तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करेगा और अनुक्रम से उसे अर्हन्तपद की प्राप्ति होगी। तथा तुम चक्ररथ, चक्रवर्ती की पर्याय में तप कर वैजयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र पद प्राप्त करोगे। वहाँ से च्युत होकर उक्त तीर्थंकर के प्रथम गणधर बनोगे। तदनन्तर तुम्हें निर्वाण की प्राप्ति होगी।" (पद्मपुराण / भा. ३ १२३ / १२१-१३०)। इससे साफ हो जाता है कि आचार्य रविषेण की दृष्टि में आर्यिकापद पुरुषपर्याय की प्राप्ति का साधन है, मोक्ष का नहीं। आर्यिकाधर्म का पालन करने से स्त्रीत्व से छुटकारा पाकर स्वर्ग में देवपद की प्राप्ति होती है और वहाँ से च्युत होने पर मनुष्यपर्याय में पुरुषशरीर उपलब्ध होता है। उसके आश्रय से अशेषपरिग्रहत्याग-रूप जिनलिंग धारण कर स्त्री का जीव परम्परया मुक्त होता है। रविषेण ने स्त्रीमुक्ति का यही मार्ग प्रतिपादित किया है। - पद्मपुराण में किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति नहीं बतलाई गई है। प्रत्येक आर्यिका का स्वर्ग में देव होना और उसके बाद मनुष्यभव में पुरुष होना ही बतलाया गया है। सीता का उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है। राजा रतिवर्धन की रानी सुदर्शना के भवचक्र का वर्णन करते हुए गौतम स्वामी श्रेणिक से कहते हैं- "हे राजन्! पति और पुत्रों के वियोग से पीड़ित सुदर्शना स्त्रीस्वभाव के कारण निदानशृंखला में बद्ध हो दुःखसंकट में भ्रमण करती रही। उसने नाना योनियों में स्त्रीपर्याय के दुःख भोगे और बड़ी मुश्किल से उसे जीतकर पुण्य के प्रभाव से मनुष्यभव में पुरुष हुई और विविध विद्याओं में निपुण होकर धर्मानुराग के कारण सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक बनी।" (प.पु./भा.३/१०८/४७-४९)। दशरथ की रानी कैकेयी भी स्त्रीपर्याय को धिक्कारती हुई पृथिवीमती नामक आर्या से आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर आनत स्वर्ग में देव होती है। (प.पु./ भा.३/८६ / ७. राजन् सुदर्शना देवी तनयात्यन्तवत्सला। भर्तृपुत्रवियोगात स्त्रीस्वभावानुभावतः॥ १०८/४७॥ निदानशृङ्खलाबद्धा भ्राम्यन्ती दुःखसङ्कटम्। कृच्छं स्त्रीत्वं विनिर्जित्य भुक्त्वा विविधयोनिषु॥ १०८/४८॥ अयं क्रमेण सम्पन्नो मनुष्यः पुण्यचोदितः। सिद्धार्थो धर्मसक्तात्मा विद्याविधिविशारदः॥ १०८/४९॥ पद्मपुराण / भा.३। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९/प्र०१ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४३ २१-२५)। दशरथ की अन्य रानियाँ भी उसी स्वर्ग में देव-पर्याय प्राप्त करती हैं। (प. पु. ( भा.३ (१२३ (८०-८१)। श्रीभूति नामक पुरोहित की वेदवती नामक कन्या आर्यिकादीक्षा लेकर तप करती है और ब्रह्मस्वर्ग में देव बनती है। (प.पु./भा.३/१०६/ १४१, १५२-१५४)। इस प्रकार पद्मपुराण में किसी भी आर्यिका की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। इन तथ्यों से सिद्ध है कि आचार्य रविषेण को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। यह उन के यापनीय न होने का साक्षात् प्रमाण है। सोलहकल्पादि की स्वीकृति १. पद्मपुराण (भा.३) में सोलह कल्पों का उल्लेख है (१०५ /१६७-१६९), जब कि श्वेताम्बर और यापनीय मतों में बारह ही माने गये हैं। २. चार अनुयोगों के नाम दिगम्बर-परम्परानुसार दिये गये हैं करणं चरणं द्रव्यं प्रथमं च सभदेकम्। अनुयोगमुखं योगी जगाद वदतां वरः॥ १०६ / ९१॥ पद्मपुराण/ भाग ३। ३. काल द्रव्य का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, जो श्वेताम्बर और यापनीय मतों के विरुद्ध है। (प.पु./ भा.३/१०५/१४२)। ४. आहारदान की विधि दिगम्बरमतानुसार वर्णित की गई है। (प.पु./भा.३ /१२०/ १५-१८,१२१/११-१७)। दाता के यहाँ देवों के द्वारा पंचाश्चर्य किये जाने का कथन है (प.पु./भा.३/१२१ / १९-२५), जो दिगम्बर-परम्परा का अनुसरण है। कथावतार की दिगम्बरपद्धति पद्मपुराण में राजा श्रेणिक के प्रश्न करने पर गौतम गणधर द्वारा कथा कही गई है। यह ग्रन्थ के दिगम्बर-परम्परा का होने का सूचक है। इस पर प्रकाश डालते हुए स्व० पं० परमानन्द जी शास्त्री लिखते हैं "दिगम्बर-सम्प्रदाय के प्रायः सभी ग्रन्थ, जिनमें कथा के अवतार का प्रसंग दिया हुआ है, विपुलाचल पर्वत पर वीर भगवान् का समवसरण आने और उसमें इन्द्रभूति-गौतम द्वारा राजा श्रेणिक को उसके प्रश्न पर कथा कहे जाने का उल्लेख करते हैं, जबकि श्वेताम्बरीय कथाग्रन्थों की पद्धति इससे भिन्न है। वे सुधर्मा स्वामी द्वारा जम्बू स्वामी के प्रति कथा के अवतार का प्रसंग बतलाते हैं, जैसा कि संघदास For Personal & Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ गणी की वसुदेवहिंडी के निम्नवाक्य से प्रकट है-"तत्थ ताव सुहम्मसामिणा जंबूनामस्स पढमाणुओगे तित्थयरचक्कवट्टि-दसारवंसपरूवणगयं वसुदेवचरियं कहियं ति तस्सेव---त्ति।"८ "इस बात को श्वेताम्बर ऐतिहासिक विद्वान् श्री मोहनलाल दुलीचन्द जी देसाई एडवोकेट बम्बई ने भी 'कुमारपालना समय- एक अपभ्रंश काव्य' नामक अपने लेख में स्वीकार किया है और इसे भी प्रद्युम्नचरित नामक उक्त काव्यग्रन्थ के कर्ता को दिगम्बर बतलाने में एक हेतु दिया है। (देखिये, 'जैनाचार्य श्री आत्मानन्द जन्मशताब्दी स्मारक ग्रन्थ'। गुजराती लेख/पृ. २६०)।" यह बात डॉ० सागरमल जी ने भी इन शब्दों में स्वीकार की है-"किन्तु वसुदेवहिण्डी में 'जम्बू ने प्रभव को कहा' ऐसा भी उल्लेख है, जबकि दिगम्बर-परम्परा के कथाग्रन्थों में सामान्यतया 'श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर ने कहा' ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है।" (जै.ध.या.स./२०८-२०९)। - पद्मपुराण में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से सिद्ध है कि यह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बर-परम्परा का है। ८. 'पउमचरिय का अन्तःपरीक्षण'/ अनेकान्त/वर्ष ५/ किरण १०-११/ नवम्बर-दिसम्बर, १९४३/ पृ. ३४१। ९. वही/पादटिप्पणी। For Personal & Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता यतः पद्मपुराण में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से उसका यापनीयग्रन्थ होना असिद्ध हो जाता है, अतः यापनीयमत-समर्थक सभी हेतु असत्य या हेत्वाभास हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। उनमें से कौन-सा हेतु असत्य है और कौन-सा हेत्वाभास, इसका स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है। यापनीयपक्ष रविषेण के अनुसार उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-इन्द्र, दिवाकरयति, अर्हन्मुनि, लक्ष्मणसेन व रविषेण। (पद्मपुराण/भा.३/१२३/१६८)। शाकटायनसूत्र (श्लोक १०) में भी इन्द्र का उल्लेख है। शाकटायनसूत्र यापनीयग्रन्थ माना जा चुका है। गोम्मटसार (जीवकाण्ड / गाथा १६) में इन्द्र को संशयी बताया गया है। टीकाकार ने इन्द्र को श्वेताम्बर गुरु बताया है। इस विषय में पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है-"इन्द्र नाम के श्वेताम्बराचार्य का अभी तक कोई उल्लेख नहीं मिला। बहुत संभव है कि वे यापनीय ही हों और श्वेताम्बरतुल्य होने से श्वेताम्बर कह दिये गये हों। द्विकोटिगत ज्ञान को संशय कहते हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में घटित नहीं हो सकता। परन्तु यापनीयों को कुछ श्वेताम्बर तथा कुछ दिगम्बर होने के कारण शायद संशयमिथ्यादृष्टि कह दिया गया हो। बहुत संभव है कि शाकटायनसूत्रकार ने इन्हीं इन्द्रगुरु का उल्लेख किया हो।" (जै.सा.इ./द्वि.सं/ पृ. १६७)। "इन्द्र और दिवाकरयति यदि यापनीय हों, तो रविषेण भी यापनीय ही होने चाहिए। यदि यह दिवाकरयति सन्मतिकार हैं, तो उनका यापनीय होना निश्चित है।" (या.औ.उ.सा./ पृ. १४६)। दिगम्बरपक्ष __पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन के शाकटायनसूत्रपाठ में उल्लिखित इन्द्र के यापनीय होने की संभावना व्यक्त की है। श्रीमती पटोरिया ने इन इन्द्र को बिना किसी प्रमाण के रविषेण के गुरुओं के गुरु इन्द्र से अभिन्न मानकर रविषेण को यापनीय घोषित कर दिया है। यह उनकी कपोलकल्पना है, प्रमाणसिद्ध तथ्य नहीं। ___ पद्मपुराण में पूर्वोक्त यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों के प्रतिपादन से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। अतः उसके कर्ता रविषेण भी यापनीय नहीं हैं, इसलिए Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १९ / प्र० २ उनके इन्द्र, दिवाकरयति आदि गुरुओं का भी यापनीय होना असंभव है। फलस्वरूप रविषेण को यापनीय सिद्ध करने के लिए उनके गुरु को यापनीय मानने का' हेतु असत्य है, अतः 'उनके शिष्य रविषेण यापनीय हैं। यह निर्णय भी असत्य है । यतः पद्मपुराण में दिगम्बरीय सिद्धान्तों का निरूपण है, अतः उसके कर्त्ता रविषेण दिगम्बराचार्य हैं, अत एव उनके गुरु इन्द्र, दिवाकरयति आदि भी दिगम्बर ही थे । शाकटायनसूत्र में इन्द्र का उल्लेख होना उनके यापनीय होने का प्रमाण नहीं है । दिगम्बर इन्द्र का भी शाकटायन द्वारा उल्लेख किया जाना संभव है । अथवा वे कोई अन्य इन्द्र हो सकते हैं। गोम्मटसार में जिस इन्द्र को संशयमिथ्यादृष्टि कहा गया है, वह दिगम्बराचार्य रविषेण का गुरु नहीं हो सकता, अतः वह उनसे भिन्न है, यह युक्ति से सिद्ध होता है। २ यापनीयपक्ष " आचार्य रविषेण ने अपनी कथा के स्रोत के विषय में लिखा है- वर्द्धमान जिनेन्द्र द्वारा कथित यह कथा इन्द्रभूति गौतम को प्राप्त हुई, फिर क्रम से धारिणीपुत्र सुधर्मा को और फिर क्रम से प्रभवस्वामी को प्राप्त हुई। इसके पश्चात् अनुत्तरवाग्मी कीर्ति द्वारा लिखित कथा प्राप्त करके रविषेण ने यह प्रयत्न किया। ध्यातव्य है कि जम्बूस्वामी के पश्चात् जैनसम्प्रदाय की दो धारायें प्राप्त होती हैं। दिगम्बर- परम्परा आचार्य विष्णु को तथा श्वेताम्बर - परम्परा आचार्य प्रभवस्वामी को जम्बूस्वामी का उत्तराधिकारी मानती है। रविषेण के द्वारा सुधर्मा के पश्चात् प्रभवस्वामी का उल्लेख, ये दिगम्बर - परम्परा के नहीं थे, यह मानने के लिए पर्याप्त प्रमाण है ।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १४६ - १४७)। दिगम्बरपक्ष यहाँ पद्मपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उसमें जो प्रभवस्वामी को आचार्य परम्परा से रामकथा की प्राप्ति का उल्लेख है, उसे हेतु बतलाया गया है । किन्तु पद्मपुराण में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि का निषेध है, अत एव वह दिगम्बरग्रन्थ है । और दिगम्बरग्रन्थ में उपर्युक्त उल्लेख है, इसलिए वह यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं है। फलस्वरूप उसमें पद्मपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का हेतुत्व नहीं है, अतः वह हेत्वाभास है। प्रभवस्वामी के उल्लेख का कारण यह है कि रविषेण ने पद्मपुराण की रचना श्वेताम्बर विमलसूरि के पउमचरिय के आधार पर की है। उन्होंने 'पउमचरिय' का १०. पद्मपुराण / भाग १ / १ / ४१-४२ एवं भाग ३ / १२३ / १६६ | For Personal & Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १९ / प्र० २ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४७ दिगम्बरीकरण किया है, किन्तु वे आरंभ में प्रभवस्वामी के स्थान में जम्बूस्वामी का नाम रखना भूल गये । यह भूल उन्होंने ग्रन्थ ( पद्मपुराण / भाग ३) के अन्त में सुधार ली । वहाँ उन्होंने प्रभवस्वामी के स्थान में जम्बूस्वामी का ही उल्लेख किया है । यथा निर्दिष्टं सकलैर्नतेन भुवनैः श्रीवर्द्धमानेन यत् तत्त्वं वासवभूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तरवाग्मिना प्रकटितं पद्मस्य वृत्तं मुनेः श्रेयः साधुसमाधिवृद्धिकरणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् ॥ १२३ / १६७ ॥ इस प्रकार प्रभवस्वामी का उल्लेख भूल से हुआ है, अतः वह पद्मपुराण के यापनीय-ग्रन्थ होने का हेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है । ३ यापनीयपक्ष "रविषेण द्वारा दिगम्बर - परम्परा में प्रचलित गुणभद्रवाली कथा को न अपनाकर विमलसूरि की कथा को अपनाना भी उन्हें दिगम्बर - भिन्न परम्परा का द्योतित करता है । यद्यपि आचार्य गुणभद्र का समय आचार्य रविषेण से परवर्ती हैं, परन्तु गुणभद्र की कथा की एक पूर्वपरम्परा थी, यह बात चामुण्डराय - लिखित चामुण्डराय-पुराण (त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण) से मालूम होती है।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १४७-१४८)। दिगम्बरपक्ष रविषेण ने पद्मपुराण में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, यह इस बात का अखण्ड्य प्रमाण है कि वे यापनीय - परम्परा के नहीं, बल्कि दिगम्बरपरम्परा के हैं। उन्होंने श्वेताम्बर विमलसूरि-प्रणीत कथा का दिगम्बरीकरण किया है, यह उनके दिगम्बर होने का स्पष्ट प्रमाण है। अतः विमलसूरिकृत कथा का अनुकरण रविषेण के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है । ४ यापनीयपक्ष "रविषेण की कथा को यापनीय स्वयम्भू द्वारा अपनाया जाना भी रविषेण को यापनीय मानने का एक महत्त्वपूर्ण कारण है । स्वयम्भू ने रामकथा की परम्परा को वर्धमान, इन्द्रभूति, सुधर्मा, प्रभव, अनुत्तरवाग्मी कीर्ति तथा रविषेण से क्रमशः प्राप्त बताया है। रविषेण के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए कहा है- ' आचार्य रविषेण के प्रसाद से प्राप्त कथासरिता में कविराज ने अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है।' पद्मचरित में प्रभवस्वामी का उल्लेख तथा स्वयंभू द्वारा आदरपूर्वक रविषेण के प्रति कृतज्ञता - For Personal & Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ज्ञापन, दोनों तथ्य रविषेण को यापनीय मानने को प्रेरित करते हैं।" (या. औ. उ. सा. / पृ.१४८)। दिगम्बरपक्ष स्वयम्भू भी यापनीय नहीं, दिगम्बर ही थे, इसके प्रमाण द्वाविंश अध्याय में द्रष्टव्य हैं। अतः उपर्युक्त हेतु असत्य है । यतः स्वयम्भू दिगम्बर थे, अतः मान्य विदुषी ( श्रीमती पटोरिया) के उपर्युक्त तर्क से रविषेण दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं। अ० १९ / प्र० २ मान्य विदुषी का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है कि स्वयंभू का रविषेण के प्रति आदरपूर्वक कृतज्ञता - ज्ञापन रविषेण को यापनीय मानने के लिए प्रेरित करता है । यदि आदर या सराहना की अभिव्यक्ति के आधार पर किसी लेखक के सम्प्रदाय का निर्धारण किया जाय, तो रविषेण को श्वेताम्बर भी मानना होगा और दिगम्बर भी, क्योंकि श्वेताम्बर उद्योतन सूरि ने भी अपनी कुवलयमाला (विक्रम सं० ८३५) में रविषेण के 'पद्मचरित' तथा जटिलमुनि के 'वरांगचरित' की सराहना की है तथा पुन्नाट - संघी दिगम्बर जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में ऐसा ही किया है । ११ यतः रविषेण को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मानना संभव नहीं है, अतः सिद्ध है कि मान्य विदुषी का उक्त हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है । ११. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./पृ. ८८ । . सम्प्रदाय-निर्धारण के असाधारणधर्मभूत हेतु तो ग्रन्थ में प्रतिपादित साम्प्रदायिक सिद्धान्त हैं। रविषेण ने पद्मपुराण में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । यह उन्हें असन्दिग्धरूप से दिगम्बर सिद्ध करता है। इसी हेतु को डॉ० सागरमल जी ने भी विमलसूरिकृत 'पउमचरिय' के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का निर्विवाद प्रमाण माना है । कुछ दिगम्बर विद्वानों ने विमलसूरि के 'पउमचरिय' को इस आधार पर दिगम्बरग्रन्थ कहा है कि उसमें श्रेणिक के प्रश्न करने पर गौतम स्वामी ने कथा सुनायी है, जो दिगम्बरपद्धति है । इस पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं- " मेरी दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं।" (जै. ध.या.स./पृ.२०९)। मैं इससे पूर्णत: सहमत हूँ । पद्मपुराण में भी स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि ऐसे ठोस तथ्य हैं, जो यापनीय - परम्परा के विरोध में तथा दिगम्बर- परम्परा के पक्ष में जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९/प्र०२ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४९ यापनीयपक्ष "रविषेण के (पद्मपुराण में) कई उल्लेख दिगम्बर-परम्परा के विपरीत हैं। गन्धर्वदेवों को मद्यपी (१७ / २६८) तथा यक्ष-राक्षसादिकों को कवलाहारी मानना (९४/२७१) दिगम्बर-परम्परा के विपरीत है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार १३ वें से १६वें स्वर्ग के देव चित्रा पृथिवी के उपरिम तल से नीचे नहीं जाते। १२ परन्तु पद्मचरित (पर्व १२३) में सोलहवें स्वर्ग के प्रतीन्द्र के रूप में जन्मे सीता के जीव का रावण को सम्बोधित करने के लिए नरकगमन बताया गया है।" (या. औ. उ. सा./पृ. १४८)। __ "पद्मचरित (पद्मपुराण) में यह उल्लेख है कि भरत चक्रवर्ती मुनियों के निमित्त से बने आहार को लेकर समवशरण में पहुँचे और मुनियों से आहार के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान् ऋषभदेव ने बताया कि मुनि उद्दिष्ट भोजन नहीं करते और न आहार की ऐसी रीति है।" (४/९१)। यह उल्लेख भी दिगम्बरपरम्परा के विपरीत है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक बाते हैं, जो गुणभद्र की कथा के विरुद्ध हैं। यथा १. "सगर चक्रवर्ती के पूर्वभव तथा उनके पुत्रों का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना। २. हरिषेण चक्रवर्ती की मोक्षगति (पर्व ८)। ३. मघवा चक्रवर्ती को सौधर्म स्वर्ग की प्राप्ति तथा चक्री सनत्कुमार को तीसरे स्वर्ग की प्राप्ति। ४. भगवान् महावीर द्वारा सौधर्मेन्द्र की शंका के निवारणार्थ पादांगुष्ठ से मेरु को कम्पित करना (२/७६)। ५. राम और कृष्ण के बीच ६४ हजार वर्षों का अन्तर। ये अनेक कारण रविषेण के दिगम्बर आचार्य होने में शंका उपस्थित करते हैं।" (या.औ.उ.सा./पृ. १४९)। दिगम्बरपक्ष भगवान् ऋषभदेव ने उद्दिष्ट भोजन के विषय में जो बात कही है, वह तो दिगम्बरपरम्परा को ही बतलाने के लिए कही गई है। इससे तो पद्मपुराण दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त पर्व १२० (श्लोक १५-१८) तथा पर्व १२१ (श्लोक ११-२५) में भी मुनियों के आहारदान की विधि दिगम्बर-परम्परानुसार ही वर्णित की गयी है। अतः पद्मपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उसमें १२. धवला/ष.खं./ पु. ४/१,४,५४/ पृ.२३९। For Personal & Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १९ / प्र० २ उद्दिष्ट आहारदान और मुनियों की वसतिका आदि में आहार ले जाकर देने की विधि का उल्लेख मानना असत्य मान्यता है । अत एव यह हेतु असत्य है। शेष जो मान्यताएँ दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं, वे यापनीयमत की हैं, यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वे किसी यापनीयग्रन्थ में उपलब्ध हों अर्थात् जिस ग्रन्थ में स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन न किया गया हो अथवा स्त्रीमुक्ति आदि का प्रतिपादन किया गया हो, उस ग्रन्थ में मिलने पर ही उन्हें यापनीय-मान्यता कहा जा सकता है । अन्यथा उन्हें यापनीय-मान्यता कहना कपोलकल्पित बात होगी । यतः उपर्युक्त मान्याताएँ इस प्रकार के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हैं, अतः उन्हें यापनीयों की मान्यता कहना कपोलकल्पना मात्र है । अत एव रविषेण को यापनीय सिद्ध करने के लिए बतलाये गये उपर्युक्त हेतु असत्य हैं। विषेणकृत पद्मपुराण में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः वह दिगम्बरग्रन्थ है और उसमें उपर्युक्त कथन हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि वे दिगम्बरग्रन्थ में होते हुए भी दिगम्बरम के विरुद्ध हैं । किन्तु ऐसा होना संभव है । इसका कारण है ग्रन्थकर्त्ता का लोकमान्यताओं और इतर सम्प्रदायों की मान्यताओं से प्रभावित होना और स्वरुचि के अनुसार उन्हें अपना लेना। रविषेण ने ऐसा ही किया है। वे श्वेताम्बर विमलसूरि के 'पउमचरिय' से प्रभावित हुये, इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थ के लिए रामकथा का अनुकरण वहीं से कर लिया, इस कारण प्रभवस्वामी का उल्लेख भी उसमें आ गया। भगवान् महावीर के द्वारा पादाङ्गुष्ठ से मेरु को कम्पित करने की मान्यता भी उन्होंने श्वेताम्बर - साहित्य से ग्रहण कर ली । तथा राम और कृष्ण के बीच उन्होंने जो चौंसठ हजार वर्ष का अन्तर बतलाया है, उसका उल्लेख श्वेताम्बरमत में भी नहीं है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार उनके बीच लाखों वर्षों का अन्तर है । १ ३ यह रविषेण के द्वारा स्वतंत्र मत का आरोपण है । इसी प्रकार दिगम्बर- परम्परा - प्रतिकूल अन्य मान्यताएँ भी उनके द्वारा कल्पित की गयी हैं, या किसी अन्य परम्परा से अपनायी गयी हैं। १४ पुन्नाटवंशी जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में नारद को चरमशरीरी बतलाया है, " जबकि दिगम्बर- परम्परा उन्हें नरकगामी मानती है । १५ हरिवंशपुराण की दिगम्बरमत- प्रतिकूल अन्य मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य लिखते हैं " इसी प्रकार ६५ वें सर्ग के अन्त में कथा है कि बलदेव जब ब्रह्मलोक में देव हो चुके, तब वे अवधिज्ञान से कृष्ण के जीव का पता जानकर उसे सम्बोधन १३. देखिये, जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १८० । १४. हरिवंशपुराण ४२ / १२, १३, २२ तथा ६५ / २४ । १५. देखिए, डॉ. पन्नालाल जी जैन साहित्याचार्य की हरिवंशपुराण - प्रस्तावना / पृ. १८ । For Personal & Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१९/प्र०२ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६५१ के लिए बालुकाप्रभा-पृथिवी में गये। बलदेव का जीव देव, कृष्ण को अपना परिचय देने के बाद उसे वहाँ से अपने साथ ले जाने का प्रयत्न करता है, परन्तु वह सब विफल होता है। अन्त में कृष्ण का जीव बलदेव से कहता है कि "भाई जाओ, अपने स्वर्ग का फल भोगो, आयुका अन्त होने पर मैं भी मनुष्यपर्याय को प्राप्त होऊँगा, वह मनुष्यपर्याय जो कि मोक्ष का कारण होगी। उस समय हम दोनों तप कर जिनशासन की सेवा से कर्मक्षय के द्वारा मोक्ष प्राप्त करेंगे। परन्तु तुम इतना करना कि भारतवर्ष में हम दोनों पुत्र आदि से संयुक्त तथा महाविभव से सहित दिखाये जावें। लोग हमें देखकर आश्चर्य से चकित हो जावें। तथा घर-घर में शंख, चक्र और गदा हाथ में लिये हुए मेरी प्रतिमा बनायी जाये और मेरी कीर्ति की वृद्धि के लिए हमारे मन्दिरों से भरतक्षेत्र को व्याप्त किया जाये।" बलदेव के जीव ने कृष्ण के वचन स्वीकार कर उनसे कहा कि सम्यग्दर्शन में श्रद्धा रखो। तथा भरतक्षेत्र में आकर कृष्ण के कहे अनुसार विक्रिया से उनका प्रभाव दिखाया और तदनुसार उनकी प्रतिमा और मन्दिर बनवाकर भरतक्षेत्र को व्याप्त किया। ___ "इस प्रकरण में विचारणीय बात यही है कि जिसे तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध है, वह सम्यग्दृष्टि तो रहेगा ही। यह ठीक है कि बालुकाप्रभा में उत्पन्न होते समय उनका सम्यक्त्व छूट गया होगा, परन्तु अपर्याप्तक अवस्था के बाद फिर से उन्हें सम्यग्दर्शन हो गया होगा, यह निश्चित है। सम्यग्दृष्टि जीव ने लोक में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए मिथ्यामूर्ति के निर्माण की प्रेरणा दी और सम्यग्दृष्टि बलराम के जीव देव ने वैसा किया भी। इस प्रकरण की संगति कुछ समझ में नहीं आती।"१६ इस प्रकार हरिवंशपुराण में भी दिगम्बर-परम्परा से मेल न खानेवाली कुछ बातें हैं, फिर भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं है, दिगम्बरग्रन्थ ही है, क्योंकि उसमें स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इसी प्रकार रविषेणकृत पद्मपुराण (पद्मचरित) में भी कुछ उल्लेख दिगम्बरमत के प्रतिकूल हैं, तथापि उसमें यापनीयमत की मूलभूत मान्यताओं के विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से वह यापनीयकृति नहीं है, अपितु दिगम्बरकृति ही है। किसी मनुष्य की नस्ल की पहचान उसकी शारीरिक संरचना से ही होती है, धारण की गई वेशभूषा से नहीं। अतः जैसे कोई भारतीय प्रजाति (नस्ल) का मनुष्य विदेशी वेशभूषा धारण कर लेने से विदेशी नहीं हो जाता, वैसे ही जिस ग्रन्थ की रचना यापनीयमत के आधारभूत सिद्धान्तों के निषेधक दिगम्बरसिद्धान्तों से हुई है, उसमें कुछ दिगम्बर-परम्परा-विरुद्ध बाह्य बातों का समावेश हो जाने से वह यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। इसलिए रविषेणकृत पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ ही है, यापनीयग्रन्थ नहीं। १६. वही/ पृ.१८। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंश अध्याय Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंश अध्याय वराङ्गचरित प्रथम प्रकरण वराङ्गचरित के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ. सागरमल जी जैन ने दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दिकृत वरांगचरित (७ वीं शती ई०) को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु उन्होंने जैसे अन्य दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए असत्य हेतुओं एवं हेत्वाभासों का प्रयोग किया है, वैसे ही यहाँ भी किया है। इसका निर्णय वरांगचरित में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का साक्षात्कार करने से हो जाता है। अतः सर्वप्रथम उनका ही प्ररूपण किया जा रहा है। यापनीयपक्षधर हेतुओं का वर्णन तथा उनकी असत्यता या हेत्वाभासता का उपपादन तदनन्तर किया जायेगा। वराङ्गचरित में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्त केवलिभुक्तिनिषेध वरांगचरित के निम्नलिखित श्लोकों में अरहन्त भगवान् में क्षुधा, तृषा आदि दोषों का अभाव बतलाया गया है, जो केवलिभुक्ति-निषेध का जाज्वल्यमान प्रमाण है निद्राश्रमक्लेशविषादचिन्ता - क्षुत्तृड्जराव्याधिभौविहीनाः। अविस्मयाः स्वेदमलैरपेता आप्ता भवन्त्यप्रतिमस्वभावाः॥ २५/८७॥ द्वेषश्च रागश्च विमूढता च दोषाशयस्ते जगति प्ररूढाः। न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानहतस्त्वाप्ततमा वदन्ति॥ २५/८८॥ अनुवाद-"जो निद्रा, श्रम, क्लेश, विषाद, चिन्ता, क्षुधा, तृषा, जरा, व्याधि और भय से रहित हो गये हैं, जिनमें विस्मय का भी अभाव हो गया है तथा पसीना आदि मलों की उत्पत्ति भी जिनमें समाप्त हो गयी है, वे अनुपम स्वभाववाले आत्मा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २० / प्र० १ आप्त होते हैं । संसारी जीवों में जो रागद्वेषमोह विद्यमान रहते हैं, वे उपर्युक्त दोषरहित आप्तों में नहीं होते, इसलिए उन्हें आप्ततमों (सर्वज्ञों) ने अरहन्त कहा है । " यहाँ अरहन्त भगवान् में क्षुधा तृषा की पीड़ाओं का अभाव स्पष्ट शब्दों में बतलाया गया है, जो केवलिभुक्ति - निषेध का ज्वलन्त प्रमाण है । मात्र इस एक प्रमाण से वरांगचरित का यापनीयग्रन्थ न होना सिद्ध हो जाता है, क्योंकि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति की मान्यताएँ यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्त हैं और उनमें से केवलिभुक्ति का मौलिक सिद्धान्त यहाँ अस्वीकार किया गया है। इस एक प्रमाण से यह भी सिद्ध हो जाता है कि यह दिगम्बरग्रन्थ है और यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने इसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिये हैं, वे सब असत्य हैं या हेत्वाभास हैं । केवलिभुक्तिनिषेध पर आवरण: छलवाद उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ-लेखक ने दावा किया है कि उन्होंने मूल ग्रन्थ को प्रयासपूर्वक देखा है । वे लिखते हैं- " यद्यपि श्रीमती पटोरिया के अनुसार वरांगचरित में ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिससे जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ को यापनीय कहा जा सके, किन्तु मेरी दृष्टि में श्रीमती कुसुम पटोरिया का यह कथन समुचित नहीं है। संभवतः उन्होंने मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयत्न ही नहीं किया और द्वितीयक स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर ऐसा मानस बना लिया। मैंने यथासंभव मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयास किया है और उसमें मुझे ऐसे अनेक तत्त्व मिले हैं, जिनके आधार पर वरांगचरित और उसके कर्त्ता जटिलमुनि या जटासिंहनन्दी को दिगम्बरपरम्परा से भिन्न यापनीय अथवा कूर्चकपरम्परा से सम्बद्ध माना जा सकता है।" (जै. ध. या. स. / पृ. १८५) । मान्य ग्रन्थलेखक का यह दावा कितना खोखला है, यह इसी बात से सिद्ध है कि उनकी दृष्टि वरांगचरित में केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले उपर्युक्त श्लोकों पर नहीं गई । अथवा गई हो, तो उन्होंने उन्हें छिपाने का प्रयास किया है और एक दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए न्यायशास्त्र के छलवाद नामक अवैध मार्ग का आश्रय लिया है। वरांगचरित में उपलब्ध यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों में केवलिभुक्ति-निषेध तो केवल एक उदाहरण है । अन्य उदाहरण भी देखिए । २ वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति-निषेध यापनीयमत में निर्वस्त्रमुक्ति के अतिरिक्त सवस्त्रमुक्ति का विकल्प भी मान्य किया गया है। अतः उसमें वस्त्रधारी पुरुष को भी मुनि नाम दिया गया है। किन्तु वरांगचरित में For Personal & Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०१ वराङ्गचरित / ६५७ सर्वत्र निर्ग्रन्थ या दिगम्बर को ही 'मुनि' शब्द से अभिहित किया गया है। यथा व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूयाः सत्यव्रताः क्षान्तिदयोपपन्नाः। सन्तुष्टशीलाः शुचयो विनीता निर्ग्रन्थशूरा इह पात्रभूताः॥ ७/५०॥ अनुवाद-"जिनके मात्सर्य, मद और असूया दोष नष्ट हो गये हैं, जो सत्यव्रती हैं, क्षमा और दया से युक्त हैं तथा सन्तोषी, निर्लोभ और विनीत हैं, वे ही निर्ग्रन्थमुनि आहारादिदान के लिए उत्तम पात्र हैं।" निम्नलिखित श्लोक में कहा गया है कि 'वरांग' आदि मुनि हेमन्त ऋतु में दिगम्बर होते हुए भी अभ्रावकाशयोग (खुले आकाश के नीचे योग) धारण करते थे हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः। _ हिमोत्कारोन्मिश्रितशीतवायुं प्रसेहिरेऽत्यर्थमपारधैर्याः॥ ३० / ३२॥ इन कथनों से स्पष्ट है कि वरांगचरित में दिगम्बरों को ही मुनि कहा गया है, वस्त्रधारियों को नहीं। २.१. राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा वरदत्त केवली के उपदेश को सुनकर राजा वरांग दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण करते हैं। इसका वर्णन जटासिंहनन्दी ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है विशालबुद्धिः श्रुतधर्मतत्त्वः प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या। तत्याज निर्माल्यमिवात्मराज्यमन्तःपुरं नाटकमर्थसारम्॥ २९/८५॥ विभूषणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्बखेडैः। आजीवितान्तात्प्रजहौ स बाह्यमभ्यन्तरांस्तांश्च परिग्रहाद्यान्॥ २९/८६॥ अपास्य मिथ्यात्वकषायदोषान्प्रकृत्य लोभं स्वयमेव तत्र। जग्राह धीमानथ जातरूपमन्यैरशक्यं विषयेषु लोलैः॥ २९/८७॥ अनुवाद-"राजा वरांग अत्यधिक बुद्धिमान् थे। धर्म के तत्त्व को उन्होंने सुना और समझा था। उनका राग शान्त हो गया था। उनकी बुद्धि स्वभाव से ही स्थिर थी। अत एव उन्होंने अपने राज्य को इस प्रकार त्याग दिया, जैसे कोई निर्माल्य द्रव्य को त्याग देता है और अपने गुणरूपयुक्त अन्तःपुर को ऐसे भूल गये, जैसे ज्ञानी नाटक के दृश्यों को भूल जाता है। (२९/८५) "उन्होंने आभूषण, आच्छादन (वस्त्र), वाहन, पुर, आकर, ग्राम, मडम्ब और खेड़ा, इन समस्त बाह्य परिग्रहों को तथा इनके कारणभूत आभ्यन्तर परिग्रह को जीवनपर्यन्त के लिए त्याग दिया।" (२९/८६) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ "उन बुद्धिमान् वरांग ने मिथ्यात्व और कषायरूपी दोषों को धो डाला। लोभ को भी स्वयं विनष्ट कर दिया तथा उस जातरूप (जैसा जन्म के समय रहता है वैसे नग्नरूप) को धारण कर लिया, जो विषयों में आसक्त अन्य लोगों के लिए धारण करना संभव नहीं है।" (२९/८७)। __ यहाँ हम देखते हैं कि राजा वरांग मुनिदीक्षा ग्रहण करते समय सम्पूर्ण राज्य और वैभव के साथ वस्त्र और आभूषण भी त्याग देते हैं तथा बिलकुल वैसा नग्न रूप धारण कर लेते हैं, जैसा गर्भ से निकले शिशु का होता है। इससे स्पष्ट है कि वरांगचरित में राजा-महाराजाओं के लिए भी वैकल्पिक सवस्त्र मुनिदीक्षा का विधान नहीं है। यह यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त का स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन है। २.२. वरांगियों के वर्णन को वरांग का वर्णन कहना छलवाद' किन्तु 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने राजा वरांग की वरांगी (सुन्दर अंगोंवाली) रानियों के आर्यिकादीक्षा-वर्णन को राजा वरांग का मुनिदीक्षा-वर्णन समझ लिया है और रानियों के द्वारा आर्यिका-दीक्षा हेतु धारण किये गये श्वेतवस्त्र को राजा वरांग के द्वारा मुनिदीक्षा हेतु धारण किया गया मानकर वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वरांगचरित के जिन पद्यों में रानियों की दीक्षा का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्गयः। परीत्य भक्त्यार्पितचेतसस्ता नमः प्रकुर्वन्मुनये प्रहृष्टाः॥ २९/९२॥ ततो हि गत्वा श्रमणार्जिकानां समीपमभ्येत्य कृतोपचाराः। विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराङ्गयो वरभूषणानि॥ २९ / ९३॥ गुणांश्च शीलानि तपांसि चैव प्रबुद्धतत्त्वाः सितशुभ्रवस्त्राः। सगृह्य सम्यग्वरभूषणानि जिनेन्द्रमार्गाभिरता बभूवुः॥ २९/९४॥ मन्त्रीश्वरामात्यपुरोहितानां पुरप्रधानर्द्धिमतां गृहिण्यः। नृपाङ्गनाभिः सुगतिप्रियाभिर्दिदीक्षरे ताभिरमा तरुण्यः॥ २९/९५॥ अनुवाद-"राजा वरांग के साथ उनकी रानियाँ भी वरदत्त-केवली के दर्शन करने के लिए गयी थीं। उनकी आँखें कमलों के समान मनोहर थीं। उनके अंग विचित्र रत्नों से विभूषित थे। उन्होंने प्रसन्न होकर भक्तिभाव से मुनि वरदत्त की प्रदक्षिणा कर उन्हें नमस्कार किया।" (२९/९२)। For Personal & Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०१ वराङ्गचरित / ६५९ . "तत्पश्चात् श्रमणा (श्रमणी) आर्जिकाओं के पास जाकर उनकी वन्दना की। फिर वैराग्यभाव से परिणत वरांगियों (सुन्दरियों) ने एकान्त स्थान में जाकर अपने बहुमूल्य आभूषण उतार दिये, श्वेतवस्त्र धारण कर लिये और गुण, शील तथा तपरूपी समीचीन आभूषणों से विभूषित हो, तत्त्वों को हृदयंगम कर जिनमार्ग में प्रवृत्त हो गयीं।" (२९/९३-९४)। __ "उन रानियों को मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होते हुए देखकर मन्त्रियों, अमात्यों, पुरोहितों और नगर श्रेष्ठियों की तरुणी पत्नियों के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और रानियों के साथ उन्होंने भी आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर ली।" (२९/९५)। ____ इन पद्यों में राजा वरांग की पत्नियों और उनके साथ मन्त्री, पुरोहित आदि की पत्नियों के द्वारा आर्यिकादीक्षा ग्रहण किये जाने का वर्णन है। अतः स्पष्ट है कि आभूषणों का परित्याग और श्वेतवस्त्र धारण उन्हीं के द्वारा किया गया। किन्तु उक्त ग्रन्थलेखक उपर्युक्त पद्यों का निर्देश करते हुए लिखते हैं ___ "वरांगचरित में वरांगकुमार की दीक्षा का विवरण देते हुए लिखा गया है कि 'श्रमण और आर्यिकाओं के समीप जाकर तथा उनका विनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकान्त में जाकर सुन्दर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्धतत्त्वरूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करके वे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मार्ग में अग्रसर हुए।' दीक्षित होते समय मात्र आभूषणों का त्याग करना तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करना दिगम्बरपरम्परा के विरोध में जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दी दिगम्बरपरम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा का अनुसरण करनेवाले थे। यापनीयों में अपवादमार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न होना आवश्यक नहीं माना गया था। चूँकि वरांगकुमार राजा थे, अतः संभव है कि उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो। यापनीयग्रन्थ भगवतीआराधना एवं उसकी अपराजिताटीका में हमें ऐसे निर्देश मिलते हैं कि राजा आदि कुलीन पुरुष दीक्षित होते समय या संथारा ग्रहण करते समय अपवादलिंग (सवस्त्र) रख सकते हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.१९६-१९७)। इस कथन के प्रमाण में ग्रन्थलेखक ने पादटिप्पणी में 'ततो हि गत्वा श्रमणार्जिकानां' आदि उपर्युक्त गाथाओं (२९ / ९३-९४) को ही उद्धृत किया है। यह कथन ग्रन्थलेखक की संस्कृतभाषा से अनभिज्ञता प्रकट करता है और उनके छलवाद को भी। वराङ्गयो (वरामयः) पद स्त्रीलिंगीय वराङ्गी शब्द का प्रथमाविभक्तिबहुवचन का रूप है। वह पूर्व पद्य में वर्णित क्षितीन्द्र पल्यः (राजा वरांग की पत्नियाँ) पद का विशेषण है। वराङ्गी शब्द का अर्थ है सुन्दर अंगोंवाली। अतः वराङ्गयः क्षितीन्द्र For Personal & Private Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ पल्यः का अर्थ है राजा वरांग की सुन्दर अंगोंवाली पत्नियाँ। 'क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो' इत्यादि तीन पद्यों (२९/९२-९४) में वर्णित कमलायताक्ष्यो, विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्ग्यः भक्त्यार्पितचेतसः, प्रहृष्टाः, विगतानुरागाः, प्रबुद्धतत्त्वाः, एवं सितशुभ्रवस्त्राः पद भी राजा वरांग की रानियों के विशेषण हैं। इस प्रकार तीनों पद्यों में राजा वरांग की रानियों की आर्यिकादीक्षा का वर्णन है। अतः श्वेतवस्त्र धारण करने का वर्णन उन्हीं के विषय में है, राजा वरांग के विषय में नहीं, यह क्षितीन्द्रपत्न्यः पद के प्रयोग से स्पष्ट है। राजा वरांग की मुनिदीक्षा का वर्णन तो 'विशालबुद्धिः श्रुतधर्मतत्त्वः' इत्यादि पूर्वोद्धृत पद्यों (२९/८५-८७) में किया जा चुका है, जिनमें कहा गया है कि राजा वरांग ने राज्य, वाहन आभूषण, आच्छादन (वस्त्र) आदि का निर्माल्य के समान परित्याग कर जातरूप (नग्नरूप) धारण कर लिया। इस प्रकार 'वरांगचरित' में राजा वरांग की दैगम्बरीदीक्षा का वर्णन है, सवस्त्रदीक्षा का नहीं। ___इसलिए यद्यपि संस्कृतभाषा के ज्ञान के अभाव में यह माना जा सकता है कि उक्त ग्रन्थलेखक ने वराङ्गियों (रानियों) के विषय में किये गये कथन को वरांग के विषय में किया गया मान लिया है, तथापि यह नहीं माना जा सकता कि संस्कृत का ज्ञान न होते हुए भी उन्होंने हिन्दी अनुवाद नहीं पढ़ा होगा। यदि न पढ़ा होता, तो उक्त पद्यों का जितना थोड़ा बहुत सही अर्थ उन्होंने लिखा है, उतना भी नहीं लिख सकते थे। इसलिए यह निश्चित है कि उन्होंने उक्त संस्कृत पद्यों का हिन्दी अनुवाद अवश्य पढ़ा है और हिन्दी अनुवाद में तो 'वराङ्गयो' शब्द का 'वरांगकुमार' अर्थ किसी भी संस्कृतज्ञ के द्वारा नहीं किया जा सकता, न किया गया है। तब उन्होंने हिन्दी अर्थ का अनुसरण न कर अपने मन से 'वरांगकुमार' अर्थ क्यों ग्रहण किया? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। साथ ही यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है कि जब पूर्व पद्यों में राजा वरांग के दिगम्बररूप में दीक्षित होने का कथन किया जा चुका है, तब उन्होंने यहाँ उन्हें सवस्त्ररूप में दीक्षित क्यों बतलाया? विचार करने पर स्पष्ट होता है कि यह उनके द्वारा जगह-जगह अपनाये गये छलवाद का बृहत्तम उदाहरण है, जिसके सहारे उन्होंने अनेक दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। २.३. वरांग की सवस्त्रदीक्षा की संभावना के लिए स्थान नहीं यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक का पूर्वोद्धृत यह कथन भी अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि "यापनीयों में अपवादमार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न होना आवश्यक नहीं माना गया था। चूँकि वरांगकुमार राजा थे, अतः सम्भव है कि उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो।" यह कथन सूचित करता है कि उन्होंने वरांगचरित Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २० / प्र०१ वराङ्गचरित / ६६१ को आद्योपान्त पढ़ा ही नहीं है। पूर्व में 'राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा' शीर्षक (२.१) के अन्तर्गत उन पद्यों को उद्धृत कर चुका हूँ, जिनमें वरांगचरितकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मुनिदीक्षा लेते समय राजा वरांग ने राज्य, वाहन, आभूषण, आच्छादन (वस्त्र) आदि का निर्माल्य की तरह परित्याग कर जातरूप (नग्नरूप) धारण कर लिया। यदि उक्तग्रन्थ लेखक ने वे पद्य पढ़े होते, तो वे ऐसा न लिखते कि 'संभव है वरांगकुमार को सवस्त्र ही दीक्षित दिखाया गया हो'। उन पद्यों में प्रयुक्त जातरूपं जग्राह शब्दों को पढ़ लेने पर किसी प्रकार की संभावना करने या अटकल लगाने के लिए स्थान ही नहीं रहता। इनको पढ़ने से तो निश्चित हो जाता है कि राजा वरांग की सवस्त्र-दीक्षा नहीं, अपितु निर्वस्त्र दैगम्बरी-दीक्षा हुई थी। २.४. साधु के साथ 'सवस्त्र' शब्द का प्रयोग एक भी बार नहीं __वरांगकुमार की सवस्त्रदीक्षा सिद्ध करने के लिए उक्त ग्रन्थलेखक तर्क देते हैं कि वरांगचरित में वरांग मुनि के लिए 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग केवल एक बार मिलता है, हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय। (जै.ध.या.स./पृ.१९७)। उनका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि वरांगकुमार दीक्षित तो वस्त्रसहित ही हुए थे, केवल हेमन्तकाल में अभावकाशयोग के समय दिगम्बर हो जाते थे। इसीलिए उन्हें हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय दिगम्बर कहा गया है। किन्तु यह तर्क भी सिद्ध करता है कि मान्य ग्रन्थलेखक ने वरांगचरित का अध्ययन सतही तौर पर किया है, एक सरसरी निगाह भर डाली है, उसमें आलोड़न नहीं किया, इसीलिए ऐसी अतथ्यपूर्ण बातें उन्होंने लिखी हैं। पहली बात तो यह है कि वरांगकुमार को केवल अभ्रावकाशयोग के समय ही दिगम्बर 'नहीं कहा गया है, अपितु दीक्षा ग्रहण करते समय भी जातरूप (नग्नत्व) धारण करनेवाला कहा गया है। इसके अतिरिक्त वृक्षमूलयोग, आतापनयोग, अस्पर्शयोग आदि के समय भी उन्हें दिगम्बर रूप में ही चित्रित किया गया है। कहा गया है कि वर्षा ऋतु में वृक्षमूलयोग के समय जल की धाराओं से उनके शरीर का मैल धुल जाता था-'धाराभिधौताङ्गमलाः' (३०/३१) और विद्युत् के प्रकाशरूपी वस्त्र उनके शरीर से लिपट जाते थे–'विद्युल्लतावेष्टनभूषिताङ्गाः' (३०/३१)। ग्रीष्मऋतु में आतापनयोग करने से सूर्यताप के कारण शरीर से पसीना बहता था, जिससे उड़ती हुई धूल देह पर बैठ जाती थी और देह धूल से लिप्त हो जाती थी-'स्वेदाङ्गमासक्तरजःप्रलिप्ताः ' (३०/३५)। इन वर्णनों से शरीर का नग्न रहना ही सूचित होता है। तथा वरांगचरित में ऐसा कथन कहीं भी नहीं है कि वरांगकुमार कभी वस्त्र ग्रहण कर लेते थे, कभी दिगम्बर हो जाते थे। For Personal & Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ और राजा वरांग के लिए 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग तो दिगम्बर, निर्ग्रन्थ, निरस्तभूषाः (३०/२) और जातरूप शब्दों से कई बार किया गया है, किन्तु उनके वस्त्रधारी होने का कथन ग्रन्थ में कहीं भी नहीं मिलता। इसलिए 'मुनि के लिए दिगम्बर शब्द का प्रयोग एक ही बार मिलता है,' मान्य लेखक का यह कथन भी सत्य नहीं है। और यदि हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय ही 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग मिलता, तो इससे यह तो सिद्ध नहीं हो सकता था कि शेष समय में वरांग मुनि या अन्य कोई मुनि सवस्त्र रहते थे। यह तो तभी सिद्ध होता, जब ग्रन्थ में ऐसा कथन होता। ऐसा कथन नहीं है, इससे सिद्ध है कि हेमन्तकाल के अतिरिक्त अन्य कालों में वरांग मुनि के सवस्त्र रहने की कल्पना उक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ लेखक ने दुरभिप्रायवश स्वयं की है, वरांगचरित में उसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। तथा जो मुनि हेमन्तकाल में नग्न रह सकते थे, वे अन्य कालों में वस्त्रधारण कर लेते होंगे, यह मान्यता भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा करने का कोई प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं होता। २.५. "विशीर्णवस्त्रा' मुनियों का नहीं, आर्यिकाओं का विशेषण उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक महोदय ने लिखा है कि वरांगचरित में "मुनियों के लिए सामान्यतया 'विशीर्णवस्त्रा' शब्द का प्रयोग हुआ है।" (जै.ध.या.स./पृ.१९७)। यह मिथ्या निष्कर्ष भी उनकी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञता का अथवा ग्रन्थ का गंभीरता-पूर्वक अध्ययन न करने का अथवा छलवाद का उदाहरण है। 'विशीर्णवस्त्रा' (छिन्नभिन्न-वस्त्रवाली) विशेषण का प्रयोग वरांग आदि मुनियों के लिए नहीं, अपितु आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर लेनेवाली उनकी पत्नियों के लिए हुआ है। वरांगचरित का इकतीसवाँ सर्ग नरेन्द्रपत्नियों के तपश्चरण के वर्णन से शुरू होता है और १५वें श्लोक तक चलता रहता है। प्रथम श्लोक में कहा गया है नरेन्द्रपल्यः श्रुतिशीलभूषा निर्वेदसंवर्धितधर्मरागाः। विशुद्धिमत्यः प्रतिपन्नदीक्षास्तदा बभूवुः परिपूर्णकामाः॥ ३१/१॥ अनुवाद-"राजा वरांग की रानियाँ श्रुत और शील से अलंकृत थीं, वैराग्य से उनका धर्मानुराग बढ़ गया था, उनकी बुद्धि विशुद्ध थी। दीक्षा लेने पर उनकी अन्तिम कामना भी पूर्ण हो गई थी।" इस क्रम से उनके धर्माचरण का वर्णन करते हुए १३वें श्लोक में कहा गया है तपोऽग्निनिर्दग्धविवर्णदेहा व्रतोपवासैरकृशाः कृशाङ्गयः। विशीर्णवस्त्रावृतगात्रयष्टयस्ताः काष्ठमात्रप्रतिमा बभूवुः॥ ३१/१३॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०१ वराङ्गचरित / ६६३ अनुवाद-"तप की अग्नि से झुलस कर उनका शरीर विवर्ण हो गया था। पहले से तो वे दुबली-पतली थी ही, व्रतों और उपवासों से और भी दुबली-पतली हो गईं। उनके शरीर की साड़ी छिन्न-भिन्न हो गई थी। वे काठ से बनायी हुई पुतलियों के समान लगती थीं।" इस प्रकार यह कथन राजा वरांग की रानियों के विषय में है। यह प्रथम श्लोक (नरेन्द्रपल्यः ३१/१) के प्रसंग से भी स्पष्ट है तथा १३वें श्लोक में प्रयुक्त कृशाङ्यः, ताः, विवर्णदेहाः एवं काष्ठमात्रप्रतिमाः इन स्त्रीलिंगीय प्रथमा-बहुवचन के रूपों से भी स्पष्ट है। इसलिए विशीर्णवस्त्रावृतगात्रयष्टयः यह विशेषण भी उन्हीं के लिए प्रयुक्त हुआ है। इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षी मान्य ग्रन्थलेखक द्वारा विशीर्णवस्त्राः विशेषण का प्रयोग मुनियों के लिए माना जाना उनकी संस्कृतभाषा से अनभिज्ञता, अथवा वरांगचरित के गंभीरतापूर्वक अध्ययन के अभाव अथवा छलवाद का सूचक है। इस तरह हम देखते हैं कि उक्त ग्रन्थलेखक ने एक दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए कितना शोधधर्म-विरुद्ध अवैधानिक मार्ग अपनाया है! ____ इसी प्रकार उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने ३०वें सर्ग के दूसरे श्लोक में वरांग मुनि के लिए प्रयुक्त निरस्तभूषाः शब्द से 'साजसज्जारहित' अर्थ ग्रहण किया है, 'नग्न' अर्थ नहीं। (जै.ध.या.स./पृ.१९७)। अर्थात् उनका वरांग मुनि को वस्त्रधारी ही मानने का आग्रह है। किन्तु ठीक इसके पूर्व २९वें सर्ग के ८५-८७ श्लोकों में कहा गया है कि राजा वरांग ने राज्य और वस्त्रादि परिग्रह का निर्माल्य की तरह परित्याग कर जातरूप (नग्नरूप) धारण कर लिया था। इससे स्पष्ट है कि उनके तथा उनके साथ में दीक्षित मुनियों के लिए प्रयुक्त निरस्तभूषाः विशेषण वस्त्राभूषणादि समस्त परिग्रह का त्याग कर नग्न हो जाने का ही सूचक है। उक्त ग्रन्थलेखक ने उस विशेषण पर स्वाभीष्ट अर्थ का आरोपण कर दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने हेतु छलवाद की पद्धति अपनायी है। २.६. निर्ग्रन्थशूर ही मोक्ष के पात्र वरांगचरित में जटासिंहनन्दी ने निर्ग्रन्थशूरों को ही मोक्ष का पात्र बतलाया है क्षमाविभूषाः पृथुशीलवस्त्रा गुणावतंसा दममाल्यलीलाः। निर्ग्रन्थशूरा धृतिबद्धकक्षास्ते मोक्षमक्षीणमभिव्रजन्ति ॥ १०/१२॥ अनुवाद-"जो क्षमारूप अलंकार, उत्तमशीलरूपी वस्त्र, गुणरूपी कर्णाभूषण तथा दमरूपी माल्य धारण करते हैं एवं जिनकी कटि धैर्य से कसी हुई है, वे दिगम्बरमुनिरूपी वीर ही मोक्ष प्राप्त करते हैं।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ पूर्वोद्धृत श्लोकों में प्रयुक्त दिगम्बर और जातरूप शब्दों से सिद्ध है कि वरांगचरितकार ने निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग नग्न दिगम्बर मुनि के अर्थ में किया है। अतः इस प्रयोग से भी सिद्ध होता है कि वरांगचरित में वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति के लिये स्थान नहीं दिया गया है। २.७. परीषहजयविधान दिगम्बरत्व की अनिवार्यता का सूचक ___ वरांगचरित में स्वर्ग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति के लिए मुनि को परीषहजय आवश्यक बतलाया गया है, यह मुनि के लिए निर्वस्त्र रहने की अनिवार्यता का सूचक है, क्योंकि वस्त्रधारी को परीषह संभव नहीं हैं। श्वेताम्बर और यापनीय साधना-पद्धतियों में परीषहजय आदि में असमर्थ पुरुषों के लिए ही वैकल्पिक रूप से वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गई है। इससे स्पष्ट है कि जिन ग्रन्थों में मुनि के लिए परीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन है, वे न तो श्वेताम्बरग्रन्थ हैं, न यापनीयग्रन्थ। वरांगचरित के निम्न पद्य में आहारादिदान के लिए उत्तमपात्र उन्हीं मुनियों को बतलाया गया है, जो अन्य गुणों से युक्त होते हुए परीषहों से विचलित नहीं होते येषां तु चारित्रमखण्डनीयं मोहान्धकारश्च विनाशितो यैः। परीषहेभ्यो न चलन्ति ये च ते पात्रभूता यतयो जिताशाः॥ ७/५२॥ जो परीषहों से क्षणभर के लिए भी नहीं डिगते, बारह प्रकार के तप में दृढ़ रहते हैं, पाँचों समितियों में सावधान तथा त्रिगुप्ति-गुप्त होते हैं, उन्हें वरांगचरित में स्वर्ग में पदार्पण करनेवाला कहा गया है परीषहाणां क्षणमप्यकम्प्या द्विषट्प्रकारे तपसि स्थिताश्च। ये चाप्रमत्ताः समिती सदा ते त्रिगुप्तिगुप्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥ ९/३४॥ ऐसे ही मुनियों को वरांगचरित में सर्वज्ञत्व की प्राप्ति बतलायी गयी ईर्यापथादिष्वपि चाप्रमत्तो निर्वेदसंवेगविशुद्धभावः। परीषहान्दुर्विषहान् विजित्य तपस्क्रियां तां यतते यथोक्ताम्॥ ११/३२॥ सम्प्राप्य सार्वज्यमनुत्तमश्रीर्विधूय कर्माणि निरस्तदोषः। निःश्रेयसां शान्तिमुदारसौख्यां लब्ध्वा चिरं तिष्ठति निष्ठितार्थः॥११/३३॥ इन प्रमाणों से सिद्ध है कि वरांगचरित में वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, जो उसके यापनीयग्रन्थ न होने और दिगम्बरग्रन्थ होने का पक्का सबूत है। For Personal & Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२०/प्र०१ वराङ्गचरित / ६६५ स्त्रीमुक्तिनिषेध श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में भिक्खुणी-दीक्षा लेनेवाली स्त्रियों को उसी पर्याय से मुक्तिगामिनी माना गया है, किन्तु वरांगचरित में इसके विपरीत वर्णन है। उसमें कहा गया है कि राजा वरांग के साथ आर्यिकादीक्षा ग्रहण करनेवाली उसकी रानियों ने अपने तप के बल से स्वर्ग प्राप्त किया था। यथा महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य प्रशान्तरागाः परिणीतधर्माः। दयादमक्षान्तिगुणैरुपेताः स्वैः स्वैस्तपोभिस्त्रिदिवं प्रजग्मुः॥ ३१ / ११३॥ वरांगचरितकार के अनुसार स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी रत्नत्रय की आराधना कर पहले देव और मनुष्य गतियों का सुख भोगते हैं, पश्चात् क्रम से निर्वाण प्राप्त करते हैं सदृष्टिसज्ज्ञानचरित्रवद्भ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति सुदृष्टयो ये। भुक्त्वा सुखं ते सुरमानुषाणां क्रमेण निर्वाणमवाप्नुवन्ति ॥ ७/५३॥ ये कथन इस बात के सूचक हैं कि स्त्रीपर्याय से साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। रत्नत्रय की आराधना से पहले देवगति प्राप्त होगी, पश्चात् मनुष्यगति एवं परिपूर्ण संयम के साधनभूत पुरुषशरीर और वज्रवृषभनाराचसंहनन प्राप्त होने पर सकल संयम द्वारा मोक्षप्राप्ति संभव है। श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की मान्यता है कि तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे। अत एव उनके ग्रन्थों में उन्हें स्त्रीलिंगीय मल्ली शब्द से अभिहित किया गया है, जबकि. वरांगचरित में पुंल्लिंगीय मल्लिः शब्द का प्रयोग है। साथ ही उन्हें जितने भी विशेषणों से विशेषित किया गया है, वे सब पुंल्लिग हैं, जिनसे मल्लिनाथ के स्त्री होने का निषेध और पुरुष होने की मान्यता पुष्ट होती है। यथा-'कुन्थुस्त्वरो मल्लिरतुल्यवीर्यः॥' (२७/३९)। यहाँ 'मल्लिः ' शब्द तथा उसके विशेषण 'अतुल्यवीर्यः' दोनों के साथ पुंल्लिग का प्रयोग हुआ है, जो मल्लिनाथ के पुरुष होने का सूचक है। निम्नलिखित स्थलों पर भी पुंल्लिग का ही प्रयोग किया गया है-"मल्लिनमिश्चाप्यपराजिताख्यात्।" (२७/ ६७) अर्थात् मल्लिनाथ तथा नमिनाथ अपराजित स्वर्ग से अवतरित हुए थे। "नमिश्च १. "तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ण्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया ---।" ज्ञातृधर्मकथाङ्ग। अध्ययन ८/ अनुच्छेद १३९ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र० १ मल्लिर्मिथिलाप्रसूतौ।” (२७/८४) अर्थात् नमिनाथ और मल्लिनाथ का जन्म मिथिला में हुआ था। मल्लिनाथ के पुरुष होने की यह मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय मतों के विरुद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि वरांगचरित श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से भिन्न परम्परा का अर्थात् दिगम्बरपरम्परा का है। इसके अतिरिक्त यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगम 'ज्ञातृधर्मकथाङ्ग' में यह माना गया है कि भगवती मल्ली पूर्वभव में जयन्त नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में थीं, जब कि वरांगचरित के अनुसार मल्लिनाथ भगवान् पूर्वभव में अपराजित नामक अनुत्तर विमान में देव थे। (देखिये, उपर्युक्त उद्धरण) । दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी उनके अपराजित विमान से अवतरित होने की बात कही गई है। इससे भी सूचित होता है कि वरांगचरित की परम्परा श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से भिन्न है । उपर्युक्त कथन इस तथ्य के प्रमाण हैं कि वरांगचरित स्त्रीमुक्ति को स्वीकार नहीं करता । ४ महावीर का विवाह न होने की मान्यता यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगम आचारांग के अनुसार भगवान् महावीर का विवाह हुआ था। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था, जो कौण्डिन्य गोत्रीया थीं। उनकी पुत्री के दो नाम थे : अनवद्या और प्रियदर्शना। उसका गोत्र काश्यप था किन्तु वरांगचरित का कथन है कि उनका विवाह नहीं हुआ था । में ही दीक्षित हो गये थे मल्लिश्च पार्श्वो वसुपूज्यपुत्रोऽप्यरिष्टनेमिश्च तथैव वीरः । कौमारकाले वयसि प्रयाता भुक्त्वा भुवं ते प्रययुश्च शेषाः ॥ २७/८९ ॥ अनुवाद — “तीर्थंकर वासुपूज्य, मल्लिनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), पार्श्वनाथ और महावीर, ये पाँच कौमारकाल में ही दीक्षित हो गये थे। शेष तीर्थंकर पृथ्वी का भोग करके प्रव्रजित हुए थे । " कुमारकाल २. “समणस्स णं भगवओ महावीरस्स भज्जा जसोया गोत्तेणं कोडिण्णा । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स धूया कासवगोत्तेणं । तीसे णं दो णामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा - अणोज्जा त्ति वा पियदंसणा त्ति वा । " आचारांगसूत्र / द्वितीयश्रुतस्कन्ध / अध्ययन १५ / भावना / पृ. ४८८ । For Personal & Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २० / प्र० १ वराङ्गचरित / ६६७ यह कथन यापनीयमत के विरुद्ध है । यह भी इस ग्रन्थ के यापनीयाचार्यकृत न होने का एक प्रमाण है। अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध यापनीयमत में जैनेतर मतों में प्रतिपादित मोक्षमार्ग से भी मुक्ति होना स्वीकार किया गया है। किन्तु वरांगचरित में केवल जिनप्रणीत तत्त्वों के श्रद्धान, ज्ञान एवं अनुचरण को ही मोक्षमार्ग बतलाया गया है। अन्य मतवालों को अन्यतीर्थ ३ शब्द से अभिहित किया गया है और कहा गया है अश्रद्दधाना ये धर्मं जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना अनाद्यनिधनाः सर्वे मग्नाः संसारसागरे । अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसन्निभाः ॥ २६ / ९ ॥ मिथ्याज्ञानपरायणाः ॥ २६/८ ॥ अनुवाद - " जो जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट धर्म में विश्वास नहीं करते, वे तत्त्वज्ञान से रहित और मिथ्याज्ञान से ग्रस्त होने के कारण अनादि - अनन्त संसारसागर में डूबे रहते हैं। उन्हें अन्धपाषाण के समान अभव्य कहा गया है ।" यह भी वरांगचरित के यापनीयग्रन्थ न होने का एक प्रमाण है । ६ महाव्रतों की भावनाएँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से भिन्न दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का वर्णन करनेवाले पाँच सूत्र हैं, किन्तु श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में उनका अभाव है। यद्यपि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उनका उल्लेख है, तथापि वे दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित भावनाओं से कुछ भिन्न हैं । वरांगचरित में दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित भावनाओं अनुसरण किया गया है । उदाहरणार्थ का अहिंसामहाव्रत की पाँच भावनाओं में जो वचनगुप्ति है, उसके स्थान पर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७ / ३ / पृ. ३२० ) में एषणासमिति का उल्लेख है । किन्तु वरांगचरित में दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वचनगुप्ति ही स्वीकार की गई है। ३. अर्हन्तमिदं पुण्यं स्याद्वादेन विभूषितम् । अन्यतीर्थैरनालीढं वक्ष्ये द्रव्यानुयोजनम् ॥ २६ / १ ॥ वरांगचरित | ४. ईयासमादाननिसर्गयत्नो वाणीमनोगुप्तिरपि प्रकाशे । अनिन्द्यभुक्तिः प्रथमव्रतस्य ता भावनाः पञ्च मुनिप्रणीताः ॥ वरांगचरित ३१ / ७६ । For Personal & Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७/३/पृ.३२०) में अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ इस प्रकार बतलायी गयी हैं : अनुवीचि-अवग्रहयाचन, अभीक्ष्ण-अवग्रहयाचन, अवग्रहावधारण, साधर्मिक से अवग्रहयाचन और अनुज्ञापितपानभोजन। वरांगचरित में इनमें से एक का भी उल्लेख नहीं है। उसमें दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुसरण किया गया है। (३१/७८)। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७/३) में ब्रह्मचर्यमहाव्रत की भावनाओं में स्त्री, पशु अथवा नपुंसक द्वारा सेवित शयन आदि का त्याग आवश्यक बतलाया गया है, जबकि वरांगचरित में स्त्रियों से परिपूर्ण आवास में रहने का निषेध है। (३१/७९)। इस भिन्नता से सूचित होता है कि वरांगचरित की परम्परा श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से भिन्न दिगम्बरपरम्परा है। यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में ऐसे अन्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। यहाँ उनका संक्षेप में निर्देश किया जा रहा है १. वरांगचरित में मुनि के लिए बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग का विधान किया गया है। यथा बाह्याभ्यन्तरनैःसङ्ग्याद् गृहीत्वा तु महाव्रतम्। मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीर्त्यते॥ १५ / १२५॥ यह यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि उसमें वैकल्पिक सचेललिंग में वस्त्र पात्र रूप बाह्यपरिग्रह के ग्रहण की अनुमति दी गई है। २. वरांगचरित में स्वतन्त्र काल द्रव्य की सत्ता स्वीकार की गई है। यथा जीवपुद्गलकालाश्च धर्माधर्मी नभोऽपि च। षड्द्रव्याण्युदितान्येवं तेषां लक्षणमुच्यते॥ २६/५॥ वर्तनालक्षणः कालस्विधा सोऽपि प्रभिद्यते। अतीतोऽनागतश्चैव वर्तमान इति स्मृतः॥ २६ / २७॥ यह मान्यता भी श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत के विरुद्ध है। श्वेताम्बरमत में काल द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। (त.सू./वि.स/पृ.१४४-१४५)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२०/प्र०१ वराङ्गचरित / ६६९ ३. वरांगचरित में चौदह गुणस्थानों का कथन है जिसका तात्पर्य यह है कि उसके अनुसार अयोगकेवली गुणस्थान के अन्त में ही मोक्ष की प्राप्ति मान्य की गई है। यह सिद्धान्त भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत अन्यलिंगियों और गृहस्थों की मुक्ति मानने के कारण मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान और संयतासंयत-गुणस्थान में भी मुक्ति स्वीकार करता है। ४. वरांगचरित में प्रथम अनुयोग के लिए दिगम्बरमत के अनुसार प्रथमानुयोगः नाम का ही प्रयोग किया गया है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में धर्मकथानुयोग शब्द का प्रयोग मिलता है। ५. वरांगचरित में वेदत्रय की स्वीकृति है। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि पाल्यकीर्ति शाकटायन ने केवल एक ही वेदसामान्य स्वीकार किया है। इसका कारण यह है कि वेदत्रय का सिद्धान्त यापनीयों के स्त्रीमुक्ति-सिद्धान्त में बाधक है। इसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के अध्याय में किया जा चुका है। वरांगचरित में मान्य ये सभी सिद्धान्त यापनीयमत के विरुद्ध हैं। ये दिगम्बरग्रन्थ के लक्षण और यापनीयग्रन्थ के प्रतिलक्षण हैं। इन लक्षण और प्रतिलक्षणरूप नेत्रों से देखने पर स्पष्टतः दिखाई देता है कि वरांगचरित यापनीय आचार्य की नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य की कृति है और उसके कर्ता जटासिंहनन्दी दिगम्बर हैं। . ५. स्थानानि जीवस्य चतुर्दशानि तथैव हि स्थातुचरिष्णुतां च। सम्यक्त्वमिथ्यात्वविमिश्रितत्वं शशंस सम्यक्सफलं यतिभ्यः॥ ३०/४॥ वरांगचरित। ६. ततो नरेन्द्रः प्रथमानुयोगं प्रारब्धवान् संसदि वक्तुमुच्चैः। सभा पुनस्तस्य वचोऽनुरूपं शुश्रूषयामावहिता बभूव ॥ २७/१॥ वरांगचरित। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता पूर्ववर्णित यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों के वरांगचरित में उपलब्ध होने से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब या तो असत्य साबित होते हैं या हेत्वाभास । उन हेतुओं का वर्णन नीचे किया जा रहा है और यह दर्शाया जा रहा है कि उनमें से कौन-सा असत्य है और कौन-सा हेत्वाभास । हेतु का उल्लेख यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे और उसकी असत्यता या हेत्वाभासता के निर्णायक प्रमाण दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे प्रदर्शित किये जा रहे हैं। 'श्रवण' या 'श्रमण' सचेलमुनि का वाचक नहीं यापनीयपक्ष उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने वरांगचरित में सवस्त्रमुक्ति का विधान सिद्ध करने के उद्देश्य से उसकी उक्तियों में स्वाभीष्ट अर्थ आरोपित करने हेतु विभिन्न युक्तियों आविष्कार का द्राविड़ प्राणायाम किया है। वरांगचरित में कहा गया है आहारदानं मुनिपुङ्गवेभ्यो वस्त्रान्नदानं श्रवणायिकाभ्यः । किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्त्वा कृतार्थो नृपतिर्बभूव ॥ २३ / ९२ ॥ अनुवाद - " ( इन्द्रकूट जिनालय के निर्माण, जिनबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक एवं पूजन के बाद) राजा वरांग ने मुनिश्रेष्ठों को आहारदान किया, श्रावकों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान और आहारदान किया तथा दरिद्रों को किमिच्छकदान किया, और ऐसा करके उन्होंने अपने जीवन को सफल माना ।" इस पर टिप्पणी करते हुए उपर्युक्त ग्रन्थलेखक कहते हैं - " वरांगचरित में श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान की चर्चा है । यह तथ्य दिगम्बरपरम्परा के विपरीत है। उसमें लिखा है कि 'वह नृपति मुनिपुंगवों को आहारदान, श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्र और अन्नदान तथा दरिद्रों को याचितदान ( किमिच्छदानं) देकर कृतार्थ हुआ' यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल श्लोक में जहाँ मुनिपुङ्गवों के लिए आहारदान का उल्लेख किया गया है, वहाँ श्रमण और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है। संभवतः यहाँ अचेल मुनियों के लिए ही 'मुनिपुङ्गव' For Personal & Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७१ शब्द का प्रयोग हुआ है और सचेल मुनि के लिए 'श्रमण'। भगवती-आराधना एवं उसकी अपराजित की टीका से यह स्पष्ट हो जाता है कि यापनीयपरम्परा में अपवादमार्ग में मुनि के लिए वस्त्र-पात्रग्रहण करने का निर्देश है। वस्त्रादि के सन्दर्भ में उपर्युक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दी और उनका वरांगचरित भी यापनीय / कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध रहा है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१९८-१९९)। ग्रन्थलेखक ने पाद-टिप्पणी में लिखा है-"ज्ञातव्य है कि मूल में प्रूफ की अशुद्धि से श्रमण के स्थान पर श्रवण छप गया है।" (पृ.१९९)। दिगम्बरपक्ष मान्य ग्रन्थ लेखक ने 'श्रवण' शब्द के प्रयोग को अशुद्ध बतलाकर जटासिंहनन्दी और पाणिनि दोनों को चुनौती दे दी है। वस्तुतः 'श्रवण' शब्द 'श्रावक' का पर्यायवाची है। पाणिनि के अनुसार श्रवणार्थक 'श्रु' धातु में कर्ता (श्रोता) के अर्थ में ‘ण्वुल्' और 'ल्युट्' दोनों प्रत्ययों का प्रयोग होता है और क्रमशः 'श्रावक' और 'श्रवण' रूप बनते हैं। 'कृत्यल्युटो बहुलम्' इस पाणिनिसूत्र के अनुसार ल्युट् प्रत्यय अनेक कारकों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः ल्युट्-प्रत्ययान्त 'श्रवण' शब्द को जटासिंहनन्दी ने श्रवणार्यिकाभ्यः में कर्ताकारक अर्थात् सुननेवाले (श्रावक) के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इसलिए वहाँ श्रावकों और आर्यिकाओं को वस्त्र और आहार का दान किया, यही अर्थ जटासिंहनन्दी को अभिप्रेत है। जिन श्रावकों को दान दिया था, वे वही हैं, जिन्होंने राजा वरांग के इन्द्रकूट जिनालय के निर्माण, जिनंबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक एवं पूजन में ब्रह्मचर्य का पालन कर, उपवास धारण कर पूजनसामग्री आदि को ले जाने का कार्य किया था (२३/३२-३३), तथा जिन्होंने स्नापकाचार्य (२३/६९) एवं गृहस्थाचार्य की भूमिका निभाई थी। (२३/८४-८८) इसलिए वहाँ प्रूफ की अशुद्धि बतलाकर 'श्रवण' शब्द के स्थान में स्वाभीष्ट 'श्रमण' शब्द आरोपित करना पहला छलवाद है, फिर श्रमण शब्द में स्वाभीष्ट 'सवस्त्रमुनि' अर्थ आरोपित करना दूसरा छलवाद है। सम्पूर्ण वरांगचरित में कहीं भी सवस्त्रमुनि को श्रमण नहीं कहा गया है। सर्वत्र श्रमण का लक्षण 'निर्ग्रन्थ', 'दिगम्बर', 'जातरूपग्राही' और 'निरस्तभूषः' शब्दों से ही प्रतिपादित किया गया है। तब किस प्रमाण के आधार पर 'श्रमण' शब्द से सचेलमुनि अर्थ ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त किया गया? अपनी प्रतिबद्ध मानसिकता के आधार पर स्वाभीष्ट मत के आरोपण द्वारा इतिहास को प्रदूषित करनेवाले निर्णय घोषित करना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता। For Personal & Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०२ और 'मुनिपुंगव' शब्द का प्रयोग तो वरांगचरितकार ने वरदत्त केवली-सहित सभी मुनियों के लिए किया है। देखिए शेषांश्च सर्वान्मुनिपुङ्गवांस्तांस्त्रिभिर्विशुद्धः क्रमशोऽभिवन्द्य। एत्यादरात्केवलिपादमूलं सुखं निषद्येममपच्छदर्थम्॥ ३/३७॥ ... इसमें कहा गया है कि महाराज धर्मसेन ने पहले वरदत्त केवली को नमस्कार किया, पश्चात् शेष सभी मुनिपुंगवों का क्रमशः अभिवन्दन करके पुनः वरदत्त केवली के पादमूल में आकर बैठ गये और तत्त्वार्थ की जिज्ञासा प्रकट की। 'यहाँ शेष सब मुनिपुंगवों को' इस शब्दावली से स्पष्ट है कि जिन्हें पहले नमस्कार किया था, वे भी मुनिपुंगव थे और जिनकी बाद में वन्दना की वे भी मुनिपुंगव थे। अर्थात् इनसे बाहर कोई भी ऐसा मुनि शेष नहीं था, जिसे 'श्रमण' शब्द से अभिहित कर मुनिपुंगवों से भिन्न दिखलाने की जटासिंहनन्दी को आवश्यकता रही हो। राजा वरांग ने आहारदान भी इन्हीं वरदत्त केवली के समीप उपस्थित मुनिपुंगवों को दिया था। इसलिए उनमें सभी मुनियों का समावेश हो जाता है। फलस्वरूप 'श्रमण' शब्द से अभिहित करने के लिए कोई मुनि शेष रहता ही नहीं है। अतः वहाँ 'श्रवण' शब्द का ही प्रयोग युक्तिसंगत है, जो श्रावक के अर्थ में किया गया है। इस तरह अन्तरंग प्रमाण से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने जो 'श्रवण' शब्द के स्थान में श्रमण' शब्द मानकर उसे सचेलमुनि का वाचक बतलाया है, वह सर्वथा अप्रामाणिक है, मनगढंत है। हाँ, इसका वैकल्पिक पक्ष यह अवश्य हो सकता है कि वहाँ 'श्रमणार्जिका' शब्द ही हो, क्योंकि ग्रन्थ में अन्यत्र भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है किन्तु वहाँ 'श्रमणा' (स्त्रीलिंग) शब्द 'अर्जिका' का विशेषण है, जिसका अर्थ है 'तपस्विनी अर्जिका' या 'श्रमणमार्गी अर्जिका।' यथा क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्गयः। परीत्यभक्त्यार्पितचेतसस्ता नमः प्रकुर्वन्मुनये प्रहृष्टाः॥ २९ / ९२॥ ततो हि गत्वा श्रमणार्जिकानां समीपमभ्येत्य कृतोपचाराः। . विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराङ्ग्यो वरभूषणानि॥ २९ / ९३॥ इनका अर्थ पूर्व में लिखा जा चुका है। भावार्थ यह है कि राजा वरांग की रानियों ने वरदत्त केवली को हर्षित होकर नमस्कार किया। पश्चात् श्रमणा (तपस्विनी) आर्यिकाओं के पास जाकर विनयोपचार किया। फिर एकान्त स्थान में जाकर अपने आभूषण त्याग दिये। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७३ अपरं च तपोधनानाममितप्रभावा गणाग्रणी संयमनायका सा। मुनीन्द्रवाक्याच्छ्मणार्जिकाभ्यो दिदेश धर्मं च तपोविधानाम् ॥ ३१/६॥ अनुवाद-"श्री वरदत्त केवली के समीप उपस्थित आर्यिकाओं में एक प्रधान आर्यिका थीं, जिनका सभी तपोधनाओं (आर्यिकाओं) में अमित प्रभाव था। वे संयम की नेत्री थीं। महाराज वरदत्त के आदेश से उन्होंने नवदीक्षित श्रमणार्जिकाओं (श्रमणा अर्जिकाओं) को धर्म और तप की विधियाँ सिखा दी।" 'श्रमण' शब्द के स्त्रीलिंग में 'श्रमणा' और 'श्रमणी' दोनों रूप बनते हैं। (देखिये, वामन शिवराम आप्टे-कृत संस्कृत-हिन्दी-कोश)। इन दोनों उदाहरणों में श्रमणार्जिका शब्द आया है और यहाँ मुनियों से कोई तात्पर्य नहीं है। क्योंकि पहले उदाहरण में मुनि वरदत्त और उनके साथ बैठे हुए मुनियों को प्रणाम करने के बाद आर्यिकाओं को ही प्रणाम करना शेष रहता है। अतः वहाँ 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानकर उसका प्रयोग मुनि-अर्थ में मानने से पुनरावृत्ति दोष का प्रसंग आता है। फलस्वरूप वह वहाँ 'अर्जिका' के विशेषण रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। इसकी पुष्टि दूसरे उदाहरण से होती है। दूसरे उदाहरण में कहा गया है कि गणिनी आर्यिका ने वरदत्त महाराज के आदेश से श्रमणार्जिकाओं को धर्म और तप की विधियाँ सिखा दीं। यहाँ 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानकर उससे मुनि-अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि यह इकतीसवें सर्ग का श्लोक नवदीक्षित नरेन्द्रपत्नियों के प्रसंग में आया है। ३१वें सर्ग का आरंभ राजा वरांग की नवदीक्षित पत्नियों और उनके साथ दीक्षित हुई अन्य स्त्रियों की तपस्या के वर्णन से होता है और १६वें श्लोक तक चलता है। उसके अन्तर्गत यह छठवाँ श्लोक है, जिसमें 'श्रमणार्जिका' शब्द आया है। अतः यहाँ आर्यिकाओं को ही गणिनी आर्यिका के द्वारा धर्मविधि सिखाने का प्रसंग है, किसी मुनि को नहीं। दूसरी बात यह है कि मुनि का पद आर्यिकाओं से उच्च होता है, इसलिए पंचमगुणस्थानवर्ती आर्यिका के द्वारा षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनियों को उपदेश दिया जाना न तो दिगम्बरमत की मर्यादा के अनुकूल है, न श्वेताम्बरमत की। अतः सिद्ध है कि उपर्युक्त उदाहरणों में 'श्रमणा' शब्द अर्जिका के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है और उसका प्रयोजन है आर्यिकाओं के श्रमणत्व को रेखांकित करना, जैसा कि वरांगचरितकार के 'महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य' (३१/११३) इस प्रयोग से संकेतित होता है। (देखिये, प्रकरण १, शीर्षक ३)। For Personal & Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२०/प्र०२ अतः यदि 'वस्त्रान्नदानं श्रवणार्यिकाभ्यः' (२३/९२) में श्रवण के स्थान में श्रमण शब्द माना जाय, तो वह भी युक्तिसंगत होगा। किन्तु उससे 'मुनि' अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु उपर्युक्त दो उदाहरणों के समान उसे श्रमणा के रूप में 'आर्यिका' का ही विशेषण माना जा सकता है। ऐसा मानने का एक कारण यह भी है कि सम्पूर्ण वरांगचरित में मुनि को निर्ग्रन्थ, दिगम्बर और जातरूपधर ही कहा गया है, सचेल कहीं भी नहीं कहा गया। यद्यपि 'मूलाचार' (गाथा ७८७, ८३२, ८७३ आदि) में श्रमण के अर्थ में 'श्रवण' शब्द का भी प्रयोग हुआ है, तथापि जटासिंहनन्दी ने 'वरांगचरित' के पूर्वोद्धृत पद्य (२३/९२) में 'श्रवण' शब्द का प्रयोग श्रावक के ही अर्थ में किया है, क्योंकि वहाँ जिनालय-निर्माण, जिनबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक-पूजन आदि शुभ कार्यों के सम्पन्न होने के उपलक्ष्य में राजा वरांग के द्वारा मुनियों को आहारदान और आर्यिकाओं को वस्त्रान्नदान के साथ उपर्युक्त शुभ कार्यों में सहयोग करनेवाले श्रावकों एवं गृहस्थाचार्यों को पुरस्कृत करने एवं निर्धनों को किमिच्छक दान देने का प्रसंग है। इसके अतिरिक्त उक्त पद्य में मुनियों के लिए 'मुनिपुंगव' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः 'श्रवण' शब्द को भी 'मुनि' का वाचक मानने से पुनरुक्तिदोष का प्रसंग आता है। फिर भी यदि वहाँ 'श्रवण' शब्द को 'श्रमण' का ही वाचक माना जाय, तो वहाँ अर्जिका के विशेषण 'श्रवणा' (श्रमणा) का ही प्रयोग मानना होगा, क्योंकि श्रमणों का कथन उक्त पद्य के प्रथम पाद में 'मुनिपुंगव' शब्द से किया जा चुका है। अतः वहाँ 'श्रवणा' या 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानते हुए उससे मुनि अर्थ ग्रहणकर मुनियों को वस्त्रदान का अभिप्राय लेना वरांगचरितकार की मान्यताओं और अभिप्राय के विरुद्ध है। अतः वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि उसमें 'श्रमण' शब्द से सचेलमुनियों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, वह सर्वथा असत्य है। इससे सिद्ध है कि यह यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। पुन्नाटसंघ का विकास पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन पुन्नाटसंघीय थे। पुन्नाटसंघ का विकास यापनीयसम्प्रदाय के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुआ था। अतः जिनसेन यापनीय थे। उन्होंने जटासिंहनन्दी का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। अतः वे भी यापनीय रहे होंगे। (जै.ध.या.स./ पृ.१८७)। For Personal & Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७५ दिगम्बरपक्ष १. पुन्नाटसंघ का विकास यापनीयसम्प्रदाय के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुआ था, यह कथन किसी प्रमाण के आधार पर नहीं, अपितु कल्पना के आधार पर किया गया है। इतिहास में ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि पुन्नाटसंघ का उद्भव यापनीय-पुन्नागवृक्षमूलगण से हुआ था। वस्तुतः 'पुन्नाट' कर्नाटक का प्राचीन नाम था। इसी के आधार पर पुन्नाट के दिगम्बर जैन मुनियों का संघ 'पुन्नाटसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। इसका विस्तार से विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ के 'हरिवंशपुराण' नामक अध्याय (प्रकरण २/शीर्षक १) में द्रष्टव्य है। २. वरांगचरित में उपलब्ध यापनीयमत-विपरीत सिद्धान्तों से सिद्ध है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है। इससे इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके कर्ता जटासिंहनन्दी दिगम्बर थे। ३. हरिवंशपुराण में भी यापनीयमतविरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। अतः उसके कर्ता जिनसेन भी दिगम्बर थे, इसलिए उनके द्वारा सादर उल्लिखित किये जाने से (उक्त ग्रन्थलेखक के तर्क के अनुसार) जटासिंहनन्दी दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं। इस प्रकार पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्षमूलगण से हुआ था तथा हरिवंशपुराणकार यापनीय थे, ये दोनों हेतु मिथ्या हैं। अतः वरांगचरित यापनीय ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। . ___ काणूरगण दिगम्बरसम्प्रदाय का ही गण था यापनीयपक्ष कन्नड़ कवि जन्न ने जटासिंहनन्दी को काणूगण का बताया है। यह यापनीयपरम्परा का गण था। अतः जटासिंहनन्दी यापनीय थे। (जै.ध.या.स./पृ.१८८)। दिगम्बरपक्ष यापनीयसंघ का इतिहास नामक अध्याय (७) के तृतीय प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि काणूगण या क्राणूगण दिगम्बर मूलसंघ का ही गण था। यापनीयसंघ में कण्डूगण था। 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने भ्रम से काणूगण और कण्डूगण को एक मान लिया है। अतः उपर्युक्त हेतु असत्य है। ७. देखिये, एकविंश अध्याय-'हरिवंशपुराण'/ प्रथम प्रकरण। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०२ कोप्पल से सम्बद्ध होना यापनीय होने का लक्षण नहीं यापनीयपक्ष कोप्पल में जटासिंहनन्दी के चरणचिह्न हैं। संभवतः वहाँ उनका समाधिमरण हुआ होगा। कोप्पल यापनीयों का मुख्यपीठ था। अतः जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की प्रबल संभावना है। (जै.ध.या.स./पृ.१८९-१९०)। दिगम्बरपक्ष १. इस हेतु के आधार पर तो उन सब लोगों को यापनीय मानना होगा जिनका मरण कोप्पल में हुआ होगा। किन्तु इसे सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः कोप्पल में समाधिमरण होने के कारण जटसिंहनन्दी यापनीय सिद्ध नहीं होते। २. वरांगचरित में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों के प्रतिपादन से सिद्ध है कि जटासिंहनन्दी दिगम्बर थे। इसलिए उन्हें यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत यह (कोप्पल में मरण का) हेतु हेत्वाभास है। , 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं यापनीयपक्ष "यापनीयपरम्परा में मुनि के लिए यति का प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन को यतिग्रामाग्रणी कहा गया है। हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दी के इस वरांगचरित में भी मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। ग्रन्थकार की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१९०) दिगम्बरपक्ष दिगम्बराचार्य यतिवृषभ के नाम में भी 'यति' शब्द का प्रयोग है। न्यायदीपिका के कर्ता दिगम्बराचार्य अभिनवधर्मभूषणयति के साथ भी 'यति' शब्द जुड़ा हुआ है। दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने भी मुनि के लिए 'यति' शब्द व्यवहृत किया है। जैसे मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवटुंति। परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ॥ १५६॥ स.सा.। तथा For Personal & Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७७ एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिटो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो॥ २/९७॥ प्र.सा.। इन दोनों गाथाओं में यति (जदीण) शब्द का प्रयोग किया गया है। समन्तभद्र स्वामी के स्वयम्भूस्तोत्रगत निम्न पद्य में भी 'यति' का सम्बोधनरूप 'यते' शब्द प्रयुक्त हुआ है शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः। तव शिवमतिविस्मयं यते! यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम्॥ ११३॥ इसके अतिरिक्त पाल्यकीर्ति शाकटायन के अलावा अन्य किसी यापनीय आचार्य या मुनि के साथ 'यतिग्रामाग्रणी' उपाधि के प्रयुक्त होने का उदाहरण उपलब्ध नहीं है। अतः 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का असाधारणधर्म या लक्षण न होने से यह हेतु भी हेत्वाभास है। वरांगचरित में श्वेताम्बरसाहित्य का अनुसरण नहीं यापनीयपक्ष “यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते थे। जटासिंहनन्दी के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन के सन्मतितर्क और विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण यही बताता है कि वे यापनीयसम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे।" (जै.ध.या.स./पृ. १८७)। दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य नामक अध्याय (१८) में सिद्ध किया जा चुका है कि वे दिगम्बर थे, न कि श्वेताम्बर या यापनीय। अतः ‘सन्मतिसूत्र' का अनुसरण करने से जटासिंहनन्दी यापनीय सिद्ध नहीं होते। फलस्वरूप प्रस्तुत हेतु असत्य है। तथा प्रकीर्णक साहित्य की जिन गाथाओं को वरांगचरित में रूपान्तरित माना गया है, वे श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की तथा दिगम्बरग्रन्थ 'भगवती-अराधना' एवं 'मूलाचार' की हैं। यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। (देखिये, अध्याय १०/ प्रकरण १/शीर्षक ८)। इसका एक प्रमाण यह है कि भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिजरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं॥ १३॥ For Personal & Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २० / प्र० २ समयसार की यह गाथा श्वेताम्बर - प्रकीर्णक ग्रन्थों में नहीं है, तथापि वरांच में इस प्रकार रूपान्तरित की गई है— जीवादयो मोक्षपदावसाना भूतार्थतो येऽधिगताः पदार्थाः । नयप्रमाणानुगतक्रमेण सम्यक्त्वसंज्ञामिह ते इससे सिद्ध है कि जिन्हें यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ मान लिया है, वे कुन्दकुन्द के ग्रन्थों एवं दिगम्बरग्रन्थ भगवती - आराधना तथा मूलाचार की गाथाएँ हैं। वहीं से वे प्रकीर्णकों में पहुँची हैं और वे ही वरांगचरित में रूपान्तरित की गई हैं। इस प्रकार वे श्वेताम्बर - प्रकीर्णक ग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अतः यह हेतु भी असत्य 1 तथा लभन्ते ॥ ३१/६८॥ क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धिं प्रयच्छति । परिपश्यन्यथा पङ्गुर्मुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥ २६ /९९॥ वरांगचरित का यह श्लोक भारतीय शिष्टसाहित्य और लोकसाहित्य में प्रसिद्ध अन्ध और पंगु की कथा पर आश्रित है, उसी के आधार पर आवश्यकनिर्युक्ति की 'हयं नाणं कियाहीणं' (१०१) तथा 'संजोगसिद्धीइ फलं वयंति' ये गाथाएँ रची गयी हैं और उसी (भारतीय शिष्ट- साहित्य और लोकसाहित्य) से प्रेरणा लेकर दिगम्बरसाहित्य में निम्नश्लोक की रचना हुई है ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृद्द्द्वयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम्॥ ८ तथा वैदिकसाहित्य की ईश्वरकृष्णरचित सांख्यकारिका में इस लोककथा का उपयोग इस रूप में किया गया है— पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ २१ ॥ अतः वरांगचरित के उक्त प्रकार के श्लोकों को आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं का संस्कृत रूपान्तरण मानना प्रमाणबाधित और युक्तिबाधित है। अतः जटासिंहनन्दी को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। ८. यशस्तिलकचम्पू / उत्तरार्ध / पृष्ठ २७१ । यशस्तिलकचम्पू का यह श्लोक तत्त्वार्थवृत्ति (प्रथम अध्याय के प्रथमसूत्र की प्रस्तावना) में पृष्ठ ३ पर उद्धृत किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२०/प्र०२ वराङ्गचरित / ६७९ तथा वरांगचरित (३१/१८) में जो यह कहा गया है कि वरांग मुनि ने अल्पकाल में 'आचार', 'प्रकीर्णक' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था, सो इन ग्रन्थों का अस्तित्व दिगम्बरपरम्परा में भी मान्य है। अतः इन्हें केवल श्वेताम्बरग्रन्थ मानना न्यायसंगत नहीं है। ७ विमलसूरि के पउमचरिय का अनुकरण नहीं यापनीयपक्ष जटासिंहनन्दी ने श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के 'पउमचरियं' का भी अनुकरण किया है। पउमचरियं के समान वरांगचरित में भी देशावकाशिकव्रत का अन्तर्भाव दिग्व्रत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सल्लेखना को बारहवाँ शिक्षाव्रत माना गया है। (वरांगचरित २२/२९-३०, १५/१११-१२५)। कुन्दकुन्द ने भी इस परम्परा का अनुसरण किया है। कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो निश्चित ही परवर्ती हैं और संभवतः जटासिंहनन्दी से भी। अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है। विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण रविषेण, स्वयम्भू आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है, अतः जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की सम्भावना प्रबल प्रतीत होती है। (जै.ध.या.स./१९४-१९५)। दिगम्बरपक्ष विमलसूरि का समय श्वेताम्बराचार्यों ने ही वि० सं० ५३० (४७३ ई०) माना है। और इसे ही सब दृष्टियों से समुचित बतलाया है। तथा कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी है, यह दशम अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। अतः पूर्ववर्ती कुन्दकुन्द के द्वारा परवर्ती विमलसूरि का अनुसरण किया जाना स्वप्न में भी संभव नहीं है। इसी प्रकार जटासिंहनन्दी ईसा की सातवीं शताब्दी में हुए थे। अतः वे भी कुन्दकुन्द से सात सौ वर्ष उत्तरवर्ती हैं। इससे सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी ने कुन्दकुन्द का ही अनुसरण करते हुए सल्लेखना को चार शिक्षाव्रतों में परिगणित किया है। पुनः रविषेण और स्वयम्भू दोनों दिगम्बर थे, इसके प्रमाण प्रस्तुत ग्रन्थ के तन्नामक अध्यायों में द्रष्टव्य हैं। अतः न तो यह सत्य है कि जटासिंहनन्दी ने विमलसूरि का अनुसरण किया है और न यह सत्य है कि रविषेण और स्वयम्भू यापनीय थे। इस प्रकार वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये ये दोनों हेतु असत्य हैं। फलस्वरूप वरांगचरित का दिगम्बरग्रन्थ होना असिद्ध नहीं होता। ९. साध्वी संघमित्रा : 'जैनधर्म के प्रभावक आचार्य'/ पृ. २४५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ८ कल्पों की बारह संख्या भी दिगम्बरमान्य यापनीयपक्ष वरांगचरित में कल्प नामक स्वर्गों की संख्या बारह मानी गयी है, १० जबकि दिगम्बर परम्परा में सोलह । यह मान्यता जटासिंहनन्दी को यापनीयपरम्परा का सिद्ध करती है। (जै. ध. या.स./पृ. १९५) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बरपरम्परा में कल्पों की संख्या बारह और सोलह दोनों मानी गयी है। दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में ऐसा स्पष्ट निर्देश है। दिगम्बर विद्वान् पं० जुगलकिशोर मुख्तार तथा मान्य श्वेताम्बर पण्डित सुखलाल जी संघवी ने भी यह स्वीकार किया है । उनके शब्द ' तिलोयपण्णत्ती' नामक सप्तदश अध्याय में उद्धृत किये जा चुके हैं। अतः दिगम्बरपरम्परा में बारह कल्पों को अमान्य मानने का हेतु असत्य है। इसलिए वरांगचरित में बारह कल्पों का उल्लेख होने से वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता । अ० २० / प्र० २ दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था मान्य यापनीयपक्ष वरांगचरित में जन्मना वर्णव्यवस्था का निषेध कर कर्मणा वर्णव्यवस्था स्वीकार की गई है। यथा क्रिया - विशेषाद्व्यवहार - मात्राद्दयाभिरक्षा - कृषि - शिल्प - भेदात् । शिष्टाश्च वर्णांश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥ २५ / ११॥ यह भी कहा गया है कि ज्ञान, शील और गुण से युक्त पुरुष को ही ब्रह्मविदों ने ब्राह्मण कहा है। व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कण्ठ, शस्त्रविद्या और शारीरिक शक्ति के उद्गमभूत द्रोणाचार्य एवं पराशर, इन सब ने अपने गुणों के बल से ही ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था । ११ १०.“द्विषट्प्रकाराः खलु कल्पवासाः । " ९ / २ / वरांगचरित । ११. विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ २५ / ४३ ॥ व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्त्युद्गमौ द्रोणपराशरौ च । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायुः प्रतिसम्पदाभिः ॥ २५/४४ ॥ वरांगचरित । For Personal & Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २० / प्र० २ वराङ्गचरित / ६८१ यह दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि श्वेताम्बर - आगमिक धारा के निकट है, उस दिगम्बरपरम्परा के निकट नहीं, जो शूद्रजलग्रहण और शूद्रमुक्ति का निषेध करती है। इससे जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ वरांगचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने की पुष्टि होती है। (जै. ध. या. स. / पृ. १९९ - २००)। दिगम्बरपक्ष वरांगचरित के उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि दया, रक्षा, कृषि और शिल्प इन चार कर्मविशेषों के आधार पर चार वर्ण निर्धारित किये गये हैं, यह तो स्पष्टतः दिगम्बरमत का प्रतिपादन है। दिगम्बराचार्य जिनसेन ने आदिपुराण ( भाग १ ) में इस मत की व्याख्या इस प्रकार की है असिर्मषिः कृषिर्विद्या वाणिज्यं कर्माणीमानि षोढा स्युः तत्र वृत्तिं प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपादिक्षत् सरागो हि स तदासीज्जगद्गुरुः ॥ १६ / १८० ॥ तत्रासिकर्म सेवायां मषिर्लिपिविधौ स्मृता । कृषिभूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने । १६ / १८१ ॥ वाणिज्यं वणिजां कर्म शिल्पं स्यात् करकौशलम् । तच्च चित्रकलापत्रच्छेदादि बहुधाइ स्मृतम् ॥ १६/१८२॥ शिल्पमेव च । प्रजाजीवनहेतवः ॥ १६ / १७९॥ उत्पादितास्त्रयो वर्णास्तदा तेनादिवेधसा । क्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥ १६ / १८३ ॥ इन श्लोकों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने क्षतत्राण (विपत्ति से रक्षा), कृषि - वाणिज्य - पशुपालन तथा शिल्प आदि गुणों ( कर्मों) के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति की । आदिपुराण ( भाग २ ) के निम्नलिखित पद्य भी द्रष्टव्य हैं मनुष्य- जातिरेकैव वृत्ति-भेदाहिताद् जाति - नामोदयोद्भवा । भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ३८ / ४५ ॥ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ ३८ / ४६ ॥ अनुवाद – “ जातिनामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो गयी है।" (३८/४५)। For Personal & Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०२ "व्रतों से संस्कृत लोग ब्राह्मण कहलाने लगे, शस्त्रधारण कर प्रजा की रक्षा करनेवाले लोगों का नाम क्षत्रिय हो गया। जो वाणिज्य से जीविकोपार्जन करने लगे, उनके लिए वैश्य नाम प्रचलित हुआ और जिन्होंने शिल्प एवं सेवा आदि का कर्म अपना लिया वे शूद्र शब्द से प्रसिद्ध हो गये।" (३८/४६)। ___ इन पद्यों में भी कहा गया है कि वृत्तिभेद के आधार पर ही चार वर्णों की सृष्टि हुई थी, जन्म के आधार पर नहीं। जिन कृषि आदि कर्मों के आधार पर चार वर्णों की सृष्टि हुई थी, उनकी शिक्षा ऋषभदेव ने दी थी, इसका कथन आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वयम्भूस्तोत्र में किया है। यथा प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषू: शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः॥ २॥ अनुवाद-"जिन प्रजापति ऋषभदेव ने सर्वप्रथम जीविकोपार्जन के लिए प्रजा को कृषि आदि कर्मों की शिक्षा दी थी, वे ही हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर अद्भुत उत्थान करते हुए ममत्व से मुक्त हो गये।" आचार्य समन्तभद्र ने यह भी कहा है कि सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होने पर चाण्डाल भी देवों के द्वारा पूज्य (देव) माना जाने लगता है। देखिये रत्नकरण्डश्रावकाचार का निम्नलिखित श्लोक सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम्॥ १/२८॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार में वे यह भी कहते हैं कि अहिंसाणुव्रत के पालन से एक चाण्डाल पूजातिशय को प्राप्त हुआ था मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः। नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम्॥ ३/१८॥ इस तरह दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था की मान्यता तथा गुणों के द्वारा चाण्डाल के भी पूज्य बन जाने के इतने प्रमाण उपलब्ध होने पर भी उस पर जन्मना वर्णव्यवस्था की मान्यता का आरोप करना छलवाद के अतिरिक्त और क्या है? वरांगचरित में गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था के दिगम्बरीय सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए ही व्यास, वसिष्ठ आदि के द्वारा ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की बात कही गई है। अतः दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया जन्मना वर्णव्यवस्था मानने का हेतु असत्य है। For Personal & Private Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २० / प्र० २ वराङ्गचरित / ६८३ उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिये जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनमें कौन असत्य है और कौन हेत्वाभास । शीर्षक क्रमांक १, २, ३, ६, ७, ८, ९ में वर्णित हेतु असत्य हैं और ४, ५ में वर्णित हेतु हेत्वाभास हैं । उन की असत्यता और हेत्वाभासता दृष्टिगोचर हो जाने से यह सिद्ध हो जाता है कि वरांगचरित यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, प्रत्युत दिगम्बरीय सिद्धान्तों का प्रतिपादक होने से दिगम्बरमत का ग्रन्थ है । उपसंहार वरांगचरित के दिगम्बरकृति होने के प्रमाण सूत्ररूप में अब यहाँ उन समस्त प्रमाणों पर एक साथ दृष्टि डाल ली जाय, जिनसे सिद्ध होता है कि वरांगचरित यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है । वे इस प्रकार हैं १. वरांगचरित में केवलिभुक्ति, वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति का निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के आधारभूत सिद्धान्त हैं । २. वरांगचरित में महावीर के विवाह की मान्यता भी अस्वीकार की गई है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों में महावीर के विवाह होने की बात कही गई है। ३. वरांगचरित में जो पाँच महाव्रतों की भावनाएँ वर्णित हैं, वे दिगम्बर - आगमों का अनुसरण करती हैं और यापनीयमान्य श्वेताम्बर - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में वर्णित भावनाओं से भिन्न हैं । ४. वरांगचरित में मुनि के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। यह सिद्धान्त यापनीयों द्वारा मान्य वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति के विरुद्ध है । ५. वरांगचरित में स्वतंत्र काल द्रव्य की सत्ता स्वीकार की गई है, जबकि यापनीय-मान्य श्वेताम्बर - आगम उसे अमान्य करते हैं। ६. वरांगचरित में चौदह गुणस्थानों का कथन है । यह सिद्धान्त यापनीयों की गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है। ७. वरांगचरित में दिगम्बरमत के अनुरूप 'प्रथमानुयोग' शब्द का प्रयोग किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में उसके स्थान पर 'धर्मकथानुयोग' शब्द प्रयुक्त हुआ है। ८. वरांगचरित में वेदत्रय की स्वीकृति है, जब कि यापनीयमत केवल एक ही वेदसामान्य मानता है । I For Personal & Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंश अध्याय हरिवंशपुराण प्रथम प्रकरण हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने हरिवंशपुराणकार जिनसेन (७४८-८१८ ई०) को यापनीय - आचार्य और उनके द्वारा रचित हरिवंशपुराण को यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है, किन्तु इसके पक्ष में उन्होंने जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे भी पहले की तरह असत्य या हेत्वाभास हैं। उनकी असत्यता एवं हेत्वाभासता का उद्घाटन बाद में किया जायेगा, पहले वे प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है । हरिवंशपुराण में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त १ स्त्रीमुक्तिनिषेध हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, जो उसके दिगम्बरग्रन्थ होने और यापनीयग्रन्थ न होने का प्रबल प्रमाण है । यथा नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः । अध्यात्मकृत- नानात्वादुपर्युपरि - शुद्धयः ॥ ३ / ८४ ॥ संयतासंयतान्तेषु गुणस्थानेषु पञ्चसु । रूपं प्रत्यभिभेदोऽस्ति यथाध्यात्मकृतस्तथा ॥ ३/८५॥ अनुवाद - "छठे से लेकर चौदहवें तक नौ गुणस्थानों के जीवों में बाह्यरूप की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, सब निर्ग्रन्थमुद्रा के धारक होते हैं। परन्तु विशुद्धि की अपेक्षा उनमें भेद है। अर्थात् वे उत्तरोत्तर अधिक विशुद्ध होते हैं । किन्तु पहले से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक के जीवों में बाह्यवेश तथा आत्मविशुद्धि दोनों की अपेक्षा भेद है। For Personal & Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० १ यहाँ छठे से चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों को बाह्यवेश की अपेक्षा निर्ग्रन्थ (नग्न) कहकर स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, क्योंकि स्त्री के नग्न न हो सकने के कारण छठवाँ गुणस्थान संभव नहीं है। हरिवंशपुराण में यह भी बतलाया गया है कि श्रावक-श्राविका अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग तक ही जाते हैं, उससे ऊपर जिनलिङ्गधारी साधुओं का ही गमन होता है । अभव्यों की उत्पत्ति नौवें ग्रैवेयक तक भी हो सकती है, किन्तु यह निर्ग्रन्थलिंग और उग्रतप से ही संभव है कल्पानच्युतपर्यन्तान् सौधर्मप्रभृतीन् पुनः । व्रजन्ति श्रावकास्तेभ्यः श्रमणाः परतोऽपि च ॥ ६ / १०५ ॥ उपपादोऽस्त्यभव्यानामग्र ग्रैवेयकेष्वपि । स च निर्ग्रन्थलिङ्गेन सङ्गतोऽग्रतपः श्रिया ॥ ६ / १०६ ॥ यह स्त्रीमुक्तिनिषेध का हरिवंशपुराण में दूसरा प्रमाण है। आगे कहा गया है कि भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों से मुक्ति होती है, किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा केवल पुंल्लिङ्ग से ही होती है । यथा सिद्धिः सिद्धिगतौ अवेदत्वेन - लिङ्गेन ज्ञेया सुमनुष्यगतौ यथा । भावतस्तु त्रिवेदतः ॥ ६४ / ९३ ॥ न द्रव्याद् द्रव्यतः सिद्धिः पुंल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा ॥ ६४ / ९४ ॥ अनुवाद - "गति - अनुयोग से विचार करने पर सिद्धगति या मनुष्यगति में सिद्धि होती है। लिंग-अनुयोग विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा अवेद से सिद्धि प्राप्त होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा भाववेदतः तीनों भाववेदों से सिद्धि संभव है ।" (६४/९३)। " किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा तीनों द्रव्यवेदों से सिद्धि संभव नहीं है । द्रव्यवेद की अपेक्षा केवल पुंल्लिङ्ग से ही सिद्धि हो सकती है। लिंग का अर्थ वेष भी है। अतः उसकी अपेक्षा विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि होती है। अथवा सग्रन्थलिंग से सिद्धि होती ही नहीं है।" (६४ / ९४)। यहाँ तो 'द्रव्य की अपेक्षा पुंल्लिंग से ही सिद्धि होती है,' कहकर एकदम स्पष्ट शब्दों में स्त्रीमुक्ति का निषेध कर दिया गया है। कृष्ण की दूसरी पट्टरानी रुक्मिणी के विषय में भविष्यवाणी करते हुए भगवान् नेमिनाथ कहते हैं - " तुम इस उत्तम पर्याय में दीक्षा धारण कर उत्तम देव होगी और For Personal & Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र० १ हरिवंशपुराण / ६८९ वहाँ से च्युत होकर निर्ग्रन्थ तप करके निश्चित ही मोक्ष प्राप्त करोगी।" देखिए हरिवंशपुराण के निम्नलिखित पद्य ततोऽवतीर्य भीष्मस्य श्रीमत्यां त्वं सुताभवः । नगरे कुण्डिनाभिख्ये रुक्मिणी रुक्मिणः स्वसा ॥ ६०/३९॥ कृत्वा चात्र भवे भव्ये प्रव्रज्यां विबुधोत्तमः । च्युत्वा तपश्च कृत्वात्र नैर्ग्रन्थ्यं मोक्ष्यसे ध्रुवम् ॥ ६० / ४० ॥ कृष्ण की पहली पट्टरानी सत्यभामा, तीसरी पट्टरानी जाम्बवती, चौथी पट्टरानी सुसीमा, पाँचवी, पट्टरानी लक्ष्मणा, छठी पट्टरानी गान्धारी, सातवीं पट्टरानी गौरी और आठवीं पट्टरानी पद्मावती के विषय में भी भगवान् ने तीसरे भव में पुरुषपर्याय से मुक्त होने की भविष्यवाणी की है। हरिवंशपुराणकार ने 'मल्लि' शब्द के साथ पुंल्लिंग का प्रयोग किया है, जिससे संकेतित होता है कि वे उन्हें स्त्री नहीं मानते। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर - आगम ज्ञातृधर्मकथा में उन्हें जयन्त नामक स्वर्ग से अवतरित माना गया है, जबकि हरिवंशपुराण के अनुसार वे अपराजित स्वर्ग से अवतरित हुए थे। इस प्रकार हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध के अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं । २ सवस्त्रमुक्ति एवं गृहस्थमुक्ति का निषेध हरिवंशपुराण में मुनि के लिए उन्हीं २८ मूलगुणों का विधान किया गया है, जिनका उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार (३/८-९) में किया है। देखिए - विरतिर्यतः । महाव्रतम् ॥ २ / १२१ ॥ बाह्याभ्यन्तरवर्तिभ्यः सर्वेभ्यो स्वपरिग्रहदोषेभ्यः पञ्चमं तु एवं समितयः पञ्च गोप्यास्तिस्रस्तु गुप्तयः । वाङ्मनःकाययोगानां शुद्धरूपाः प्रवृत्तयः ॥ २ / १२७ ॥ चित्तेन्द्रियनिरोधश्च लोचास्नानैक-भक्तं च षडावश्यक-सत्क्रियाः । स्थिति - भुक्तिरचेलता ॥ २/१२८॥ १. हरिवंशपुराण ६० / २२-२३, ५३-५४, ७२, ८५, ९३-९४, १०४, १२१ - १२२ । २. क — 'नमो मोहमहामल्लमाथिमल्लाय मल्लये ॥ १/ २१ ॥ हरिवंशपुराण । ख—'मल्लिः पञ्चशतैः सिद्धः शान्तिर्नवशतैः ३. ‘नमिमल्लीशावपराजिततश्च्युतौ ॥' ६० / १६५ ॥ हरिवंशपुराण । सह ॥' ६० / २८३ ॥ हरिवंशपुराण । For Personal & Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१/प्र०१ भूमिशय्याव्रतं दन्त-मल-मार्जन-वर्जनम्। तपः-संयम-चारित्रं परीषह-जयः परः॥ २/१२९ ॥ अनुप्रेक्षाश्च धर्मश्च क्षमादिदशलक्षणः। ज्ञान - दर्शन - चारित्र- तपो-विनय-सेवनम्॥ २/१३० ॥ इति श्रमण-धर्मोऽयं कर्म-निर्मोक्ष-हेतकः। सुरासुरनराध्यक्षं जिनोक्तस्तं तदा नराः॥ २/१३१॥ इनमें अचेलता भी एक मूलगुण है। अचेलता को साधु का कर्मनिर्मोक्षहेतुक मूलगुण या श्रमणधर्म मानने से सिद्ध है कि हरिवंशपुराणकार सचेल साधु को साधु की श्रेणी में नहीं रखते। तथा उन्होंने कहा है कि प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगकेवली तक नौ गुणस्थानों के मुनि बाह्यरूप की अपेक्षा निर्ग्रन्थ (नग्न) ही होते हैं, उनके बाह्य रूप में कोई भेद नहीं होता-"नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः।" (३/ ८४)। ये दो उल्लेख इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि हरिवंशपुराण के कर्ता को सवस्त्रमुक्ति मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त उक्त पुराण में कहा गया है कि जब भगवान् ऋषभदेव ने मुनिदीक्षा ग्रहण की, तब उनके प्रति भक्ति रखने वाले इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र, भोज आदि वंशों के चार हजार राजाओं ने भी नाग्न्यव्रत धारण कर लिया राजक्षत्रोग्रभोजाद्याः स्वामिभक्ता महानृपाः। चतुःसहस्रसंख्याता मुख्या नाग्न्यस्थितिं श्रिताः॥ ९/१०० ॥ किन्तु वे क्षुधादिपरीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हुए, फलस्वरूप जिनमार्ग से भ्रष्ट हो गये। नग्न अवस्था में ही वे फल-मूल आदि खाकर और जल पीकर अपनी क्षुधा-तृषा शान्त करने लगे। तब देवों ने उन्हें सावधान किया कि वे नग्नवेश धारण करते हुए मुनिधर्म-विरोधी प्रवृत्ति न करें। इससे लज्जित और भयभीत होकर उन्होंने कुशा, चीवर, वल्कल आदि धारण कर लिए। अंत में वे जिनमार्ग छोड़कर तापस और परिव्राजक बन गये। ४. ततः कच्छमहाकच्छमरीच्यग्रेसरास्तके। __ षड्मासाभ्यन्तरे भग्नाः क्षुधाधुग्रपरीषहै:॥ ९/१०४॥ हरिवंशपुराण। ५. भक्षणं फलमूलादेरपां पानावगाहनम्। कुर्वतां नग्नरूपेण स्वयंग्राहेण भूभृताम्॥ ९/११३॥ हरिवंशपुराण। भो भो माऽनेन रूपेण स्वयंग्राहविरोधिना। प्रवर्तध्वमिति व्यक्ताः खेऽभवन्मरुतां गिरः॥ ९/११४ ॥ हरिवंशपुराण। ततस्ते त्रपितास्त्रस्ता दिशो वीक्ष्य महीक्षितः। चक्रुर्वेषपरावर्तं कुश-चीवर - वल्कलैः॥ ९/११५॥ हरिवंशपुराण। ६. इति निश्चित्य तेऽन्योन्यं पाण्डुपंत्रफलाशिनः। जटावल्कलिनो जातास्तापसा वनवासिनः॥ ९/१२४॥ हरिवंशपुराण। For Personal & Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र० १ हरिवंशपुराण / ६९१ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि हरिवंशपुराण के कर्त्ता ने राजकुल में उत्पन्न राजाओं के लिए आपवादिक सवस्त्रलिंग का विधान नहीं किया, न ही क्षुधादिपरीषहों से पीड़ित होने पर आपवादिक सवस्त्रलिंग के औचित्य का प्रतिपादन किया है, न ही उनके तापस और परिव्राजक बन जाने पर उन्हें मोक्ष का पात्र बतलाया है, क्योंकि तापसों को उन्होंने केवल भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जन्म लेनेवाला तथा परिव्राजकों को ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न होनेवाला कहा है। हरिवंशपुराण में सवस्त्रमुक्ति-निषेध का यह तीसरा प्रमाण है । सवस्त्रमुक्ति के निषेध से गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का भी निषेध हो जाता है। यह भी हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने का अकाट्य प्रमाण है। ३ परतीर्थिकमुक्ति का निषेध यद्यपि सवस्त्रमुक्तिनिषेध से ही परतीर्थिक (अन्यलिंगी) की भी मुक्ति का निषेध हो जाता है, तथापि उसके निषेध के अन्य प्रमाण भी हरिवंशपुराण में मिलते हैं। जैसा कि पूर्व में अनेकत्र स्पष्ट किया जा चुका है, जैनेतर मान्यताओं और जैनेतरलिंग (अनग्नत्व) के अवलम्बन द्वारा भी मुक्ति प्राप्त होने की मान्यता परतीर्थिकमुक्ति की मान्यता कहलाती है । यह भी यापनीयों की मौलिक मान्यताओं में से अन्यतम है। किन्तु हरिवंशपुराण में इसका निषेध किया गया है। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं— १. हरिवंशपुराण में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन (जिनोपदिष्ट तत्त्वों में श्रद्धा ) होने तथा सम्यक्चारित्र (नग्नत्व आदि २८ मूलगुणों एवं तप आदि उत्तरगुणों) के पालन से ही कर्मों का क्षय होता है । " २. निर्ग्रन्थ (अचेलक) ही संयत गुणस्थान को प्राप्त होते हैं । " ३. अचेलत्व आदि २८ मूलगुणों और अन्य उत्तरगुणों को धारण करने वाला ही मुनि कहलाता है और मुनि ही मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है। (२/११७१३१/पृ.२१-२२) । ७. आज्योतिर्लोकमुत्पादस्तापसानां ब्रह्मलोकावधिर्ज्ञेयः ८. पूर्वमेवौपशमिकं क्षायिकं तैः समुत्पाद्य तथा चारित्रमोहस्य चारित्रं प्रतिपद्यामी क्षयं कुर्वन्ति कर्मणाम् ॥ ३ / १४५ ॥ हरिवंशपुराण । ९. नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः॥ ३/८४ ॥ हरिवंशपुराण | तपस्विनाम् । परिव्राजकयोगिनाम्॥ ६ / १०३ ॥ हरिवंशपुराण | क्षायोपशमिकं क्रमात् । सम्यक्त्वमनुभूयते ॥ ३/१४४॥ हरिवंशपुराण। क्षयोपशमलब्धितः । For Personal & Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१/प्र०१ ४. जिनलिंगरहित साधु सहस्रारनामक बारहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकता। हरिवंशपुराण में प्रतिपादित इन सिद्धान्तों से स्पष्ट होता है कि परतीर्थिक पुरुष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से रहित होते हैं। उनमें अचेलत्व आदि २८ मूलगुणों और अन्य उत्तरगुणों का अभाव होता है, अतः वे संयत गुणस्थान को प्राप्त नहीं हो सकते। इसलिए उनका कर्मक्षय संभव नहीं है। हरिवंशपुराण में प्रतिपादित इस यापनीयमतविरोधी सिद्धान्त से सिद्ध है कि यह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है। केवलिभुक्तिनिषेध केवलिभुक्ति भी यापनीयों की मूलभूत मान्यताओं में से एक है। किन्तु हरिवंशपुराण में इसका निषेध किया गया है। केवलज्ञान के दश अतिशयों का वर्णन करते हुए जिनसेन कहते हैं निमेषोन्मेष-विगम-प्रशान्तायत-लोचनम्। सुव्यवस्थितसुस्निग्धनखकेशोपशोभितम् ॥ ३/१२॥ त्यक्तभुक्तिजरातीतमच्छायं छाययोर्जितम्। एकतो मुखमप्यच्छचतुर्मुखमनोहरम्॥३/१३॥ इन दश अतिशयों में त्यक्तभुक्ति शब्द से केवली भगवान् के कवलाहारी होने का निषेध किया गया है। केवली भगवान् के प्रभाव से समवशरण में स्थित अन्यजीवों को भी भूख-प्यास आदि की पीड़ा नहीं होती, तब स्वयं को होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस तथ्य की अभिव्यक्ति हरिवंशपुराण के कर्ता ने निम्नलिखित शब्दों में की है न मोहो न मयद्वेषौ नोत्कण्ठारतिमत्सराः। अस्यां भद्रप्रभावेण जम्भाजृम्भा न संसदि॥ ५७/१८१॥ निद्रा-तन्द्रा-परिक्लेश-क्षुत्पिपासा-सुखानि न। नास्त्यन्यच्चाशिवं सर्वमहरेव च सर्वदा॥ ५७/१८२ ॥ १०. सदृगाजीविकानां च सहस्रारावधिर्भवः। न जिनेतरदृष्टेन लिङ्गेन तु ततः परम्॥ ६/१०४॥ हरिवंशपुराण। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र०१ हरिवंशपुराण / ६९३ हरिवंशपुराणकार ने यह भी कहा है कि सयोगकेवली और अयोगकेवली को क्षायिकलब्धियों की प्राप्ति हो जाने से अनन्त आत्मसुख की अनुभूति होती है। उनका सुख इन्द्रियविषयों से उत्पन्न नहीं होता। यथा तत्र केवलिनां सौख्यं सयोगानामयोगिनाम्। लब्धक्षायिकलब्धीनामनन्तं नेन्द्रियार्थजम्॥ ३/८६॥ इन शब्दों के द्वारा भी केवली भगवान् को क्षुधा-तृषा आदि की पीड़ाओं से रहित बतलाया गया है। ___ यापनीयों की इस प्रमुख मान्यता के निषेध से स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन यापनीय-आचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त १. यापनीयमत में वस्त्रपात्रादि-बाह्यपरिग्रह का त्याग आवश्यक नहीं माना गया है, क्योंकि उनके अनुसार सवस्त्र साधुओं, स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों की भी मुक्ति हो सकती है। इन सबके पास वस्त्रपात्रादि-परिग्रह होता है। किन्तु हरिवंशपुराण में मुक्ति के लिए अभ्यन्तरपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि-बाह्यपरिग्रह का भी त्याग अनिवार्य बतलाया गया है। यथा बाह्याभ्यन्तरवर्तिभ्यः सर्वेभ्यो विरतिर्यतः। स्वपरिग्रहदोषेभ्यः पञ्चमं तु महाव्रतम्॥ २/१२१॥ चतुष्कषाया नव नोकषाया मिथ्यात्वमेते द्विचतुःपदे च। क्षेत्रं च धान्यं च हि कुप्यभाण्डे धनं च यानं शयनासनं च॥ ३४ /१०४॥ अन्तर्बहिर्भेदपरिग्रहास्ते रन्धैश्चतुर्विंशतिराहतास्तु। ते द्वे शते षोडशसंयुते स्युर्महाव्रते स्यादुपवासभेदाः॥ ३४/१०५॥ २. यापनीयमत में कल्पों की संख्या केवल १२ मानी गयी है, जब कि दिगम्बरमत में १२ और १६ दोनों। हरिवंशपुराण (३ / १५२-१५५) में १६ कल्पों का वर्णन है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। इसी प्रकार यापनीयमत अनुदिश नामक नौ स्वर्ग स्वीकार नहीं करता, जबकि हरिवंशपुराण में स्वीकार किये गये हैं। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ११. नवग्रैवेयकावासा नवानुदिशवासिनः। कल्पातीतास्तथा ज्ञेयाः पञ्चानुत्तरवासिनः॥ ३/१५०॥ हरिवंशपुराण। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र०१ - ३. यापनीयमान्य श्वेताम्बर-'ज्ञातृधर्मकथाङ्ग' में तीर्थंकर प्रकृतिबन्धक भावनाएँ बीस बतलायी गई हैं। इसके विपरीत हरिवंशपुराण में सोलह भावनाएँ ही वर्णित हैं।१२ ४. हरिवंशपुराण में अहिंसादि महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वर्णित हैं, श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में तो भावनाओं का उल्लेख ही नहीं है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में है, किन्तु हरिवंशपुराण में, उनका भी अनुसरण नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ, दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में अहिंसामहाव्रत की पाँच भावनाओं के अन्तर्गत मनोगुप्ति के साथ वचनगुप्ति का भी उल्लेख है,१३ जबकि श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में वचनगुप्ति के स्थान में एषणासमिति का कथन है।१४ हरिवंशपुराण में दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वचनगुप्ति का ही वर्णन है।५ यह भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ५. श्वेताम्बर-आगमों के अनुसार तीर्थंकर की माता तीर्थंकर के गर्भ में आने पर चौदह स्वप्न देखती हैं,१६ जब कि दिगम्बरपुराणों में सोलह स्वप्नों का वर्णन है। हरिवंशपुराण में भी मरुदेवी को सोलह स्वप्न देखते हुए वर्णित किया गया है। हरिवंशपुराण की यह मान्यता भी श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत के विरुद्ध है। ६. यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना गया है। स्वतंत्र द्रव्य की मान्यता को श्वेताम्बराचार्यों ने अन्य (दिगम्बर) आचार्यों का मत कहा है।८ किन्तु हरिवंशपुराण में न केवल स्वतंत्र कालद्रव्य का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, बल्कि उसके स्वतंत्र द्रव्यत्व को युक्तियों के द्वारा सिद्ध भी किया गया है। (७/१-३१)। यह भी हरिवंशपुराण में यापनीयमतविरोधी सिद्धान्तों के प्रतिपादन का एक उदाहरण है। १२. केचित् पूर्वभवाभ्यस्तशुभषोडशकारणाः॥३/१७४,५८/११२, ३४/१३२-१४९॥हरिवंशपुराण। १३. "वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च" ७/४/ तत्त्वार्थसूत्र (दि.)। १४. "अहिंसायास्तावदीर्यासमितिर्मनोगुप्तिरेषणासमितिरादाननिक्षेपणसमितिरालोकितपानभोजनमिति।" ७/३/ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य। १५. सुवाग्गुप्तिमनोगुप्ती स्वकाले वीक्ष्य भोजनम्।। द्वे चेर्यादाननिक्षेपसमिती प्राग्व्रतस्य ताः॥ ५८/११८॥ हरिवंशपुराण। १६. १. गज, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. अभिषेक, ५. पुष्पमाला, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. ध्वजा, ९. कुम्भ, १०. पद्मयुक्त सरोवर, ११. सागर, १२. विमान, १३. रत्नराशि और १४. निर्धूम अग्नि। (ज्ञातृधर्मकथांग / अध्ययन ८ मल्ली / पृष्ठ २२२)। १७. निधीनिव निशाशेषे ददर्श शुभसूचकान्। क्रमेण षोडशस्वप्नानिमान् दुर्लभदर्शनान्॥ ८/५८॥ हरिवंशपुराण। १८. 'कालश्चेत्येके।' ५/३८ / तत्त्वार्थसूत्र (श्वे.)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र०१ हरिवंशपुराण / ६९५ ७. हरिवंशपुराण में गुणस्थानक्रम से कर्मक्षय का वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार चौदहवें गुणस्थान के अन्त में अवशिष्ट अघातीकर्मों का क्षय होने पर ही सिद्धत्व की प्राप्ति होती है। (५६/८४-११०)। यह सिद्धान्त यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत में अन्यलिंगियों और गृहस्थों की मुक्ति मान्य होने से 'मिथ्यादृष्टि' और 'संयतासंयत' गुणस्थानों में भी सम्पूर्ण कर्मक्षय स्वीकार किया गया है। ८. यापनीयमत में स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद, इन तीन भाववेदों के स्थान में एक ही भाववेद-सामान्य स्वीकार किया गया है। इसका निरूपण षट्खंडागम के अध्याय में विस्तार से किया जा चुका है। किन्तु हरिवंशपुराण में तीनों भाववेदों की सत्ता मान्य की गई है। यथा भावांस्त्रैणान्यतो याति स स्त्रीवेदोऽतिगर्हितः। पुन्नपुंसकवेदौ स्तः पौंस्नान्नापुंसकाद् यतः॥ ५८/२३७॥ यह यापनीयमत के विरुद्ध है। ९. यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ मानी गयी है और दिगम्बरग्रन्थों में ९६।१९ हरिवंशपुराण (५/४७६, ४८१, ५७५) में भी ९६ अन्तरद्वीपों का ही उल्लेख है। यह भी हरिवंशपुराण की यापनीयमत से सैद्धान्तिक भिन्नता है। १०. हरिवंशपुराण (९/१८४-१८९) में भगवान् ऋषभदेव के लिए राजा श्रेयांस द्वारा जिस विधि से आहारदान किये जाने का वर्णन है, वह दिगम्बरमत के अनुरूप है।° इस विधि से आहारदान और आहारग्रहण का वर्णन किसी भी यापनीयग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर-गुरुपरम्परा से सम्बद्ध हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने अपने को दिगम्बरगुरु-परम्परा से सम्बद्ध बतलाया है। वे लिखते हैं-"भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद बासठ वर्षों में क्रम से गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए। उनके बाद सौ वर्षों में समस्त पूर्वो को जाननेवाले पाँच श्रुतकेवली हुए : नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु। तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्षों में ग्यारह मुनि दशपूर्वो के धारक हुए : विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिलाभ, गङ्गदेव और धर्मसेन। उसके बाद दो सौ बीस वर्षों में पाँच मुनि ग्यारह अंगों के धारी हुए : नक्षत्र, यशःपाल, पाण्डु, १९. देखिए , प्रस्तुत ग्रन्थ का 'तिलोयपण्णत्ती' नामक सप्तदश अध्याय/ प्रकरण १/पादटिप्पणी १४। २०. तुलना कीजिए, मूलाचार / पूर्वार्ध । आचारवृत्ति / गा. ४८२-४८३। For Personal & Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र०१ ध्रुवसेन और कंसाचार्य। तत्पश्चात् एक सौ अठारह वर्षों में सुभद्रगुरु, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य (लोहार्य), ये चार मुनि प्रसिद्ध आचारांग के धारी हुए।" (६६/ २२-२४, १/६०-६५)। "इनके बाद महातपस्वी विनयन्धर, गुप्तऋषि, गुप्तश्रुति, शिवगुप्त, अर्हबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, नागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, श्रीधरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्य हुए। तदनन्तर षट्खण्डागम के ज्ञाता जयसेन नामक गुरु हुए। उनके शिष्य अमितसेन गुरु हुए। इन्हीं अमितसेन के अग्रज धर्मबन्धु कीर्तिषेण नामक मुनि थे। उनका प्रथम शिष्य मैं जिनसेन हुआ, जिसने हरिवंशपुराण की रचना की है।" (६६/२५-३३)। ___ इस प्रकार आचार्य जिनसेन ने अपने को दिगम्बर-गुरुपरम्परा से सम्बद्ध बतलाया है। यह गुरुपरम्परा न तो श्वेताम्बरों में मिलती है, न यापनीयों में। गौतमस्वामी से लेकर लोहार्य तक की उपर्युक्त आचार्यपरम्परा इन्द्रनन्दी, विबुधश्रीधर आदि के 'श्रुतावतार' आदि ग्रन्थों में मिलती है, जो दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ हैं। इससे स्पष्ट है कि हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन दिगम्बर थे। दिगम्बर-ग्रन्थकारों का गुणकीर्तन हरिवंशपुराणकार ने ग्रन्थ के आरंभ में जितने भी पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का गुणकीर्तन किया है, वे सब दिगम्बर हैं, जैसे आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन (सन्मतिसूत्र के कर्ता), देवनन्दी (पूज्यपादस्वामी), वज्रसूरि (पूज्यपाद स्वामी के शिष्य वज्रनन्दी), महासेन, रविषेण (पद्मपुराणकार) जटासिंहनन्दी (वरांगचरित के कर्ता), शान्तिषेण, विशेषवादी, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, वीरसेन स्वामी (धवलाकार), जिनसेन (पार्वाभ्युदयकार) तथा वर्धमानपुराण के कर्ता। (१/२९-४२)। इससे भी हरिवंशपुराणकार का दिगम्बर होना सिद्ध होता है। दिगम्बरग्रन्थों का अनुकरण आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण की विषयवस्तु दिगम्बराचार्य-रचित ग्रन्थों से अनुकृत की है। यथा १. श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः" (१/३४), ये पाँच नय माने गये हैं, जब कि दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसू Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र०१ हरिवंशपुराण / ६९७ शब्दसमभिरूद्वैवंभूता नयाः" (१/३३), ये सात नय मान्य हैं। हरिवंशपुराण में इन्हीं सात नयों को स्वीकार किया गया है नैगमः सडग्रहश्चात्र व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढाख्य एवंभूताश्च ते नयाः॥ ५८ /४१॥ इसी प्रकार श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र में पुण्यप्रकृतियाँ आठ मानी गयी हैं"सद्वेद्य-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।" (८/२६)। किन्तु दिगम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वे केवल चार हैं-"सवेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।" (८/२५)। हरिवंशपुराण में दिगम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुकरण किया गया है। यथा शुभायुर्नामगोत्राणि सवेद्यं च चतुर्विधः। पुण्यबन्धोऽन्यकर्माणि पापबन्धः प्रपञ्चितः॥ ५८/२९८॥ २. हरिवंशपुराण में हिंसा और असत्य की निम्नलिखित परिभाषाएँ सर्वार्थसिद्धि (७/१३-१४) से अनुकृत की गई हैं स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः॥ ५८ / १२९॥ सदर्थमसदर्थं च प्राणिपीडाकरं वचः। असत्यमनृतं प्रोक्तमृतं प्राणिहितं वचः॥ ५८ / १३०॥ ३. हरिवंशपुराण में सम्यक्त्वप्रकृति की यह परिभाषा भी अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थराजवार्तिक २१ के आधार पर निबद्ध की गयी है शुभात्मपरिणामेन निरुद्धस्वरसे स्थिते। मिथ्यात्वे श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वप्रकृतिर्भवेत्॥ ५८ / २३२॥ ४. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का वर्णन वीरसेन-स्वामीकृत धवलाटीका के आधार पर किया गया है। श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र (१/२०) के भाष्य में अंगबाह्यसूत्र के भीतर प्रत्याख्यान, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित आदि शास्त्रों का समावेश है, जब कि धवलाटीका (ष.ख./पु.१/ सूत्र २/ पृ.९७) में इनके स्थान पर कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका का उल्लेख मिलता है। हरिवंशपुराण में भी धवलाटीका में उल्लिखित इन्हीं शास्त्रों के नाम वर्णित किये गये हैं। यथा२१. "तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मानं श्रद्दधानं न निरुणद्धि। तद्वेदयमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ८/९/२/ पृ.५७४। For Personal & Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० १ तं कल्पव्यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महाकल्पं च पुण्डरीकं च सुमहापुण्डरीककम् ॥ २ / १०४॥ तथा निषद्यकां प्रायः प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह प्रतिपाद्यं हितोद्यतः ॥ २ / १०५ ॥ ५. तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में सम्यक्त्व को देवायु के आस्रव का हेतु नहीं माना गया है, जब कि दिगम्बरमान्य पाठ में माना गया है। 'सम्यक्त्वं च ' (६/२१) सूत्र इसका प्रमाण है । हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में दिगम्बरमान्य पाठ का अनुसरण किया गया है सम्यक्त्वं च व्रतित्वं च बालतापस्ययोगिता । अकामनिर्जरा चास्य दैवस्यास्त्रवहेतवः ॥ ५८ / ११० ॥ यदि हरिवंशपुराणकार यापनीय होते तो, वे उपर्युक्त विषयों का वर्णन श्वेताम्बर - आगमों के आधार पर करते । किन्तु उन्होंने इसके लिए दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों का अवलम्बन किया है। इससे भी सिद्ध है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। हरिवंशपुराण में उपलब्ध ये बहुविध यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त इस बात के पक्के सबूत हैं कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं । For Personal & Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता प्रथम प्रकरण में प्रस्तुत प्रमाणों से हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध हो जाने पर यह भी निश्चित हो जाता है कि पूर्वोक्त यापनीयपक्षधर विदुषी एवं विद्वान् ने उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु सामने रखे हैं, वे या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं, क्योंकि उनके रहते हुए भी हरिवंशपुराण दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध होता है, यापनीयग्रन्थ नहीं। प्रस्तुत प्रकरण में यह स्पष्ट किया जा रहा है कि उनमें से कौन - सा हेतु असत्य है और कौन - सा हेत्वाभास । स्पष्टीकरण के लिए यापनीयपक्षपोषक हेतु का प्रदर्शन यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे तथा उसकी असत्यता या हेत्वाभासता का प्ररूपण दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे किया जा रहा है। । १ यापनीयपक्ष बृहत्कथाकोशकार हरिषेण पुन्नाटसंघी थे। उन्होंने कथाकोश में स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख किया है, अतः वे यापनीय थे । हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन भी पुन्नाटसंघी थे, अतः इन्हें भी यापनीय ही होना चाहिए। (या. औ.उ.सा./ पृ.१४९)। दिगम्बरपक्ष जिनसेन और हरिषेण दोनों ने क्रमशः अपने हरिवंशपुराण एवं बृहत्कथाकोष में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि यापनीयसिद्धान्तों का निषेध किया है, अतः दोनों यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे । इसलिए उनका पुन्नाटसंघ भी दिगम्बरों का ही संघ था, यापनीयों का नहीं । यापनीयपक्षधर विद्वान् और विदुषी ने जहाँ स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध है, वहाँ स्त्रीमुक्ति आदि का प्रतिपादन मानकर इस असत् हेतु के द्वारा ग्रन्थ और ग्रन्थकर्त्ता को यापनीय सिद्ध करने का दूषित प्रयास किया है। पुन्नाटसंघ को यापनीयसंघ सिद्ध करने के लिए डॉ० सागरमल जी ने यह भी स्वबुद्धि से कल्पित कर लिया है कि इसकी उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण हुई थी। (जै. ध. या.स./ पृ. ६३ ) । किन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है । डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने इससे उलटी अटकल लगाई है। उनका कहना है कि " संभवत: पुन्नागवृक्षमूलगण पुन्नाटसंघ का ही रूपान्तर है।" ( भट्टा. सम्प्र. / पृ. २५७ ) । इसके पक्ष में भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है । यह उनके मन की अटकल है, जो वाक्य में प्रयुक्त सम्भवतः शब्द से सूचित होती है। For Personal & Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र० पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ऐसी कोई अटकल नहीं लगाई है। वे लिखते हैं"पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। हरिषेण ने अपने कथाकोष में लिखा है कि भद्रबाहु स्वामी के आज्ञानुसार उनका सारा संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ के पुन्नाट देश में गया।२ दक्षिणापथ का यह पुन्नाट कर्नाटक ही है। कन्नड़ साहित्य में भी पुन्नाटराज्य के उल्लेख मिलते हैं। प्रसिद्धभूगोलवेत्ता टालेमी ने इसका 'पोन्नट' नाम से उल्लेख किया है। इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाटसंघ था। संघों के नाम प्रायः देशों और स्थानों के नाम से पड़े हैं। श्रवणबेल्गोल के १९४ नं. के शिलालेख में जो श० सं० ६२२ के लगभग का है, एक 'कित्तूर' नाम के संघ का उल्लेख है। कित्तूर या कीर्तिपुर पुन्नाट की पुरानी राजधानी थी, जो इस समय मैसूर के 'होग्गडेवकोटे' ताल्लुके में है। सो यह कित्तूरसंघ या तो पुन्नाटसंघ का ही नामान्तर होगा या उसकी एक शाखा।" (जै. सा.इ./द्वि. सं./ पृ. ११४)। प्रेमी जी हरिवंशपुराणकार द्वारा उल्लिखित उनकी गुरुपरम्परा का निर्देश करते हुए आगे लिखते हैं-"इसमें अमितसेन को पुन्नाटसंघ का अग्रणी (आगे जानेवाला) बतलाया है, जिससे ऐसा मालूम होता है कि ये अमितसेन ही पुन्नाटदेश को छोड़कर सबसे पहले उत्तर की तरफ बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाट में ही विचरण करता रहा होगा। अर्थात् जिनसेन से ५०-६० वर्ष पहले ही काठियावाड़ में इस संघ का प्रवेश हुआ होगा।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.११५)। "--- जान पड़ता है कि पुन्नाट (कर्नाटक) से बाहर जाने पर ही यह संघ पुन्नाटसंघ कहलाया, जिस तरह कि आजकल जब कोई एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाकर रहता है, तब वह अपने पूर्वस्थानवाला कहलाने लगता है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.१२२)। प्रेमी जी की यह व्याख्या अत्यन्त युक्तिसंगत है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति हरिवंशपुराणकार जिनसेन के पूर्वज आचार्य अमितसेन के पुन्नाटदेश को छोड़कर काठियावाड़ जाने पर हुई थी। अतः यह अटकल निरस्त हो जाती है कि पुन्नागवृक्षमूलगण से उसकी उत्पत्ति हुई थी या पुन्नागवृक्षमूलगण उसका रूपान्तर है। पुन्नाट शब्द देशवाचक है और पुन्नाग शब्द वृक्षवाचक। इनमें परस्पर कोई साम्य भी नहीं है, जिससे एक से दूसरे की उत्पत्ति मानी जाय। इस प्रकार सिद्ध है कि पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं हुई थी, अत: वह यापनीयसंघ नहीं था। इसलिए पुन्नाटसंघी जिनसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है। २२. अनेन सह सङ्घोऽपि समस्तो गुरुवाक्यतः। दक्षिणापथ-देशस्थ-पुन्नाट-विषयं ययौ॥ ४२ ॥ भद्रबाहुकथानक । बृहत्कथाकोश। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र० २ हरिवंशपुराण / ७०१ पहली गलत सूचना - 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने 'जैन साहित्य और इतिहास' के पृष्ठ १२२ का सन्दर्भ देते हुए लिखा है कि "पं० नाथूराम जी प्रेमी ने जिनसेनकृत हरिवंशपुराण और आचार्य हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में ऐसे अनेक तथ्यों को खोज निकाला है, जिनके आधार पर ये ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, अन्यलिंगमुक्ति का निषेध करनेवाली मूलसंघीय दिगम्बरपरम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के सिद्ध होते हैं।" (जै. ध. या. सं./पृ.६२) । यह सूचना एकदम गलत है। मैंने प्रेमी जी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास' के दोनों संस्करण अच्छी तरह देखे हैं, न तो उनके १२२ पृष्ठ पर उक्त तथ्यों का उल्लेख है, न अन्य किसी पृष्ठ पर । इसके विपरीत उन्होंने तो उक्त दोनों ग्रन्थों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ही बतलाया है। वे लिखते हैं- "दिगम्बरसम्प्रदाय के संस्कृत - कथासाहित्य में हरिवंशचरित या हरिवंशपुराण समय की दृष्टि से तीसरा कथाग्रन्थ - पहला रविषेणाचार्य का पद्मचरित, दूसरा जटासिंहनन्दी का वराङ्गचरित्र और तीसरा यह ।” (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.११३)। निम्नलिखित वक्तव्यों में प्रेमी जी ने हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ निरूपित किया है " काठियाबाड़ के ही वर्द्धमानपुर में, जो इस समय बढ़वाण के नाम से प्रसिद्ध है, आचार्य जिनसेन ने अपना हरिवंशपुराण श० सं० ७०५ और हरिषेण ने अपना कथाकोष श० सं० ८५३ में समाप्त किया था । अतएव काठियाबाड़ में दिगम्बरसम्प्रदाय काफी प्राचीनकाल से रहा है।" (जै. सा. इ. प्र.सं./पृ. ४४६) । हरिषेण-कथाकोष का परिचय देते हुए वे अन्यत्र लिखते हैं-" उपलब्ध जैनकथाकोशों में यह कथाकोश सबसे प्राचीन है। इसका रचनाकाल शकसंवत् ८५३, वि० सं० ९८९ और श्लोक संख्या साढ़े बारह हजार है। दिगम्बरसम्प्रदाय में 'आराधनाकथाकोश' नाम के दो संस्कृतग्रन्थ और हैं, एक प्रभाचन्द्र का गद्यबद्ध और दूसरा मल्लिभूषण के शिष्य ब्र० नेमिदत्त का पद्यबद्ध । " (जै. सा. इ./द्वि.सं./पृ.२२०) । इस प्रकार पं० नाथूराम जी प्रेमी ने हरिवंशपुराणकार जिनसेन और बृहत्कथाकोशकार हरिषेण, इन दोनों पुन्नाटसंघीय आचार्यों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ही माना है। तात्पर्य यह कि उनके अनुसार पुन्नाटसंघ दिगम्बरसम्प्रदाय का ही संघ था। दूसरी गलत सूचना — डॉ० सागरमल जी ने आगे लिखा है - " यद्यपि हरिवंशपुराण के प्रथम और अन्तिम सर्ग में आचार्यों की जो सूची दी गई है, उसके कारण पुन्नाटसंघ को यापनीय मानने में बाधा आती है, किन्तु श्रीमती कुसुम पटोरिया और पं० नाथूराम For Personal & Private Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र० २ जी प्रेमी ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि ये अंश यापनीयसाहित्य के दिगम्बरसाहित्य में अन्तर्भूत होने के बाद प्रक्षिप्त हुए हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.६२)। यह सूचना भी सर्वथा गलत है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ऐसी संभावना कहीं पर भी व्यक्त नहीं की। इसीलिए उक्त ग्रन्थ के लेखक ने प्रेमी जी के किसी ग्रन्थ का कोई सन्दर्भ भी पाद-टिप्पणी में नहीं दिया है। केवल श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ (पृष्ठ १५१ ) में ऐसा मन्तव्य प्रकट किया है, किन्तु उन्होंने प्रेमी जी का नाम नहीं लिया । इससे स्पष्ट है कि प्रेमी जी ने हरिवंशपुराण की उपर्युक्त (प्रकरण १ / शी. ६ में वर्णित) दिगम्बराचार्यों की सूची को प्रक्षिप्त नहीं माना है। पूर्व में उनके शब्द उद्धृत किये जा चुके हैं, जिनमें उन्होंने हरिवंशपुराण और बृहत्कथाकोश दोनों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ घोषित किया है। यदि वे उक्त आचार्यसूची को प्रक्षिप्त मानते, तो उसे दिगम्बरग्रन्थ कदापि न कहते । हाँ, श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उसे प्रक्षिप्त माना है। किन्तु उनका कथन तब युक्तिसंगत होता, जब हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध न किया गया होता, अपितु इनका प्रतिपादन होता । ऐसा होने पर वह यापनीयग्रन्थ होता और तब यापनीयसिद्धान्तों से मेल न खाने के कारण दिगम्बराचार्यों की उक्त सूची निश्चित ही प्रक्षिप्त मानी जाती । किन्तु पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है, जिससे वह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है । अतः दिगम्बराचार्यों की सूची उसके अनुरूप होने के कारण प्रक्षिप्त नहीं है, अपितु ग्रन्थकार द्वारा ही निबद्ध की गयी है । यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण २३ के कथनानुसार राजा सिद्धार्थ के भगिनीपति राजा जितशत्रु कुमार महावीर के साथ अपनी कन्या यशोदा का विवाह करना चाहते थे। इससे भी हरिवंशपुराणकार का यापनीय होना सिद्ध होता है । (या. औ. उ. सा. / १४९) । दिगम्बरपक्ष हरिवंशपुराणकार ने राजा जितशत्रु के मन की इच्छा सूचित कर अपनी ओर से कहा है कि "परन्तु कुमार महावीर तप के लिए चले गये और केवलज्ञान प्राप्त २३. यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमङ्गलम् । अनेक-कन्या-परिवारयारुहत्समीक्षितुं तुङ्ग- मनोरथं तदा ॥ ६६ / ८ ॥ हरिवंशपुराण । For Personal & Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / पू० २ हरिवंशपुराण / ७०१ कर जगत् के कल्याण के लिए पृथ्वी पर विहार करने लगे।"२४ इस कथन से स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन भगवान् महावीर के विवाह की मान्यता के विरोधी हैं। यह जिनसेन के दिगम्बर होने का प्रमाण है। तथा भगवान् महावीर के मातापिता के मन में उनके विवाह की इच्छा उत्पन्न होने का उल्लेख अपभ्रंशभाषा के दिगम्बर कवि रइथू के महावीरचरिउ में भी मिलता है। पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री सकलकीर्ति - विरचित वीरवर्धमानचरित की प्रस्तावना में लिखते हैं- "दिगम्बरपरम्परा के अनुसार भगवान् महावीर अविवाहित ही रहे हैं, फिर भी रइधू कवि ने अपने 'महावीरचरिउ' में माता-पिता के द्वारा विवाह का प्रस्ताव भगवान् महावीर के सम्मुख उपस्थित कराया है और भगवान् के द्वारा बहुत उत्तम ढंग से उसे अस्वीकार कराया है, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है। अपने पुत्र को सर्व प्रकार से सुयोग्य और वयस्क देखकर प्रत्येक माता-पिता को उसके विवाह की चिन्ता होती है । " ( प्रस्ता. / पृ. १०)। इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में भी भगवान् महावीर के माता-पिता आदि मन में उनके विवाह की इच्छा उत्पन्न होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। अतः यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है । फलस्वरूप यह हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का हेतु न होने से हेत्वाभास है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण में सग्रन्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के भी निर्देश प्राप्त होते हैं। 1 यथा न द्रव्याद्, द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा ॥ ६४ / ९४ ॥ डॉ० सागरमल जी ने इसका अर्थ यह किया है कि लिंग की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग ( अचेललिंग) अथवा सग्रन्थलिंग ( सचेललिंग) से मुक्ति होती है। पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने इस श्लोक का अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही (भूतकाल के विषय को ग्रहण करने वाले) नय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से होती भी है और नहीं भी । २४. स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयम्भुवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षितिं क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥ ६६ / ९ ॥ हरिवंशपुराण । For Personal & Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० २ डॉ० सागरमल जी ने इस व्याख्या को अनुचित बतलाया है और शंका व्यक्त की है कि मूलपाठ के साथ भी 'न वा' (अथवा नहीं) जोड़कर छेड़छाड़ की गई है। तथा भूतार्थग्राहिनय और भूतार्थनय को एक मानते हुए पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य बौद्धिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, कहा है कि "भूतार्थनय का अर्थ भूतकालिकपर्याय नहीं है, अपितु यथार्थदृष्टि या निश्चयदृष्टि है। कुन्दकुन्द ने भूतार्थ का अर्थ निश्चयदृष्टि या सत्यदृष्टि किया है । " (जै. ध. या.स./ पृ. १७५) । और डॉ० सागरमल जी ने अन्त में उपर्युक्त श्लोक से यही अर्थ निकाला है कि हरिवंशपुराण में सचेललिंग से भी मुक्ति स्वीकार की गई है। दिगम्बरपक्ष पूर्व में हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के निषेध के इतने अधिक प्रमाण दिये गये हैं कि 'हरिवंशपुराण सग्रन्थमुक्ति का कट्टर विरोधी है,' इस बात में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इसलिए इस तथ्य में भी शंका के लिए स्थान नहीं है कि पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा की गई उपर्युक्त व्याख्या सर्वथा सही है और मूलग्रन्थ में भी रत्ती भर छेड़छाड़ नहीं की गई है। हरिवंशपुराणकार ने तो सर्वत्र सर्वार्थसिद्धिटीका का अनुसरण किया है। देखिए १. “प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । " (स.सि./१०/९/९३७ / पृ. ३७३) । अनुवाद – “प्रत्युत्पन्ननय ( वर्तमान अर्थ को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सिद्धिक्षेत्र में, स्वप्रदेश में या आकाशप्रदेश में सिद्धि होती है । भूतग्राहिनय ( भूतकालीन अर्थ को ग्रहण करनेवाले नय) की दृष्टि से जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा मानुषक्षेत्र में सिद्धि होती है । " इन्हीं नयों से इसी अर्थ का प्रतिपादन हरिवंशपुराणकार ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है सिद्धिक्षेत्रे मता सिद्धिरात्माकाशप्रदेशयोः । प्रत्युत्पन्न - प्रतिग्राहिनय - योगादसङ्गिनाम् ॥ ६४/८८ ॥ कर्मभूमिषु सर्वासु जन्म प्रति च संहृतिम् । संसिद्धिर्मानुषे क्षेत्रे भूतग्राहिनयेक्षया ॥ ६४ / ८९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र० २ हरिवंशपुराण / ७०५ २.‘“प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अन्त्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति ।" (स.सि./ १० /९/९३७ /पृ.३७३) । अनुवाद – “प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । भूतप्रज्ञापननय ( भूतग्राहिनय) की दृष्टि से जन्म की अपेक्षा सामान्यतः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेषरूप से अवसर्पिणी में सुषमा- दुःषमा के अन्तभाग में और दुःषमा - सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । " इन्हीं नयों से इसी विषय का प्ररूपण हरिवंशपुराण के कर्त्ता ने नीचे दिये श्लोकों में भी किया है एकस्मिन्समये कालात्प्रत्युत्पन्ननयेक्षया । भूतग्राहिनयेक्षातो जन्मतोऽप्यविशेषतः ॥ ६४ / ९० ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिद्धयति जन्मवान् । विशेषेणावसर्पिण्यां तृतीयान्ततुरीययोः ॥ ६४/९१॥ इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्रत्युत्पन्ननय और भूतग्राही नय की अपेक्षा जैसा कथन सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है, वैसा ही उन नयों की अपेक्षा हरिवंशपुराणकार ने भी किया है । तथा ३. " लिङ्गेन केन सिद्धि : ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो, न द्रव्यतः। द्रव्यतः पुल्लिङ्गेनैव अथवा निर्ग्रन्थलिङ्गेन । सग्रन्थलिङ्गेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया ।" (स.सि./१०/९/पृ.३७४) । अनुवाद - "लिंग की अपेक्षा किस लिंग से सिद्धि होती है? लिंग की अपेक्षा अवेद से सिद्धि होती है अथवा भावलिंग की अपेक्षा तीनों वेदों से होती है, द्रव्यलिंग की अपेक्षा तीनों वेदों से नहीं होती । द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुंल्लिङ्ग से ही सिद्धि होती है अथवा निर्ग्रन्थलिंग से सिद्धि होती है । अथवा भूतपूर्वनय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से होती है। " सर्वार्थसिद्धिकार की इस टीका का अनुसरण हरिवंशपुराणकार ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है— सिद्धिः सिद्धिगतौ ज्ञेया सुमनुष्यगतौ यथा । अवेदत्वेन लिङ्गेन भावतस्तु त्रिवेदतः ॥ ६४ / ९३॥ For Personal & Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ॥ न द्रव्याद्, द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा सर्वार्थसिद्धिकार ने उपर्युक्त व्याख्या में स्पष्ट कर दिया है कि सग्रन्थलिंग से भूतपूर्वनय की अपेक्षा (निर्ग्रन्थलिंग से पूर्ववर्ती लिंग को ग्रहण करनेवाले नय की अपेक्षा) सिद्धि होती है, प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा (सिद्धि के साक्षात् साधक लिंग को ग्रहण करनेवाले नय की अपेक्षा) नहीं होती। इस प्रकार सग्रन्थलिंग से मुक्ति होती भी है और नहीं भी । यही बात हरिवंशपुराणकार ने 'सग्रन्थेनाथवा न वा' इन शब्दों में कही है अर्थात् सग्रन्थलिंग से भूतपूर्वनय की अपेक्षा सिद्धि होती है प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा नहीं होती । अ० २१ / प्र० २ यहाँ हरिवंशपुराणकार ने प्रत्युत्पन्ननय एवं भूतपूर्वनय शब्दों का प्रयोग नहीं किया, तथापि प्रस्तुत प्रकरण में सर्वार्थसिद्धि के समान हरिवंशपुराण में भी उक्त दोनों नयों से प्रतिपादन चल रहा है। 'सिद्धि होती भी है, और नहीं भी' इन परस्परविरोधी कथनों की संगति इन दोनों नयों से विचार करने पर ही बैठती है । इसलिए यहाँ ये दोनों नय अध्याहरणीय हैं, जैसे कि हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोकों में अध्याहरणीय हैं— ६४ / ९४ ॥ "" अनुवाद- 'चारित्रानुयोग की दृष्टि से विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राहिनय की अपेक्षा एक यथाख्यातचारित्र से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राहिनय की अपेक्षा चार अथवा पाँच चारित्रों से होती है।" सिद्धिरव्यपदेशेन नयादेकेन वा पुनः । चतुर्भिः पञ्चभिर्वापि चारित्रैरुपजायते ॥ ६४/९६॥ सिद्धिर्ज्ञानविशेषैः स्यादेकद्वित्रिचतुष्ककैः ॥ ६४/९८ ॥ अनुवाद - " ज्ञानानुयोग से विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राहिनय की अपेक्षा एक केवलज्ञान से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राहिनय की अपेक्षा दो (मति, श्रुत), तीन (मति, श्रुत, अवधि) और चार (मति, श्रुत अवधि, मन:पर्यय) ज्ञानों से सिद्धि होती है । " जैसे यहाँ भूतार्थग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक चारित्र और ज्ञान से पूर्ववर्ती चारित्र और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना आदि चारित्रों से तथा मति, श्रुत आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों से सिद्धि बतलायी गयी है और अर्थशक्ति के द्वारा अनुक्तरूप से प्रत्युत्पन्न - ग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक चारित्र और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा उक्त चारित्रों और ज्ञानों से सिद्धि For Personal & Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२१ / प्र०२ हरिवंशपुराण / ७०७ का अभाव द्योतित किया गया है, वैसे ही हरिवंशपुराण के पूर्वोक्त श्लोक (६४/९४) में भूतार्थग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक निर्ग्रन्थलिंग से पूर्ववर्ती लिंग को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि का कथन किया गया है और प्रत्युत्पन्नग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक लिंग को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि का निषेध किया गया है। इस प्रकार सग्रन्थलिंग से सिद्धि होने अथवा न होने के अनेकान्त का प्रतिपादन हरिवंशपुराणकार ने ही सर्वार्थसिद्धि के आधार पर किया है, किसी अन्य के द्वारा छेड़छाड़ करके आरोपित नहीं किया गया। डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "प्रस्तुत प्रसंग में (अर्थात् “निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा"-ह.पु./६४/९४, इस प्रसंग में) भी पं० पन्नालाल जी ने प्रत्युत्पन्ननय और भूतार्थनय के आधार पर व्याख्या करने का प्रयत्न किया है, किन्तु जिस प्रकार इसके पूर्व के पद्यों में इन नयों का स्पष्ट शब्दों में अध्याहार किया गया है, वैसा इस पद्य में नहीं है। यदि लेखक को इन नयों के आधार पर विवेचन करना होता, तो वह स्वयं उसका मूल पद्य में उल्लेख करता।" (जै.ध.या.स/पृ. १७५)। डॉक्टर सा० का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। किसी पद्य या सूत्र में शब्दविशेष का उल्लेख न किये जाने पर भी तात्पर्योपपत्ति के लिए उसे उसी प्रकरण या अधिकार के पूर्वपद्य या सूत्र से ग्रहण कर लेना अध्याहार कहलाता है। इस नियम के अनुसार “निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा" इस पद्यभाग में प्रत्युत्पन्न और भतग्राही नय पर्व पद्यों से अध्याहरणीय हैं. क्योंकि उनके अध्याहार के बिना तात्पर्य की उपपत्ति नहीं होती। इसका कारण यह है कि इसी पद्यभाग के पूर्वार्ध में यह कहा जा चुका है कि द्रव्यवेद या द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुंल्लिंग से ही सिद्धि (मुक्ति) होती है, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग से नहीं-"न द्रव्याद् द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता।" इससे स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध हो जाता है। तथा "लोचास्नानैकभक्तं च स्थितिभुक्तिरचेलता" (ह.पु.२/१२८) इस पद्यभाग में अचेलत्व को मुनि का मूलगुण बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त "नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः" (ह.पु./ ३/८४) इस उक्ति में छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के निर्ग्रन्थों में वेशभेद का अभाव प्ररूपित किया गया है अर्थात् सभी मुनि समान रूप से निर्ग्रन्थवेशधारी कहे गये हैं। इन वचनों से सग्रन्थमुक्ति का निषेध हो जाता है। अतः 'सग्रन्थलिंग से मुक्ति होती भी है और नहीं भी' इस कथन के औचित्य की सिद्धि या तात्पर्य की उपपत्ति प्रत्युत्पन्न और भूतग्राही नयों के अध्याहार से ही संभव है, अन्यथा नहीं। अतः पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने जो व्याख्या की है, वह सर्वार्थसिद्धिकार और उनके अनुगामी हरिवंशपुराणकार के अभिप्राय के अनुरूप ही की है। अतः पण्डित जी आक्षेप के पात्र नहीं हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र०२ ___ तथा भूतपूर्वनय, भूतग्राहीनय, भूतप्रज्ञापननय और भूतार्थग्राहीनय, ये सब पर्यायवाची हैं, यह सर्वार्थसिद्धि के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। भूतार्थग्राहिनय और भूतार्थनय में जमीन-आसमान का अंतर है। भूतार्थनय का अर्थ कुन्दकुन्द के अनुसार निश्चयनय ही है, किन्तु भूतार्थग्राहीनय का अर्थ निश्चयनय नहीं है, अपितु 'भूतकालीन अर्थ (विषय या पर्याय) को ग्रहण करनेवाला' ही है, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है। पंडित पन्नालाल जी ने अनुवाद में 'भूतार्थग्राहिनय' शब्द का ही प्रयोग किया है, 'भूतार्थनय' शब्द का नहीं। अतः 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक को अपनी ही भूल सुधारने की आवश्यकता है। ___ हरिवंशपुराण से स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले जो बहुसंख्यक प्रमाण पूर्व में उद्धृत किये गये हैं, उनमें से प्रत्येक के द्वारा सग्रन्थमुक्ति का निषेध होता है। अतः ग्रन्थ में न केवल सग्रन्थमुक्ति के प्रतिपादन का अभाव है, अपितु उसका बहुशः निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षधर पूर्वोक्त विद्वान् और विदुषी ने हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जिस हेतु का प्रयोग किया है, वह असत्य है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराणकार ने ग्रन्थ के आरंभ में समन्तभद्र, देवनन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों के साथ सिद्धसेन आदि श्वेताम्बर तथा इन्द्र (नन्दी), वज्रसूरि, रविषेण, वराङ्ग आदि यापनीय आचार्यों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन उदार यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे। (जै.ध.या. स./पृ. १७४)। दिगम्बरपक्ष इनमें से न तो सिद्धसेन श्वेताम्बर थे, न ही वराङ्गचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी तथा इन्द्र, वज्रसूरि, रविषेण आदि यापनीय थे। ये सभी दिगम्बर थे। यह इसी ग्रन्थ में सिद्ध किया गया है। अतः हरिवंशपुराणकार को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण में आर्यिकाओं का स्पष्टरूप से उल्लेख मिलता है। आर्यिकासंघ की व्यवस्था यापनीय है। जो परम्परा स्त्री में महाव्रत के आरोपण को ही असंभव Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२१/ प्र०२ हरिवंशपुराण / ७०९ मानती हो, उसमें आर्यिकासंघ की व्यवस्था सम्भव ही नहीं है। (जै.ध.या. स./ पृ.१७६)। दिगम्बरपक्ष निश्चयमहाव्रतों के आरोपण को असंभव मानते हुए भी दिगम्बरपरम्परा में आर्यिकासंघ की व्यवस्था है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आर्यिका के लिंग का वर्णन सुत्तपाहुड की इस गाथा में किया है लिंगं इच्छीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि। __ अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ॥ २२॥ __अनुवाद-"तीसरा लिंग स्त्रियों का है। इस लिंग को धारण करनेवाली स्त्री दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका कहलाती है और एक वस्त्रधारण करती है तथा वस्त्रधारण किये हुए ही भोजन करती है।" दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार में आर्यिकासंघ की आचारसंहिता का विस्तार से वर्णन किया गया है। हरिवंशपुराण दिगम्बरग्रन्थ है, इसलिए उसमें आर्यिका को दिगम्बरपरम्परानुसार ही एकाम्बरसंवीता (एकवस्त्रधारण करनेवाली) कहा गया है।५ श्वेताम्बरपरम्परा में तो भिक्खुणी अनेकाम्बरसंवीता होती है, जिसका अनुकरण यापनीयपरम्परा में हुआ था। ___ इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा में आर्यिकापरम्परा का सद्भाव है, अतः हरिवंशपुराणकार को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया उक्त हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष ___ हरिवंशपुराण में श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के भेदों का उल्लेख है। श्वेताम्बरों के अतिरिक्त यापनीय ही इन ग्रन्थों को प्रमाण मानते थे। अतः हरिवशंपुराणकार यापनीय सिद्ध होते हैं। (जै.ध. या.स./पृ. १७३-१७४)। दिगम्बरपक्ष श्रुत के ये भेद दिगम्बरपरम्परा में भी प्रमाण माने गये हैं, केवल अंगबाह्य श्रुत के जो भेद हैं, उनके नामों में कुछ भिन्नता है। इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका २५. सुता चेटकराजस्य कुमारी चन्दना तदा। धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणां पुरःसरी॥ २/७० ॥ हरिवंशपुराण। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१/प्र०२ है। हरिवंशपुराण में उनके नामों का उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार न होकर दिगम्बरपरम्परा के तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवलाटीका आदि के अनुसार हुआ है। इससे सिद्ध है कि हरिवंशपुराण दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। अतः हरिवंशपुराण के कर्ता को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण के ६०वें सर्ग में कृष्ण की आठों पटरानियों-सहित अनेक स्त्रियों के दीक्षित होने का उल्लेख है, जो उसके यापनीय-ग्रन्थ होने की संभावना को पुष्ट करता है। (जै.ध.या.स./पृ. १७६)। दिगम्बरपक्ष दिगम्बरसम्प्रदाय में भगवान् ऋषभदेव के समय से ही स्त्रियों के आर्यिकादीक्षा ग्रहण करने की परम्परा चली आ रही है। उनके समवसरण में तीन लाख पचास हजार आर्यिकाएँ थीं। शेष २३ तीर्थंकरों के समवसरणों में भी हजारों-लाखों आर्यिकाएँ थीं। (ह.पु./६०/४३२-४४०)। आचार्य कुन्दकुन्द ने आर्यिकाओं के एकवस्त्रात्मक लिंग का वर्णन किया है। अतः हरिवंशपुराण में कृष्ण की पटरानियों के दीक्षित होने का उल्लेख उसके दिगम्बरग्रन्थ होने की ही पुष्टि करता है। तथा आठों पटरानियों (महादेवीभिरिष्टाभिरष्टभिः/हरि.पु./४४/५०) में से किसी की भी स्त्रीपर्याय से मुक्ति नहीं बतलायी गयी। उनके बारे में भविष्यवाणी की गई हैं कि वे इस जन्म में दीक्षा लेकर तप करेंगी, अगले भव में देव होंगी, तत्पश्चात् मनुष्यभव में पुरुष होकर मोक्ष प्राप्त करेंगी। उदाहरणार्थ, हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोकों में कृष्ण की तीसरी पटरानी जाम्बवती के बारे में भगवान् नेमिनाथ कहते हैं कि "तुम इस जन्म में तपस्विनी होकर तप करोगी। पश्चात् स्वर्ग में उत्तम देव होकर वहाँ से च्युत हो राजपुत्र होगी। तदनन्तर तप के द्वारा तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा" नगरे जाम्बवाभिख्ये जाम्बवस्य खगेशिनः। जाम्बवत्यां प्रियायां त्वं जाता जाम्बवती सुता॥ ६०/५३॥ तपस्तपस्विनी कृत्वा भूत्वा कल्पामरोत्तमः। च्युत्वा नृपात्मजो भूत्वा तपसा सिद्धिमेष्यति॥ ६०/५४॥ हरिवंशपुराण में यह स्त्रीपर्याय से मुक्ति के निषेध का वर्णन ग्रन्थ को यापनीयमत के प्रतिपक्षी दिगम्बरसम्प्रदाय से सम्बद्ध सिद्ध करता है। इस प्रकार कृष्ण की आठों पटरानियों और अन्य स्त्रियों की दीक्षा का वर्णन केवल दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल है, यापनीयपरम्परा के सर्वथा विरुद्ध है। अतः यहाँ प्रयुक्त किया गया हेतु भी असत्य है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र० २ ८ यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण के उल्लेखानुसार नन्दिषेण मुनि रुग्णमुनि का वेश धारण करके आये हुए देवों को उनका मनोवांछित भोजन लाकर देते हैं। यह आचरण दिगम्बर मुनि के अनुकूल न होकर श्वेताम्बर मुनि के अनुकूल है । अतः श्वेताम्बरपरम्परा को मानना हरिवंशपुराणकार के यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। (या. औ. उ. सा. / पृ. १५०)। दिगम्बरपक्ष हरिवंशपुराण / ७११ हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध, सवस्त्रमुक्तिनिषेध, गृहस्थमुक्तिनिषेध, परतीर्थिकमुक्ति-निषेध और केवलिभुक्तिनिषेध जैसे यापनीयमत- विरोधी प्रबल प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है । उसमें एक मुनि के द्वारा रुग्णमुनि के लिए आहार लाकर देने का वर्णन है। इससे सिद्ध है कि किसी मुनि के द्वारा रुग्ण मुनि के लिए आहार लाकर देने का आचरण श्वेताम्बर या यापनीय मत का असाधारण धर्म नहीं है। अतः किसी ग्रन्थ में उसका वर्णन ग्रन्थ के यापनीय होने का हेतु नहीं हो सकता । फलस्वरूप हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु हेत्वाभास है। दिगम्बरग्रन्थ भगवती - आराधना में भी क्षपक के लिए चार मुनियों के द्वारा आहार व्यवस्था कराये जाने का नियम उपदिष्ट किया गया है, जो परिस्थितिविशेष में दिगम्बरसिद्धान्त के प्रतिकूल नहीं है। इसका विवेचन भगवती आराधना नामक त्रयोदश अध्याय में किया जा चुका है। तथा नन्दिषेण मुनि ऋद्धिधारी थे, अतः उनके लिए पात्र ग्रहण किये बिना इच्छित व्यंजन, रुग्ण मुनि के हाथों में उपस्थित कर देना असंभव भी नहीं था । २६ ९ यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण (४२ / १२-१३, २२) में नारद को दो स्थानों पर चरमशरीरी कहा गया है, जब कि तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसार नारद को नरकगामी मानते हैं। नारद को चरमशरीरी अथवा स्वर्गगामी मानना श्वेताम्बर - आगमिक - परम्परा है। चूँकि यापनीय श्वेताम्बर - आगमों को स्वीकार करते थे, अतः हरिवंशपुराण यापनीयग्रन्थ सिद्ध होता है। (या.औ.उ.सा./पृ.१५०) । २६. ननन्द नन्दिषेणाख्यस्तपसोत्पन्नलब्धिभिः । एकादशाङ्गभृत्साधुः सोढाशेषपरीषहः॥ १८ / १३५ ॥ हरिवंशपुराण । महालब्धिमतस्तस्य वैयावृत्योपयोगि यत् । वस्तु तच्चिन्तितं हस्ते भेषजाद्याशु जायते ॥ १८ / १३८ ॥ हरिवंशपुराण । For Personal & Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१/प्र०२ दिगम्बरपक्ष हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि यापनीयमत-विरोधी प्रबल प्रमाणों की उपलब्धि से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। एकमात्र नारद के चरमशरीरी होने का कथन उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि के निषेध उसके यापनीयग्रन्थ होने का निषेध करते हैं। अतः नारद के चरमशरीरी होने का कथन यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं है। इसलिए उसमें हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का हेतुत्व नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है। यह सत्य है कि अन्य दिगम्बरपुराणों में नारद को नरकगामी माना गया है। किन्तु दिगम्बराचार्यों में भी कई जगह मतभेद देखे जाते हैं। जैसे किसी दिगम्बरपुराण में दुर्योधन को मोक्षगामी माना गया है, किसी में नरकगामी। इसी प्रकार हरिवंशपुराण में यदि नारद को मोक्षगामी कहा गया है, तो इससे ग्रन्थ का दिगम्बरत्व बाधित नहीं होता, क्योंकि उसमें स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि दिगम्बरत्व के साधक मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण के अनुसार "ब्रह्मस्वर्ग से बलदेव का जीव श्रीकृष्ण के जीव को नरक से लेने जाता है। उस समय श्रीकृष्ण का जीव भरतक्षेत्र में बलदेव और श्रीकृष्ण की मूर्तिपूजा का प्रचार करने के लिए कहता है। और बलदेव का जीव वही करता है। श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों सम्यग्दृष्टि जीव थे, उनके द्वारा मिथ्यात्व का प्रचार विचारणीय है।"२७ (या.औ.उ.सा./१५०)। दिगम्बरपक्ष ऐसा लगता है कि 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ की लेखिका की दृष्टि से इस प्रकार के मिथ्यात्व का प्रचार यापनीयमत का विशिष्ट सिद्धान्त है, इसीलिए उन्होंने इस हेतु के द्वारा हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु यापनीयमत का यह विशिष्ट सिद्धान्त उन्हें किस यापनीयग्रन्थ में देखने को मिला, इस पर उन्होंने प्रकाश नहीं डाला। भले ही ग्रन्थलेखिका के अनुसार उक्त मिथ्यात्व के प्रचार की प्रेरणा यापनीयमत के अनुकूल हो, तथापि उसके उल्लेख से हरिवंशपुराण यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, २७. देखिए , पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की हरिवंशपुराण-प्रस्तावना / पृ. १७-१८ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २१ / प्र०२ हरिवंशपुराण / ७१३ क्योंकि उसमें यापनीयों की वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि समस्त मौलिक मान्यताओं का निषेध है। तथा उक्त मिथ्यात्व के प्रचार की प्रेरणा निश्चितरूप से दिगम्बरमत के प्रतिकूल है, तथापि उसके उल्लेख से हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने का खण्डन नहीं होता, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का निषेध है, जिसकी उपपत्ति हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने पर ही होती है, अन्यथा नहीं। इस स्थिति में उक्त मिथ्यात्व के प्रचार का उल्लेख हरिवंशपुराण को न तो यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ है, न उसके दिगम्बरग्रन्थ होने को असिद्ध करने में। उक्त उल्लेख की उपपत्ति एक ही मान्यता से हो सकती है, वह यह कि हरिवंशपुराण के कर्ता दिगम्बर जिनसेन ने तत्कालीन परिस्थितियों-वश जैनेतर मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है, जैसे यक्ष-यक्षी की पूजा, पंचामृत-अभिषेक आदि को। इस प्रकार यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म न होने से मिथ्यात्वप्रचार की प्रेरणा का उल्लेखरूप हेतु हरिवंशपुराणकार के यापनीय होने का साधक नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है। उपर्युक्त प्रमाणों के द्वारा यापनीयग्रन्थ-पोषक हेतुओं के असत्य या हेत्वाभास सिद्ध हो जाने से तथा दिगम्बर ग्रन्थ-साधक हेतुओं के उपलब्ध होने से यह असंदिग्धरूपेण सिद्ध हो जाता है कि हरिवंशपुराण दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंश अध्याय स्वयम्भूकृत पउमचरिउ प्रथम प्रकरण पउमचरिउ के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण पं. नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है - "स्वयंभुदेव ( वि० सं० ७३४ से ८४० के बीच) ने अपने वंश, गोत्र आदि का कोई उल्लेख नहीं किया । इसी तरह अन्य जैन ग्रन्थकर्त्ताओं के समान अपने गुरु या सम्प्रदाय की कोई चर्चा नहीं की। परन्तु पुष्पदन्त के महापुराण के 'स्वयंभू' शब्द के टिप्पण में उन्हें आपुलीसंघीय बतलाया है । ('सयंभुः पद्धडीबद्धकर्त्ता आपुलीसंघीय : ' - म. पु. / पृ. ९ ) । इसलिए वे यापनीयसम्प्रदाय के अनुयायी जान पड़ते हैं। पर उन्होंने पउमचरिउ के प्रारम्भ में लिखा है कि यह रामकथा वर्द्धमान भगवान् के मुखकुहर से विनिर्गत होकर इन्द्रभूति गणधर और सुधर्मा स्वामी आदि के द्वारा चली आई है और रविषेणाचार्य के प्रसाद से मुझे प्राप्त हुई है।" (जै. सा. इ./द्वि.सं./पृ. १९७-१९८)। यहाँ पर शब्द का प्रयोग कर प्रेमी जी ने उक्त टिप्पण से असहमति व्यक्त की है और कथावतार की दिगम्बरपद्धति का उल्लेख कर 'पउमचरिउ' के दिगम्बरग्रन्थ होने का संकेत दिया है। श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया लिखती हैं – " स्वयंभू के सम्प्रदाय के विषय में डॉ० संकटाप्रसाद उपाध्याय का कथन है कि अधिक निश्चित जानकारी के अभाव में चाहे स्वयंभू के यापनीय - संघीय होने के विषय में कोई अन्तिम निर्णय न हो सके, पर अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर उन्हें दिगम्बरसम्प्रदाय का मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।' "१ किन्तु उक्त विदुषी ने 'पउमचरिउ' ग्रन्थ के सम्पादक डॉ. एच. सी. भायाणी के मत का उल्लेख करते हुए लिखा है- " श्री एच० सी० भायाणी भी यही लिखते हैं कि यद्यपि इस सन्दर्भ में हमें स्वयंभू की ओर से कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष वक्तव्य १. संकटाप्रसाद उपाध्यायकृत 'महाकवि स्वयंभू' पृ. २०१ / भारत प्रकाशन मन्दिर / अलीगढ़ १९६९ ई. ( यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १५४) । For Personal & Private Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ __ अ० २२ / प्र०१ नहीं मिलता है, परन्तु यापनीय सग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति स्वीकार करते थे और स्वयंभू अधिक उदारचेता थे, अतः इन्हें यापनीय माना जा सकता है।"२ ___ और श्रीमती पटोरिया ने आपुलीसंघीय-वाले टिप्पण तथा डॉ० भायाणी के मत का अनुसरण करते हुए पउमचरिउ को यापनीयकृति घोषित किया है तथा अपने मत के समर्थन में कई हेतु प्रस्तुत किये हैं। उन्हीं को अपने ग्रन्थ में उद्धृत करते हुए डॉ. सागरमल जी ने भी उसे यापनीयपरम्परा का ही ग्रन्थ बतलाया है। श्रीमती पटोरिया ने पउमचरिउ को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए उसमें यापनीयमत के किसी भी मौलिक सिद्धान्त का उल्लेख होना नहीं बतलाया, केवल ऐसी बातों का उल्लेख होना बतलाया है, जो दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं, और उन्हें ही यापनीयसिद्धान्त मान लिया है, जबकि उनके यापनीयसिद्धान्त होने का कोई प्रमाण नहीं है। यहाँ मैं पउमचरिउ में उपलब्ध उन विशेषताओं का वर्णन कर रहा हूँ, जो केवल दिगम्बरग्रन्थों में मिलती हैं, श्वेताम्बरीय या यापनीय गन्थों में नहीं। उनसे सिद्ध हो जाता है कि पउमचरिउ दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का नहीं। कथावतार की दिगम्बरीय पद्धति पूर्व में रविषेणकृत पद्मपुराण नामक उन्नीसवें अध्याय में बतलाया गया है कि दिगम्बरीय पुराणों में राजा श्रेणिक के प्रश्न करने पर गौतम गणधर कथा का वर्णन करते हैं, जब कि श्वेताम्बरीय पुराणों में जम्बूस्वामी को सम्बोधित करते हुए सुधर्मा स्वामी के द्वारा कथा सुनाई जाती है। इस विशेषता को सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वान् स्वीकार करते हैं। स्वयम्भूकृत पउमचरिउ (१/१/९/१-९) में दिगम्बर-पद्धति से ही कथावतार होता है। यह उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का प्रमाण है। सोलह स्वप्नों का वर्णन जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के लेखक लिखते हैं-“पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में मरुदेवी और पद्मावती, इन तीर्थंकर-माताओं के द्वारा १४ स्वप्न देखने का उल्लेख है। यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है। इस प्रकार इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर-परम्परा से सम्बद्ध होने के सन्दर्भ में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है।" (पृष्ठ २१५)। २. डॉ. एच. सी. भायाणी-कृत 'पउमचरिउ' की भूमिका/पृ.१३,५ (या.औ.उ.सा./पृ. १५४)। For Personal & Private Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२२/प्र०१ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७१९ इन वचनों से लेखक महोदय स्वयं सिद्ध कर देते हैं कि स्वयंभूकृत पउमचरिउ दिगम्बरग्रन्थ है, क्योंकि उसमें मरुदेवी के द्वारा निम्नलिखित सोलह स्वप्न देखे जाने का वर्णन है-१. मद से गीले गण्डस्थलवाला मत्त गज, २. कमलसमूह को उखाड़ता हुआ वृषभ, ३. विशाल नेत्रोंवाला सिंह, ४. नवकमलों पर आरूढ़ लक्ष्मी, ५. उत्कट गन्धवाली पुष्पमाला, ६. मनोहर पूर्णचन्द्र, ७. प्रचण्ड किरणोंवाला सूर्य, ८. परिभ्रमण करता हुआ मीनयुगल, ९.जल से भरा हुआ मंगल-कलश, १०.कमलों से आच्छन्न सरोवर, ११. गर्जना करता हुआ समुद्र, १२. शोभायमान सिंहासन, १३. घण्टियों से मुखरित विमान, १४. अत्यन्त धवल नागालय, १५. चमकता हुआ मणिसमूह, १६. प्रज्वलित अग्नि। (प.च./१/१/१५/१-८ पृ.२२)। लेखक महोदय ने लिखा है कि "यापनीयपरम्परा भी सोलह स्वप्न मानती है।" किन्तु ऐसा कोई यापनीयग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिसमें सोलह स्वप्नों का वर्णन हो। उन्होंने दिगम्बरग्रन्थों को ही यापनीयग्रन्थ मानकर ऐसी धारणा बना ली है। सत्य इसके विपरीत है। यापनीयसंघ श्वेताम्बर-आगमों को ही प्रमाण मानता था, अतः उसके द्वारा चौदह स्वप्नों का माना जाना ही युक्तिसंगत सिद्ध होता है। इसलिए सोलह स्वप्नों की मान्यता एकमात्र दिगम्बरीय मान्यता है। फलस्वरूप पउमचरिउ में सोलह स्वप्नों का उल्लेख उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का प्रबल साक्ष्य है। सोलह कल्पों की मान्यता उक्त ग्रन्थलेखक महोदय का कथन है कि "पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में १२ देवलोकों का उल्लेख है, जो कि श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यतानुरूप है, जब कि यापनीय रविषेण और दिगम्बरपरम्परा के अन्य आचार्य देवलोकों की संख्या १६ मानते हैं। अतः इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण माना जा सकता है।" (जै.ध.या.स./पृ.२१६-२१७)। इस हेतु के द्वारा भी लेखक महोदय ने स्वयंभूकृत पउमचरिउ को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध किया है, क्योंकि उसमें भी सोलह कल्प ही माने गये हैं। सीता सोलहवें (अच्युत) स्वर्ग में इन्द्र हो गयी थीं। वह इन्द्र वहाँ से नरक में आकर लक्ष्मण और रावण को सम्बोधित करता है और दया से अभिभूत होकर उनसे कहता है-"चलो, मैं तुम दोनों को शीघ्र ही अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में ले चलता हूँ" विण्णि वि जण सहसा सोलहमउ। सग्गु पराणमि अच्चुअ-णामउ॥ ५/८९/११/४॥ For Personal & Private Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२२ / प्र०१ उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने यापनीयपरम्परा में भी सोलह (कल्पों) की मान्यता सिद्ध करने के लिए पद्मपुराण के कर्ता रविषेण को यापनीय कहा है। किन्तु पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर थे। अतः यापनीयपरम्परा में सोलह कल्पों की मान्यता अप्रामाणिक है। यह एकमात्र दिगम्बरमान्यता है। अतः सोलह कल्पों के उल्लेख से स्वयम्भूकृत पउमचरिउ दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध होता है। स्त्रीमुक्तिनिषेध उक्त ग्रन्थलेखक लिखते हैं-"पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में उसके श्वेताम्बर होने के सन्दर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध है, वह यह कि उसमें कैकयी को मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है-'सिद्धिपयं उत्तमं पत्ता' (पउमचरियं ८३/१२)। इस प्रकार पउमचरियं स्त्रीमुक्ति का समर्थक माना जा सकता है। यह तथ्य 'दिगम्बरपरम्परा के विरोध में जाता है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यापनीय भी स्त्रीमुक्ति तो स्वीकार करते थे, अतः इस दृष्टि से यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं से सम्बद्ध माना जा सकता है।" (जै.ध.या.स./२१७)। मान्य ग्रन्थलेखक ने इस महत्त्वपूर्ण हेतु से स्वयम्भूकृत पउमचरिउ को असन्दिग्धरूप से दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध कर दिया है, क्योंकि जिस कैकयी को विमलसूरि ने पउमचरियं में मोक्ष की प्राप्ति बताई है, उसे स्वयम्भू ने मोक्ष की प्राप्ति न बता कर मात्र देवत्व का प्राप्त होना बतलाया है। केवलज्ञानी राम से जब सीता का जीव अच्युतेन्द्र पूछता है कि दशरथ की अपराजिता, कैकयी और सुप्रभा रानियों को कौनसी गति प्राप्त हुई, तब वे कहते हैं अवराइय - केक्कय - सुप्पहउ। कइकइ-सहियउ परिसह-सहउ॥ अण्णउ वि घोर-तव - तत्तियउ। सव्वउ देवत्तणु पत्तियउ॥ ५/९० /१/७-८॥ अनुवाद-"अपराजिता, कैकयी, सुप्रभा आदि, जिन्होंने कैकयी के साथ परीषह सहन किये, तथा अन्य लोग, जिन्होंने घोर तप तपा, उन सबने देवत्व प्राप्त किया है। इतना ही नहीं, केवली भगवान् राम सीता के जीव अच्युतेन्द्र को यह भी बतलाते हैं कि उसे भी मनुष्यभव में पुरुषपर्याय से ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। वह पहले चक्रवर्ती बनेगा, पश्चात् वैजयन्त स्वर्ग का देव और तदनन्तर रावण के जीव के तीर्थंकर Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२२/ प्र०१ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२१ होने पर उसका गणधर बनेगा। तत्पश्चात् उसकी (सीता के जीव अच्युतेन्द्र की) मुक्ति होगी अहमिन्द-महासुहु अणुहवें वि। वर-वइजयन्त-सग्गहाँ चवें वि॥ पुणु गणहरु होसहि तासु तुहुँ। तहिं कालें लहेसहि मोक्ख-सुहु॥ ९०/१०/१-२॥ इन प्रमाणों से सिद्ध है कि स्वयम्भू स्त्रीमुक्तिविरोधी दिगम्बरसम्प्रदाय के थे। पउमचरिउ में स्त्रीमुक्तिनिषेध का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह भी है कि सीता की अग्निपरीक्षा के बाद जब राम उनसे घर चलने का आग्रह करते हैं, तब वे विनम्रतापूर्वक इनकार कर देती हैं और कहती हैं कि अब मैं ऐसा काम करना चाहती हूँ, जिससे मुझे दुबारा स्त्री न बनना पड़े, मैं जन्म, जरा और मरण का अन्त करूँगी। __ यहाँ विचारणीय है कि सीता का इतना ही कहना पर्याप्त था कि "मैं जन्म, जरा और मरण का अन्त करूँगी।" इससे ही स्त्री-पुरुष आदि सभी पर्यायों से सदा के लिए छुटकारा मिल जाता है। तब उन्होंने अलग से स्त्रीपर्याय से छुटकारा पाने का पौरुष करने की बात क्यों कहीं? इससे ध्वनित होता है कि वे जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए स्त्रीपर्याय से छुटकारा पाना अनिवार्य मानती हैं। अतः उनके द्वारा उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग सिद्ध करता है कि स्वयंभू स्त्रीपर्याय से मुक्ति असम्भव मानते हैं, जो उनके दिगम्बर होने का सूचक है। परतीर्थिकमुक्ति-निषेध डॉ० एच० सी० भायाणी तथा उनके आधार पर श्रीमती पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी का कथन है कि स्वयंभूकृत पउमचरिउ में परशासन से भी मुक्ति मानी गई है, क्योंकि उसमें अन्य देवताओं के प्रति भी समान भक्तिभाव दर्शाया गया है। अतः स्वयंभू यापनीय थे। (जै.ध. या. स./ पृ.१८४)। इसके उदाहरण में उन्होंने पउमचरिउ का निम्न पद्य उद्धृत किया है अरहन्तु बुद्ध तुहुँ हरि हरु वि तुहुँ अण्णाण-तमोह-रिउ। तुहुँ सुहुमु णिरजणु परमपउ तुहुँ रवि वम्भु सयम्भु सिउ॥ ३/४३ /१९/९॥ ३. एवहिँ तिह करेमि पुणु रहुवइ। जिह ण होमि पडिवारी तियमइ॥ ८३/१७/९॥ पउमचरिउ। ४. महु विषय-सुहें हिँ पजत्तउ। छिन्दमि जाइ-जरा-मरणु ॥ ८३/१७/१०॥ पउमचरिउ। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२२/प्र०१ __अनुवाद-"अरहन्त, बुद्ध तुम्ही हो। हरि, हर और अज्ञानरूपी तिमिर के शत्रु तुम्हीं हो। तुम सूक्ष्म, निरंजन और परमपद हो। तुम सूर्य, ब्रह्मा, स्वयम्भू और शिव हो।" आश्चर्य है कि इस पद्य को इन विद्वानों ने परदेवताओं के प्रति समान भक्ति एवं परशासन से मुक्ति का प्रतिपादक कैसे मान लिया! इस पद्य में तो एकमात्र चन्द्रप्रभ जिन को अनेक नामों से सम्बोधित कर उनकी स्तुति की गई है, एक मात्र चन्द्रप्रभ को ही बुद्ध आदि नामों से अभिहित किया गया है। ऐसा कर केवल चन्द्रप्रभ जिन के प्रति अनन्य भक्ति प्रकट की गयी है। __पउमचरिउ में एक अन्य स्थल पर भगवान् ऋषभनाथ को भी इन्हीं विभिन्न नामों से सम्बोधित कर उनके प्रति अनन्य भक्तिभाव प्रकट किया गया है। इन्द्र अपने लोकपाल आदि देवताओं से कहता है-"जिन के नाम शिव, शंभु, जिनेश्वर, देवदेव, महेश्वर, जिन, जिनेन्द्र, कालंजय, शंकर, स्थाणु , हिरण्यगर्भ, तीर्थंकर---हैं, इन नामों से जो भुवनतल में देवताओं, नागों और मनुष्यों के द्वारा संस्तुत्य हैं, तुम उन परम आदरणीय ऋषभनाथ के चरणयुगल की भक्ति में अपने को डुबा दो।" (५/८७/ ३/१-८)। ध्यान देने योग्य है कि यहाँ अनेक नामों से केवल ऋषभनाथ को ही संस्तुत्य बतलाया गया है और केवल उन्हीं की भक्ति में डूबने की प्रेरणा दी गई है। इन्द्र यह भी कहता है, "जिनके प्रसाद से यह इन्द्रत्व मिलता है, देवत्व और सिद्धत्व मिलता है, जिन्होंने एक अकेले ज्ञान-समुज्ज्वल चक्र से संसार रूपी घोर शत्रु का हनन कर दिया है, जिन्होंने भवसागर के घोर दुःखों का निवारण किया है, जो भव्य जीवों को खेल-खेल में तार देते हैं, सुमेरुपर्वत के शिखर पर देवेन्द्र जिनका मंगल अभिषेक करते हैं, उनको सदा आदरपूर्वक प्रणाम करना चाहिए, यदि हम संसार और मृत्यु का विनाश करना चाहते हैं।" (५/८७/२/७-१०)। इस कथन में केवल भगवान् ऋषभनाथ को ही जन्म-मृत्यु का विनाशक बतलाया गया है। यह ध्यान देने योग्य है कि पउमचरिउ में सर्वत्र जैन तीर्थंकरों को ही गुणपरक निरुक्तियों के आधार पर जैनेतर देवताओं जैसे नाम से सम्बोधित कर उनकी भक्ति आदि करने के लिए कहा गया है और उन्हें ही जन्ममृत्यु का विनाशक बतलाया गया है। जैनेतर देवताओं को तीर्थंकरों के नाम से अभिहित कर उनकी भक्ति आदि करने को नहीं कहा गया, न ही उन्हें जन्म-मरण का नाशक बतलाया गया है। इससे सिद्ध है कि स्वयम्भू कवि परशासन से मुक्ति के समर्थक नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२२/प्र०१ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२३ __पउमचरिउ में कहा गया है कि महामुनि के उपदेश से धनदत्त ने मिथ्यात्व छोड़कर अणुव्रत ग्रहण कर लिये तथा पद्मरुचि और वृषभध्वज के विषय में कहा गया है कि वे दोनों सम्यग्दर्शन से युक्त थे और श्रावकव्रतों को धारण किये हुए थे। इसी प्रकार जब जिनधर्मानुयायी श्रीभूति से जिनवचनों से विमुख राजा स्वयंभू उसकी वेदवती नामक कन्या को माँगता है, तब श्रीभूति कहता है कि मैं अपनी सोने जैसी बेटी मिथ्यादृष्टि को कैसे दे दूँ?" इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पउमचरिउ के कर्ता स्वयम्भू जिनशासन को न माननेवाले को मिथ्यादृष्टि मानते हैं। और मिथ्यादृष्टि मोक्ष का अधिकारी नहीं है, इससे सिद्ध है कि वे परशासन से मुक्ति के समर्थक नहीं हैं। एक अन्य स्थल पर लक्ष्मण के पुत्र अपने पिता से कहते हैं-“हे तात! सुनिये, --- यह संसाररूपी समुद्र आठकर्मरूपी जलचरों से भयंकर है। इसमें दुर्गतियों का सीमाहीन खारा जल भरा हुआ है।---यह मिथ्यावादों के भयंकर तूफान से आन्दोलित है। खोटे शास्त्ररूपी द्वीपों के समूह इसमें विद्यमान हैं। ऐसे अनन्त संसार-समुद्र में हमने मनुष्यजन्म बड़ी कठिनाई से पाया है। अब इस मनुष्यशरीर से हम जिनदीक्षारूपी नाव द्वारा उस अजर-अमर देश को जायेंगे, जहाँ पर यम की छाया नहीं पड़ती।"११ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि लक्ष्मणपुत्र केवल जिनदीक्षा को ही मोक्ष की नौका कहते हैं, शेष मतों को मिथ्यावाद और खोटे शास्त्रों का प्ररूपक बतलाते हैं। इससे भी सिद्ध होता है कि कवि स्वयंभू परशासन से मुक्ति स्वीकार नहीं करते। स्वयंभू ने जिनवचनों के श्रवण में रुचि न रखने वालों को अभव्य और मर्ख भी कहा है। इससे भी उपर्युक्त बात की पुष्टि होती है। अतः स्वयम्भू इस अपेक्षा से भी यापनीय सिद्ध नहीं होते । सचेलमुक्ति का प्रतिपादन नहीं __ श्रीमती पटोरिया एवं डॉ. सागरमल जी ने डॉ० एच० सी० भायाणी के इस कथन को उद्धृत किया है कि "यापनीय संग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति ५. रिसि-वयणे विमुक्क-मिच्छत्तें। लइयइँ अणुवयाइँ धणदत्तें ॥५/८४/८/१॥ पउमचरिउ। ६. विण्णि व जण सम्मत्त-णिउत्ता। सावय-वय-भर-धुर-संजुत्ता॥५/८४/१२/७॥ पउमचरिउ। ७.. सम्भु वि सिय-सयण-विमुक्कउ। जिणवर-वयण-परम्मुहउ॥५/८४/१७/९॥ पउमचरिउ। ८. सिरिभूइ पजम्पिउ कणय-वण्ण। किह मिच्छादिट्ठिहं देमि कण्ण ॥५/८४/१६/६॥ पउमचरिउ। ९. मिच्छत्त-गरुय वायन्त वाएँ। ५/८६/१०/६॥ पउमचरिउ। १०. अलियागम-सयल-कुदीव णियरें ॥ ५/८६/१०/८॥ पउमचरिउ। ११. जिण-पावज-तरण्डऍण, जाहुँ देसु जहिं जणु अजरामरु॥ ५/८६/१०/११॥ पउमचरिउ। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २२ / प्र०१ स्वीकार करते थे और स्वयंभू अपेक्षाकृत अधिक उदारचेता थे, अतः इन्हें यापनीय माना जा सकता है।" (या.औ.उ.सा./पृ. १५४, जै. ध.या.स./पृ. १८१)। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि डॉ० भायाणी ने यापनीयों को सग्रन्थ अवस्था और परशासन से मुक्ति स्वीकार करने वाला कहा है, स्वयंभू को नहीं। स्वयंभू को केवल अपेक्षाकृत अधिक उदारचेता कहा है और केवल उदारचेता होने मात्र से यह कल्पना कर ली गई कि वे भी सग्रन्थ अवस्था और परशासन से मुक्ति स्वीकार करते थे, अतः यापनीयसम्प्रदाय के थे। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उक्त विद्वानों में से किसी ने भी पउमचरिउ से सग्रन्थमुक्ति के उल्लेख का एक भी उदाहरण नहीं दिया। केवल डॉ० भायाणी के 'उदारचेता' वचन से ही स्वयंभू को सग्रन्थमुक्ति का समर्थक मान लिया। उदाहरण देना संभव भी नहीं था, क्योंकि ग्रन्थ में सग्रन्थमुक्ति का उदाहरण है ही नहीं। पुरुषों के द्वारा सर्वत्र निर्ग्रन्थदीक्षा लिये जाने का ही वर्णन है और निर्ग्रन्थ का अर्थ वस्त्ररहित ही बतलाया गया है। चार ज्ञान के धारक एक महामुनि, तडित्केश के पूर्वभव का वर्णन करते हुए उससे कहते हैं कि जब तुम साधु थे, तब यह उदधिकुमार देव, जो पूर्वभव में धनुर्धारी था, तुम्हारे पास आया और तुम्हें निर्ग्रन्थ देखकर उसने तुम्हारा उपहास किया-"णिग्गन्थु णिऍवि उवहासु कउ।" (प.च/१/६/१५/४)। यहाँ उपहास किये जाने से स्पष्ट होता है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द नग्नता का सूचक है। तथा राम जब निर्ग्रन्थ-दीक्षा ले लेते हैं और तप कर रहे होते हैं, तब सीता का जीव अच्युतेन्द्र अच्युत स्वर्ग से आकर राम के मुनित्व की परीक्षा लेते हुए उनसे मुनित्व छोड़कर अपने साथ रमण करने की याचना करता है और जब राम ध्यान में अडिग रहते हैं तब कहता है णिच्चलु पाहाणु व किं अच्छहि। सवडम्मुहु स-विआरु णियच्छहि ॥ लइउ पिसाएं जेम अलज्जित।। कालु म खेवहि वत्थ-विवजउ॥ पउमचरिउ/५/८९/३/६-७। अनुवाद-"पत्थर की तरह अडिग क्यों खड़े हो ? प्रेमभरी दृष्टि से मेरी ओर देखो। लगता है तुम्हें भूत लग गया है, इसीलिए इतने निर्लज दिखाई दे रहे हो, वस्वविहीन होकर अपना समय व्यर्थ गवा रहे हो।" इन वचनों से और भी स्पष्ट हो जाता है कि पउमचरिउ में निर्ग्रन्थ शब्द वस्त्रविहीन (नग्न) साधु का वाचक है तथा राम आदि सभी पुरुषों ने दिगम्बरदीक्षा ग्रहण की Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २२ / प्र० १ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२५ थी । पउमचरिउ के ये उल्लेख सिद्ध करते हैं कि स्वयम्भू दिगम्बरलिंग से ही मुक्ति मानते हैं, सचेललिंग से नहीं । अतः वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं । ७ दिव्यध्वनि द्वारा चौदह गुणस्थानों का उपदेश पउमचरिउ में बतलाया गया है कि भगवान् ऋषभदेव ने चौदह गुणस्थानों पर आरूढ़ होते हुए मोक्ष प्राप्त किया था? तथा अपनी दिव्यध्वनि से भी गुणस्थानों का उपदेश दिया था । १३ यह कथन श्वेताम्बर और यापनीय मतों के विरुद्ध है, क्योंकि श्वेताम्बर - आगमों में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है । उत्तरवर्ती साहित्य में उल्लेख हुआ है, किन्तु उसे श्वेताम्बर विद्वानों ने प्रक्षिप्त माना है । यापनीय - सम्प्रदाय श्वेताम्बर - आगमों को ही प्रमाण मानता था, अतः उक्त सम्प्रदाय में भी गुणस्थान - अवधारणा का अभाव था। इसके अतिरिक्त गुणस्थान - सिद्धान्त इन सम्प्रदायों की सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है, इस कारण भी इन सम्प्रदायों में गुणस्थानसिद्धान्त का मूलतः अभाव है। अतः पउमचरिउ में भगवान् ऋषभदेव के गुणस्थानों पर आरूढ़ होने एवं दिव्यध्वनि द्वारा उनका उपदेश दिये जाने का कथन ग्रन्थ के यापनीयपरम्परा का न होकर दिगम्बर- परम्परा के होने का अन्यतम प्रमाण है। पउमचरिउ में भगवान् ऋषभदेव को राजा श्रेयांस द्वारा जिस विधि से आहार दिये जाने एवं पञ्चाश्चर्य होने का वर्णन है, वह दिगम्बरपरम्परा का अनुसरण करता है । १४ मुनि गुप्त और सुगुप्त के लिए राम एवं सीता द्वारा आहारदान किये जाने की विधि भी वैसी ही वर्णित की गयी है । १५ यह भी ग्रन्थ के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण है। पउमचरिउ में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से स्पष्ट है कि यह यापनीयग्रन्थ नहीं है, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। अतः इसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये गये हैं, वे या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं । विचार करने से वे सभी हेत्वाभास सिद्ध होते हैं। १२. चउदसविह- गुणथाणु चडन्तहों ॥ १ / ३ / २ / ८ ॥ पउमचरिउ | १३. तव - सीलोववास - गुणठाणइँ ॥ १ / ३ / ११ / ३ ॥ पउमचरिउ । १४. पउमचरिउ १ / २ / १६ / ११, १७ /१-१०। १५. पउमचरिउ २ / ३४ / १२ / १-११, १३/१-९ । ❖❖❖ For Personal & Private Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की हेत्वाभासता 'पद्म' नाम का प्रयोग यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं यापनीयपक्ष पउमचरिउ में राम के लिए पद्म नाम का प्रयोग किया गया है, जो दिगम्बरपरम्परानुसारी नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थ यापनीयपरम्परा का है। (या. औ.उ.सा./पृ.१५४-१५५)। दिगम्बरपक्ष १.रविषेणकृत पद्मपुराण और स्वयंभूकृत पउमचरिउ दोनों में स्त्रीमुक्ति-निषेध आदि यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, जो उनके यापनीयग्रन्थ न होने और दिगम्बरग्रन्थ होने का अखण्ड्य प्रमाण है। उनमें राम के लिए पद्म नाम का प्रयोग मिलता है, जिससे सिद्ध है कि पद्म नाम का प्रयोग यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं है। अत: वह 'पउमचरिउ' के यापनीयग्रन्थ होने का हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। २. दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में पद्म और राम भिन्न-भिन्न बलदेवों के नाम बतलाये गये हैं। दिगम्बरपरम्परा में इसका उदाहरण तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथा में दर्शनीय है विजयाचला सुधम्मो सुप्पह-णामो सुदंसणो णंदी। तह णंदमित्तरामा पउमो णव होंति बलदेवा॥ ४/५२४॥ श्वेताम्बरपरम्परा में उक्त उदाहरण नीचे दिये श्लोक में मिलता है अचलो विजयो भद्रः सुप्रभश्च सुदर्शनः। आनन्दो नन्दनः पद्मो रामः शुक्लो बलास्त्वमी॥ स्वयं श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि ने पद्म और राम को एक-दूसरे से भिन्न बतलाया अयलो विजयो भद्दो सुप्पभ सुदंसणो य नायव्वो। आणंदो नंदणो पउमो नवमो रामो य बलदेवो॥१७ १६. हेमचन्द्रकृत अभिधानचिन्तामणि/ काण्ड ३/ श्लोक ३६२। १७. विमलसूरिकृत पउमचरिय / पर्व ५/गाथा १५४। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २२ / प्र०२ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२७ फिर भी विमलसूरि ने राम के लिए 'पद्म' नाम का प्रयोग किया है और दिगम्बर रविषेण तथा स्वयम्भू ने भी ऐसा ही किया है। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद से पहले जैनपरम्परा में 'पद्म' नाम भी राम के लिए प्रसिद्ध था। इसी कारण दोनों परम्पराओं के पुराणकारों ने इस नाम का प्रयोग किया है। यतः यह नाम दोनों परम्पराओं में प्रयुक्त हुआ है, अतः यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं है। फलस्वरूप यह 'पउमचरिउ' के यापनीयग्रन्थ होने का हेतु नहीं है, इससे सिद्ध है कि यह हेत्वाभास है। २ दिगम्बरपरम्परा में भी नैगमदेव मान्य यापनीयपक्ष स्वयंभू के एक अन्य ग्रन्थ रिट्ठणेमिचरिउ में उल्लेख है कि देवकी ने भाई के घर में क्रम से तीन युगलों के रूप में छह पुत्रों को जन्म दिया, जिन्हें कंस से बचाने के लिए इन्द्र की आज्ञा से नैगमदेव सुभदिल नगर के सुदृष्टि सेठ के घर पहुँचाता रहा और उसके मृत पुत्रों को देवकी के पास लाकर छोड़ता रहा। यद्यपि यह उल्लेख आचार्य गुणभद्र ने भी अपने उत्तरपुराण (७१/२९५) में किया है, तथापि हरिणेगमेसि (नैगमदेव) का यह उल्लेख श्वेताम्बर-परम्परा के अनुरूप है।--- पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंशपुराण (३५/४) तथा हरिषेण के बृहत्कथाकोश (उग्रसेन-वशिष्ठ-कथानक १०६/२२५) में भी नैगमदेव का देवकी के पुत्रों के रक्षकरूप में उल्लेख है। अतः जिनसेन और हरिषेण के समान स्वयंभू भी यापनीय हैं। (या. औ.उ.सा./पृ.१५५-१५६)। दिगम्बरपक्ष स्वयम्भू ने 'पउमचरिउ' में, जिनसेन ने 'हरिवंशपुराण' में तथा हरिषेण ने 'बृहत्कथा-कोश' में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया है, अतः ये दिगम्बरग्रन्थ हैं, यह सिद्ध किया जा चुका है। 'बृहत्कथाकोश' के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण आगे तेईसवें अध्याय में प्रस्तुत किये जायेंगे। गुणभद्र का उत्तरपुराण भी दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है। इन सब में (स्वयंभू के 'रिट्ठणेमिचरिउ' में भी) नैगमदेव का देवकीपुत्रों के रक्षकरूप में उल्लेख है। इसलिए इस उल्लेख को केवल श्वेताम्बरपरम्परा के अनुरूप मानना सत्य नहीं है। यतः यह श्वेताम्बरपरम्परा का असाधारण धर्म नहीं है, इसलिए यह उल्लेख स्वयम्भूकृत 'रिट्ठणेमिचरिउ' के यापनीयग्रन्थ एवं स्वयम्भू के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अतः सिद्ध है कि यह हेत्वाभास Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२२/प्र०२ आचार्य प्रभव का उल्लेख यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं यापनीयपक्ष जिन आचार्यों की परम्परा से स्वयंभू को रामकथा प्राप्त हुई है, उनमें श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य प्रभव का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इससे वे श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयसंघी सिद्ध होते हैं। (या.औ. उ.सा./पृ.१५६)। दिगम्बरपक्ष पद्मपुराण के अध्याय (१९) में बतलाया गया है कि रविषेण ने पद्मपुराण (पद्मचरित) की रचना श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के 'पउमचरिय' के आधार पर की है, अतः उन्होंने भूल से आचार्य प्रभव का भी उल्लेख कर दिया है। और स्वयंभू को रामकथा की प्राप्ति रविषेण से हुई है, अतः उन्होंने रविषेण का अनुकरण कर आचार्य प्रभव का नाम रख दिया है। किन्तु इससे वे यापनीय सिद्ध नहीं होते, क्योंकि उन्होंने पउमचरिउ में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इससे सिद्ध है कि 'प्रभव स्वामी' का उल्लेख 'पउमचरिउ' के यापनीयग्रन्थ एवं स्वयम्भू के यापनीय होने का हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरीय मान्यता भी यापनीयपक्ष स्वयंभू ने भगवान् के चलने पर पैरों के नीचे देवनिर्मित कमलों के रखे जाने को एक अतिशय बताया है-पण्णारहकमलायत्त-पाउ (१,७/४)। यह भी श्वेताम्बर मान्यता है। (या.औ.उ.सा./पृ.१५७)। दिगम्बरपक्ष आचार्य समन्तभद्रकृत स्वयम्भूस्तोत्र का निम्न पद्य दर्शनीय है नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं, सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। पादाम्बुजैः पातितमारदो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै॥ २९॥ अनुवाद- "हे पद्मप्रभ जिन! आपने कामदेव को चूर-चूर किया है और सहस्रदल कमलों के मध्यभाग पर चलनेवाले आपने चरणकमलों के द्वारा नभस्तल को पल्लवों से व्याप्त जैसा करते हुए प्रजा की विभूति के लिए भूतल पर विहार किया है।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २२ / प्र० २ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२९ दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने इस पद्य में भगवान् को कमलों पर चलनेवाला बतलाया है। आचार्य वसुनन्दी ने भी 'देवागमन भोयान' इस आप्तमीमांसा के प्रथम श्लोक की टीका में कहा है- "नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं नभोयानम्" अर्थात् भगवान् का आकाश में स्वर्णकमलों के ऊपर गमन करना नभोयान कहलाता है। (समन्तभद्रग्रन्थावली / पृ. ४) इस प्रकार भगवान् का देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरों में भी मान्य है । अतः उसे केवल श्वेताम्बरीय मान्यता कहना असत्य है। इसलिए पउमचरिउ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया यह हेतु यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म न होने से हेत्वाभास है । मागधीभाषा में उपदेश दिगम्बरपरम्परा में भी मान्य यापनीयपक्ष "तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपदेश देना श्वेताम्बर मान्यता ही कही जा सकती है। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार समवशरण में तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्वभाषारूप होती है ।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १५७) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भगवान् के चौंतीस अतिशयों में से १० जन्मगत, ११ केवलज्ञानजन्य और १३ देवकृत बतलाये गये हैं, जिनमें केवलज्ञानजन्य अतिशयों में ११वाँ अतिशय अठारह महाभाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि है। (ति प.४/९०५-९२३) । किन्तु श्रुतसागरसूरि ने आचार्य कुन्दकुन्दकृत दंसणपाहुड (गाथा ३५) की टीका में लिखा है कि भगवान् के चौंतीस अतिशयों में से १० जन्मजात, १० घातिकर्मक्षय- जात और १४ देवोपनीत होते हैं। इनमें देवोपनीत चौदह अतिशयों में पहला अतिशय सर्वार्धमागधी भाषा है । सर्वार्धमागधी भाषा का अर्थ बतलाते हुए श्रुतसागरसूरि कहते हैं कि दिव्यध्वनि का अर्धभाग तो भगवान् की भाषा का होता है, जो मगधदेश की भाषा होती है और आधा भाग समस्त भाषाओं का होता है, इसलिए भगवान् की भाषा को सर्वार्धमागधी भाषा कहते हैं। भाषा में उक्त प्रकार का परिणमन मगधदेवों के सन्निधान से होता है, इसलिए उसे देवोपनीत कहना युक्तिसंगत है । १८ १८. “देवोपनीताश्चतुर्दशातिशया:, तथाहि - सर्वार्धमागधीका भाषा कोऽयमर्थः ? अर्द्ध भगवद्भाषा मगधदेशभाषात्मकम्। अर्द्ध च सर्वभाषात्मकम् । कथमेवं देवोपनीतत्वं चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते ।" श्रुतसागरटीका / दंसणपाहुड / गाथा ३५/ पृ. ५६-५७ । For Personal & Private Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २२ / प्र० २ इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी तीर्थंकर के द्वारा मागधीभाषा में उपदेश दिये जाने का कथन उपलब्ध होता है। अतः उसे केवल श्वेताम्बरमान्यता कहना सत्य नहीं हैं। इसलिए पउमचरिउ को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया यह हेतु भी हेत्वाभास है, क्योंकि यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं है। ६ अदिगम्बरीय मान्यताओं का यापनीय मान्यता होना अप्रामाणिक यापनीयपक्ष १. स्वयंभू ने अपने पउमचरिउ ( २ / ३४ / ८ / ४-५ ) में अनस्तमित- भोजन का वर्णन करते हुए कहा है कि गन्धर्वदेव दिन के पूर्व में, सभी देव दिन के मध्य में, पिता- पितामह दिन के अन्त में तथा राक्षस, भूत, पिशाच और ग्रह रात्रि में खाते हैं। यक्ष-राक्षसादिकों का यह कवलाहार दिगम्बरपरम्परा को इष्ट नहीं है, उनके अनुसार देवताओं का मानसिक अमृताहार होता है । १९ २. पउमचरिउ में १६वें स्वर्ग में अवस्थित सीता के जीव स्वयंप्रभदेव का रावण तथा लक्ष्मण को सम्बोधित करने के लिए तीसरी पृथिवी बालुकाप्रभा में गमन बताया गया है (२/८९/८/३-४) । धवलाटीका के अनुसार १३ वें से १६ वें स्वर्ग तक के देव प्रथम नरक के चित्राभाग से आगे नहीं जाते हैं। (ष. खं/पु.४/पृ. २३८२३९) । ३. पउमचरिउ में भगवान् अजितनाथ के वैराग्य का कारण म्लान कमल बताया गया है (१/५/२/२-३) और तिलोयपण्णत्ती में उल्कापात ( ४ / ६१५) । ४. भगवान् महावीर के द्वारा चरणाग्र से मेरु का कम्पित किया जाना बताया गया है, जो श्वेताम्बरमान्यता है । ( १/१/७/१) । ५. दिगम्बरीय उत्तरपुराण (४८ / १३७) में सगरपुत्रों का मोक्षगमन वर्णित है, पर पउमचरियं (५/१०/२- ३) में विमलसूरि तथा पद्मपुराण में रविषेण के अनुसार भीम और भगीरथ, दो पुत्रों को छोड़कर शेष का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना वर्णित है। इन वर्णनों के आधार पर स्वयंभू यापनीय सिद्ध होते हैं । (या. औ. उ. सा. / पृ. १५६ - १५७) । १९. “देवेसु मणाहारो।" प्राकृत - भावसंग्रह / गाथा ११२ । For Personal & Private Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२२/प्र०२ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७३१ दिगम्बरपक्ष ये मान्यताएँ दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध अवश्य हैं, किन्तु जो दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध हैं, वे यापनीयों की मान्यताएँ हैं, यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वे ऐसे ग्रन्थ में उपलब्ध हो, जिसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं के विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन न हो। किन्तु पउमचरिउ में तो ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः जब वह यापनीयपरम्परा का ही नहीं है, तब उसमें उपलब्ध उक्त मान्यताएँ यापनीयों की कैसे हो सकती हैं? और अगर हों, तो भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यापनीयमत के जो स्त्रीमुक्ति आदि आधारभूत सिद्धान्त हैं, उनका उसमें निषेध किया गया है। निषेध की उपपत्ति पउमचरिउ के दिगम्बरग्रन्थ होने पर ही संभव है, अन्यथा नहीं। इस स्थिति में उपर्युक्त मान्यताएँ पउमचरिउ को न तो यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ हैं, न उसके दिगम्बरग्रन्थ होने को, असिद्ध करने में। उन मान्यताओं की उपपत्ति केवल इस बात को स्वीकार करने से हो सकती है कि हरिवंशपुराणकार जिनसेन के समान स्वयम्भू ने भी देशकाल के औचित्य को देखते हुए जैनेतर मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। कुछ मान्यताएँ स्वबुद्धिकल्पित भी हो सकती हैं। इस प्रकार अन्यथा उपपन्न होने से उन मान्यताओं का उल्लेख पउमचरिउ के कर्ता स्वयम्भू को यापनीय ग्रन्थकार सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। ऊपर निर्दिष्ट प्रमाणों और युक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि स्वयंभूकृत 'पउमचरिउ' को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये सभी हेतु हेत्वाभास हैं। 'पउमचरिउ' में यापनीयग्रन्थ-साधक हेतुओं की अनुपलब्धि एवं दिगम्बरग्रन्थसाधक हेतुओं की उपलब्धि से सिद्ध है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंश अध्याय बृहत्कथाकोश 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ की लेखिका श्रीमती डॉ० कुसुम पटेरिया एवं 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी ने हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (९३१ ई.) को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है, क्योंकि उनके अनुसार उसमें स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति का प्रतिपादन है। लगता है कि इन दोनों ग्रन्थलेखक-लेखिका ने या तो बृहत्कथाकोश को आद्योपान्त पढ़ा नहीं है या ग्रन्थगत उल्लेखों पर जानबूझकर मनमाने अर्थ और मत आरोपित कर उसे बलात् यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ सिद्ध करने का निरर्थक प्रयत्न किया है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का स्पष्टतः निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के सिद्धान्त हैं। उनका निषेध किये जाने से सिद्ध है कि वह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है और उसके कर्ता हरिषेण दिगम्बराचार्य हैं। इसका स्पष्टीकरण उक्त लेखक-लेखिका द्वारा प्रस्तुत यापनीयपक्षधर हेतुओं का निरसन करते हुए नीचे किया जा रहा है। हेतु को यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे दर्शाया जा रहा है और निरसन दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे किया जा रहा है। • बृहत्कथाकोश के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन नहीं, अपितु निषेध यापनीयपक्ष उक्त लेखक-लेखिका ने अपने ग्रन्थों (जै.ध.या.स./ पृ.१६७, या. औ. उ.सा./ पृ. १५१) में बृहत्कथाकोश-गत अशोकरोहिणी कथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत करते हुए कहा है कि इसमें स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया ' एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले। लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम्॥ २३५॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २३ अनुवाद - " इस विधि से जो पुरुष या स्त्री भक्तिपूर्वक रोहिणीव्रत (रोहिणी नक्षत्र में उपवास) का अनुष्ठान करती है, उसे क्रम से केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त होता है । " दिगम्बरपक्ष यह बात अशोकरोहिणीकथानक में अमितास्त्रव मुनि द्वारा पूतिगन्धा ( अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली) नाम की स्त्री को अपने पूर्वकृत पाप से मुक्त होने के लिए दिये गये उपदेशक्रम में कही गई है। पूतिगन्धा ने पूर्वभव में क्रोध में आकर एक मुनि को कड़वी तुम्बी का आहार कराया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। इस पाप के फल से वह पहले कुष्ठग्रस्त हुई, फिर नरक गई। वहाँ से निकलकर अनेकभवों में कुक्करी, शूकरी, गर्दभी, मूषिका आदि के रूप में जन्म लेती हुई इस भव में अत्यन्त दुर्गन्धमय शरीवाली स्त्री होती है । वह मुनिवर से पूछती है कि इस पाप से मुक्ति का उपाय क्या है? तब मुनिश्री उपाय बतलाते हैं— यदि त्वमिच्छसि स्पष्टं सर्वपापविमोचनम् । रोगशोकपरित्यक्तां सुरवल्लभतामपि ॥ २१९॥ ततो रोहिणी नक्षत्रे चोपवासं कुरु द्रुतम् । येन भूयोऽपि दुःखानि न पश्यसि कदाचन ॥ २२० ॥ अनुवाद - " यदि तुम सचमुच में सब पापों से मुक्त होना चाहती हो, यहाँ तक कि रोग, शोक से रहित स्वर्ग की देवी बनना चाहती हो, तो रोहिणी नक्षत्र में शीघ्र ही उपवास करो। उससे तुम्हें कभी भी कोई दुःख नहीं होगा । " इसके बाद मुनि रोहिणीव्रत के उपवास की विधि बतलाते हैं और उसकी समाप्ति पर वासुपूज्य भगवान् एवं रोहिणी पुस्तक की पूजा तथा चतुर्विध संघ को आहार, ओषधि और वस्त्रादि का यथायोग्य दान ( पात्रानुसार दान) का उपदेश देते हैं। तत्पश्चात् कहते हैं कि जो पुरुष या स्त्री कर्मक्षय के उद्देश्य से ( स्वर्गादिसुख के निदान से नहीं) ऐसा करते हैं, उन्हें क्रमशः केवलज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति होती है वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य पूजा विधीयते रोहिणीपुस्तकस्य च । भक्त्या कर्मक्षयनिमित्ततः ॥ २३३ ॥ पश्चादाहारदानं च भेषजं वसनादिकम् । चतुर्विधस्य सङ्घस्य यथायोग्यं विधीयते ॥ २३४ ॥ एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले । लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम् ॥ २३५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७३७ यहाँ क्रमतः (क्रम से अर्थात् परम्परया) शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। यह स्त्री की तद्भवमुक्ति का निषेधक है। जैन कर्मसिद्धान्त और अध्यात्मशास्त्र का प्रत्येक अभ्यासी अच्छी तरह जानता है कि उपर्युक्त क्रियाएँ शुभोपयोग हैं और असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक होनेवाले शुभोपयोग से केवल दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों एवं अनन्तानुबन्धी कषाय की चार प्रकृतियों का क्षय होता है। शेष १३८ (चरमशरीरी जीव के नारकायु, तिर्यंचायु और देवायु का सत्त्व नहीं होता) प्रकृतियों का क्षय शुभोपयोग से नहीं होता। उनका यथायोग्य क्षय क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ छद्मस्थ मुनि के एकाग्रचिन्ता-निरोधरूप प्रथम एवं द्वितीय शुक्लध्यान-नामक शुद्धोपयोग से तथा अयोगिकेवली के योगनिरोध से होता है। अयोगकेवली के योगनिरोध को ही चतुर्थ शुक्लध्यान कहा गया है अंतोमुहुत्तमद्धं चिंतावत्थाणमेयवत्थुम्मि। छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोधो जिणाणं तु॥ सयोगकेवली और अयोगकेवली ध्रुवोपयोग-परिणत होते हैं, अतः उनके अन्तर्मुहुर्त तक एकाग्रचिन्तानिरोध-स्वभाववाला ध्यान-परिणामरूप शुद्धोपयोग संभव नहीं है, जैसा कि जयधवलाकार ने कहा है-"पूर्ववदत्रापि ध्यानोपचारः प्रवर्तनीयः, परमार्थवृत्त्या एकाग्रचिन्तानिरोध-लक्षणस्य ध्यानपरिणामस्य ध्रुवोपयोगपरिणते केवलिन्यनुपपत्तेः।" (जयधवला / क.पा./भा.१६/अनुच्छेद ३९५/पृ.१८४)। शुभोपयोग इन १३८ कर्मप्रकृतियों के क्षय में असमर्थ है। इसके विपरीत उससे तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से सातवें गुणस्थान तक देवायु का बन्ध होता है (ष.ख.(पु.८४३, ३१-३२४ पृ.६४)। इस प्रकार वह प्रत्यक्षरूप से मोक्ष के विपरीत है। इसीलिए अमितास्रव मुनि पूतिगन्धा से कहते हैं कि इस रोहिणीव्रत से तुम स्वर्ग की देवी भी बन सकती हो। किन्तु इस शुभोपयोग में इतनी विशेषता होती है कि यदि यह कर्मक्षय के लक्ष्य से किया जाय, भोगों की आकांक्षा से नहीं, तो इससे उस उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध होता है, जिससे पहले स्वर्गसुखप्राप्त होता है, पश्चात् मनुष्यपर्याय, पुरुषशरीर आदि परमसमाधि के योग्य सामग्री प्राप्त होती है, जिसके आश्रय से मनुष्य दिगम्बरमुनिदीक्षा ग्रहणकर गुणस्थानक्रम से शुक्लध्यान के द्वारा कर्मक्षय करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है। श्लोक में प्रयुक्त क्रमतः शब्द इसी क्रम या परम्परा को सूचित करता है। १. क- "निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ इसी क्रम के अनुसार पूतिगन्धा को पहले रोहिणीव्रत एवं श्राविकाव्रत के फलस्वरूप अच्युतस्वर्ग के देव की महादेवी और उसके बाद राजा अशोक की रोहिणी नामक महारानी होते हुए बतलाया गया है। तत्पश्चात् आर्यिकादीक्षा लेकर दुष्कर तप एवं सल्लेखनाविधि से देहत्याग करने पर वह देवगति एवं पुरुषवेद का बन्ध कर अच्युतस्वर्ग में दिव्यबुन्दीधर देव होती है। इस तरह वह सम्यग्दृष्टि देव की उस भूमिका में आ जाती है, जहाँ से च्युत होकर उसका मनुष्यगति में पुरुष होना अनिवार्य है। इससे उसके लिए दैगम्बरी दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त करने का द्वार खुल जाता है। इस कथा का वर्णन 'अशोकरोहिणीकथानक' के निम्नलिखित श्लोकों में किया गया पूर्वोक्तपूतिगन्धापि श्रावकव्रतभूषिता। उपोष्य रोहिणी भद्रा चक्रे कालं समाधिना॥ ४५९॥ पल्योपमानि भुञ्जाना सुखं पञ्चदशानि सा। अच्युतस्यैव देवस्य महादेवी बभूव च॥ ४६०॥ पूतिगन्धाचरी देवी या तवासीन्मनः प्रिया। सा स्वर्गाद्गलिता भूमिमवतीर्णायुषः क्षये॥ ४६५॥ श्रीमदङ्गाख्यदेशस्थ-चम्पायां पुरि रूपिणी। मघोनस्तनया जाता श्रीमत्यां रोहिणी नृप॥ ४६६॥ रोहिणी च महादेवी हित्वा सर्वपरिग्रहम्। वासुपूज्यं जिनं नत्वा सुमत्यन्ते तपोऽग्रहीत्॥ ५८२॥ नानातपो विधायैषा सामान्यस्त्रीसु दुष्करम्। सल्लेखनविधिं चक्रे रोहिणी कर्महानये॥ ५८३॥ ततः स्त्रीत्वं समादाय कृत्वा कालं समाधिना। कल्पेऽच्युते बभूवासौ दिव्यबुन्दीधरः सुरः॥ ५८४॥ लभते। पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते।" तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार १/ ११/ पृ. १२। ख- "तीर्थङ्करादिपुराणजीवादिनवपदार्थप्रतिपादकागमपरिज्ञानसहितस्य तद्भक्तियुक्तस्य च यद्यपि तत्काले पुण्यास्रवपरिणामेन मोक्षो नास्ति तथापि तदाधारेण कालान्तरे निरास्रव शुद्धोपयोगपरिणामसामग्रीप्रस्तावे भवति। तात्पर्यवृत्ति/ पंचास्तिकाय/गा. १५४/ पृ. २२३ । ग- "तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी स्वकीयगुणस्थानानुसारेण परम्परया मुक्तिकारणभूतेन तीर्थङ्करनामकर्म प्रकृत्यादिपुद्गलरूपेण विविधपुण्यकर्मणा बध्यते।" तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा.१७२/ पृ.२३९। For Personal & Private Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कथाकोश / ७३९ अ० २३ इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि उक्त ग्रन्थों के लेखक-लेखिका द्वारा उद्धृत श्लोक में स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है, अपितु क्रमशः या परम्परया (पुरुषशरीर धारण कर दैगम्बरी दीक्षा द्वारा) मुक्त होने का कथन है । इसी क्रम से रुक्मिणी के भी मोक्ष पाने का वर्णन बृहत्कथाकोश के लक्ष्मीमतीकथानक (१०८) में किया गया है । यथा च अथ सा रुक्मिणी नत्वा सर्वसत्त्वहितं गुरुम् । संयमश्री - समीपे प्रवव्राज मनस्विनी ॥ १२४॥ बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं तपः रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो देवश्च्युत्वा भुवं प्राप्य तपः निहत्याशेषकर्माणि मोक्षं शुद्धं विधाय च । दिवि सुरो महान् ॥ १२५ ॥ कृत्वाऽयमुत्तरम् । यास्यति नीरजाः ॥ १२६ ॥ अनुवाद - " रुक्मिणी ने समस्त प्राणियों के हितकारी गुरु को नमस्कार कर संयमश्री आर्यिका से दीक्षा ग्रहण की। फिर तीर्थंकरगोत्र का बन्ध कर और शुद्ध तप की साधना कर स्वर्ग में महान् देव हुई। वह देव भविष्य में देवपर्याय से च्युत होकर (मनुष्यपर्याय में आयेगा और ) तप द्वारा अशेष कर्मों का विनाश कर मोक्ष प्राप्त करेगा । " इस प्रकार सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में स्त्रीपर्याय से पुरुषपर्याय प्राप्त करके ही मोक्ष होने का कथन है, किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षधर ग्रन्थद्वय के लेखक-लेखिका ने क्रमतः शब्द की अनदेखी कर और पूतिगन्धा (रोहिणी) तथा रुक्मिणी के स्त्रीपर्याय को छोड़कर पुरुषपर्याय पाने के कथनों को ताक पर रखकर हल्ला मचाया है कि बृहत्कथाकोश में स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन है, इसलिए वह यापनीयग्रन्थ है। वस्तुतः उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं हैं। यापनीयपक्ष उक्त ग्रन्थों के लेखक-लेखिका ने दूसरा हेतु यह प्रस्तुत किया है कि बृहत्कथाकोश में रुक्मिणी को तीर्थंकरगोत्र का बन्ध होना बतलाया गया है (देखिए ऊपर 'बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं' श्लोक) । यह दिगम्बरमत के प्रतिकूल और श्वेताम्बर तथा यापनीय मतों के अनुकूल है। इससे सिद्ध है कि बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ है। (या. औ. उ. सा./पृ. १५१, जै.ध.या.स./ पृ. १६८) । For Personal & Private Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ दिगम्बरपक्ष यह सत्य है कि स्त्री को तीर्थंकरनामकर्म के बन्ध का उल्लेख दिगम्बरमत के प्रतिकूल है, तथापि इससे बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें ऐसे अनेक सिद्धान्त और तथ्य उपलब्ध होते हैं, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। यथा १. रुक्मिणी को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध निरूपित करते हुए भी, उसकी मुक्ति स्त्रीपर्याय से न बतलाकर पुरुषपर्याय से बतलायी है और भविष्य में उसके तीर्थंकर होने का भी कथन नहीं किया गया है। तथा जैसा कि ऊपर कहा गया है, सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। सभी आर्यिकाओं के देवपर्याय प्राप्त करने का अथवा देवपर्याय प्राप्त करने के अनन्तर वहाँ से च्युत होने पर मनुष्यभव में पुरुषशरीर से मोक्षप्राप्ति का कथन है, क्योंकि आर्यिकापद से देवपर्याय प्राप्त करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होने के कारण स्त्रीशरीर प्राप्त नहीं कर सकता। २. यापनीयमत में मुनि के अचेल और सचेल दो लिंग माने गये हैं, किन्तु सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में एकमात्र दिगम्बरत्व अथवा नग्नता को ही मुनिलिंग कहा गया है। एक भी श्लोक ऐसा नहीं है, जिसमें वस्त्रधारी को मुनि, निर्ग्रन्थ या श्रमण शब्द से अभिहित किया गया हो। ३. गृहत्यागी, कौपीनमात्रधारी ग्यारह श्रावकप्रतिमाओं के पालक पुरुष को क्षुल्लक नाम दिया गया है और उसके प्रति विनय प्रकट करने के लिए मुनिवत् 'नमोऽस्तु' वाक्य का प्रयोग न कर इच्छामि शब्द का प्रयोग किया गया है, तथा कहा गया है २. देखिये, अशोकरोहिणीकथानक का पूर्वोद्धत श्लोक ५८४, लक्ष्मीमतीकथानक के पूर्वोद्धृत श्लोक १२५-१२६ तथा ४६वें 'असत्यभाषणकथानक' का निम्नलिखित श्लोक विमलादिकमत्यन्ताद्यार्यिकाः शुद्धचेतसः। नानातपो विधायोच्चै वयोग्यं दिवं ययुः॥ १८८॥ इस श्लोक में विमला आदि आर्यिकाओं (आर्यिकाः) को स्वर्गगामी कहा गया है, जबकि उन्हीं के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा धनद को मोक्ष की प्राप्ति बतलायी गयी ततोऽनेकसमाः कृत्वा नानाविधतपांसि तु। धनदः स मुनिर्विद्वानाध्यासितपरीषहः॥ १८६ ॥ दिव्यनाम-पुरी-पार्श्व-स्थित-गोवर्ज-पर्वते। जगाम निर्वृतिं वीरो गिरीन्द्रस्थितमानसः॥ १८७॥ ३. देखिये, आगे शीर्षक-'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण।' For Personal & Private Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ .. बृहत्कथाकोश / ७४१ कि जब वह क्षुल्लक पद को छोड़कर दिगम्बरमुनि-दीक्षा ग्रहण करता है, तभी मुक्ति का पात्र बनता है। व्रतधारी स्त्रियों में आर्यिकाओं के अतिरिक्त क्षुल्लिका का पद भी बतलाया गया है। ये विशेषताएँ केवल दिगम्बरमत में मिलती हैं, यापनीय और श्वेताम्बर मतों में नहीं। ४. बृहत्कथाकोश में दिगम्बरवेश को ही मुक्ति का मार्ग बतलाया गया है, वस्त्रधारण करने को मुक्ति में बाधक कहा गया है। ५. उक्त ग्रन्थ के भद्रबाहुकथानक में दिगम्बरमत को ही तीर्थंकरप्रणीत प्ररूपित किया गया है, श्वेताम्बरमत को द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप शिथिलाचार से उत्पन्न बतलाया गया है तथा यापनीयसम्प्रदाय को उस शिथिलाचारजनित श्वेताम्बरसम्प्रदाय से उद्भूत कहा गया है। ६. बृहत्कथाकोशकार हरिषेण उसी पुन्नाटसंघ के थे, जिसके हरिवंशपुराणकार जिनसेन थे। जिनसेन दिगम्बर थे, अतः हरिषेण भी दिगम्बर थे। ७. बृहत्कथाकोश में 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के कर्ता स्वामिकार्तिकेय (क्र.१३६) और षट्खण्डागम के उपदेष्टा आचार्य धरसेन एवं कर्ता पुष्पदन्त-भूतबलि (क्र.२६) के कथानक वर्णित हैं। ये सब दिगम्बर थे। ८. हरिषेण ने दिगम्बरग्रन्थ 'भगवती-आराधना' से अनेक कथाओं के बीज लेकर बृहत्कथाकोश के बहुत से कथानकों की रचना की है। ये सिद्धान्त और तथ्य इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ या श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। इसलिए उसमें जो स्त्री को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध बतलाया गया है, वह अन्यथानुपपत्ति से इस निर्णय पर पहुँचाता है कि या तो वह प्रक्षिप्त है अथवा सिद्धान्तग्रन्थों के गहन अनुशीलन के अभाव में हरिषेण ने अनभिज्ञतावश वैसा लिख दिया है। उनकी ऐसी अनभिज्ञता अन्यत्र भी प्रकट हुई है। यथा, उन्होंने लिखा है-"रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो दिवि सुरो महान्" (१०८/ ४. देखिये, आगे शीर्षक–'गृहस्थमुक्तिनिषेध' तथा 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण'। अनुच्छेद क्र. ७। ५. देखिये, आगे शीर्षक-'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण'/ अनुच्छेद क्र.६ । ६. देखिये, आगे शीर्षक ७ 'भद्रबाहुकथानक में कोई भी अंश प्रक्षिप्त नहीं।' ७. "पुन्नाटसङ्घाम्बरसन्निवासी ---" बृहत्कथाकोश/ प्रशस्ति /श्लोक/३/पृ. ३५५ । ८. आराधनोवृतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम्। हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले ॥ ८ वही/ प्रशस्ति। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २३ १२५) अर्थात् आर्यिका रुक्मिणी स्त्रीत्व को लेकर स्वर्ग में महान् देव हुईं । यहाँ स्त्रीत्व को स्वर्ग में ले जाने का क्या तात्पर्य है, यह बुद्धिगम्य नहीं है । यदि स्त्रीत्व से तात्पर्य स्त्रीवेदनोकषाय और स्त्रीशरीरांगोपगनामकर्म (द्रव्यस्त्रीवेद) से है, तो उपर्युक्त कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि इन दोनों वेदों (भावस्त्रीवेद और द्रव्यस्त्रीवेद) का उदय तो स्त्रीपर्याय की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है। तथा परभविक देवायु का बन्ध करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव के साथ पुंवेदनोकषायकर्म तथा पुरुषशरीरांगोपांग - नामकर्म नियम से बँधते हैं। और यदि सम्यग्दर्शन होने के पूर्व परभव-सम्बन्धी स्त्रीवेदनोकषाय-कर्म या नपुंसकवेदनोकषाय-कर्म तथा स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म या नपुंसकशरीरांगोपांग - नामकर्म बँध गये हैं, तो इनमें से ये दोनों नाम कर्म पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। इस तथ्य का उल्लेख डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने निम्नलिखित शब्दों में किया है " सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीपर्याय में उत्पन्न नहीं होता है। यदि उसे सम्यग्दर्शन के पूर्व स्त्रीवेद का बन्ध पड़ गया है, तो वह पुरुषवेद के रूप में परिवर्तित हो जाता है । तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों में पूर्वबद्ध नपुंसकवेद भी पुरुषवेद के रूप में परिवर्तित हो जाता है।" ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार / विशेषार्थ १/ ३५/पृ.७६)। यहाँ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद से द्रव्यवेद ( शरीरांगोपांग - नामकर्म) विवक्षित है, भाववेद नहीं, क्योंकि भाववेद अर्थात् पुंवेदनोकषाय, स्त्रीवेदनोकषाय तथा नपुंसकवेदनोकषाय एक-दूसरे में परिवर्तित नहीं होते । जीव में इन तीनों का पृथक्-पृथक् सत्त्व नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त रहता है और उसके आगे ही उनका क्रमशः क्षय होता है । (स.सि./ १० / २) | किन्तु औदारिक- शरीरसम्बन्धी पुरुषशरीरांगोपांग, स्त्रीशरीरांगोपांग एवं नपुंसकशरीरांगोपांग, इन तीन नामकर्मों का सत्व एक साथ नहीं होता, क्योंकि सयोगकेवली - गुणस्थान में औदारिकशरीर-सम्बन्धी केवल औदारिकशरीरांगोपांग नामक एक ही प्रकृति का सत्त्व बतलाया गया है, जो केवली के पुरुष होने पुरुषशरीरागोपांगरूप होती है । ( स.सि./ १० / २) इससे सिद्ध होता है कि यदि कोई जीव मिथ्यादृष्टि अवस्था में स्त्रीशरीरांगोपांग अथवा नपुंसकशरीरांगोपांग नामकर्म का बन्ध करता है, तो सम्यग्दर्शन होने पर वह पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म में परिवर्तित हो जाता है और वह पुंवेदनोकषायकर्म तथा पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म का ही बन्ध करता 1 इससे यह निर्णय भी होता है कि मिथ्यादृष्टि जीव यदि पहले स्त्रीशरीरांगोपांग - नामकर्म ९. यह अवश्य है कि जब कोई एक भाववेद उदय में आता है, तब अन्य दो भाववेद एक समय पूर्व स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदय को प्राप्त भाववेद के रूप में संक्रमित होकर उदय में आते हैं। (देखिये, पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व / भाग १ / पृ. ४५५ ) । For Personal & Private Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २३ बृहत्कथाकोश / ७४३ या नपुंसकशरीरागोपांग-नामकर्म बाँधता है और उसके बाद विशुद्धपरिणामवश पुंवेदनोकषायकर्म एवं पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म का बन्ध करता है, तो पूर्वबद्ध स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म या नपुंसकशरीरांगोपांग-नामकर्म पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म में बदल जाता है। मायाचार आदि संक्लेशपरिणाम की विशेषता से इसके विपरीत होना भी संभव है। इसी प्रकार यदि कोई जीव मिथ्यात्वदशा में देवगति के साथ स्त्रीवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म का बन्ध करता है, तो सम्यक्त्व प्राप्त करने पर उसे पुंवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का ही बन्ध होता है तथा उसका पूर्वबद्ध वैक्रियिक-स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म वैक्रियिक-पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का रूप धारण कर लेता है। तथा यदि कोई मिथ्यादृष्टि जीव नरकगति के साथ नपुंसकवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-शरीरांगोपांग-नामकर्म बाँधता है, तो उसका वह शरीरांगोपांगनामकर्म नपुंसकशरीरांगोपांगरूप होता है। निष्कर्ष यह कि जो जीव मिथ्यात्वदशा में स्त्रीवेदनोकषायकर्म एवं स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म बाँध लेता है, वह सम्यग्दर्शन होने पर पुंवेदनोकषायकर्म एवं पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का बन्ध करने लगता है, और उसका पूर्वबद्ध स्त्रीवेदनोकषायकर्म तो ज्यों का त्यों सत्ता में रहता है, किन्तु स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म में परिवर्तित हो जाता है। अतः जब वह देवायु का बन्ध कर स्वर्ग में जाता है, तो भावपुरुषत्व और द्रव्यपुरुषत्व को ही लेकर जाता है। वहाँ उसके पूर्वबद्ध भावस्त्रीवेद (स्त्रीवेदनोकषायकर्म) और भावनपुंसकवेद (नपुंसकवेद-नोकषायकर्म) भी उदय को प्राप्त भावपुरुषवेद के रूप में स्तिबुकसंक्रमण कर उदय में आने लगते हैं। अतः बृहत्कथाकोशकार हरिषेण का यह कथन आगमसम्मत नहीं है कि 'रुक्मिणी स्त्रीत्व को साथ में लेकर स्वर्ग में महान् देव हुई' अथवा 'रोहिणी स्त्रीत्व को लेकर अच्युतकल्प में दिव्यधुंन्दीधर देव हुई।' (५७ / ५८४)। जब स्त्रीत्व शेष ही नहीं रहा, तब उसे लेकर रुक्मिणी या रोहिणी स्वर्ग में कैसे जा सकती है? हरिषेण ने बृहत्कथाकोश में व्याकरणसम्बन्धी भी अनेक अनियमितताएँ की हैं, जिन्हें डॉ० एन० एन० उपाध्ये ने सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित बृहत्कथाकोश की प्रस्तावना (पृ. ९४-११२) में उद्घाटित किया है। इन उदाहरणों को देखते हुए यह आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होता कि दिगम्बर हरिषेण ने स्त्री को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कथन सैद्धान्तिक अनभिज्ञतावश किया है। यापनीयपक्ष यापनीयपक्षधर विद्वान् ने तीसरा हेतु यह प्रस्तुत किया है कि बृहत्कथाकोश के अशोकरोहिणी कथानक में रोहिणी महारानी के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग किये जाने Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ ७४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ का उल्लेख है। दिगम्बरमत के अनुसार स्त्री के लिए सर्वपरिग्रह का त्याग संभव नहीं है, क्योंकि उसमें वस्त्र भी परिग्रह माना गया है। किन्तु श्वेताम्बर और यापनीय मतों में स्त्रीमुक्ति मान्य होने से वस्त्रधारण करते हुए भी सर्वपरिग्रहत्याग का कथन युक्तिसंगत हो जाता है। अतः यह यापनीयग्रन्थ है। (जै.ध.या.स./पृ. १६८)। दिगम्बरपक्ष पूर्व में अनेक स्थानों पर स्पष्ट किया जा चुका है कि दिगम्बरमत में आर्यिका को उपचार से महाव्रती कहा गया है, इसलिए सर्वपरिग्रहत्याग का कथन भी औपचारिक ही है। दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना की 'इत्थीवि य जं लिंगं दिटुं' इत्यादि गाथा (८०) और उसकी विजयोदयाटीका में आर्यिकाओं के एकसाड़ीरूप अल्पपरिग्रहात्मक लिंग को सर्वपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिंग कहा गया है। इसकी चर्चा 'भगवती-आराधना' नामक त्रयोदश अध्याय में की जा चुकी है। अतः रोहिणी महारानी के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग किये जाने का उल्लेख दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है। इसलिए उक्त उल्लेख से बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। गृहस्थमुक्तिनिषेध यापनीयपक्ष यापनीयपक्षधर लेखक-लेखिका ने चौथा हेतु यह बतलाया है कि बृहत्कथाकोशगत अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित श्लोक में गृहस्थमुक्ति का कथन है, जो यापनीयमत का सिद्धान्त है अणुव्रतधरः कश्चिद् गुणशिक्षाव्रतान्वितः। सिद्धिभक्तो व्रजेत्सिद्धिं मौनव्रतसमन्वितः॥ ५६७॥ अनुवाद-"कोई सिद्धिभक्त (सिद्धि चाहनेवाला) अणुव्रतादिधारी श्रावक भी यदि मौनव्रत की साधना करता है, तो वह सिद्धि को प्राप्त होता है।" दिगम्बरपक्ष १. उक्त लेखक-लेखिका ने यहाँ जो ‘सिद्धि' का अर्थ 'मोक्ष' लिया है, वह बृहत्कथाकोशकार के अभिप्राय के अनुरूप नहीं है। उनके अनुसार तो अणुव्रतधारी १०. रोहिणी च महादेवी हित्वा सर्वं परिग्रहम्। वासुपूज्यं जिनं नत्वा सुमत्यन्ते तोऽग्रहीत्॥ ५७/५८२॥ ११. देखिये, अध्याय १३-भगवती-आराधना/ प्रकरण ३/शीर्षक ५। For Personal & Private Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७४५ के विषय में सिद्धि का अर्थ इच्छित लौकिक पदार्थ की प्राप्ति है, न कि मोक्ष की प्राप्ति। मोक्ष की प्राप्ति तो उन्होंने जन्तुमात्र (प्राणिमात्र) के लिए जैनेन्द्री दीक्षा के द्वारा ही बतलाई है। उदाहरणार्थ, अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित पद्य दर्शनीय हैं कालं कृत्वा ततो जन्तुर्मौनव्रतविधानतः। देवः कलस्वनः स्वर्गे जायते भोगसंयुतः॥ ५५६ ॥ ततस्तत्र सुखं भुक्त्वा भुवं प्राप्य विशुद्धधीः। चक्रवादिकान् भोगान् भूयो भुङ्क्ते स तत्फलात्॥ ५५७॥ भौमान् भोगान् पुनर्भुक्त्वा मनोऽभिलाषितांश्चिरम्। दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं सिद्धिं याति स नीरजाः॥ ५५८॥ __ अनुवाद-"जो प्राणी मौनव्रत का पालन करते हुए समय व्यतीत करता है, वह स्वर्ग में मधुर स्वर एवं भोग से संयुक्त देव होता है। वहाँ स्वर्गिक सुखों का आस्वादन कर भूमि पर आता है और चिरकाल तक चक्रवर्ती आदि के मनोऽभिलाषित भोगों को भोगता है। पश्चात् जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा ग्रहण कर कर्ममुक्त हो सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करता है।" २. इसी अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) में बतलाया गया है कि मौनव्रत के फलों का श्रवण करनेवाले राजा अशोक ने श्रावक होते हुए भी जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा ग्रहण की और उग्र तप के द्वारा कर्मों का विनाश कर निर्वाण प्राप्त किया। यथा वासुपूज्यं जिनं भक्त्या त्रिः परीत्य प्रणम्य च। दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीं तदन्तेऽशोकभूपतिः॥ ५७९ ॥ उग्रं तपो विधायायं कालेन बहुना ततः। क्षीणकर्मा जगामाशु निर्वाणं परमुत्तमम्॥ ५८१॥ ३. ग्रन्थकार ने यशोधर-चन्द्रमती कथानक (क्र.७३) में भी वर्णन किया है कि दो राजकुमार सुदत्तमुनि से अपने पूर्वभव का वृतान्त सुनकर विरक्त हो जाते हैं और उनसे मुनिदीक्षा की याचना करते हैं। सुदत्तमुनि उनसे कहते हैं-"आप लोगों के अंग सुकुमार हैं। उन्हें परीषह सहने का अभ्यास नहीं है। इसलिए अभी आप मुनिव्रत का पालन नहीं कर पायेंगे। इस समय आप लोगों को क्षुल्लक-धर्म का पालन करना चाहिए , मुनिदीक्षा बाद में दूँगा।" देखिए For Personal & Private Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ युवां सुकुमाराङ्गावनध्यासित-परीषहौ। शक्नुथो न व्रतं जैनं ग्रहीतुं मुग्धचेतसौ॥ २३७ ।। विधातुमधुना युक्तं धर्मं क्षुल्लकसेवितम्। चरमं युवयोर्दास्ये धर्म दैगम्बरं परम्॥ २३८॥ दोनों राजकुमार मुनिवर की आज्ञा स्वीकार कर लेते हैं। पहले वे क्षुल्लक बन जाते हैं, बाद में उन्हीं मुनिराज से मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं क्षुल्लको क्षौल्लकं धर्मं हित्वा वैराग्यसङ्गतौ। तदा निजगुरोः पार्वे मुनिदीक्षामुपागतौ॥ २९९॥ ४. ग्रन्थकार ने बृहत्कथाकोश के भद्रबाहुकथानक (क्र.१३१) में श्वेताम्बर स्थविरकल्प (सचेललिंग) को शिथिलाचारी अर्धफालक साधुओं के द्वारा कल्पित बतलाते हुए वस्त्रधारण को मुक्ति में बाधक एवं नग्नत्व को मुक्ति का साधक सिद्ध किया है तथा अन्य कई स्थानों पर दैगम्बरी दीक्षा को ही सर्वकर्मविनाशक बतलाया है।१२ ___ इन प्रमाणों से बृहत्कथाकोशकार का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें गृहस्थमुक्ति मान्य नहीं हैं। इसलिए अशोक-रोहिणी कथानक (क्र. ५७) के अणुव्रतधरः कश्चिद् श्लोक में जो सिद्धि चाहनेवाले गृहस्थ को मौनव्रत के द्वारा सिद्धि प्राप्त होने की बात कही गई है, वहाँ सिद्धि का अर्थ मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, अपितु अनेक प्रकार के अभिलषित लौकिक पदार्थों की प्राप्ति है, यह अशोक-रोहिणीकथानक के निम्नलिखित श्लोकों से स्पष्ट है यशोव्याप्तसमस्ताशे मृदुमन्थरगामिनि। वदामि तेऽधुना वत्से मौनव्रतफलं शृणु॥ ५५९॥ श्रवःसुखं मनोहारि लोकप्रत्ययकारणम्। प्रमाणभूतमादेयं वचनं मौनतो नृणाम्॥ ५६०॥ देवशेषामिवाशेषामाज्ञामस्य प्रतीच्छति। मस्तकेन जनो यस्मात्तन्मौनफलमुत्तमम्॥ ५६१॥ यच्च किञ्चित्कृतं तेन भयरोषविषापहम्। तत्ससमस्तं भवेल्लोके येन मौनं चिरं कृतम्॥ ५६२॥ मधुराक्षरसंयुक्तं मुखपद्मं मनोहरम्। मौनेन जायते पुंसां नानार्थरुचिभाषणम्॥ ५६३॥ १२. देखिये, आगे 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७४७ अपि दुःसाध्यतां प्राप्ताः सर्वलोकफलप्रदाः। विद्याः सिध्यन्ति सर्वेषां चिरं मौनव्रतं कृतम्॥ ५६४॥ यदसाध्यं भवेत्कार्यमतिसंशयकारणम्। तत्तस्य वाक्यतः सिद्धिमेति मौनफलाद् भुवि॥ ५६५॥ ध्यायन्ति मुनयो ध्यानं येन कर्मविनाशनम्। मौनेन हि सदा तस्मान्मौनं सर्वार्थसाधनम्॥ ५६६॥ अणुव्रतधरः कश्चिद् गुणशिक्षाव्रतान्वितः। सिद्धिभक्तो व्रजेत्सिद्धिं मौनव्रतसमन्वितः॥ ५६७॥ अनुवाद-(रूपकुम्भ मुनि वसुमती नामक कन्या को मौनव्रत के फल बतलाते हुए कहते हैं)- "हे समस्त दिशाओं में व्याप्त यशवाली, मृदुमन्थरगामिनी वत्से! मैं तुम्हें मौनव्रत के फल बतलाता हूँ, सुनो। मौन से मनुष्य को कर्णप्रिय, मनोहारी तथा लोगों के लिए विश्वसनीय, प्रमाणभूत वचनों की प्राप्ति होती है। मौन से मनुष्य को इन्द्र के समान ऐश्वर्य प्राप्त होता है, जिससे लोग उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। जो चिरकाल तक मौन की साधना करता है वह भय, रोष ओर विष का अपहार करने के लिए जो कुछ करता है वह सभी सफल होता है। मौन से मनुष्य का मुखकमल मधुरभाषी और मनोहर हो जाता है। दीर्घकाल तक मौनधारण करने से समस्त लौकिक फल प्रदान करनेवाली दुःसाध्य विद्याएँ भी सबको सिद्ध हो जाती हैं। अत्यन्त संशयास्पद (संकट के कारणभूत) असाध्य कार्य भी उसके वचन बोलने मात्र से सिद्ध हो जाते हैं। मुनि मौनव्रत का अवलम्बन करके ही कर्मविनाशक ध्यान ध्याते हैं, अतः मौन समस्त पदार्थों का साधन है। कोई अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षाव्रतधारी श्रावक यदि मौनव्रत का पालन करता है तो वह जिस सिद्धि का भक्त होता है (जिस वस्तु का अभिलाषी होता है), वह उसे प्राप्त हो जाती है। इन वचनों के द्वारा आचार्य हरिषेण ने निम्नलिखित अर्थ प्रतिपादित किये हैं १. मौनं सर्वार्थसाधनम् (श्लोक ५६६) वाक्य के द्वारा स्पष्ट किया है कि मौन लौकिक फल और अलौकिकफल दोनों की प्राप्ति का साधन है। उससे इन्द्रपद, मनोहररूप, मधुर स्वर एवं वचन, दुःसाध्य विद्याएँ आदि लौकिक फलों की भी सिद्धि (उपलब्धि) होती है और कर्मविनाशक शुक्लध्यानरूप अलौकिक फल की भी। २. ध्यायन्ति मुनयो ध्यानं येन कर्मविनाशनम् (श्लोक ५६६) इन वचनों से स्पष्ट किया है कि मौन से मुनियों को ही कर्मविनाशक शुक्लध्यान की सिद्धि होती Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २३ है, श्रावकों का मौन कर्मविनाशक शुक्लध्यान का साधक नहीं है, अतः उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इससे यह अर्थ प्रतिफलित होता है कि यतः श्रावकों को मौनव्रत. से कर्मविनाशक शुक्लध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती, अतः उन्हें उससे इन्द्रपद, मनोहररूप, मधुरवचन, दुःसाध्य विद्याएँ इत्यादि लौकिक फलोपलब्धिरूप सिद्धि ही प्राप्त होती है। इसीलिए अशोकरोहिणी - कथानक ( क्र. ५७) के कालं कृत्वा ततो जन्तुर्मौनव्रतविधानतः इत्यादि पूर्वोद्धृत श्लोकों (५५६-५५८) में कहा गया है कि मौनव्रत के पालन से जीव स्वर्ग के भोग भोगता है और वहाँ से पृथ्वी पर आकर चक्रवर्ती आदि के भोग भोगने के बाद जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करता है। ३. कश्चिद् अणुव्रतधरः सिद्धिभक्तः सिद्धिं व्रजेत् (श्लोक ५६७ ) इस वाक्य में कश्चित् शब्द के प्रयोग से स्पष्ट किया है कि लौकिक फलों की सिद्धि का भक्त (इच्छुक) कोई-कोई ही श्रावक होता है, सब नहीं । प्रायः सभी श्रावक मोक्षार्थी ही होते हैं, क्योंकि श्रावकधर्म मोक्षमार्गभूत मुनिधर्म के अभ्यासार्थ ही ग्रहण किया जाता है। यह बात हरिषेण ने पूर्वोद्धृत यशोधर - चन्द्रमती - कथानक में स्पष्ट कर दी है, जिसमें सुदत्त मुनि दो राजकुमारों को सुकुमार होने के कारण शुरू में मुनिदीक्षा नहीं देते, अपितु क्षुल्लकदीक्षा देते हैं और कुछ समय बाद समर्थ हो जाने पर मुनिदीक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार यहाँ प्रयुक्त कश्चित् शब्द स्पष्ट करता है कि श्रावकों के प्रसंग में सिद्धि शब्द लौकिकफल- प्राप्ति का वाचक है, मोक्षप्राप्ति का नहीं । यदि आचार्य हरिषेण गृहस्थ अवस्था को मुक्ति का मार्ग मानते, तो वे यह न कहते कि चक्रवर्ती आदि जैनेन्द्री ( दैगम्बरी) दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और पूर्वोक्त दो राजकुमारों को न तो क्षुल्लकदीक्षा दिये जाने का वर्णन करते, न दैगम्बरी दीक्षा दिये जाने का । वे यह वर्णन करते कि " सुदत्तमुनि ने उन राजकुमारों से कहा कि तुम राजपरिवार के हो इसलिए तुम्हें न तो क्षुल्लकदीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता है, न दैगम्बरीदीक्षा की, तुम गृहस्थ अवस्था से ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हो ।" किन्तु हरिषेण ने ऐसा वर्णन नहीं किया, अपितु यह कहा है कि सुदत्तमुनि ने उन्हें पहले क्षुल्लक दीक्षा दी, उसके कुछ समय बाद क्षुल्लकदीक्षा का परित्याग कराकर दैगम्बरीदीक्षा प्रदान की। इससे सिद्ध हो जाता है कि हरिषेण गृहस्थमुक्ति के समर्थक नहीं हैं। अत: उनके द्वारा उक्त श्लोक में प्रयुक्त सिद्धि शब्द भी मोक्ष का वाचक नहीं है। इस प्रकार यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखिका एवं लेखक ने बृहत्कथाकोश को यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया है कि 'अणुव्रतधरः कश्चिद्' (क्र.५७ / ५६७ / पृ. ११९) इत्यादि श्लोक में सिद्धि शब्द मोक्ष का वाचक है, वह असत्य है। For Personal & Private Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २३ ३ सवस्त्रमुक्तिनिषेध यापनीयपक्ष 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने बृहत्कथाकोश में सवस्त्रमुक्ति का उल्लेख सिद्ध करने के लिए पृ. १६९ पर अशोक - रोहिणी - कथानक (क्र.५७) का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है ततः समस्तसङ्घस्य वस्त्रादिदानं च देयं बृहत्कथाकोश / ७४९ देहिभिर्भक्तितत्परैः। कर्मक्षयनिमित्ततः ॥ ५५४ ॥ अनुवाद - " मौनव्रत सम्पन्न होने पर उसका उद्यापन करने के लिए कर्मक्ष के प्रयोजन से समस्त संघ को वस्त्रादि का दान करना चाहिए । यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक के कथन का अभिप्राय यह है कि समस्त संघ मुनि भी आ जाते हैं, अतः मुनियों के लिए वस्त्रदान का उल्लेख होने से बृहत्कथाकोश में सवस्त्रमुक्ति अर्थात् स्थविरकल्प को मान्यता दी गई है। दिगम्बरपक्ष यहाँ भी मान्य ग्रन्थलेखक ने पूर्वापर कथनों पर ध्यान दिये बिना ही निर्णय घोषित कर दिया है। इसके पूर्व इसी अशोकरोहिणीकथानक ( क्र. ५७) में कहा गया है कि रोहिणी व्रत की समाप्ति पर चतुर्विध संघ को यथायोग्य आहार, औषधि और वस्त्रादि का दान करना चाहिए— पश्चादाहारदानं च भेषजं वसनादिकम् । चतुर्विधस्य सङ्घस्य यथायोग्यं विधीयते ॥ २३४॥ यहाँ यथायोग्य शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है । 'यथायोग्य' का अर्थ है जिसके लिए जिस वस्तु का दान योग्य है, उसे उस वस्तु का दान करना । इससे सारी बात स्पष्ट हो जाती है। वह यह कि चूँकि मुनि नग्न होते हैं ( श्रमणा नग्नरूपिणः ) १३ अतः उनके लिए केवल आहार, ओषधि, शास्त्र और अभय का दान देना चाहिए । तथा आर्यिका, श्रावक ( क्षुल्लक - एलक) और श्राविका ( क्षुल्लिका) वस्त्रधारण भी करते हैं, इसलिए उन्हें वस्त्रदान भी करना चाहिए। यह बात इसी अशोकरोहिणीकथानक में स्पष्ट की गई है १३. बृहत्कथाकोश / विष्णुकुमार- कथानक / क्र.११ / श्लोक ९ । For Personal & Private Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ पञ्चमीपुस्तकं दिव्यं पञ्चपुस्तकसंयुतम् । साधुभ्यो दीयते भक्त्या भेषजं च यथोचितम् ॥ ५३५ ॥ आहारदानमादेयं भक्तितोद्व भेषजादिकम् । वस्त्राणि चार्यिकादीनां दातव्यानि मुमुक्षिभिः ॥ ५३६ ॥ इस कथन में स्पष्ट कर दिया गया है कि रोहिणी व्रत की समाप्ति पर साधुओं को पाँच पुस्तकों सहित पञ्चमी पुस्तक तथा भेषज एवं आहारदान देना चाहिए और आर्यिकाओं को वस्त्रदान भी करना चाहिए । इससे सिद्ध है कि यापनीयपक्षी ग्रन्थ लेखक ने यथायोग्य शब्द और उसके उपर्युक्त स्पष्टीकरण पर ध्यान दिये बिना पूर्वोक्त श्लोक से जो यह निष्कर्ष निकाला है कि बृहत्कथाकोष में मुनियों के लिए वस्त्रदान का उल्लेख है, वह सर्वथा गलत है। सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण बृहत्कथाकोश में सवस्त्रमुक्तिनिषेध के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं। उन्हें नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। १. बृहत्कथाकोश में राजकुल और श्रेष्ठिकुल के पुरुषों को भी दैगम्बरी दीक्षा ही ग्रहण करते हुए वर्णित किया गया है। यापनीयमत के समान उच्चकुल के पुरुषों के लिए आपवादिक सवस्त्रलिंग का विधान उसमें कहीं भी नहीं मिलता। उदाहरणार्थ, नागपुर के नाग नामक राजा का पुत्र सोमदत्त दैगम्बरी मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता है । पश्चात् उसका पुत्र वैरकुमार भी उनसे दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन जाता है। इसका वर्णन वैरकुमारकथानक (क्र. १२) के निम्नलिखित श्लोकों में किया गया है अ० २३ अत्रान्तरे स्तुतिं भक्त्या विधाय करकुड्मलम् । तोषी वैरकुमारोऽपि सोमदत्तगुरुं जगौ॥ ७२॥ भगवन् देहि मे दीक्षां संसारार्णवतारिणीम् । आहत्रीं नाकसौख्यस्य मोक्षसौख्यस्य च क्रमात् ॥ ७३ ॥ श्रुत्वा वैरकुमारस्य भव्य सिंहस्य भारतीम्। ददौ दैगम्बरी दीक्षां सोमदत्तगुरुस्तदा ॥ ७४ ॥ नागदत्तमुनि - कथानक (क्र. २७) के अधोगत पद्यों में शूरदत्त राजा के द्वारा दैगम्बरी दीक्षा लिये जाने का कथन है For Personal & Private Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७५१ शूरदत्तनरेन्द्रोऽपि नागदत्तमुनीश्वरम्। सम्प्राप्य भक्तिसम्पन्नो ननाम कलनिस्वनः॥ ८३ ॥ पुनः पुनः प्रणम्येमं सामन्तैर्बहुभिः समम्। शूरदत्तोऽपि जग्राह दीक्षां दैगम्बरीमसौ॥ ८४॥ चट, चेट और पाण्ड्यराज द्वारा दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण किये जाने का वर्णन कर्कण्डमहाराज-कथानक (क्र.५६/पृ.१०१) के अधोलिखित श्लोक में है चटचेटौ समं वीरौ पाण्ड्यराजेन सत्वरम्। दीक्षां दैगम्बरी भव्यौ वीरसेनान्तिके दधौ॥ ४२६ ॥ यशोधर-चन्द्रमतीकथानक (क्र.७३) और गजकुमारकथानक (क्र.१३९) के निम्नलिखित पद्यों में भी राजाओं के द्वारा दैगम्बरी दीक्षा लिये जाने का कथन है यशोधरकुमाराय दत्त्वा राज्यश्रियं नृपः। अभिनन्दनसामीप्ये दीक्षां दैगम्बरीं दधौ॥ ६॥ यशोधर-चन्द्रमती-कथानक। ततः सुवासुनामानं समाहूय स्वनन्दनम्। ददावनन्तवीर्योऽयं निजराज्यमकण्टकम्॥ ३३॥ बाह्यमाभ्यन्तरं सङ्गं हित्वाऽनन्तबलस्तदा। दधौ सागरसेनान्ते दीक्षां दैगम्बरीमरम्॥ ३४॥ गजकुमारकथानक। खण्डश्रीकथानक (क्र.६५ / श्लोक ९०-९१) में राजा रुद्रदत्त के द्वारा तथा नागश्रीकथानक (क्र.६७/ श्लोक ४८-४९) में राजा भगदत्त के द्वारा भी दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण किये जोन का उल्लेख है। २. बृहत्कथाकोश में सर्वत्र नग्न मुनि को ही श्रमण कहा गया है, कहीं भी वस्त्रधारी के लिए 'श्रमण' संज्ञा का प्रयोग नहीं हुआ है। यथा 'श्रमणा नग्नरूपिणः।' विष्णुकुमारकथानक / क्र.११ / श्लोक ९। 'नग्नः श्रमणः।' नागदत्तमुनिकथानक/ क्र.२७ / श्लोक ७८ । 'नग्नश्रवणसामीप्यं' यमपाशकथानक /क्र.७४/श्लोक ३६ । 'नग्नश्रमणपार्वे हि।' यमपाशकथानक / क्र.७४ / श्लोक ४४। 'दर्शनेनास्य नग्नस्य।' धान्यकुमारमुनि-कथानक / क्र.१४१ / श्लोक ४८। For Personal & Private Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ ३. निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग भी नग्न मुनि के लिए ही हुआ है, यथा नारदपर्वतकथानक (क्र.७६) के निम्नलिखित श्लोक में सर्वग्रन्थपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहः। निर्ग्रन्थो नग्नतां प्राप्तो भिक्षां भ्रमति सर्वदा॥ २०७॥ यहाँ यह भी ध्वनित किया गया है कि नग्नता स्वीकार न करना देह में स्पृहा (राग) होने का लक्षण है। ४. हरिषेण ने दिगम्बर शब्द का प्रयोग मुनि के पर्यायवाची के रूप में किया है, जिससे स्पष्ट है कि कोई भी वस्त्रधारी उनकी दृष्टि में 'मुनि' संज्ञा का पात्र नहीं है। सोमशर्म-वारिषेण-कथानक (क्र.१०) का निम्न पद्य द्रष्टव्य है स्तुत्वा वीरं यथायोग्यं सकलांश्च दिगम्बरान्। वारिषेणोऽमुना सार्धं स्वस्थाने समुपाविशत्॥ ४७॥ अनुवाद-"भगवान् महावीर और सकल (समस्त) दिगम्बरों (नग्न मुनियों) की स्तुति करके वारिषेण सोमशर्मा के साथ अपने स्थान पर बैठ गये।" वासुदेवकथानक (क्र.२९) का अधोलिखित पद्य भी इसका एक उदाहरण है नेमिनाथनुतिं कृत्वा सकलांश्च दिगम्बरान्। वन्दित्वाऽयं सुखं तस्थौ वासुदेवः सवैद्यकः॥ १२॥ अनुवाद-"भगवान् नेमिनाथ की स्तुति तथा सकल दिगम्बरों की वन्दना करके वासुदेव, वैद्य के साथ सुखपूर्वक आसीन हो गये। ___ यहाँ सकलांश्च दिगम्बरान् उक्तियों से यह भी ध्वनित होता है कि हरिषेण की मान्यतानुसार भगवान् नेमिनाथ और महावीर के समवसरण में केवल दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व था, अपवादलिंगी सवस्त्र मुनियों (स्थविरकल्पियों) का नहीं। यदि हरिषेण यापनीय होते, तो सकल मुनियों में दिगम्बरों के साथ स्थविरों का भी उल्लेख करते हुए उन्हें भी नमस्कार किये जाने का वर्णन करते। ऐसा नहीं किया, इससे स्पष्ट है कि वे यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे। ५. बृहत्कथाकोश में दैगम्बरी दीक्षा को ही संसाररूपी समुद्र को पार करानेवाली तथा कर्मों का नाश करनेवाली कहा गया हैददौ दैगम्बरी दीक्षां संसारार्णवतारिणीम्। पद्मरथनृप-कथानक / क्र.५९/श्लोक ३२। दधौ दैगम्बरीं दीक्षां संसारार्णवतारिणीम्। मयूरकथानक / क्र.१०२-१० / श्लोक २९। For Personal & Private Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७५३ दीक्षां दैगम्बरीं चास्मै दीयतां कर्मनाशिनीम्। सोमदत्त-विधुच्चौर-कथानक / क्र. ४ / श्लोक ६३। ददौ दैगम्बरीं दीक्षां हतयेऽखिलकर्मणाम्। सोमदत्त-विधुच्चौर-कथानक / क्र.४/श्लोक ६८। ६. वस्त्रधारण करने को मुक्ति में बाधक बतलाया गया है। बृहत्कथाकोश के भद्रबाहुकथानक (१३१) में वर्णन है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय जो मुनिसंघ रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और भद्राचार्य के नेतृत्व में सिन्धुदेश चला गया था, उसने भिक्षाग्रहण के समय होनेवाले उपद्रवों से बचने के लिए अर्धफालक (नग्नता को छिपाने के लिए बायें हाथ पर लटकाया गया अर्धवस्त्र) ग्रहण कर लिया था और मुनि भिक्षापात्र भी पास में रखने लगे थे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर जब वे लौटे तब रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और भद्राचार्य ने संघ के मुनियों से कहा कि अब हमें मोक्ष प्राप्त करने के लिए अर्धफालक त्यागकर निर्ग्रन्थरूप धारण कर लेना चाहिए। उनके वचन सुनकर अनेक मुनियों ने अर्धफालक त्यागकर निर्ग्रन्थरूप धारण कर लिया। रामिल्ल आदि तीनों ने भी संसार से भयभीत होकर निर्ग्रन्थरूप ग्रहण कर लिया, किन्तु जिन अज्ञानी, कायर और शक्तिहीन मुनियों को गुरुओं के ये संसारसमुद्र से पार लगानेवाले वचन नहीं रुचे, उन्होंने अपने मन से जिनकल्प (अचेललिंग) और स्थविरकल्प (सचेललिंग) इन दो प्रकार के मोक्षमार्गों की कल्पना कर अर्धफालक सम्प्रदाय चला दिया। देखिए हरिषेण के भद्रबाहुकथानकगत ये वचन रामिल्ल-स्थविर-स्थूलभद्राचार्याः स्वसाधुभिः। आहूय सकलं सङ्घमित्थमूचुः परस्परम्॥ ६२॥ हित्वाऽर्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः। निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये॥ ६३॥ श्रुत्वा तद्वचनं सारं मोक्षावाप्तिफलप्रदम्। दधुर्निर्ग्रन्थतां केचिन्मुक्तिलालसचेतसः॥ ६४॥ रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्यसम्पन्ना विशाखाचार्यमाययुः॥ ६५॥ त्यक्त्वाऽर्धकर्पटं सद्यः संसारात्रस्तमानसाः। नैर्ग्रन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः॥ ६६॥ इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम्। जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि॥ ६७॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ अर्धफालक-संयुक्तमज्ञात-परमार्थकै:। ' तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः॥ ६८॥ इन श्लोकों में हरिषेण ने तीन महत्त्वपूर्ण बातें कहीं हैंक-वस्त्रधारण करना मोक्ष-प्राप्ति में बाधक है। ख-मोक्ष की प्राप्ति निर्ग्रन्थ (नग्न) वेश से ही सम्भव है। ग- जिनकल्प और स्थविरकल्प, मोक्षमार्ग के ये दो भेद अथवा मुनियों के दो लिंग भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नहीं हैं, अपितु द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय ग्रहण किये गये अर्धफालक को छोड़ने में जो असमर्थ थे, उन शिथिलाचारी, देहसुखाकांक्षी, परीषहभीरु साधुओं ने अपने मन से कल्पित किये थे। भगवान् महावीर ने तो मुनियों के लिए एक मात्र निर्ग्रन्थ (नग्न) लिंग का ही उपदेश दिया था। . ये तीन मान्यताएँ हरिषेण की सवस्त्रमुक्ति-विरोधी विचारधारा को एकदम स्पष्ट कर देती हैं। सवस्त्रमुक्तिनिषेध से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वे स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के भी विरोधी हैं। ७. 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने यापनीयग्रन्थ के लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए बतलाया है कि जिस ग्रन्थ में क्षुल्लक को गृहस्थ न मानकर अपवादलिंगधारी मुनि कहा गया हो, उसे यापनीयग्रन्थ मानना चाहिए। (पृ.८२)। इस लक्षण के अनुसार भी बृहत्कथाकोश यापनीयमतविरोधी सिद्ध होता है, क्योंकि उसमें क्षुल्लक को श्रावक कहा गया है। एक रुद्रदत्त नामक ब्राह्मण युवक जिनदास श्रेष्ठी की रूपवती कन्या के साथ विवाह करने के लिए क्षुल्लक का कपटवेश धारण कर लेता है और चैत्यगृह में जाकर ठहर जाता है। वहाँ जिनदास उसे देखता है और पूछता है कि हे स्वामी! आपने यह ब्रह्मचर्यव्रत क्या जीवनपर्यन्त के लिए लिया है? क्षुल्लक कहता है-"जीवनपर्यन्त के लिए नहीं लिया।" तब जिनदास कहता है कि "यदि आपने जीवनपर्यन्त के लिये ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण नहीं किया है, तो मैं अपनी रूपवती कन्या आप सम्यग्दृष्टि श्रावक को देना चाहता हूँ। यदि आप चाहें तो उसका पाणिग्रहण करें।" यह वार्तालाप बृहत्कथाकोशगत खण्डश्री-कथानक (क्र.६५) के निम्नलिखित श्लोकों में निबद्ध है किं त्वया क्षुल्लक स्वामिन्! ब्रह्मचर्यमिदं धृतम्। सर्वकालं न वा ब्रूहि साम्प्रतं मम निश्चितम्॥ ३७॥ जिनदासवचः श्रुत्वा क्षुल्लको निजगाद तम्। ब्रह्मचर्यमिदं श्रेष्ठिन् सर्वकालं न मे धृतम्॥ ३८॥ For Personal & Private Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७५५ अवाचि जिनदासेन रुद्रदत्तः कुतूहलात्। गृहीतं सर्वकालं नो ब्रह्मचर्यं यदि त्वया॥ ४०॥ विद्यते मद्गृहे कन्या ब्राह्मणी रूपशालिनी। मिथ्यादर्शनयुक्तेभ्यो न दत्ता सा मया सती॥ ४१॥ सम्यग्दर्शनयुक्तस्य श्रावकस्य ददामि । ते। यदीच्छा विद्यते तस्यास्ततः पाणिग्रहं कुरु॥ ४२ ॥ यद्यपि एक क्षुल्लक का आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण न करना जिनागम के विरुद्ध है, तथापि रुद्रदत्त नामक ब्राह्मण युवक क्षुल्लक का कपटवेश धारण करता है और जिनदास श्रेष्ठी उस क्षुल्लक को श्रावक की श्रेणी में परिगणित करता है, यह ध्यान देने योग्य है। जिनदास श्रेष्ठी दिगम्बरपरम्परानुसार उक्त क्षुल्लक को मुनियों के योग्य नमोऽस्तु निवेदित न कर श्रावकों के योग्य इच्छाकार निवेदित करता है। खण्डश्रीकथानक (क्र. ६५) का यह श्लोक द्रष्टव्य है विलोक्य क्षुल्लकं श्रेष्ठी चैत्यगेहे व्यवस्थितम्। इच्छाकारं विधायास्य पप्रच्छेति स तोषतः॥ २५॥ विद्युल्लतादिकथानक (क्र.७०) में भी क्षुल्लक को इच्छाकार किये जाने का वर्णन है दृष्ट्वा तं क्षुल्लकं तेन धर्मवात्सल्यकारणात्। श्रेष्ठिना सङ्ग्रहीतोऽसाविच्छाकारं प्रकुर्वता॥ ८६ ॥ यशोधर-चन्द्रमतीकथानक (क्र.७३) के पूर्वोद्धृत 'युवां सुकुमाराङ्गा' इत्यादि श्लोकत्रय (२३७, २३८,२९९) में वर्णन है कि वैराग्य को प्राप्त दो राजकुमार मुनिमहाराज से मुनिदीक्षा की प्रार्थना करते हैं, किन्तु मुनिराज उनसे कहते हैं कि अभी तुम्हारा शरीर सुकुमार है, उसे परीषह सहने का अभ्यास नहीं है। अतः तुम्हारे लिए मुनिव्रत का पालन दुष्कर है। अभी तुम्हें क्षुल्लकधर्म का अभ्यास करना चाहिए। आगे चलकर मैं तुम दोनों को दिगम्बरधर्म प्रदान करूँगा। वे दोनों क्षुल्लक बन जाते हैं और बाद में क्षुल्लकधर्म का परित्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि हरिषेण ने क्षुल्लक को मुनितुल्य एवं मोक्ष के योग्य नहीं माना है, उसे श्रावक की श्रेणी में ही परिगणित किया है और स्पष्ट किया है कि क्षुल्लक का पद त्याग कर दिगम्बरमुनि दीक्षा लेने पर ही मोक्ष संभव है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ "उन दोनों क्षल्लकों ने क्षल्लक-धर्म त्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली" (देखिये, शीर्षक २/ अनुच्छेद ३)। इस कथन से तो एकदम स्पष्ट हो जाता है कि हरिषेण के अनुसार क्षुल्लक और मुनि अलग-अलग श्रेणी के साधक हैं। क्षुल्लक का पद मुनिपद से हीन है और मुनि से हीन पद श्रावक का ही होता है। हरिषेण की दृष्टि में क्षुल्लक किसी को मुनिदीक्षा देने के योग्य नहीं होता। यशोधर-चन्द्रमतीकथानक (क्र.७३) में राजा मारिदत्त एक क्षुल्लक से मुनिदीक्षा की प्रार्थना करता है, किन्तु क्षुल्लक कहता है कि मैं तुम्हें दीक्षा देने में समर्थ नहीं हूँ, हमारे गुरु ही तुम्हें मुनिदीक्षा दे सकते हैं। १४ यह सुनकर राजा सोचता है कि सारी प्रजा मेरे चरणों का आश्रय लेती है, मैं देवताओं के चरणों का आश्रय लेता हूँ , देवता क्षुल्लक के चरणों का अवलम्बन करते हैं और क्षुल्लक मुनि के चरणों की शरण लेते हैं। अहो! मुनि का पद कितना महान् है! राजा, सुदत्तमुनि के पास जाकर मुनिदीक्षा ले लेता है। (यशो. चन्द्र. कथा./ क्र.७३/श्लोक २८७-२९८)। इससे भी सिद्ध है कि हरिषेण क्षुल्लक को उत्कृष्ट श्रावक की ही श्रेणी में रखते हैं। __इसके अतिरिक्त उपर्युक्त कथानक में पहले मुनि को नमस्कार किये जाने का वर्णन है, पश्चात् क्षुल्लकों को-"ततो नत्वा मुनिं भक्त्या तदा क्षुल्लकयुग्मकम्।" (श्लोक २५१)। यह भी मुनि और क्षुल्लक में महान् भेद स्वीकार किये जाने का प्रमाण है। स्त्रियों में क्षुल्लिका और आर्यिका इन दो पदों का वर्णन किया गया है, जिनमें क्षुल्लिका आर्यिका से हीन मानी गई है। यह भी क्षुल्लक ओर क्षुल्लिका दोनों को श्रावकश्रेणी में मान्य किये जाने का सबूत है। आर्यिका को यद्यपि उपचारमहाव्रती होने से क्षुल्लिका से उच्च पद दिया गया है, तथापि हरिषेण दिगम्बर (नग्न) मुनि को ही मोक्ष का पात्र मानते हैं। इससे सिद्ध है कि उनकी दृष्टि में आर्यिका का पद मुनिपद से निम्न है। १४. देहि मे क्षुल्लक स्वामिन्! प्रव्रज्यां भवनाशिनीम्। येनाहं त्वत्प्रसादेन करोमि हितमात्मनः॥ २८४॥ मारिदत्तोदितं श्रुत्वा क्षुल्लकोऽपि जगाद तम्। दातुं ते न समर्थोऽहं दीक्षामुत्तिष्ठ भूपते ॥ २८५॥ अस्माकं गुरवः सन्ति कीर्तिच्छन्नदिगन्तराः। ते समर्थास्तपो दातुं भवतो ज्ञानिनोऽमलाः॥ २८६॥ यशोधर-चन्द्रमती-कथानक। २५. क- अभयादिमतिर्भक्त्या जग्राह क्षौल्लकं व्रतम्॥ २४०॥ यशोधर-चन्द्रमती-कथानक। . ख- धर्मश्रियोऽर्यिकाया हि धर्मविन्यस्तचेतसः। ततः समाधिगुप्तेन क्षुल्लिकेयं समर्पिता॥ २८॥ लक्ष्मीमती-कथानक / क्र.१०८। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कथाकोश / ७५७ अ० २३ इस तरह बृहत्कथाकोश में क्षुल्लक को श्रावक की श्रेणी में परिगणित किया जाना भी इस बात का प्रमाण है कि हरिषेण सवस्त्रलिंग को मुनि का अपवादलिंग नहीं मानते, अपितु श्रावक का लिंग मानते हैं, अतः वे यापनीय- आचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। ८. हरिषेण ने सवस्त्रदीक्षा का विधान केवल श्रावकों (श्रावक-श्राविकाओं, क्षुल्लकक्षुल्लिकाओं) और आर्यिकाओं के लिए बतलाया है। दीक्षा धारण करनेवालों में कहीं भी सवस्त्र मुनियों या स्थविरकल्पियों का उल्लेख नहीं है। नागश्रीकथानक ( क्र. ६७) के निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य हैं अन्योऽपि भूपसङ्घातो भोगनि:स्पृहमानसः। दधौ दैगम्बरीं दीक्षां धर्मसेनान्तिके मुदा ॥ ४९ ॥ केचित् सम्यक्त्वपूर्वाणि व्रतान्यादाय भक्तितः । अणूनि श्रावका जाता जिनधर्मपरायणाः ॥ ५० ॥ मुण्डिताद्यबलाः सद्यो महावैराग्यसङ्गताः । ऋषभ श्रीसमीपे हि बभूवुरर्जिकाः पराः ॥ ५१॥ ९. वस्त्रदान केवल आर्यिकाओं के लिए बतलाया गया है, मुनियों के लिये आहारदान, ओषधिदान एवं शास्त्रदान इन तीन दानों का ही उल्लेख है । अशोक - रोहिणीकथानक (क्र.५७ ) के ये पद्य साक्षी हैं पञ्चमीपुस्तकं दिव्यं पञ्चपुस्तकसंयुतम् । साधुभ्यो दीयते भक्त्या भेषजं च यथोचितम् ॥ ५३५ ॥ आहारदानमादेयं भक्तितो भेषजादिकम् । वस्त्राणि चार्यिकादीनां दातव्यानि मुमुक्षिभिः ॥ ५३६ ॥ १०. बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करनेवालों को ही श्रमण या मुनि कहा गया है केचित् परिग्रहं हित्वा महाव्रतधरा धीरा बभूवुः बाह्याभ्यन्तरभेदगम् । श्रमणास्तदा ॥ ४० ॥ केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचित्सम्यक्त्वतोषिणः । केचित्प्रशंसनं कुर्युः जिननाथस्य शासने ॥ ४१ ॥ For Personal & Private Use Only श्रेणिकनृप - कथानक / क्र. ९ । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ यापनीयपक्ष बाह्यमाभ्यन्तरं सङ्गं हित्वा सर्वं विशुद्धधीः । जग्राह श्रीधराभ्याशे शुभ्रकीर्तिनृपस्तपः ॥ ४४८ ॥ अशोक - रोहिणी - कथानक / क्र.५७ । हित्वाऽनन्तबलस्तदा । दैगम्बरीमरम् ॥ ३४॥ बाह्यमाभ्यन्तरं सङ्गं दधौ सागरसेनान्ते दीक्षां इन दस प्रमाणों से सिद्ध है कि बृहत्कथाकोश में सवस्त्रमुक्ति का निषेध अनेक द्वारों से किया गया है और केवल दैगम्बरी दीक्षा ही मोक्ष का मार्ग बतलायी गयी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हरिषेण सवस्त्र अपवादलिंगधारी स्थविरकल्पी मुनियों, स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों, इन सभी की मुक्ति के विरोधी हैं, क्योंकि ये सभी वस्त्रधारी होते हैं । अ० २३ ४ भगवती आराधना दिगम्बरग्रन्थ गजकुमार- कथानक / क्र. १३९ । यापनीयपक्षधर ग्रन्थद्वय के लेखक-लेखिका ने बृहत्कथाकोश को यापनीय ग्रन्थ मानने के पक्ष में एक हेतु यह बतलाया है कि इसकी कथाएँ भगवती - आराधना पर आधारित हैं और भगवती - आराधना यापनीयमत का ग्रन्थ है, इसलिए बृहत्कथाकोश भी यापनीयग्रन्थ है। (या. औ. उ. सा. / पृ. १५२, जै. ध. या. स. / पृ. १६५) । दिगम्बरपक्ष यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि भगवती आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। इसलिए बृहत्कथाकोश को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु मिथ्या है।. ५ पुन्नाटसंघ : दिगम्बरसंघ यापनीयपक्ष ‘जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक का कथन है कि हरिषेण पुन्नाटसंघीय थे और पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुई थी, अतः हरिषेण यापनीय थे । (पृ.१६६ ) । ' यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ की लेखिका लिखती हैं कि बृहत्कथाकोश में स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति जैसे सिद्धान्तों का समर्थन पुन्नाटसंघ के यापनीय होने का प्रबल प्रमाण है । (पृ.१५३)। For Personal & Private Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७५९ दिगम्बरपक्ष पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुई थी, यह मान्यता सर्वथा कपोलकल्पित है। 'पुन्नाट' कर्नाटक का प्राचीन नाम था। उसी के आधार पर पुन्नाट के दिगम्बर जैन मुनियों का संघ 'पुन्नाटसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। इसका प्रतिपादन 'हरिवंशपुराण' के अध्याय (२१) में किया जा चुका है। 'बृहत्कथाकोश' में स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि का समर्थन है, यह मान्यता भी नितान्त असत्य है। उसमें स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि यापनीय-सिद्धान्तों का स्पष्ट शब्दों में निषेध है, इसके प्रचुर प्रमाण प्रस्तुत किये जा चुके हैं। 'हरिवंशपुराण' में भी इन यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। अतः इनके कर्ताओं का पुन्नाटसंघ यापनीयसंघ हो ही नहीं सकता। वह स्पष्टतः दिगम्बरसंघ था। दिगम्बर ग्रन्थ होने के अन्य प्रमाण १. बृहत्कथाकोश के रेवतीकथानक (क्र.७) में अन्यलिंगियों को कुतीर्थलिंगी कहा गया है।१६ यह अन्यलिंगीमुक्ति के निषेध का प्रमाण है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। ___. २. मुनियों के आहारदान की विधि पूर्णतः दिगम्बरमत के अनुसार बतलाई गई है। श्रीषेणमुनि आहारचर्या के लिए गृहों के सामने से निकलते हैं। शूरदेव उनका पड़गाहन (प्रतिग्रह) करता है, पवित्र स्थान में बैठालकर उनके चरणों को धोता है, पूजन करता है, 'नमोऽस्तु' करता है और मन, वचन, काय एवं आहार की शुद्धि निवेदित करता है। पश्चात् आहारदान करता है। मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं। आहारदान से शूरदेव के यहाँ पंचाश्चर्य होते हैं।१७ ३. बृहत्कथाकोश में महावीर के पूर्वभवों का दिगम्बरमतानुसार वर्णन किया गया है। श्वेताम्बरसाहित्य में महावीर के २६ पूर्वभवों का वर्णन है, और दिगम्बरग्रन्थों में ३२ का। श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार पहले भव में महावीर नयसार ग्रामचिन्तक थे,१८ जब कि दिगम्बरसाहित्य के अनुसार पुरूरवा भील। बृहत्कथाकोश में दिगम्बरमतानुसार पुरूरवाभील को ही महावीर के पूर्वभव का जीव बतलाया गया है,१९ अतः वह दिगम्बरग्रन्थ है। १६. सम्यग्दर्शनसम्पन्ना जिनोक्तमतसङ्गिनी। कुतीर्थलिङ्गि-पाषण्डचरित-च्युतमानसा॥ २७॥ १७. विद्युल्लतादिकथानक/क्र.७०/श्लोक ८-१२ तथा विष्णुश्रीकथानक/क्र.६६/श्लोक ६-१२,३७-४२ । १८. आचार्य हस्तीमल जी : जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भाग १/ पृ. ५४० । १९. मुनिवाक्यं समाकर्ण्य धर्मशीलपुरूरवा॥ ६॥ मरीचिकथानक / क्र.१११ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ भद्रबाहुकथानक में कोई भी अंश प्रक्षिप्त नहीं । यापनीयपक्ष - पूर्वनिर्दिष्ट यापनीयपक्षधर लेखक-लेखिका की मान्यता है कि सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में यापनीयमत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, केवल उसके भद्रबाहुकथानक (क्र.१३१) में जो शिथिलाचारी श्वेताम्बर साधुओं से यापनीयसंघ की उत्पत्ति बतलाई गई है, वह अंश प्रक्षिप्त है। श्रीमती पटोरिया लिखती हैं कि भद्रबाहुकथा अर्द्धफालकसम्प्रदाय से काम्बलतीर्थ (श्वेताम्बरसम्प्रदाय) की उत्पत्ति बताकर समाप्त हो जाती है। उसके बाद किसी यापनीयविरोधी व्यक्ति ने निम्नलिखित श्लोक जोड़ दिया है ततः कम्बलिकातीर्थान्नूनं सावलिपत्तने। दक्षिणापथदेशस्थे जातो यापनसङ्घकः॥ ८१॥२० अनुवाद-"उसके बाद उस काम्बलिक तीर्थ से दक्षिणापथदेश के सावलिपत्तन नगर में यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई।" दिगम्बरपक्ष भद्रबाहुकथानक (क्र.१३१) का यह अन्तिम श्लोक है। श्रीमती पटोरिया और डॉ० सागरमल जी ने सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में भद्रबाहुकथानक के केवल इसी श्लोक को यापनीयमतविरोधी माना है, शेष सम्पूर्णग्रन्थ को यापनीयमत-समर्थक, इसलिए इसे उन्होंने प्रक्षिप्त मान लिया है। किन्तु हम देख चुके हैं कि बृहत्कथाकोश का केवल यही श्लोक यापनीयमतविरोधी नहीं है, अपितु सम्पूर्ण ग्रन्थ यापनीयमतविरोधी सिद्धान्तों से भरा हुआ है। भद्रबाहुकथानक में भी केवल उक्त श्लोक यापनीयमतविरोधी नहीं है, उसमें तो शुरू से लेकर अन्त तक वर्णित प्रत्येक घटना और सिद्धान्त यापनीयमत-विरोधी है। देखिए १. भद्रबाहुकथानक में दिगम्बर आचार्यपरम्परा के चौथे श्रुतकेवली गोवर्धन को भद्रबाहु का गुरु कहा गया है-"गोवर्धनश्चतुर्थोऽसावाचतुर्दशपूर्विणाम्" (श्लोक ९)। यह यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, इसलिए उनके कर्ता श्वेताम्बराचार्य ही उनके लिए प्रमाण थे। श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार भद्रबाहु के गुरु आचार्य यशोभद्र थे। २०. यापनीय और उनका साहित्य/ पृ.१५३, जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/ पृ. १६९ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७६१ २. उक्त कथानक में भद्रबाहु के लिए दिगम्बरमान्यतानुसार श्रुतकेवली शब्द का प्रयोग किया गया है। "पूर्वोक्तपूर्विणां मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली---भद्रबाहुरयं बटुः" (श्लोक १२-१३)। यह भी यापनीयमत के अनुकूल नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा में श्रुतकेवली के लिए चतुर्दशपूर्वधर१ विशेषण का प्रयोग मिलता है। ३. भद्रबाहुकथानक में कहा गया है कि महावीर के संघ के सभी साधु निर्ग्रन्थ (नग्न) थे, कोई भी साधु सवस्त्र-अपवादलिंगधारी नहीं था। द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय जब निर्ग्रन्थसाधुओं का एक वर्ग सिन्धु देश चला गया, तब वहाँ की दुर्भिक्षकालीन उपद्रवात्मक परिस्थितियों के कारण अस्थायीरूप से अर्धफालक (नग्नता को छिपाने के लिए हाथ पर लटका कर रखा जानेवाला आधा वस्त्र) धारण करने लगा। यावन्न शोभनः कालो जायते साधवः स्फुटम्। तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम्॥ ५८॥ भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने॥ ५९॥ यह कथन भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयों की मान्यता है कि सवस्त्र अपवादलिंग भी भगवान् महावीर के द्वारा ही उपदिष्ट है। ४. उक्त कथानक में सवस्त्रता को कर्मबन्ध का कारण तथा निर्ग्रन्थता (नग्नता) को मुक्ति का हेतु प्रतिपादित करते हुए जिन मुनियों ने दुर्भिक्ष के समय अर्धफालक ग्रहण कर लिया था, उनसे उसका त्याग करने के लिए कहा जाता है हित्वार्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः। 'निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये॥ ६३॥ यह उपदेश भी यापनीयमत-विरोधी है, क्योंकि यापनीयमत में माना गया है कि सवस्त्र अपवादलिंगधारी साधु भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ५. कथानक में कहा गया है कि उपर्युक्त उपदेश से अनेक मुक्तिकामी साधुओं ने तो अर्धफालक त्याग दिया, किन्तु कुछ शिथिलाचारी, परीषहभीरु, अज्ञानी साधुओं ने उसे त्यागने से इनकार कर दिया और जिनकल्प एवं स्थविरकल्प ऐसे दो मोक्षमार्गों की कल्पना कर निर्ग्रन्थ (नग्न) परम्परा से विपरीत स्थविरकल्प नामक सवस्त्र मोक्षमार्ग प्रचलित कर दिया २१. क-मेधाविनौ भद्रबाहुसम्भूतविजयौ मुनी। चतुर्दशपूर्वधरौ तस्य शिष्यौ बभूवतुः॥ ६/३॥ परिशिष्टपर्व। ख-आचार्य हस्तीमलजी : जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भाग २/पृष्ठ ४१३। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम्। जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि॥ ६७॥ अर्धफालक - संयुक्तमज्ञात -परमार्थकैः। तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः॥ ६८॥ यह कथन तो यापनीयों के लिए अत्यन्त लज्जाजनक है। इसमें सवस्त्र अपवादलिंग नामक स्थविरकल्प को शिथिलाचारी, परीषहभीरु और परमार्थ के ज्ञान से शून्य अज्ञानियों द्वारा कल्पित बतलाया गया है, जबकि यापनीय उसे सर्वज्ञ महावीर द्वारा उपदिष्ट मानते थे। ६. कथानक में कहा गया है कि अर्धफालकधारी साधुओं ने सौराष्ट्रदेश की वलभीपुरी में राजा की आज्ञा से अर्धफालक त्यागकर ऋजुवस्त्र धारण कर लिया। तब से काम्बलतीर्थ (श्वेताम्बरसम्प्रदाय) प्रचलित हो गया। पश्चात् इस काम्बलसम्प्रदाय से दक्षिणभारत के सावालिपत्तन में यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई यदि निर्ग्रन्थतारूपं ग्रहीतुं नैव शक्नुथ। ततोऽर्धफालकं हित्वा स्वविडम्बनकारणम्॥ ७८॥ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीरं तपस्विनः। तिष्ठत प्रीतिचेतस्का मद्वाक्येन महीतले ॥७९॥ लाटानां प्रीतिचित्तानां ततस्तदिवसं प्रति। बभूव काम्बलं तीर्थं वप्रवादनृपाज्ञया॥८०॥ ततः कम्बलिकातीर्थान्नूनं सावलिपत्तने। दक्षिणापथदेशस्थे जातो यापनसङ्घकः॥ ८१॥ यह उल्लेख भी यापनीयों के लिए अपमानजनक है, क्योंकि इसमें उनकी उत्पत्ति एक ऐसे साधुवर्ग से बतलाई गई है जो राजा की आज्ञा से अपने लिंग (वेष) को बदल लेता है। इससे स्पष्ट होता है कि उनका लिंग सर्वज्ञोपदिष्ट नहीं था, अपितु राजा द्वारा आरोपित था, फलस्वरूप उन्होंने उसे कर्मक्षय के लिए नहीं, अपितु राजमान्यता और लोकमान्यता प्राप्त कर जीवननिर्वाह के लिए अपनाया था। अब यदि इस कथानक के अन्तिम श्लोक को प्रक्षिप्त मान भी लिया जाय, तो भी उपर्युक्त सभी उल्लेख यापनीयमत के घोरविरोधी हैं। और बृहत्कथाकोश के अन्य कथानकों में उपलब्ध स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का निषेध करनेवाले कथन तो यापनीयमत-विरोधी हैं ही। इस प्रकार सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। इसलिए भद्रबाहु-कथानक का अन्तिम श्लोक, जिसे प्रक्षिप्त मान लिया गया है, वह प्रक्षिप्त सिद्ध नहीं होता। उपर्युक्त यापनीयमत-विरोधी सात तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंश अध्याय छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी ___ इनके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने उपर्युक्त तीन ग्रन्थों को भी यापनीयाचार्यकृत घोषित किया है, किन्तु वे दिगम्बराचार्यों के द्वारा ही प्रणीत हैं, यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है छेदपिण्ड मुनि के दिगम्बरमान्य अट्ठाईस मूलगुणों का विधान उक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि "छेदपिण्ड अथवा छेदपिण्ड-प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में है और उसमें मूलतः आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण), विवेक, व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग), तप, छेद, मूल, परिहार एवं पारंचिक, इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का और उन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित अपराधों का अर्थात् पञ्चमहाव्रत, रात्रिभोजननिषेध, पञ्चसमियाँ, पाँच इन्द्रियों का निरोध, केशलोच, षडावश्यक, आचेल्य (नग्नता), अस्नान, अदन्तधावन, भूमिशयन, स्थितिभोजन, एकसमयभोजन, इन अट्ठाईस मूलगुणों और उनके उत्तरगुणों के उल्लंघनसम्बन्धी दोषों का विस्तृत विवेचन है।" (जै.ध.या.स./पृ.१४३)। मुनि के लिए इन २८ मूलगुणों के विधान से ही सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ असन्दिग्धरूप से दिगम्बराचार्य की कृति है, क्योंकि यापनीय-परम्परा में आचेलक्य (नग्नता) मुनियों का मूलगुण (आधारभूत या अनिवार्य गुण) नहीं माना गया है, उसके बिना भी इस परम्परा में मुनिपद की प्राप्ति एवं मुक्ति संभव बतलायी गयी है। यापनीय-परम्परा के उपलब्ध ग्रन्थ तीन ही हैं : स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण और शाकटायन-व्याकरण। इन तीनों के कर्ता पाल्यकीर्ति शाकटायन हैं। इनमें से किसी में भी मुनियों के लिए उपर्युक्त २८ मूलगुणों का विधान नहीं मिलता। अतः वे यापनीयमुनियों के मूलगुण सिद्ध नहीं होते। वस्तुतः जैसा कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने बार-बार कहा है, 'यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को ही Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ प्रमाण मानते थे,' अतः स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-आगमों में मुनियों के लिए जो २७ मूलगुण निर्धारित किये गये हैं, वे ही यापनीय-मुनियों के लिए भी प्रमाणभूत थे। इन २७ मूलगुणों में पाँच समितियाँ, छह आवश्यक, आचेलक्य, केशलोच, अस्नान, अदन्तधावन, क्षितिशयन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अठारह मूलगुण समाविष्ट नहीं हैं, जो 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में वर्णित हैं। इससे सिद्ध है कि यापनीयों के लिए अमान्य और दिगम्बरमान्य अट्ठाईस मूलगुणों का प्रतिपादन करनेवाला 'छेदपिण्ड' यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। अचेलव्रत भंग करने पर प्रायश्चित का विधान छेदपिण्ड में अचेलव्रत को भंग करने पर निम्नलिखित प्रायश्चित्त दिये जाने का नियम बतलाया गया है- .. उवसग्गदो अणारोगदो कारणवसेण दप्पादो। गिहि-अण्णतित्थ-लिंगग्गहणेणाचेलवदभंगे॥ १२४॥ जादे पायच्छित्तं खमणं छटुं कमेण संठाणं। मूलं पि य जणणादे दायव्वं एगवारम्मि॥ १२५॥ संस्कृत छाया उपसर्गतः अनारोगतः कारणवशेन दर्पतः। गृह्यन्यतीर्थलिङ्गग्रहणेन अचेलव्रतभङ्गे ॥ १२४॥ • जाते प्रायश्चित्तं क्षमणं षष्ठं क्रमेण संस्थानम्। मूलमपि च जनज्ञाते दातव्यं एकवारे॥ १२५ ॥ अनुवाद-"जो मुनि किसी के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर अथवा किसी रोग से ग्रस्त हो जाने पर अथवा दर्प के कारण गृहस्थ का अथवा अन्यतीर्थिक (अन्यधर्मावलम्बी) का लिंग (वेश) ग्रहणकर अचेलव्रत का भंग करता है, उसे क्रमशः खमण (उपवास)२ षष्ठ (छह भुक्तियों का त्याग-मूलाचार/गा.८१२) तथा मूल नामक प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए।" १. देखिये, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'मूलाचार' अध्याय। २. क- "खमणे वा--- क्षपणे वानशने।" तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार / ३ / १५ । ख- "खमण (क्षपण, क्षमण) = उपवास।" पाइअ-सद्द-महण्णवो। ३. आलोयण पडिकमणो उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो। तव परियायच्छेदो मूलं परिहार सद्दहणा॥ १७४ ॥ एवं · दसविध समए पायच्छित्तं रिसीगणे भणियं। तं केरिसेसु दोसेसु जायदे इदि पयासेमो॥ १७५ ॥ छेदपिण्ड। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७६७ ऐसे ही प्रायश्चित्त का विधान छेदपिण्ड की निम्नलिखित गाथाओं में भी किया गया है एगवराडय-कागिणि -पणचेलाइं पमाददोसेण। अप्पं परिग्गहं जो गेहदि णिग्गंथवदधारी॥ ६१॥ आलोयणा य काउस्सग्गो खमणं च णियमसंजुत्तं। सपडिक्कमणुववासो कमसो छेदो इमो तस्स॥ ६२॥ अनुवाद-"जो निर्ग्रन्थव्रतधारी प्रमादवश एक बड़ी कौड़ी, छोटी कौड़ी या पाँच प्रकार के वस्त्रों (अंडज = कोशज, बोंडज कसज, वक्कजवल्कज, रोमज तथा चम्मज= चर्मज) में से किसी भी वस्त्र का अल्पपरिग्रह भी ग्रहण करता है, वह आलोचना, कायोत्सर्ग, नियमयुक्त उपवास तथा सप्रतिक्रमण उपवास का पात्र है।" इस प्रकार 'छेदपिण्ड' में किसी रोग के होने पर भी मुनि का वस्त्रग्रहण आचेलक्यमूलगुण या अपरिग्रहमहाव्रत के भंग का कारण होने से प्रायश्चित्त के योग्य माना गया है, जब कि यापनीयसम्प्रदाय में लज्जा या शीतादि के सहन में असमर्थ होने पर भी वस्त्रग्रहण की छूट है। इससे सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। यापनीयपक्ष-समर्थक हेतुओं का निरसन डॉ० सागरमल जी ने छेदपिण्ड को यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में जो हेतु विन्यस्त किये हैं, उनका निरसन नीचे किया जा रहा है। 'हेतु' यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे और 'निसरन' दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे प्रस्तुत है। दिन दिगम्बरग्रन्थों में भी 'श्रमणी' का उल्लेख यापनीयपक्ष 'छेदपिण्ड' में श्रमणी का स्पष्ट उल्लेख है और इसमें श्रमणियों के लिए वे ही प्रायश्चित्त हैं, जो श्रमणों के लिए हैं। श्रमणियों के लिए मात्र पर्यायछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है। श्रमणों और श्रमणियों की इस समानता का प्रतिपादन छेदपिण्ड के यापनीयग्रन्थ होने का सूचक है। (जै.ध.या.स.(पृ.१४४)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , अ०२४ ७६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ . दिगम्बरपक्ष - यह हेतु समीचीन नहीं है, यह साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, क्योंकि 'श्रमणी', 'संयती' और 'विरती' शब्दों का प्रयोग दिगम्बरग्रन्थों में भी किया गया है। तथा श्रमणियों के लिए जो पर्यायछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है, उससे सिद्ध होता है कि 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में श्रमणियों को साधना की दृष्टि से श्रमणों के तुल्य स्वीकार नहीं किया गया है। यह उनके तद्भवमुक्ति-योग्य न होने की घोषणा है। २ काणूगण दिगम्बरसंघ का गण यापनीयपक्ष कन्नड़ कवि जन्न (१२१९ ई०) के अनन्तनाथपुराण के 'वंद्यर जटासिंह णंद्याचार्यादीन्द्रणंद्याचार्यादि मुनिकाणूर्ग णंद्यपृथिवियोलगेल्लं' (१/७) इस श्लोक में जटासिंहनन्दी (वरांगचरितकर्ता) और इन्द्रनन्दी को काणूगण का बतलाया गया है। 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने काणूगण को यापनीयसंघ का गण मानकर उक्त दोनों ग्रन्थकारों को यापनीयसंघ से सम्बद्ध माना है और काणूगण के उक्त इन्द्रनन्दी को 'छेदपिण्ड' का कर्ता बतलाकर उसे यापनीयग्रन्थ प्ररूपित किया है। (जै.ध. या. स./पृ. १४५)। दिगम्बरपक्ष प्रस्तुत ग्रन्थ के 'वरांगचरित' अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि 'वरांगचरित' के कर्ता जटासिंहनन्दी दिगम्बर थे, इसलिए उनका काणूगण भी दिगम्बरसंघ से सम्बद्ध था। इसके अतिरिक्त यापनीयसंघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय (प्र.३ / शी.४) में भी सप्रमाण दर्शाया जा चुका है कि काणूगण दिगम्बरसंघ के ही अन्तर्गत था, न कि यापनीयसंघ के। यापनीयसंघ के अन्तर्गत 'कण्डूगण' था। यापनीयपक्षधर ग्रन्थकारों ने भ्रान्तिवश दोनों को एक मान लिया है। यतः काणूगण दिगम्बरसंघ का गण था, अतः उक्त गण से सम्बद्ध इन्द्रनन्दी भी दिगम्बर थे। इसलिए उनके द्वारा रचित 'छेदपिण्ड' दिगम्बरग्रन्थ ही है, यह स्वत:सिद्ध होता है। ४. देखिए, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'मूलाचार' नामक पञ्चदश अध्याय। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७६९ रविषेण दिगम्बराचार्य हैं यापनीयपक्ष ___ रविषेण ने 'पद्मचरित' में अपनी गुरुपरम्परा में इन्द्र, दिवाकरयति, अर्हन्मुनि और लक्ष्मणसेन के नामों का उल्लेख किया है। रविषेण यापनीय थे, इसलिए उनके गुरु 'छेदपिण्डकर्ता' इन्द्र का भी यापनीय होना स्वाभाविक है। (जै. ध. या. स./पृ. १४५)। दिगम्बरपक्ष रविषेण दिगम्बराचार्य थे, यह १९वें अध्याय में प्रमाणित किया जा चुका है। अतः यदि उनके गुरुओं के गुरु इन्द्र 'छेदपिण्ड' के कर्ता थे, तो उनका भी दिगम्बर होना सुनिश्चित है। इस प्रकार भी 'छेदपिण्ड' दिगम्बराचार्यकृत ही सिद्ध होता है। छेदपिण्ड के कर्ता इन्द्र यापनीय नहीं यापनीयपक्ष यापनीयसंघी पाल्यकीर्ति शाकटायन ने अपने सूत्रपाठ में इन्द्र का उल्लेख किया है। पाल्यकीर्ति यापनीय थे, अत: उनके गुरु इन्द्र भी यापनीय रहे होंगे। (जै.ध.या.स./ पृ.१४५)। दिगम्बरपक्ष ये यापनीय हो सकते हैं, किन्तु 'छेदपिण्ड' के कर्ता नहीं, क्योंकि उसमें मुनियों के दिगम्बरसम्मत २८ मूलगुणों का वर्णन है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। गोम्मटसार के कर्ता के गुरु इन्द्रनन्दी दिगम्बर यापनीयपक्ष गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्मकाण्ड की गाथा क्र० ७८५ में इन्द्रनन्दी गुरु को नमस्कार किया है। संभवतः ये ही यापनीयसंघी और छेदपिण्ड के कर्ता थे। (जै. ध. या. स./पृ. १४८)। दिगम्बरपक्ष गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने जिन इन्द्रनन्दी गुरु को प्रणाम किया है, यदि उन्हें 'छेदपिण्ड' का कर्ता स्वीकार किया जाय, तो वे यापनीय किसी भी For Personal & Private Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २४ हालत में सिद्ध नहीं होते, क्योंकि दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द्र का एक जैनाभासी (मिथ्यादृष्टि) को नमस्कार करना कभी भी संभव नहीं है। वस्तुतः कोई भी इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड के कर्ता हों, पर वे यापनीय नहीं हो सकते, क्योंकि छेदपिण्ड में मुनि के जिन २८ मूलगुणों का वर्णन है, वे यापनीय और श्वेताम्बर मतों के विरुद्ध हैं, केवल दिगम्बरमतानुरूप हैं। श्वेतपट श्रमणों का पाषण्डरूप में उल्लेख 'छेदपिण्ड' की २८वीं गाथा में भागवतों, कापालिकों आदि के साथ श्वेतपटश्रमणों का भी पाषण्ड (मिथ्याधर्म-प्ररूपक) के रूप में उल्लेख है। यह बात 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के कर्ता ने भी स्वीकार की है। (पृ.१५३)। अतः उसका यापनीयग्रन्थ होना असंभव है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों के अनुयायी थे और जिस परम्परा के आगमों को प्रमाण मानते थे, उसी परम्परा के श्रमणों को वे पाषण्ड के रूप में वर्णित नहीं कर सकते थे। 'कल्पव्यवहार' आदि ग्रन्थ दिगम्बरपरम्परा में भी यापनीयपक्ष छेदपिण्ड में अनेक स्थलों पर कल्पव्यवहार का निर्देश है। इस श्वेताम्बरीयग्रन्थ के अनुसरण से सिद्ध है कि छेदपिण्ड यापनीयकृति है। (जै.ध.या.स./१५२) दिगम्बरपक्ष 'छेदपिण्ड' में जिस 'कल्पव्यवहार' ग्रन्थ का उल्लेख है, वह श्वेताम्बरीय ग्रन्थ नहीं है, अपितु तन्नामक दिगम्बरग्रन्थ ही है, क्योंकि जिन श्वेतपटश्रमणों को 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में पाषण्ड संज्ञा दी गई हो, उन्हीं श्रमणों को मान्य ग्रन्थों से किसी भी सामग्री का ग्रहण किया जाना संभव नहीं है। दिगम्बर-परम्परा अंगप्रविष्ट श्रुत का विच्छेद मानती है, अंगबाह्य का नहीं। कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, प्रतिक्रमण आदि ग्रन्थ अंगबाह्यश्रुत के अन्तर्गत हैं, जिनका उल्लेख दिगम्बरग्रन्थों में भी है।६ अतः उनका ५. सेवडय-भगववंदग-कावालिय-भोयपमुह-पासंडा। जदि संजदस्स कस्स वि उवरि विवादादिहेदूहिं॥ २८॥ छेदपिण्ड। (प्रायश्चित्तसंग्रह / माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला/आषाढ़, वि.सं.१९७८ में संगृहीत)। ६. देखिये, धवला/ ष.ख./ पु.१/१,१,२/ पृ.९७ एवं तत्त्वार्थवृत्ति १/२० / पृ. ६७ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७१ अस्तित्व दिगम्बर - परम्परा में रहा है। इनमें से कुछ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, यह अन्य बात है । मूलाचार, भगवती - आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में भी कल्पव्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों के नाम मिलते हैं, तथापि वे (मूलाचार, भगवती - आराधना आदि) न तो यापनीयग्रन्थ हैं, न श्वेताम्बरीय, अपितु शत-प्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ हैं, यह उन ग्रन्थों के अध्यायों में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इसी प्रकार 'छेदपिण्ड' भी उक्त ग्रन्थों के उल्लेख से यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, अपितु मुनियों के यापनीयपरम्परा-विरुद्ध एवं दिगम्बर - परम्परासम्मत २८ मूलगुणों का प्रतिपादन करने से दिगम्बरग्रन्थ ही सिद्ध होता है । ८ छेदपिण्ड 'मूलाचार' आदि दिगम्बरग्रन्थों की परम्परा का यापनीयपक्ष "छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त' (छेदपिण्ड) की गाथा १७४ और 'मूलाचार' (आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा सम्पादित) की गाथा ३६२ में विचारगत ही नहीं, शब्दगत समानता भी है। ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर - परम्परा के पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख करते हैं। इस प्रकार छेदपिण्ड और मूलाचार दोनों की परम्परा समान प्रतीत होती है |--- चूँकि मूलाचार यापनीय - परम्परा का ग्रन्थ है, यह सिद्ध ही है, अतः इसके आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त ग्रन्थ भी यापनीय - परम्परा का रहा होगा ।" (जै. ध. या.स./ पृ. १५१ ) । - - - इसमें मूलगुणों और भोजन के अन्तरायों के जो उल्लेख हैं, वे इसे मूलाचार और भगवती आराधना की परम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध करते हैं। अतः इसका यापनीय - कृति होना सुनिश्चित है। (जै. ध. या. स. / पृ. १५३) । दिगम्बरपक्ष इस कथन में ग्रन्थलेखक ने 'छेदपिण्ड' या 'छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त' को मूलाचार और भगवती-अ - आराधना की परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध किया है। इस तरह उनकी ही लेखनी सिद्ध कर देती है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बर- परम्परा का ही ग्रन्थ है, क्योंकि मूलाचार और भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ है, यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। For Personal & Private Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ९ 'देशयति' शब्द देशव्रती या श्रावक का ही पर्यायवाची यापनीयपक्ष उक्त ग्रन्थलेखक का कथन है कि "छेदपिण्ड' ग्रन्थ की गाथा ३०३ में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'देशयति को संयत के प्रायश्चित्त का आधा देना चाहिए।' इससे यह प्रतीत होता है कि यह परम्परा एलक, क्षुल्लक आदि को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत ही रखती थी। जबकि मूलसंघीय परम्परा परिग्रह रखनेवाले व्यक्ति को श्रावक की अवस्था से ऊपर नहीं मानती है। यापनीयपरम्परा में आचारांग का सन्दर्भ देकर श्रमणों के दो विभाग किये गये हैं- सर्वश्रमण और नोसर्व श्रमण | नोसर्वश्रमण को ही शब्दभेद से इस ग्रन्थ में देशयति माना गया है। दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित क्षुल्लक शब्द भी इसी का वाचक है। क्षुल्लक या देशयति को श्रावक कहना मात्र आग्रहबुद्धि का परिचायक है।" (जै. ध. या. स. / पृ. १५० - १९५१) । दिगम्बरपक्ष अ० २४ १. 'छेदपिण्ड' की ३०३ क्रमांकवाली गाथा में 'देशयति' शब्द श्रावक के ही अर्थ में प्रयुक्त है, श्रमण के अर्थ में नहीं, यह उक्त गाथा और उसकी उत्तरवर्ती गाथाओं के विवरण से स्पष्ट हो जाता है । सम्पूर्ण गाथा इस प्रकार है— दोहं तिहं छण्हं मुवरिमुक्कस्समज्झिमिदराणं । देसजदीणं छेदो विरदाणं अद्धद्धपरिमाणं ॥ ३०३ ॥ संस्कृत छाया द्वयोः त्रयाणां षण्णाम् उपरि उत्कृष्टयो: मध्यमानामितरेषाम् । देशयतीनां छेदो विरतानाम् अर्धार्धपरिमाणः ॥ ३०३ ॥ अन्वयः - द्वयोः उत्कृष्टयोः त्रयाणाम् मध्यमानाम् उपरि ( एतदतिरिक्तं ) षण्णाम् इतरेषाम् देशयतीनां छेदः विरतानां अर्धार्धपरिमाण: ( अर्धार्धक्रमेण दातव्य: ) । अनुवाद – “दो उत्कृष्ट देशयतियों (देशव्रतियों = १०,११ प्रतिमाधारी श्रावकों ) को मुनियों की अपेक्षा आधा, तीन मध्यम देशयतियों (देशव्रतियों = ७, ८, ९ प्रतिमाधारी श्रावकों) को उत्कृष्ट देशयतियों का आधा और छह जघन्य देशयतियों (देशव्रतियों = १ से ६ प्रतिमाधारी जघन्य श्रावकों) को मध्यम देशयतियों का आधा प्रायश्चित्त देना चाहिए । इस प्रकार उक्त गाथा में देशयति शब्द का प्रयोग उत्तम, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार के अर्थात् सभी ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लिए 'देशव्रती' के पर्यायवाची For Personal & Private Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७३ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यह बात 'छेदपिण्ड' की उत्तरगाथाओं में स्पष्ट कर दी गई है। यथा संजद-पायच्छित्तस्सद्धादि-कमेण देसविरदाणं। पायच्छित्तं होदित्ति जदि वि सामण्णदो वुत्तं ॥ ३०५ ॥ तो वि महापातकदोससंभवे छहमवि जहण्णाणं। देसविरदाणमण्णं मलहरणं अत्थि जिणभणिदं॥ ३०६॥ अनुवाद-"संयतों के प्रायश्चित्त का उत्तरोत्तर आधा-आधा प्रायश्चित्त देशविरतों को दिया जाता है, यद्यपि यह सामान्यतः कहा गया है, तथापि महापाप होने पर छहों जघन्य देशविरतों के लिए अन्य प्रायश्चित्त जिनेन्द्रदेव ने बतलाया है।" यहाँ उत्तम, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार के श्रावकों के लिए 'देशयति' के स्थान में देशविरत शब्द का प्रयोग कर स्पष्ट कर दिया गया है कि ३०३ क्रमांकवाली गाथा में 'देशयति' शब्द देशव्रती अर्थात् अणुव्रती के अर्थ में व्यवहत हुआ है। 'देशयति' शब्द से ही अंशतः विरत अर्थ सूचित होता है, जो अणुव्रती का पर्यायवाची है। श्रमण तो सकल यति अर्थात् महाव्रती होता है। तथा छेदशास्त्र, जिसे उक्त यापनीयपक्षधर लेखक ने 'छेदपिण्ड' का ही संक्षिप्त रूप कहा है, उसमें तो देशयति के स्थान में स्पष्टतः श्रावक शब्द प्रयुक्त किया गया जं सवणाणं भणियं पायच्छित्तं पि सावयाणं पि। दोण्हं तिण्हं छण्हं अद्धद्धकमेण दायव्वं ॥ ७८॥ संस्कृतटीका-ऋषीणां यत्प्रायश्चित्तं तच्छ्रावकाणामपि भवति। परं किन्तु उत्तमश्रावकाणां ऋषेः प्रायश्चित्तस्य अर्द्धम्। तस्यार्धं ब्रह्मचारिणाम् = तदर्धं मध्यमश्रावकस्य प्रायश्चित्तम्। तदर्धं जघन्यश्रावकस्य प्रायश्चित्तम्। (वही, गाथा ७८ / पृ.१००, टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं है)। इस गाथा में दो उत्कृष्ट, तीन मध्यम और छह जघन्य, इन तीनों प्रकार के श्रावकों को 'श्रावक' शब्द से अभिहित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि 'देशयति' शब्द श्रावक का ही वाचक है, श्रमण का नहीं। अतः यह आशय ग्रहण करना कि छेदपिण्ड उस यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है, जो एलक-क्षुल्लक को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत रखती थी, स्वाभीष्टमत का सत्यापलापी आरोपण है। इसके अतिरिक्त Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ १. देशयति शब्द को विरदाणं (विरत) के प्रतिपक्षी के अर्थ में प्रयुक्तकर तथा उसके लिए विरतों से आधे प्रायश्चित का विधान कर स्पष्ट कर दिया गया है कि 'देशयति' विरतों (श्रमणों) से भिन्न एवं निम्न हैं। २. यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में भी देशयति को श्रमण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'देशयति' शब्द देश (आंशिक या अल्प) यतित्व या विरतत्व का वाचक है, जब कि 'श्रमण' भले ही वह स्थविरकल्पी हो, श्वेताम्बरशास्त्रों में पूर्ण यति अर्थात् सर्वथा विरत माना गया है। 'यति' और 'विरत' शब्द समानार्थी हैं। उनमें 'देश' विशेषण जोड़ देने से वे श्रावक के वाचक बन जाते हैं। इसीलिए 'छेदपिण्ड' की पूर्वोक्त गाथाओं में ये दोनों शब्द समानार्थ में प्रयुक्त किये गये हैं। श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी देशविरत को अणुव्रती और अणुव्रती को अगारी (श्रावक) कहा गया है, यथा-"हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतम्।" (७/२), 'अणुव्रतधरः श्रावकोऽगारव्रती भवति।' (७/१५)। अतः श्वेताम्बरीय प्रमाणों से भी 'देशयति' शब्द श्रावक का ही वाचक सिद्ध होता है, श्रमण का नहीं। ३. और दिगम्बर-परम्परा के समान यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में भी श्रमणों के उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद नहीं होते, जिससे उपर्युक्त गाथा में प्रयुक्त उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शब्दों और उनकी दो, तीन और छह संख्या से यह माना जाय कि उत्कृष्ट श्रमण दो प्रकार के होते हैं, मध्यम श्रमण तीन प्रकार के, और जघन्य श्रमण छह प्रकार के होते हैं। श्रमणों के ऐसे ऊँचे-नीचे भेद और उनकी दो, तीन और छह संख्या और इतने अलग-अलग नाम उपर्युक्त तीनों सम्प्रदायों के आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। अतः वे श्रमणों के भेद नहीं, अपितु श्रावकों के ही भेद हैं। ४. यदि देशयति को भी श्रमण माना जाय तो उपर्युक्त गाथा से यह अर्थ प्रतिपादित होगा कि "श्रमणों को श्रमणों के प्रायश्चित्त से उत्तरोत्तर आधा-आधा प्रायश्चित्त देना चाहिए" किन्तु यह अर्थ उपपन्न नहीं होगा, क्योंकि श्रमण को तो श्रमण के ही योग्य प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। उससे आधा प्रायश्चित्त जिसे दिया जायेगा, वह श्रमण नहीं कहला सकता, अश्रमण ही कहलायेगा। ५. किसी भी यापनीयग्रन्थ में श्रमण को 'देशयति' शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। सर्वश्रमण और नोसर्वश्रमण का उल्लेख भी किसी यापनीयग्रन्थ में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। यापनीयपक्षधर विद्वान् ने भी किसी यापनीयग्रन्थ से उद्धरण देकर उक्त उल्लेख की पुष्टि नहीं की है। तथापि यदि नोसर्वश्रमण को देशयति का समानार्थी माना जाय, तो वह श्रावक का ही वाचक सिद्ध होगा, क्योंकि 'छेदपिण्ड' में 'देशयति' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७५ शब्द श्रावक के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और उपर्युक्त श्वेताम्बरीय प्रमाणों से भी वह श्रावक का ही वाचक सिद्ध होता है। ६. दिगम्बरमत में क्षुल्लक और एलक अणुव्रतधारी श्रावक ही होते हैं, सम्पूर्ण दिगम्बरजैन-साहित्य इसका गवाह है। प्रत्यक्ष प्रमाण के लिए रविषेणकृत 'पद्मपुराण' (१९) एवं 'बृहत्कथाकोश' (२३) नामक पूर्व अध्याय द्रष्टव्य हैं। रविषेण ने पद्मपुराण में क्षुल्लक को अणुव्रतधारी बतलाया है। और बृहत्कथाकोश में उसे श्रावक कहा गया है तथा यह कथा वर्णित है कि मोक्षाभिलाषी दो राजकुमार गुरु के आदेश से परीषह-सहन के अभ्यास हेतु पहले क्षुल्लकदीक्षा ग्रहण करते हैं, पश्चात् क्षुल्लकपद का परित्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इन वचनों से सिद्ध है कि क्षुल्लक अणुव्रतधारी होने से श्रावक ही होता है। अतः जब इन ग्रन्थों में देशयति और क्षुल्लक को स्पष्ट शब्दों में श्रावक ही कहा गया है, तब उसे श्रावक न मानकर श्रमण कहना डॉक्टर सा० के ही शब्दों में आग्रहबुद्धि का परिचायक है। ७. किसी भी यापनीयग्रन्थ में श्रमण से भिन्न एलक-क्षुल्लक नामक व्रतियों का उल्लेख नहीं है। तथा उक्त परम्परा में उनका अस्तित्व हो भी नहीं सकता, क्योंकि उसमें सवस्त्र व्रतियों को भी 'मुनि' संज्ञा दी गई है। श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा में क्षुल्लक (खुड्डग) शब्द का प्रयोग नवदीक्षित युवा मुनि के लिए किया गया है,० उत्कृष्ट श्रावक के लिए नहीं। अतः जिस परम्परा में क्षुल्लक-एलक नामक व्रतियों का भेद ही मान्य नहीं था, उसके बारे में यह कहना कि वह क्षुल्लक-एलक को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत रखती थी, नितान्त असंगत और निराधार कथन है। चूँकि क्षुल्लक-एलक यापनीय-परम्परा के पारिभाषिक शब्द नहीं है, इसलिए इनका वाचक 'देशयति' शब्द भी यापनीय-परम्परा का पारिभाषिक शब्द नहीं है। फलस्वरूप छेदपिण्ड में उसका प्रयोग होने से उसे यापनीयग्रन्थ कहना अप्रामाणिक कथन है। इस प्रकार उपर्युक्त दस प्रमाणों से सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है, यापनीय-परम्परा का नहीं। ७. देखिये, अध्याय १९/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी की क्षुल्लक संज्ञा।' ८. देखिये, अध्याय २३/ शीर्षक ३ 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध' के अन्तर्गत 'सवस्त्रमुक्ति-निषेध के अन्य प्रमाण' अनुच्छेद क्र.७। ९. देखिये, अध्याय २३ / शीर्षक २ 'गृहस्थमुक्तिनिषेध'। अनुच्छेद क्र.३। १०. देखिये, अध्याय ११/प्रकरण /४/ शीर्षक १०.३ 'श्वेताम्बरग्रन्थों में एक ही भव में उभय वेदपरिवर्तन भी मान्य।' For Personal & Private Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ छेदशास्त्र इस ग्रन्थ के विषय में 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने लिखा है-"जहाँ तक ग्रन्थ की विषयवस्तु का प्रश्न है, वह मुख्यतः 'छेदपिण्ड' पर ही आधारित प्रतीत होती है। इसमें भी २८ मूलगुणों के भंग (उल्लंघन) को आधार बनाकर प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। प्रायश्चित्तों का स्वरूप और उनके नाम वही हैं, जो हमें छेदपिण्ड में मिलते हैं। इसकी अनेक गाथाएँ भी छेदपिण्ड में मिलती हैं। यदि इसे छेदपिण्ड का ही एक संक्षिप्त रूप कहा जाय, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की परम्परा का निश्चय करना कठिन है, क्योंकि इसमें ऐसा कोई भी स्पष्ट संकेत उपलब्ध नहीं है, जिससे इसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कहा जा सके। किन्तु यदि छेदपिण्ड यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है और उसी के आधार पर इस छेदशास्त्र की रचना हुई है, तो यह कहा जा सकता है कि यह भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ रहा होगा।" (जै. ध. या. स./ पृ. १५३-१५४)। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि डॉक्टर सा० ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि 'छेदशास्त्र' में ऐसा कोई भी स्पष्ट संकेत नहीं है, जिससे इसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कहा जा सके। फिर भी उन्होंने इसे मात्र इस कारण यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ मान लिया कि इसकी रचना छेदपिण्ड के आधार पर हुई है और 'छेदपिण्ड' उनके अनुसार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। किन्तु यह ऊपर सिद्ध हो चुका है कि 'छेदपिण्ड' यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, अतः उस पर आधारित होने से छेदशास्त्र भी दिगम्बरपरम्परा का है, यह स्वतः सिद्ध है। इसके अतिरिक्त इसमें मुनियों के वे ही २८ मूलगुण ११ बतलाये गये हैं, जो दिगम्बर ग्रन्थ 'प्रवचनसार,' 'मूलाचार' और 'छेदपिण्ड' में वर्णित हैं तथा 'छेदपिण्ड' के ही समान देशयतियों (देशव्रतियों) को उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य श्रेणियों में विभाजित कर मुनियों के लिए विहित प्रायश्चित्त से उत्तरोत्तर आधे-आधे प्रायश्चित्त का भागी बतलाया गया है। इसका वर्णन करनेवाली गाथा 'छेदपिण्ड' के प्रकरण में उद्धृत की जा चुकी हैं। सार यह कि 'छेदशास्त्र' में मुनियों के लिए २८ मूलगुणों का विधान होना इस बात को स्पष्ट प्रमाण है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है। 'छेदशास्त्र' में आचेलक्य मूलगुण को भंग करने पर निम्नलिखित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है ११. छेदशास्त्र / गाथा ८-५४ (पृ.७७-९३), (प्रायश्चित्तसंग्रहः/ माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला/ आषाढ़, विक्रम सं. १९७८ में संगृहीत)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७७ उवसग्ग-वाहिकारण-दप्पेणाचेलभंगकरणम्हि। उववासो छट्ठमासिय कमेण मूलं तदो इसइ॥ ५१॥ अनुवाद-"जो मुनि उपसर्ग (किसी के द्वारा कष्ट दिये जाने) के भय से वस्त्रधारण कर अचेलव्रत को भंग करता है, उसे उपवास का प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए। जो व्याधि के कारण ऐसा करता है वह षष्ठ (लगातार दो दिनों तक) उपवास का पात्र है तथा जो दर्प के कारण (कामविकार को छिपाने के लिए) अचेलव्रत का उल्लंघन करता है, वह 'मूल' नामक प्रायश्चित्त का अधिकारी है।" यह प्रायश्चित्त-विधान यापनीयमत के सर्वथा विपरीत है। उसमें व्याधि तो क्या, लज्जा और शीतादिपरीषह सहन न होने पर भी साधु के लिए वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है, जब कि प्रस्तुत 'छेदशास्त्र' में व्याधि की दशा में भी वस्त्रधारण करने को प्रायश्चित्त का हेतु बतलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ किसी भी हालत में यापनीयपरम्परा का नहीं है, अपितु अचेलव्रत के निरतिचारपालन का आग्रह करनेवाली दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है। प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी दिगम्बरपरम्परा में एक प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी नामक ग्रन्थ है, जिसमें प्रतिक्रमण बृहत्प्रतिक्रमण और आलोचना नामक तीन ग्रन्थों का संग्रह है। इसके कर्ता गौतमस्वामी बतलाये गये हैं। तथा संस्कृत-टीकाकार प्रभाचन्द्र-पण्डित नाम के भट्टारक हैं१२ एवं प्रकाशक हैं नांदणी, तेरदळ एवं बेलगाँवमठ के भट्टारक श्री जिनसेन। इसका सम्पादन पं० मोतीचंद गौतमचंद कोठारी (फलटण) ने किया है। प्रकाशन वर्ष है वीरसंवत् २४७३ (ई० सन् १९४६)। पूर्वोक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने इसे भी यापनीयकृति बतलाया है। (जै.ध.या.स./ पृ.१६०)। __यदि ग्रन्थकर्ता पर ध्यान दिया जाय, तो न तो यह श्वेताम्बरग्रन्थ है, न यापनीय, न ही दिगम्बरीय, क्योंकि गौतमस्वामी (भगवान् महावीर के प्रथम गणधर) न तो यापनीय थे, न यापनीयों ने अपने किसी ग्रन्थ को गौतमस्वामी द्वारा रचित बतलाया है। श्वेताम्बरपरम्परा अपने सभी आगमों को सुधर्मा स्वामी द्वारा रचित मानती है और दिगम्बरपरम्परा में किसी भी लिपिबद्ध ग्रन्थ को गणधर द्वारा रचित नहीं कहा गया है। तथापि प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में कुछ ऐसे प्रमाण हैं जिनसे यह केवल दिगम्बर-ग्रन्थ ही सिद्ध होता है। फिर भी डॉ० सागरमल जी इस ग्रन्थ को आवश्यक (प्रतिक्रमणसूत्र) शीर्षक १२. "पेटलापट्के श्रीचन्द्रप्रभदेवपादानामग्रे श्री गौतमस्वामिकृत-प्रतिक्रमणत्रयस्य टीकात्रयं श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन कृतमिति।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/ पृ. १९५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २४ से निर्दिष्ट करते हुए 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ (पृ.१६०-१६५) में लिखते हैं कि वह उन्हें निम्नलिखित कारणों से यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है १. इसकी विषयवस्तु का लगभग ८० प्रतिशत भाग वही है, जो श्वेताम्बरपरम्परा के आवश्यकसूत्र में है। २. ई० सन् ९८० के चालुक्यवंश के सौदत्ति-अभिलेख में यापनीयसंघ के कण्डूर्गण के प्रभाचन्द्र का उल्लेख है। (जै.शि.सं./मा.च/ भा.२/ले.क्र.१६०)। इस ग्रन्थ के टीकाकार संभवतः वही प्रभाचन्द्र हैं। टीकाकार का यापनीय होना सिद्ध करता है कि यह ग्रन्थ यापनीयपरम्परा का है। ३. इसमें रात्रिभोजनविरमण सर्वत्र छठे व्रत या अणुव्रत के रूप में उल्लिखित है। यह मान्यता श्वेताम्बरों में और भगवती-आराधना आदि यापनीयग्रन्थों में मिलती ४. इसमें 'एऊणविसाए णाहाज्झयणेसु' (एकोनविंशतिनाथाध्ययनेषु) कहकर दो गाथाओं में ज्ञातसूत्र के १९ अध्ययनों का विवरण दिया गया है। (प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी/ पृ.५१)। ये दोनों गाथाएँ एवं इनमें उल्लिखित ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन आज भी श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य 'ज्ञाताधर्मकथा' में मिलते हैं। श्वेताम्बर-आगमों की विषयवस्तु का ग्रहण यापनीयग्रन्थ में ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। ५. इस प्रतिक्रमणसूत्र (पृ.५६) में 'तेवीसाए सुद्दयडज्झाणेसु' (सूत्रकृतं द्वितीयमङ्गं, तस्याध्ययनानि त्रयोविंशतिः) कहकर सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों का उल्लेख तीन गाथाओं में हुआ है। इससे भी प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी का यापनीयग्रन्थ होना सिद्ध होता है। ६. इसमें दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा उल्लिखित है। यह श्वेताम्बर-यापनीय दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। आश्चर्य है कि डॉक्टर सा० को इन कारणों से प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होती है। वास्तविकता यह है कि इनमें से एक भी हेतु प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उसमें ऐसे सिद्धान्तों को मान्यता दी गयी है, जो यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्तों-आपवादिक सचेल मुनिलिंग अर्थात् सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, और परशासनमुक्ति के विरुद्ध हैं। यथा १. ग्रन्थ में मुनियों के द्वारा अचेलत्व, केशलुंच, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन (खड़े होकर आहार करना), पाणितलभोजन आदि मूलगुणों के ग्रहण किये Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७९ जाने का वर्णन है (पृ.११५)। इनमें से अचेलत्व को यापनीय-परम्परा में मुनियों का मूलगुण नहीं माना गया है, क्योंकि उसमें वस्त्रधारी को भी मुनि कहा गया है। अतः यापनीयपरम्परा में अचेलत्व मूलगुण न होकर वैकल्पिक गुण है। तथा उपलब्ध यापनीयग्रन्थों में मुनि को पाणितलभोजी तो कहा गया है, किन्तु खड़े होकर भोजन करनेवाला, क्षितिपर शयन करनेवाला तथा स्नान और दन्तधावन न करनेवाला नहीं कहा गया है। अतः यापनीय-मुनियों में इन मूल-गुणों का होना भी अनिर्णीत है। २. अपरिग्रह-महाव्रत के स्वरूप का वर्णन करते हुए निम्नलिखित वस्तुओं को श्रमण के अयोग्य बतलाकर उन्हें ग्रहण करने का निषेध किया गया है "पंचमे महव्वदे हिरण्णं, धणं, धण्णं, खेत्तं, वत्थु, कोसं, बलं, वाहणं, सयणं, जाणं, जुगं, गहुँ, रहं, संदणं सिबियं, गवेडयं, अंडजं, तसरिचीवरं, बोंडजं, अविबालग्गकोडिमेत्तं पि असमणपाउग्गं।" (पृ.१२९-१३०)। अनुवाद-"पञ्चम महाव्रत में सोना-चाँदी, धन, धान्य, खेत, घर, कोश (भाण्डागार), बल (सेना), वाहन (हस्ति, अश्व आदि), शकट (बैलगाड़ी), यान (पालकी), जुग (डोला)१३, गदु (गादी-गद्दा)१४ रथ (उत्तमघोड़ोंवाला रथ), स्यन्दन (सामान्य घोड़ोंवाला रथ),५ शिबिका, भेड़ (एडक) के ऊन से बने वस्त्र, रेशमीवस्त्र (अंडज),१६ तसर (एक विशेष प्रकार के धागे) से बने चीवर (वस्त्र)१६ और सूतीवस्त्र (बोंडज)१६ इन चीजों का भेड़ के बाल की नोंक के बराबर भी परिग्रह श्रमण के योग्य नहीं होता। यह अश्रमणों (गृहस्थों) का परिग्रह है। (अतः मुनि को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए)।" इस कथन में किसी भी प्रकार के वस्त्र का एक धागा भी ग्रहण करना अपरिग्रह महाव्रत के विरुद्ध बतलाया गया है। किन्तु यापनीयपरम्परा में अपवादरूप से वस्त्रधारण करने पर भी मुनि को अपरिग्रह-महाव्रतधारी माना गया है। अतः उपर्युक्त कथन यापनीयमत के विरुद्ध है। इससे सिद्ध है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। ३. 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' के अन्तर्गत बृहत्प्रतिक्रमण में कहा गया है-"सग्गथं (बाह्याम्यन्तरग्रन्थसहितमात्मनः स्वरूपं व्युत्सृजामि), णिग्गंथं (तद्विपरीतं निर्ग्रन्थस्वरूप १३. "जुगं दोलिकाम्।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/ पृ. १३०। १४. "गदुं शय्यापालकम् , उपरि छादितः शकटविशेषः।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. १३० । १५. "उत्तमाश्वबाह्यो रथः, सामान्याश्वबाह्यो रथः स्यन्दनः।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. १३० । १६. पाइअ-सद्द-महण्णवो। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २४ मभ्युत्तिष्ठामि), सचेलं (चेलं वस्त्रं तेन सहितं सावरणं स्वरूपं व्युत्सृजामि), अचेलं (तद्विपरीतमचेलं निरावरणं स्वरूपमभ्युत्तिष्ठामि)।" (पृ. ११५) अनुवाद-"आत्मा के सग्रन्थ (बाह्य और आम्यन्तर परिग्रहसहित) स्वरूप का परित्याग करता हूँ, उसके विपरीत निर्गन्थस्वरूप को ग्रहण करता हूँ। आत्मा के सचेल (वस्त्रसहित) स्वरूप को छोड़ता हूँ, उसके विपरीत अचेल स्वरूप को ग्रहण करता इस प्रतिक्रमणपाठ में सचेलत्व के परित्याग और अचेलत्व के ग्रहण का संकल्प करना मुनि के लिए आवश्यक बतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में मुनि के लिए आपवादिक सचेललिंग का विधान नहीं है, अतः यह यापनीयग्रन्थ नहीं है। ४. पूर्व क्रमांक २ पर उद्धृत 'पंचमे महव्वते हिरण्णं---' इत्यादि अपरिग्रह महाव्रत के लक्षण में सूती, ऊनी, रेशमी आदि सभी प्रकार के वस्त्रों को परिग्रह कहा गया है। निम्नलिखित उद्धरण में भी वस्त्र (कुप्य)१७ और भाण्ड को ग्रन्थ (परिग्रह) संज्ञा दी गयी है "अथवा क्षेत्ररत्नरूप्यसुवर्णधनधान्यदासीदास-कुप्यभाण्डलक्षण-बाह्यग्रन्थविषयो दशप्रकारो मोहः। मिथ्यात्ववेदरागादिलक्षणाभ्यन्तरग्रन्थविषयश्चतुर्दशप्रकारः, पञ्चेन्द्रियदुष्टमनोविषयः षट्प्रकारो मोहः। एतानि त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि परित्याज्यानि। प्रमादात्कदाचित् तदपरित्यागे प्रतिक्रमणम्।" (प्रभाचन्द्रकृत टीका / प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी / पृ.६१-६२)। ____ यहाँ वर्णित क्षेत्र, रत्न, रूप्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य (वस्त्र) और भाण्ड (पात्र) इन दस बाह्य ग्रन्थों तथा मिथ्यात्व, वेद, राग आदि चौदह अभ्यन्तर ग्रन्थों से रहित मुनि को निर्ग्रन्थ नाम दिया गया है और कहा गया है कि निर्ग्रन्थलिंग मोक्ष-प्राप्ति का उपाय है "ग्रन्थाद् बाह्यादभ्यन्तराच्च निष्क्रान्तो निर्ग्रन्थः। तन्निर्ग्रन्थतालक्षणं मोक्षमार्ग मोक्षप्राप्त्युपायभूतं लिङ्गम्।" (प्रभाचन्द्रकृतटीका / प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी / पृ.६५)। १७. कुप्य = वस्त्र एवं भाण्ड (वर्तन)। क- "कुप्यं क्षौम-कार्पासक-कौशेय-चन्दनादि।" सर्वार्थसिद्धि/७/२९ । ख-"कुप्यं कार्पासादिकम्।" आचारवृत्ति/मूलाचार/ गा.४०८।। ग- "कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदया टीका/ भगवती-आराधना / गा.१११३। घ- "कुप्यप्रमाणातिक्रम-वर्तनों और वस्त्रों के प्रमाण का अतिक्रमण करना।' पं. सुखलाल जी संघवी : तत्त्वार्थसूत्र / विवेचन-सहित /७/२४ / पृ. १८८ । For Personal & Private Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७८१ इसके बाद घोषणा की गयी है - " इमं णिग्गथं पावयणं अणुत्तरं --- सेढिमग्गं - मोक्खमग्गं--- उत्तमं तं सद्दहामि तं पत्तियामि तं रोचेमि तं फासेमि--- इदो उत्तरं अण्णं णत्थि, ण भूदं, ण भविस्सदि --- समणोमि । " ( प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. ६४६९)। मोक्ष का अनुवाद - "यह निर्ग्रन्थलिंग आगम में प्रतिपादित किया गया है । --- इससे उत्कृष्ट मार्ग और कोई नहीं है। • यह निर्ग्रन्थलिंग उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरोहण का उपाय है, मोक्ष का मार्ग है, - मोक्षरूप उत्तम अर्थ का साधक होने से उत्तम है। मैं इसका श्रद्धान करता हूँ, इसको प्राप्त होता हूँ, इसमें ही रुचि करता हूँ, इसका अवलम्बन करता हूँ । --- इस निर्ग्रन्थलिंग से उत्कृष्ट मोक्ष का और कोई मार्ग नहीं है, न कभी था और न कभी होगा । --- - इस निर्ग्रन्थलिंग में स्थित होने से ही मैं श्रमण हूँ ।" १८ ( " तथा एतस्मिन्निर्ग्रन्थलिङ्गे सति 'समणोमि ' श्रमणोऽस्मि मुनिर्भवामि । " प्रभाचन्द्रकृतटीका / प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / पृ.६९ ) । 44 --- उक्त कथन का सार प्रतिपादित करते हुए टीकाकार प्रभाचन्द्र लिखते हैं'उत्कृष्टेन सर्वज्ञप्रणीतागमेन निर्ग्रन्थलिङ्गस्यैव मोक्षादिहेतुतया प्रतिपादकत्वात्-- ।" ( वही / पृ. १२२)। ——— अनुवाद - "सर्वज्ञप्रणीत होने से जो आगम उत्कृष्ट है, उसमें निर्ग्रन्थलिंग को ही मोक्ष का हेतु बतलाया गया है । " इन वचनों से सिद्ध है कि प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में एकमात्र वस्त्रपात्रादिग्रन्थ से रहित निग्रन्थलिंग को ही मोक्ष का उपाय बतलाया गया है, अतः इसमें आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं परशासनमुक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है । यह इसके' यापनीयग्रन्थ न होने, अपितु दिगम्बरग्रन्थ होने का निर्विवाद प्रमाण है। और भी कहा गया है- "पंचमं वदमस्सिदो--- बज्झब्धंतरेसु य ।" इसे स्पष्ट करते हुए टीकाकार प्रभाचन्द्र कहते हैं- " पञ्चमं परिग्रहाद्विरतिलक्षणं व्रतमाश्रितोऽहं- बाह्याभ्यन्तरेषु च द्रव्येषु विरतो भवामि । बाह्यानि वस्त्राभरणादीनि, अभ्यन्तराणि तु द्रव्याणि ज्ञानावरणादीनि ।" ( वही / पृ. १३४)। यहाँ 'परिग्रहविरति' नामक पंचम महाव्रत में वस्त्रादि बाह्य द्रव्यों से विरति (त्याग) आवश्यक बतलायी गयी है। दिगम्बरमतानुसार ही मुनियों के लिए आचेलक्यादि २८ गुण मूलरूप से आवश्यक बतलाये गये हैं। यथा १८. यह अनुवाद प्रभाचन्द्रकृत टीका पर आधारित है। For Personal & Private Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ "मूलगुणेसु।" इसकी टीका में प्रभाचन्द्र लिखते हैं-"पञ्च व्रतानि, पञ्च समितयः, पञ्चेन्द्रियनिरोधाः षडावश्यकाः (कानि),आचेलक्यं,लोचोऽदन्तधावन-मस्नानं, क्षितिशयनं, स्थितिभोजमेकभुक्तं चेत्यष्टाविंशतिर्मूलगुणाः, तेषु।" (वही/ पृ.१५१)।। इन २८ मूलगुणों में आचेलक्य न तो श्वेताम्बरपरम्परा में मुनियों का मूल (आधारभूत, अनिवार्य) गुण माना गया है, न यापनीयपरम्परा में। श्वेताम्बरमत में सर्वथा सचेललिंग ही मुनिलिंग माना गया है, और यापनीयमत में उसे अपवादरूप से मान्यता दी गयी है। अतः सिद्ध है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। ५. इसमें अन्य मतों और अन्य लिंगों की प्रशंसा को अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग बतलाने को दर्शनाचार का परित्याग कहा गया है यथा "दंसणायारो अट्टविहो।--- परिहाविदो संकाए, कंखाए--- अण्णदिट्ठिपसंसणाए, परपासंडपसंसणाए---।" (वही / पृ.१६०-१६१)। आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है-"दर्शनाचारोऽष्टविधः परिहापितः परित्यक्तः। कयेत्याह-शङ्कया, कांक्षया--- अन्येषां मिथ्यादृष्टीनां दृष्टयो मतानि, तेषां प्रशंसनया, परेषां मिथ्यादृष्टीनां पाषण्डानि लिङ्गनि, तेषां प्रशंसनया---।" (वही । पृ. १६०-१६१)। अनुवाद-"आठ प्रकार का दर्शनाचार छूट जाता है। किससे? शंका, कांक्षा--अन्यमत की प्रशंसा, अन्य लिंग (मुनिवेश) की प्रशंसा (अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग बतलाने) आदि से। (अतः उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए)।" यापनीयमत परशासन अर्थात् अन्यलिंग से मुक्ति मानता है, उसका यहाँ निषेध किया गया है, इससे भी सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ यापनीयसम्प्रदाय का नहीं, अपितु दिगम्बर-सम्प्रदाय का है। ६. इसमें 'णवण्हं णो कसायाणं' (पृ.१२) इस वचन द्वारा नौ नोकषायों का अस्तित्व बतलाया गया है, जिनमें स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये अलग-अलग तीन वेद स्वीकार किये गये हैं। यह वचन यापनीयमत के विरुद्ध है। यापनीयमत केवल एक वेदसामान्य स्वीकार करता है। ७. णिग्गंथं सेढिमग्गं (पृ.६६) वचन द्वारा निर्ग्रन्थलिंग को गुणस्थानों की उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरोहण का उपाय कहा गया है, जिससे ज्ञाता होता है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' को गुणस्थानसिद्धान्त मान्य है, यह यापनीयों को मान्य नहीं है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७८३ ___ इस प्रकार यह ग्रन्थ यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से भरा पड़ा है, यह त्रिकाल में यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। डॉ० सागरमल जी ने इस ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र को अपनी कल्पना के आधार पर यापनीयसंघ के कण्डूर्गण से सम्बद्ध बतलाया है, किन्तु प्रभाचन्द्र ने जितने भी संघ और गणों के आचार्यों की निषीधिका को नमस्करणीय कहा है, वे सब दिगम्बरपरम्परा के हैं। यथा "--- कुलकराणां नन्दि-देव-सेन-सिंहसङ्घ-देशिगण-बलात्कारगण-काणूरगण-सूरस्थगणप्रभृति-सङ्घगण-भेदकराणां च याः काश्चिन्निषीधकास्ता नमस्यामि।" (वही / पृ.२८)। ... इन संघों के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने के प्रमाण इन्द्रिनन्दिकृत 'श्रुतावतार' (कारिका ९३-१००) में उपलब्ध हैं। काणूगण भी मूलसंघ अर्थात् दिगम्बरजैनसंघ का ही गण था, यापनीयसंघ में कण्डूरगण था। ये, दोनों गण भिन्न-भिन्न थे। इसकी सप्रमाण सिद्धि सप्तम अध्याय के तृतीय प्रकरण में की जा चुकी है। इस प्रमाण से आचार्य प्रभाचन्द्र का दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होना निर्विवाद है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी टीका में जो एकमात्र निर्ग्रन्थलिंग के मोक्षमार्ग होने का प्रतिपादन किया है तथा मुनि के लिए आचेलक्यादि २८ मूलगुणों को अनिवार्य बतलाया है, उससे भी उनके दिगम्बराचार्य होने में कोई सन्देह नहीं रहता। प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में उद्धृत जिन गाथाओं की विषयवस्तु श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथांग तथा सूत्रकृतांग की गाथाओं में वर्णित विषयवस्तु से साम्य रखती है, उन्हें यदि इन आगमों से ही गृहीत माना जाय, तो भी यह ग्रन्थ यापनीय-सम्प्रदाय का सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परशासनमुक्ति आदि उन सिद्धान्तों का निषेध है, जो यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्त है। जिस मनुष्य का शरीर ही पुरुष का न हो, वह यदि पुरुष के वस्त्र पहन ले, तो पुरुष नहीं कहला सकता, वैसे ही जिस ग्रन्थ में सिद्धान्त ही यापनीयमत के न हों, बल्कि जो यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से भरा हो, उसमें यदि श्वेताम्बरागमसदृश गाथाएँ या विषयवस्तु उपलब्ध हो, तो वह यापनीयग्रन्थ नहीं कहला सकता। इसके बावजूद उसे यापनीयग्रन्थ कहा जाय, तो इससे पाठकों को यापनीयमत के विषय में उलटी जानकारी मिलेगी। पाठक समझेंगे कि यापनीयमत वह है, जो अपवादरूप से भी मुनि के लिए सचेललिंग का निषेध करता है तथा स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति को अमान्य करता है, जब कि वास्तविकता यह है कि यापनीयमत Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ में ये सब बातें मान्य हैं। अतः श्वेताम्बर-आगमों की गाथाओं या विषय वस्तु से साम्य रखनेवाली दिगम्बरमतानुरूप गाथाओं एवं विषयवस्तु की उपलब्धि से 'प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी' यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। तथापि उसमें उपर्युक्त गाथाएँ या कोई सदृश विषयवस्तु श्वेताम्बर-आगमों से गृहीत नहीं है। ___ एकादश अध्याय (षट्खण्डागम) के तृतीय प्रकरण में स्पष्ट किया जा चुका है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों की कतिपय गाथाओं एवं विषयवस्तु में साम्य इसलिए है कि श्वेताम्बरपरम्परा उसी मूल निर्ग्रन्थपरम्परा से उद्भूत हुई है, जो आगे चलकर दिगम्बरपरम्परा कहलाने लगी। प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में उक्त गाथाएँ एवं विषयवस्तु किसी दिगम्बरग्रन्थ से ही ली गई हैं, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है। धवलाकार वीरसेन स्वामी ने एक छेदसुत्त ग्रन्थ का उल्लेख किया है,१९ वह वर्तमान में अप्राप्य है। संभव है उक्त गाथाएँ एवं विषयवस्तु इसी ग्रन्थ से ग्रहण की गई हों। अतः विषयवस्तुगत उक्त साम्य ग्रन्थ के यापनीय होने का हेतु नहीं है। रात्रिभोजनविरमण को सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, विजयोदयाटीका आदि दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में भी छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। (देखिए, अध्याय १४/प्रकरण २/शी.७)। अतः इसे वर्णित करने के कारण प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होती। उपर्युक्त सात हेतु किसी भी ग्रन्थ के दिगम्बरीय होने के असाधारण धर्म हैं। वे प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में उपलब्ध हैं, अतः उसके दिगम्बरग्रन्थ होने में सन्देह के लिए स्थान नहीं हैं। १९. "ण च दव्वित्थीणं णिग्गंथत्तमत्थि, चेलादिपरिच्चाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो, ण च दव्वित्थिणवंसयवेदाणं चेलादिचागो अत्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो।" धवला/ष.खं./ पु.११/४, २, ६, १२/ पृ.११४-११५ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंश अध्याय For Personal & Private Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंश अध्याय बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र इसके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण दिगम्बरमत में भी जिनकल्प-स्थविरकल्प मान्य, किन्तु दोनों नाग्न्यलिंगी ईसा की लगभग १०वीं शताब्दी में हुए बृहत्प्रभाचन्द्र ने उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर एक और संक्षिप्त तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। यह वस्तुतः उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र का ही संक्षिप्तीकरण है। प्रभाचन्द्र ने अपने नाम के पूर्व 'बृहत्' विशेषण जोड़कर अपने समय के अन्य प्रभाचन्द्रों से पृथक्त्व द्योतित किया है। उन्होंने ग्रन्थ के प्रारंभ में इसे दशसूत्र और अन्त में जिनकल्पिसूत्रनाम दिया है, किन्तु प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में तत्त्वार्थसूत्र नाम से अभिहित किया है। इसमें मात्र १०५ सूत्र हैं। . 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने इसे केवल इसलिए यापनीयग्रन्थ माना है कि इसके अन्त में 'इति जिनकल्पिसूत्रं समाप्तम्' लिखा है। लेखक महोदय लिखते हैं "इसके अन्त में दिया गया 'जिनकल्पिसूत्र' विशेषण इसके यापनीय होने का प्रमाण दे देता है। क्योंकि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों को मान्य करके भी जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं। यापनीयग्रन्थ 'भगवतीआराधना' एवं 'मूलाचार' में जिनकल्प और स्थविरकल्प के उल्लेख पाये जाते हैं, इससे यही सिद्ध होता है कि इस तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता प्रभाचन्द्र यापनीयसम्प्रदाय के रहे होंगे। क्योंकि दिगम्बरपरम्परा के आचार्य तो जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसी मान्यता ही स्वीकार नहीं करते हैं। इससे तत्त्वार्थसूत्र का यापनीय प्रभाचन्द्र की कृति होना सुनिश्चित होता है।" (जै.ध.या.स./पृ.२०७)। १. "ऊँ नमः सिद्धम्। अथ दशसूत्रं लिख्यते।" तत्त्वार्थसूत्र / सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार/वीर सेवा मन्दिर, सहारनपुर/ पृ. १२। २. "इति जिनकल्पिसूत्रं समाप्तम्।" वही/पृ. १६ । ३. "इति श्री बृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे प्रथमोऽध्यायः।" वही/ पृ. २३। For Personal & Private Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२५ लेखक महोदय इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि दिगम्बरपरम्परा में भी जिनकल्प और स्थविरकल्प माने गये हैं, किन्तु उनका स्वरूप श्वेताम्बरों एवं यापनीयों द्वारा मान्य स्वरूप से भिन्न है। उक्त परम्पराओं में नग्न एवं पाणितलभोजी मुनियों को जिनकल्पी तथा वस्त्रपात्रधारी मुनियों को स्थविरकल्पी कहा गया है। किन्तु दिगम्बर-परम्परा में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी, दोनों प्रकार के मुनि नग्न एवं पाणितलभोजी होते हैं। अन्तर केवल तप में है। इनके स्वरूप का वर्णन द्वितीय एवं चतुर्दश अध्याय में किया जा चुका है। यहाँ त्वरित प्रमाण के लिए वामदेवरचित भावसंग्रह के निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं अर्थतत्कथ्यते वृत्तं जिनकल्पाभिधानकम्। यस्मान्मुक्तिवधूसङ्गो भव्यानां जायते ध्रुवम्॥ २६३॥ अनुवाद-"अब इस जिनकल्प नामक चारित्र का कथन किया जा रहा है, जिससे भव्यों का मुक्तिवधू के साथ निश्चितरूप से संगम होता है।" अन्ये स्थविरकल्पस्था यतयो जिनलिङ्गिनः। सम्यक्त्वामल - दुग्धाम्बु -निमग्नीकृत-चेतसः॥ २७०॥ अनुवाद-"जो अन्य स्थविरकल्पी जिनलिङ्गी मुनि हैं, उनका चित्त सम्यक्त्वरूपी निर्मल दुग्धाम्बु में डूबा रहता है।" आचार्य देवसेन ने भी अपने प्राकृत भावसंग्रह में जिनकल्प और स्थविरकल्प के स्वरूप का वर्णन किया है, जिसका उल्लेख श्वेताम्बरमुनि कल्याणविजय जी द्वारा अपने 'श्रमण भगवान् महावीर' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ (पृष्ठ २८६-२८९) में किया गया भगवती-आराधना में भी जिनकल्प का निर्देश है। उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ लेखक ने उसे यापनीयग्रन्थ कहा है, किन्तु यह सर्वथा मिथ्या है। वह विशुद्ध दिगम्बरग्रन्थ है, यह पूर्व में विस्तार से सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इसका एक ज्वलन्त प्रमाण यह है कि उसकी अपराजितसूरि-कृत विजयोदयाटीका में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी (जिनकल्प में असमर्थ, किन्तु परिहारसंयम में समर्थ), दोनों प्रकार के मुनियों को जिनलिंगधारी (नग्न) कहा गया है। ४. देखिये, अध्याय २ / प्रकरण ३ / शीर्षक ३.२ एवं अध्याय १४/ प्रकरण २/ शीर्षक ८ । ५. किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णेगिणी य परिहारो। पादोवगमण-जिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो॥ १५७॥ भगवती-आराधना। ६. देखिये, उपर्युक्त पादटिप्पणी ४। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२५ बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र / ७८९ इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी जिनकल्प और स्थविरकल्प का विधान है, इसलिए उपर्युक्त ग्रन्थलेखक का प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करनेवाला यह हेतु कि दिगम्बरपरम्परा में जिनकल्प और स्थविरकल्प की मान्यता नहीं है, मिथ्या (स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास) सिद्ध हो जाता है। अतः उसके अ धार पर बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयग्रन्थ कहना भी मिथ्या सिद्ध हो जाता किन्तु बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को 'जिनकल्पिसूत्र' संज्ञा जिनलिंगधारी मुनिसामान्य के आचार की अपेक्षा से दी है, दूसरे शब्दों में श्वेताम्बरमान्य वस्त्रपात्रमय स्थविरकल्प के प्रतिपक्षी जिनकल्प की अपेक्षा से दी है। इसका विशेष प्रयोजन है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार एवं उत्तरवर्ती श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणी, हरिभद्रसूरि आदि ने उमास्वामी-कृत तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-कृति सिद्ध करने की अर्थात् उसमें स्थविरकल्प (वस्त्रपात्रधारी साधुओं के आचार) का प्रतिपादन साबित करने की चेष्टा की है। अतः बृहत्प्रभाचन्द्र ने इसका खण्डन करने के लिए उक्त तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर रचित अपने तत्त्वार्थसूत्र को जिनकल्पिसूत्र (जिनलिंगधारी मुनियों के आचार का वर्णन करनेवाला सूत्र) नाम दिया है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में दिगम्बरसाधु जिनकल्पी नाम से प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बरग्रन्थ शतपदी के कर्ता महेन्द्रसूरि ने अपने समय (विक्रम सं० १२९४) के दिगम्बर साधुओं के आचरण की आलोचना की है। उसमें उनके लिए जिनकल्पानुकारी विशेषण प्रयुक्त किया गया है। अतः उपर्युक्त दृष्टि से बृहत्प्रभाचन्द्र द्वारा अपने ग्रन्थ को 'जिनकल्पिसूत्र' नाम दिया जाना युक्तिसंगत है। उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र में जिनकल्प (दिगम्बर मुनियों के आचार) का ही निरूपण है, इसकी पुष्टि के लिए सूत्रकार बृहत्प्रभाचन्द्र ने एक नये सूत्र का भी समावेश किया है, वह है 'श्रमणानामष्टाविंशतिर्मूलगुणाः' (७/५) अर्थात् श्रमणों के २८ मूलगुण होते हैं। श्रमणों के २८ मूलगुणों में एक अचेलत्व मूलगुण भी है, जो यापनीयमत में संभव नहीं है, क्योंकि उसमें अपवादरूप से वस्त्रधारण करनेवाला भी मुनि कहला सकता है और उस मत के अनुसार वह मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। स्वयं यापनीय-आचार्य शाकटायन ने अचेलत्व (नग्नत्व) को मुनि का मूलगुण मानने से इनकार किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बर मुनियों के ही आचार का वर्णन है। ७. देखिये, अध्याय ८/ प्रकरण ४/ शीर्षक ३ 'पासत्थादि मुनियों के वस्त्रधारण से १२वीं शती __ई० में भट्टारकपरम्परा का उदय।' ८. देखिये, अध्याय १५/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ , अ०२५ यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेष बल नहीं प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयकृति माननेवाले उपर्युक्त विद्वान् का कथन है कि "इसके अन्त में दिया गया जिनकल्पिसूत्र विशेषण इसके यापनीय होने का प्रमाण दे देता है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों को मान्य करके भी जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं।" (जै.ध.या.स./पृ. २०७)। यहाँ "यापनीय जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं," ये वचन सत्य नहीं हैं, क्योंकि यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेष बल तो तब दिया जाता, जब उसमें जिनकल्प से ही मुक्ति मानी जाती, स्थविरकल्प से नहीं, अथवा यह माना जाता कि जिनकल्प से शीघ्र मोक्ष होता है और स्थविरकल्प के द्वारा देर से। किन्तु ऐसी मान्यता तो यापनीय मत में है ही नहीं। उसमें तो यह माना गया है कि योगचिकित्साविधिन्याय से किसी को जिनकल्प से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, किसी को स्थविरकल्प से। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने इसका विस्तार से प्रतिपादन अपने स्त्रीनिर्वाणप्रकरण नाम के लघुकाय ग्रन्थ में किया है। इसमें उन्होंने एकान्ततः जिनकल्प से मुक्ति माननेवाले दिगम्बरमत का खण्डन करने का प्रयास और स्थविरकल्प की मोक्षहेतता का जोरदार समर्थन किया है। मलाचार के अध्याय में शाकटायन के वचनों को उद्धृत करते हुए इसका विस्तार से निरूपण किया गया है। अतः यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेषबल दिये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सच तो यह है कि यापनीय आचार्य शाकाटायन ने 'स्त्रीनिर्वाणप्रकरण' और 'केवलिभुक्तिप्रकरण' लिखकर जिनकल्प को गौण करने और स्थविरकल्प पर बल देने का प्रयत्न किया है। अतः 'बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र का जिनकल्पी विशेषण उसके यापनीयग्रन्थ होने का सूचक है,' यह कथन केवल स्वाभीष्टमत का आरोपण है। जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है, बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को जिनकल्पिसूत्र संज्ञा देकर यह स्पष्ट किया है कि तत्त्वार्थसूत्र केवल जिनकल्प अर्थात् नाग्न्यलिंग से मुक्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ है, सचेललिंग से मुक्ति का प्रतिपादक नहीं है। ३ केवलिभुक्ति-भ्रम-परिहारार्थ परीषहसूत्रों का अनुल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में एक महत्त्वपूर्ण बात और ध्यान देने योग्य है। इसमें उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित परीषहसूत्रों को स्थान नहीं दिया गया है, क्योंकि उनमें एकादश जिने सूत्र है, जिसे श्वेताम्बराचार्यों ने केवलि-कवलाहार का प्रतिपादक बतलाकर ९. देखिये, अध्याय १५/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान' एवं शीर्षक २.१. 'योगचिकित्साविधि- न्याय कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल।' For Personal & Private Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२५ बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र / ७९१ उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सिद्ध होता है कि बृहत्प्रभाचन्द्र दिगम्बर थे। यदि वे यापनीय होते, तो अपने तत्त्वार्थसूत्र में परीषहसूत्रों को अवश्य रखते, क्योंकि 'एकादश जिने' सूत्र के आधार पर वे श्वेताम्बरों के समान केवली को कवलाहारी सिद्ध कर सकते थे। आचार्य अमृतचन्द्र का अनुसरण बृहत्प्रभाचन्द्र ने उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र के "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" सूत्र में "सहक्रमभावि-गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" (५/८) इस प्रकार सहक्रमभावि विशेषण जोड़ा है। यह विशेषण उन्होंने पञ्चास्तिकाय (गाथा ९) की अमृतचन्द्रकृत टीका में प्रयुक्त "तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान्" इस वाक्यांश से ग्रहण किया है। यह उनके दिगम्बर होने का सूचक है। भाववेदत्रय की स्वीकृति बृहत्प्रभाचन्द्र ने "उत्तरा अष्टचत्वारिंशच्छतम्" (८/४) सूत्र द्वारा कर्मों की १४८ उत्तरप्रकृतियाँ स्वीकार की हैं, जिनमें पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये तीन भाववेद भी. हैं। यापनीयमत में ऐसे अलग-अलग तीन वेद स्वीकार न कर एक वेदसामान्य ही स्वीकार किया गया है। इससे भी सिद्ध होता है बृहत्प्रभाचन्द्र दिगम्बर ही हैं, यापनीय नहीं। यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्तिशाकटायन ने अपने ग्रन्थ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण में स्वयं के लिए यापनीय-यतिग्रामाग्रणी विशेषण का प्रयोग कर अपना सम्प्रदाय सूचित किया है। यदि तत्त्वार्थसूत्रकार बृहत्प्रभाचन्द्र भी यापनीय होते, तो वे भी अपने नाम के साथ इसी विशेषण का प्रयोग करते। किन्तु, नहीं किया, इससे भी सिद्ध होता है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। ६ 'दशसूत्र' शब्द का प्रयोग इसके अतिरिक्त बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को दशाध्यायी होने के कारण दशसूत्र नाम भी दिया है और 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने पृष्ठ २०६ पर स्वयं स्वीकार किया है कि "दिगम्बर-परम्परा में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र को भी 'दशसूत्र' कहा जाता है।" यह साम्य भी बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरीय होने का अतिरिक्त प्रमाण है। १०. देखिए , अध्याय ११/प्रकरण ४/ शीर्षक ९ षट्खण्डागम का भाववेदत्रय यापनीयों को अमान्य।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दविशेष-सूची तृतीयखण्डान्तर्गत त्रयोदश अध्याय से लेकर पञ्चविंश अध्याय तक आये विशिष्ट शब्दों (व्यक्तियों, स्थानों, ग्रन्थों, लेखों, अभिलेखों, कथाओं, सम्प्रदायों, गणगच्छों इत्यादि के वाचक तथा पारिभाषिक शब्दों) की सूची नीचे दी जा रही है। इसमें पादटिप्पणीगत शब्द भी समाविष्ट हैं। दो पृष्ठाकों के बीच में प्रयुक्त योजक-चिह्न (-) बीच के पृष्ठों का सूचक है। अ अकलङ्कग्रन्थत्रय ५४१, ५४३ अकलङ्कदेव (भट्ट) ३४७, ४९४, ५०६, ५०७, ५५५, ५७९, ५८२, ५९५, ५९६, ६२६ अकलंकचरित ४९७ अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन, १२वाँ अधिवेशन बनारस, (जनवरी १९४४) ५५७ अग्रधर्म (मुनिधर्म) ६४० अचेलत्व, (ता) ७८९ अचेलपरीषह ४०८ अचेलव्रतभंग के प्रायश्चित्त ७६६, ७७७ अणुधर्म (श्रावकधर्म) ६४० अतिवीर्य राजा ६३५ अथालन्दक, अथालन्दिक, यथालन्दिक मुनि १७५ अथालन्दसंयम (श्वेताम्बरमतानुसार) १७५, १७६, १७७-१८१ अथालन्दसंयम (दिगम्बरमतानुसार) १७७-१८१ अदर्शनपरीषह ४०८ अदिगम्बरीय मान्यताएँ ७३० अद्धासमय (काल) ३२२, ३८६, ३८७, ४४८ . अनगारधर्म २८४ अनगारधर्मामृत (पं० आशाधर) २२०, ३३४ अनवद्या (भ० महावीर की पुत्री-श्वे०) ६६६ अनस्तमित भोजन (अन्थउ) ७३० अनाहारक २९१, २९५ अनुत्तरवाग्मी कीर्ति ६४६, ६४७ अनुदिश (स्वर्ग ९) २१८, ४४५, ६९३ अनुयोग (चार)-दिग. एवं श्वे. मतों के अनुसार १३९, ६४३ अनुयोग (निरूपणद्वार) १०० अनुयोगद्वारसूत्र ५, ३९१-३९५, ४०७ अनेकान्तजयपताका ५०४ अनेकान्त (मासिक पत्र) ५८, ६५, ८०, ८५, ८६, ९१, १९६, ३२४, ३७०, ४१९, ४४५, ५०९, ५४०, ५५७, ५६५,५६६,५६८,५७०-५७३,५७६, Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ५७७, ५७९, ५८२, ५८६, ५८८५९०, ५९३ - ५९५, ६०३, ६०५ -६०७, ६०९-६१३, ६१५, ६१६ अनेकाम्बरसंवीता (श्वेताम्बर आर्यिका ) ७०९ अन्तरद्वीप ४२५, ४४५, ४४६, ६९५ अन्ध- पंगुकथा ६७८ अन्धलक- घोटक - न्याय २३७ अन्यतीर्थिक (अन्यधर्मावलम्बी ) ७६६ अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध (देखिये, परतीर्थिकमुक्ति-निषेध) अपदान (बौद्धग्रन्थ) ४१६ अपराजितसूरि (विजयोदयाटीकाकार) ४, ११, १६-१८, २० - २४, २७, ६३, १०४, १०८ - ११२, ११५ - १४६, १४८, १४९, १५३-१७५, १८०-१८६, १८८, १८९, ४२३ - ४२५ अपराजित स्वर्ग ४३८ अपरिग्रह २८५ अपरिग्रहमहाव्रत-भंग प्रायश्चित्त ७६७ अपरिग्रह - महाव्रत में वस्त्रग्रहण का निषेध ७७९, ७८१. अपवाद (परिग्रह ) ९, १४१ अपवाद (आपवादिक) लिंग १. भ्रष्ट दिगम्बर जैन मुनि का अस्थायी सचेललिंग १६५, १६६ २. श्रावक का सवस्त्रलिंग ८ - २४, १४१ - १५४ ३. श्राविका का बहुवस्त्रात्मकलिंग ११-१३ ४. मुनि के लिए अपवाद ( निन्दा) का कारणभूत लिंग ८, १९ ५. गृहिभावसूचकलिंग ९ ६. मुक्ति के लिए त्याज्यलिंग १० ७. यापनीय मुनि का सचेललिंग २०४-२०६, ६५९ अपवाद और विकल्प में भेद १४७ अपायानुप्रेक्षा ४०६ अभयदेव सूरि (सन्मतिसूत्रटीकाकार) ४७३, ४८३, ४९७ अभिग्रहविधान ५४ अभिधानचिन्तामणि (हेमचन्द्र) ७२६ अभिधान राजेन्द्र कोष १७६, २४०, २५५ अभिनवधर्मभूषण यति ४५८, ६७६ अभेदवाद (एकोपयोगवाद) : (देखिये, केवलि - उपयोगद्वय) अभ्यन्तर परिग्रह ३९, ३२ अभ्युपगमवाद ४८५ अभ्रावकाशयोग ६५७, ६६१ अमरचन्द्र दीवान ७७, ८० अमितगति आचार्य ३, ५६ अमितसेन (पुन्नाटसंघाग्रणी ) ७०० अमितास्रव मुनि ७३६ अमृतचन्द्र आचार्य ७९१ अमोघवृत्ति (पाल्यकीर्ति शाकटायन) ६१ अयाचनापरीषहजय (श्वे०) २७५, २७६. अर्धफालक (वस्त्र का आधा टुकड़ा) ७५३, ७५४, ७६१ अर्धफालक (साधु, संघ, सम्प्रदाय) ७४६, ७५३, ७६० अर्धमागधी १९७, ४५१ अर्हमुनि (रविषेण के दादा गुरु ) ६४५ अलङ्कारचिन्तामणि ५१७ For Personal & Private Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पचेलत्व २०० अवचूरि (श्वे. ग्रन्थ) ५१८ अवमौदर्य कष्ट ४ अवर्णवाद १६८, १६९, ३४७ अवसान (वस्त्ररहित) १७७ अविकारवत्थवेसा (आर्यिका) २८३ अविनीत (गंगवंशी राजा) ५१० । अशोकरोहिणी-कथानक (बृ.क.को.) ७३५, ७३६,७३८,७४०,७४३-७४६,७४९, ७५७, ७५८ अशोक-स्तम्भलेख ४१५ अष्टशती (अकलंकदेव) ४८४,५६४,५९१ अष्टसहस्री (विद्यानन्द स्वामी) ५४३,५४४, ५६४, ५६५, ५७१, ५७२ असत्यभाषण-कथानक (बृ.क.को.) ७४० अस्पर्शयोग ६६१ आगमविच्छेद ४४३, ४६३ आगमविच्छेद श्वेताम्बरपरम्परा में भी ४६३ आचार (चरण = आचरण) ९७ आचारजीत (आचार का क्रम) ९८ आचार, जीतकल्प ९५, २३८ आचारप्रणिधि (श्वे. दशवैकालिकसूत्र का अध्ययन ८) १२५, १५६ आचारसार (वीरनन्दी) २२० आचारांग ४५, ५२,७०, २६३, २६४, २६७, २६९, २८३, २८४, ६६६ - शीलांकाचार्यवृत्ति २५९ आचार्यपरम्परा (दिगम्बरमतानुसार) ४४२ ।। आचार्यपरम्परा (श्वेताम्बरमतानुसार) ४४२ ।। आचेलक्य ६, ७, ७४, १९८-२०२, ७६६, । ७६७, ७७६, ७८२ शब्दविशेष-सूची / ७९५ आतापनयोग ६६१ आतुरप्रत्याख्यान, आउरपच्चक्खाण (वीरभद्र) ६६, ६८-७२ आत्माराम (उपाध्याय, श्वे. मुनि) ३९० आदिपुराण १७३, ४५३, ६८१ आदिब्रह्मा ऋषभदेव ६८१ आपुलीसंघीय ७१७, ७१८ आप्तपरीक्षा (विद्यानन्द स्वामी) ३७५, ३७६, ५४२-५४४ आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र) ४५४, ४८४, ५४३,५४४,५४७-५५०,५५६-५६०, ५६३,५६४,५६९-५७२,५७५,५७७, ५७८, ५८२, ५८३-५८६, ५९३, ६०३-६०८,६१४, ६१५ आरणाच्युतस्वर्ग ६४१ आराधनाकथाकोश (नेमिदत्त) ७०१ आराधनाकथाकोश (प्रभाचन्द्र) ७०१ आराधनानियुक्ति २३९ आराधनानियुक्ति (भगवती-आराधनागत) २४१ आराधनापञ्जिका (भगवती-आराधना की टीका) ५६ आराधनापताका (श्वे. ग्रन्थ) ६९ आर्यमंक्षु-नागहस्ती (दिगम्बर) ४५७ आर्यमंगु-आर्यनागहस्ती (श्वे.) ५१९ आर्या (आर्यिका) : २२३, ७५७ आर्यान्त नाम ५, ६२ आर्यिका ६३४, ७५६ आर्षमत ३८८ आलोचना ७७७ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ९५ ७९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ आवश्यकनियुक्ति (भद्रबाहु-द्वितीय, श्वे.) उत्तरपुराण (गुणभद्र) ७३० ... ७०, १३९, २४४, ४९८, ६२५, उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ (परम्परा, आवश्यकनियुक्ति (मूलाचारगत) २४० सम्प्रदाय) २५३, ४१२, ४१३, ४५७, आवश्यक (प्रतिक्रमणसूत्र) ७७७ . ६२५, ६२६ आवश्यकसूत्र ५, १००, ४०४ उत्तराध्ययन-नियुक्ति (भद्रबाहु-द्वितीय, आशाधर (पण्डित) ३, १०५, १०७-११२, श्वे०) ४९८ उत्तराध्ययनसूत्र ७५,७६,१६१,१६२, २५६, आहार २९१, २९४ ३९३, ३९५, ४००, ४०१, ४०५, ४०६ आहारक २९१ आहारदानविधि ६४३, ६४९, ७५९ . . उत्सर्ग (औत्सर्गिक) लिंग आहारसंज्ञा २९५ - मुनियों का अचेललिंग उत्सर्ग लिंग ८, ९, १४, १०४, १४६ . .- आर्यिकाओं का एकवस्त्रात्मक-लिंग इच्छाकार ६३८, ७५५ उत्सर्गलिंग ११, १२, १०४ इच्छापरिमाणवत २८७ - गृहस्थ से भिन्नत्व-ज्ञापक लिंग इच्छामि ७४० उत्सर्गलिंग १० इत्सिंग (चीनी यात्री) ५०३ । - शुद्धोपयोग उत्सर्ग, शुभोपयोग अपवाद इन्द्र (रविषेण के गुरुओं के गुरु) ६४५ १५२ इन्द्र (छेदपिण्डकार) ७६९ . - उत्सर्गसापेक्ष अपवाद, अपवादइन्द्रगुरु (श्वेताम्बर गुरु) ६४५ सापेक्ष उत्सर्ग १५२, १५३ इन्द्रदिन्न सूरि ५१९ उद्यापन ७४९ इन्द्रनन्दी (गोम्मटसार के कर्ता आ० नेमिचन्द्र । उद्योतनसूरि (श्वे०) ६४८ के गुरु) ७६९ उपचरित नग्न २७१, २७३ इन्द्रभूति गौतम : (गणधर) ६४६, ६४७, उपचार नाग्न्य २७१, २७२ ७१७ उपचार-नाग्न्यपरीषह २७३ इसिभासिय (ऋषिभाषित) ७६, २५७ उपचार-निर्जरा २७३ उपचार-नैर्गन्थ्य (आर्यिकाओं में) १०५ उच्वनागर शाखा २८९, ३५१, ४१३ उपचारमोक्ष २७३ उज्जयिनी-महाकालमन्दिर-रुद्रलिंग ५१९ उपचारसंवर २७३ उत्कालिक ४०७ उपदेशतरङ्गिणी (हरिभद्रसूरि) २५६ उत्तरगुण ४९, १९९, २९० उपवास प्रायश्चित्त ७७७ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दविशेष-सूची / ७९७ उमास्वाति २५३, २५४, २८९, ३२५, ३२९, ३७३, ३७५,३७७-३८१,४२५,५४२, ५४३ उमास्वामी (उमाप्रभु) ३७६, ३७७, ३७९- ३८९ उपासकाध्ययन (यशस्तिलकचम्पू के अन्तर्गत) ६०२ उपकप्पेंति (उपकल्पयन्ति) ७८, ७९ ऋषभ (देव) ६४९ ऋषिभाषित (देखिये, 'इसिभासिय') एकान्त-अचेलमार्गी-समान-आचार्यपरम्परा ६६ एकान्त-अचेलमुक्तिवाद १६७ एकान्त (ऐकान्तिक) अचेलमुक्तिवादी - (अचेलमार्गी) निर्ग्रन्थसंघ (मूलसंघ, दिगम्बरपरम्परा) ६७ एकाम्बरसंवीता (एकवस्त्रधारिणी = आर्यिका) ७०९ एकोरुक द्वीप ४२५ एकोरुक मनुष्य ४२५ ए० एन० उपाध्ये (आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये) ६५, १९४, १९६, ४२२, ६१७-६२० एलक ७७५ एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता ४७५ एषणाएँ (श्वे० साधुओं के लिए विहित) - पिण्डैषणा, शय्यैषणा, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा, अवग्रहैषणा २७५ एषणीय वस्त्रधारण २७२ औ औदार्यचिन्तामणि (व्याकरणग्रन्थ) ३७९ कटकाभरण जिनालय ६२४ कण्ठ (वैदिक ऋषि) ६८० कण्डूर् (काण्डूर, काडूर) गण १७३,७६८, ७८३ कथावतार की दिगम्बरपद्धति ६४३, ७१७, ७१८ कमठ ६८० करकंडुचरिउ (कनकामर मुनि) ५१७ करञ्जजालिका (पिच्छी) ६३८ करण (षडावश्यक) ९७ कर्कण्ड-महाराज-कथानक (बृ.क.को.) ७५१ कर्णामृतपुराण ४७१ कर्नाटक (कर्णाटक) ६२०, ६२४ कर्मणा वर्णव्यवस्था ६८०, ६८१ कल्प ('कल्प' नामक स्वर्ग) ६४३, ६८०, ६९३, ७१९ कल्प (साधुओं का आचार) ६, ९७ कल्पसंख्या २१७, ४४४ कल्पनियुक्ति (कल्पसूत्रनियुक्ति) ७८ कल्पव्यवहारधारी (कप्पववहारधारी) ९९ कल्पसूत्र ४५, ५०-५२, ७०, १३९ - कल्पकौमुदीटीका ९६ - कल्पप्रदीपिकावृत्ति ९७ - स्थविरावली (थेरावली) ५१८ कल्प्यगुण (योग्य गुण) ९८ कल्याणकारक (वैद्यक ग्रन्थ) ४७१ कल्याणमन्दिर (ग्रन्थ) ४७२ कल्याणमन्दिर स्तोत्र (कुमुदचन्द्राचार्य) ४७२, ४८१, ५१९ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ कल्याणविजय (श्वे० मुनि) ३ ६२३, ६२४, ६२९, ६४५, ६५६, कवलाहार, कवलाहारी २९५ ६८७, ७०२, ७१७, ७२१ कसायपाहुड (कषायप्राभृत भाग १२) २१६ । कूर्चक (एक जैन सम्प्रदाय) ३७०, ३८१ - चूर्णिसूत्र ४५६, ४५७ कृतिकर्म ६ - प्रस्तावना (भा.१) ४३१ कृष्ण ६४९, ६५१, ७१२ काठियाबाड़ ७०१ कृष्ण की आठ पट्टरानियों की आर्यिकादीक्षा काणूर (क्राणूर) गण १७२, १७३, ६७५, ६८९, ७१० ७८३ केवलि-उपयोगद्वय कापालिक (सरजस्क) २५९ - क्रमवाद, क्रमपक्ष ४८४,४८५,४९७, काम्बलतीर्थ, काम्बलिकतीर्थ (श्वेताम्बर ४९८, ५०६, ५२६, ६१८, ६२५ सम्प्रदाय) ७६०, ७६२ - युगपद्वाद, यौगपद्यवाद, युगपत्पक्ष कार्तिकेयानुप्रक्षा ७४१ ४८४, ४८५, ४८६, ४९८, ५०१ ५०३, ५०६, ५०७, ५२५, ५२६ कालकसूरि आर्यरवपुट्टाचार्य ५१९ - अभेदवाद, अभेदपक्ष, एकोपयोगवाद कालद्रव्य ६९४ ४८२, ४८६, ४९६, ५०१, ५०६, कित्तूर (कीर्तिपुर, पुन्नाटदेश की पुरानी ५२६, ५२७, ६१८ . . . राजधानी) ७०० - अभेदवाद-पुरस्कर्ता : सन्मतिसूत्रकार कित्तूरसंघ ७०० सिद्धसेन ४८२, ४८३, ४९६, ५०६ किमिच्छ, किमिच्छक दान ६७० केवलिभुक्ति (कवलाहार) १६८ कुतीर्थलिंगी ७५९ केवलिभुक्तिनिषेध ३०, १३७, २८९, २९८, कुन्दकुन्द आचार्य ५५, २४५, २७४, ४४१, ६५५, ६५६, ६९२ ४५५, ५४६, ५८२, ६००, ६०६, केवलिभुक्तिप्रकरण (पाल्यकीर्तिशाकटायन) ६२०, ६७७ ४६२ कुप्य (वस्त्र) ३२ केवलिभुक्तिभ्रम-परिहार ७९० कुभोगभूमियाँ ४४६ कैकेयी ६४२ कुमानुष ४४६ कैलाशचन्द्र शास्त्री (पं०) ८०, ९२, ९४, कुमानुषद्वीप ४४६ ११२, १७१, १९४, १९५, ३३५, कुमुदचन्द्र (कुमुदचन्द्राचार्य) ४७२ ४३१ कुवलयमाला (उद्योतनसूरि, श्वे०) ६४८ कैलाशचन्द्र शास्त्री (सिद्धान्ताचार्य, पं०) कुसुम पटोरिया (डॉ० श्रीमती) ३, ११५, अभिनन्दन ग्रन्थ ३४७, ३५० १६८, १६९, १९७, ६२०, ६२१, कोटिमडुवगण (यापनीयसंघ) ६२४ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोप्पल (यापनीयों का मुख्य पीठ) ६७६ कौण्डिन्यगोत्रीया (भगवान् महावीर की पत्नी यशोदा, श्वे०) ६६६ क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी । समन्तभद्र एक हैं? (लेख-पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) ५७७, । ६११ क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्त- भद्र की कृति नहीं है? (लेख-पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) ५५७, ६०५, ६१३ क्राणूर (काणूर) गण (दिगम्बरसंघ) ७६८ क्षतत्राण ६८१ क्षत्रिय ६८१ क्षुल्लक ६३७, ६३८, ७४०, ७४५, ७४६, . ७५४-७५६, ७७५ क्षुल्लकधर्म ७५६ क्षुल्लिका ७४१, ७५६, ७५७ ... क्षौल्लकधर्म ७४६ . ख खण्डलक ब्राह्मण १६० खण्डश्री-कथानक (बृ. क. को.) ७५१, ७५४,७५५ . खमण (क्षपण, क्षपणक) : देखिये 'क्षपण'। खमण (उपवास) प्रायश्चित्त ७६६ ख-वासस् (दिगम्बर) ६३१ खुड्डक, खुड्डग (क्षुल्लक = नवदीक्षित युवा साधु-श्वे०) ७७५ शब्दविशेष-सूची / ७९९ गणी ४५९, ४६० गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था ६८२ गुणभद्र (आचार्य) ६४७, ६४९ गुणस्थान ७२५ गुणस्थानविकासवाद (वादी) ६९ गुणस्थानसिद्धान्त ६९५ गुरुपरम्परा से प्राप्त दि० जैन आगम : एक इतिहास २३ । गध्रपिच्छ (आचार्य, तत्त्वार्थसूत्रकार) ३७५, ३७८, ३७९, ४१८ गृहस्थ ६३२ गृहस्थ (गृहलिंगी)-मुक्तिनिषेध २९, १२८, २६१, ६३९, ६८९, ७४४, ७५८, ७८३ गृहस्थमुनि (क्षुल्लक) ६३९ गोम्मटसार कर्मकाण्ड २९३ -जीवकाण्ड २९१ -जीवतत्त्वप्रदीपिकाटीका १८७ गोवर्धन (श्रुतकेवली) ७६० गौतम स्वामी ६३५, ६४१, ७७७ चउसरण (चतुःशरण-श्वे० ग्रन्थ) ६९ चक्ररथ चक्रवर्ती (सीता का जीव) ६४२ चतुर्दशपूर्वी, चतुर्दशपूर्वधर (श्रुतकेवली) ४९९, ७६१ चन्द्रनन्दी आचार्य (यापनीय) १७० चन्द्रनन्दी महाप्रकृत्याचार्य (दिगम्बर)१६९ चरण (गुप्ति-समिति) ९७ चरमदेहोत्तमपुरुष ३१९ चरमोत्तमदेह ३१९ चातुर्वर्ण श्रमणसंघ २२९ गजकुमार-कथानक (बृ.क.को.) ७५१,७५८ गणधर (आचार्य) २२९ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ८०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ चामुण्डरायपुराण (त्रिषष्टिलक्षण महापुराण) जातस्वरूप ६३०, ६३१ ६४७ जातिनामकर्मोदय से मनुष्यजाति का एकत्व चारित्तपाहुड २४५, ४०२, ४०३, ४०५ ६८१ चारित्रसार (चामुण्डराय) २२०, ६०२ जितशत्रु (राजा सिद्धार्थ के भगिनीपति) चेल (परिग्रह का उपलक्षण, देशामर्शकसूत्र) ७०२ जिनकल्प (दिगम्बर अचेललिंग का श्वेचेलोपसृष्ट मुनि (सामायिकरत श्रावक)५९१ ताम्बराचार्यों एवं बृहत्प्रभाचन्द्राचार्य चैत्यभक्ति ५३ द्वारा किया गया नामकरण) ७८७, चैत्यवास, वनवास ६०१ ७८९ चैत्यवासी मुनि, वनवासी मुनि ६०१ जिनकल्पानुकारी (दिगम्बरमुनि) ७८९ चौंतीस अतिशय ७२९ जिनकल्पिसूत्र (बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थ सूत्र) ७८७, ७८९ चौदहपूर्वी ४४३ जिनकल्प-स्थविरकल्प (दिगम्बरमान्य) १७६, १७७, ७८८, ७८९ छलवाद ६५६, ६५८, ६६२, ६८२ जिनकल्प-स्थविरकल्प (श्वेताम्बरमान्य) छेदपिण्ड (छेदपिण्डप्रायश्चित्त) ७६५-७७६ ७६२ छेदशास्त्र ७६५, ७७६, ७७७ जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्री फड़कुले (पं०) छेदसुत्त ७८४ ९६, ११२ जिनप्रतिबिम्ब अचेललिंगधारी २० जटासिंहनन्दी (जाटिल मुनि) १७२, ४४४, जिनबिम्बप्रतिष्ठा ६७१, ६७४ ६४८,६५५-६५८,६५९,६६३,६६८, जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ६२५ ६७१, ६७२, ६७४-६८१ जिनभाषित (जिनोपदिष्ट) ६३५ जन्नकवि (कन्नड़) १७२ जिनविजय (श्वे० मुनि) ५०४ जन्मना वर्णव्यवस्था ६८० जिनशतक (समन्तभद्र) ५८८ जम्बूविजय (श्वे० मुनि) ५०३ - जिनसेन आचार्य (हरिवंशपुराणकार) ६८७, जम्बूस्वामी ४४३, ६४७ ६९३, ६९५, ६९६, ६९९-७०२ जयधवलाटीका ३४१, ४४३, ४५१, ४७०, जीत (अवश्य करने योग्य आचरण) ९७ ७३७ जीतकल्प (करण = षडावश्यक) ९६, ९७ जयन्त स्वर्ग ४३८ जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या (चन्द्रसूरि) जयसेन आचार्य २२४ ४६९, ६२० जातक (बौद्धग्रन्थ) ७५ जीतकल्पभाष्य (जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण) जातरूप, जातरूपधर ६३४, ६६०, ६६१ ७६, ७८, २३३ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुगलकिशोर मुख्तार ( पं०) १९४, ४४४, ५३३, ५३४, ५३९, ५४०, ५५७, ६०७, ६२५ जुगुप्सा (लोकविहिता निन्दा) २७३ Gender And Salvation (Padmanabh S. Jaini) २०४, २०६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (देवेन्द्रमुनि शास्त्री) ६९, ७०, ७८, २४१, २४४, ३९१ जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय (लेख - प्रो० हीरालाल जैन ) ५५७, . ५५८, ५७६, ५७७, ५९३, ६०४, ६०५ जैन जगत् (मासिकपत्र ) ५४१ जैन तत्त्व विद्या ( मुनि प्रमाण सागर) ४४६ जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन (डॉ० दरबारीलाल कोठिया) ३५१ जैनधर्म का मौलिक इतिहास (आचार्य हस्तीमल) भाग १७५९ भाग २७६१ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय (डॉ० सागरमल जैन ) ४, ४०, ५८, ६७, ७०, ७१, ९२, १४२, १४८, १४९, १६९, १७५, १८१, १८३, १९७, २१२, २३०, २३४, २४७, २५३, २८८, २८९, ३११, ३१८, ३४५, ३६८, ३७१, ३८३, ३८७, ३९१, ४०१, ४१३, ४१४, ४१७, ४३१, ४४४, ४५६-४६१, ४६३, ५३३-५३४, ५३६ - ५३९, ६१७, ६२४, ६२५, ६२९, ६३९, ६४४, ६५०, ६५५, ६५६, ६५९, ६६१-६६३, ६७० ६७१, 1 — शब्दविशेष- सूची / ८०१ ६७४-६७७, ६७९-६८१, ६९९, ७०१, ७०२,७०४, ७०७-७१०,७१९-७२१, ७२४, ७३५, ७४४, ७५८, ७६०, ७६५, ७६९-७७२, ७७६-७७८, ७८७ जैनधर्म के प्रभावक आचार्य (श्वे० साध्वी संघमित्रा ) ३७४, ६७९ जैनधर्म सम्प्रदाय (डॉ० सुरेश सिसोदिया) ५५, २०९ जैनलिङ्ग (दिगम्बरमुद्रा ) ६३६, ६३७ जैन शिलालेख संग्रह ( मा.च.) - भाग १६२ भाग २ १६९ - भाग ३ > ४२० जैन साहित्य और इतिहास ( नाथूराम प्रेमी ) - प्रथम संस्करण ३, ५५,६१,६४, ८७, ९१, ९४-९६, १७०, १७१, ६०१, ७०१ - द्वितीय संस्करण १५, ८५, ९९, १०१, १५७, १९७, १९८, २३६, २३८, २३९, २४४, २४५, २४१, ३४३, ३७३, ३८२, ४१९, ४२३ - ४२५, ६२९, ६४५, ६४८, ७००, ७०१ जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश (प्रथम खण्ड, जुगलकिशोर मुख्तार) ३०७, ३१५, ३२६, ५५६, ५५९५६४, ५६९, ५७५, ५७७-५७९, ५८२, ५८६, ५८७, ५८९, ५९२, ५९३, ५९५, ५९८, ६०२, ६०३ जैन साहित्य का इतिहास ( पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री) - पूर्वपीठिका १७१ — For Personal & Private Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ -भाग) २३१३, ३२१, ३३१, ३३६, २७२, २७८, २७९, २८२, २८६३८७, ३८८ २९२, २९४, २९९, ३०३, ३१८, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास (मोहनलाल ३२०, ३२२, ३२५, ३२८, ३३४, दुलीचंद देसाई) ५२९ ३३७,३६५,३६६-३७२,३७४-३८४, जैनसिद्धान्त भास्कर (मासिक पत्र) ४६१, ३८६-४१२, ४१७-४१९, ४२३, ५१६, ५४१, ५४२ ४२५-४२७ जैनाभास (गोपुच्छक आदि पाँच) ५७ तत्त्वार्थकर्तृ-तन्मतनिर्णय (श्वेताम्बर मुनि जैनेन्द्र व्याकरण (पूज्यपाद देवनन्दी) ५०१, सागरानन्द सूरीश्वर) ३९३, ३९४ ५०८, ५५६, ५८८, ६२६ तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति (सिद्धसेनगणी) २५६, जैनेन्द्री दीक्षा ७४५ २७१, २७३, २७९, ३०३, ३१२, जैमिनी (दार्शनिक) १६९ ३१५,३१७,३२०-३२२, ३२९,३३०, जोहरापुरकर (विद्याधर, डॉ०, प्रो०) ६९९ ३३२, ३३४, ३४२, ३४४, ३८५, ज्ञाता-(ज्ञातृ)-धर्मकथांग ४२,५२,७१,७५,, ३८६, ४२३, ४४६ २८८,४०२, ४३६-४३८,६६५,६९४, तत्त्वार्थराजवार्तिक (तत्त्वार्थवार्तिक) १७२, ७८३ १७४, २५७, २६१, २७६, ३१३, ज्ञानबिन्दु (उपाध्याय यशोविजय) ४८३ ३३२,३३३, ३४१,३४७-३५०,४९७, - प्रस्तावना (पं० सुखलाल संघवी) ५५५, ५७९, ६१५, ६२६, ६९७ ४८०, ४८३-४८५,४८८,५०२, ५०८ तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरसूरि) १६५, १७४, ज्ञानार्णव ५९८ ३७९, ३८१, ३८७, ७७० ज्येष्ठता का पालन (स्थितिकल्प) ६ - प्रस्तावना (पं० महेन्द्रकुमार न्यायाज्योतिप्रसाद जैन (डॉ०) १९३ चार्य) १६५, ३७७ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ३१६, ३७५ टालेमी (भूगोलवेत्ता) ७०० तत्त्वार्थसार ३४१ टुची (Tousi) प्रोफेसर ४९४ तत्त्वार्थसूत्र (विवेचनसहित-पं० सुखलाल संघवी) २५३, २७९, ३०५, ३२९, डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ ६९, ३३१, ३३५, ३५१, ३५६, ३६९, ७२, ११५, २५६, ६२९ ३७७, ३८१, ३८२, ३८५, ३८८, ३९०, ४००, ४४५, ७८० तत्त्वसंग्रह (शान्तरक्षित, बौद्ध) ४९३ तत्त्वार्थसूत्र (सम्पादक-जुगलकिशोर तत्त्वसंग्रहटीका (कमलशील, बौद्ध) ४९३ मुख्तार) ७८७ तत्त्वार्थ (तत्त्वार्थसूत्र) १८,७०, २५३-२५५, तत्त्वार्थसूत्र (बृहत्प्रभाचन्द्र) ७८७, ७८९. २५७, २५८,२६०-२६३, २६६, २७१, ७९१ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अपरनाम : दशसूत्र, जिनकल्पिसूत्र ७८७, ७८९-७९१ तत्त्वार्थसूत्र - हारिभद्रीयवृत्ति २६६, २७१२७३, २७६, ३१०, ३३२ तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण (पं० दरबारीलाल कोठिया) ५४३ तत्त्वार्थसूत्र - जैनागमसमन्वय ३९०, ३९१, ३९४, ४०६, ४०९, ४४५ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर मान्य) २५७, २५९, २६२, २८७, २८८, २९४, ३०७, ३०९, ३१४, ३१७, ३१८, ३२१, ३२६, ३३६, ३८६, ३९८, ४२३, ६९४, ६९७ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (तत्त्वार्थभाष्य) २५३ - २५५, २५९, २६३, २७०, ५७८, २७९, २८५, २८७, २९०, २९८, ३००, ३०७, ३१४, ३१७-३१९, ३२१, ३२२, ३२४, ३२७, ३२८, ३३१, ३३५, ३३६, ३३८-३४६, ३४८-३७५, ३७९, ३८१, ३८२, ४२४-४२६, ४४७, ४४८, ५०६, ६६७, ६९४ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति ३२४, ३२६ तालपलंबसुत्त (तालप्रलम्बसूत्र) ७, ८१८५ तित्थोगालियपयन्नु (तीर्थोद्गालिक ) ४६३ तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) १९३, २१९, २८१, ४३१-४५१, ४५३-४५८, ५६१-४६५, ६८०, ७२६, ७२९ तीर्थंकरगोत्र ७३९ तीर्थंकरप्रकृतिबन्धक - कारण (दि० - १६, श्वे० – २०) ६९४ शब्दविशेष- सूची / ८०३ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ३, १६५, १९६, २३४ तीर्थंकरमाता द्वारा देखे जानेवाले स्वप्न (दि० – १६, श्वे० – १४) ६९४ तीर्थंकरीतीर्थसिद्ध (श्वे० मान्यता) २७८ तेरापन्थ (श्वेताम्बर) ७२ त्रिलक्षणकदर्थन ( पात्रकेसरी) ४९३ त्रिषष्टिशलाका - महापुराण (चामुण्डराय ) ५८६ द दंसणपाहुड (दर्शनप्राभृत) २४५, ४०९ - श्रुतसागरटीका ५०, १६६ (अपवादवेष), ४२१ — दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य ( पं० ) ५४२, ५४३, ५७२, ६०५ दर्शनपरीषह (समवायांग) ४०८ दर्शनसार (आ० देवसेन) ५१० दलसुख मालवणिया ( पं० ) ३४७ दशरथ ६४२ दशवैकालिकसूत्र (श्वे०) ३१, ५२, ५३, १६२, १७०, २६९, ३६७ दशवैकालिकसूत्र (दिगम्बरीय) १७०-१७२ -श्रीविजयोदयाटीका (अपराजितसूरि) १७० दशसूत्र (बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र) ७८७, ७९१ दिगम्बर (जैनमुनि) ७५२ दिगम्बरगुरु- परम्परा ६९५, ६९६ दिग्नाग (बौद्धदार्शनिक) ४९४ दिग्वासस् ६३३ दिन्नसूरि ( श्वे० आचार्य) ५१९ For Personal & Private Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ दिवाकर मुनिपुंगव ६२४ दैगम्बरी दीक्षा ६३५, ६५७, ७५०, ७५१, दिवाकर, दिवाकरयति (सन्मतिसूत्रकार ७५३ सिद्धसेन) ५२१, ६४५ द्रव्यपरिग्रह ४० दिव्यध्वनि ७२९ द्राविड़संघ ५१० दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक ४५१ द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका ४७३, ४७४ द्वात्रिंशिकाएँ ४७०, ४८१, ४८२ दिव्यावदान (बौद्धग्रन्थ) ४१६ द्वात्रिंशिकाएँ (केवली-उपयोग-युगपद्वादी) दीक्षालिंग भक्तप्रत्याख्यानलिंग १०६, १०७ ४८४ दुर्विनीत (गंगवंशी राजा अविनीत का द्वात्रिंशिकाएँ (द्वितीय, पंचम) ५२४ उत्तराधिकारी, पूज्यपाद का द्वादशकल्प (बारह सौधर्मादि स्वर्ग) ३८२, शिष्य) ५१० ३८३, ३८४, ' दुःषमाकालश्रमणसंघ-स्तव ५१८ द्वादशवर्षीयदुर्भिक्ष ७४१, ७५३ देवकी (कृष्णमाता) ७२७ द्वादशारनयचक्र (मल्लवादी, श्वे०) ५०२ देवदूष्य वस्त्र १५९ द्वेष्य-श्वेतपट (न्यायावतार के कर्ता तथा देवर्द्धिगणि-क्षमाश्रमण २३५ । वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन) ४९१, देवेन्द्र मुनि शास्त्री ६९ ५३६, ५३७, ६१९ द्रोणाचार्य ६८० देवेन्द्रस्तव (श्वे० ग्रन्थ) ६९ ध देशभूषण और कुलभूषण राजकुमार धनञ्जय-नाममाला ५९० ६३५ धम्मपद (बौद्धग्रन्थ) ७५ देशयति (देशव्रती, देशविरत, श्रावक) ७७२, धरसेन (आचार्य) ७४१ ७७३, ५८९ धर्मकथाग्रन्थ २४१ देशामर्शकसूत्र (देसामासियसुत्त-उपलक्षक धर्मकीर्ति (बौद्धाचार्य) ४९२ शब्द) ७, ८१-८५ धर्मक्षेत्र (कर्मभूमि) १७८ - 'तालप्रलम्ब' (तालपलंब) देशा- धर्मलाभ हो (आशीर्वचन-श्वेताम्बर, मर्शकसूत्र ७, ८१-८५ यापनीय) ६३९ - 'आचेलक्य' देशामर्शकसूत्र ७, ८, धर्मवृद्धि हो (आशीर्वाद-दिगम्बर) ६३८, ८१-८३ ६३९ - णमोकारमंत्र' देशामर्शक मंगलसूत्र धर्मोत्तर (बौद्धाचार्य) ४९२ ८४ धवलाटीका (देखिये, 'षट्खण्डागम') देशावकाशिकव्रत ६७९ धान्यकुमारमुनि-कथानक (बृ. क.को.)७५१ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न नन्दिसूत्र (नन्दीसूत्र) ६९, ७०, ३९१, ३९४, ३९६, ४०७ नदिसूत्र की पट्टावली (स्थविरावलि) ४४२, ५१८ नन्दीश्वरभक्ति २९३ नदीसूत्र की हिन्दी विवेचना (लालमुनि जी एवं मुनि पारसकुमार जी ) ६९ नन्दीवृत्ति (आ० हरिभद्र ) ४८५ नन्द्यन्त नाम ५, ६२ नपुंसकवेदनोकषायकर्म ७४२, ७४३ नपुंसकशरीरांगोपांग नामकर्म ७४२, ७४३ नयसार ग्रामचिन्तक ( महावीर का प्रथम भव - श्वे०) ७५९ नाग (नागपुर का राजा) ७५० नागदत्तमुनि - कथानक (बृ.क.को.) ७५० नागपुर ७५० नागश्री - कथानक (बृ.क.को.) ४५१, ७५७ नाग्न्य (लोकरूढ़नाग्न्य, मुख्यनाग्न्य, उपचरितनाग्न्य- विशे. भाष्य ) ३६७, ३७४ नाग्न्यलिंग १०४, २५८ नाग्न्यव्रत ६९० नाथूराम प्रेमी, पं० ३, १५, ६०, ६१, ६३६५, ७६, ८० - ८२, ८५-८७, ९१, ९४, ९५, ९९-१०१, ११५, १७०, १७१, १९७, ४१९, ४२३-४२५, ६०१, ६४५, ७००, ७०१ नारद ६५०, ७११ नारद (अवद्वार) क्षुल्लक ६३९ नारद - पर्वत-कथानक (बृ.क.को.) ७५२ शब्दविशेष- सूची / ८०५ निदर्शना अलंकार ३५३ नियमसार ७२, २४५, ३८८, ३९६, ३९८, ४००, ४०४, ५०७ निरम्बर २०१ निर्ग्रन्थ (नग्न) २०, २००, २०२, ४१५, ४१६, ६३२, ६३३, ६९०, ७५२, ७८२, ७८३ निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ ३७० निर्ग्रन्थशूर ६६३ निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) संघ, सम्प्रदाय, परम्परा ४१६ निर्ग्रन्थी (श्वे०) २८३, २८५, ३५८ निर्यापकगुरु, निर्यापकाचार्य ९७ नियुक्ति २४१, २४२, २४३ निशीथ : एक अध्ययन (दलसुख मालवणिया) ५२, ५३, ७८ निशीथचूर्णी ५३, ४७०, ५३४, ५३५ निशीथभाष्य ( विसाहगणि - महत्तर) ७८ निशीथसूत्र ५२-५४, १५७ निश्चयद्वात्रिंशिका ४८६, ४८७, ४८९-४९१ निश्चय - व्यवहार नय ( तत्त्वार्थभाष्य ) ३५८ निषीधिका ७८३ निह्नव ४९९ नीतिशतक (भर्तृहरि) २७७ नीतिसारपुराण (सिद्धसेन ) ४७१ नेमिचन्द्र (डॉ०, ज्योतिषाचार्य) १९४, १९६ नैगमदेव ( हरिणेगमेसि ) ७२७ नैगमनय (देशपरिक्षेपी, सर्वपरिक्षेपी-तत्त्वा. भाष्य ) ३५८ नैमित्तिक (भद्रबाहु-द्वितीय, श्वे० ) ४९८ नोकर्माहार २९१ For Personal & Private Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ न्यायकुमुदचन्द्र (आ० प्रभाचन्द्र) ४२१, पडिसंलीणया (प्रतिसंलीनता तप) ४०८ ५४१-५४५, ६०९ पण्णवणासुत्त (देखिये, 'प्रज्ञापनासूत्र') न्यायदीपिका ४५८ पद्यप्रबन्ध ४७६ न्यायप्रवेश ४९२ पद्म (श्री राम) ७२६ न्यायबिन्दु (धर्मकीर्ति, बौद्ध) ४९२, ५०३ पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) ६३ न्यायविनिश्चय (अकलंकदेव) ४९४ ।। पद्मनाभ (पद्म-राम) ६४१ न्यायविनिश्चय-विवरण (वादिराज) ४९४ पद्मपुराण, पद्मचरित (रविषेण) ५२२,६००, न्यायावतार (श्वे० सिद्धसेन) ४७०, ४७३, ६२०, ६२९-६४४, ७१८ ४७९-४८२,४८७-४८९,४९२,४९५, पद्मप्रभमलधारिदेव ५१७ ४९६, ५०९, ५८०-५८२, ५९७, पद्मरथनृप-कथानक (बृ.क.को.) ७५२ ६०३-६०५, ६१७ पन्नालाल साहित्याचार्य (डॉ०, पं०) ६५०, - सिद्धर्षिटीका ५८० ७०३, ७०४, ७४२ न्यायावतारवार्तिकवृत्ति-प्रस्तावना (पं० । परतीर्थिक अन्यतीर्थिक, परशासन, अन्यदलसुख मालवणिया) ५५६, ६०४ लिंगी-मुक्तिनिषेध १३१, २१३, २५६, ४४०, ६४०, ६६७, ६९१, ७२१, पउमचरिउ (स्वयम्भू) ६२९, ७१७-७३१ ७५८, ७८३ पउमचरिय (विमलसूरि) २८८,६२९,६४८, परमानन्द (पं०, शास्त्री) ५८, १९६, ६४३ ६७९, ७२८ परमौदारिक शरीर २९३, २९८ पञ्चप्रतिक्रमण-भूमिका (पं० सुखलाल. परलिंग-मुक्तिनिषेध २९ संघवी) ६४ पराशर (वैदिक ऋषि) ६८० पञ्चमहागुरुभक्ति (कुन्दकुन्द) ७३ परिशिष्टपर्व (हेमचन्द्रसूरि) ७६१ पञ्चवस्तु (हरिभद्रसूरि) २४०,५१८,५३४, परिहारसंयम, परिहारसंयत १७७, १७९ ६१७ परीषहजयविधान ६६४ पञ्चसिद्धान्तिका (वराहमिहिर) ५०० । पर्यङ्कासन ६६२ पञ्चाश्चर्य ७५९ पर्युषणाकल्प ६ पञ्चास्तिकाय १६७, २४५, ३९४, ३९६, पाइअ-सद्द-महण्णवो ६२१, ७६६, ७७९ ३९७-४०१, ५४६ पाखण्डिमूढ ५९९ - तात्पर्यवृत्ति (आचार्य जयसेन) ७३८ पाखण्डी (पापं खण्डयतीति पाखण्डी) पट्टावली समुच्चय (मुनि दर्शनविजय जी) ५९९, ६०० ५१९ पाखण्डी (धूर्त, दम्भी-कपटी) ६००, ६०१ पट्टावलीसारोद्धार ५१९ पाणितलभोजी ४, ६३, ८५ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डुराङ्गतपस्वी ५९० पातञ्जल योगदर्शन ३७३ पातञ्जलयोगदर्शन-भाष्य (व्यास) ३३२, ३७३, ३७४ पात्रकेसरी स्वामी (पात्रस्वामी) ४९२-४९४, ४९६ पादलिप्त (श्वे० आचार्य) ५१९ पारञ्चिकप्रायश्चित्त ४८१, ७७१ पारसी (समाज) ९१ पार्श्वनाथचरित (वादिराज सूरि) ३७५, ५८७, ५८९, ६०९ पाल्यकीर्ति शाकटायन ६१, २०३, २०५, २०६, २८१, ४१९, ६१७, ६४५, ६७७, ७९०, ७९१ पाषण्ड (मिथ्याधर्म-प्ररूपक) ७७० पी० एल० वैद्य, डॉ० ५०४ पुग्गल-मांस (दशवैकालिक, निशीथचूर्णि) शब्दविशेष-सूची / ८०७ पुरुषशरीर संयम का हेतु २५ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १४६ पुरूरवा भील (महावीर का पूर्वभव दिग०) ७५९ पुलकादि मुनि ३८७, ३८८ पुष्पदन्त (षट्खण्डागमकार) ७४१ पुष्पदन्ता आर्यिका (मायाचार का परिणाम) ४३ पूज्यपाद (देवनन्दी) ६३,३७०,५०१,५०५ ५१०, ५४०, ५४४, ५४६, ५५६, ५९५, ५९६, ६०४, ६११, ६२६ पूतिगन्धा ७३६ पूतिमुखी दासी ४३ पूर्वभावप्रज्ञापनीय नय ३५८ पृथिवीमती आर्यिका ६४२ पृथुवीकोङ्गणि महाराज (गंगवंशी) १६९ प्रकरणार्यवाचा (बौद्धग्रन्थ) ४९४ प्रकीर्णक साहित्य (श्वे० ग्रन्थ) ५, ६९, ६७७-६७९ प्रज्ञापनासूत्र, पण्णवणासुत्त, पन्नवणासुत्त ३९८, ३९९ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि २८१ प्रतिक्रमण ७७७ प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी १८३, ७६५, ७७७-७८४ -प्रभाचन्द्रकृतटीका ७८२-७८४ प्रतिमायोग १८२ प्रतिलेखन, प्रतिलेखना (पिच्छी) १७७, १७८, २४० प्रतीन्द्र ६४१ प्रत्याख्यानग्रन्थ २४१ प्रत्याख्यान-नियुक्ति (मूलाचारगत) २४१ पुण्यप्रकृतियाँ १८६, १८७, ४२३ पुन्नाग (एकप्रकार का वृक्ष) ७०० पुन्नागवृक्षमूलगण ६७४, ६७५, ७००, ७५९ पुन्नाटदेश (कर्नाटक) ७००, ७५९ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ४६२, ४६९-४८१, ४८३,४८६,४८९-४९२,४९६,४९७, ४९९,५००,५०३-५०८,५१३,५१५, ५१७,५२०-५२३,५२५,५२७-५३२,, ५३५-५३८ पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म ७४२, ७४३ पुरुषवेद (पुंवेद)-नोकषायकर्म ७४२, ७४३ पुरुषवेद प्रशस्तवेद १८६, १८७ पुरुषशरीर प्रशस्तवेद १८६, १८७ For Personal & Private Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ प्रत्युत्पन्ननय, प्रत्युत्पन्नग्राही नय ७०६ प्रवचनसारोद्धार (श्वे० ग्रन्थ) १३६, ४३८ प्रथम शुक्लध्यान १८८, १८९ प्रवर्तकाचार्य १९४ . प्रद्युम्नचरित ६४४ प्रवर्तनी ३५८ प्रबन्धकोश (राजशेखर) ४७२, ४७६ । प्रव्रज्या (निश्चय, उपचार) २३२ प्रबन्धचिन्तामणि (मेरुतुंगाचार्य) ४७२, ४७७ ।। प्रशमरतिप्रकरण (उमास्वाति, श्वे०) २५४ प्रभव स्वामी (श्वे० श्रुतकेवली) ६४६, प्रशस्तनिदान २६ ७२८ प्रशस्तलिङ्ग १४, १५० प्रभाचन्द्र आचार्य (प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्राकृत साहित्य का इतिहास (डॉ० जगदीशकर्ता) ७६, ७७, २३३ चन्द्र जैन) ३९१ प्रभाचन्द्र-पण्डित (प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी के प्रायश्चित्त (दशविध) ७६५ संस्कृतटीकार) ७७७ प्रायश्चित्तसंग्रह ७७६ प्रभावकचरित (प्रभाचन्द्रसूरि, श्वे०) ४७२, प्रियदर्शना (भ. महावीर की पुत्री-श्वे०) ४७६, ४८१, ५०३ ६६६ । प्रभावकचरित्र (आर्यरक्षित, श्वे०) १३९ प्रमाणसागर (मुनि) ४४६ बलदेव (श्री राम) ६४१ प्रमेयकमलमार्तण्ड (प्रभाचन्द्र) ७६, ७७, बलदेव (कृष्ण के भाई) ६५१, ७१२ २३३, २९२, ५४१ बसन्तीलाल नलवाया (पण्डित, श्वे०) ५२ प्रवचनपरीक्षा (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) २२,१६४, बारस-अणुवेक्खा १६७, २४५, ४०५, ४०६ १७९, २०४, २६९, २७०, २७३, . बालचन्द्र (पं० शास्त्री) १९६ २९०, २९२, २९६, २९७ बालपण्डितमरण ४४ प्रवचनमाताएँ ६ बाह्यपरिग्रह ३१-३८ प्रवचनसार ३४, ७९, ११०, १६७, १९९, २२४, २४६, ३९७, ३९९, ४०३, बृहत्कथाकोश (आ० हरिषेण) ८७-९१, ७०१,७२७,७३५,७३९-७४१,७४३, ५४६, ५७२, ६८९ - तत्त्वदीपिका टीका (आचार्य अमृत ७४६,७४८-७५४,७५८-७६०,७६२ चन्द्र) २८६ बृहत्कथाकोशकार की त्रुटियाँ ७४३ - तात्पर्यवृत्ति (आचार्य जयसेन) १५२, बृहत्कल्पसूत्र ५, ८१, २८४ २२४, २२५, २३०, २९३, २९४, - लघुभाष्य (संघदासगणी) ७८, ८४, ७३८, ७६६ १६० - प्रस्तावना (अँगरेजी-डॉ० ए० एन० बृहत्क्षेत्रसमास (श्वे० ग्रन्थ) ४४७ उपाध्ये) ६५ बृहत्प्रतिक्रमण ७७७. Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्प्रभाचन्द्र (लघुतत्त्वार्थसूत्रकार) ७८७, ७८९-७९१ बोटिक, बोडिय (संघ, संम्प्रदाय) ३ बोधपाहुड २४५, ३९५ __ - श्रुतसागरटीका ५७, २१९, ४२१ बौद्धग्रन्थ ७५ ब्रह्मविद् ६८० ब्राह्मण ६८० भ भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा) ६६, ६९, ७०, ७२, ७३, ७४ भक्तप्रत्याख्यान १२-१६, १०५ । भगवती-आराधना (देवेन्द्रकीर्ति दि. जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर) ११२ भगवती-आराधना (विशम्बरदास --- • देहली) ४२, १११ भगवती-आराधना (जैन सं० सं० सं० सोलापुर) ३-५, ७-५१, ५४-६१, ६३-७६, ७८-८७, ९१, ९२, ९४११२,१५४-१६८,१७०,१७१, १७४, १७६-१८७,१८९,१९३, ४०८,४२४, ४२५, ४५९, ४६०, ६५९, ६७७, ६७८, ७११, ७४१, ७४४, ७८८ - विजयोदयाटीका (अपराजितसूरि)७२७, ३०-३८, ४१, ४५, ४७, ४९५१,७४,८१-८४,९६-१००,१०४, १०६-१०९, ११५-१४५, १४९१५१, १५४-१६५, १६८, १७०, १७६-१८१, १८३-१८६, १८८१९०, १९३, २६४, २६५, ४२३, ६५९ (अपराजिताटीका), ७८० शब्दविशेष-सूची / ८०९ -प्रस्तावना (पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री) ७२, ७८, ८०, ९२, ९५, ११२ भगवती-आराधना और उसकी टीकाएँ (लेख-नाथूराम प्रेमी) ६१, ६५, ८०, ८६, ९१ भगवती-आराधना-भाषावचनिका (पं० सदासुखदास जी) ५६ भगवती-आराधना और शिवकोटि (लेख पं० परमानन्द शास्त्री) ५८, ८५ भगवती सूत्र (देखिये, 'व्याख्याप्रज्ञाप्ति') भट्टारकसम्प्रदाय (ग्रन्थ-प्रो० जोहरापुरकर) ६९९ भट्टारकीय युग ६०९ भद्रबाहुकथानक (बृ.क.को.) ७००, ७४१, ७४६, ७५३, ७६०-७६२ भद्रबाहुचरित्र (महाकवि रइधू) ९२, ९३ भद्रबाहु द्वितीय (श्वे०, नियुक्तिकार) ४९६, ४९८, ४९९, ५५६, ६२५ भद्रबाहु श्रुतकेवली ९५ (ऊनोदरकष्टसहन) ४९८, ७६१ भद्राचार्य (दिगम्बर जैनमुनि) ७५३ भरत (ऋषभपुत्र, चक्रवर्ती) ६४९ भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट पूना ४७५ भायाणी एच०सी०डॉ० (देखिये, 'ह' वर्ण) भारतीयविद्या (पत्रिका) ५१३, ५२७ भावना (आचारांग का २४वाँ अध्ययन)१५७, १५९ भावपरिग्रह ४० भावपाहुड (भावप्राभृत) ३९५, ४०९ भावपूर्वविद् ४३६ भावसंग्रह (प्राकृत-देवसेन) २९२, ७८८ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ भावसंग्रह (वामदेव) १७९, ७८८ मल्लीकुमारी, मल्ली ६६५ भावार्थदीपिका (भगवती-आराधना की महाकवि स्वयम्भू (संकटाप्रसाद उपाध्याय) टीका) ५६ ७१७ भाषाएँ (महाभाषाएँ और क्षुद्रभाषाएँ) ४५१ ।। महापुराण (आ. जिनसेन) ४५१ भिक्खु-भिक्खुणियाँ (श्वे०) २८३ महाप्रत्याख्यान (श्वे० ग्रन्थ) ६९ भिक्षुणी २८३, २८५ महाभारत ७५ भिक्षुप्रतिमाएँ १८१, १८२ महाराष्ट्रीप्राकृत ५३९ भुक्त्युपसर्गाभाव (केवली) २९३ महाविकृतियाँ ५१ भूतपूर्वनय, भूतार्थग्राहीनय, भूतप्रज्ञापननय, महावीर के पूर्वभव ७५९ भूतग्राहीनय ७०६-७०८ महावीरचरिउ (रइधू) ७०३ भूतबलि ७४१ महावीर जैन विद्यालय रजतमहोत्सव-ग्रन्थ भूतार्थनय ७०८ ४९९ महाव्रतोपदेशक सूत्र ८ एम० ए० ढाकी (प्रोफेसर) ४१३, ४५१ महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य (पं०, प्रो०) ३७७, एम० डी० वसन्तराज (डॉ०) २३ ५४१, ५४२, ५४४, ५४५ मगधदेव ७२९ मागधीभाषा में उपदेश ७२९ । मघवा चक्रवर्ती ६४९ माणिक्यनन्दी ६३ मण्डपदुर्ग १६६ मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र मदनूर संस्कृत शिलालेख ६२४ __ (मधुसूदन ढाकी, जितेन्द्र शाह) मनुष्यजाति का एकत्व ६८१ ४५२, ४५४ मयूरकथानक (बृ. क. को.) ७५२ मानसिक अमृताहार ७३० मरणविभक्ति ६९, ४०६, ४०७ मायाचार ४२ मरणविभक्ति (मूलाचारगत) २४१ मासकल्प (स्थितिकल्प) ६ मरणसमाही (श्वे. ग्रन्थ) ६७, ६९ मित्रनन्दिगणी ६० मरीचि-कथानक (बृ.क.को.) ७५९ मुनिजनचिन्तामणि २२० मरुदेवी के सोलह स्वप्न ७१८, ७१९ मुनिपुंगव ६७०, ६७२ मल्लवादी (सन्मतितर्क के टीकाकार, श्वे०) । मूर्छा, राग, इच्छा, ममत्व-एकार्थक ३९, ५०१, ५०२ २८५ मल्लिनाथ, मल्लि ४३६-४३८, ६८९ मूलगुण २८ (दिगम्बर मुनि) ४९, १९८, मल्लिषेणप्रशस्ति ४९३ १९९, २०२, ७६५, ७७६, ७७८, मल्लितीर्थंकर ४२ ७८४ For Personal & Private Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दविशेष-सूची / ८११ मूलगुण २७ (श्वेता०, यापनीय मुनि) २०८, २०९, ७६६ यति ४३२, ४५८, ६७६, ६७७ मूल प्रायश्चित ७६६, ७७७ यतिग्रामाग्रणी (भदन्त शाकटायन) ४३२, मूलाचार ११०, १७२, १७४, १९३-२०३, ४५८, ६७६ २०७, २१०,२११,२१३-२२२, २२५, यतिवृषभ (आचार्य) ४३१, ४३२, ४४१, २२६-२३१, २३४-२४१, २४३ ४५४, ४५६-४६०, ६७६ २४९, ४०८, ४२५, ४८६, ६७७, __ यथाजातरूपधर २०१ ७०९, ७९० यथालन्दिक मुनि (देखिये, 'अथालन्दक') - आचारवृत्ति (आ० वसुनन्दी) १७२, यमपाश-कथानक (बृ.क.को.) ७५१ १९३, १९९, २०२, २११, २१६, यशस्तिलकचम्पू (सोमदेवसूरि) ६१०,६७८ २३९, २४१, २४३ यशोदा (तीर्थंकर महावीर की पत्नीमूलाचारटीका २२० श्वे०) ६६६, ७०२ मूलाचारप्रदीप २२० यशोधर-चन्द्रमती-कथानक (बृ.क.को.) मूलाचारसद्वृत्ति २२० ____७४५, ७४८, ७५१, ७५५, ७५६ मूलाराधना ३, १०५ यशोविजय (उपाध्याय, श्वे० मुनि) ४८३ मूलाराधनादर्पण ५६, १०५, १०८ यापनसंघक (यापनीयसंघ) ७६० मृगेशवर्मा (कदम्बवंश) ३७०, ४१५, यापनीय (मत, मुनि, आचार्य, संघ, सम्प्रदाय, ४१६ परम्परा) ३,५८, १९८, २०२-२०४, मृदुमति (ब्राह्मणपुत्र) ६३५ .. २०६, २१०, २१२, २१५, २१७मेतार्यमुनि-कथा (श्वेताम्बर) ८६-९१ २१९, २२१, २३३, ३७०, ४२३, मेतार्यमुनिकथा (दिगम्बर-बृ. क. को.) ६१७-६२१, ६२३-६२५, ७१७८७-९१ ७२०, ७२३, ७३१, ७४१, ७५९, मेरुतुङ्गाचार्य (प्रबन्धचिन्तामणि के कर्ता, ७६२ (उत्पत्तिस्थान), ७६९-७७२, श्वे०) ४७२ ७७५-७७९,७८२,७८७,७८९-७९१ मोक्खपाहुड ५६१ यापनीय और उनका साहित्य (श्रीमती डॉ० मोनियर मोनियर विलिअम्स संस्कृत-इंग्लिश कुसुम पटोरिया) ६१७, ६२३-६२६, डिक्शनरी ८३, १२५, १७७ ६४५-६४८,७०२,७११,७१२,७१७, मोहनलाल दुलीचन्द्र देसाई (श्वे० विद्वान्) ७२४,७२६-७२९,७३०,७३५,७३९, ६४४ ७४४, ७५८-७६० मौनव्रत के फल ७४७, ७४८ यापनीयग्रन्थ ३, १९७, २१९, २२२, २३८, म्लेच्छादि का उपद्रव १६६ २३९, २४४, ७३९, ७४१, ७६५, For Personal & Private Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ७६७, ७६८, ७७०, ७७१, ७७७, रत्नकरण्डश्रावकाचार २२८, ५५३, ५५४, ७७९, ७८७ ५५७-५६०,५७३,५७६-५८६,५८८, यापनीयग्रन्थ के लक्षण ५, ७५४ ५९१, ५९९, ६००, ६०३-६११, यापनीयतन्त्र (यापनीय सम्प्रदाय का प्रमुख ६१४-६१६, ६८२, ७४२ ग्रन्थ) ४६२ -प्रभाचन्द्रटीका ५९३, ६०९ यापनीय-यतिग्रामाग्रणी (उपाधि) ७९१ रत्नमाला (शिवकोटि) ५५६, ५७६, ५९९, यापनीयसंघ सचेलाचेलमार्गी ६०३-६०९ - स्थविरकल्पिक-मुक्ति मान्य २०४। रत्नसिंह सूरि (श्वे० आचार्य) ३२४, ३२६, - आचेलक्य मूलगुण अमान्य २०३ ३३१, ४२६ २१० रथ्यापुरुष १६८ युगपद्वाद, यौगपद्यवाद, युगपत्पक्ष (देखिये, रविषेण आचार्य ६२९-६३४, ६३६, ६३७, केवलि-उपयोगद्वय) ६३९, ६४१-६४३,६४५-६५०,७१७, युक्त्यनुशासन (समन्तभद्र) ५११, ५४९, . ७६९ ५५१, ६१३, ६१६ रहीम कवि २७७ योगचिकित्साविधि-न्याय २०६-२०८,७९० । राजकुल ७५० योगनिरोध (चतुर्थ शुक्लध्यान) ७३७ राजपिण्ड ६ योगसारप्राभृत (आचार्य अमितगति) ११० रात्रिभोजनत्याग (विरमण) व्रत १७३-१७५, योगी, योगीन्द्र (समन्तभद्र) ५९०, ५९१ . ७७८ योगाचार्यभूमिशास्त्र (मेत्रेयकृत बौद्धग्रन्थ) राम ६३४, ३४१, ३४९ ४९४ रामकथा ६४७ रामप्रसाद शास्त्री (पं०) ५४२ रइधू (महाकवि) ९२, ७०३ रामिल्ल (दि० जैन मुनि) ७५३ रघुनन्दन (राम) ६४० रायल एशियाटिक सोसायटी ४९४ रघूत्तम (राम) ६३५ राहुल सांकृत्यायन (पं०) ५०३, ५०४ रजोहरण १७८ रिट्ठणेमिचरिउ (स्वयंभूकृत) ७२७ रतनचन्द्र जैन मुख्तार (पण्डित) ७४२ ।। रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्न रुक्मिणी ७३९, ७४०, ७४२ कर्तृत्व (लेख-प्रो० हीरालाल जैन) रूपकुम्भ मुनि ७४७ ५५७ रेवती-कथानक (बृ.क.को.) ७५९ रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार रोहिणी (राजा अशोक की महारानी) ७३८ और निर्णय (लेख-पं० जुगल- रोहिणी पुस्तक ७३६ किशोर मुख्तार) ५५७ रोहिणीव्रत ७३६, ७३८, ७४९ For Personal & Private Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल लक्ष्मणसेन (रविषेण के गुरु) ६४५ लक्ष्मीमती - कथानक (बृ.क.को.) ७३९, ७४०, ७५६ ललितविस्तरा (हरिभद्रसूरि ) २८०, ४३६, ४३९ - पंजिकाटीका (चन्द्रसूरीश्वर ) २८० — लिंगपाहुड (कुन्दकुन्द) २४५ लोकविचय ( आचारांग का दूसरा अध्याय) १५७ लोच (केशलोच) ४९ लोहार्य (लोहाचार्य) ६२, १९५ व वज्रनन्दी (पूज्यपाद का शिष्य, द्राविड़संघसंस्थापक) ३७०, ५१० वट्टकेर (आचार्य) १९४-१९६, २००, २०१, २११, २४५, ६२०, ६२४ वणिक् ६८१ वरदत्त केवली ६५८, ६७२, ६७३ वरांग, वरांगकुमार (राजा) ६५७-६६३ वरांगचरित (जटासिंहनन्दी ) १७२, १७३, १८५, ५३८, ६४८, ६५५-६५८, ६६१-६७०, ६७२-६८३ वरांगी (सुन्दर अंगोंवाली) ६५८-६६० वर्धमान ६४५, ६४७ वर्द्धमानपुर (बढ़वाण) ७०१ वर्षावास ५२ वलभी (वल्लभी, सौराष्ट्र) वाचना ७६२ वशिष्ठ ( वैदिक ऋषि) ६८० वसनसहितलिंग - धारी १५, १७ शब्दविशेष- सूची / ८१३ वसन्तकीर्ति, दि० जैनाचार्य (आगमविरुद्ध अपवादवेष-प्रवर्तक) १६६ वसुदेव हिंडी (संघदास गणी) ६४४ वसुनन्दी आचार्य (सैद्धान्तिक ) १९३ वसुमती (कन्या) ७४७ वस्त्र (पाँच प्रकार के) ७६७ वस्त्रैषणा २७५ वाक्पदीय (भर्तृहरि) ५०३ वादऋद्धि, वादित्वऋद्धि २८१ वादन्याय ५०३, ५०४ वादिदेवसूरि ५२० वादिराज सूरि ५८६, ५८७, ५८९, ५९२, ६०९ वादीभसिंह ५८८ वारिषेण ७५२ वासुदेव - कथानक (बृ.क.को.) ७५२ विक्रमादित्य ( सिद्धसेनदिवाकर- कालीन राजा / ६ - ७वीं शती ई०) ५१९ विजहना ४, ६८, ७१, ९१-९३ विद्याधर जोहरापुरकर (देखिये 'जोहरापुर - कर') विद्याधर श्रेणियों में गुणस्थानों की संख्या ४५० विद्यानन्द स्वामी, आचार्य (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार) ३७५, ५४२, ५४३, ५७९, ५९५, ५९६, ६०१ विद्यासागर आचार्य (मूकमाटी- महाकाव्य कार) २७४ विद्युल्लतादि-कथानक (बृ.क.को.) ७५५, ७५९ विद्वान् ५७१, ५७२ For Personal & Private Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ विमलसूरि (श्वे० आचार्य) ६२९, ६७९ व्योमवासस् (दिगम्बरमुनि) ६३० विरती २२३ व्रतधारण (स्थितिकल्प) ६ विविधतीर्थकल्प (जिनप्रभसूरि) ४७२, ४७८ विशीर्णवस्त्रा ६६२ शतपदी (कर्ता-श्वे. मुनि श्री महेन्द्र सूरि) विशेषणवती (जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण) ७८९ ४८५, ४९७, ४९८, ५०६, ५०७ शय्यागृह ६ विशेषावश्यकभाष्य ११६, १३९, १६३, १८०, शरीरविज्ञान ३५८ ४५२, ४९७, ५३५, ६२५ शाकटायन (पाल्यकीर्ति) (देखिये, 'पाल्य- हेमचन्द्रवृत्ति ११६, १७९, २५७, २६५, कीर्ति') २६६, २७०, २७२, २७३ शाकटायन सूत्र (व्याकरण) ४६२, ६४५ विश्वलोचन कोश ५९७ शाकटायनसूत्र-न्यास (आ. प्रभाचन्द्र) ४२१, ४२२ विष्णुकुमार-कथानक (बृ.क.को.) ७४९, शान्तिसागर जी (आचार्य) ९३ ७५१ विष्णुश्री-कथानक (बृ.क.को.) ७५९ शालाक्य (शल्यतन्त्र) ४७१ : वीरवर्धमानचरित (भट्टारक सकलकीर्ति) शास्त्रवार्तासमुच्चय (हरिभद्रसूरि) ३२९ ७०३ शिक्षाव्रत ६७९ वीरसेन स्वामी (धवलाकार) १९३ शिवकोटि (शिवार्य/आदिपुराण १/४९) ५७ शिवकोटि (रत्नमाला ग्रन्थ के कर्ता) ५५७, वृक्षमूलयोग ६६१ ६०५ वृत्तिपरिसंख्यान तप १८३, १८४ शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार (लेखवृत्तिपरिसंख्यानातिचार १८३ पं० परमानन्द जैन शास्त्री) ५७७ वृद्धवादी ४७९, ४८१, ५१९ शिवार्य (भगवती-आराधनाकार) ४, ८, वृद्धवादिप्रबन्ध ४८१ ____६०, ४५८, ४५९, ६०६ वृन्दावनदास (कविवर) ७६, ८० । शूद्र ६८१ वेदत्रय ४१, १३८, २१८, ६१५, ७९१ शूरदेव (श्रावक) ७५९ वेदवैषम्य (श्वेताम्बरग्रंथों में) १३८ शैलक राजर्षि (ज्ञाताधर्मकथांग) ५२ वेदवैषम्य ४१, १८० शौरसेनी प्राकृत १९७ वैरकुमारकथानक (बृ.क.को.) ७५० श्रमण (दिगम्बर मुनि) ७५१, ७५२ व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) ३९७-४०१, श्रमणा ६४१ ४०८, ४०९ श्रमणा अर्जिका ६५८, ६५९, ६७२ व्यास (वैदिक महर्षि) ६८० श्रमणी २२३, २८४, ७६७ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणी के लिए निषिद्ध पंचविध प्रायश्चित्त ৩৩ श्रवण ६७०, ६७४, ७५१ श्रवणार्यिका ६७०, ६७१, ६७३ श्रावक ७५४-७५७, ७७३, श्रावस्ती ४३२ श्रीभूति ७२३ श्रीमती श्रमणी ६३४ श्रीमन्दिरदेव मुनि (यापनीय) ६२४ श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा (कदम्बवंश) ३७०, ३७२, ४१५ श्रीषेणमुनि ७५९ श्रुतकेवली ४२२, ६१७ श्रुतकेवलिदेशीय ३७८, ४१९, ४२२, ६१७ श्रुत (अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य) ६१७, ७०९ श्रुततीर्थ ४४३ श्रुतधर मुनि ६३५ श्रुतसागर सूरि (भट्टारक, १५वीं शती ई०) १६५ (अपवादवेष-विषयक भूल), १६६ (अपवादवेष-विषयक भूलसुधार) श्रुतावर्णवाद ३४७ शृंगारशतक (भर्तृहरि) १०१ श्रेणिक (राजा) ६३५, ६४३ श्रेणिकनृप-कथानक (बृ. क. को.) ७५७ श्रेष्ठिकुल ७५० श्लोकवार्तिक (आ० विद्यानन्द) ५७९ श्वेतपटमहाश्रमणसंघ ३७० श्वेतपटसंघ ४१६ . श्वेताम्बरमत का प्रदर्शन १६५ शब्दविशेष-सूची / ८१५ षट्खण्डागम (छक्खंडागम) ५०७ - पुस्तक २ : ६०२ - पुस्तक ४ : २९१, ६०२ -पुस्तक ८ : ४०१, ७३७ -पुस्तक १२ : १७४, ४०९ - पुस्तक १३ : ३११, ३९६, ३९८ - धवलाटीका (आचार्य वीरसेन) - पुस्तक १ : ८३, ४४३, ६९७, ७७० - पुस्तक २ : १८६ - पुस्तक ४ : ३७५, ६४९, ७३० - पुस्तक ५ : १८७ - पुस्तक ६ : ८३ - पुस्तक ९ : १७१, ५४५ -पुस्तक १० : २०६ - पुस्तक ११ : ७८४ - पुस्तक १२ : ५६६, ५७३ षटखण्डागम-परिशीलन (पं० बालचन्द्र शास्त्री) १९७ षट्खण्डागम-प्रस्तावना, (प्रो०, डॉ० हीरालाल जैन) ६२ षट्प्राभृत ३८८ षड्दर्शनसमुच्चय (हरिभद्रसूरि) - तर्करहस्यदीपिका वृत्ति (गुणरत्न) ५६, ६३९ षष्ठ (छह भुक्तियों का त्याग-प्रायश्चित्त) ७६६, ७७७ स संयतगुणस्थान २०० संयती २२३ संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी (सर एम० For Personal & Private Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ मोनियर विलिअम्स ) ८३, १२५, १७७ संस्तरारूढ़ ७८, ७९ सगर चक्रवर्ती ६४९ सगरपुत्र ७३० सङ्कटाप्रसाद उपाध्याय ( डॉ०) ७१७ संग्रहग्रन्थ २४१ संथारग (श्वे० ग्रन्थ) ६७ संशय मिथ्यादृष्टि ६४५ सटीक नयचक्र (मल्लवादी) ५०२, ५०३ सत् - द्रव्यास्तिक, उत्पन्नास्तिक, मातृका पदास्तिक, पर्यायास्तिक (तत्त्वार्थ - भाष्य ) ३५८ सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ ५८८ सदासुखदास (पं०) ४२,७६,८०,१११ सन्थारा ६५९ सन्न्यासकाल (भक्तप्रत्याख्यानकाल) १०५ सन्मतिप्रकरण ४८०, ४८१, ५१४ सन्मतिसूत्र, सन्मतितर्क, सन्मति ४६९, ४७३, ४८०, ४८२, ४८५, ४८७-४९३, ४९६-५०३, ५०७,५०८, ५१०, ५१५, ५१७, ५२२, ५२५-५३१, ५३३-५३९, ६१७-६२६, ६७७ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन (लेख - पं० जुगलकिशोर मुख्तार) ४६९, ६०४ सप्तभंगी ५४१, ५४५, ५४६ समन्तभद्रग्रन्थावली ७२९ समन्तभद्र स्वामी ५०७-५१४, ५४०-५५२, ५५४-५५७, ५६३, ५६९, ५७४, ५७६, ५८३, ५८५ - ५९३, ५९६, ५९९, ६०१, ६०३-६१६ समयसार १६७, २४५, २४६, २४७, ३९५, ४०४, ४५९, ६७८ - तात्पर्यवृत्ति (आ० जयसेन) ७३८ समराइच्चकहा-प्रस्तावना (जैकोबी) ४९२ समवायांसूत्र २०९, २७७, ४०४, ४०५, ४०८, ४०९, ४५१ समाधितन्त्र (समाधिशतक) ५४६, ५६१ समीचीन धर्मशास्त्र ( पं० जुगलकिशोर मुख्तार) ५५९, ५९९ सम्बोधसत्तरी (रत्नशेखर सूरि, श्वे०) २५६ सम्यग्दर्शनी ३५८ सम्यग्व्यायाम (अधिगम ) ३५८ सर्वगुप्तगणी ६०, ६१, ४३२ सर्वनन्दी आचार्य ४३२, ४५८ सर्वश्रमण, नोसर्वश्रमण (श्वे०) ७७२, ७७८ सर्वार्थसिद्धि टीका ५८, १६७, २६६, २७५, २७८, २८६, २९२, ३००, ३०३, ३०५, ३२४, ३३२, ३३८-३६४, ३६८-३७०, ३७२, ३७९, ३८०, ३८८, ४२६, ५०१, ५०६, ५०८, ५४०, ५४२, ५४४, ५४७-५५६, ५७८, ५७९, ५९५, ५९६, ६११, ६२६, ६९७, ७०४, ७०५, ७८० सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव (लेख - पं० जुगलकिशोर मुख्तार ) ५४०, ६११ सर्वार्धमागधी भाषा ७२९ सल्लेखना ६७९ सवस्त्रमुक्तिनिषेध ६, ११५, १४२, १९८, ४३३, ६५६, ६८९, ७५०, ७५४, ७५८, ७८३ For Personal & Private Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरमल (डॉ०) ३, १९७, ६२९ - अभिनन्दनग्रन्थ (देखिये, 'ड') सागारधर्मामृत १४६ साङ्ख्यकारिका ६७८ साटकमात्र (साड़ीमात्र) १०८ साध्वी (आर्यिका) ६४१ सामन्तभद्र (श्वेताम्बर) ५१३, ६०१ सामाचार (समाचार) २२६, २८३ सारसंग्रह ५४५ सावलिपत्तन (दक्षिणापथ) ७६०, ७६२ सिद्धसारस्वत ५८८ सिद्धसेन–द्वितीय (सन्मतिसूत्रकार, दिगम्बर) ५७, ४६९, ४७०, ४८२,, ४९४,४९७,५००-५०३, ५०५,५०६, ५०८,५१५-५३१,५३६,६०३,६११, ६१३, ६१७-६२६ सिद्धसेन-तृतीय (न्यायावतार के कर्ता, श्वे०) ४८२, ५०९, ५३१ सिद्धसेन-प्रथम (कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिं शिकाओं के कर्ता, दिगम्बर) ४८२, ४८६, ५०१, ५०५, ५०७, ५१५, ५३०-५३२ - तीनों सिद्धसेनों के साथ 'दिवाकर' उपनाम का प्रयोग ५१८, ५२१ सिद्धसेन गणी (श्वे० आचार्य) ३३४, ३४४, . ५२८ सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार (लेख-प्रो० हीरालाल जैन/ष.खं/ पु.४/प्रस्ता.) ६०२, ६०६ सिद्धार्थ (क्षुल्लक) ६४२ शब्दविशेष-सूची / ८१७ सिद्धि (इच्छित लौकिक पदार्थ की प्राप्ति) ७४५, ७४८ सिद्धिभक्त (सफलता चाहनेवाला) ७४४ सिद्धिविनिश्चय (अकलंकदेव)४६९,४७०, ४९४, ५३५, ६२०, ६२१ सिन्धुदेश ७५३, ७६१ सीता ६४१ सीतेन्द्र ६४१ सुखलाल संघवी (पं०) ६४, ६५, ७७, २७९, ३३५, ३८१, ४४५, ५०२ ५०८, ५४१-५४६ सुत्तपाहुड ७३, २२४, २२५, २३१, २३२, २४६, ७०९ सुदत्तमुनि ७४५, ७५६ सुदर्शना (राजा रतिवर्धन की रानी) ६४२ सुधर्मा स्वामी ६४६, ६४७, ७१७ सुभद्रिलनगर ७२७ सुरेश सिसोदिया (डॉ०) ५५ सुलिंग २५८ सूत्रकृतांगसूत्र ७६, १५७, २५७, ७८३ सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र) संघ ४१६ सेनसंघ (सेनगण) ५१६ सोमदत्त ७५० सोमदत्त-विधुच्चौर-कथानक (बृ.क.को.) ७५३ सोमदेव सूरि (यशस्तिलकचम्पूकार) ६०२, ६०८ सोमशर्म-वारिषेण-कथानक (बृ.क.को.) ७५२ सोलहकल्प २१७ सौत्रान्तिक (एक बौद्ध सम्प्रदाय) ४९५ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ८१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सौधर्मेन्द्र ६४९ स्वयम्प्रभदेव (सीता का जीव) ७३० सौराष्ट्रदेश ७६२ स्वयम्भू (अपभ्रंश-पउमचरिउ के कर्ता) स्तिबुकसंक्रमण ७४२, ७४३ ६२९,६४७,६४८,७१७-७२८,७३०, स्तुतिग्रन्थ २४१ ७३१ स्तुतिविद्या (जिनशतक-समन्तभद्र स्वामी) स्वयम्भू राजा ७२३ स्वयम्भूस्तोत्र (समन्तभद्र) ४५१,४५४,५११, स्त्रीचेतस् (स्त्रीवेदी पुरुष, भावस्त्री) ५२५, ५१२, ५४७, ५४८, ६७७, ६८२, ५२६ ७२८ स्त्रीनामगोत्रकर्म, स्त्रीगोत्रकर्म, स्त्रीवेदनाम- स्वामिकुमार (स्वामी कार्तिकेय) ७४१ कर्म, स्त्र्यंगोपांगनामकर्म, स्त्रीशरीरां- स्वामी (समन्तभद्र की उपाधि) ५९२, ५९३ गोपांगनामकर्म ७४२, ७४३ स्वामी समन्तभद्र (ले०-जुगलकिशोर स्त्रीनिर्वाणप्रकरण (पाल्यकीर्ति शाकटायन) मुख्तार) ५०८, ५०९, ६१० ९, ३१, २०३, २०५, २१२, २८१, ४६२, ७९० हंसतेल ५४ स्त्रीमुक्तिनिषेध २४, १३२, २१०, २७८, एच० सी० भायाणी, डॉ० ७१७, ७१८, ४३५, ६४१, ६६५, ६८७, ७२०, ७२१, ७२३ ७२१, ७३५, ७५८, ७८३ हरिणिगमिसी, हरिणेगमेसि (नैगमदेव), स्त्रीलिंगसिद्ध (श्वे०) २७८ हरिनैगमेसि ७२७ स्त्रीवेदनोकषायकर्म ७४२, ७४३ हरिभद्रसूरि (श्वे० आचार्य) २७६ स्त्रीवेदी-पुरुषमुक्ति-मान्यता ५२३ हरिवंशपुराण ५१६, ६२०, ६५०, ६८७स्थविरकल्प (श्वेताम्बर) ७५३ ७१३, ७२७ स्थविरकल्प (अर्धफालकसंघ) ७४६ -प्रस्तावना (डॉ० पं० पन्नालाल स्थविरकल्पिक साधु (यापनीय) २०४ साहित्याचार्य) ६५०, ६५१ स्थानकवासी परम्परा (श्वे०) ७२ हरिषेण आचार्य (बृहत्कथाकोशकार) ८७, स्थानांगसूत्र २६४, २६९, २७३, ३९५-४०२, ६९९, ७३५, ७४१, ७४३, ७४७, ४०४, ४०६, ६२३ ७४८, ७५२, ७५४, ७५५, ७५६, स्थिति (नियोगतः = अनिवार्यतः पालन ७५७, ७६२ करने योग्य) ६ हरिषेण चक्रवर्ती ६४९ स्थितिकल्प (दश) ६ हर्मन जैकोबी, डॉ० (जर्मन विद्वान्) ४९२ स्थूलवृद्ध (जैनमुनि) ७५३ हस्तकश्रेष्ठि-कथानक (बृ.क.को.) ८७स्याद्वादरत्नाकर (वादिदेवसूरि) ५२० ९० For Personal & Private Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीरालाल जैन (प्रो०, डॉ०) ३, ५५७, ५५८, ५९७, ६०२, ६०४, ६०७ हीरालाल जैन (प्रो०, डॉ० ) का नया मत ५५७ हुण्डावसर्पिणीकाल की दस आश्चर्यजनक घटनाएँ (श्वे०) ४३८ शब्दविशेष- सूची / ८१९ हुम्मच - कन्नड़ अभिलेख ४२० हेत्वाभास, हेत्वाभासता ५, ६०, ७१, १४१, ४५६, ६१७, ६४५, ६७०, ६९९, ७२६ For Personal & Private Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची १. अंगुत्तरनिकायपालि (भाग ३,४) : विहार राजकीय पालि-प्रकाशन मण्डल। ई० सन् १९६०। - भाग ३निपात ६, ७, ८।। - भाग ४) निपात ९, १०, ११। २. अनगारधर्मामृत : पं० आशाधर जी। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। ई० सन् १९७७। - ज्ञानदीपिका संस्कृतपञ्जिका (स्वोपज्ञ)। . - सम्पादन-अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री। ३. अनुयोगद्वारसूत्र : श्री आर्यरक्षित स्थविर। श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान)। - अनुवादक-विवेचक : उपाध्याय श्री केवलमुनि जी। ४. अभिधानचिन्तामणि - नाममाला : आचार्य हेमचन्द्र। प्रकाशक : श्री रांदेररोड जैनसंघ, अडाजण पाटीया, रादेररोड, सूरत। ई० सन् २००३।। ५. अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग १ से ७), द्वितीय संस्करण। श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद। ई० सन् १९८६ । ६. अविमारक (नाटक) : महाकवि भास। 'भासनाटकचक्र' चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी। ई० सन् १९९८ । ७. अष्टपाहुड : आचार्य कुन्दकुन्द। शान्तिवीरनगर, श्री महावीर जी (राजस्थान)। ई० सन् १९६८। - दंसणपाहुड। - चारित्तपाहुड। - सुत्तपाहुड। - बोधपाहुड। - भावपाहुड। - मोक्खपाहुड। - लिंगपाहुड। - सीलपाहुड। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ - श्रुतसागरसूरिकृत संस्कृतटीका। - पं० पन्नालाल साहित्याचार्यकृत हिन्दी अनुवाद।। ८. अष्टसहस्री (भाग १, २, ३) : आचार्य विद्यानन्द। दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) उ० प्र०। ई० सन् १९९०।। ९. आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन-मुनि श्री नगराज जी डी० लिट् । प्रथम खण्ड के प्रकाशक : कान्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी, नई दिल्ली। ई० सन् १९८७। द्वितीय खण्ड के प्रकाशक : अर्हत् प्रकाशन, कलकत्ता। ई० सन् १९८२। १०. आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) : मुम्बापुरीय श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति मुंबई। मुद्रण स्थान-सूरत। ई० सन् १९३५। - भद्रबाहुकृत नियुक्ति। - शीलांकाचार्यकृत वृत्ति। ११. आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध : अनुवादक-मुनिश्री सौभाग्यमल जी। प्रकाशक जैन साहित्य समिति, नयापुरा, उज्जैन। वि० सं० २००७ । द्वितीय श्रुतस्कन्ध : अनुवादक-पं० वसन्तीलाल नलवाया। प्रकाशक-धर्मदास जैन मित्रमण्डल, रतलाम, म० प्र०। ई० सन् १९८२। १२. आचारांगचूर्णि : श्री जिनदास गणी। श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम। ई० सन् १९४१। १३. आतुरप्रत्याख्यान : वीरभद्र। प्रकाशक-बालाभाई ककलभाई अहमदाबाद। वि० सं० १९६२। १४. आदिपुराण (भाग १,२) : आचार्य जिनसेन। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। ई० सन् १९८८। - अनुवाद : पं० (डॉ०) पन्नालाल साहित्याचार्य। १५. आप्तपरीक्षा : विद्यानन्द स्वामी। भारतवर्षीय अनेकान्त परिषद् , लोहारिया (राज०)। ई० सन् १९९२।। १६. आप्तमीमांसा : आचार्य समन्तभद्र। वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन वाराणसी-५। ई० सन् १९८९। - अनुवाद : पं० जुगलकिशोर मुख्तार। १७. आराधना कथा कोश : ब्रह्मचारी नेमिदत्त। भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् । ई० सन् १९९३। १८. आलापपद्धति : आचार्य देवसेन। भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् , लोहरिया (राज.)। ई. सन् १९९० । For Personal & Private Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८२३ १९. आवश्यक निर्युक्ति ( भाग १ ) : भद्रबाहुस्वामी । भेरूलाल कनैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई । वि० सं० २०३८ । हारिभद्रीय वृत्ति : हरिभद्रसूरि । २०. आवश्यक मूलभाष्य ( आवश्यकसूत्र - मूलभाष्य ) : कर्त्ता का नाम अज्ञात है । आवश्यक नियुक्ति की हारिभद्रीयवृत्ति में उद्धृत तथा जिनभद्रगणी के विशेषावश्यकभाष्य में अन्तर्भूत । २१. आवश्यकसूत्र (पूर्वभाग एवं उत्तरभाग) : गणधर गौतमस्वामी । श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम । ई० सन् १९२८ एवं १९२९ । २२. इष्टोपदेश : पूज्यपाद स्वामी । परमश्रुत प्रभावक मण्डल चौकसी चैम्बर, खारा कुआ, जवेरी बाजार, बम्बई - २ । ई० सन् १९५४। २३. ईशादिदशोपनिषद् (शांकरभाष्यसहित ) : मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली । ई० सन् १९७८ । २४. ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् : चैखम्बा विद्याभवन, वाराणसी। ई० सन् १९९५ । - परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् । - — बृहदारण्यकोपनिषद् । जाबालोपनिषद् | नारदपरिव्राजकोपनिषद् । • तुरीयातीतोपनिषद् । • संन्यासोपनिषद् | भिक्षुकोपनिषद् | छान्दोग्योपनिषद्। - - - २५. उत्तराध्ययनसूत्र : वीरायतन प्रकाशन, आगरा - २ । सम्पादन: साध्वी चन्दना दर्शनाचार्य | २६. उत्तरभारत में जैनधर्म : चिमनलाल जैचन्द्र शाह । प्रकाशक : सेवामन्दिर रावटी, जोधपुर। ई० सन् १९९० । अँगरेजी से हिन्दी अनुवाद : कस्तूरमल बांठिया । २७. उदानपालि (सुत्तपिटक, खुद्दक निकाय) : विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी ( नासिक) । ई० सन् १९९५ । मुण्डकोपनिषद् | कठोपनिषद् | ईशावास्योपनिषद्। श्वेताश्वतरोपनिषद् । याज्ञवल्क्योपनिषद्। For Personal & Private Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ २८. उपदेशमाला (उवएसमाला) : श्री धर्मदास गणी। प्रकाशक : धनजी भाई देवचन्द्र जौहरी, मुम्बई। - विशेषवृत्ति (दोघट्टी टीका) : रत्नप्रभसूरि। २९. ओघनियुक्ति : भद्रबाहु स्वामी। आगमोदय समिति मेहसाना। ई० सन् १९१९ । - वृत्तिकार : द्रोणाचार्य। ३०. कठोपनिषद् : गीता प्रेस गोरखपुर। वि० सं० २०२४। - शांकरभाष्य : श्री शंकराचार्य। ३१. कल्पकौमुदीवृत्ति : श्री शान्तिसागरकृत कल्पसूत्रव्याख्या। श्री ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम। ई० सन् १९३६। . ३२. कल्पनियुक्ति (कल्पसूत्रनियुक्ति) : श्वेताम्बर भद्रबाहु-द्वितीय। मुनि कल्याण विजय जी - कृत 'श्रमण भगवान् महावीर' (पृ. ३३६) में तथा श्री ताटक गुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर (राज.) द्वारा प्रकाशित 'कल्पसूत्र' की श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री-लिखित प्रस्तावना (पृ. १६) एवं परिशिष्ट १ की टिप्पणी क्र.३ में उल्लेख है। ३३. कल्पप्रदीपिकावृत्ति : श्री संघविजयगणिकृत कल्पसूत्रवृत्ति। प्रकाशन : सेठ वाडीलाल चकुभाई देवीशाह पाटक। वि० सं० १९९१ । ३४. कल्पलता व्याख्या : समयसुन्दरगणिकृत कल्पसूत्रव्याख्या। निर्णयसागर मुद्रणयन्त्रालय, मुम्बई। ई० सन् १९३९। ३५. कल्पसमर्थन : (कल्पसूत्रान्तर्गत अधिकार-बोधक)। ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम। वि० सं० १९९४ । ३६. कल्पसूत्र : प्राकृत भारती, जयपुर। ३७. कल्पसूत्र : भाषानुवाद : आर्यारत्न सज्जनश्री। वि० सं० २०३८ । ३८. कसायाहुड (भाग १, ८, १२, १३, १४, १५, १६) : आचार्य गुणधर। भारतवर्षीय दि० __ जैन संघ, चौरासी, मथुरा। ई० सन् १९७४--- । द्वितीय संस्करण। - चूर्णिसूत्र : यतिवृषभाचार्य। - जयधवला टीका : आचार्य वीरसेन। - प्रस्तावना : १. ग्रन्थपरिचय एवं २. ग्रन्थकारपरिचय : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री, (पृ. ३-७३) ३. विषयपरिचय : पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य। (पृ. ७३-१०६) ("भूमिका के मुख्य तीन भाग हैं : ग्रन्थ, ग्रन्थकार और विषय-परिचय। इनमें से आदि के दो स्तम्भ पं० कैलाशचन्द्र जी ने लिखे हैं और अन्तिम स्तम्भ पं० महेन्द्रकुमार जी ने लिखा है।" सम्पादकीय वक्तव्य। पृ. १४ ब)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८२५ ३९. कसायपाहुडसुत्त : आचार्य गुणधर । श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता । ई० सन् १९५५ । - चूर्णिसूत्र : आचार्य यतिवृषभ । - सम्पादन- अनुवाद - प्रस्तावना : पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री । ४०. कादम्बरी (पूर्वभाग ) : बाणभट्ट । मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली । संस्कृतटीका : श्वेताम्बराचार्य श्री भानुचन्द्र गणी । ४१. कादम्बरी : बाणभट्ट । सम्पादक : आचार्य रामनाथ शर्मा 'सुमन' एवं राजेन्द्रकुमार शास्त्री । प्रकाशक : साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ (उ०प्र०) / अष्टम संस्करण, ई० सन् १९९० । ४२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा : स्वामिकुमार । परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम अगास (गुजरात) । ई० सन् १९७८ । अँगरेजी प्रस्तावना : प्रो० ए० एन० उपाध्ये । हिन्दी - अनुवाद : पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । ४३. कालिदास की तिथिसंशुद्धि : डॉ० रामचन्द्र तिवारी । ईस्टर्न बुक लिंकर्स दिल्ली । ई० सन् १९८९ । ४४. काव्यानुशासन (स्वोपज्ञवृत्ति - सहित ) : वैयाकरण एवं काव्यशास्त्री, 'कलिकालसर्वज्ञ, ' आचार्य हेमचन्द्र। प्रवचन प्रकाशन, पूना । वि० सं० २०५८ । संस्कृत व्याख्या : पण्डित शिवदत्त एवं काशीनाथ । - ४५. काव्यप्रकाश : मम्मटाचार्य । ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी । ई० सन् १९६० । - हिन्दी व्याख्या : विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि । ४६. कूर्मपुराण : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग । ई० सन् १९९३ । ४७. क्या दिगम्बर प्राचीन हैं ? लेखक : शिशु आचार्य नरेन्द्रसागर सूरि । शेठ श्री अभेचंद गुलाबचंद झवेरी परिवार, मुम्बई के सौजन्य से प्रकाशित । प्राप्तिस्थान - १. जम्बूद्वीप पेढ़ी पालीताणा, २. ज्ञानशाला गिरिराज सोसायटी पालीताणा । ई० सन् १९९५ । ४८. खरा सो मेरा : डॉ० सुदीप जैन । कुन्दकुन्द भारती ( प्राकृत भवन ) नई दिल्ली। ई० सन् १९९९ । खारवेल प्रशस्ति : पुनर्मूल्यांकन - चन्द्रकान्तबाली शास्त्री । प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली। ई० सन् १९८८ । ५०. गुणस्थान - सिद्धान्त : एक विश्लेषण – डॉ० सागरमल जैन । पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी । ई० सन् १९९६ । - ५१. गुरुपरम्परा से प्राप्त दिगम्बर जैन आगम : एक इतिहास- डॉ० एम० डी० वसन्तराज । श्री गणेश वर्णी दि० जैन संस्थान नरिया, वाराणसी - ५ । ई० सन् २००१ । ४९. For Personal & Private Use Only Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ . ५२. गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (भाग १,२) : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली। ई० सन् १९९६ । - जीवतत्त्वप्रदीपिका-कर्णाटवृत्ति : केशववर्णी। - कर्णाटवृत्ति का 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नाम से ही संस्कृतरूपान्तर : श्री नेमिचन्द्र। ५३. गोम्मटसार-जीवकाण्ड (भाग १, २) : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली। ई० सन् १९९७ । - जीवतत्त्वप्रदीपिका-कर्णाटवृत्ति : केशव वर्णी। - जीवतत्त्वप्रदीपिका-संस्कृतरूपान्तर : श्री नेमिचन्द्र। ५४. चाणक्यशतक : आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य। ५५. छेदपिण्ड : आचार्य इन्द्र (इन्द्रनन्दी)। 'प्रायश्चित्तसंग्रह'-माणिकचन्द्र दि० जैन ___ ग्रन्थमाला (वि० सं० १९७८) में संगृहीत। ५६. छेदशास्त्र : (कर्ता अज्ञात-पु.जै.वा.सू. / प्रस्ता. / पृ.१०९) 'प्रायश्चित्तसंग्रह' माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला (वि० सं० १९७८) में संगृहीत। ५७. जातक (तृतीय खण्ड)-अनुवादक : भदन्त आनन्द कौसल्यायन। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग। ई० सन् १९९०। ५८. जातक-अट्ठकथा (सुत्तपिटक-खुद्दकनिकाय)-तृतीयभाग। विपश्यना विंशोधन विन्यास, इगतपुरी । ई० सन् १९९८। ५९. जातकपालि (सुत्तपिटक - खुद्दकनिकाय)-द्वितीयभाग। विपश्यना विशोधन विन्यास, __इगतपुरी। ई० सन् १९९८ । ६०. जातकमाला : आर्यशूर। सम्पादक-अनुवादक : सूर्यनारायण चौधरी। मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली। ई० सन् २००१ । ६१. जिनमूर्ति-प्रशस्ति-लेख : कमलकुमार जैन। श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर छतरपुर __ (म.प्र.)। ई० सन् १९८२। ६२. जिनशासन की कीर्तिगाथा : डॉ० कुमारपाल देसाई। श्री अनिलभाई गाँधी (ट्रस्टी)। १०८ जैनतीर्थदर्शनभवन ट्रस्ट, श्री समवसरण महामन्दिर, पालिताणा-३६४२७०। ६३. जिनसहस्रनामटीका : श्रुतसागरसूरि। ६४. जिनागमों की मूलभाषा : डॉ० नथमल टाँटिया। प्राकृत टेस्ट सोसायटी, अहमदाबाद। ६५. जीवसमास : अज्ञात पूर्वधर आचार्य (जिनका नाम ज्ञात नहीं है)। अनुवादिका : साध्वी विद्युत्प्रभाश्री। पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। ई० सन् १९९८। - भूमिका : डॉ० सागरमल जैन। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८२७ ६६. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा-श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री। प्रकाशक श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर (राज.)। ई० सन् १९७७। ६७. जैन कथामाला (भाग ४८) (आधारग्रन्थ : १. उपदेशमाला २. आख्यानक मणिकोश) : मधुकर मुनि। मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर (राज.)। जैन तत्त्वविद्या : मुनि श्री प्रमाणसागर जी। भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली। ई० सन् २०००। ६९. जैनधर्म : पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री। भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा (उ.प्र.)। ई० सन् १९७५। जैनधर्म और दर्शन : मुनि श्री प्रमाणसागर जी। शिक्षा भारती, कश्मीरी गेट, दिल्ली -६। ई० सन् १९९६ । ७१. जैनधर्म का मौलिक इतिहास (प्रथमभाग) : आचार्य हस्तीमल जी। ७२. जैनधर्म का मौलिक इतिहास (द्वितीय भाग/द्वितीय संस्करण) : आचार्य हस्तीमल जी। जैन इतिहास समिति, जयपुर (राजस्थान) ई० सन् १९८७ । ७३. जैनधर्म का मौलिक इतिहास (तृतीय भाग / प्रथम संस्करण) : आचार्य हस्तीमल जी। जैन इतिहास समिति, जयपुर (राजस्थान)। ई० सन् १९८३। ७४. जैनधर्म का मौलिक इतिहास (चतुर्थ भाग) : आचार्य हस्तीमल जी। जैन इतिहास समिति, जयपुर (राजस्थान)। ई० सन् १९८७। ७५. जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय : डॉ० सागरमल जैन। पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। ई० सन् १९९६। ७६. जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा : डॉ० सागरमल जैन। प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)। ई० सन् २००४। ७७. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य : साध्वी संघमित्रा। जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज.)। ___ ई० सन् २००१ । ७८. जैनधर्म के सम्प्रदाय : डॉ० सुरेश सिसोदिया। आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राजस्थान)। ई० सन् १९९४। ७९. जैन निबन्धरत्नावली (प्रथम भाग) : पं० मिलापचन्द्र कटारिया एवं श्री रतनलाल कटारिया। प्रकाशक : श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता। ई० सन् १९६६। ८०. जैन निबन्धरत्नावली (द्वितीय भाग) : पं० मिलापचन्द्र कटारिया। भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथरा। ई० सन् १९९० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ८१. जैन भारती : (दिगम्बर जैन नरसिंहपुरा नवयुवक मण्डल भीण्डर (मेवाड़) के मन्त्री द्वारा लिखित 'भट्टारक चर्चा' नामक पुस्तिका ( ई० सन् १९४१ ) में उद्धृत) ८२. जैन विद्या के आयाम - ग्रन्थाङ्क २ ( Aspects of Jainology, Vol. II) | पं० बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ । प्रकाशक : पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी, ई० सन् १९८७ । ८३. जैन शिलालेख संग्रह ( भाग १ ) : संग्रहकर्त्ता - डॉ० हीरालाल जैन। माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति । वि० सं० १९८४ (ई० सन् १९२७)। ८४. जैन शिलालेख संग्रह ( भाग २ ) : संग्रहकर्त्ता - पं० विजयमूर्ति | माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति मुम्बई । ई० सन् १९५२ । ८५. जैन शिलालेख संग्रह (भाग ३) : संग्रहकर्त्ता - पं० विजयमूर्ति । प्रकाशकमाणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, मुम्बई । ई० सन् १९५७ । प्रस्तावना : डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी । ८६. जैन शिलालेख संग्रह (भाग ४) : संग्राहक - सम्पादक : डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर | भारतीय ज्ञानपीठ काशी। वीर नि० सं० २४९१ । ८७. जैन साहित्य और इतिहास (प्रथम संस्करण ) : पं० नाथूराम प्रेमी | हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई । ई० सन् १९४२ । द्वितीय संस्करण : प्रकाशक- संशोधित साहित्य - माला, ठाकुरद्वार, बम्बई - २ । ई० सन् १९५६ । ८८. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश (प्रथम खण्ड) : पं० जुगलकिशोर मुख्तार | वीरशासन संघ कलकत्ता । ई० सन् १९५६ । ८९. जैन साहित्य का इतिहास ( पूर्वपीठिका) : पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री | श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी। वीर नि० सं० २४८९ । ९०. जैन साहित्य का इतिहास (भाग १, २) : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वाराणसी। वीर निर्वाण सं० २५०२ । ९१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग ३) : डॉ० मोहनलाल मेहता । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, वाराणसी । ई० सन् १९६७। ९२. जैन साहित्य में विकार : पं० बेचरदास जैन । अनुवादक : तिलकविजय जी । - For Personal & Private Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८२९ प्रकाशक : श्री दिगम्बर जैन युवकसंघ, ललितपुर। वीर नि० सं० २४५८। ९३. जैनाचार्य परम्परा महिमा (३४९ श्लोकात्मक ग्रन्थ, अप्रकाशित) : रचयिता-श्रवण बेलगोल के ३१ वें भट्टारक श्री चारुकीर्ति। इस ग्रन्थ के नाम एवं संस्कृत पद्यों का उल्लेख श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास', भाग ३ में पृष्ठ १५२ से १७७ तक किया है और लिखा है कि यह अप्रकाशित ग्रन्थ आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार शोध प्रतिष्ठान, लालभवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-३ में उपलब्ध ९४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग १-४) : क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली। ई० सन् १९८५, १९८६, १९८७, १९८८। ९५. ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र : (ज्ञातृधर्मकथाङ्ग)। आगम प्रकाशन समिति ब्यावर। ई० सन् १९८१। - प्रधान सम्पादक : युवाचार्य श्री मिश्रीलाल जी महाराज 'मधुकर'। - अनुवादक - विवेचक - सम्पादक : पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल। ९६. ज्ञानार्णव : आचार्य शुभचन्द्र। श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास। ई० सन् १९७५। ९७. डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ । पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। ई० सन् १९९८।। ९८. तत्त्वनिर्णयप्रासाद : श्वेताम्बराचार्य मुनि श्री विजयानन्द सूरीश्वर 'आत्माराम'। प्रसिद्धकर्ता : अमरचंद पी० (पद्मा जी) परमार, मुम्बई। ९९. तत्त्वार्थकर्तृ-तन्मतनिर्णय : सागरानन्दसूरीश्वर जी महाराज (श्वेताम्बर)। प्रकाशक : श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था रतलाम। वि० सं० १९९३। १००. तत्त्वार्थराजवार्तिक (तत्त्वार्थवार्तिक, भाग १, २) : भट्ट अकलंक देव। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। ई० सन् १९९३। - सम्पादक : प्रो० महेन्द्र कुमार जैन, न्यायाचार्य। १०१. तत्त्वार्थवृत्ति : श्रुतसागर सूरि। भारतीय ज्ञानपीठ काशी। ई० सन् १९४९ । - प्रस्तावना : प्रो० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य। १०२. तत्त्वार्थसार : अमृतचन्द्रसूरि । सम्पादक : पं० पन्नालाल साहित्याचार्य। श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी,। ई० सन् १९७०। ३। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १०३. तत्त्वार्थसूत्र (सर्वार्थसिद्धि) : भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली । ई० सन् १९९५ । १०४. तत्त्वार्थसूत्र : श्री उमास्वाति वाचक । ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम। ई० सन् १९९६ । हारिभद्रीय वृत्ति : श्री हरिभद्रसूरि । १०५. तत्त्वार्थसूत्र (विवेचनसहित ) : पं० सुखलाल संघवी । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, वाराणसी - ५ । ई० सन् १९९३ । - १०६. तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र ) : बृहत्प्रभाचन्द्र । प्रकाशक : समीचीनधर्म-प्रबोध-संरक्षणसंस्थान कोटा (राज० ) । १०७. तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम-समन्वय : उपाध्याय मुनि श्री आत्माराम जी महाराज (पंजाबी) । प्रकाशक : लाला शादीराम गोकुलचंद जौहरी, चाँदनी चौक, देहली । ई० सन् १९३४ । १०८. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र ) : परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास । ई० सन् १९९२ । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य : उपर्युक्त पर आचार्य उमास्वाति द्वारा रचित भाष्य । १०९. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्ययुक्त) : श्री उमास्वाति-वाचक । प्रकाशक : जीवनचन्द साकरचन्द जवेरी, मुंबई एवं सूरत (गुजरात) । प्रथम भाग - ई० सन् १९२६, मुंबई । द्वितीयभाग - ई० सन् १९३० सूरत । तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति : श्री सिद्धासेन गणी । ११०. तर्कभाषा : केशवमिश्र । चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी । ई० सन् १९७७ । - हिन्दी व्याख्या : आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि । - १११. तित्थगोलियपयन्नु ( अथवा तित्थोगालियपयन्नु = तीर्थोद्गार ) । ११२. तिलोयपण्णत्ती (भाग १, २, ३ ) : आचार्य यतिवृषभ । प्रकाशक : श्री १००८ चन्द्रप्रभ दि० जैन अतिशयक्षेत्र, देहरा- तिजारा (अलवर, राजस्थान ) । ई० सन् १९९७ । अनुवाद : आर्यिका विशुद्धमति जी । ११३. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा ( खण्ड १, २, ३, ४ ) : डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य । द्वितीय संस्करण-आचार्य शान्तिसागर छाणी ग्रन्थमाला, बुढ़ाना (मुजफ्फरनगर) उ० प्र० । ई० सन् १९९२ । - ११४. तैत्तिरीय आरण्यक । ११५. त्रिलोकसार : आचार्य नेमिचन्द्र । ११६. थेरीगाथा — अट्ठकथा (सुत्तपिटक - खुद्दकनिकाय) : विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी । For Personal & Private Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८३१ ११७. दक्षिण भारत में जैनधर्म : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। ई० सन् २००१ । ११८. दर्शनसार : आचार्य देवसेन । अनुवाद एवं विवेचना : पं० नाथूराम जी प्रेमी। जैन ग्रन्थ कार्यालय, हीराबाग, बम्बई । वि० सं० १९७४ । ११९. दशवैकालिकसूत्र : आचार्य शय्यंभव। भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति पिंडवाड़ा __ (राजस्थान)। वि० सं० २०३७। - हारिभद्रीयवृत्ति : हरिभद्रसूरि। १२०. दाठावंस (बौद्धग्रन्थ)। १२१.दि० जैन अतिशयक्षेत्र श्री महावीर जी का संक्षिप्त इतिहास : डॉ. गोपीचन्द्र वर्मा बाँसवाड़ा। रामा प्रकाशन २६२६, रास्ता खजानेवाला, जयपुर। १२२. दिगम्बरत्व और दिगम्बरमुनि : कामता प्रसाद जैन। दि० जैन युवा समिति, १५ भगवान् महावीर मार्ग, बड़ौत, उ० प्र०। ई. सन् १९९२ । १२३. दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण (प्रो. हीरालाल जी के आक्षेपों का निराकरण): आद्य अंश-लेखक : मक्खनलाल शास्त्री, मुरैना। प्रकाशक : श्री दिगम्बर जैन समाज बम्बई। वीर नि० सं० २४७१ । द्वितीय एवं ततीय अंश-सम्पादक : पं० रामप्रसाद शास्त्री बम्बई। प्रकाशक : दिगम्बर जैन पंचायत बम्बई। ई० सन् १९४४ एवं १९४६। १२४.दिव्यावादान (रोमन लिपि में)-The Divyavadan, by E.B. Cowell and R.A. Neil, Indological Book House, Delhi 1987 A.D. १२५.दिव्यावदान (नागरी लिपि में)-सम्पादक : डॉ० पी० एल० वैद्य। प्रकाशक मिथिला विद्यापीठ दरभंगा। ई० सन् १९९९। १२६.दीघनिकायपालि : सम्पादन-अनुवाद : स्वामी द्वारिकादास शास्त्री। बौद्धभारती वाराणसी। ई० सन् १९९६ । - भाग १. सीलक्खन्धवग्ग। - भाग २. महावग्ग। - भाग ३. पाथिकवग्ग। १२७. द्रव्यस्वाभाव-प्रकाशक-नयचक्र : श्री माइल्ल धवल। भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी। ई० सन् १९७१।। १२८. धम्मपद : व्याख्याकार-कन्छेदीलाल गुप्त और सत्कारि शर्मा वङ्गीय। चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी। ई० सन् १९६८ । १२९. धम्मपद-अट्ठकथा, भाग १,२ (सुत्तपिटक-खुद्दक निकाय) : विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी। ई० सन् १९९८ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १३०. धम्मपद - अट्ठकथा, भाग २ ( सुत्तपिटक - खुद्दक निकाय) : नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा । ई० सन् १९७६ । १३१. नन्दीसूत्र : विवेचक - स्व. श्री केवलमुनि जी के शिष्य श्री लालमुनि जी के परिवार के सन्त मुनि श्री पारसकुमार जी ( धर्मदास सम्प्रदाय ) । प्रकाशक - अ० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति - रक्षक संघ, सैलाना (म.प्र.) । ई० सन् १९८४ । कुन्दकुन्द । ( 'कुन्दकुन्द भारती' में संगृहीत) । १३२. नियमसार : आचार्य १३३. निशीथसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य सहित ) : श्री विसाहगणी महत्तर । ( प्रथम विभाग- पीठिका) सम्पादक : उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि तथा मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' । भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली । ई० सन् १९८२ । विशेषचूर्णि : श्री जिनदास महत्तर । • निशीथ : एक अध्ययन - पं० दलसुख मालवणिया । १३४. नीतिसार (नीतिसार - समुच्चय ) : इन्द्रनन्दी । भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् । ई० सन् १९९०। १३५. न्यायकुमुदचन्द्र-परिशीलन : प्रो० उदयचन्द्र जैन । प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर, उ.प्र. । ई० सन् २००१ । १३६. न्यायकुसुमाञ्जलि : उदयनाचार्य । १३७. न्यायदीपिका : अभिनव धर्मभूषण यति । प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् । ई० सन् १९९० । १३८. न्यायमञ्जरी : जयन्त भट्ट । १३९. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति : श्री शान्तिसूरि । सम्पादक : पण्डित दलसुख मालवणिया । प्रकाशक : सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद । ई० सन् २००२ । प्रस्तावना : पं० दलसुख मालवणिया । १४०. पउमचरिउ (भाग १,२,३,४,५ ) : महाकवि स्वयम्भू । भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली । ई० सन् १९८९, १९७७, १९८९, २०००, २००१ । १४१. पउमचरिय : विमलसूरि । १४२. पञ्चतन्त्र-अपरीक्षितकारक : विष्णु शर्मा । रामनारायणलाल बेनीमाघव, इलाहाबाद- २ । ई० सन् १९७५ । १४३. पंचमहागुरुभक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द । ('कुन्दकुन्द भारती' में संगृहीत ) । १४४. पंचाशक (पंचाशक - प्रकरण ) : आचार्य हरिभद्रसूरि । पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी । For Personal & Private Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८३३ १४५. पंचास्तिकाय : आचार्य कुन्दकुन्द। श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्री मद्राजचन्द्र आश्रम अगास (गुजरात)। ई० सन् १९६९ । - समयव्याख्या (तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति) : आचार्य अमृतचन्द्र। - तात्पर्यवृत्ति : आचार्य जयसेन। - बालावबोधभाषाटीका : पाण्डे हेमराज। १४६. पट्टावलीपराग : पं० श्री कल्याणविजय गणी। प्रकाशक : कल्याणविजय शास्त्रसंग्रह समिति, जालौर (राजस्थान)। ई० सन् १९५६। १४७. पं० रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व। आचार्य श्री शिवसागर दि० जैन ग्रन्थमाला शान्तिवीरनगर, श्रीमहावीर जी (राजस्थान) ई० सन् १९८९। १४८. पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ। सरस्वती-वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशन समिति, वाराणसी। ई० सन् १९८९। १४९. पण्णवणासुत्त (भाग १,२) : श्री श्यामार्य वाचक। श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई २६। ई० सन् १९६९ एवं १९७१ । - सम्पादन एवं अँगरेजी प्रस्तावना : मुनि पुण्यविजय जी, पं० दलसुख मालवणिया एवं पं० अमृतलाल मोहनलाल भोजक। १५०. पद्मपुराण (पद्मचरित-भाग १,२,३) : आचार्य रविषेण। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली । ई० सन् २००१, २००२, २००३ । - सम्पादन-अनुवाद : डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य। १५१. पद्ममहापुराण (वैदिक = हिन्दू)-द्वितीय भाग (भूमि, स्वर्ग, ब्रह्य एवं पातालखण्ड) भूमिका : प्रो० डॉ० चारुदेवशास्त्री। प्रकाशक : नाग पब्लिशर्स, जवाहरनगर, दिल्ली-७। ई० सन् १९८४ । १५२. परमात्मप्रकाश एवं योगसार : जोइंदुदेव। परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास। ई० सन् १९७३। - संस्कृतटीका : ब्रह्मदेव।। - भाषा टीका : पं० दौलतराम जी। - प्रस्तावना (Introduction) : ए० एन० उपाध्ये। १५३. परिशिष्टपर्व : कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र। प्रकाशक : एशियाटिक सोसाइटी, ५७ पार्क स्ट्रीट, कलकत्ता। ई० सन् १८९१ । - सम्पादक : हर्मन जैकोबी। १५४. पाइअ-सह-महण्णवो : (प्राकृत-हिन्दी-शब्दकोश) : पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ। मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली। ई० सन् १९८६ । For Personal & Private Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १५५. पातञ्जलयोगदर्शन : महर्षि पतञ्जलि | कृष्णदास अकादमी, वाराणसीं । ई० सन् १९९९ । व्यासभाष्य : श्री व्यास । १५६. पात्रकेसरी-स्तोत्र ( जिनेन्द्रगुणसंस्तुति) : पात्रकेसरी ( पात्रस्वामी) । १५७. पालि - हिन्दी कोश : भदन्त आनन्द कौसल्यायन । राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्लीपटना । ई० सन् १९९९ । १५८. पुरातन - जैनवाक्य - सूची : पं० जुगलकिशोर मुख्तार । वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, जिला - सहारनपुर (उ० प्र० ) । ई० सन् १९५० । १५९. पिण्डनिर्युक्ति : भद्रबाहुस्वामी । शाह नगीनभाई घेलाभाई जह्वेरी, मुंबई । ई० सन् १९१८। मलयगिरीया वृत्ति : आचार्य मलयगिरि । - १६०. प्रकरणरत्नाकर (चतुर्थभाग) : प्रकाशक - शा० भीमसिंह माणकनी वती, शा० भाणजी माया, मुंबई । ई० सन् १९१२ । निर्णयसागर प्रेस मुम्बई । १६१. प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी : श्री गौतमस्वामी - विरचित । प्रकाशक : आचार्य शान्तिसागर दि० जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था | वीर संवत् २४७३ । संस्कृतीक : प्रभाचन्द्र । सम्पादक : पं० मोतीचन्द्र गौतमचन्द्र कोठारी, एम० ए० । I १६२. प्रबोधचन्द्रोदय : कृष्ण मिश्र यति । चौखम्बा अमर भारती प्रकाशन, वाराणसी. ई० सन् १९७७। १६३. प्रमेयकमलमार्तण्ड (द्वितीयभाग) : आचार्य प्रभाचन्द्र । मुद्रक : पाँचूलाल जैन, कमल प्रिंटर्स मदनगंज-किशनगढ़ (राज० ) । वीर नि० सं० २५०७ । अनुवाद : आर्यिका जिनमती जी । १६४. प्रवचनपरीक्षा - पूर्वभाग (स्वोपज्ञवृत्ति - सहित ) : उपाध्याय धर्मसागर । ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (म.प्र.) । १६५. प्रवचनसार : आचार्य कुन्दकुन्द । परमश्रुत प्रभावक श्रीमद्राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात) । ई० सन् १९६४ । तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति : आचार्य अमृतचन्द्र सूरि । - तात्पर्यवृत्ति : आचार्य जयसेन । • बालावबोध भाषाटीका : पाण्डे हेमराज । — - — अँगरेजी - प्रस्तावना ( Introduction ) : प्रो० ए० एन० उपाध्ये | १६६. प्रवचनसारोद्धार ( उत्तरभाग) : श्री नेमिचन्द्र सूरि । प्रकाशक : सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, मुंबई । ई० सन् १९२२ । निर्णयसागर प्रेस मुम्बई । - For Personal & Private Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृतवृत्ति : श्री सिद्धसेनसूरि शेखर १६७. प्रवचनसारोद्धार : श्री नेमिचन्द्रसूरि । प्रकाशक : श्री जैन श्वे. मू. तपागच्छ गोपीपुरा संघ, सूरत । ई० सन् १९८८ । श्री उदयप्रभ सूरि । १६८. प्रशमरतिप्रकरण : श्वेताम्बराचार्य उमास्वाति । परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम अगास (गुजरात) । वि० सं० २०४४ । हारिभद्रीय टीका : श्री हरिभद्र सूरि । १६९. प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा : साध्वी डॉ० दर्शनकलाश्री । श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, जयंतसेन म्यूजियम, मोहनखेड़ा (राजगढ़) धार, म० प्र० । ई० सन् २००७। १७०. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : डॉ० रिचार्ड पिशल । विहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना - ३ । ई० सन् १९५८ । जर्मनभाषा से हिन्दी - अनुवाद : डॉ० हेमचन्द्र जोशी । १७१. प्राकृत साहित्य का इतिहास : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन । द्वितीय संस्करण । चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी। ई० सन् १९८५ । १७२. प्राचीन भारतीय संस्कृति : बी० एन० लूनिया । लक्ष्मीनारायण अग्रवाल पुस्तकप्रकाशक, आगरा - ३ । ई० सन् १९७० । १७३. बारस अणुवेक्खा : आचार्य कुन्दकुन्द । १७४. बृहत्कथाकोश : आचार्य हरिषेण । सिंघी जैन ग्रन्थमाला । ई० सन् १९४३ । अँगरेजी प्रस्तावना : डॉ० ए० एन० उपाध्ये | - टिप्पणीकार - --- - प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८३५ १७५. बृहत्कल्पसूत्र (मूलनिर्युक्तिसहित) : स्थविर आर्य भद्रबाहु स्वामी । Vol. V (चतुर्थ एवं पंचम उद्देश ) । ई० सन् १९३८ । Vol. VI (षष्ठ उद्देश) । ई० सन् १९४२ । प्रकाशक श्री आत्मानन्द जैनसभा, भावनगर । भाष्य : श्री संघदासगणी क्षमाश्रमण । - वृत्ति : आचार्य श्री मलयगिरि, जिसे आचार्य श्री क्षेमकीर्ति ने पूर्ण किया। १७६. बृहत्संहिता : वराहमिहिर । १७७. बृहदारण्यकोपनिषद् : ईशादिदशोपनिषद् | मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली । ई० सन् १९७८ । - शांकरभाष्य : श्री शंकराचार्य । १७८. बृहद्द्द्रव्यसंग्रह : नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव । परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास (गुजरात) । वि० सं० २०२२ । For Personal & Private Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ― • संस्कृतटीका : ब्रह्मदेव । १७९. ब्रह्मसूत्र : बादरायण व्यास । मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली । ई० सन् १९९८ । - शांकरभाष्य : श्री शंकराचार्य । - १८०. ब्रह्माण्डपुराण ( खण्ड १, २) : प्रकाशक - डॉ० चमनलाल गौतम, संस्कृति संस्थान, बरेली ( उ० प्र० ) ई० सन् १९८८ । १८१. भक्तपरिज्ञा : वीरभद्र । बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद। वि० सं० १८२. भगवती - आराधना ( भाग १ ) : शिवार्य । जैन संस्कृति संरक्षक संघ, ई० सन् १९७८ । सन् २००६ । १८३. भगवती आराधना : शिवार्य । जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर । विजयोदयाटीका : अपराजित सूरि । प्रस्तावना एवं अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । १८४. भगवती - आराधना : शिवार्य । प्रकशक : विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन सर्राफ, देहली। १८५. भगवती - आराधना : शिवार्य । प्रकाशक : हीरालाल खुशालचंद दोशी, फलटण । ई० सन् १९९० । विजयोदयाटीका : अपराजित सूरि । अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । १८६. भगवतीसूत्र : एक परिशीलन- आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि । प्रकाशक - श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर (राज० ) । वि० सं० २०४९ । शांकरभाष्य । - - - १८७. भगवद्गीता १८८. भगवान् महावीर का अचेलकधर्म : पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री । भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा । वि० सं० २००१ । १८९. भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध : कामता प्रसाद जैन । वीर नि० सं० २४५३ । १९०. भट्टारक चर्चा : लेखक एवं प्रकाशक - मन्त्री, दिगम्बर जैन नरसिंहपुरा नवयुवक मण्डल, भीण्डर (मेवाड़) । ई० सन् १९४१ । (लेखकमंत्री महोदय ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया ।) १९६२ । शोलापुर । १९१. भट्टारकमीमांसा : पं० दीपचन्द वर्णी नरसिंहपुर निवासी । प्रकाशक : वीर कालूराम राजेन्द्रकुमार परवार, रतलाम । वीरजयन्ती २४५४, सन् १९२७। तृतीय संस्करण के प्रकाशक : स्व० श्री मोहनलाल जी जैन, श्रीमती क्रान्तिबाई जैन, बाहुबली कॉलोनी सागर ( म०प्र०) । ई० सन् २००३ । १९२. भट्टारकसम्प्रदाय : प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर । जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । ई० सन् १९५८ । For Personal & Private Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८३७ १९३. भद्रबाहुचरित : रत्ननन्दी ( रत्नकीर्ति) । जैन भारती भवन, बनारस । ई० सन् १९११ । १९४. भद्रबाहुचरित्र : महाकवि रइधू । सम्पादक : डॉ० राजाराम जैन, दिगम्बर जैन युवकसंघ आरा (बिहार), ई० सन् १९९२ । १९५. भागवतपुराण (श्रीमद्भागवत महापुराण) : गीता प्रेस गोरखपुर । वि० सं० २०५७ । १९६. भारतीय इतिहास एक दृष्टि : डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन । भारतीय ज्ञानपीठ। सन् १९९९ । १९७. भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय मध्यप्रदेश : १३वीं शती तक : डॉ० कस्तूरचन्द्र जैन 'सुमन' । श्री दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति, डी - ३०२, विवेक विहार, दिल्ली । ई० सन् २००१ । १९८. भारतीय पुरालेखों का अध्ययन : डॉ० शिवरूप सहाय । मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी । ई० सन् १९९९ । १९९. भारतीय संस्कृति का विकास : वैदिकधारा : डॉ० मंगलदेव शास्त्री । समाज विज्ञान परषिद्, काशी विद्यापीठ बनारस । १९५६ ई० । २००. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान : डॉ० हीरालाल जैन । मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्, भोपाल। ई० सन् १९७५ । २०१. भावना-द्वात्रिंशतिका : आचार्य अमितगति । ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पृ० ४७५ । सम्पादक - डॉ. ० .० ए० एन० उपाध्याय एवं पं० फूलचन्द्र शास्त्री । भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली । २०२. भावसंग्रह (प्राकृत) : देवसेनाचार्य । २०३. भावसंग्रह : वामदेव । भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्, लोहारिया (राजस्थान ) । २०४. मज्झिमनिकाय (सुत्तपिटक) : सम्पादक : भिक्षु जगदीश कश्यप । बिहार राजकीय पालि- प्रकाशन मण्डल । ई० सन् १९५८ । - १. मूल पण्णासक । २. मज्झिम पण्णासक । २०५. मज्झिमनिकायपालि (सुत्तपिटक) : सम्पादक - अनुवादक : स्वामी द्वारिकादास शास्त्री । बौद्ध भारती, वाराणसी । १. मूल पण्णासक । ई० सन् १९९८ । २. मज्झिम पण्णासक । ई० सन् १९९९ । ३. उपरि पण्णासक। ई० सन् २००० । २०६. मत्स्यपुराण (पूर्वभाग, उत्तरभाग) : हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग । ई० सन् १९८८-८९ । २०७. महापुराण : आचार्य जिनसेन । भारतीय ज्ञानपीठ काशी । ई० सन् १९५१ । For Personal & Private Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ २०८. महाभारत (आदिपर्व/ अध्याय १-७) : श्री वेदव्यास। गीता प्रेस गोरखपुर (उ०प्र०)। नवम्बर १९५५ ई०। २०९. महाभारत (शान्तिपर्व) प्रकाशक : वसन्त श्रीपाद सातवलेकर। स्वाध्याय मण्डल, किल्ला-पारडी (बलसाड़) गुजरात। ई० सन् १९८० । २१०. महावग्गपालि (विनयपिटक) : सम्पादक-अनुवादक : स्वामी द्वारिकादास शास्त्री। बौद्ध भारती, वाराणसी। ई० सन् १९९८। २११. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र : प्रो० मधुसूदन ढाकी और डॉ. जितेन्द्र शाह। २१२. मानवभोज्यमीमांसा : मुनि कल्याणविजय जी गणी। श्री कल्याणविजय-शास्त्रसंग्रह समिति, जालोर (राज.)। ई० सन् १९६१ । २१३. मीमांसाश्लोकवार्तिक : कुमारिल भट्ट। २१४. मुद्राराक्षस (नाटक) : विशाखदत्त। ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली। २१५. मूलाचार (पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध) : आचार्य वट्टकेर। भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। ई० सन् १९९२, १९९६ । - आचारवृत्ति : आचार्य वसुनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती। - हिन्दी-टीकानुवाद : आर्यिकारत्न ज्ञानमती जी। - प्रधान सम्पादकीय : ज्योति प्रसाद जैन। २१६. मूलचार : आचार्य वट्टकेर। भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्। ई० सन् १९९६ । - सम्पादकीय : डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी और डॉ० श्रीमती मुन्नी जैन। २१७. मूलाराधना (भगवती-आराधना) : शिवार्य। स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला शोलापुर। ई० सन् १९३५ । - मूलाराधनादर्पण (संस्कृतटीका) : पं० आशाधर जी। - हिन्दी-अर्थकर्ता : पं० जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्री फड़कुले। २१८. मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र, जिनकल्पिसूत्र) : आचार्य प्रभाचन्द्र। समीचीन धर्मप्रबोध संरक्षण संस्थान, कोटा (राजस्थान)। २१९. मोटी साधु-वन्दना (गुजराती) : छोटालाल जी महाराज। थानकवासी जैन उपाश्रय, लिमड़ी (सौराष्ट्र) ई० सन् १९९१ । २२०. मोहेन-जो-दड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण : आचार्य विद्यानन्द जी। कुन्दकुन्द भारती, नयी दिल्ली । ई० सन् १९८८। २२१. यशस्तिलकचम्पू : सोमदेवसूरि। प्रकाशक : तुकाराम जावजी, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई। पूर्वखण्ड (द्वितीय संस्करण)। ई० सन् १९१६। उत्तरखण्ड (प्रथम संस्करण)। ई० सन् १९०३ । - संस्कृतव्याख्या : श्रुतसागरसूरि । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८३९ २२२. यापनीय और उनका साहित्य : श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया। वीर सेवा मन्दिर - ट्रस्ट प्रकाशन। ई० सन् १९८८।। २२३. रत्नकरण्डश्रावकाचार : स्वामी समन्तभद्र। श्री मुनिसंघ साहित्य प्रकाशन समिति, सागर म० प्र०। ई० सन् १९९२ । - पद्यानुवाद : आचार्य श्री विद्यासागर जी - हिन्दी अनुवाद : डॉ० (पं०) पन्नालाल जैन साहित्याचार्य। २२४. रत्नमाला : शिवकोटि। 'सिद्धान्तसारादि संग्रह' में संगृहीत। २२५. लब्धिसार (लब्धिसार-क्षपणासार) : नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती। आचार्य श्री शिव सागर ग्रन्थमाला, शान्तिवीर नगर, श्री महावीर जी। वीर नि० सं० २५०९। - सम्पादक : ब्र० पं० रतनचन्द्र मुख्तार सहारनपुर, उ० प्र०। २२६. ललितविस्तरा : आचार्य श्री हरिभद्रसूरि। - पञ्जिका टीका : श्री मुनिचन्द्र सूरीश्वर जी - हिन्दी-विवेचना : पंन्यासप्रवर श्री भानुविजय जी गणिवर। - भूमिकालेखक : श्री सम्पूर्णानन्द जी, राज्यपाल, राजस्थान। - परिचयलेखक : प्रो० डॉ० पी० एल० वैद्य, वाडिया कालेज, पूना। २२७. लाटीसंहिता : पं० राजमल्ल। श्रावकाचारसंग्रह (भाग ३)। सम्पादक : पं० हीरालाल जैन शास्त्री। जैनसंस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । ई० सन् २००३। २२८. लिङ्गपुराण : संस्कर्ता : आचार्य जगदीश शास्त्री। मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली। ई० सन् १९८० । २२९: लिंगप्राभृत (लिंगापाहुड) : आचार्य कुन्दकुन्द। २३०. वरांगचरित : जटासिंहनन्दी। भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्पषिद्। ई० सन् १९९६ । २३१. वात्सल्यरत्नाकर (आचार्य श्री विमलसागर अभिनन्दन ग्रन्थ)-द्वितीय खण्ड। प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् , श्री दि० जैन बीसपंथी कोठी, मधुवन (शिखर जी)। ई० सन् १९९३ । २३२. वायुपुराण : हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग (इलाहाबाद)। ई० सन् १९८७। २३३. विद्वज्जनबोधक : पं० पन्नालाल जी संघी २३४. विधि-मार्ग-प्रपा : खरतरागच्छालंकार श्री जिनप्रभसूरि। श्री महावीर स्वामी जैन देरासर ट्रस्ट, ८ विजय वल्लभ चौक, पायुधनी, मुंबई-४००००३। ई० सन् २००५ । - अनुवाद : साध्वी सौम्यगुणाश्री (विधिप्रभा)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ २३५. विविधदीक्षा - संस्कारविधि : आर्यिका शीतलमती जी । सम्पादिका - ब्र० मैनाबाई जैन, संघसंचालिका । आशीषप्रदाता- सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य सन्मतिसागर जी । मुद्रक - शिवशक्ति प्रिण्टर्स, ९, नेहरू बाजार, होटल तारावाली गली, उदयपुर (राज० ) । प्रकथन : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज' । ५८४ म. गाँ. मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर - ४५२००१ ( म०प्र०) । ई० सन् २००२ । २३६. विशेषावश्यकभाष्य ( भाग २ ) : जिन भद्रगणि- क्षमाश्रमण । दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, मुंबई ४०० ००४ । वि० सं० २०३९ । मलधारी हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति २३७. विष्णुपुराण : गीता प्रेस गोरखपुर । वि० सं० २०५८ । २३८. वीरवर्धमानचरित : श्री सकलकीर्ति । भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली । ई० सन् १९७४ । . सम्पादन- अनुवाद : पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री । २३९. वेदान्तसार : परमहंस परिव्राजकाचार्य सदानन्द योगीन्द्र । पीयूष प्रकाशन, इलाहाबाद । ई० सन् १९६८ । तत्त्वपारिजात हिन्दीटीका : सन्तनारायण श्रीवास्तव्य । २४०. वैदिक माइथॉलॉजी : ए० ए० मैक्डॉनल (A.A. Macdonell)। हिन्दी अनुवादक : रामकुमार राय । चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी। ई० सन् १९८४ । २४१. वैदिक साहित्य और संस्कृति : आचार्य बलदेव उपाध्याय । शारदा संस्थान, वाराणसी - ५ । ई० सन् १९९८ । २४२. वैराग्यशतक (भर्तृहरिशतक) : मनोज पब्लिकेशन्स, दिल्ली । ई० सन् २००२ । २४३. वैशेषिकसूत्रोपस्कार ( वैशेषिकसूत्र - व्याख्या) : आचार्य शंकर मिश्र । चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, वाराणसी । २४४. व्याकरण महाभाष्य ( पस्पशाह्निक) : महर्षि पतञ्जलि | चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, वाराणसी। २४५. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ( भगवतीसूत्र / तृतीयखण्ड / शतक ११ - १९ ) : श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान ) । अनुवादक - विवेचक - सम्पादक : श्री अमर मुनि जी एवं श्रीचन्द सुराणा 'सरस' । २४६. शिवमहापुराण - प्रस्तावना : अवधविहारीलाल अवस्थी । गौरीशंकर प्रेस, मध्यमेश्वर, वाराणसी। ― For Personal & Private Use Only Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८४१ २४७. श्रमण भगवान् महावीर : पं० ( मुनि) कल्याणविजय जी गणी । प्रकाशक : श्री क० वि० शास्त्र - संग्रह समिति, जालोर। वि० सं० १९९८, ई० सन् १९४१। २४८. श्रुतावतार : विबुधश्रीधर । 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह' में संगृहीत । २४९. श्रुतावतार : आचार्य इन्द्रनन्दी | भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्, सोनागिर (दतिया) म० प्र० । ई० सन् १९९० । २५०. श्वेताम्बरमत-सामीक्षा : पं० अजितकुमार शास्त्री । प्रकाशक : श्री दिगम्बर जैन युवक संघ । २५१. षट्खण्डागम —– सम्पादिका : ब्र० पं० सुमतिबाई शहा । श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण । ई० सन् १९६५ । २५२. षट्खण्डागम (द्वितीय संस्करण) – सम्पादिका : ब्र० पं० सुमतिबाई शहा । आ० शान्तिसागर 'छाणी' स्मृति ग्रन्थमाला, बुढ़ाना, मुजफ्फरनगर ( उ०प्र०) । ई० सन् २००५ । २५३. षट्खण्डागम ( पुस्तक १ - १६) : पुष्पदन्त एवं भूतबलि । जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । पुस्तक १, २ – ई० सन् १९९२, पु०३ई० सन् १९९३, पु०४ – ई० १९९६, पु०५ - ई० १९८६, पु० ६ – ई० १९९३, पु० ७ – ई० १९८६, पु०८ - ई० १९८७, पु०९ - ई० १९९०, पु० १०,११ - ई० १९९२, पु० १२, १३ – ई० १९९३, पु० १४ – ई० १९९४, पु० १५, १६ – ई० १९९५ । धवलाटीका : आचार्य वीरसेन । सम्पादकीय (पुस्तक १) : डॉ० हीरालाल जैन एवं डॉ० ए० एन० उपाध्ये | प्रस्तावना (पुस्तक १ ) : पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री । २५४. षट्खण्डागम-परिशीलन : पं० बालचन्द्र शास्त्री । भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली । ई० सन् १९८७ । २५५. षट्पाहुड : आचार्य कुन्दकुन्द । प्रकाशिका : शान्ति देवी बड़जात्या, गौहाटी । ई० सन् १९८९ । २५६. षड्दर्शनसमुच्चय : हरिभद्रसूरि । भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । ई० सन् १९८९ । तर्क रहस्यदीपिका टीका : गुणरत्नसूरि । प्रस्तावना : पं० दलसुख मालवणिया । २५७. संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास : डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी । विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी। ई० सन् २००१ । For Personal & Private Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ २५८. संस्कृत साहित्य का इतिहास : बलदेव उपाध्याय। शारदा मंदिर वाराणसी। ई० सन् १९६५। २५९. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे। मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली। ई० सन् १९६९। २६०. संस्कृति के चार अध्याय : रामधारी सिंह दिनकर। लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-१। ई० सन् १९९७। २६१. समन्तभद्र ग्रन्थावली : स्वामी समन्तभद्र। वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन वाराणसी। ई० सन् १९८९। १. आप्तमीमांसा (देवागम) - अकलंकदेवकृत आप्तमीमांसाभाष्य। - आचार्य वसुनन्दीकृत देवागमवृत्ति। - पं० जुगलकिशोर मुख्तारकृत हिन्दीव्याख्या। २. युक्त्यनुशासन। ३. स्वयम्भूस्तोत्र। ४. जिनशतक। ५. रत्नकरण्डक। - अनुवादक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार २६२. समयसार : आचार्य कुन्दकुन्द। अहिंसा मंदिर प्रकाशन, १ दरियागंज, दिल्ली ७। - आत्मख्याति व्याख्या : आचार्य अमृतचन्द्र सूरि। - तात्पर्यवृत्ति : आचार्य जयसेन। - हिन्दीटीका : पं० जयचन्द। २६३. समावायांगसूत्र-प्रकाशक : सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद। ई० १९३८ । २६४. समाधितन्त्र : देवनन्दी, अपरनाम-पूज्यपादस्वामी। श्री वीरसेवा मंदिर, सरसावा (सहारनपुर)। ई० सन् १९३९ । २६५. सम्मइसुत्त (सन्मतिसूत्र, सन्मतितर्क) : आचार्य सिद्धसेन। ज्ञानोदय ग्रन्थ प्रकाशन समिति, नीमच (म० प्र०) ई० सन् १९७८ । - सम्पादक : देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच। २६६. सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र-वृत्ति) : पूज्यपाद स्वामी। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली। ई० सन् १९९५। - सम्पादन-अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री। २६७. सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद स्वामी। भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् । ई० सन् १९९५ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८४३ २६८. सागारधर्मामृत : पं० आशाधर जी। प्रकाशक : मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत। ई० सन् १९४०। - हिन्दी-टीकाकार : पं० देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्री। २६९. सिद्धहेमशब्दानुशासन (अष्टम अध्याय : प्राकृतव्याकरण) : 'कलिकालसर्वज्ञ' आचार्य हेमचन्द्र। २७०. सिद्धान्तसमीक्षा (भाग ३)-प्रकाशक : हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय,बम्बई। ई० सन् १९४५ । २७१. सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ। २७२. सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ-प्रकाशक : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशन समिति, वाराणसी। ई० सन् १९८५। २७३. सूत्रकृतांगसूत्र : (पंचम गणधर सुधर्मस्वामी-प्रणीत द्वितीय अंग)-प्रथम एवं द्वितीय भाग। प्रधान सम्पादक : श्री मिश्रीलाल जी महाराज 'मधुकर'। श्री आगमप्रकाशन समिति ब्यावर (राजस्थान)। २७४. सूर्यप्रकाश-परीक्षा : पं० जुगलकिशोर मुख्तार। प्रकाशक : जौहरीमल जैन सराफ, दरीवाँकला, देहली। ई० सन् १९३४।। २७५. सौन्दरनन्द (महाकाव्य) : अश्वघोष। प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, वाराणसी। २७६. स्त्रीनिर्वाण प्रकरण : ('शाकटायन व्याकरण' के साथ संलग्न। भारतीय ज्ञानपीठ। ई० सन् १९७१) : यापनीय-यतिग्रामाग्रणि-भदन्त-शाकटायनाचार्य, मूलनाम पाल्यकीर्ति (देखिए , पं० नाथूराम प्रेमी : 'शाकटायन और उनका शब्दानुशासन'। 'जैन सिद्धान्त भास्कर'/ भाग ९/ किरण १/ जून १९४२)। २७७. स्थानांगसूत्र (पंचम गणधर सुधर्म स्वामी-प्रणीत तृतीय अंग) : आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.)। - अनुवादक-विवेचक : पं० हीरालाल शास्त्री। २७८. स्वामी समन्तभद्र : पं० जुगलकिशोर मुख्तार। जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो०-गिरगाँव, बम्बई। ई० सन् १९२५ । २७९. हरिवंशपुराण : आचार्य जिनसेन। भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली। ई० सन् १९९८ । - सम्पादन-अनुवाद-प्रस्तावना : डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य। २८०. हर्षचरित : बाणभट्ट। चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी। ई० सन् १९९८ । For Personal & Private Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ - 'सङ्केत' संस्कृत व्याख्या : श्री शंकर कवि । २८१. हूमड़ जैनसमाज का सांस्कृतिक इतिहास ( भाग २ ) - सम्पादिका : श्रीमती कौशल्या पंतग्या। प्रकाशक : श्री अखिल भारतीय हूमड़ जैन इतिहास शोधसमिति, १, सुदर्शन सोसायटी, नारायणपुरा, अहमदाबाद । English Books 1. Aspects of Jainology (Vol. III) : P.V. Research Institute, Varanasi. —The Date of Kundakundācārya : M.A. Dhaky. 2. Gender And Salvation : Padmanabh S. Jaini, Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd., New Delhi, 1992 A.D. 3. Harappa And Jainism : T.N. Ramchandran, Published by Kundakunda Bharti Prakashan, New Delhi, 1987 A.D. —Introduction : Dr. Jyotindra Jain. 4. History of Jaina Monachism (From Inscriptions And Literature) : By Shantaram Balchandra Deo. Deccan College Postgraduate And Research Institute, Poona 1956 A.D. 5. Indian Philosophy (Vol. II) : S Rādhākrishnan Delhi Oxford Univesity Press. 6. Pañchāstikāyasāra : Āchārya Kundakunda, Bhārtiya Jnanpith Publication, 1975 A.D. — English Commentary & Introduction : Prof. A Chakravarti Nayanar. 7. Sanskrit-English Dictionary : M. Monier Williams, Motilal Banarsi - das, Delhi, 1999 A.D. 8. The Hathīgumpha Inscription of Kharavela And the Bhabru Edict of Aśoka By Shashikant. D.K. Printworld (P) Ltd., New Delhi-110015. 1971 A.D. शोध-पत्रिकाएँ १. अनेकान्त (मासिक) - सम्पादक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार, समन्तभद्राश्रम, दिल्ली । वर्ष किरण १ ३ १ ४ मास माघ फाल्गुन वीर नि० सं० वि० सं० २४५६ 17 For Personal & Private Use Only १९८६ 11 करौलबाग, ई० सन् १९२९ " Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ८४५ वर्ष किरण मास वीर नि० सं० वि० सं० ई० सन् १ ५ चैत्र " १९८६ १९२९ १ ६-७ वैशाख-ज्येष्ठ , १९८७ १९३० १ ८-९-१० आषाढ़-श्रावण-भाद्रपद , १ ११-१२ आश्विन-कार्तिक , अनेकान्त (मासिक) के निम्नलिखित अंकों का सम्पादन-स्थान : वीरसेवा मंदिर, समन्तभद्राश्रम, सरसावा (जिला-सहारनपुर) उ० प्र०। वर्ष किरण मास वीर नि० सं० वि० सं० ई० सन् २४६५ کی کم १९३८ १९३८ १९३९ १९३९ १९३९ १९४१ ५ १०-११ १९४२ १९४३ ५ ६ ६ १२ १०-११ १२ पौष, जनवरी १९९५ फाल्गुन, मार्च चैत्र, अप्रैल १९९६ आषाढ़, जुलाई प्रथम श्रावण, अगस्त फरवरी - १९९८ कार्तिक-मार्गशीर्ष, नवम्बर-दिसम्बर २४६९ १९९९ पौष, जनवरी मई-जून २००१ श्रावण शुक्ल, जुलाई २४७० २००१ भाद्र०-आश्विन, अगस्त-सितम्बर कार्तिक-मार्गशीर्ष अक्टूबर-नवम्बर २४७१ २००१ मास वीर नि० सं० वि० सं० पौष-माघ दिसम्बर-जनवरी ॥ फाल्गुन-चैत्र, फर०-मार्च२००१-२ ॥ फरवरी १९४४ १९४४ १९४४ ३-४ GGGG १९४४ ई० सन् वर्ष किरण ७-८ १९४४-४५ १९४५ १९४६ २. ८ ४-५ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ वर्ष किरण मास वीर नि० सं० वि० सं० ई० सन् ८ १०-११ मार्च-अप्रैल २४७३ २००४ १९४७ ८ १२ आश्विन, अक्टूबर २४७३ , १९४७ (वर्ष ८ के मास-सम्बन्धी अनियमित उल्लेख के कारण का निर्देश इसी अंक ___(अक्टूबर १९४७) के आवरण पृष्ठ २ पर किया गया है।) वर्ष किरण मास वीर नि० सं० वि० सं० ई० सन् १४ ६ माघ, जनवरी २४८३ २०१३ १९५७ २८ १ महावीर निर्वाण विशेषांक २५०१ २०३२ १९७५ ४६ २ अप्रैल-जून २५१८ २०५० १९९३ २. जिनभाषित (मासिक) मई २००३-सम्पादक : प्रो० रतनचन्द्र जैन, भोपाल, म०प्र० । प्रकाशक-सर्वोदय जैन विद्यापीठ, १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ०प्र०)। ३. जैन सिद्धान्त भास्कर (भास्कर) मासिक भाग किरण मास ई० सन् जून १९४२ १० २ जुलाई १९४३ जून १९४४ १३ २ २३ २ ४. जैनहितैषी (मासिक)-सम्पादक और प्रकाशक : श्री नाथूराम प्रेमी। भाग किरण मास वीर नि० सं० ई० सन् वैशाख-ज्येष्ठ २४३७ १९१० आषाढ़ २४३७ १९१० भाग किरण मास वीर नि० सं० ई० सन् ७ १०-११ श्रावण-भाद्र २४३७ १९१० मार्गशीर्ष २४३८ १९११ ११ १०-११ श्रावण-भाद्र २४४१ १९१४ ५. धर्ममंगल (मासिक), १६ मई १९९७–सम्पादिका : प्रा० सौ० लीलावती जैन। ४/५, भीकमचंद जैननगर, जलगाँव (महाराष्ट्र)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची /८४७ ६. प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९६-सम्पादक : डॉ० सुदीप जैन । (प्राकृत भवन), १८-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली ११००६७। ७. शोध (साहित्य-संस्कृति-गवेषणा-प्रधान पत्रिका), अंक ५/१९८७-८८ ई०–सम्पादक : डॉ० बनारसीप्रसाद भोजपुरी एवं डॉ० राजाराम जैन। नागरी प्रचारिणी सभा आरा (भोजपुर, बिहार)। अंक १२-१३ (संयुक्तांक)। ई० सन् १९९९-२०००, २०००-२००१ । सम्पादक : प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन। ८. शोधादर्श-४८, नवम्बर २००२ ई०-प्रधान सम्पादक : श्री अजितप्रसाद जैन। सहसम्पादक : श्री रमाकान्त जैन। प्रकाशक : तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति, उ० प्र०, पारस सदन, आर्यनगर, लखनऊ २२६ ००४। ९. श्रमण (त्रैमासिक शोध पत्रिका सम्पादक : प्रो० सागरमल जैन। पार्श्वनाथ विद्यापीठ । वाराणसी)। - १. अक्टूबर-दिसम्बर १९९७ ई०। - २. जुलाई-दिसम्बर २००५ ई०। - ३. अप्रैल-जून २००६ ई०। English Journals 1. Bombay University Journal, May 1933. (Yapaniya Sangh, A Jaina Sect : Dr. A.N. Upadhye) 2. The Indian Antiquary : A Journal of Oriental Researeh in Archae ology, History, Literature, Languages, Philosophy, Religion, Folklore etc. - 1. Vol. XIV, January 1885. - 2. Vol. XX, October 1891. - 3. Vol. XXI, March 1892. Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० (डॉ० ) रतनचन्द्र जैन जन्म २ जुलाई १९३५ को. मध्यप्रदेश के लहारी (सागर) नामक ग्राम में । पिता-स्व० पं० बालचन्द्र जी जैन एवं माता-स्व० श्रीमती अमोलप्रभा जी जैन । प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही। पश्चात् श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म० प्र०) में संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंगरेजी तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन । अनन्तर स्वाध्याय के द्वारा मैट्रिक से लेकर एम० ए० (संस्कृत) तक की परीक्षाएँ उत्तीर्ण । प्रावीण्यसुची में बी० ए० में दसवाँ स्थान और एम० ए० में प्रथम । 'जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहारनय' विषय पर पी-एच० डी० उपाधि प्राप्त । शा० टी० आर० एस० स्नातकोक्तर महाविद्यालय, रीवा (म० प्र०), शा० हमीदिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भोपाल एवं बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल (म० प्र०) में स्नातकोत्तर कक्षाओं तक संस्कृत विषय का एवं भाषाविज्ञान की एम० फिल० कक्षा में शैलीविज्ञान का अध्यापन तथा पी-एच०डी० उपाधि के लिए शोधार्थियों का मार्गदर्शन। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के आदेश से उनके द्वारा संस्थापित प्रतिभामण्डल की ब्रह्मचारिणी बहनों को दो चातुर्मासों (सन् २००२ एवं २००३) में संस्कृत एवं सर्वार्थसिद्धिटीका का अध्यापन । आचार्यश्री की ही प्रेरणा से 'जैनपरम्परा और यापनीयसंघ' ग्रन्थ का लेखन । उनके ही आशीर्वाद से सन् २००१ से अद्यावधि 'जिनभाषित' मासिक पत्रिका का सम्पादन । प्रकाशित ग्रन्थ : १. जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन, २. जैनपरम्परा और यापनीयसंघ (तीन खण्डों में)। सम्प्रति भोपाल (म० प्र०) में निवास करते हए 'जिनभाषित' के सम्पादन एवं श्री पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर शाहपुरा, भोपाल में श्रावक-श्राविकाओं को धर्मग्रन्थों के अध्यापन में संलग्न । For Personal & Private Use Only Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only