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________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९५ अनुसार प्रत्यक्ष को अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और भूल-विना का अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिये। साथ ही अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी शब्दों पर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दोनों पर्यायशब्द हैं, और चीनी तथा तिब्बती भाषा के जो शब्द अनुवादों में प्रयुक्त हैं, उनका अनुवाद अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी दोनों प्रकार से हो सकता है। और फिर स्वयं अभ्रान्त शब्द को ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष की व्याख्या में अभ्रान्त शब्द की जो वृद्धि की है, वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है, बल्कि सौत्रान्तिकों की पुरानी व्याख्या को स्वीकार करके उन्होंने दिग्नाग की व्याख्या में इस प्रकार से सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र असङ्ग के गुरु मैत्रेय की कृति है, असङ्ग (मैत्रेय?) का समय ईसा की चौथी शताब्दी का मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्ष के लक्षणमें अभ्रान्त शब्द का प्रयोग तथा अभ्रान्तपना का विचार विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के पहले भले प्रकार ज्ञात था अर्थात् यह (अभ्रान्त) शब्द सुप्रसिद्ध था। अतः सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार में प्रयुक्त हुए मात्र 'अभ्रान्त' पद पर से उसे धर्मकीर्ति के बाद का बतलाना जरूरी नहीं। उसके कर्ता सिद्धसेन को असङ्ग के बाद और धर्मकीर्ति के पहले मानने में कोई प्रकार का अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।' "इस कथन में प्रो. टुची के कथन को लेकर जो कुछ फलित किया गया है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथन में स्वयं भ्रान्त हैं, वे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनों मूल संस्कृत ग्रन्थों में प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी अथवा उसके लक्षण का जो निर्देश किया है, उसमें अभ्रान्त पद का प्रयोग पाया ही जाता है, बल्कि साफ तौर पर यह सूचित कर रहे हैं कि मूलग्रन्थ उनके सामने नहीं, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने हैं और उनमें जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, उनका अर्थ अभ्रान्त तथा अव्यभिचारि दोनों रूप से हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो, तो उसका निषेध भी नहीं किया। दूसरे, उक्त स्थिति में उन्होंने अपने प्रयोजन के लिये जो अभ्रान्त पद स्वीकार किया है, वह उनकी रुचि की बात है न कि मूल में अभ्रान्त-पदके प्रयोग की कोई गारंटी है और इसलिये उस पर से निश्चितरूप में यह फलित कर लेना कि 'विक्रम की पाँचवी शताब्दी के पहले प्रत्यक्ष के लक्षण में अभ्रान्त पद का प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथन का अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता। तीसरे, उन मूल संस्कृत ग्रन्थों में यदि अव्यभिचारि पद का ही प्रयोग हो, तब भी उसके स्थान पर धर्मकीर्ति ने अभ्रान्त पद की जो नई योजना की है, वह उसी की योजना कहलाएगी और न्यायावतार में उसका अनुसरण होने से उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीर्ति के बाद के ही विद्वान् Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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