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४९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०१ वाक्यों के साथ दिया है। उनमें से तीन श्लोक नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता। नाऽसति त्र्यंशकस्याऽपि तस्मात् क्लीबास्त्रिलक्षणाः॥ १३६४॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव हेतुता। दृष्टान्तौ द्वावपि स्तां वा मा वा तौ हि न कारणम्॥ १३६८॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्?।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्?॥ १३६९॥ "इनमें से तीसरे पद्य को विक्रम की ७वीं-८वीं शताब्दी के २२ विद्वान् अकलङ्कदेव ने अपने न्यायविनिश्चय (कारिका ३२३) में अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय (प्र.६) में इसे स्वामी का अमलालीढ पद प्रकट किया है तथा वादिराज ने न्यायविनिश्चयविवरण में इस पद्य को पात्रकेसरी से सम्बद्ध अन्यथानुपपत्तिवार्तिक बतलाया है।
"धर्मकीर्ति का समय ई० सन् ६२५ से ६५० अर्थात् विक्रम की ७वीं शताब्दी का प्रायः चतुर्थ चरण, धर्मोत्तर का समय ई० सन् ७२५ से ७५० अर्थात् विक्रम की ८वीं शताब्दी का प्रायः चतुर्थ चरण और पात्रस्वामी का समय विक्रम की ७वीं शताब्दी का प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, क्योंकि वे अकलङ्कदेव से कुछ पहले हुए हैं। तब सन्मतिकार सिद्धसेन का समय वि. संवत् ६६६ से पूर्व का सुनिश्चित है, जैसा कि अगले प्रकरण में स्पष्ट करके बतलाया जायगा। ऐसी हालत में जो सिद्धसेन सन्मति के कर्ता हैं, वे ही न्यायावतार के कर्ता नहीं हो सकते। समय की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक-दूसरे से भिन्न होने चाहिये।
"इस विषय में पं० सुखलाल जी आदि का यह कहना है२३ कि 'प्रो० टुची (Tousi) ने दिग्नाग से पूर्ववर्ती बौद्धन्याय के ऊपर जो एक निबन्ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जुलाई, सन् १९२९ के जर्नल में प्रकाशित कराया है, उसमें बौद्ध-संस्कृतग्रन्थों के चीनी तथा तिब्बती अनुवाद के आधार पर यह प्रकट किया है कि 'योगाचार्यभूमिशास्त्र और प्रकरणार्यवाचा नाम के ग्रन्थों में प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी है, उसके
२२. विक्रमसंवत् ७०० में अकलङ्कदेव का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ है, जैसा कि अकलङ्कचरित के निम्न पद्य से प्रकट है
विक्रमार्क-शकाब्दीय - शतसप्त-प्रमाजुषि।
कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत॥ २३. देखिए , 'सन्मति' के गुजराती संस्करण की प्रस्तावना, पृ. ४१, ४२ और अंग्रेजी संस्करण
की प्रस्तावना पृ. १२-१४।
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