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________________ १२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४/प्र०१ मुक्त रहना संभव नहीं है। वस्त्रधारण करने पर मनुष्य इन अठारह दोषों में से किसी न किसी दोष से ग्रस्त होकर ही रहेगा। और एक दोष में सभी दोष समाये हुए हैं, अतः एक दोष से ग्रस्त होने पर सभी दोषों से ग्रस्त होना अनिवार्य है। अभिप्राय यह है कि भले ही कोई अपवादलिंग के नाम पर सचेललिंग का औचित्य प्रतिपादित करे, किन्तु अपराजित सूरि के अनुसार सचेललिंगजन्य उक्त मोक्षविरोधी दोषों से किसी भी सचेल मुनि का बचना संभव नहीं है। अतः उक्त अठारह दोषों का वर्णन कर अपराजितसूरि ने मुनि के लिए सचेललिंग का स्पष्टतः निषेध किया है। __ अपराजितसूरि ने इन दोषों का वर्णन करते हुए ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम नहीं बतलाया है कि जिस पुरुष की जननेन्द्रिय अशोभनीय हो अथवा जिसे नग्न रहने में लज्जा आती हो अथवा जो शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ हो, वह यदि वस्त्रधारण करे, तो उसमें ये मोक्षविरोधी दोष उत्पन्न नहीं होंगे अथवा यदि स्त्री वस्त्रधारण करे, तो वह इन दोषों से ग्रस्त नहीं होगी, शेष मनुष्य ही वस्त्रधारण करने पर उपर्युक्त दोषों से दूषित होंगे। यदि ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम होता, तो अशोभनीय जननेन्द्रियवाला होना अथवा परीषह सहने में असमर्थ-संहननवाला होना अथवा लजाकषाय से ग्रस्त होना अथवा स्त्री होना मोक्ष का सबसे सुखद मार्ग होता। तब सभी जीव अशोभनीय पुरुष-जननेन्द्रिय पाने के लिए अशुभनामकर्म का उपार्जन तथा स्त्रीपर्याय पाने के लिए मायाचार में प्रवृत्ति करना उचित मानते। तब पाप करना मोक्ष पाने के लिए आवश्यक हो जाता। अतः ऐसा कोई कर्मसिद्धान्तीय नियम हो ही नहीं सकता। इसीलिए अपराजित सूरि ने यह नहीं कहा कि उपर्युक्त कारणों से वस्त्र धारण करनेवाले मुनि या आर्यिका में ऊपर वर्णित अठारह दोष उत्पन्न नहीं होते। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने सचेललिंग को सर्वथा मोक्षविरोधी प्रतिपादित किया है, जिससे स्त्रीमुक्ति का भी निषेध होता है। गृहस्थमुक्तिनिषेध सवस्त्रमुक्ति के निषेध से गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का भी निषेध हो जाता है, क्योंकि ये (गृहस्थादि) भी वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त होते हैं। तथापि इनकी मुक्ति का निषेध करनेवाले अन्य कथन भी विजयोदयाटीका में विद्यमान हैं। अतः उनका पृथक्-पृथक् वर्णन किया जा रहा है। __ अपराजितसूरि का यह मत तो पहले ही बतला दिया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत (श्रावक) न तो विषयराग से निवृत्त होता है, न ही सकलपरिग्रह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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