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________________ अ०१४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२९ का त्यागी होता है, अतः वह मोक्ष का पात्र नहीं है। आगे वे कहते हैं कि गृहस्थ एकदेश-प्रवृत्तिरत होता है, अतः वह पूर्ण संयम का पालक नहीं होता"देशप्रवृत्तिर्गृहिणामकृत्स्नात्' (वि.टी./ गा. 'अणुकंपा' १८२८ / पृ.८१५)। क्षेत्र, वास्तु, सुवर्ण, धान्य, वस्त्र, भाण्ड, द्विपद (दास-दासी), चतुष्पद (हाथी, घोडा आदि), यान तथा शयन-आसन, ये दस बाह्यपरिग्रह हैं। (वि.टी./गा.'बाहिरसंगा'१११३ )। इनका त्याग किये बिना ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य और अव्याबाधत्व नामक आत्मगुणों को आच्छादित करनेवाला कर्ममल दूर नहीं किया जा सकता। जैसे चावल का तुष दूर किये बिना उसके अन्तर्मल का शोधन सम्भव नहीं है, वैसे ही जो बाह्यपरिग्रहरूपी कर्ममल से सम्बद्ध है, उसके आभ्यन्तर कर्ममल का शोधन असंभव है। लोभादिरूप परिणामों के कारण जीव बाह्य द्रव्य को ग्रहण करता है। अतः जो बाह्यपरिग्रह ग्रहण करता है, वह नियम से लोभ आदि रूप अशुभपरिणामवाला होने से कर्मबन्ध करता है। अतः दशविध परिग्रह त्याज्य है।६ चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग भावनैर्ग्रन्थ्य है, वही मुक्ति का उपाय है। और भावनैर्ग्रन्थ्य का उपाय है दशविध बाह्यग्रन्थ का त्याग।"७ __सूरि जी ने आगे लिखा है-"वस्त्रधारण करने से गृहस्थ परीषहजय में असमर्थ होता है और परीषहजय के बिना संयम का पालन नहीं होता।"८ ___ गृहवास के दोषों पर प्रकाश डालते हुए अपराजितसूरि कहते हैं-"गृहस्थाश्रम 'यह मेरा है' इस भाव का अधिष्ठान है, निरन्तर माया और लोभ को उत्पन्न करने में दक्ष जीवन के उपायों में लगानेवाला है, कषायों की खान है, दूसरों को पीड़ा ३. "बाह्यमलमनिराकृत्याभ्यन्तरकर्ममलं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रवीर्याव्याबाधत्वानामात्मगुणानां छादने __ व्यापृतं न निराकर्तुं शक्यते।" वि.टी. / पातनिका/गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ४. "तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषेऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं तथा बाह्यपरिग्रहमल__संसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलमशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः।" वि.टी./गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ५. लोभादिपरिणामहेतुकं बाह्यद्रव्यग्रहणम्।" वि.टी. / गा. 'जह कुंडओ' १११४ । ६. "एते यदोदिताः परिणामास्तदा ग्रन्थान् बाह्यान् ग्रहीतुं मनः करोति नान्यथा। तस्माद्यो बाह्यं गृह्णाति परिग्रहं स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवेति कर्मणां बन्धको भवति। ततस्त्याज्याः परिग्रहाः।" वि.टी. / गा.'रागो लोभो' १११५। ७. "वस्त्रमात्रपरित्यागेनैव निर्ग्रन्थताभिमानोद्वहनमप्यसत्यं, सत्येवं तिर्यञ्चोऽपि निर्ग्रन्थाः स्युः। चतुर्दशप्रकारस्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य त्यागाद् भावनैर्ग्रन्थ्यं समवतिष्ठते। तदेव हि मुक्तेरुपायः। भावनैर्ग्रन्थ्यस्य उपाय इति दशविधबाह्यग्रन्थत्याग उपयोगी मुमुक्षोः।" वि. टी./ गा. 'तो उप्पीले' ४७९ / पृ.३६७।। ८. "परीषहै: पराजितो न संयम परिपालयतीति मन्यते।" वि.टी./गा.'पियधम्मा' ६४६ / पृ.४३७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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