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१३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १४ / प्र० १
देने और अनुग्रह करने में तत्पर रहता है, उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिसम्बन्धी व्यापार सदा चला करता है, मन, वचन और काय के द्वारा सचित्त, अचित्त, छोटे और बड़े पदार्थों के ग्रहण और संवर्धन का प्रयास होता रहता है। गृहस्थाश्रम में स्थित मनुष्य असार में सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचि में शुचिता, दुःख में सुख, अहित में हित, अनाश्रय में आश्रय और शत्रु में मित्र मानता हुआ दौड़ता फिरता है। भय और शंका से ग्रस्त रहते हुए भी आश्रय में स्थित रहता है। गृहस्थाश्रम में स्थित मनुष्य काल के घने अन्धकारपटल से वैसे ही घिर जाता है, जैसे लोहे के पिंजड़े में बन्द सिंह, जाल में फँसा मृगकुल, कीचड़ में फँसा बूढ़ा हाथी, पाश में बद्ध पक्षी, कारागार में कैद चोर, व्याघ्रों के बीच में बैठा दुर्बल हिरण तथा जाल में फँसा मगरमच्छ । रागरूपी महानाग गृहस्थ को सताते हैं । चिन्तारूपी डाकिनी उसका भक्षण करती है। शोकरूपी भेड़िये उसका पीछा करते हैं। कोपरूपी अग्नि उसे जलाकर राख कर देती है। दुराशारूपी लताओं से वह ऐसा बँध जाता है कि हाथ-पैर भी नहीं हिला पाता । प्रियावियोगरूपी वज्रपात उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। इच्छित वस्तु की अप्राप्तिरूप बाणों का वह तरकश बन जाता है । मायारूपी बुढ़िया उसका प्रगाढ़ आलिंगन करती है। तिरस्काररूपी कठोर कुठार उसे काटते रहते हैं। अपयशरूपी मल से वह लिप्त हो जाता है। मोहमहावनरूपी हाथी उसे मार डालता है । पापरूपी हत्यारों के द्वारा वह ज्ञानशून्य कर दिया जाता है। भयरूपी लौह शलाकाओं से कोंचा जाता है। प्रतिदिन श्रमरूपी कौओं के द्वारा खाया जाता है। ईर्ष्यारूपी स्याही से काला किया जाता है । परिग्रहरूपी मगरमच्छों के द्वारा पकड़ा जाता है। गृहस्थाश्रम में स्थित होने पर असंयम की ओर जाता है। असूयारूपी पत्नी का प्रिय बन जाता है । अपने को मानरूपी दानव का स्वामी मानने लगता है। गृहस्थाश्रम में वह विशाल धवलचरित्ररूपी तीन छत्रों की छाया के सुख से वंचित रहता है । वह अपने को संसाररूपी जेल से मुक्त नहीं कर पाता । कर्मों का जड़ - मूल से विनाश करने में असमर्थ रहता है । मृत्युरूपी विषवृक्ष को जला पाना संभव नहीं होता। मोहरूपी दृढ़ श्रृंखला को तोड़ नहीं पाता । विचित्र योनियों में जाने से अपने को रोक नहीं सकता।" (वि.टी./ गा.' एवं केई गिहवास' १३१९/पृ.६४९-६५०)।
अपराजितसूरि ने गृहस्थजीवन का जो यह भयंकर चित्रण किया है, उससे गृहस्थमुक्ति की तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि टीकाकार गृहस्थमुक्ति को सर्वथा असंभव मानते हैं, जब कि यापनीयमत में गृहस्थमुक्ति स्वीकार की गई है। इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि किसी भी तरह यापनीय नहीं हैं, वे पूर्णत: दिगम्बर हैं।
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