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________________ अ०१४/प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३१ परतीर्थिकमुक्ति-निषेध परतीर्थिक या अन्यलिंगी वह कहलाता है, जो जिनधर्म का अनुयायी नहीं है, अपितु अन्यधर्म को मानता है। ऐसा मनुष्य जिनदेव, जिनशास्त्र और जिनगुरु में श्रद्धा न रखने के कारण मिथ्यादृष्टि होता है और उसका बाह्यलिंग भी दिगम्बरलिंग नहीं होता, अपितु सवस्त्र अथवा अन्य परिग्रह से युक्त नाग्न्यलिंग होता है। अपराजितसूरि ने उसे मोक्ष के अयोग्य बतलाया है। वे कहते हैं "एतदुक्तं भवति कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य, पुनरितरस्य असति संवरे प्रतिसमयमुपचीयमानकर्मसंहतेः का मुक्तिः?" (वि.टी. / गा.' सम्मादिट्ठिस्स' ७)। अनुवाद-"असंयमी सम्यग्दृष्टि का भी तप कर्मों को जड़ से उखाड़ने में असमर्थ है, तब जो सम्यग्दृष्टि नहीं है, उसकी तो बात ही क्या? उसके कर्मों का संवर नहीं होता, प्रतिसमय कर्म बँधते रहते हैं। उसकी मुक्ति कैसे संभव है?" अपराजितसूरि उपदेश देते हैं-"ततो दुःखजलवाहिनीं मिथ्यादृष्टिकुल्ल्यामुल्लङ्घय, प्रतिपद्यस्व जैनी दृष्टिमिति तत्र स्थिरताकरणम्।" (वि. टी. / गा. उवगृहणठिदि' ४४ / पृ.८२)। अनुवाद-"मिथ्यादृष्टिरूपी नदी में दुःखरूपी जल बहता है, अतः उसे पार करके जैनी दृष्टि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त करो।" यही बात वे इन शब्दों में दुहराते हैं-"स्वल्पापि मिथ्यात्वविषकणिका कुत्सितासु योनिषु उत्पादयति किमस्ति वाच्यं सर्वस्य जिनदृष्टस्याश्रद्धाने?" (वि.टी. / गा. 'जस्स पुण' ६० / पृ.१०२)। अनुवाद-"मिथ्यात्वरूपी विष की छोटी सी भी बूंद कुत्सित योनियों में उत्पन्न कराती है, तब जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट समस्त तत्त्वों का श्रद्धान न होने पर तो कहना ही क्या है? __ वे आगे कहते हैं-"द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी शत्रुओं को जो जीत लेते हैं, उन्हें 'जिन' कहते हैं। उनके वचन जीवादिपदार्थों के यथार्थस्वरूप के प्रकाशन में दक्ष हैं। वे (जिनवचन) प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अविरुद्ध हैं। उन वचनों के अर्थ को न जानने से जो अतत्त्वश्रद्धान होता है, उससे तथा उन वचनों में निरूपित मार्ग के अनुसार आचरण न करने से जीव संसाररूपी महाअटवी में प्रवेश करता है।" (वि.टी./गा. 'मिच्छत्तमोहिद' १७६३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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