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१३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०१ "जिन्होंने जिनदेव द्वारा उपदिष्ट सर्वदुःख-विनाशक जिनधर्म को दृढ़धैर्य तथा निर्मल-मन से निर्व्याकुल होकर धारण किया है, वे पुण्यशाली हैं।" (वि.टी./गा.' ते धण्णा ' १८५४)।
यह बात तो टीकाकार पहले कह ही चुके हैं कि "अचेललिंग ही जिनलिंग है। 'जिन' मोक्ष चाहते थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे। अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही लिंग अन्य मोक्षार्थियों के लिए भी योग्य है।" (वि.टी./ गा. 'जिणपडिरूवं'८४)।
टीकाकार ने यह भी जोर देकर कहा है कि भावनिर्ग्रन्थता ही मोक्ष का उपाय है और भावनिर्ग्रन्थता का उपाय है वस्त्रादिबाह्यग्रन्थ का त्याग। (वि.टी. / गा. तो उप्पीले' ४७९)। टीकाकार के ये शब्द पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं।
अपराजितसूरि की इन मान्यताओं से स्पष्ट है कि वे परतीर्थिक को मुक्ति का पात्र नहीं मानते। यह मान्यता यापनीयमत के विरुद्ध है। अतः वे यापनीयमतावलम्बी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमत के अनुयायी हैं।
स्त्रीमुक्तिनिषेध विजयोदयाटीका में स्त्रीमुक्तिनिषेध के भी प्रमाण स्पष्ट हैं। उन्हें यहाँ संकलित किया जा रहा है
१. अपराजितसूरि का कथन है कि केवल वस्त्र त्यागने से और शेष परिग्रह रखने से संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती-"नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./गा. 'ण य होदि संजदो' १११८)।
___ इसका तात्पर्य यह है कि वस्त्र के साथ शेष परिग्रह का त्याग करने पर ही संयत-गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती है और स्त्रियों के लिए वस्त्रपरित्याग संभव नहीं है, अतः उनके लिए संयतगुणस्थान की प्राप्ति भी असंभव है, इसलिए उनकी मुक्ति भी असंभव है।
२. यही बात वे इन शब्दों में कहते हैं-"न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति।" (वि.टी. / गा. सिद्धे जयप्प' १)।
. अनुवाद-"असंयतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत गुणस्थानों में न तो विषयराग से निवृत्ति होती है, न सकल परिग्रह का त्याग होता है।"
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