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________________ अ० १४ / प्र० १ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३३ इस कथन का अभिप्राय यह है कि जब विषयराग से निवृत्ति होती है और सकल परिग्रह का त्याग होता है, तब संयतगुणस्थान की प्राप्ति होती है। सकलपरिग्रह के त्याग का अर्थ है आचेलक्य अर्थात् वस्त्रसहित समस्त बाह्य वस्तुओं का त्याग, जैसा कि अपराजित सूरि ने कहा है- "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्कमित्युच्यते।” (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३) । और चूँकि स्त्री वस्त्रत्याग नहीं कर सकती, इसलिए उसके निश्चयनय से अपरिग्रह महाव्रत भी नहीं होता और वह विषयराग से भी निवृत्त नहीं होती, इसलिए उसे संयतगुणस्थान भी प्राप्ति नहीं होता । अतः उसकी मुक्ति भी असंभव है। ३. अपराजितसूरि ने अचेल को ही निर्ग्रन्थ कहा है। इससे स्पष्ट है कि स्त्री अचेल न हो सकने के कारण निर्ग्रन्थ (सकलपरिग्रहत्यागी) नहीं हो सकती, जबकि निर्ग्रन्थता ही मुक्ति का मार्ग है। ४. अपराजितसूरि ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि अचेललिंग से ही मोक्ष हो सकता है। वे लिखते हैं- " अचेललिंग जिनलिंग है। जिन ( तीर्थंकर) मोक्ष चाहते थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे । अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही लिंग अन्य मोक्षार्थियों के लिए भी योग्य है। जो जिस वस्तु को चाहता है और विवेकवान् होता है वह उसके अनुपाय को नहीं अपनाता, जैसे घटनिर्माण की इच्छा रखनेवाला तुरी, वेमा आदि को । इसी प्रकार मोक्ष का अभिलाषी वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का उपाय नहीं है। किन्तु जो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का उपाय है, उसे मनुष्य नियम से अपनाता है, जैसे घटनिर्माण की इच्छावाला चक्र आदि को । इसी प्रकार मुनि भी मोक्ष का उपाय होने से अचेलता को स्वीकार करते हैं। और अचेलता ज्ञान दर्शन की तरह मुक्ति का उपाय है, यह जिनदेव के आचारण से सिद्ध है। " १० इन शब्दों से अपराजितसूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि जिनलिंग को अपनाये बिना मोक्ष नहीं हो सकता और उसे स्त्रियाँ अपना नहीं सकतीं, अतः वे मोक्ष की पात्र नहीं हैं। ५. इसी बात की पुनरावृत्ति वे निम्नलिखित शब्दों में करते हैं- " वस्त्रमात्र के परित्याग से कोई निर्ग्रन्थ नहीं होता । यदि ऐसा हो, तो तिर्यंच भी निर्ग्रन्थ कहलाने लगेंगे। वस्तुतः चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से जो भावनैर्ग्रन्थ्य प्रादुर्भूत ९. “चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ? वयमेव, न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मात्रं नाद्रियते मध्यस्थैः । " वि.टी./गा 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३ । १०. देखिए, पूर्व शीर्षक १ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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