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________________ १३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ I होता है, वही मोक्ष का उपाय है और भावनैर्ग्रन्थ्य का उपाय है दशविंध बाह्य ग्रन्थ (परिग्रह) का त्याग । ११ दशविध बाह्यपरिग्रह में वस्त्र भी सम्मिलित है, यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है।१२ इस कथन में पुनः वस्त्रत्याग को अनिवार्य बतलाकर अपराजितसूरि ने स्त्रियों के लिए मोक्ष का निषेध कर दिया है। ६. आगे तो वे एकदम स्पष्ट शब्दों में पुरुष शरीर को पूर्ण संयम का साधन निरूपित कर स्त्रीशरीर को संयम के अयोग्य घोषित कर देते हैं, जिसका तात्पर्य है स्त्रियों को मोक्ष के अयोग्य घोषित करना । अपराजितसूरि के निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य हैं "परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मान्तरे पुरुषतादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानम् । " (वि.टी. / गा. 'मरणाणि सत्तरस' २५ / पृ.५६) । अनुवाद - " परिपूर्ण संयम की आराधना करने की इच्छा से परभव पुरुषत्व आदि पाने की इच्छा करना प्रशस्तनिदान है ।" "संयमनिमित्तं पुरुषत्वमुत्साहः, बलं शरीरगतं दार्व्यं वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजः परिणामः। अस्थिबन्धविषयः वज्रर्षभनाराचसंहननादिः । एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानम् ।" (वि.टी./गा. 'संजमहेदुं पुरिसत्त' १२१०) । अनुवाद – “पुरुषत्व, उत्साह, बल (शरीरिक दृढ़ता ), वीर्य (वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न परिणाम) और अस्थिबन्धविषयक वज्रवृषभनाराचसंहनन आदि संयम के साधन हैं। ये पुरुषत्व आदि संयम के साधन मुझे प्राप्त हों, चित्त में ऐसा विचार करना प्रशस्तनिदान कहलाता है । " "पुरुषत्वादिनिदानमपि मोक्षाभिलाषिणो मुनयो न वाञ्छन्ति । यस्मात् पुरुषत्वादिरूपो भवपर्यायः । भवात्मकश्च संसारः भवपर्यायपरिवर्तस्वरूपत्वात् । " (वि.टी./गा. 'पुरिसत्तादिणिदाणं' १२१८ /पृ.६१६) । अनुवाद - मोक्ष के अभिलाषी मुनि 'मैं मरकर पुरुष होऊँ या मुझे वज्रवृषभनाराचसंहनन आदि प्राप्त हों' ऐसा भी निदान नहीं करते। क्योंकि पुरुष आदि पर्याय भवरूप है और भवपर्याय परिवर्तनस्वरूप होने से संसार भवमय है । " "पुरुषत्वादिकं संयमलाभश्च भविष्यति परजन्मनि । कस्य? कृतरत्नत्रयाराधनस्य निश्चयेन। तदर्थमकृतेऽपिनिदाने ।" (वि.टी./गा. 'पुरिसत्तादीणि' १२२०)। ११. देखिए, पादटिप्पणी ७ । १२.“कुप्यं वस्त्रं---।" वि. टी. / गा. 'बाहिरसंगा' १११३ / पृ.५७१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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