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________________ ३६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ भाष्य-ते जीवाः समासतो द्विविधा भवन्ति-संसारिणो मुक्ताश्च। (२/१०)। यहाँ भी 'संसारी' और 'मुक्त' शब्दों को अव्याख्यात ही छोड़ दिया गया। सूत्र-समनस्कामनस्काः । (२/११)। भाष्य-समासतस्ते जीवा द्विविधा भवन्ति-समनस्काश्च अमनस्काश्च। (२/१०)। यहाँ पूर्वसूत्र (२/१०) के ही भाष्यवाक्य को दुहरा दिया गया है और समनस्क, अमनस्क शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने की परवाह नहीं की गई। सूत्र-संसारिणस्त्रसस्थावराः। (२/१२)। भाष्य-संसारिणो जीवा द्विविधा भवन्ति वसा: स्थावराश्च। (२/१२)। यहाँ त्रसनामकर्म और स्थावरनामकर्म के आधार पर त्रस और स्थावर शब्दों की व्याख्या की जाती, तो भाष्य नाम सार्थक होता। सूत्र-अनुश्रेणिगतिः। (२/२७)। भाष्य-सर्वा गतिर्जीवानां पुद्गलानां चाकाशप्रदेशानुश्रेणिर्भवति। विश्रेणिर्न भवतीति गतिनियम इति। (२/२७)। यहाँ 'श्रेणी' का अर्थ समझ न पाने के कारण पाठक सूत्र का अर्थ कैसे समझ पायेगा, इस ओर भाष्यकार का ध्यान नहीं गया। सूत्र-मूर्छा परिग्रहः। (७/१२)। भाष्य-चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्धय मूर्च्छत्यनान्तरम्। (७/१२)। यहाँ भी भाष्यकार ने 'मूर्छा' शब्द की व्याख्या में रुचि नहीं दर्शायी। यद्यपि मूर्छा के सभी पर्यायवाचियों का उल्लेख उन्होंने कर दिया है, तथापि श्वेताम्बरमतसम्मत वह व्याख्या नहीं की, जिसके अनुसार वस्त्र-पात्रादि रखते हुए भी श्रमण और श्रमणी अपरिग्रही या निर्ग्रन्थ कहला सकते हैं। मूर्छा शब्द का जो इच्छा-प्रार्थना-रूप अर्थ है, उससे तो वस्त्र-पात्रादि की इच्छा या याचना भी परिग्रह सिद्ध होती है, जिसके Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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