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________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३६७ अनुसार दिगम्बर मुनि ही अपरिग्रही या निर्ग्रन्थ कहला सकता है। इसका निषेध करने के लिए भाष्यकार कम से कम दशवैकालिकसूत्र की निम्नलिखित गाथाओं को तो उद्धृत कर ही सकते थे जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलजट्ठा धारंति परिहरंति य॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइिणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ किन्तु उन्होंने न तो इन गाथाओं को उद्धृत किया, न ही इनका भावार्थ अपने शब्दों में प्रस्तुत किया। इससे सिद्ध है कि भाष्यकार को महत्त्वपूर्ण सूत्रों की भी व्याख्या करने में रुचि नहीं थी। यही भाष्य के संक्षिप्त होने का कारण है। इसी प्रकार परीषहसूत्र (९/९) में वर्णित बाईस परीषहों में से एक भी परीषह का लक्षण नहीं बतलाया। नाग्न्य तक की लोकरूढ़नाग्न्य अथवा मुख्यनाग्न्य और उपचरितनाग्न्य रूप से व्याख्या नहीं की। भाष्यकार ने 'तत्त्वार्थ' के सूत्रों में आये अन्य अनेक शब्दों की भी व्याख्या नहीं की है, जैसे औदारिक आदि शरीरों की, गर्भ, सम्मूर्च्छन आदि जन्मों की। लेश्या, प्रदोष, निह्नव, आसादन, दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, परिदेवन, अवर्णवाद, आरम्भ, माया, दर्शनविशुद्धि, प्रमत्त, इत्वर, पुद्गलक्षेप, आदि अनेक शब्द व्याख्या से वंचित रह गये हैं। वस्तुतः भाष्यकार अपने ग्रन्थ का कलेवर अतिसंक्षिप्त रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने जानबूझकर ऐसा किया है। डॉ० सागरमल जी ने भी यह बात स्वीकार की है। वे लिखते हैं-"यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तत्त्वार्थ मूल और उसके भाष्य दोनों की शैली सूत्रशैली है और सूत्रशैली में अनावश्यक विस्तार से बचना होता है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३४१)। वस्तुतः भाष्यकार अनावश्यक विस्तार से ही नहीं, आवश्यक विस्तार से भी बचे हैं। यही कारण है कि उन्होंने गुणस्थानानुसार कर्मों के आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा के विवेचन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य से भी परहेज किया है। डॉ० सागरमल जी का यह कथन समीचीन नहीं है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखे जाने तक गुणस्थानसिद्धान्त पूर्णरूप से विकसित नहीं हुआ था, इसलिए भाष्य में उसकी चर्चा नहीं हुई। (जै.ध.या.स./ पृ. २४८)। आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना के पूर्व गुणस्थान-सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित रूप में मौजूद था। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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