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________________ ३६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ में गुणस्थानों के अनुसार बाईस परीषहों और चतुर्विध ध्यानों का स्वामित्व निरूपित किया गया है। तदनुसार भाष्य में भी उसका उल्लेख हुआ है। फर्क सिर्फ यह है कि भाष्यकार ने गुणस्थानों के अनुसार कर्मों के आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा का विवेचन नहीं किया। इसके दो ही कारण हैं-विस्तारभय और रुचि का अभाव। इनमें रुचि का अभाव मुख्य कारण है। और उसका कारण यह है कि गुणस्थानसिद्धान्त श्वेताम्बर मान्यताओं के प्रतिकूल है। अतः सर्वार्थसिद्धि के उपस्थित रहते हुए भी भाष्यकार ने गुणस्थानानुसार विवेचन का अनुकरण नहीं किया। ग्रन्थकार की रुचि पूर्ववर्ती ग्रन्थ से किसी विषय के ग्रहण या अग्रहण का महत्त्वपूर्ण हेतु होती है। इसे डॉक्टर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है। सर्वार्थसिद्धि की रचना तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से पूर्व हुई थी, यह पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है। उसमें "वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य" (त.सू.५/२२) सूत्र की टीका (पृ.२२३) में पूज्यपाद स्वामी ने परत्वापरत्व के दो भेद माने हैं-क्षेत्रकृत और कालकृत। किन्तु भाष्य (पृ. २६७) में एक अतिरिक्त भेद भी माना गया है प्रशंसा-कृत। इससे स्पष्ट होता है कि भाष्य में अर्थविकास हुआ है, फलस्वरूप वह सर्वार्थ-सिद्धि के बाद रचित सिद्ध होता हैं। किन्तु डॉ० सागरमल जी सर्वार्थसिद्धि को भाष्य के बाद रचित सिद्ध करना चाहते हैं। अतः उन्होंने तर्क दिया है कि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य का अनुकरण किया है, किन्तु परत्वापरत्व का प्रशंसाकृत भेद स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह उनकी रुचि का प्रश्न था। वे लिखते हैं-"सर्वार्थसिद्धि भाष्य की अपेक्षा विचार और भाषा दोनों ही दृष्टि से अधिक विकसित है। परत्व और अपरत्व के भेदों की चर्चा में क्षेत्र और काल के अतिरिक्त प्रशंसा को उसका एक भेद मानना अथवा नहीं मानना यह पूज्यपाद की व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न भी हो सकता है। सम्भवतः पूज्यपाद ने भाष्य के सम्मुख होते हुए भी उसे स्वीकार न किया हो, किन्तु आगे अकलंक ने अपने वार्तिक में उसका अनुसरण किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३०३)। इस प्रकार डॉक्टर साहब किसी ग्रन्थ से कुछ लेने या न लेने को लेखक की रुचि का प्रश्न मानते हैं। मेरा भी यही कहना है कि सर्वार्थसिद्धि भाष्यकार के समक्ष मौजूद थी। उन्होंने उसमें से वह विषय तो ग्रहण कर लिया जो उनकी रुचि के अनुकूल था, किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि वह उनकी रुचि के अनुकूल नहीं था। इसीलिए प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या में उसकी चर्चा नहीं की गयी। निष्कर्ष यह कि भाष्यकार ने अनेक सूत्रों के नीचे जो एक-दो वाक्य लिखे हैं, वे व्याख्या की परिभाषा में नहीं आते, अतः व्याख्या के अभाव को व्याख्याग्रन्थ के अविकसित होने का उदाहरण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्याख्या के अभाव Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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