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________________ ३६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ गया है। जैसे-"अणुभागाश्चारा अंशाः कला लवा नालिका मुहूर्ता दिवसा रात्रयः पक्षा मासा ऋतवोऽयनानि संवत्सरा युगमिति लौकिकसमो विभागः। पुनरन्यो विकल्पः प्रत्युत्पन्नोऽतीतोऽनागत इति त्रिविधः। पुनस्त्रिविधः परिभाष्यते संख्येयोऽसंख्येयोऽनन्त इति।" (४/१५/पृ. २०९)। इससे तो ऐसा लगता है जैसे सर्वार्थसिद्धि का उपर्युक्त वाक्य सूत्र हो और भाष्यकार द्वारा दिया गया विवरण उसका भाष्य हो। . ११. "गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः" (४/२२) सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में केवल 'गति' आदि की दृष्टि से ही ऊपर के विमानवासियों को नीचे-नीचे के विमानवासियों से हीन बतलाया गया है, किन्तु भाष्य (पृ.२२५) में उच्छ्वास, आहार, वेदना, उपपात और अनुभाव की अपेक्षा भी हीन प्रतिपादित किया गया है। यह भी कहा गया है कि सभी इन्द्र और ग्रैवेयकादि के देव भगवान् के जन्म, अभिषेक, निष्क्रमण, ज्ञानोत्पत्ति, महासमवसरण और निर्वाण के समय वहाँ जाते हैं और भगवान् की विभिन्न प्रकार से पूजा करते हैं। यह वर्णन सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। यह भी भाष्य में हुए अर्थविस्तार का प्रमाण है। १२. "दर्शनचारित्रमोहनीय---" (८/९) सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के सम्यग्दर्शनादिघातक स्वरूप का वर्णन नहीं है, न ही क्रोधादिकषायों के तीव्र, मध्य, विमध्य एवं मन्द स्वरूप का द्योतन करनेवाली पर्वतराजि, भूराजि आदि उपमाओं का सोदाहरण विवेचन है, किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (८/१०/ पृ. ३५९-३६०) में है। क्रोध, मान, माया और लोभ के जो नामान्तर भाष्य में बतलाये गये हैं, वे भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। यह अर्थविस्तार का उदाहरण है। १३. "गतिजातिशरीर --" (८/१२) इत्यादि सूत्र के भाष्य (पृ. ३६७) में पर्याप्तियाँ क्रमशः किस प्रकार पूर्ण होती हैं, इसका सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा निरूपण किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में अनुपलब्ध है। इसमें (पृ. ३६६ पर) पृथिवी आदि के शुद्धपृथिवी, शर्करा, बालुका आदि भेदों का भी वर्णन है, जो सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। १४. "उच्चैर्नीचैश्च" (८/१३) के भाष्य में नीचगोत्रवाली जातियों के नाम बतलाये गये हैं, जैसे चाण्डाल, नट, व्याध, धीवर, दास्य आदि। सर्वार्थसिद्धि में इनका वर्णन नहीं है। १५. "उत्तमक्षमामार्दव---" (९/६) इत्यादि सूत्र के भाष्य (पृ. ३८४-३८५) में न केवल क्षमा आदि के पर्यायवाचियों का वर्णन है, अपितु क्षमा धारण करने के लिए क्या-क्या चिन्तन करना चाहिए इसका भी विस्तार से विवेचन किया गया है। सर्वार्थसिद्धि में इसका अभाव है। संयम के सत्रह भेद (पृ. ३९०), प्रकीर्णक तप के अनेक भेद (पृ. ३९१) और आचार्य के पाँच भेद (पृ. ३९१-३९२) भी भाष्य में बतलाये गये हैं। ये भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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