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________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३५९ मधिकृत्य दर्शितम् । निश्चयतस्तु प्रतिसमयमुत्पादादिमत् । ' ( ५ / २९ / पृ.२७८) । तथा समुदायव्यक्त्याकृतिसत्तासंज्ञादि निश्चयापेक्षम् । लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृतं विद्यात् ॥ ३ ॥ ( १ / ३५) इस निश्चय - व्यवहाराश्रित प्रतिपादन से भी भाष्य में अर्थविकास सूचित होता है। ८. भवनवासी देवों की कुमार संज्ञा क्यों है, इसका स्पष्टीकरण सर्वार्थसिद्धि में "वेषभूषायुधयानवाहनक्रीडनादिकुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः" (४/१०), इस संक्षिप्त वाक्य में किया गया है। किन्तु भाष्य में कुमारों की वेषभूषा, आभूषण, रूप, गति, आलाप, श्रृंगारिकता, क्रीडा आदि का मनोहारी चित्रण किया गया है। यथा - " कुमारवदेते कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्बणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते ।" (४/११ / पृ.१९८) । इतना ही नहीं, दस प्रकार के भवनवासियों में से प्रत्येक के विशिष्ट रूपरंग, आकृति, मुकुट और चिह्न आदि का भी वर्णन किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में अनुपलब्ध है । यह अर्थविस्तार का स्पष्ट प्रमाण है । ..इसी प्रकार " व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुष---" (४/११), इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में "तेषां व्यन्तराणामष्टौ विकल्पाः किन्नरादयो वेदितव्याः " केवल यह कहा गया है, उन आठ विकल्पों (भेदों) के नाम नहीं बतलाये गये हैं, जब कि भाष्य में उन आठों के नाम तो बतलाये ही गये हैं, आठों में से प्रत्येक के क्रमशः १०+१०+१०+१२+१३+७+९+१५ उपभेद भी वर्णित किये गये हैं और उनके अलगअलग नाम भी गिनाये गये हैं । अर्थात् व्यन्तरों के ८६ नामों का उल्लेख भाष्य में किया गया है। साथ ही उनकी मुखाकृति, रूप-रंग, आभूषण और ध्वजाओं का भी वर्णन है। यह सब सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। अतः यह भाष्य में हुए अर्थविस्तार का पुख्ता सबूत है। ९. " कृमिपिपीलिका ---" (२/२४) सूत्र के भाष्य में द्वीन्द्रियादि जीवों के नामों का वर्णन सर्वार्थसिद्धि को पीछे छोड़ देता है । "जराय्वण्डपोतजानां गर्भः " (२/३४) सूत्र के भाष्य में जरायुज आदि जीवों के नामों का जो वर्णन किया गया है, वह भी सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध नहीं है । १०. " तत्कृतः कालविभागः " ( ४ / १४ ) की सर्वार्थसिद्धिटीका में "कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च । व्यावहारिकः कालविभागस्तत्कृतः समयावलिकादिः " केवल यह कहा गया है, जबकि भाष्य में उसका अनेक प्रकार से विभाजन किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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