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________________ ३५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ और कालकृत।१४३ भाष्यकार ने इनमें प्रशंसाकृत भेद भी जोड़ दिया है,१४४ जो अर्थविकास का उदाहरण है। ___३. सर्वार्थसिद्धि में सम्यग्दर्शनी नाम का कोई भेद नहीं है। भाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि ये दो भेद मिलते हैं।१४५ यह अर्थविकास का स्पष्ट प्रमाण है। ___ ४. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अशुचित्वानुप्रेक्षा के अन्तर्गत शरीरविज्ञान का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है, वह सर्वार्थसिद्धि में ढूँढ़े नहीं मिलता, जबकि पूज्यपाद स्वामी ने चिकित्साशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखा था। कवलाहार से किस प्रकार रक्त, मांस, मेदस्, अस्थियाँ, मज्जा, शुक्र आदि निर्मित होते हैं, इसका भाष्यकार ने सूक्ष्म वर्णन किया है। गर्भाधान किस प्रकार होता है, और उसके होने पर किस-किस अवस्था को प्राप्त होकर शरीर विकसित होता है, इसका भी वैज्ञानिक निरूपण भाष्यकार की लेखनी से हुआ है। (९/७/पृ. ३९७-३९८)। भाष्य का यह अर्थविस्तार सर्वार्थसिद्धि को बहुत पीछे छोड़ देता है। ५. भाष्य में नैगमनय के दो भेद किये गये हैं-देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी। (१/३५/पृ.६१)। सत् के चार भेद बतलाये गये हैं-द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक। (५/३१ / पृ. २८२) पूर्वभावप्रज्ञापनीयनय के दो भेद वर्णित हैं-अनन्तरपश्चात्कृतिक और परम्परापश्चात्कृतिक। (१०/७/पृ. ४४९) इन भेदों का सर्वार्थसिद्धि में नामोनिशाँ भी नहीं है। इससे सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थ का विकास हुआ है। ६. भाष्य में अगारी और अनगारी की व्याख्या श्रावक और श्रमण शब्दों से की गई है (७/१४) जो सर्वार्थसिद्धि में नहीं है। निर्ग्रन्थी, प्रवर्तिनी (तत्त्वा.भाष्य। ९/२४) और श्रमणी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है-"श्रमण्यपगतवेदः--- न संह्रियन्ते।" (तत्त्वा. भाष्य/१०/७/पृ. ४४६)। इनका भी सर्वार्थसिद्धि में अभाव है। अधिगम को 'सम्यग्व्यायाम' (१/७/पृ. २६) कहा गया है, जो बौद्धदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। यह भी सर्वार्थसिद्धि में नहीं मिलता। अतः ये अर्थविकास के उदाहरण हैं। ७. सर्वार्थसिद्धि में निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा भी प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु भाष्य में किया गया है-"एवमेतद् व्यवहारतः तथा मनुष्यादिस्थितिद्रव्य १४३. "परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः।" सर्वार्थसिद्धि ५/२२/५६९ / पृ. २२३। १४४. “परत्वापरत्वे त्रिविधे-प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/२२ / पृ. २६७। १४५. "तस्मान्न केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु।" वही १/८/ पृ. ३१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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