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________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३५७ पर्याय शब्दों का समूह उपस्थित कर, नयवाद के द्वारा समन्वय स्थापित कर, दृष्टान्तों के द्वारा भाव को स्पष्ट कर, नय आदि के नये भेद वर्णित कर, अर्थ को विस्तार प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त ऐसे नये विषयों और अवधारणाओं को भाष्य में सम्मिलित किया गया है, जो सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध नहीं होते। उदाहरणार्थ. १. पूर्व में आस्रवानुप्रेक्षा के दो अंश उद्धृत किये गये हैं। उनमें हम पाते हैं कि "आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादयः" सर्वार्थसिद्धि (९/७/८०५/पृ. ३२७) के इस वाक्य में भाष्यकार ने 'अकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतान्' (९/७/पृ. ४००) यह विशेषण जोड़कर तथा विभक्तियाँ बदलकर "आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान् महानदी-स्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्गमद्वारभूतान् इन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत्" इस रूप में वाक्य का विस्तार किया है। तथा "तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगज-वायस-पन्नग-पतङ्ग-हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति" सर्वार्थसिद्धि के इस वाक्य को उक्त प्राणियों की स्वाभाविक विशेषताओं और इन्द्रियसुख के लिए की जानेवाली क्रियाओं का तथा तज्जन्य दुःखों का सोदाहरण वर्णन कर ग्यारह वाक्यों में विस्तीर्ण कर दिया है। ' इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में संसारानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए सम्बन्धपरिवर्तन के निम्नलिखित. उदाहरण दिये गये हैं-"पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति।---स्वयमात्मनः पुत्रो भवति।---" (९/७/८०१/पृ. ३२५)। भाष्यकार ने इसमें निम्नलिखित उदाहरण और जोड़कर अर्थविस्तार कर दिया है-"शत्रुर्भूत्वा मित्रं भवति, मित्रं भूत्वा शत्रुर्भवति। पुमान् भूत्वा स्त्री भवति, नपुंसकं च। स्त्री भूत्वा पुमान्नपुंसकं च भवति। नपुंसकं भूत्वा स्त्री पुमांश्च भवति।' (९/७/ पृ. ३९४)। और इसके बाद निम्नलिखित निष्कर्ष भी जोड़ा है-'एवं चतुरशीतियोनिप्रमुख-शतसहस्त्रेषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिरनिवृत्त-विषयतृष्णैरन्योन्य-भक्षणाभिघात-वधबन्धाभियोगाक्रोशादिजनितानि तीव्राणि दुःखानि प्राप्यन्ते। अहो द्वन्द्वारामः कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत्।' (९/७/पृ. ३९४)। यह निष्कर्ष जोड़कर अर्थ को और विस्तार प्रदान कर दिया है। अंत में सर्वार्थसिद्धि (९/७/८०१/पृ.३२५) के ये वाक्य कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ ज्यों के त्यों उद्धृत कर दिये हैं-"एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा।' (तत्त्वा. भाष्य/९/७ /पृ. ३९४)। २. सर्वार्थसिद्धि में परत्व और अपरत्व के दो भेद बतलाये गये हैं-क्षेत्रकृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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