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अ०१६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३६१ १६. "क्षेत्रकालगति---" (१०/७) इस सूत्र के भाष्य में "तत्र प्रमत्तसंयताः संयतासंयताश्च ---शेषा नया उभयभावं प्रज्ञापयन्तीति" (पृ.४४६) यह अंश सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक है। गतिसिद्ध की अपेक्षा पूर्वभावप्रज्ञापननय (पृ.४४८) के तीन भेद किये गये हैं। सर्वार्थसिद्धि में अल्पबहुत्व का वर्णन केवल क्षेत्र की अपेक्षा किया गया है और आगे कहा गया है ‘एवं कालादिविभागेऽपि यथागममल्पबहुत्वं वेदितव्यम्' (१०/९ / पृ. ३७५)। किन्तु भाष्य (१०/७) में काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर आदि की अपेक्षा विस्तार से वर्णन किया गया है। (पृ. ४४५-४५९) इसके अतिरिक्त आदि के दो शुक्लध्यानों से प्राप्त होनेवाली आमीषधि, सौषधि, शाप, अनुग्रह आदि ऋद्धियों का भी विस्तार से निरूपण है। (पृ. ४५९-४६२)।
१७. सर्वार्थसिद्धि में वस्त्रपात्रादि देकर साधु का उपकार करने की आज्ञा नहीं दी गई है, जबकि भाष्य में दी गई है। (९/२४) सर्वार्थसिद्धि में तीर्थकरी की अवधारणा भी नहीं है, किन्तु भाष्य में है (१०/७/पृ. ४४९)। ये सब सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थविस्तार होने के उदाहरण हैं।
१८. भाष्यकार ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाते हुए कहा है कि कुछ लोग नयवाद की अपेक्षा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम, ये चार प्रमाण भी मानते हैं।१४६ उन्होंने इन सब को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में गर्भित बतलाया है, क्योंकि इन सब में इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष निमित्त होता है। किन्तु मिथ्यादर्शन से संयुक्त होने के कारण उन्होंने इन्हें अप्रमाण भी माना है१४७ और आगे चलकर शब्दनय की अपेक्षा इन चारों को प्रमाण भी सिद्ध किया है। वे कहते हैं कि सब जीव ज्ञानस्वभाव हैं, अतः शब्दनय की दृष्टि में कोई भी जीव मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी नहीं है। इसलिए विपरीत ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध न होने से प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान
१४६. "तत्र प्रमाणं द्विविधं परोक्षं प्रत्यक्षं च वक्ष्यते। चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण।" तत्त्वार्थाधि
गमभाष्य/१/६। १४७.क-"अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि च प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेत
दिति? अत्रोच्यते सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात्। किं चान्यत् अप्रमाणान्येव वा। कुतः? मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतोपदेशाच्च। मिथ्यादृष्टेर्हि मतिश्रुतावधयो नियतमज्ञानमेवेति वक्ष्यते। नयवादान्तरेण तु यथा मतिश्रुतविकल्पजानि
भवन्ति तथा परस्ताद् वक्ष्यामः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/१२। ख-"यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनैः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते स्वविषयनियमात् न च
ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादा इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५।
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