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________________ ३६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ और आप्तवचन प्रमाण सिद्ध होते हैं।१४८ इस प्रकार जैनदर्शन में मान्य मतिज्ञानादि प्रमाणों के साथ जैनेतर दर्शनों में मान्य प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों का भाष्यकार ने नयवाद के द्वारा समन्वय करने का प्रयत्न किया है। यह सर्वथा नवीन प्रयास है, जो भाष्यकार के पहले किसी ने नहीं किया। पं० सुखलाल जी संघवी इसका श्रेय उमास्वाति को ही देते हैं। वे 'जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम' नामक लेख में लिखते हैं "आगम में मूल ज्ञान के मति, श्रुत आदि ऐसे पाँच विभाग हैं। उसी प्रकार प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो, और प्रत्यक्ष, अनुमान आदि ऐसे चार भी हैं। उनमें कोई विरोध है कि नहीं? और यदि नहीं, तो इसका समन्वय किस प्रकार? यह प्रश्न उठने लगा। इसका उत्तर देने का प्रथम प्रयास वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में हुआ जान पड़ता है।।१४९ यह प्रयास सर्वार्थसिद्धि में नहीं किया गया, भाष्य में किया गया है। यह सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में अर्थ-विकास होने का ऐसा प्रमाण है, जिसे पं० सुखलालजी ने स्वयं स्वीकार किया है और उसे जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम नामक उपर्युक्त लेख में प्रकाशित किया है। अतः उनके ही शब्दों से भाष्य की अर्वाचीनता और सर्वार्थसिद्धि की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। अतः सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए संघवी जी द्वारा बतलाया गया अर्थविस्तार का हेतु असत्य है। __डॉ० सागरमल जी ने पृष्ठसंख्या या पंक्तिसंख्या की न्यूनाधिकता के आधार पर अर्थ का विस्तार या अविस्तार माना है। वे लिखते हैं-"सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान और मार्गणास्थान का अत्यधिक विकसित और विस्तृत विवरण उपलब्ध है। सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय के ८वें सूत्र की व्याख्या में लगभग सत्तर पृष्ठों में गुणस्थान और मार्गणास्थान की चर्चा की गई है, जबकि तत्त्वार्थभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्णतः अभाव है। उसमें प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या केवल दो पृष्ठों में समाप्त हो गई है। मार्गणा के रूप में मात्र गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय आदि का नामोल्लेख १४८. "शब्दनयस्तु द्वे एव श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते। अत्राह कस्मान्नेतराणि श्रयते इति? अत्रो च्यते-मत्यवधिमन:पर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकत्वात्। चेतनाज्ञस्वाभाव्याच्च सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते, तस्मादपि विपर्ययान्न श्रयत इति। अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमनुज्ञायत इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/३५ / पृ.७१-७२। १४९. 'जैनों की प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम'/अनेकान्त (मासिक)/वर्ष १/किरण ५/ चैत्र संवत् १९८६ / पृष्ठ २६४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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