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________________ , अ०२४ ७६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ . दिगम्बरपक्ष - यह हेतु समीचीन नहीं है, यह साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, क्योंकि 'श्रमणी', 'संयती' और 'विरती' शब्दों का प्रयोग दिगम्बरग्रन्थों में भी किया गया है। तथा श्रमणियों के लिए जो पर्यायछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है, उससे सिद्ध होता है कि 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में श्रमणियों को साधना की दृष्टि से श्रमणों के तुल्य स्वीकार नहीं किया गया है। यह उनके तद्भवमुक्ति-योग्य न होने की घोषणा है। २ काणूगण दिगम्बरसंघ का गण यापनीयपक्ष कन्नड़ कवि जन्न (१२१९ ई०) के अनन्तनाथपुराण के 'वंद्यर जटासिंह णंद्याचार्यादीन्द्रणंद्याचार्यादि मुनिकाणूर्ग णंद्यपृथिवियोलगेल्लं' (१/७) इस श्लोक में जटासिंहनन्दी (वरांगचरितकर्ता) और इन्द्रनन्दी को काणूगण का बतलाया गया है। 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने काणूगण को यापनीयसंघ का गण मानकर उक्त दोनों ग्रन्थकारों को यापनीयसंघ से सम्बद्ध माना है और काणूगण के उक्त इन्द्रनन्दी को 'छेदपिण्ड' का कर्ता बतलाकर उसे यापनीयग्रन्थ प्ररूपित किया है। (जै.ध. या. स./पृ. १४५)। दिगम्बरपक्ष प्रस्तुत ग्रन्थ के 'वरांगचरित' अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि 'वरांगचरित' के कर्ता जटासिंहनन्दी दिगम्बर थे, इसलिए उनका काणूगण भी दिगम्बरसंघ से सम्बद्ध था। इसके अतिरिक्त यापनीयसंघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय (प्र.३ / शी.४) में भी सप्रमाण दर्शाया जा चुका है कि काणूगण दिगम्बरसंघ के ही अन्तर्गत था, न कि यापनीयसंघ के। यापनीयसंघ के अन्तर्गत 'कण्डूगण' था। यापनीयपक्षधर ग्रन्थकारों ने भ्रान्तिवश दोनों को एक मान लिया है। यतः काणूगण दिगम्बरसंघ का गण था, अतः उक्त गण से सम्बद्ध इन्द्रनन्दी भी दिगम्बर थे। इसलिए उनके द्वारा रचित 'छेदपिण्ड' दिगम्बरग्रन्थ ही है, यह स्वत:सिद्ध होता है। ४. देखिए, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'मूलाचार' नामक पञ्चदश अध्याय। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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