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________________ ७२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२२/प्र०२ आचार्य प्रभव का उल्लेख यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं यापनीयपक्ष जिन आचार्यों की परम्परा से स्वयंभू को रामकथा प्राप्त हुई है, उनमें श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य प्रभव का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इससे वे श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयसंघी सिद्ध होते हैं। (या.औ. उ.सा./पृ.१५६)। दिगम्बरपक्ष पद्मपुराण के अध्याय (१९) में बतलाया गया है कि रविषेण ने पद्मपुराण (पद्मचरित) की रचना श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के 'पउमचरिय' के आधार पर की है, अतः उन्होंने भूल से आचार्य प्रभव का भी उल्लेख कर दिया है। और स्वयंभू को रामकथा की प्राप्ति रविषेण से हुई है, अतः उन्होंने रविषेण का अनुकरण कर आचार्य प्रभव का नाम रख दिया है। किन्तु इससे वे यापनीय सिद्ध नहीं होते, क्योंकि उन्होंने पउमचरिउ में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इससे सिद्ध है कि 'प्रभव स्वामी' का उल्लेख 'पउमचरिउ' के यापनीयग्रन्थ एवं स्वयम्भू के यापनीय होने का हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरीय मान्यता भी यापनीयपक्ष स्वयंभू ने भगवान् के चलने पर पैरों के नीचे देवनिर्मित कमलों के रखे जाने को एक अतिशय बताया है-पण्णारहकमलायत्त-पाउ (१,७/४)। यह भी श्वेताम्बर मान्यता है। (या.औ.उ.सा./पृ.१५७)। दिगम्बरपक्ष आचार्य समन्तभद्रकृत स्वयम्भूस्तोत्र का निम्न पद्य दर्शनीय है नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं, सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। पादाम्बुजैः पातितमारदो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै॥ २९॥ अनुवाद- "हे पद्मप्रभ जिन! आपने कामदेव को चूर-चूर किया है और सहस्रदल कमलों के मध्यभाग पर चलनेवाले आपने चरणकमलों के द्वारा नभस्तल को पल्लवों से व्याप्त जैसा करते हुए प्रजा की विभूति के लिए भूतल पर विहार किया है।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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