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________________ अ० २२ / प्र० २ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२९ दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने इस पद्य में भगवान् को कमलों पर चलनेवाला बतलाया है। आचार्य वसुनन्दी ने भी 'देवागमन भोयान' इस आप्तमीमांसा के प्रथम श्लोक की टीका में कहा है- "नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं नभोयानम्" अर्थात् भगवान् का आकाश में स्वर्णकमलों के ऊपर गमन करना नभोयान कहलाता है। (समन्तभद्रग्रन्थावली / पृ. ४) इस प्रकार भगवान् का देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरों में भी मान्य है । अतः उसे केवल श्वेताम्बरीय मान्यता कहना असत्य है। इसलिए पउमचरिउ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया यह हेतु यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म न होने से हेत्वाभास है । मागधीभाषा में उपदेश दिगम्बरपरम्परा में भी मान्य यापनीयपक्ष "तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपदेश देना श्वेताम्बर मान्यता ही कही जा सकती है। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार समवशरण में तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्वभाषारूप होती है ।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १५७) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भगवान् के चौंतीस अतिशयों में से १० जन्मगत, ११ केवलज्ञानजन्य और १३ देवकृत बतलाये गये हैं, जिनमें केवलज्ञानजन्य अतिशयों में ११वाँ अतिशय अठारह महाभाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि है। (ति प.४/९०५-९२३) । किन्तु श्रुतसागरसूरि ने आचार्य कुन्दकुन्दकृत दंसणपाहुड (गाथा ३५) की टीका में लिखा है कि भगवान् के चौंतीस अतिशयों में से १० जन्मजात, १० घातिकर्मक्षय- जात और १४ देवोपनीत होते हैं। इनमें देवोपनीत चौदह अतिशयों में पहला अतिशय सर्वार्धमागधी भाषा है । सर्वार्धमागधी भाषा का अर्थ बतलाते हुए श्रुतसागरसूरि कहते हैं कि दिव्यध्वनि का अर्धभाग तो भगवान् की भाषा का होता है, जो मगधदेश की भाषा होती है और आधा भाग समस्त भाषाओं का होता है, इसलिए भगवान् की भाषा को सर्वार्धमागधी भाषा कहते हैं। भाषा में उक्त प्रकार का परिणमन मगधदेवों के सन्निधान से होता है, इसलिए उसे देवोपनीत कहना युक्तिसंगत है । १८ १८. “देवोपनीताश्चतुर्दशातिशया:, तथाहि - सर्वार्धमागधीका भाषा कोऽयमर्थः ? अर्द्ध भगवद्भाषा मगधदेशभाषात्मकम्। अर्द्ध च सर्वभाषात्मकम् । कथमेवं देवोपनीतत्वं चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते ।" श्रुतसागरटीका / दंसणपाहुड / गाथा ३५/ पृ. ५६-५७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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