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अ०२०/प्र०१
वराङ्गचरित / ६६९ ३. वरांगचरित में चौदह गुणस्थानों का कथन है जिसका तात्पर्य यह है कि उसके अनुसार अयोगकेवली गुणस्थान के अन्त में ही मोक्ष की प्राप्ति मान्य की गई है। यह सिद्धान्त भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत अन्यलिंगियों और गृहस्थों की मुक्ति मानने के कारण मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान और संयतासंयत-गुणस्थान में भी मुक्ति स्वीकार करता है।
४. वरांगचरित में प्रथम अनुयोग के लिए दिगम्बरमत के अनुसार प्रथमानुयोगः नाम का ही प्रयोग किया गया है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में धर्मकथानुयोग शब्द का प्रयोग मिलता है।
५. वरांगचरित में वेदत्रय की स्वीकृति है। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि पाल्यकीर्ति शाकटायन ने केवल एक ही वेदसामान्य स्वीकार किया है। इसका कारण यह है कि वेदत्रय का सिद्धान्त यापनीयों के स्त्रीमुक्ति-सिद्धान्त में बाधक है। इसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के अध्याय में किया जा चुका है।
वरांगचरित में मान्य ये सभी सिद्धान्त यापनीयमत के विरुद्ध हैं। ये दिगम्बरग्रन्थ के लक्षण और यापनीयग्रन्थ के प्रतिलक्षण हैं। इन लक्षण और प्रतिलक्षणरूप नेत्रों से देखने पर स्पष्टतः दिखाई देता है कि वरांगचरित यापनीय आचार्य की नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य की कृति है और उसके कर्ता जटासिंहनन्दी दिगम्बर हैं। .
५. स्थानानि जीवस्य चतुर्दशानि तथैव हि स्थातुचरिष्णुतां च।
सम्यक्त्वमिथ्यात्वविमिश्रितत्वं शशंस सम्यक्सफलं यतिभ्यः॥ ३०/४॥ वरांगचरित। ६. ततो नरेन्द्रः प्रथमानुयोगं प्रारब्धवान् संसदि वक्तुमुच्चैः।
सभा पुनस्तस्य वचोऽनुरूपं शुश्रूषयामावहिता बभूव ॥ २७/१॥ वरांगचरित।
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