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द्वितीय प्रकरण
यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता
पूर्ववर्णित यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों के वरांगचरित में उपलब्ध होने से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब या तो असत्य साबित होते हैं या हेत्वाभास । उन हेतुओं का वर्णन नीचे किया जा रहा है और यह दर्शाया जा रहा है कि उनमें से कौन-सा असत्य है और कौन-सा हेत्वाभास । हेतु का उल्लेख यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे और उसकी असत्यता या हेत्वाभासता के निर्णायक प्रमाण दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे प्रदर्शित किये जा रहे हैं।
'श्रवण' या 'श्रमण' सचेलमुनि का वाचक नहीं
यापनीयपक्ष
उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने वरांगचरित में सवस्त्रमुक्ति का विधान सिद्ध करने के उद्देश्य से उसकी उक्तियों में स्वाभीष्ट अर्थ आरोपित करने हेतु विभिन्न युक्तियों आविष्कार का द्राविड़ प्राणायाम किया है। वरांगचरित में कहा गया है
आहारदानं मुनिपुङ्गवेभ्यो वस्त्रान्नदानं श्रवणायिकाभ्यः ।
किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्त्वा कृतार्थो नृपतिर्बभूव ॥ २३ / ९२ ॥
अनुवाद - " ( इन्द्रकूट जिनालय के निर्माण, जिनबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक एवं पूजन के बाद) राजा वरांग ने मुनिश्रेष्ठों को आहारदान किया, श्रावकों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान और आहारदान किया तथा दरिद्रों को किमिच्छकदान किया, और ऐसा करके उन्होंने अपने जीवन को सफल माना ।"
इस पर टिप्पणी करते हुए उपर्युक्त ग्रन्थलेखक कहते हैं - " वरांगचरित में श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान की चर्चा है । यह तथ्य दिगम्बरपरम्परा के विपरीत है। उसमें लिखा है कि 'वह नृपति मुनिपुंगवों को आहारदान, श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्र और अन्नदान तथा दरिद्रों को याचितदान ( किमिच्छदानं) देकर कृतार्थ हुआ' यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल श्लोक में जहाँ मुनिपुङ्गवों के लिए आहारदान का उल्लेख किया गया है, वहाँ श्रमण और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है। संभवतः यहाँ अचेल मुनियों के लिए ही 'मुनिपुङ्गव'
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