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________________ अ० २० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७१ शब्द का प्रयोग हुआ है और सचेल मुनि के लिए 'श्रमण'। भगवती-आराधना एवं उसकी अपराजित की टीका से यह स्पष्ट हो जाता है कि यापनीयपरम्परा में अपवादमार्ग में मुनि के लिए वस्त्र-पात्रग्रहण करने का निर्देश है। वस्त्रादि के सन्दर्भ में उपर्युक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दी और उनका वरांगचरित भी यापनीय / कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध रहा है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१९८-१९९)। ग्रन्थलेखक ने पाद-टिप्पणी में लिखा है-"ज्ञातव्य है कि मूल में प्रूफ की अशुद्धि से श्रमण के स्थान पर श्रवण छप गया है।" (पृ.१९९)। दिगम्बरपक्ष मान्य ग्रन्थ लेखक ने 'श्रवण' शब्द के प्रयोग को अशुद्ध बतलाकर जटासिंहनन्दी और पाणिनि दोनों को चुनौती दे दी है। वस्तुतः 'श्रवण' शब्द 'श्रावक' का पर्यायवाची है। पाणिनि के अनुसार श्रवणार्थक 'श्रु' धातु में कर्ता (श्रोता) के अर्थ में ‘ण्वुल्' और 'ल्युट्' दोनों प्रत्ययों का प्रयोग होता है और क्रमशः 'श्रावक' और 'श्रवण' रूप बनते हैं। 'कृत्यल्युटो बहुलम्' इस पाणिनिसूत्र के अनुसार ल्युट् प्रत्यय अनेक कारकों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः ल्युट्-प्रत्ययान्त 'श्रवण' शब्द को जटासिंहनन्दी ने श्रवणार्यिकाभ्यः में कर्ताकारक अर्थात् सुननेवाले (श्रावक) के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इसलिए वहाँ श्रावकों और आर्यिकाओं को वस्त्र और आहार का दान किया, यही अर्थ जटासिंहनन्दी को अभिप्रेत है। जिन श्रावकों को दान दिया था, वे वही हैं, जिन्होंने राजा वरांग के इन्द्रकूट जिनालय के निर्माण, जिनंबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक एवं पूजन में ब्रह्मचर्य का पालन कर, उपवास धारण कर पूजनसामग्री आदि को ले जाने का कार्य किया था (२३/३२-३३), तथा जिन्होंने स्नापकाचार्य (२३/६९) एवं गृहस्थाचार्य की भूमिका निभाई थी। (२३/८४-८८) इसलिए वहाँ प्रूफ की अशुद्धि बतलाकर 'श्रवण' शब्द के स्थान में स्वाभीष्ट 'श्रमण' शब्द आरोपित करना पहला छलवाद है, फिर श्रमण शब्द में स्वाभीष्ट 'सवस्त्रमुनि' अर्थ आरोपित करना दूसरा छलवाद है। सम्पूर्ण वरांगचरित में कहीं भी सवस्त्रमुनि को श्रमण नहीं कहा गया है। सर्वत्र श्रमण का लक्षण 'निर्ग्रन्थ', 'दिगम्बर', 'जातरूपग्राही' और 'निरस्तभूषः' शब्दों से ही प्रतिपादित किया गया है। तब किस प्रमाण के आधार पर 'श्रमण' शब्द से सचेलमुनि अर्थ ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त किया गया? अपनी प्रतिबद्ध मानसिकता के आधार पर स्वाभीष्ट मत के आरोपण द्वारा इतिहास को प्रदूषित करनेवाले निर्णय घोषित करना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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